शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)
शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....
"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम
मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे
कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे
मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे
दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे
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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।
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Friday, 31 May 2024
घृणा, ईर्ष्या, लालच और डींग हांकने जैसे दुष्ट गुणों को ख़त्म किया जाना चाहिए।
Thursday, 30 May 2024
खाना खाना एक पवित्र अनुष्ठान की तरह है
Wednesday, 29 May 2024
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
Tuesday, 28 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीरामभक्त विभीषण
महर्षि विश्रवा को असुर कन्या कैकसी के संयोग से तीन पुत्र हुए - रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण| विभीषण विश्रवा के सबसे छोटे पुत्र थे| बचपन से ही इनकी धर्माचरण में रुचि थी| ये भगवान् के परम भक्त थे| तीनों भाइयों ने बहुत दिनों तक कठोर तपस्या कर के श्री ब्रह्माजी को प्रसन्न किया| ब्रह्मा ने प्रकट होकर तीनों से वर माँगने के लिये कहा - रावण ने अपने महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के अनुसार श्रीब्रह्माजी से त्रैलोक्य विजयी होने का वरदान माँगा, कुम्भकर्ण ने छ: महीने की नींद माँगी और विभीषणने उनसे भगवद्भक्ति की याचना की| सबको यथायोग्य वरदान देकर श्रीब्रह्माजी अपने लोक पधारे| तपस्या से लौटने के बाद रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर से सोने की लंका पूरी को छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया और ब्रह्मा के वरदान के प्रभाव से त्रैलोक्य विजयी बना| ब्रह्माजी की सृष्टि में जितने भी शरीर धारी प्राणी थे, सभी रावण के वश में हो गये| विभीषण भी रावण के साथ लंका में रहने लगे|
रावण ने जब सीताजी का हरण किया, तब विभीषण ने परायी स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीताजी को श्रीराम को लौटा देने की उसे सलाह दी| किन्तु रावण ने उस पर कोई ध्यान न दिया| श्रीहनुमान् जी सीता की खोज करते हुए लंका में आये| उन्होंने श्रीराम नाम से अंकित विभीषण का घर देखा| घर के चारों ओर तुलसी के वृक्ष लगे हुए थे| सूर्योदय के पूर्व का समय था, उसी समय श्रीराम-नाम का स्मरण करते हुए विभीषणजी की निद्रा भंग हुई| राक्षसों के नगर में श्रीराम भक्त को देखकर हनुमान् जी को आश्चर्य हुआ| दो राम भक्तों का परस्पर मिलन हुआ| श्रीहनुमान् जी का दर्शन करके विभीषण भाव विभोर हो गये| उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रीराम दूत के रूप में श्रीराम ने ही उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया है| श्रीहनुमान् जी ने उनसे पता पूछकर अशोक वाटिका में माता सीता का दर्शन किया| अशोक वाटिका-विध्वंस और अक्षय कुमार के वध के अपराध में रावण हनुमान् जी को प्राण दण्ड देना चाहता था| उस समय विभीषण ने ही उसे दूत को अवध्य बताकर हनुमान् जी को कोई और दण्ड देनेकी सलाह दी| रावण ने हनुमान् जी की पूँछ में आग लगाने की आज्ञा दी और विभीषण के मन्दिर को छोड़कर सम्पूर्ण लंका जलकर राख हो गयी|
भगवान् श्रीराम ने लंका पर चढ़ायी कर दी| विभीषण ने पुन: सीता को वापस कर के युद्ध की विभीषण को रोकने कि रावण से प्रार्थना की| इस पर रावण ने इन्हें लात मारकर निकाल दिया| ये श्रीराम के शरणागत हुए| रावण सपरिवार मारा गया| भगवान् श्रीराम ने विभीषण को लंका का नरेश बनाया और अजर-अमर होने का वरदान दिया| विभीषणजी सप्त चिरंजीवियों एक हैं और अभी तक विद्यमान हैं|
Monday, 27 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - रामभक्त श्रीहनुमान
श्रीहनुमान जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी, व्याकरण के महान पण्डित, ज्ञानि शिरोमणि, परम बुद्धिमान तथा भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त हैं| ये ग्यारहवें रुद्र कहे जाते हैं| भगवान शिव ही संसार को सेवा धर्म की शिक्षा प्रदान करने के लिये श्रीहनुमान के रूप में अवतरित हुए थे| वनराज केशरी और माता अञ्जनी को श्रीहनुमान जी का पिता-माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| भगवान शिव का अंश पवन देव के द्वारा अञ्जनी में स्थापित होने के कारण पवन देव को भी श्रीहनुमान जी का पिता कहा जाता है| जन्म के कुछ समय पश्चात श्रीहनुमान जी सूर्य को लाल-लाल फल समझकर उन्हें निगलने के लिये उनकी ओर दौड़े| उस दिन सूर्य-ग्रहण का समय था| राहु ने देखा कि मेरे स्थान पर आज कोई दूसरा सूर्य को पकड़ने आ रहा है, तब वह हनुमान जी की ओर चला| श्रीहनुमान जी उसकी ओर लपके, तब उसने डरकर इन्द्र से अपनी रक्षा के लिये पुकार की| इन्द्र ने श्रीहनुमान् जी पर वज्र का प्रहार किया, जिससे ये मूर्च्छित होकर गिर पड़े और इनकी हनु की हड्डी टेढ़ी हो गयी| पुत्र को मूर्च्छित देखकर वायु देव ने कुपित होकर अपनी गति बन्द कर दी| वायु के रुक जाने से सभी प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गये| अन्त में सभी देवताओं ने श्रीहनुमान जी को अग्नि, वायु, जल आदि से अभय होने के साथ अमरत्व का वरदान दिया| इन्होंने सूर्य नारायण से वेद, वेदाङ्ग प्रभृति समस्त शास्त्रों एवं कलाओं का अध्ययन किया| तदनन्तर सुग्रीव ने इन्हें अपना प्रमुख सचिव बना लिया और ये किष्किन्धा में सुग्रीव के साथ रहने लगे| जब बाली ने सुग्रीव को निकाल दिया, तब भी ये सुग्रीव के विपत्ति के साथी बनकर उनके साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे|
भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ अपनी पत्नी सीता जी को खोजते हुए ऋष्यमूक के पास आये| श्रीसुग्रीव के आदेश से श्रीहनुमान् जी विप्रवेश में उनका परिचय जानने के लिये गये| अपने स्वामी को पहचान कर ये भगवान श्रीराम के चरणों में गिर पड़े| श्रीराम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और श्रीकेशरी कुमार सर्वदा के लिये श्रीराम के दास हो गये| इन्हीं की कृपा से सुग्रीव को श्रीराम का मित्र होने का सौभाग्य मिला| बाली मारा गया और सुग्रीव किष्किन्धा के राजा बने|
सीता शोध, लंकिनी-वध, अशोक वाटिका में अक्षय कुमार-संहार, लंकादाह आदि अनेक कथाएँ श्रीहनुमान जी की प्रखर प्रतिभा और अनुपम शौर्य की साक्षी हैं| लंका युद्ध में इनका अद्भुत पराक्रम तथा इनकी वीरता सर्वोपरि रही| मेघनाद के द्वारा लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर इन्होंने संजीवनी लाकर उन्हें प्राण दान दिया| राक्षस इनकी हुंकार मात्र से काँप जाते थे| रावण की मृत्यु के बाद जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे, तब श्रीहनुमान जी ने ही श्रीराम के लौटने का शुभ समाचार श्रीभरतजी को सुनाकर उनके निराश जीवन में नवीन प्राणों का सञ्चार किया|
श्रीहनुमान जी विद्या, बुद्धि, ज्ञान तथा पराक्रमी की मूर्ति हैं| जब तक पृथ्वी पर श्रीराम कथा रहेगी, तब तक श्रीहनुमान जी को इस धरा-धाम पर रहने का श्रीराम से वरदान प्राप्त है| आज भी ये समय-समय पर श्रीराम भक्तों को दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ किया करते हैं|
Sunday, 26 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - भक्तिमति शबरी
शबरी का जन्म भीलकुल में हुआ था| वह भीलराज की एकमात्र कन्या थी| उसका विवाह एक पशुस्वभाव के क्रूर व्यक्ति से निश्चय हुआ| अपने विवाह के अवसर पर अनेक निरीह पशुओं को बलि के लिये लाया गया देखकर शबरी का हृदय दया से भर गया| उसके संस्कारों में दया, अहिंसा और भगवद्भक्ति थी| विवाह की रात्रि में शबरी पिता के अपयश की चिन्ता छोड़कर बिना किसी को बताये जंगल की ओर चल पड़ी| रात्रि भर वह जी-तोड़कर भागती रही और प्रात:काल महर्षि मतंग के आश्रम में पहुँची| त्रिकालदर्शी ऋषि ने उसे संस्कारी बालिका समझकर अपने आश्रम में स्थान दिया| उन्होंने शबरी को गुरुमन्त्र देकर नाम-जप की विधि भी समझायी|
महर्षि मतंग ने सामाजिक बहिष्कार स्वीकार किया, किन्तु शरणागता शबरी का त्याग नहीं किया| महर्षि का अन्त निकट था| उनके वियोग की कल्पना मात्र से शबरी व्याकुल हो गयी| महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया - 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना| प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे| प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है| वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं| शबरी का मन अप्रत्याशित आनन्द से भर गया और महर्षि की जीवन-लीला सम्पात हो गयी|
शबरी अब वृद्धा हो गयी थी| 'प्रभु आयेंगे' गुरुदेव की यह वाणी उसके कानों में गूँजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह कर्मकाण्डी ऋषियों के अनाचार शान्ति से सहती हुई अपनी साधना में लगी रही| वह नित्य भगवान् के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती| आखिर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई| अभी वह भगवान् के भोग के लिये मीठे-मीठे फलों को चखकर और उन्हें धोकर दोनों में सजा ही रही थी कि अचानक एक वृद्ध ने उसे सूचना दी - 'शबरी! तेरे राम भ्राता सहित आ रहे हैं|' वृद्ध के शब्दों ने शबरी में नवीन चेतना का संचार कर दिया| वह बिना लकुट लिये हड़बड़ी में भागी| श्रीराम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी| देह की सुध भूलकर वह श्रीराम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी| देह की सुध भूलकर वह श्रीराम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी| किसी तरह भगवान् श्रीराम ने उसे उठाया| अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी| कुटिया में पहुँचकर उसने भगवान् का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया| फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली - 'प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊँगी| खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो नारी जाति ही अधम है और मैं तो अन्त्यज, मूढ और गँवार हूँ| 'कहते-कहते शबरी की वाणी रुक गयी और उसके नेत्रों से अश्रुजल छलक पड़े|
श्रीराम ने कहा - 'बूढ़ी माँ! मैं तो एक भक्ति का ही नाता मानता हूँ| जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं| मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो|' शबरी भगवान् को फल खिलाती जाती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे| महर्षि मंतग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना| उसने भगवान् को सीता की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्रीराम के चरणों में लीन हो गयी| श्रीराम-भक्ति की अनुपम पात्र शबरी धन्य है|
Saturday, 25 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीशत्रुघ्न
जब श्रीभरत जी के मामा युधाजित् श्रीभरत जी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्रीशत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये| इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्रीभरत जी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था| भरत जी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, सीता सहित श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दुःख और शोक से व्याकुल हो गया| उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्रीराम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये| ये मन्थरा की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे| इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया| उसकी दशा देखकर श्रीभरत जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया| इस घटना से श्रीशत्रुघ्न जी की श्रीराम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है|
चित्रकूट से श्रीराम पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्रीशत्रुघ्न जी श्रीराम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान श्रीराम ने कहा - 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता कैकेयी की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना|'
श्रीशत्रुघ्न जी का शौर्य भी अनुपम था| सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान श्रीराम की सभा में उपस्थित होकर लवणासुर के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध कर के उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की| श्रीशत्रुघ्न जी ने भगवान श्रीराम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और मथुरापुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया|
भगवान श्रीराम के परम धाम पधारने के समय मथुरा में अपने पुत्रों का राज्याभिषेक करके श्रीशत्रुघ्न जी अयोध्या पहुँचे| श्रीराम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा - 'भगवन्! मैं अपने दोनों पुत्रों का राज्याभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ| आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें|' भगवान श्रीराम ने शत्रुघ्न जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्रीरामचन्द्र के साथ ही साकेत पधारे|
Friday, 24 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण
श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे| किसी भी अवस्था में भगवान श्रीराम का वियोग इन्हें सहा नहीं था| इसलिये ये सदैव छाया की भाँति श्रीराम का ही अनुगमन करते थे| श्रीराम के चरणों की सेवा ही इनके जीवन का मुख्य व्रत था| श्रीराम की तुलना में संसार के सभी सम्बन्ध इनके लिये गौण थे| इनके लिये श्रीराम ही माता-पिता, गुरु, भाई सब कुछ थे और उनकी आज्ञा का पालन ही इनका मुख्य धर्म था| इसलिये जब भगवान श्रीराम विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिये गये तो लक्ष्मण जी भी उनके साथ गये| भगवान श्रीराम जब सोने जाते थे तो ये उनका पैर दबाते और भगवान के बार-बार आग्रह करने पर ही स्वयं सोते तथा भगवान् के जागने के पूर्व ही जाग जाते थे| अबोध शिशु की भाँति इन्होंने भगवान श्रीराम के चरणों को ही दृढ़ता पूर्वक पकड़ लिया और भगवान ही इनकी अनन्य गति बन गये| भगवान श्रीराम के प्रति किसी के भी अपमान सूचक शब्द को ये कभी बरदाश्त नहीं करते थे| जब महाराज जनक ने धनुष के न टूटने के क्षोभ में धरती को वीर-विहीन कह दिया, तब भगवान के उपस्थित रहते हुए जनकजी का यह कथन श्रीलक्ष्मण जी को बाण-जैसा लगा| ये तत्काल कठोर शब्दों में जनकजी का प्रतिकार करते हुए बोले - 'भगवान श्रीराम के विद्यमान रहते हुए जनक ने जिस अनुचित वाणी का प्रयोग किया है, वह मेरे हृदय में शूल की भाँति चुभ रही है| जिस सभा में रघुवंश का कोई भी वीर मौजूद हो, वहाँ इस प्रकार की बातें सुनना और कहना उनकी वीरता का अपमान है| यदि श्रीराम आदेश दें तो मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठा सकता हूँ, फिर जनक के इस सड़े धनुष की गिनती ही क्या है|' इसी प्रकार जब श्री परशुराम जी ने धनुष तोड़ने वाले को ललकारा तो ये उनसे भी भिड़ गये|
भगवान श्रीराम के प्रति श्रीलक्ष्मण की अनन्य निष्ठा का उदाहरण भगवान के वनगमन के समय मिलता है| ये उस समय देह-गेह, सगे-सम्बन्धी, माता और नव-विवाहिता पत्नी सबसे सम्बन्ध तोड़कर भगवान के साथ वन जाने के लिये तैयार हो जाते हैं| वन में ये निद्रा और शरीर के समस्त सुखों का परित्याग करके श्रीराम-जानकी की जी-जान से सेवा करते हैं| ये भगवान की सेवा में इतने मग्न हो जाते हैं कि माता-पिता, पत्नी, भाई तथा घर की तनिक भी सुधि नहीं करते|
श्रीलक्ष्मण जी ने अपने चौदह वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य और अद्भुत चरित्र-बल पर लंका में मेघनाद-जैसे शक्तिशाली योद्धा पर विजय प्राप्त किया| ये भगवान की कठोर-से-कठोर आज्ञा का पालन करने में भी कभी नहीं हिचकते| भगवान की आज्ञा होने पर आँसुओं को भीतर-ही-भीतर पीकर इन्होंने श्रीजानकी जी को वन में छोड़ने में भी संकोच नहीं किया| इनका आत्मत्याग भी अनुपम है| जिस समय तापस वेशधारी कालकी श्रीराम से वार्ता चल रही थी तो द्वारपाल के रूप में उस समय श्रीलक्ष्मण ही उपस्थित थे| किसी को भीतर जाने की अनुमति नहीं थी| उसी समय दुर्वासा ऋषिका आगमन होता है और वे श्रीराम का तत्काल दर्शन करने की इच्छा प्रकट करते हैं| दर्शन न होने पर वे शाप देकर सम्पूर्ण परिवार को भस्म करने की बात करते हैं| श्रीलक्ष्मणजी ने अपने प्राणों की परवाह न करके उस समय दुर्वासा को श्रीराम से मिलाया और बदले में भगवान से परित्याग का दण्ड प्राप्तकर अद्भुत आत्मत्याग किया| श्रीराम के अनन्य सेवक श्रीलक्ष्मण धन्य हैं|
Thursday, 23 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीभरत
श्रीभरत जी का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है| लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे|
ननिहाल से अयोध्या लौटने पर जब इन्हें माता से अपने पिता के सर्वगवास का समाचार मिलता है, तब ये शोक से व्याकुल होकर कहते हैं - 'मैंने तो सोचा था कि पिता जी श्रीराम का अभिषेक कर के यज्ञ की दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे बड़े भइया श्रीराम को सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये| अब श्रीराम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ| उन्हें मेरे आने की शीघ्र सुचना दें| मैं उनके चरणों में प्रणाम करूँगा| अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं|'
जब कैकयी ने श्रीभरत जी को श्रीराम-वनवास की बात बतायी, तब वे महान् दुःखसे संतप्त हो गये| इन्होंने कैकेयी से कहा - 'मैं समझता हूँ, लोभ के वशीभूत होने के कारण तू अब तक यह न जान सकी कि मेरा श्रीरामचन्द्र के साथ भाव कैसा है| इसी कारण तूने राज्य के लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला| मुझे जन्म देने से अच्छा तो यह था कि तू बाँझ ही होती| कम-से-कम मेरे-जैसे कुल कलंक का तो जन्म नहीं होता| यह वर माँगने से पहले तेरी जीभ कटकर गिरी क्यों नहीं!'
इस प्रकार कैकेयी को नाना प्रकार से बुरा-भला कहकर श्रीभरत जी कौसल्या जी के पास गये और उन्हें सान्त्वना दी| इन्होंने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से पिता कि अंत्येष्टि क्रिया सम्मपन्न की| सबके बार-बार आग्रह के बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बल के साथ श्रीराम को मनाने के लिये चित्रकूट चल दिये| श्रृंगवेरपुर में पहुँचकर इन्होंने निषादराज को देखकर रथ का परित्याग कर दिया और श्रीराम सखा गुह से बड़े प्रेम से मिले| प्रयाग में अपने आश्रम पर पहुँचने पर श्रीभरद्वाज इनका स्वागत करते हुए कहते हैं - 'भरत! सभी साधनों का परम फल श्रीसीता राम का दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है| आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गये|'
श्रीभरत जी को दल-बल के साथ चित्रकूट में आता देखकर श्रीलक्ष्मण को इनकी नीयत पर शंका होती है| उस समय श्रीराम ने उनका समाधान करते हुए कहा - 'लक्ष्मण! भरत पर सन्देह करना व्यर्थ है| भरत के समान शीलवान् भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है| अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त कर के श्रीभरत को मद नहीं हो सकता|' चित्रकुट में भगवान् श्रीराम से मिलकर पहले श्रीभरत जी उनसे अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रुचि कुछ और है तो भगवान् की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं| नन्दिग्राम में तपस्वी-जीवन बिताते हुए ये श्रीराम के आगमन की चौदह वर्ष तक प्रतीक्षा करते हैं| भगवान् को इनकी दशा का अनुमान है| वे वनवास की अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरह को शान्त करते हैं| श्रीराम भक्ति और आदर्श भ्रातप्रेम के अनुपम उदाहरण श्रीभरत जी धन्य हैं|
Wednesday, 22 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - भगवती श्रीसीता
भगवती श्रीसीता जी की महिमा अपार है| वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास तथा धर्मशास्त्रोंमें इनकी अनन्त महिमाका वर्णन है| ये भगवान् श्रीराम की प्राण प्रिया आद्याशक्ति हैं| ये सर्व सर्वमङ्गलदायिनी, त्रिभुवन की जननी तथा भक्ति और मुक्ति का दान करने वाली हैं| महाराज सीर ध्वज जनक की यज्ञ भूमि से कन्या रूप में प्रकट हुई भगवती सीता ही संसार का उद्भव, स्थिति और संहार करने वाली पराशक्ति हैं| ये पतिव्रताओं में शिरोमणि तथा भारतीय आदर्शों की अनुपम शिक्षिका हैं|
अपनी ससुराल अयोध्या में आने के बाद अनेक सेविकाओं के होने पर भी भगवती सीता अपने हाथों से सारा गृहकार्य स्वयं करती थीं और पति के संकेत मात्र से उनकी आज्ञा का तत्काल पालन करती थीं| अपने पतिदेव भगवान् श्रीराम को वनगमन के लिये प्रस्तुत देखकर इन्होंने तत्काल अपने कर्तव्य कर्म का निर्णय कर लिया और श्रीराम से कहा - 'हे आर्यपुत्र! माता - पिता, भाई, पुत्र तथा पुत्रवधू - ये सब अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःख का भोग करते हैं| एकमात्र पत्नी ही पति के कर्मफलों की भागिनी होती है| आपके लिये जो वनवास की आज्ञा हुई है, वह मेरे लिये भी हुई है| इसलिये वनवास में आपके साथ में मैं भी चलूँगी| आप में ही मेरा हृदय अनन्यभाव से अनुरक्त है| आपके वियोग में मेरी मृत्यु निश्चित है| इसलिये आप मुझे अपने साथ वन में अवश्य ले चलिये| मुझे ले चलने से आप पर कोई भार नहीं होगा| मैं वन में नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर आपकी सेवा करुँगी|'
अपने पति श्रीराम से वन में ले चलने का निवेदन करती हुई सीता प्रेम-विह्वल हो गयीं| उनकी आँखों से आँसू बहने लगे| वे संज्ञाहीन-सी होने लगीं| अन्त में श्रीराम को उन्हें साथ चलने कि आज्ञा देनी पड़ी| माता सीता अपने सतीत्व के परम तेज से लंकेश को भी भस्म कर सकती थीं| पापात्मा रावण के कुत्सिक मनोवृत्ति की धज्जियाँ उड़ाती हुई पतिव्रता सीता कहती हैं - 'हे रावण! तुम्हें जलाकर भस्म कर देने की शक्ति रखती हुई भी मैं श्रीरामचन्द्र का आदेश न होने के कारण एवं तपोभग्ङ होने के कारण तुम्हें जलाकर भस्म नहीं कर रही हूँ|'
महासती सीता ने हनुमान जी की पूँछ में आग लगने के समय अग्निदेव से प्रार्थना की - 'हे अग्निदेव! यदि मैंने अपने पति की सच्चे मन से सेवा की है| यदि मैंने श्रीराम के अतिरिक्त किसी का चिन्तन न किया हो तो तुम हनुमान के लिये शीतल हो जाओ|' महासती सीता की प्रार्थना से अग्निदेव हनुमान के लिये सुख और शीतल हो गये और लंका के लिये दाहक बन गये| सीता के पातिव्रत्य की गवाही अग्निपरीक्षा के पश्चात् स्वयं अग्निदेव ने दी थी| महासती सीता के सतीत्व की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती| भगवती सीता का चरित्र समस्त नारियों के लिये वन्दनीय तथा अनुकरणीय है|
Tuesday, 21 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी
कैकेयी जी महाराज केकय नरेश की पुत्री तथा महाराज दशरथ की तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे| इन्होंने देवासुर संग्राममें महाराज दशरथ के साथ सारथि का कार्य करके अनुपम शौर्य का परिचय दिया और महाराज दशरथ के प्राणों की दो बार रक्षा की| यदि शम्बरासुर से संग्राम में महाराज के साथ महारानी कैकेयी न होतीं तो उनके प्राणों की रक्षा असम्भव थी| महाराज दशरथ ने अपने प्राण-रक्षा के लिये इनसे दो वार माँगने का आग्रह किया और इन्होंने समय पर माँगने की बात कहकर उनके आग्रह को टाल दिया| इनके लिये पति प्रेम के आगे संसार की सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं|
महारानी कैकेयी भगवान् श्रीराम से सर्वाधिक स्नेह करती थीं| श्रीराम के युवराज बनाये जाने का संवाद सुनते ही ये आनन्द मग्न हो गयीं| मन्थरा के द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा - 'मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है| मेरे लिये श्रीराम-अभिषेक के समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता| इसके लिये तू मुझसे जो भी माँगेगी, मैं अवश्य दूँगी!' इसी से पता लगता है कि ये श्रीराम से कितना प्रेम करती थीं| इन्होंने मन्थरा कि विपरीत बात सुनकर उसकी जीभ तक खींचने की बात कहीं| इनके श्रीराम के वन गमन में निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीराम की प्रेरणा से देवकार्य के लिये सरस्वती देवी के द्वारा इनकी बुद्धि का परिवर्तन कर दिया जाना था| महारानी कैकेयी ने भगवान् श्रीराम की लीला में सहायता करने के लिये जन्म लिया था| यदि श्रीराम का अभिषेक हो जाता तो वन गमन के बिना श्रीराम का ऋषि-मुनियों को दर्शन, रावण-वध, साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतार के प्रमुख कार्य नहीं हो पाते| इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजी ने श्रीराम की लीला में सहयोग करने के लिये ही जन्म लिया था| इसके लिये इन्होंने चिर कालिक अपयश के साथ पापिनी, कुलघातिनी, कलक्ङिनी आदि अनेक उपाधियों को मौन होकर स्वीकार कर लिया|
चित्रकूट में जब माता कैकेयी श्रीराम से एकान्त में मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रों में आँसू भरकर उनसे कहा - 'हे राम! माया से मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है| आप मेरी कुटिलता को क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमा शील होते हैं| देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है| मैंने आपको पहचान लिया है| आप देवताओं के लिये भी मन, बुद्धि और वाणी से परे हैं|'
भगवान् श्रीराम ने उनसे कहा - 'महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है| मेरी प्रेरणा से ही देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्हारे मुख से वे शब्द निकले थे| उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है| अब तुम जाओ| सर्वत्र आसक्ति रहित मेरी भक्ति के द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी|'
भगवान् श्रीराम के इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयीजी श्रीराम की अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान-सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं| इन्होंने सदा के लिये अपकीर्तिका वरण करके भी श्रीराम की लीलामें अपना विलक्षण योगदान दिया|
Monday, 20 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा
महारानी सुमित्रा त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं| ये महाराज दशरथ की दूसरी पटरानी थीं| महाराज दशरथ ने जब पुष्टि यज्ञ के द्वारा खीर प्राप्त किया, तब उन्होंने खीर का एक भाग महारानी सुमित्रा को स्वयं न देकर महारानी कौसल्या और महारानी कैकेयी के द्वारा दिलवाया| जब महारानी सुमित्रा को उस खीर के प्रभाव से दो पुत्र हुए तो इन्होंने निश्चय कर लिया कि इन दोनों पुत्रों पर मेरा अधिकार नहीं है| इसलिये अपने प्रथम पुत्र श्रीलक्ष्मण को श्रीराम और दूसरे शत्रुघ्न को श्रीभरत की सेवा में समर्पित कर दिया| त्याग कर ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है|
जब भगवान् श्रीराम वन जाने लगे तब लक्ष्मणजी ने भी उनसे स्वयं को साथ ले चलने का अनुरोध किया| पहले भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मणजी को अयोध्या में रहकर माता-पिता कि सेवा करने का आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मणजी ने किसी प्रकार भी श्रीराम के बिना अयोध्या में रुकना स्वीकार नहीं किया| अन्त में श्रीराम ने लक्ष्मण को माता सुमित्रा से आदेश लेकर अपने साथ चलने की आज्ञा दी| उस समय विदा माँगने के लिये उपस्थित श्रीलक्ष्मण को माता सुमित्राने जो उपदेश दिया उसमें भक्ति, प्रीति, त्याग, पुत्र-धर्म का स्वरूप, समपर्ण आदि श्रेष्ठ भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है|
माता सुमित्रा ने श्रीलक्ष्मण को उपदेश देते हुए कहा - ' बेटा! विदेह नन्दिनी श्रीजानकी ही तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्रीरामचन्द्र ही तुम्हारे पिता हैं| जहाँ श्रीराम हैं, वहीं अयोध्या है और जहाँ सूर्य का प्रकाश है वही दिन है| यदि श्रीसीता-राम वन को जा रहे हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है| जगत में जितने भी पूजनीय सम्बन्ध हैं, वे सब श्रीराम के नाते ही पूजनीय और प्रिय मानने योग्य हैं| संसार में वही युवती पुत्रवती कहलाने योग्य है, जिसका पुत्र श्रीराम का भक्त है| श्रीराम से विमुख पुत्र को जन्म देने से निपूती रहना ही ठीक है| तुम्हारे ही भाग्य से श्रीराम वन को जा रहे हैं| हे पुत्र! इसके अतिरिक्त उनके वन जाने का अन्य कोई कारण नहीं है| समस्त पुण्यों का सबसे बड़ा फल श्रीसीता रामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम है| हे पुत्र! राग, रोष, ईर्ष्या, मद आदि समस्त विकारों पर विजय प्राप्त करके मन, कर्म और वचन से श्रीसीता राम की सेवा करना| इसी में तुम्हारा परम हित है|'
श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ वन चले गये| अब हर तरह से माता कौसल्या को सुखी बनाना ही सुमित्राजी का उद्देश्य हो गया| ये उन्हीं की सेवा में रात-दिन लगी रहती थीं| अपने पुत्रों के विछोह के दुःखको भूलकर कौसल्याजी के दुःख में दुखी और उन्हीं के सुख में सुखी होना माता सुमित्रा का स्वभाव बन गया| जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगने का इन्हें संदेश मिलता है, तब इनका रोम-रोम खिल उठता है| ये प्रसन्नता और उत्सर्ग के आवेश में बोल पड़ती हैं - 'लक्ष्मण ने मेरी कोख में जन्म लेकर उसे सार्थक कर दिया| उसने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया है|' इतना ही नहीं, ये श्रीराम की सहायता के लिये श्रीशत्रुघ्न को भी युद्ध में भेजने के लिये तैयार हो जाती हैं| माता सुमित्राके जीवन में सेवा, संयम और सर्वस्व-त्याग का अद्भुत समावेश है| माता सुमित्रा-जैसी देवियाँ ही भारतीय कुल की गरिमा और आदर्श हैं|
Sunday, 19 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या
महारानी कौसल्या का चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथ की सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्म में महराज मनु के साथ इन्होंने उनकी पत्नी रूप में कठोर तपस्या कर के श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया था| इस जन्म में इनको कौसल्या रूप में भगवान् श्रीराम की जननी होने का सौभाग्य मिला था|
श्री कौसल्या जी का मुख्य चरित्र रामायण के अयोध्या काण्ड से प्रारम्भ होता है| भगवान् श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है| नगर भर में उत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं| माता कौसल्या के आनन्द का पार नहीं है | वे श्रीराम की मंगल-कामना से अनेक प्रकार के यज्ञ, दान, देवपूजन और उपवास में संलग्न हैं| श्रीराम को सिहांसन पर आसीन देखने की लालसा से इनका रोम-रोम पुलकित है| परन्तु श्रीराम तो कुछ दूसरी ही लीला करना चाहते हैं | सत्य प्रेमी महाराज दशरथ कैकेयी के साथ वचनबद्ध होकर श्रीराम को वनवास देने के लिये बाध्य हो जाते हैं|
प्रात:काल भगवान् श्रीराम माता कैकेयी और पिता महाराज दशरथ से मिलकर वन जाने का निश्चय कर लेते हैं और माता कौसल्या का आदेश प्राप्त करने के लिये उनके महल में पधारते हैं| श्रीराम को देखकर माता कौसल्या उनके पास आती हैं| इनके हृदय में वात्सल्य-रस की बाढ़ आ जाती है और मुँह से आशीर्वाद की वर्षा होने लगती है| ये श्रीराम का हाथ पकड़कर उनको उन्हें शिशु की भाँति अपनी गोदमें बैठा लेती हैं और कहने लगती हैं - 'श्रीराम! राज्याभिषेक में अभी विलम्ब होगा| इतनी देर तक कैसे भूखे रहोगे, दो-चार मधुर फल ही खा लो|' भगवान् श्रीराम ने कहा - 'माता! पिताजी ने मुझको चौदह वर्षों के लिये वन का राज्य दिया है, जहाँ मेरा सब प्रकार से कल्याण ही होगा| तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मुझको वन जाने की आज्ञा दे दो| चौदह साल तक वन में निवास कर मैं पिताजी के वचनों का पालन करूँगा, पुन: तुम्हारे श्रीचरणों का दर्शन करूँगा|'
श्रीराम के ये वचन माता कौसल्या के हृदय में शूल की भाँति बिंध गये| उन्हें अपार क्लेश हुआ| वे मूर्च्छित होकर धरती पर गिर गयीं, उनके विषाद की कोई सीमा न रही| फिर वे सँभलकर उठीं और बोलीं - 'श्रीराम! यदि तुम्हारे पिता का ही आदेश हो तो तुम माता को बड़ी जानकार वन में न जाओ! किन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकयी की भी इच्छा हो तो मैं तुम्हारे धर्म-पालन में बाधा नहीं बनूँगी| जाओ! कानन का राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के राज्य से भी सुखप्रद हो|' पुत्र वियोग में माता कौसल्य का हृदय दग्ध हो रहा है, फिर भी कर्त्तव्य को सर्वोपरि मानकर तथा अपने हृदय पर पत्थर रखकर वे पुत्र को वन जाने की आज्ञा दे देती हैं| सीता-लक्ष्मण के साथ श्रीराम वन चले गये| महाराज दशरथ कौसल्या के भवन में चले आये| कौसल्या जी ने महराज को धैर्य बँधाया, किन्तु उनका वियोग-दुःख कम नहीं हुआ| उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया| कौसल्या जी ने पतिमरण, पुत्रवियोग-जैसे असह्य दुःख केवल श्रीराम-दर्शन की लालसा में सहे| चौदह साल के कठिन वियोग के बाद श्रीराम आये| कौसल्याजी को अपने धर्मपालन का फल मिला| अन्त में ये श्रीराम के साथ ही साकेत गयीं|
Saturday, 18 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - महाराज दशरथ
अयोध्या नरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे| पूर्वकाल में कठोर तपस्या से इन्होंने भगवान् श्रीराम को पुत्ररूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था| ये परम तेजस्वी, वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, प्रजा का पुत्रवत् पालन करने वाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे| इनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से धर्मरत तथा धन-धान्य से सम्पन्न थी| देवता भी महाराज दशरथ कि सहायता चाहते थे| देवासुर-संग्राम में इन्होंने दैत्यों को पराजित किया था| इन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ भी किये|
महाराज दशरथ कि बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं| महाराज की वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ| इन्होंने अपनी इस समस्या से गुरुदेव वसिष्ठ को अवगत कराया| गुरु की आज्ञा से ॠष्य श्रृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन हुआ| यज्ञपुरुष ने स्वयं प्रकट होकर पायसत्र से भरा पात्र महाराज दशरथ को देते हुए कहा - 'राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्य वर्धक तथा पुत्रों को उत्पन्न करने वाली है| इसे तुम अपनी रानियों को खिला दो|' महाराज ने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा में बाँटकर दे दिया| समय आने पर कौसल्या के गर्भ से सनातन पुरुष भगवान् श्रीराम का अवतार हुआ| कैकेयी ने भरत और सुमित्रा ने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को जन्म दिया |
चारों भाई माता-पिता के लाड़-प्यार में बड़े हुए| यद्यपि महाराज को चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीराम पर इनका विशेष स्नेह था| ये श्रीराम को क्षण भर के लिये भी अपनी आँखों से ओझल नहीं करना चाहते थे| जब विश्वामित्र जी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम-लक्ष्मण को माँगने आये तो वसिष्ठ के समझाने पर बड़ी कठिनाई से ये उन्हें भेजने के लिये तैयार हुए|
अपनी वृद्धावस्था को देखकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को युवराज बनाना चाहा| मंथरा की सलाह से कैकेयी ने अपने पुराने दो वरदान महाराज से माँगे - एक में भरतको राज्य और दूसरे में श्रीरामके लिये चौदह वर्षों का वनवास| कैकेयी की बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये| थोड़ी देर के लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी| होश आनेपर इन्होंने कैकयी को समझाया| बड़ी ही नम्रता से दीन शब्दों में इन्होंने कैकेयी से कहा - 'भरत को तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीराम को वन भेजने का आग्रह मत करो|' विधि के विधान एवं भावी की प्रबलता के कारण महाराज के विनय का कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| भगवान् श्रीराम पिता के सत्य की रक्षा और आज्ञा पालन के लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ वन चले गये| महाराज दशरथके शोक का ठिकाना न रहा| जब तक श्रीराम रहे तभी तक, इन्होंने अपने प्राणोंको रखा और उनका वियोग होते ही श्रीराम प्रेमानल में अपने प्राणों कि आहुति दे डाली|
जिअत राम बिधु बदनु निहारा| राम बिरह करि मरनु सँवारा||
महाराज दशरथ के जीवन के साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी| श्रीराम के वियोग में अपने प्राणों को देकर इन्होंने प्रेम का एक अनोखा आदर्श स्तापित किया| महाराज दशरथके सामान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समय में राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया|
Friday, 17 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र
Thursday, 16 May 2024
श्री रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि वशिष्ठ
महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्तिका वर्णन पुराणोंमें विभित्र रूपोंमें प्राप्त होता है| कहीं ये ब्रह्माके मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुणके पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं| इनकी पत्नीका नाम अरुन्धती देवी था| जब इनके पिता ब्रह्माजीने इन्हें मृत्युलोकमें जाकर सृष्टिका विस्तार करने तथा सूर्यवंशका पौरोहित्य कर्म करनेकी आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्मको अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करनेमें अपनी असमर्थता व्यक्त की| ब्रह्माजीने इनसे कहा - 'इसी वंशमें आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करेगा|' फिर इन्होंने इस धराधामपर मानव-शरीरमें आना स्वीकार किया|
महर्षि वसिष्ठने सूर्यवंशका पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्योंको सम्पन्न किया| इन्हींके उपदेशके बलपर भगीरथने प्रयत्न करके गङ्गा-जैसी लोककल्याणकारिणी नदीको हमलोगोंके लिये सुलभ कराया| दिलीपको नन्दिनीकी सेवाकी शिक्षा देकर रघु - जैसे पुत्र प्रदान करनेवाले तथा महाराज दशरथकी निराशामें आशाका सञ्चार करनेवाले महर्षि वसिष्ठ ही थे| इन्हींकी सम्मतिसे महाराज दशरथने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| भगवान् श्रीरामको शिष्यरूपमें प्राप्तकर महर्षि वसिष्ठका पुरोहित-जीवन सफल हो गया| भगवान् श्रीरामके वनगमसे लौटनेके बाद इन्हींके द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ| गुरु वसिष्ठने श्रीरामके राज्यकार्यमें सहयोगके साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये|
महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी प्रतिमूर्ति थे| एक बार श्रीविश्वामित्र उनके अतिथि हुए| महर्षि वसिष्ठने कामधेनुके सहयोगसे उनका राजोचित सत्कार किया| कामधेनु की अलौकिक क्षमताको देखकर विश्वामित्रके मनमें लोभ उत्पन्न हो गया| उन्होंने इस गौको वसिष्ठसे लेनेकी इच्छा प्रकट की| कामधेनु वसिष्ठजीके लिये आवश्यक आवश्यकताओंकी पूर्तिहेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देनेमें असमर्थता व्यक्त की| विश्वामित्रने कामधेनुको बलपूर्वक ले जाना चाहा| वसिष्ठजीके संकेतपर कामधेनुने अपार सेनाकी सृष्टि कर दी| विश्वामित्रको अपनी सेनाके साथ भाग जानेपर विवश होना पड़ा| द्वेष-भावनासे प्रेरित होकर विश्वामित्रने भगवान् शंकरकी तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठपर पुन: आकर्मण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्रदण्डके सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रियबलको धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभके लिये तपस्याहेतु वन जाना पड़ा|
विश्वामित्रकी अपूर्व तपस्यासे सभी लोग चमत्कृत हो गये| सब लोगोंने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे| अन्तमें उन्होंने वसिष्ठजीको मिटानेका निश्चय कर लिया और उनके आश्रममें एक पेड़पर छिपकर वसिष्ठजीको मारनेके लिये उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे| उसी समय अरुन्धतीके प्रश्न करनेपर वसिष्ठजीने फेंककर श्रीवसिष्ठजीने शरणागत हुए| वसिष्ठजीने उन्हें उठाकर गलेसे लगाया और ब्रह्मर्षिकी उपाधिसे विभूषित किया| इतिहास-पुराणोंमें महर्षि वसिष्ठके चरित्रका विस्तृत वर्णन मिलता है| ये आज भी सप्तर्षियोंमें रहकर जगत् का कल्याण करते रहते हैं|
Wednesday, 15 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - भगवान श्रीराम
असंख्य सद्गुण रूपी रत्नों के महान निधि भगवान् श्रीराम धर्म परायण भारतीयों के परमाराध्य हैं| श्रीराम ही धर्म के रक्षक, चराचर विश्व की सृष्टि करने वाले, पालन करने वाले तथा संहार करने वाले परब्रह्म के पूर्णावतार हैं| रामायण में यथार्थ ही कहा गया है - 'रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता|' भगवान् श्रीराम धर्म के क्षीण हो जाने पर साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और भूतल पर शान्ति एवं धर्म की स्थापना करने के लिये अवतार लेते हैं| उन्होंने त्रेतायुग में देवताओं की प्रार्थना सुन कर पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के यहाँ चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अवतार लिया और राक्षसों का संहार करके त्रिलोक में अपनी अविचल कीर्ति स्थापित की| पृथ्वी का धारण-पोषण, समाज का संरक्षण और साधुओं का परित्राण करने के कारण भगवान् श्रीराम मूर्तिमान् धर्म ही हैं|
भगवान् श्रीराम जीवमात्र के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे| विविध रामायणों, अठराह महापुराणों, रघुवंशादि महाकाव्यों, हनुमदादि नाटकों, अनेक चप्पू-काव्यों तथा महाभारतादि में इनके विस्तृत चरित्र का ललित वर्णन मिलता है| श्रीराम के विषय में जितने ग्रन्थ लिखे गये, उतने किसी अन्य अवतार के चरित्र पर नहीं लिखे गये| गुरुगृह से अल्पकाल में शिक्षा प्राप्त करके लौटने के बाद इनका चरित्र विश्वामित्र की यज्ञरक्षा, जनकपुर में शिव-धनुष-भंग, सीता-विवाह, परशुराम का गर्वभंग आदि के रूप में विख्यात है| यज्ञरक्षा के लिये जाते समय इन्होंने ताड़का-वध, महर्षि विश्वामित्र के आश्रम पर सुबाहु आदि दैत्यों का संहार तथा गौतम की पत्नी अहल्या का उद्धार किया| कैकेयी के वरदान स्वरूप पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ये चौदह वर्षों के लिये वन में गये| चित्रकूटादि अनेक स्थानों में रह कर इन्होंने ऋषियों को कृतार्थ किया| पञ्चवटी में शूर्पणखा की नाक काटकर और खर-दूषण, त्रिशिरा आदि का वध कर इन्होंने रावण को युध्द के लिये चुनौती दी| रावण ने मारीच की सहायता से सीता का अपहरण किया| सीता की खोज करते हुए इन्होंने सुतीक्ष्ण, शरभंग, जटायु, शबरी आदि को सद्गति प्रदान की तथा ऋष्यमूक पर्वतपर पहुँच कर सुग्रीव से मैत्री की और वाली का वध किया| फिर श्री हनुमान् जी के द्वारा सीता का पता लगवा कर इन्होंने समुद्र पर सेतु बँधवाया और वानरी-सेना की सहायता से रावण-कुम्भकर्णादिका वध किया तथा विभीषण को राज्य देकर सीता जी का उद्धार किया| भगवान् श्रीराम ने लगभग ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य कर के त्रेता में सत्ययुग की स्थापना की| अपने राज्यकाल में राम राज्य को चिरस्मरणीय बना कर पुराण पुरुष श्री राम सपरिकर अपने दिव्यधाम साकेत पधारे|
कर्तव्य ज्ञान की शिक्षा देना रामावतार की विशेषता है| इसका दुष्टान्त भगवान् श्रीराम ने स्वयं अपने आचरणों के द्वारा कर्म करके दिखाया| वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श वीर, आदर्श देश सेवक और सर्वश्रेष्ठ महा मानव होने के साथ साक्षात् परमात्मा थे| भगवान् श्रीराम का चरित्र अनन्त है, उनकी कथा अनन्त है| उसका वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है| भक्तगण अपनी भावना के अनुसार उनका गुणगान करते हैं|
Tuesday, 14 May 2024
ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की
This is also a kind of SEWA.
Monday, 13 May 2024
शिव तांडव स्तोत्र
शिव तांडव स्तोत्र
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
उनके बालों से बहने वाले जल से उनका कंठ पवित्र है,
और उनके गले में सांप है जो हार की तरह लटका है,
और डमरू से डमट् डमट् डमट् की ध्वनि निकल रही है,
भगवान शिव शुभ तांडव नृत्य कर रहे हैं, वे हम सबको संपन्नता प्रदान करें।
जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥
मेरी शिव में गहरी रुचि है,
जिनका सिर अलौकिक गंगा नदी की बहती लहरों की धाराओं से सुशोभित है,
जो उनकी बालों की उलझी जटाओं की गहराई में उमड़ रही हैं?
जिनके मस्तक की सतह पर चमकदार अग्नि प्रज्वलित है,
और जो अपने सिर पर अर्ध-चंद्र का आभूषण पहने हैं।
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
मेरा मन भगवान शिव में अपनी खुशी खोजे,
अद्भुत ब्रह्माण्ड के सारे प्राणी जिनके मन में मौजूद हैं,
जिनकी अर्धांगिनी पर्वतराज की पुत्री पार्वती हैं,
जो अपनी करुणा दृष्टि से असाधारण आपदा को नियंत्रित करते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त है,
और जो दिव्य लोकों को अपनी पोशाक की तरह धारण करते हैं।
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
मुझे भगवान शिव में अनोखा सुख मिले, जो सारे जीवन के रक्षक हैं,
उनके रेंगते हुए सांप का फन लाल-भूरा है और मणि चमक रही है,
ये दिशाओं की देवियों के सुंदर चेहरों पर विभिन्न रंग बिखेर रहा है,
जो विशाल मदमस्त हाथी की खाल से बने जगमगाते दुशाले से ढंका है।
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
भगवान शिव हमें संपन्नता दें,
जिनका मुकुट चंद्रमा है,
जिनके बाल लाल नाग के हार से बंधे हैं,
जिनका पायदान फूलों की धूल के बहने से गहरे रंग का हो गया है,
जो इंद्र, विष्णु और अन्य देवताओं के सिर से गिरती है।
ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
शिव के बालों की उलझी जटाओं से हम सिद्धि की दौलत प्राप्त करें,
जिन्होंने कामदेव को अपने मस्तक पर जलने वाली अग्नि की चिनगारी से नष्ट किया था,
जो सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं,
जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
मेरी रुचि भगवान शिव में है, जिनके तीन नेत्र हैं,
जिन्होंने शक्तिशाली कामदेव को अग्नि को अर्पित कर दिया,
उनके भीषण मस्तक की सतह डगद् डगद्... की घ्वनि से जलती है,
वे ही एकमात्र कलाकार है जो पर्वतराज की पुत्री पार्वती के स्तन की नोक पर,
सजावटी रेखाएं खींचने में निपुण हैं।
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
भगवान शिव हमें संपन्नता दें,
वे ही पूरे संसार का भार उठाते हैं,
जिनकी शोभा चंद्रमा है,
जिनके पास अलौकिक गंगा नदी है,
जिनकी गर्दन गला बादलों की पर्तों से ढंकी अमावस्या की अर्धरात्रि की तरह काली है।
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनका कंठ मंदिरों की चमक से बंधा है,
पूरे खिले नीले कमल के फूलों की गरिमा से लटकता हुआ,
जो ब्रह्माण्ड की कालिमा सा दिखता है।
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनके चारों ओर मधुमक्खियां उड़ती रहती हैं
शुभ कदंब के फूलों के सुंदर गुच्छे से आने वाली शहद की मधुर सुगंध के कारण,
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
शिव, जिनका तांडव नृत्य नगाड़े की ढिमिड ढिमिड
तेज आवाज श्रंखला के साथ लय में है,
जिनके महान मस्तक पर अग्नि है, वो अग्नि फैल रही है नाग की सांस के कारण,
गरिमामय आकाश में गोल-गोल घूमती हुई।
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
मैं भगवान सदाशिव की पूजा कब कर सकूंगा, शाश्वत शुभ देवता,
जो रखते हैं सम्राटों और लोगों के प्रति समभाव दृष्टि,
घास के तिनके और कमल के प्रति, मित्रों और शत्रुओं के प्रति,
सर्वाधिक मूल्यवान रत्न और धूल के ढेर के प्रति,
सांप और हार के प्रति और विश्व में विभिन्न रूपों के प्रति?
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं, अलौकिक नदी गंगा के निकट गुफा में रहते हुए,
अपने हाथों को हर समय बांधकर अपने सिर पर रखे हुए,
अपने दूषित विचारों को धोकर दूर करके, शिव मंत्र को बोलते हुए,
महान मस्तक और जीवंत नेत्रों वाले भगवान को समर्पित?
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
इस स्तोत्र को, जो भी पढ़ता है, याद करता है और सुनाता है,
वह सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु शिव की भक्ति पाता है।
इस भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है।
बस शिव का विचार ही भ्रम को दूर कर देता है।
Sunday, 12 May 2024
"माँ कैसी होती है"
Saturday, 11 May 2024
Be good, do good act
Be good, do good act
No matter where we are in life (whether we are financially well off or not),
God expects us to help those who are in need.
To do otherwise is an insult to God and is no different than us not helping God Himself.
Whoso stoppeth his ears at the cry of the poor, he also shall cry himself, but shall not be heard.
Whoever is kind to the poor lends to the LORD, and he will reward them for what they have done.
The generous will themselves be blessed, for they share their food with the poor.
If anyone has material possessions and sees a brother or sister in need but has no pity on them, how can the love of God be in that person? Let us not love with words or speech but with actions and in truth.
Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,
This is also a kind of SEWA.
Friday, 10 May 2024
बेटी बचाओ! मनुष्य कहलाओ!
बेटी बचाओ! मनुष्य कहलाओ!
हे नारी तू श्रद्धेय है! मेरा तुझे शत-शत नमन !
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१- नारी चाहे किसी भी आयु और अवस्था की क्यूँ न हो लेकिन प्रकृति से माँ ही होती है और पुरुष चाहे किसी भी आयु और अवस्था का क्यूँ न हो जाये लेकिन प्रकृति से बालक ही रहता है!
२- धरती पर नारी का एक ही स्वरुप विद्यमान है और वो है माँ का स्वरुप! बाकी सब स्वरुप उसके माँ स्वरुप के उपक्रम मात्र हैं!
३- जिसने नारी को मान-सम्मान-प्रेम और विश्वास देना नहीं सीखा, उसने अपने मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं की है!
४- नारी की सार्थकता पुरुष को बाँधने में है और उसकी पूर्णता पुरुष को मुक्ति देने में है!
५- नारी को इज्ज़त शब्दों से ही नहीं बल्कि दिल से देने वाला ही सत्पुरुष कहलाता है!
जरा कल्पना करो कि नारी बिना यह दुनिया कितनी अंधकारमय लगेगी!
बेटी बचाओ!
मनुष्य कहलाओ!
Thursday, 9 May 2024
5 Moral Evils... Kaam, Krodh, Lobh, Moh & Ahankaar
Kaam: refers to lust and illegitimate sex. It is one of the greatest evils that tempts people away from God. It makes an individual weak-willed and unreliable. Normal sexual relationship as a house-holder is not restricted in any way. But sex against the will of the partner is taboo, as it can cause unlimited sorrows.
Wisdom (gyan): is the complete knowledge of a set of religious principles. It can be achieved by hearing good, thinking good and doing good. A man of wisdom tries to achieve a high moral standard in his life and interaction with others. According to me, the first steps to wisdom is to consider oneself as an ignorant person who has to learn a lot in life.
Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,
Wednesday, 8 May 2024
प्रकृति की रक्षा करें
Tuesday, 7 May 2024
दीपक एक जलाना साथी
Monday, 6 May 2024
सृष्टि के कण-कण में भगवान समाये हैं....
सृष्टि के कण-कण में भगवान समाये हैं....
Sunday, 5 May 2024
God can be secured with Love Alone
This is a small story in the Mahabharata. With a view to get Lord Krishna exclusively for herself, Satyabhama, one of His consorts, went to Sage Narada and requested him to tell her some way, a short-cut, by which she can achieve her objective.
Narada is the one who imparts Wisdom. Wanting to teach Satyabhama a lesson, he decided to stage a small drama. He told her that there is a ritual in which she gives away her husband as a gift (daan) to someone and then buys him back by paying money, equivalent in weight to the weight of the Lord. Narada said that Krishna will belong solely to Satyabhama under all circumstances if she went through this ritual. Satyabhama was lured into the plan.
He asked for a big balance to be brought, and then invited Krishna to sit on one of the pans. Krishna of course knew very well what Narada was up to, and smilingly obliged the sage. Narada then asked Satyabhama to place gold on the other pan. But lo and behold! No matter how much gold was placed on the other pan, the scale refused to become even.
Sathyabhama felt utterly frustrated. Narada saw an excellent opportunity in the situation and told Satyabhama that since she is not able to give gold needed to equal her husband?s weight, he was taking away Krishna; from that day, Krishna would not belong to her; He would belong to him.
In that situation, Satyabhama thought of Rukmini and went in search of her. She found her performing Tulsi pooja. After hearing what Satyabhama had to say, Rukmini remarked, ?God belongs to all and resides in every being as the Eternal Indweller. No one can have a monopoly of God, nor is it good to even entertain such a desire.?
The gold was then removed and Narada now asked Rukmini to try and somehow match Krishna?s weight. Rukmini replied, ?O sage, I believe Krishna?s Form can be balanced just by uttering His Name, and that is what I am going to do.?
Narada was not prepared to accept such a scheme and said, ?The Form is visible and tangible whereas the Name is not. I want you to match Krishna?s Form with something that has a form.?
Rukmini agreed. She took a tulsi leaf in her hand and prayed:
O God, Who is worshipped with leaf, flowers, fruits, and water,
If it be true that You submit Yourself
When You are offered Pure Love instead of all these,
I pray that You be balanced by Your Name,
And then tilt the scale with this tulsi leaf.
So praying, Rukmini placed the tulsi leaf on the empty pan & said, ?Krishna!? Immediately the scale became even, and the pan carrying Krishna went up instantly; the Lord had been more than matched!
This story teaches that the Lord submits Himself only to pure devotion; He cannot be obtained in any other way; least of all, He cannot ever be bought! There is nothing greater than pure bhakti, which is why it is given such an exalted status in Indian culture.
Our ancients held that devotion is more precious and valuable than all the material wealth one can dream of. It is this wealth that man should really seek instead of gold. In fact, it is the bounden duty of man to acquire this wealth; and he does not have to go far to seek it, for this treasure is already locked up within him.
GOVARDHAN PUJA RECOMMENDED DURING KARTIK MAAS
By giving charity, performing austerities, bathing in sacred rivers, chanting sacred mantras, or worshiping the Brahmanas and the Supreme Personality of Godhead at the Godavari, Mount Simla, Mayapuri, Kumbhaga, Pushkara, Pushya-nakshatra, Kurukshetra, Ravi-graha, Candra-graha, Kashi, Phalguna, Naimisharanya, Ekadashi, Shukara, Kartiki, Ganamuktida, Janmashtami, Madhupuri, Khandava, Dvadasi, Kartiki, Purnima, Vateshvara-maha-vata, Makararka, Prayaga, Barhishmati, Vaidhati, Ayodhya-sarayu-tira, Sri Rama-navami-dina, Shiva-caturdasi, Baijanatha- subha-vana, Darsa, Soma-vara, Ganga-sagara-sangama, Dasami, Setubandha, Sri Rangam, or Saptami-dina, one attains great pious result. O best of Brahmanas, by visiting Govardhan Hill once, one attains a pious result ten million times greater than all those pious deeds together.
Giriraj's appearance in Vraja
Following an inquiry by Nanda Maharaj to his brother Upananda about the appearance of Giriraj Govardhan in Vrindavan, Upananda related the story as told by Pitamaha Bhishma (citing the Garga Samhita) to Maharaj Pandu, the father of the Pandavas, who had also asked the same question.
Once in Goloka Vrindavan, Lord Sri Krishna informed Srimati Radharani that She should prepare for Their descent to this our material universe to appear on the Earth planet (Jambu dwip) to enact Their transcendental pastimes. Srimati Radharani replied that unless Vraja Dhama, the Yamuna and Govardhan Hill were present there, She would like not come. Krishna assured His Beloved that Vraja Dhama, the Yamuna and Giriraj Govardhan had already made Their appearance on the Earth planet, and were awaiting Srimati's and Krishna's coming.
In ancient times, thousands of years before this conversation between Radha and Krishna, the Vedas say that mountains were living entities who would move, grow and fly and land anywhere they liked.
Once in the land of Salmali Dvipa, Dronachal's (the personified mountain) wife gave birth to a son named Govardhan. At the time of Govardhan's birth all the demigods appeared in the sky and showered flowers upon him. The great mountains, led by the Himalayas and Sumeru came, offering their respects and prayers, praising Govardhan for having descended from Goloka Vrindavana. They accepted Govardhan as their King, described Him as the "crown jewel of Vraja," and performed parikrama of Govardhan.
At the beginning of Satya Yuga, the great sage Pulastya Muni came to Salmali dvipa. Seeing the beautiful Govardhan covered with many lovely creepers, flowers, rivers, caves and chirping birds, Pulastya Muni felt that Govardhan was capable of granting liberation. He then went to meet Dronachal, who immediately offered his respects and inquired from the sage what service he could render.
Pulastya Muni informed Dronachal that he was on pilgrimage to all the holy places, and that he resided in Kashi. He explained that although Kashi was so auspicious due to the presence of the Ganga flowing through the city, there were no hills possessed of such beauty as Govardhan. He asked Dronachal if he would give his son Govardhan to him so that he could bring Govardhan to Kashi, so that he could perform his tapasya in the pristine environment of the hill.
Dronachal did not want to give up Govardhan and began crying in thoughts of possible separation from his son. Govardhan, not wanting to see Pulastya Muni become angry and curse his father, asked the rishi how he would be able to carry him all the way to Kashi. Pulastya Muni said he would carry him in his right hand. Govardhan agreed to go with the sage giving one condition; if the sage put him down anywhere during the course of the journey, he would not be able to lift him again. Pulastya Muni agreed, and left, carrying Govardhan in his right hand.
On the way to Kasi Pulastya Muni passed through Vraja. Govardhan saw the beauty of the place and wished to remain there. Govardhan then arranged for Pulastya Muni to feel the need to relieve himself, so Pulastya Muni attended to the call of nature, putting Govardhan down. When Pulastya Muni returned, he was unable to again lift Govardhan to any degree, despite the tremendous strength he was using to do so.
In great anger Pulastya Muni then cursed Govardhan that He would daily sink into the ground, to the extent of one mustard seed a day. When Govardhan first came to Vraja in the beginning of Satya Yuga, he was 64 miles long, 40 miles wide, and 16 miles high. It is explained that after 10,000 years of the Kali Yuga, Govardhan (and Yamuna Devi) will completely disappear.
After narrating the wonderful story of Govardhan's appearance, (another brother of Nanda Maharaj), Sunanda informed Nanda Maharaja that as long as Govardhan Hill and the river Yamuna remained manifest, Kali Yuga would not take its full effect. Sunanda Prabhu also explained that anyone who is fortunate enough to hear the description of the appearance of Giriraj Govardhan would be freed from all sins.
There is also another legend which relates that during Treta Yug when Lord Rama appeared, Mount Govardhan prayed to Hanuman Maharaj to utilize his stones and boulders in building the bridge to Lanka as he wanted to serve the Lord. When Sri Rama heard his prayer, just at that time, the bridge was completed. Sri Rama then promised Govardhan that in the age of Dwapara when He would appear as Krishna in Vraja, He would daily play and perform pastimes in and around Govardhan and also lift him on His hands for 7 days and 7 nights.
During Krishna’s praktya lila, He alongwith his cowherd friends, would spent their entire day around Giriraj Govardhan. While the cows would happily graze on the fresh tender grass, Krishna and his friends would frolic in the shaded groves and caves of the hill and dive into the cool sarovars and kunds which surround Govardhan.
As the best of servitors, Govardhan Hill provides Krishna and Balarama and the inhabitants of Vrindavan with all the necessities of life. Cool pure drinking water from its many waterfalls, pure honey, succulent fruits, wonderful varieties of herbs, roots, fruits, creepers and fresh flowers. Govardhan also provides various minerals and precious gems that the cowherd boys use to decorate Krishna and Balarama and themselves as well.
Govardhan is also fortunate to provide well-hidden caves and natural stone sitting places for the divine couple where they perform their sweet, loving pastimes. In this way, Giriraj Maharaj is the most confidential servitor of Sri Radha Krishna, being a witness of their intimate pastimes.
The Vedas declare that Govardhan Maharaj is non-different from the Supreme Personality of Godhead, Lord Krishna Himself. When Sri Chaitanya Mahaprabhu visited Vraja in the year 1515, He refused to step on Govardhan Hill because He regarded Govardhan as the body of Lord Krishna. At the time of the Annakuta ceremony, Krishna declared that He and Govardhan Hill are one and the same. Because Govardhan Hill is non-different from Krishna Himself, the rocks from Govardhan are worshipable just like a Deity of Krishna.
In fact, the stones known as Govardhan-sila do not need to be installed as they are already considered to be worshipful Deities. Many great devotees have worshiped the silas from Govardhan such as Sanatana Gosvami Raghunatha dasa Gosvami and Lord Caitanya Mahaprabhu Himself.
Govardhan Hill is envisioned to be in the shape of a peacock resting with its head tucked into its side. Its face is considered to be Kusuma-sarovara, its neck Manasi-ganga, its mouth Mukharavinda, its two eyes Radha-kunda and Syama-kunda, the beginning of its tail Balarama Sthali and the end Punchari-kunda.
In the holy month of Kartik, thousands of devotees perform the parikrama of Giriraj Maharaj revelling in the joyful, transcendental atmosphere of Govardhan. They walk barefoot the 23 km path around Govardhan, or perform dandavat parikrama, which may take weeks, chanting the Lord’s name and glorifying Giriraj Maharaj praying for pure loving devotion unto the lotus feet of Sri Sri Radha Giridhari.
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बाबा के 11 वचन
1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य
.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....
गायत्री मंत्र
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥
Word Meaning of the Gayatri Mantra
ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe
these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation
धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"
dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God
भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।
Simply :
तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.