रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र
महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधिके पुत्र थे| कुश्वंश में पैदा होने के कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं| ये बड़े ही प्रजा पालक तथा धर्मात्मा राजा थे| एक बार ये सेना को साथ लेकर जंगल में शिकार खेलने के लिये गये| वहाँ पर वे महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुँचे|महर्षि वसिष्ठ ने इनसे इनकी तथा राज्य की कुशल-श्रेम पूछी और सेना सहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की|
विश्वामित्र ने कहा - 'भगवन्! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं| आपने जो फल-फूल दिये, उसी से हमारा सत्कार हो गया| अब हमें जाने की आज्ञा दें|'
महर्षि वसिष्ठ ने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया| उनके विनय को देखकर विश्वामित्र ने अपनी स्वीकृति दे दी| महर्षि वसिष्ठ ने अपने योग बल और कामधेनु की सहायता से विश्वामित्र को सैनिकों सहित भली-भांति तृप्त कर दिया| कामधेनु के विलक्षण प्रभाव से विश्वामित्र चकित हो गये| उन्होंने कामधेनु को देने के लिये महर्षि वसिष्ठ से प्रार्थना की| वसिष्ठजी के इन्कार करनेपर वे जबरन कामधेनु को अपने साथ ले जाने लगे| कामधेनु ने अपने प्रभाव से लाखों सैनिक पैदा किये| विश्वामित्र की सेना भाग गयी और वे पराजित हो गये| इससे विश्वामित्र को बड़ी ग्लानी हुई| उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया| वे जंगल में जाकर ब्रह्मर्षि होने के लिये कठोर तपस्या करने लगे|
तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सरा के माध्यम से विश्वामित्र के जीवन में काम का विघ्न आया| ये सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेममें डूब गये| जब इन्हें होश आया तो इनके मन में पश्चात्ताप का उदय हुआ| ये पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गये| काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित किया| राजा त्रिशुंक सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे| यह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होने के कारण वसिष्ठजी ने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया| विश्वामित्र के तप का तेज उस समय सर्वाधिक था| त्रिशुंक विश्वामित्र के पास गये| वसिष्ठ से पुराने वैर को स्मरण करके विश्वामित्र ने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया| सभी ऋषि इस यज्ञ में आये, किन्तु वसिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आये| इस पर क्रोध के वशीभूत होकर विश्वामित्र ने उन्हें मार डाला| अपनी भयङ्कर भूलका ज्ञान होने पर विश्वामित्र ने पुन: तप किया और क्रोध पर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए| सच्ची लगन और सतत उद्योग से सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्र ने इसे सिद्ध कर दिया|
श्री विश्वामित्रजी को भगवान् श्रीराम का दूसरा गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| ये दण्डकारण्य में यज्ञ कर रहे थे| रावण के द्वारा वहाँ नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे| विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का अवतार अयोध्या में हो गया है| फिर ये अपनी यज्ञ रक्षा के लिये श्रीराम को महाराज दशरथ से माँग ले आये| विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई| इन्होंने भगवान् श्रीराम को अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका मिथिला में श्रीसीताजी से विवाह सम्पन्न कराया| महर्षि विश्वमित्र आजीवन पुरुषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान् प्रतीक रहे| सप्तऋषि मण्डल में ये आज भी विद्यमान हैं|