शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Wednesday 31 May 2023

राजा बली

 ॐ श्री साँई राम जी


राजा बली

सद्पुरुष कहते हैं, पुरुष को तपस्या करने से राज मिलता है, पर राज प्राप्ति के बाद उसको नरक भोगना पड़ता है, 'तपो राज तथा राजो नरक' इसका मूल भावार्थ यह है कि राज प्राप्ति के पश्चात मनुष्य अहंकारी हो जाता है| अहंकार के साथ कुछ लालच भी आता है| इसलिए फिर कुछ बात नहीं सूझती| उसके कर्म ऐसे हो जाते हैं कि प्रभु उसको फिर सत्य मार्ग पर लगाने के लिए कोई कौतुक रचता है| ऐसा युगों से होता आया है जैसे कि राजा बली की कथा है| भाई गुरदास जी ने भी लिखा है :-

बलि राजा घरि आपणे अंदरि बैठा जग करावै |
बावन रूपी आइआ चारि बेद मुखि पाठ सुणावै |
राजे अंदरि सदिया मंग सुआमी जो तुधु भावै |
अछल छलनि तुधु आइआ सुक्र प्रोहत कहि समझावै |
करों अढाई धरति मंगि पिछहुं दे त्रिहु लोअ न भावै |
दोइ करवा करि तिन लोअ बलि राजा लै मगर मिणावै |
बलि छलि आपु छलाईअनु होइ दिआलु मिलै गल लावै |
दिता राजु पताल दा होइ अधीन भगति जस गावै |
होइ दरवान महां सुखु पावै |३|


बली नाम का एक प्रतापी राजा था| उसके दादा प्रहलाद ने तपस्या की और अमर राज प्राप्त किया| बली का पिता विरोचन भी नेक पुरुष था| बली बड़ा दानी था, कोई भी उसके पास आता तो वह उसे खाली न जाने देता| स्वयं को राजा जनक या हरीशचन्द्र कहलाता| उसने अपने राज में यज्ञ किये तथा अत्यंत दान दिया, उसे अहंकार हो गया कि मेरे जैसा कौन दानी होगा? ब्राह्मणों को दान देकर संतुष्ट कर दिया है|

परमात्मा ने देखा कि एक अच्छे भले आदमी को अहंकार हो गया है, इसका अहंकार अवश्य चकनाचूर करना चाहिए| यह विचार करके भगवान विष्णु ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और राजा बली के दरबार में पहुंच गया| राजा ने आदर से कहा-हे स्वामी! आज्ञा दीजिए, मैं आपकी इस समय क्या सेवा करूं|

वामन (छोटा ब्राहमण रूप) भगवान बोले-हे राजन! मैं तो एक निर्धन ब्राह्मण हूं| मेरा कोई घर नहीं है| केवल एक इच्छा है कि आप कृपा करके मुझे सिर्फ ढ़ाई कदम धरती दे दें ताकि मैं वहां बैठ कर प्रभु का जाप कर लिया करूं आप से और क्या मांगना है| मुझे बस यही चाहिए, आपके द्वार पर बैठा रहूंगा|

यह सुन कर राजा बली हंसा तथा सम्बोधन करके कहने लगा-हे ब्राह्मण! तुम्हारा कद तो छोटा है, पर बली राजा को मजाक बहुत बड़ा करने आ गए हो| राज्य में खुले वन पड़े हैं, अनगिनत धरती पर लोगों ने आश्रम बनाए हैं, क्या तुम्हें किसी ने बैठने नहीं दिया| मेरे राज में मेरी धरती पर तो हर एक को छूट है, वह आश्रम बनाए धरती को जोते, मैं तो कुछ नहीं कहता| यदि मांगना था तो गाय, अनाज, वस्त्र, हीरे-मोती मांगते| यह क्या मांगा है? तुम ब्राह्मण हो यदि कोई और होता तो मरवा देता|

बावन चुप रहा, वह खड़ा मुस्कराता ही रहा| राजा बली बातें करता रहा|

राजा बली का मंत्री बहुत सूझवान था| वह समझ गया कि यह कोई खेल है| प्रभु स्वयं ही कोई परीक्षा लेने आए हैं| उसने राजा से कहा-राजन! यह वामन ब्राह्मण जिसने थोड़ी-सी ढाई कदम भूमि की मांग की है, वास्तव में कोई विष्णु अवतार लगता है|

'आपको छलने के लिए आया है| कोई अद्भुत खेल न करें| जरा सावधानी से रहना चाहिए| इसकी यह बात नहीं माननी चाहिए| क्षमा मांग लेना ठीक है|'

पर राजा बली को अहंकार ने घेरा हुआ था, उसने एक न सुनी तथा कहा "जाओ ढाई कदम भूमि जहां से लेनी है, अधिकार कर लो| फिर कभी मजाक करने न आना|"

राजा बली की यह बात सुन कर वामन अवतार दरबार से बाहर आया तथा अपना शरीर इतना बढ़ा लिया कि दो कदमों में उसने बली राजा की सारी धरती सहित ब्रह्मांड माप लिया तथा आधी पूरी करने के लिए उसके सिर पर पैर आ रखा| बली राजा को होश आया, पर समय निकल गया था| बली को बावन ने पैर से धकेल कर पाताल में भेज दिया तथा कहा, 'यहां राज करो| यह कह कर जब भगवान रूप बावन चला तो बली ने कहा, 'मैं तो यहां राज करूंगा पर आप ने भी तो वचन दिया है कि द्वार के आगे रहोगे| अब वचन से न फिरो और बैठो|' इस बात में भगवान भी छले गए| बापन रूप धारण कर बली के द्वार के आगे बैठ गया| बली पातालपुरी में भक्ति करने लगा|

Tuesday 30 May 2023

साखी ब्रह्मा और सरस्वती की

 ॐ श्री साँई राम जी



साखी ब्रह्मा और सरस्वती की

चारे वेद वखाणदा चतुर मुखी होई खरा सिआणा |
लोका नो समझाइदा वेख सुरसवती रूप लुभाना |

भाई गुरदास जी के कथन अनुसार चार वेदों को उच्चारने वाला (ब्रह्मा) बहुत सूझवान था, लोगों को उपदेश देता था, पर अपनी पुत्री की जवानी और सुन्दरता को देख कर मोहित हो गया था| जिस कारण उसे दुख उठाना पड़ा था|

सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री थी| वह बहुत ही सुन्दर और जवान थी| एक दिन सुबह सरस्वती नदी से स्नान करके आई| सूर्य की सुनहरी किरणों ने उसके कुंआरे गुलाबी चेहरे को और चमकाया हुआ था| अचानक ब्रह्मा जी खड़े-खड़े उसकी ही तरफ देखने लग गए, उनका दिल बदल गया| उनके मन की इस दशा को जान कर सूझवान सरस्वती ने अपना मुख दूसरी तरफ कर लिया| ब्रह्मा भी उस तरफ देखने लग गए| इस तरह सरस्वती चारों तरफ घूमी| ब्रह्मा के चार मुंह हो गए| सरस्वती ऊपर उड़ गई तो ब्रह्मा ने योग बल से तालू में आंखें लगा लीं| वह किसी कीमत पर भी सरस्वती को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था| यह देख कर भगवान शिव जी बहुत दुखी हुए, उन्होंने आगे बढ़ कर ब्रह्मा का पांचवा सिर (जो तालू के साथ था) धड़ से उतार कर फैंक दिया तथा ब्रह्मा को पुत्री भोग के पाप से बचा लिया|

कर्ण की कथा-कर्ण वास्तव में पांच पांडवों की माता कुंती का ही पुत्र था| पर माया के चक्र और कुंती की तपस्या के कारण पांडवों को इसका ज्ञान न था, क्योंकि जब कर्ण का जन्म हुआ था तब कुंती अभी कुंआरी थी| कर्ण के जन्म की कथा इस प्रकार बताई जाती है- कुंती जब माता-पिता के घर थी तो इसने दूरबाशा ऋषि की खूब सेवा की| ऋषि ने इसको कुछ मंत्र (अहवान) बताए और कहा कि कोई मंत्र पढ़ कर जिस चीज की इच्छा की पूर्ति की कामना करोगी, वह पूर्ण होगी| एक दिन कुंती सूर्य देवता के दर्शन करने के लिए ऊपर राजमहल की छत पर गई| सूर्य की सुनहरी किरणों और उसके बल प्रताप को देख कर उसके मन में आया कि सूर्य देवता यदि मेरे पास मानव रूप में आएं तो देखूं वह कितने बलवान और सुन्दर हैं| यह विचार कर उसने दुरबाशा ऋषि के बताए हुए मंत्रों में से एक मंत्र को पढ़ा| सूर्य एक सुन्दर युवक के रूप में कुंती के पास आ खड़ा हुआ| यह देख कर कुंती सहम गई| भयभीत होकर प्रार्थना की कि सूर्य देवता आप वापिस चले जाएं| पर सूर्य वापिस न गया| उसने कुंती के साथ भोग किया| कुंती कुंआरी ही गर्भवती हो गई, पर दूसरे मंत्र पढ़ने के योग से उसका गर्भ प्रगट न हुआ| जब बालक ने जन्म लिया तो उस बालक को कुंती ने नदी में बहा दिया| बहता हुआ बालक कौरवों के रथवान के हाथ आ गया| उसने बालक का पालन-पोषण करके जवान किया, जो कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ| महाभारत में इसने कौरवों का साथ दिया| अन्त में अपने भाई अर्जुन के हाथों वीरगति प्राप्त की| तब कुंती ने पांडवों को बताया कि कर्ण तुम्हारा भाई है|


समुद्र खारा होना 

यह आम सवाल है की जिस समुद्र में से अमृत, कामधेनु, लक्ष्मी, कल्प वृक्ष, धन्वंतरी वैद्य आदि कई तरह के बहुमूल्य पदार्थ निकले वह क्षार क्यों है? कहते हैं की अगस्त मुनि के क्रोधित हो कर एक बार सारे सागर के पानी को ढाई चुल्लियों में पी लिया था| जब जल पी लिया गया तो जितने जल-जीव थे, वह तड़पने और पुकारने लगे कि क्या हो गया? वह किसके सहारे जीवित रहेंगे? प्रभु ने तब अगस्त को प्रेरणा की कि पेट में कैद किए सागर को पहले की तरह स्वतन्त्र कर दो| भगवान के कहने पर अगस्त ने पेशाब किया, इसी कारण सागर का जल क्षार है|

कैसी दैत्य :- केसी कंस मथनु जिनी कीआ ||

कैसी दैत्य राजा कंस के वश में था| पापी कंस ने जहां श्री कृष्ण जी को मारने के अनेकों उपाय किए, वहीं कैसी दैत्य को भी घोड़ाबना कर गोकुल भेजा| पर श्री कृष्ण ने अपने योग बल द्वारा कैसी दैत्य को मार दिया| यहां भक्त नामदेव जी ईशारा करते हैं कि श्री कृष्ण जी हरि रूप थे जिन्होंने कैसी तथा कंस को (मक्खन) रिड़क-रिड़क अथवा कोह-कोह कर मारा था|

काली सर्प :- गोकुल के नजदीक ही यमुना में एक गहरा कुण्ड था| उस कुण्ड में एक सौ फन वाला सर्प रहता था| उसको 'काली'नाग भी कहा जाता था| गरुड़ भगवान से डरता हुआ वह उस कुण्ड में आ छिपा था, वह बहुत ज़हरीला था| जब वह फुंकारा मारता या सांस लेता था तो कुण्ड का पानी उबले लग पड़ता था| इसी कारण उस कुण्ड का नाम 'काली कुण्ड' पड़ गया था| उसका जल दूषित हो गया था| श्री कृष्ण ने एक दिन गेंद लेने के बहाने काली कुण्ड में छलांग लगा दी| श्री कृष्ण की नाग से लड़ाई हुई| उसके सौ फनो को श्री कृष्ण ने पैरों से कुचल दिया| काली सांप बेहोश हो कर हार गया| श्री कृष्ण ने उसको कहा, "यमुना कुण्ड छोड़ कर कहीं अन्य जगह चले जाओ|" काली सांप कुण्ड को छोड़ कर चला गया|

दुरबाशा ऋषि :- दुरबाशा ऋषि अत्तरे मुनि के पुत्र थे| इनको शिव का अवतार माना जाता है| जब युवा हुए तो औरव मुनि की सपुत्री कंदली से दुरबाशा का विवाह हो गया| इनमें तमो गुण विद्यमान थे| इस कारण बहुत क्रोधवान थे| इन्होंने अनेकों को वर और हजारों को श्राप दिए| शकुंतला को इन्होंने ही श्राप दिया था कि दुष्यंत तुम्हें भूल जाए| द्रौपदी को वर दिया था कि तुम्हारे पर्दे ढके रहें| अन्य भी कथा-कहानियां हैं|

दुरबाशा ने जब विवाह किया था तो प्रतिज्ञा की थी कि अपनी पत्नी की सौ भूलें बक्श देंगे| जब सौ से ऊपर भूल हुई तो क्रोधित होकर कंदली को भस्म कर दिया| औरव मुनि ने श्राप दे दिया| एक बार पिंडारक तीर्थ पर ताप करने के लिए गए तो वहां यादव बालक खेलने आया करते थे| वह बहुत मजाकीये थे| उन्होंने एक दिन दुरबाशा का मजाक किया| वह मजाक इस तरह था कि जमवंती के पुत्र सांब के पेट पर लोहे की बाटी बांध दी| स्त्रियों जैसे वस्त्र पहना कर घूंघट निकलवाया तथा दुरबाशा के पास ले गए और पूछने लगे, 'हे ऋषि जी! बताओ लड़की होगी या लड़का?

दुरबाशा समझ गया कि यह मेरे साथ मजाक कर रहे हैं, उसने सहज स्वभाव ही उत्तर दिया -'लोहे का मूसल पैदा होगा जो यादवों की कुल नाश करेगा|' यादवों को श्राप दे दिया, उस ओर ईशारा है :-

दुरबाशा के श्राप से "यादव इह फल पाए||"इस तरह दुरबाशा के श्राप से यादवों की कुल नष्ट हो गई थी|


अठारह पुराण 

गुरुबाणी तथा गुरमति साहित्य में 'आठ दस' या अठारह पुराणों का नाम बहुत बार आता है| जिज्ञासुओं के ज्ञान के लिए अठारह पुराणों की सूची आगे दी जाती है :-

१. ब्रह्मा पुराण | २. विष्णु पुराण | ३. वायु पुराण | ४. लिंग पुराण | ५. पदम पुराण | ६. सकंध पुराण | ७. बावन पुराण | ८. मस्ताना | ९. वराह पुराण | १०. अग्नि पुराण | ११. भूरम पुराण | १२. गरुड़ पुराण | १३. नारदीय | १४. भविष्यत पुराण | १५. ब्राह्मण वेवरत पुराण | १६. मारकंडे पुराण | १७. ब्रह्मांड पुराण | १८. श्रीमद् भागवत पुराण |

सहसबाहु-सहसबाहु का वास्तविक नाम कांहत विर्यारजन था| यह कृतवीर्य का पुत्र था| इसकी हजार भुजाएं थीं| इसलिए सहसबाहु कहा जाता था| गुरु नानक जी फरमाते हैं :-

सहस बाहु मधु कीट महिखासा ||
हरणाखसु ले नखहु बिधासा ||
दैत संघारे बिनु भगति अभिआसा ||

सहसबाहु का राज नर्मदा नदी के दोनों तरफ था| एक दिन कहते हैं कि सहसबाहु नदी में स्नान कर रहा था कि हजार भुजाएं फैला कर इस नदी के जल को रोक लिया| जल इकट्ठा होकर ऊंचा होने लगा| पानी ऊंचा होकर नदी किनारे खेतों तथा जंगलों में फैलने लगा| एक वन में रावण भक्ति कर रहा था, पानी उसके नीचे चला गया| सहसबाहु ने उसको जकड़ कर बंदी बना लिया| इसी सहसबाहु ने जमदग्नि को मारा था|

रक्त बीज 

रक्त बीज एक ऐसा दैत्य था कि इसके रक्त की जितनी बूंदें धरती पर गिरती उतने ही दैत्य उत्पन्न हो जाते थे| कहते हैं कि राजा निसुंभ की लड़ाई देवी माता दुर्गा से हुई तो रक्त बीज उस से सुंभ निसुंभ की तरफ सेनापति था| काली मां ने इसके रक्त को पीकर इसका संहार किया था|


मधु कीटब

यह दो दैत्य थे| भगवान विष्णु ने इनको अपने कानों की मैल से उत्पन्न किया था| युवा होकर दोनों दैत्य ब्रह्मा जी को खाने लगे| ब्रह्मा जी ने अपने प्राण बचाने के लिए भगवान विष्णु की उस्तति की और उन्हें सोते हुए जगाया| भगवान विष्णु कई हजार वर्षों से सोए हुए थे| ब्रह्मा जी के ध्यान करने पर वह अपनी निद्रा से जाग उठे| दैत्य मधु और कीटब से भगवान विष्णु का पांच हजार वर्ष घोर युद्ध होता रहा लेकिन इस युद्ध में न ही विष्णु जी हारे और न ही मधु कीटब ने दम छोड़ा| अंत में महा माया ने हस्तक्षेप किया| मोहिनी रूप होकर उसने मधु और कीटब को भ्रम में डाल दिया| दोनों दैत्य शांत हो गए| उन्होंने भगवान विष्णु से लड़ना छोड़ दिया| दोनों राक्षसों ने विष्णु से कहा, 'आप हमारे साथ बहादुरी से लड़ते रहे हो, इसलिए जो चाहे वार मांग लीजिए|'

"मुझे अपने सिर दे दें|" यह मांग भगवान विष्णु ने मधु और कीटब राक्षसों से की| वचन के अनुसार दैत्यों को अपने सिर भगवान विष्णु को अर्पण करने पड़े| भगवान विष्णु ने अपनी जांघ पर दोनों दैत्यों के सिर धड़ से जुदा कर दिए| दैत्यों के सिर काटने पर उनका जो रक्त उससे निकला, वह समुद्र के पानी में जम कर धरती बन गई| यह धरती की भी जन्म कथा है|

Monday 29 May 2023

साखी राजा भक्तों की

 ॐ श्री साँई राम जी


साखी राजा भक्तों की

१. राजा परीक्षित-राजा परीक्षित अर्जुन (पांडव) का पौत्रा और अभिमन्यु का पुत्र था| महाभारत के युद्ध के बाद यह राजा बना| कलयुग में इसकी चर्चा हुई| पांडवों की संतान का यह एक महान पुरुष था, इसको हस्तिनापुर के सिंघासन पर बिठा कर पांचों पांडव द्रौपदी सहित हिमालय पर्वत को चले गए| यह कई साल राज करता रहा| इस बीच प्रजा को बहुत दुःख हुआ| यह कलयुग का मुख्य राजा था|

२. परूरवा - "दूरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाईओ ||"परूरवा एक राजा हुआ था| वह उर्वशी अप्सरा पर मुग्ध हो गया| परूरवा 'ऐल' का पुत्र था| उर्वशी के वियोग में ही तड़पता रहा तथा इधर-उधर भटकता रहा| इसने प्रभु की भक्ति भी की है| इनके वीर्य से उर्वशी से इन राजकुमारों को जन्म दिया था - आयु, अमावस विश्वास, सतायु, द्रिढायु| राजा परूरवा बहुत बड़े महाबली हुए थे और उर्वशी का नाटक कालिदास ने लिखा था|

३. भगीरथ - भगीरथ राजा दलीप का पुत्र तथा राजा अंशमान का पौत्रा था| राजा अंशमान तथा राजा दलीप ने स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तपस्या की थी पर वह बीच में ही मर गए तथा उनकी इच्छा पूरी न हो सकी| भगीरथ घोर तपस्या करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर लेकर आए, भगवान शिव जी की जटाओं का सहारा लेकर गंगा धरती पर आई| गंगा ने जहानुव ऋषि का आश्रम तथा पूजा की सामग्री बहा दी थी| इस पर जाहनुव ऋषि ने क्रोधित हो कर गंगा को पी लिया था| भगवान शिव जी तथा भगीरथ ने फिर जाहनुव ऋषि को मनाया, उसके पास से गंगा को मुक्त करवा कर धरती पर चलाया तथा भगीरथ ने अपने पूर्वज-पित्रों को जल दिया, जिससे उनका कल्याण हुआ|

४. मानधाता - मानधाता सुयवंशी राजा युवनाशु का पुत्र था| पर इसने मां के पेट से जन्म नहीं लिया, बल्कि राजा के पेट में से (पुरुष के पेट में से) जन्म लिया| यह कथा संक्षेप रूप में इस तरह है - राजा युवनाशु का कोई पुत्र-पुत्री नहीं था| उसने ऋषि-मुनि आमंत्रित करके एक ऋषि के आश्रम में महायज्ञ करवाया| यज्ञ के पश्चात महर्षियों ने पानी का घड़ा मंत्र पढ़ कर रखा| जिसका जल युवनाशु की रानी को पीने के लिए दिया जाना था| रात हुई तो सभी सो गए, ऋषि-मुनि भी सो गए| राजा युवनाशु को प्यास लगी, तो उसने उस मंत्र किए हुए घड़े में से पानी पी लिया| उस जल के कारण राजा के पेट में बच्चा बन गया| पेट चीर कर बच्चे को बाहर निकाला गया| उस बच्चे का नाम मानधाता था| मानधाता ने बिंदरासती से विवाह किया, उसके तीन पुत्र तथा पचास कन्याएं पैदा हुईं| पूर्व जन्म में प्रभु की अटूट भक्ति की थी जिस कारण इसकी बहुत शोभा हुई, यह भक्तों में गिना गया|

५. रुकमांगद - रुकमांगद करतूति राम जंपहु नित भाई
रुकमांगद राजा एकादशी का व्रत रखता था, कहते हैं कि वह ब्रह्मचारी था| यह कभी सपने में भी पराई स्त्री के निकट नहीं जाता था| अपनी स्त्री से बहुत ज्यादा प्यार करता था| एक बार एक अप्सरा उस पर मोहित हो गई, पर इस धर्मी राजा ने उसके प्यार और उसकी सुन्दरता को ठुकरा दिया| एकदशी के व्रत का उसे महत्व बता कर वापिस स्वर्ग लोक भेज दिया| उस दिन से एकादशी का व्रत आरम्भ हो गया| राजा आयु भर एकादशी का व्रत रखता रहा| उसका नाम भक्तों में बड़े आदर से लिया जाता है|

६. रावण - 


इक लखु पूत सवा लखु नाती ||
तिह रावण घर दीआ न बाती ||

रावण लंका का दैत्य राजा था| इसकी माता का नाम कोक तथा पिता का नाम पुलसत्य था| यह तीन भाई थे, दूसरे दो भाईयों के नाम कुम्भकर्ण और विभीषण थे| रावण सीता को उठा कर लंका ले गया| श्री राम चन्द्र जी ने चढ़ाई की, युद्ध हुआ तथा रावण मारा गया| रावण के दस सिर थे, वह बली तथा विद्वान था| इसने चार वेदों की व्याख्या की इसके एक लाख पुत्र तथा सवा लाख पुत्रियां थीं, पर अन्याय एवं जुल्म करने के कारण उसकी सोने की लंका, स्वयं तथा पुत्र-पुत्रियां सब खत्म हो गए| सीता का हरण कर के लंका लेकर आना उसका महापाप था|

७. राजा अजय - 

अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ||
ऐसी दरगह मिलै सजाइ ||

राजा अजय, दशरथ के पिता तथा श्री राम चन्द्र जी के दादा थे| इसने एक साधू को घोड़ों की लीद अंजली भर कर दान कर दी थी| क्योंकि साधू ने उस समय भिक्षा मांगी जब राजा घोड़ों के पास था तथा लीद ही वहां थी| गुस्से में आकर उसने लीद दान में दे दी| साधू ने श्राप दिया तथा लीद कई गुणा रोज़ बढ़ती गई| कहते हैं कि वह लीद का दिया हुआ दान उसको खाना पड़ा, जब वह लीद खाता था तो रोया करता था तथा कहता था कि किसी संत-महात्मा के साथ नाराज होना ठीक नहीं, दिया हुआ दान आगे प्रभु के दरबार में मिलता है|

८. बाबा आदम - भक्त कबीर जी ने भैरऊ राग में बाबा आदम जी का जिक्र किया है|


"बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ||
उनि भी भिसति घनेरी पाई ||"

ईसारी धर्म की पुरानी पुस्तक 'अंजील' के मुख्य पात्र बाबा आदम जी हैं| 'अंजील' के अनुसार बाबा आदम जी की कथा इस प्रकार है-खुदा ने पहले मनुष्य बनाया था| खुदा पहले शैतान को भी बना बैठा था| मनुष्य बना कर खुदा ने सभी फरिश्तों (देवताओं) को कहा कि आदम को सलाम करो| सबने सलाम किया, पर शैतान ने सलाम न किया| अदन में स्वर्ग बना कर आदम ने जीवन साथी पहली स्त्री माई हवा को अदन के स्वर्ग बाग में भेज दिया| खुदा ने ज्ञान फल (गेहूं) खाने से आदम और हवा को रोका पर शैतान ने एक दिन आदम की अनुपस्थिति में अकेली हवा को उकसाया| अपनी हेराफेरी का शिकार बना कर कहा कि खुदा ने जो काम की चीज़ खाने वाली है उसे तो खाने से रोक दिया है, ज्ञान फल खा कर देखो, चारों कुण्ट का ज्ञान हो जायेगा, तुम जरूर आदम को कहना और ज्ञान फल खाने के लिए प्रेरित करना, यह कह कर शैतान अलोप हो गया| हवा के दिल में ज्ञान फल खाने की तीव्र इच्छा पैदा हो गई| जब आदम मिला तो हवा ने उसे ज्ञान फल खाने के लिए मना लिया| आदम और हवा ने जब ज्ञान फल खा लिया तो उन्हें स्त्री-पुरुष, काम, मोह, लालच और शर्म आदि का ज्ञान हो गया| उनको अपने नग्न तन के बारे में ज्ञान हुआ तो एक दूसरे से दूर हो कर छिप गए| इस बात का खुदा को पता लग गया| खुदा स्वयं आया और दोनों को एक-दूसरे के निकट करके समझाया-शैतान का कहना मान कर आपने भारी भूल की है, जाओ अब स्वर्ग में नहीं रह सकते| स्त्री-पुरुष बन कर रहो और संतान पैदा करो| खुदा ने शैतान को सर्प योनि का श्राप दे दिया| आदम और हवा के हजारों पुत्र हुए जिन से संसार की जन-संख्या बढ़ी| खुदा का कहना न मानने के कारण आदम गुनाहगार था, इसलिए उसकी औलाद भी गुनाहगार है| उसका उद्धार सत्य तथा सिमरन के सहारे है|

९. अरुण पिंगला - अरुण पिंगला बल वाला पक्षी और भगवान गरुड़ का भाई है| सूर्य का रथवान बना हुआ है| पर यह पिंगला है, पिंगला होने के कारण इसके जीवन में अधूरापन है| बिनता के दो अण्डे हुए| बिनता के पति ने कहा कि हर अण्डा हजार साल से पहले न तोड़ना, पर बिनता ने एक अण्डा पांच सौ साल बाद तोड़ दिया| इसलिए अरुण का शरीर पूरा नहीं बना था| पर गरुड़ का अण्डा हजार साल बाद अपने आप टूटा था, वह पूर्ण पक्षी बना| पूर्व जन्म के श्राप के कारण सूर्य और गरुड़ उसकी कोई सहायता नहीं करते थे|

१०. इन्द्र रो पड़ा - सहंसर दान दे इन्द्र रोआइआया ||
इन्द्र देवताओं का बड़ा राजा था, पर अहल्या के साथ दुष्कर्म करने के कारण शरीर पर हजार भग हो गई थी| इस कष्ट के कारण रोता रहा था| हजार भग का श्राप उसको अहल्या के पति ऋषि गौतम ने दिया था| जैसा कि पीछे गौतम तथा अहल्या की कथा में बताया गया है| इससे शिक्षा मिलती है कि पर-नारी की ओर ध्यान नहीं करना चाहिए|

Sunday 28 May 2023

साखी गरुड़ की

 ॐ श्री साँई राम जी



साखी गरुड़ की

पुरातन काल में एक ऋषि कश्यप हुए हैं, वह गृहस्थी थे तथा उनकी दो पत्नियां थीं - बिनता और कदरू| कदरू के गर्भ में से सांप पैदा होते थे जिनकी कोई संख्या नहीं थी, पर बिनता के कोई पुत्र पैदा नहीं होता था| वह बहुत दुखी थी| उसने अपने पति के आगे अपना दुःख प्रगट किया| कश्यप ने कहा-तुम्हारे पुत्र तभी हो सकता है, यदि यज्ञ किया जाए| बिनता ने कहा-तुम्हारे पुत्र तभी हो सकता है, यदि यज्ञ किया जाए| बिनता ने कहा-फिर यज्ञ करो| यज्ञ का प्रबन्ध किया गया| देवराज इन्द्र जैसे देवता यज्ञ में आए| उस यज्ञ के साल बाद बिनता के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए जो अग्नि तथा सूर्य के समान बहुत तेज़ वाले थे| एक का नाम गरुड़ तथा दूसरे का अरूण रखा गया| जब दोनों बड़े हुए तो गरुड़ को विष्णु जी ने अपना यान बना लिया, उस पर सवारी करने लगे| गरुड़ सब पक्षियों से तेज़ दौड़ता था| अरूण सूर्य का रथवान बन बैठा क्योंकि वह बहुत महाबली था, सूर्य उस पर प्रसन्न रहता था|

अरूण तथा गरुड़ के बाद बिनता के चार पुत्र पैदा हुए| जिनके नाम यह हैं - ताख्रया, अरिष्ट नेमि, आरूनि तथा वारूण| ये छ: पुत्र बड़े सूझवान तथा बली थे, पर सांपों से इनको सदा खतरा रहता था| कदरू चाहती भी थी कि बिनता के पुत्र मार दिए जाएं, पर उसको कोई बहाना तथा समय हाथ नहीं आता था| महाभारत में कथा आती है कि बिनता तथा कदरू एक दिन किसी बात पर आपस में वाद-विवाद करने लग पड़ी कि सूर्य का घोड़ा काला है या सफेद| कदरू कहती थी काला तथा बिनता रहती थी सफेद| चालाकी से कदरू ने सफेद घोड़े को काला साबित करके बिनता को दिखा दिया| शर्त के अनुसार बिनता पुत्रों सहित सौतन की गुलाम हो कर रहने लगी| पराधीन मनुष्य तो स्वप्न में भी सुखी नहीं होता, फिर सौतन की पराधीनता तो वैसे ही बुरी होती है| बिनता बहुत दु:खी हुई| बिनता ने कदरू से पूछा कि क्या कोई मार्ग है जिससे मैं स्वतन्त्र हो सकती हूं? कदरू ने उत्तर दिया - 'यदि स्वर्ग (इन्द्र लोक) में से अमृत का घड़ा मंगवा कर मुझे दे दो तो तुम तथा तुम्हारे पुत्र भी स्वतन्त्र हो जाएंगे, क्योंकि मैं अमृत अपने पुत्र सांपों को पिला दूंगी, वह अमर हो जाएंगे, उनको कोई नहीं मार सकेगा|'

सौतन की इस मांग को बिनता ने अपने पुत्र गरूड़ के आगे प्रगट किया| बलशाली गरूड़ बोले-'हे माता! तुम्हारे सुखों के लिए मैं जान कुर्बान करने के लिए तैयार हूं| आज ही इन्द्र लोक पहुंचता हूं तथा अमृत का घड़ा लेकर आता हूं| यह कौन-सी कठिन बात है|' माता को इस तरह धैर्य देकर गरूड़ इन्द्रलोक चला गया| अमृत के घड़े को देवता भला कैसे उठाने देते| गरूड़ तथा इन्द्र की लड़ाई हो गई| कई दिन महा भयानक युद्ध लड़ते रहे| अंत में इन्द्र हार गया तथा गरूड़ जीत गया| गरूड़ की बहादुरी को देख कर इन्द्र उस पर प्रसन्न हो गया, खुशी में कहने लगा - 'कोई वर मांगना हो तो मांग लो|' उस समय गरूड़ ने यह वर मांगा, 'एक तो मैं प्रभु विष्णु जी की सेवा करता रहूं तथा दूसरा सांप मेरी खुराक हो जाएं|' गरूड़ की यह मांगें सुन कर इन्द्र ने यहीं वर दिए| वर देने के पश्चात पूछा, 'एक तरफ तुम सांपों को अमृत दे कर अमर कर रहे हो, दूसरी तरफ कहते हो वह मेरी खुराक बन जाएं, यह क्या मामला है?' गरूड़ बोला - 'मैंने अमृत दे कर माता के वचन की पालना करनी है तथा उनको उनकी सौतन से स्वतन्त्र करवाना है| जब मेरा धर्म पूरा हो जायेगा बेशक आप घड़ा वापिस मंगवा लेना| मैंने इसका क्या करना है| हां ऐसे करो! दूत मेरे साथ भेजो! जब मेरी माता यह अमृत का घड़ा मेरी सौतेली माता कदरू के हवाले करे तो उस समय वह जहां उस घड़े को रखे वहां से आपके दूत उस घड़े को उठा कर भाग आएं|'

गरूड़ की इस योजना को देवराज इन्द्र मान गया| इन्द्र ने उसी समय अपने चार दूत गरूड़ के पीछे मृत्यु लोक में भेज दिए| गरूड़ अमृत का घड़ा लेकर घर पहुंचा| अपनी मां को सौंपकर खुशियां प्राप्त कीं| बिनता ने वही घड़ा जा कर कदरू को सौंप दिया तथा कदरू ने घड़ा एक स्थान पर रखकर बिनता को स्वतन्त्र कर दिया| उधर सांपों के अमृत घड़े के पास पहुंचने से पहले ही इन्द्र के दूत घड़ा उठा कर रफ्फू चक्कर हो गए| कदरू के कहने पर सांप अमृत पीने गए| उनको घड़ा न मिला, पर जिस जगह घड़ा रखा हुआ था, उसी जगह को जीभों से चाटने लग गए| उनकी जीभें छिल गईं| उस दिन से सांपों की नस्ली तौर पर जीभ छिलनी शुरू हो गई|

रामायण में लिखा है कि जब श्री रामचन्द्र जी मेघनाद से युद्ध कर रहे थे तो मेघनाद ने दैवी शक्ति के बल से श्री रामचन्द्र जी को सेना सहित नागों के फन से धरती पर गिरा लिया| उस समय देवर्षि नारद तथा भगवान विष्णु ने गरूड़ को भेजा| गरूड़ ने जाकर सारे नाग खा लिए तथा श्री रामचन्द्र जी को सेना सहित मरने से बचा लिया|

हिन्दू लोग गरूड़ को भगवान का रूप भी मानते हैं| यह पक्षियों का राजा तथा विष्णु का सेवादार है| इसके दर्शन करने बहुत शुभ हैं|

Saturday 27 May 2023

सत्ता और बलवंड

 ॐ श्री साँई राम जी




सत्ता और बलवंड

सत्ता और बलवंड दोनों सगे भाई थे| वह भाट जाति से थे और पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी के समय उनकी हजूरी में कीर्तन किया करते थे| रागों में निपुण होने के कारण वह अच्छे रबाबी बन गए| उनकी चारों तरफ कीर्ति थी और गुरु घर में उनको अच्छा मान-सम्मान प्राप्त था| उनका कीर्तन सुनकर सारी संगत का समां बंध जाता था| सत्ता की लड़की जवान हुई तो उसका विवाह करने का निर्णय किया गया| गुरु घर के रबाबी होने के कारण उन्होंने सलाह की कि लड़की का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ किया जाएगा लेकिन सत्ता और बलवंड के पास इतना धन नहीं था कि जो अच्छा दहेज दे सकें और आए मेहमानों एवं बारातियों को अच्छा से अच्छा भोजन खिला सकें| सत्ता ने अपने भाई बलवंड से सलाह करके मन में सोचा कि वह सतिगुरु जी के आगे प्रार्थना करेंगे कि सतिगुरु जी एक दिन की सारी भेंट उन्हें देने की कृपा करें, वह भेंट अधिक होगी तथा उनके सारे कार्य संवर जाएंगे|

यह सोचकर दोनों भाई सतिगुरु जी के पास गए और विनती की, 'महाराज! हमारी लड़की का विवाह है लेकिन विवाह का खर्च पूरा करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं, इसलिए आप जी कृपा करके आज की सारी भेंट हमें देकर मेहर करें|'

रबाबियों की यह बात सुनकर सतिगुरु जी मुस्करा दिए और वचन किया, 'राय कन्या की शादी की चिन्ता न करो| गुरु घर में कीर्तनीए होने के कारण आपको कोई कमी नहीं आएगी| आवश्यकता अनुसार आपको धन मिल जाएगा|

लेकिन सत्ता और बलवंड सतिगुरु जी के वचनों का भावार्थ न समझ सके, उनके मन में लालच आ गया था| सतिगुरु जी उनके मन की बदली हुई दशा को जान गए थे| इसलिए गुरु जी अहंकार की अग्नि से उन दोनों को बचाना चाहते थे| लेकिन रबाबी अहंकार से न बच सके और उन्होंने अपनी जिद्द न छोड़ी| अन्त में सतिगुरु जी ने वचन किया, 'ठीक है, जो भेंट कल संगत चढ़ाएगी आप ले जाना और उससे अपनी पुत्री की शादी कर लेना|'

प्रात:काल सत्ता और बलवंड ने कीर्तन करना शुरू किया लेकिन उनकी वृति कीर्तन की तरफ से उखड़कर भेंट की ओर लग गई| कीर्तन के समय जो भी सिक्ख या गुरु घर का श्रद्धालु आकार नमस्कार करता तो दोनों भाइयों की निगाह उसके चढ़ावे की तरफ लग जाती| इस तरह कीर्तन में रस न रहा, ताल की एकसुरता टूट गई और लै कांपने लगी| गुरुबाणी में भी कई भूलें होने लगीं तथा बेरसी छा गई|

उनके कीर्तन की बेरसी और संगत के कम आने के कारण ऐसा सबब बना कि एक सौ रूपए से अधिक चढ़ावा भेंट न हुआ| भेंट कम देखकर दोनों भाइयों के सिर में पानी फिर गया|

वह कुछ गुस्से और हैरानी के साथ बोले, 'महाराज! संगत की ओर से भेंटे बहुत कम चढ़ाई गई हैं, इसलिए हमारी और सहायता कीजिए, इतने से शादी नहीं हो सकती|

यह सुनकर पांचवें पातशाह मुस्कराए और वचन किया, 'भाई आप ने चढ़ावे का फैसला किया था| इसलिए चढ़ावा ले जाओ| कन्या की किस्मत में जो कुछ होगा, वह उसको मिल जाएगा| लड़की की चिन्ता न करो पर अपना वचन निभाओ|'

उस समय दोनों भाइयों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई तथा उनको किसी बात की समझ ही नहीं आई| मन में अहंकार था कि वह कीर्तनीए हैं, यदि कीर्तन न करेंगे तो गुरु का दरबार कैसे लगेगा? सतिगुरु महाराज जी की शक्ति का अनुभव भी भूल गया और अहंकार करके बैठने का फैसला कर लिया|

अगली सुबह 'आसा की वार' का कीर्तन होना था लेकिन दोनों ही रबाबी हाजिर न हुए और घर में पलंग पर लेटे रहे| दरबार में संगत इंतजार करने लगी| सतिगुरु जी भी अपने नियम अनुसार दरबार में उपस्थित हुए और सिंघासन पर विराजमान हो गए| गुरु जी ने रबाबियों को दरबार में अनुपस्थित देखकर एक सिक्ख को कहा कि वह उन दोनों को बुला कर लाए| श्रद्धालु सिक्ख दौड़ कर गया| उसने दोनों भाइयों सत्ता और बलवंड को जाकर कहा, 'श्रीमान जी! सच्चे पातशाह आपको याद कर रहे हैं, आप चलकर कीर्तन करो|'

यह सुनकर सत्ते के तनबदन में आग लग गई और पागलों की तरह गुस्से से बोला, 'हमने कोई कीर्तन नहीं करने जाना| यदि हमने चढ़ावे के लिए कहा तो मसंदों द्वारा चढ़ावा रोक दिया गया| हमारे साथभेदभाव किया गया है| इसलिए आज से हम गुरु घर में कीर्तन नहीं करेंगे|

किसी और सोढी या बेदी के आगे कीर्तन करके उसको गुरु बना सकते हैं| गुरु बनाना या न बनाना हमारे वश में है| यह उत्तर सुनकर सिक्ख वापिस लौट आया और उसने सारी बात सतिगुरु महाराज जी के आगे व्यक्त कर दी|

दया एवं विनय के सागर सच्चे पातशाह नाराज न हुए अपितु भाई गुरदास जी को यह कह कर भेजा कि वह रागियों को सत्कार सहित दरबार में ले आएं| उनकी कन्या का विवाह उसी तरह धूमधाम से हो जाएगा, जैसा वह चाहते हैं|

भाई गुरदास जी सत्ता और बलवंड के घर पहुंचे| उन्होंने बड़ी नम्रता से दोनों को समझाने का प्रयास किया लेकिन रबाबियों का गुस्सा शांत न हुआ| भाई बलवंड ने बड़े गुस्से और मूर्खता के साथ यह जवाब दिया, 'जाओ आप कीर्तन कर लो| गुरु यदि इतनी शक्ति रखते हैं तो वह आप ही कीर्तन करें| हम आगे से गुरु दरबार में कीर्तन नहीं करेंगे|' भाई गुरदास जी ने फिर भी इसका गुस्सा न किया अपितु सत्ता और बलवंड को समझा कर उनके मन को शांत करने का अथक प्रयास किया लेकिन वे टस से मस न हुए| दोनों भाई हठ करके बैठे रहे मगर गुरु दरबार में उपस्थित न हुए|

पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज स्वयं सिंघासन से उठकर रबाबियों के घर पहुंचे| संगत भी गुरु जी के साथ जाना चाहती थी लेकिन सतिगुरु जी ने भाई गुरदास जी के अलावा किसी अन्य को साथ न लिया| दीन दुनिया के वाली सत्ता और बलवंड के घर पधारे तो सबब से दरवाजा खुला हुआ था| गुरु साहिब आंगन में चले गए| आगे दोनों भाई चारपाई पर बैठे थे| उन्होंने इतना जिद्दीपन अपनाया कि न उठकर श्री सतिगुरु अर्जुन देव जी को नमस्कार की और न ही उनका स्वागत किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया, 'चलो, भाई! गुरु घर में कीर्तन करो और सतिगुरु नानक देव जी की खुशियां प्राप्त करो| गुरु घर के साथ नाराज तोना ठीक नहीं, गुरुबाणी संगत को सुनानी है| आपकी कन्या की शादी के लिए आपको पर्याप्त धन मिल जाएगा|'

राय बलवंड बड़ा गुस्सैल स्वभाव वाला साबित हुआ| उसने आगे से बड़े अहंकार के साथ कहा, 'हमने नहीं कीर्तन करने जाना| हमने आपको गुरु बनाने का प्रयास किया लेकिन आपने हमारे साथ छल करके भेंटें न चढ़ने दीं, जिससे दिल चाहे कीर्तन करवा लें| हम किसी अन्य सोढी के पास चले जाएंगे| श्री गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु रामदास जी तक हम ही गुरु बनाते आए हैं, यदि हम कीर्तन न करते तो आपको किसने गुरु मानना था?'

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने जब ऐसे कटु वचन सुने तो बड़े सतिगुरुों की निंदा सुनी, तब वह सहन न कर सके और क्रोध में आकर वचन किया - 'सत्ता और बलवंड आप कुष्ठी हो गए हो, यह कुष्ठ आपको तंग करेगा|' यह वचन करके गुरु जी अपने दरबार में आ गए|

दरबार में आकर गुरु जी ने अपनी आत्मिक शक्ति का एक महान चमत्कार दिखाया| वह चमत्कार इस प्रकार था कि उन्होंने दरबार में हुक्म कर दिया कि आज से गुरु घर के सिक्ख आप कीर्तन किया करेंगे| साज बजाएंगे और ऐसे अहंकारी गायकों की कभी आवश्यकता नहीं रहेगी| यह वचन करके सतिगुरु जी ने दो सिक्खों को इशारा किया कि वह साज पकड़कर कीर्तन करें| सिक्खों ने साज लेकर राग गाया| ऐसा चमत्कार हुआ कि गंधर्व रागियों की तरह कीर्तन का रस बंध गया तथा सचमुच ही रबाबियों की आवश्यकता न रही|


सत्ता और बलवंड को कुष्ठ रोग होना 

सतिगुरु जी के वापिस आने के पश्चात सत्ता और बलवंड को सचमुच ही कुष्ठ रोग हो गया| वह जिधर को निकलते, लोग उनके दर्शन न करते और अपना द्वार बंद कर लेते, क्योंकि वह सतिगुरु जी के फिटकारे हुए थे| धीरे-धीरे रोग बढ़ गया| एकत्रित किया हुआ धन समाप्त हो गया और गुरु निंदकों को किसी सोढी या बेदी ने मुंह न लगाया| दिन-ब-दिन उनकी दशा खराब हो गई तथा वह दुःख पाने लगे|

दुखी हुए दोनों भाई चाहते थे कि सतिगुरु जी उन दोनों की भूल क्षमा कर दें लेकिन वह सतिगुरु जी के हजूर में किसी तरह भी नहीं जा सकते थे| गुरु जी ने हुक्म किया था कि जो भी कोई इन दोनों की फरियाद करेगा, उनका मुंह काला कर दिया जाएगा| जिस कारण कोई भी सिक्ख डरता हुआ सतिगुरु के समक्ष विनती न करता| सभी डरते थे कि सतिगुरु जी शायद उनको भी श्राप न दे दें|

दोनों भाई अपनी छत पर खड़े होकर अपने मुख पर आप तमाचे मारते थे और की हुई भूल पर रो-रोकर पछतावा करते| वह चिल्ला कर कहते, 'कोई हमारा दुःख सुने तथा गुरु जी के पास ले चले, हम पापी और महाकुष्ठी हैं| हमारी फरियाद सुनी जाए|' लेकिन कोई भी हां न करता जो उनकी फरियाद सुनता|

राय बलवंड को याद आया कि लाहौर में भाई लधा परोपकारी हैं| दुःख-तकलीफ उठाते हुए पैदल चलकर दोनों भाई लाहौर पहुंचे| भाई लधा जी के पास जाकर उन्होंने विलाप करके कहा, 'भाई लधा जी आप परोपकारी महापुरुष हो, यह तो आप ने सुन ही लिया है कि हमने सतिगुरु अर्जुन देव जी पातशाह के हजूर निंदा भरे वचन बोले हैं| अहंकार और लालच ने बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी| हम अन्धे और बहरे हो गए थे| सतिगुरु के वचन अनुसार हमें कुष्ठ रोग हो गया है| हम अत्यंत दु:खी हैं| कृपा करें और सतिगुरु जी से भूल क्षमा करवा दें|'

इस तरह विनती करते हुए वह रोते तथा पीटते गए| तब भाई लधा परोपकारी के मन में दया आ गई| उन्होंने वचन किया, अब आप जाएं, मैं कल सतिगुरु जी के दरबार में स्वयं हाजिर होकर प्रार्थना करूंगा और आपके लिए क्षमा की भीख मांगूंगा| आशा है कि सतिगुरु जी मेहर के घर में आएंगे|

सत्ता और बलवंड भाई लधा जी से कुछ आशा भरे वचन सुनकर उसका यश करते हुए अपने घर लौट आए|

भाई लधा जी लाहौर में सतिगुरु जी के श्रद्धालु सिक्ख थे| आप बड़े परोपकारी तथा दया धर्म और नाम के रसिया थे| जिस कारण हर कोई दुखिया उनके पास जाता और विनती करता था| उनको जब पता लगा कि सत्ता और बलवंड की जो सिफारिश करेगा उसको बदनाम होना पड़ेगा| उसकी हर तरफ बदनामी होगी, क्योंकि सतिगुरु का हुक्म है कि जो कोई सत्ता तथा बलवंड की सिफारिश करेगा उसका मुंह काला करके गधे पर बैठा कर घुमाया जाएगा| परोपकारी भाई लधा जी ने आप ही नशर होने का उपाय बना लिया| भाई लधा ने एक गधा मंगवा कर उसको चिथड़ों की लगाम डाली और फटी हुई गोदड़ी डालकर उसके ऊपर आप बैठ गए| भाई लधा ने अपने मुंह और बदन पर कालिख पोत ली और लोगों के लिए निकम्मा बन गए| वह लाहौर से अमृतसर की तरफ चल पड़े| भाई लधा जी एक महान परोपकारी गुरसिक्ख थे और अपनी हानि करके भी दूसरों का सदा भला करते थे| धीरे-धीरे चलते हुए वह अमृतसर पहुंच गए| सतिगुरु जी को पहले ही पता चल गया था| इसलिए सतिगुरु जी स्वयं आगे होकर मिले तथा हंसकर वचन किया -

'...भाई लधा जी! यह कैसा सांग बनाया हुआ है ?'

'महाराज! जिस तरह आपकी आज्ञा!' भाई लधा जी ने उत्तर दिया|

'महाराज! सत्ता और बलवंड कुष्ठ रोगी हो गए हैं तथा कुरला रहे हैं| दया कीजिए, आपका यश करेंगे, भूल अनुभव करते हैं, इन्हें क्षमा कर दें| बच्चे सदा भूलें करते रहते हैं और माता-पिता क्षमा करते रहते हैं| मेहर करें| फिर भी गुरु घर के कीर्तनीए हैं|' इस तरह भाई लधा जी ने विनती की|

सतिगुरु जी ने भाई लधा जी को गधे से नीचे उतारा और हाथ-मुंह धुलाया तथा वार दिया, 'भाई लधा परोपकारी|' यह भी वचन कर दिया, 'अच्छा! जिस तरह इन्होंने सतिगुरु महाराज (गुरु नानक देव जी तथा बाकी के गुरु साहिबों की| निंदा की थी, तैसे ही यश करें, वह जैसे-जैसे यश करते जाएंगे, वैसे ही उनका कुष्ठ रोग दूर होता जाएगा|

सतिगुरु जी का यह हुक्म सत्ता और बलवंड को सुनाया गया| उन्होंने गुरु साहिब से अपनी भूल की क्षमा मांगी व फिर से दरबार में कीर्तन करने लगे| इनके द्वारा किया गया गुरु यश बाणी के रुप में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है| आओ दर्शन करें -

रामकली की वार राइ बलवंडि तथा सत्तै डूमि आखी

१ओ सतिगुरु प्रसादि||
नाउ करता कादरु करे किउ बोलु होवै जोखीवदै ||
दे गुना सति भैण भराव है पारंगति दानु पड़ीवदै ||
नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै ||
लहणे धरिओनु छतु सिरि करि सिफती अंम्रितु पीवदै ||
मति गुर आतम देव दी खड़गि जोरि पराकुइ जीअ दै ||
गुरि चेले रहरासि कीई नानकि सलामति थीवदै ||
साहि टिका दितोसु जीवदै ||१||
लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटिऐ ||
जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटिए ||
झुलै सु छतु निरंजनी मलि तखतु बैठा गुर हटिऐ ||
करहि जि गुर फुरमाइआ सिल जोगु अलूणी चटीऐ ||
लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटिऐ ||
खरचे दिति खसंम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ||
होवै सिफति खसंम दी नूरु अरसहु झटीऐ ||
तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ||
सचु जि गुरि फुरमाइआ किऊ एदू बोलहु हटिऐ ||
पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्हि मुरटीऐ ||
दिलि खोटै आकी फिरनि बंनि भारु ऊचाइन्हि छटीऐ ||
जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ||
कउणु हारे किनि ऊवटीऐ ||२||
जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ||
धरम राई है देवता लै गला करे दलाली ||
सतिगुरु आखै सचा करे सो बात होवै दरहाली ||
गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ||
नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ||
दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होई जंगाली ||
दरि दरवेसु खसंम दै नाई सचै बाणी लाली ||
बलवंड खीवी देक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ||
लांगरि दउलति वंडीऐ रसु अंम्रितु खीरि घिआली ||
गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ||
पए कबूलु खसंम नालि जां घाल मरदी घाली ||
माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ||३||
होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ||
नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ||
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ||
चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलाकिओनु ||
कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ||
लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ||
जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ||
सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जिकिओनु ||
जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ||४||
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ||
जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ||
लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ||
वारिऐ दरगह गुरु की कुदरती नूरु ||
जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ||
नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ||
निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ||
नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ||
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ||५||
सो टिका सो बैहणा सोई दिबाणु ||
पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ||
जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेहि ताणु ||
जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ||
चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ||
घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ||
धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ||
कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ||
सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ||
नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ||
चारे कुंडां सूझीओसु मन महि सबदु परवाणु ||
आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ||
अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ||
झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ||
जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ||
किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ||
दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ||
नानक हंदा छत्त्रु सिरि उमति हैराणु ||
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ||
पिऊ दादै जेविहा पोत्रा परवाणु ||६||
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ||
पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ||
सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ || 
अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ||
जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ||
लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ||
धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ||
नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ||
गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ||७||
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ||
आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थंम्हि खलोआ ||
आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ || 
सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ||
तखति बैठा अरजन गुरु सतिगुर का खिवै चंदोआ ||
उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ||
जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ||
दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ||
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ||८||१||

इस तरह जब सत्ता तथा बलवंड ने गुरु महाराज की उस्तति की तो उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया| भोग डाला गया तथा अमृत सरोवर में स्नान किया तथा वे तरोताजा शुद्ध हो गए| वह पुन: गुरु दरबार में कीर्तन करने लग गए|

लेकिन सतिगुरु महाराज जी ने हुक्म दिया कि आगे से तमाम सिक्ख राग तथा साज विद्या की शिक्षा प्राप्त करें तथा गुरु घर में हर कोई श्रद्धालु कीर्तन कर सकता है| रबाबियों की अजारेदारी को समाप्त कर दिया गया| वह इसलिए कि कोई शिकायत देकर कीर्तन करने से आकी न हो| यदि रागी या रबाबी न भी मिले तो भी कीर्तन होता रहे|

Friday 26 May 2023

बाबा सुन्दर दास जी

 ॐ श्री साँई राम जी



बाबा सुन्दर दास जी

जब कोई प्राणी परलोक सिधारता है तो उसके नमित रखे 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' के पाठ का भोग डालने के पश्चात 'रामकली राग की सद्द' का भी पाठ किया जाता है| गुरु-मर्यादा में यह मर्यादा बन गई है| यह सद्द बाबा सुन्दर दास जी की रचना है| सतिगुरु अमरदास जी महाराज जी के ज्योति जोत समाने के समय का वैराग और करुण दृश्य पेश किया गया है|

सद्द का उच्चारण करने वाले गुरमुख प्यारे, गुरु घर के श्रद्धालु बाबा सुन्दर दास जी थे| आप सीस राम जी के सपुत्र और सतिगुरु अमरदास जी के पड़पोते थे| आप ने गोइंदवाल में बहुत भक्ति की, गुरु का यश करते रहे|

बाबा सुन्दर दास जी का मेल सतिगुरु अर्जुन देव जी महाराज से उस समय हुआ, जब सतिगुरु जी बाबा मोहन जी से गुरुबाणी की पोथियां प्राप्त करने के लिए गोइंदवाल पहुंचे थे| उनके साथ बाबा बुड्ढा जी और अन्य श्रद्धालु सिक्ख भी थे| उस समय बाबा सुन्दर दास जी ने वचन विलास में महाराज जी के आगे व्यक्त कर दिया कि उन्होंने एक 'सद्द' लिखी है| महाराज जी ने वह 'सद्द' सुनी| सुन कर इतने प्रसन्न हुए कि 'सद्द' उनसे लेकर अपने पास रख ली| जब 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' जी की बीड़ तैयार की तो भाई गुरदास जी से यह 'सद्द' भी लिखवा दी| उस सद्द के कारण बाबा सुन्दर दास जी भक्तों में गिने जाने लगे और अमर हो गए| जो भी सद्द को सुनता है या सद्द का पाठ करता है, उसके मन को शांति प्राप्त होती है| उसके जन्म मरण के बंधन कट जाते हैं| यह 'सद्द' कल्याण करने वाली बाणी है|

Thursday 25 May 2023

भाई तिलकू जी

 ॐ श्री साँई राम जी


भाई तिलकू जी

ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ||
सेवा पूज करउ तिसु मुरति की नानकु तिसु पग चाटै ||५||

गुरु अर्जुन देव जी महाराज फरमाते हैं कि योगी वहीं सच्चा योगी है तथा उसी को मिलो जो माया के बंधन काटे, जो बंधन काटने वाला है, ऐसे पुरुष अथवा ज्ञानी की सेवा तथा पूजा करने के अतिरिक्त उसके चरण भी छूने चाहिए| चरणों की पूजा करनी चाहिए| सतिगुरु जी बहुत आराधना करते हैं|

पर पाखण्डी योगी संत आदि जो केवल भेषधारी हैं उनके चरणों पर माथा टेकने से वर्जित किया है| आजकल भेष के पीछे बहुत लगते हैं सत्य को नहीं जानते| ऐसे सत्य को परखने तथा गुरमति पर चलने वाले भाई तिलकू जी हुए हैं जो एक महांपुरुष थे|

भाई तिलकू जी गढ़शंकर के वासी तथा पंचम पातशाह जी के सिक्ख थे| उनका नियम था कि रात-दिन, हर क्षण मूल मंत्र का पाठ करते रहते थे| कभी किसी को बुरा वचन नहीं कहते थे, सत्य के पैरोकार तथा कार्य-व्यवहार में परिपूर्ण थे| गुरु महाराज के बिना किसी के चरणों पर सिर नहीं झुकाते थे| नेक कमाई करके रोटी खाते थे| देना-लेना किसी का कुछ नहीं था, ऐसी उन पर वाहिगुरु की अपार कृपा थी|

गढ़शंकर में एक योगी रहता था| एक सौ दस साल की आयु हो जाने तथा घोर तपस्या करने पर भी उसके मन में से अहंकार नहीं निकला था, वह अभिमानी हो गया तथा अपनी प्रशंसा करवाता था| लोगों को पीछे लगा कर अपना यश सुनता|

उसने अपने जीवित रहते एक बहुत बड़ा भंडारा किया| जब भंडारा तैयार हुआ तो उसने सारे नगर में तथा बाहर ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, नवयुवक भंडारे में भोजन करेगा, उसको दो साल के लिए स्वर्ग हासिल होगा, उसको परमात्मा के दर्शन होंगे| 

उस योगी का यह संदेश सुनकर नगर के लोग बाल-बच्चों सहित पधारे तथा भंडारा लिया, योगी का यश किया| जब सभी ने भोजन कर लिया तो योगी ने अपने मुख्य शिष्य को कहा -

'पता करो कोई स्त्री-पुरुष भंडारे में आने से रह तो नहीं गया| यदि रह गया हो तो उसे भी बुलाओ|'

योगी का ऐसा हुक्म सुनकर उसके मुख्य शिष्य ने नगर में सेवक भेजे| उन्होंने पता किया तथा कहा-'महाराज! भाई तिलकू नहीं आया, शेष सब भोजन कर गए हैं| वह कहता है मुझे स्वर्ग की जरूरत नहीं, वह नहीं आता|'

योगी ने उसके पास दोबारा आदमी भेजे था कहा, उसे कहो कि तुम्हें दस साल के लिए स्वर्ग मिलेगा, आ जाओ| मेरा भंडारा सम्पूर्ण हो जाए| हुक्म सुनकर वे पुन: भाई तिलकू जी के पास गए, उसको दस साल स्वर्ग के बारे में बताया तो वह हंस पड़ा| इतने सस्ते में स्वर्ग जीवन देने वाले योगी के माथे लगना ही पाप है| मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए| मेरे स्वर्ग मेरे जीवन को लेने-देने वाला मेरा सतिगुरु है, मैं तो उसकी पनाह में बैठा हूं| जाओ, योगी को बता दो|

शिष्य हार कर चले गए तथा योगी को जाकर बताया| योगी सुनकर आपे से बाहर हो गया और क्रोध से बोल उठा| उसने कहा-'मैं देखता हूं उसका गुरु कौन है? उसकी कितनी शक्ति है? अभी वह आएगा तथा पांव में पड़ेगा| तिलकू तिलक कर ही रहेगा|'

इस तरह बोलता हुआ योगी लाल-पीला हो गया तथा आसन से उठ बैठा| उसके हृदय में अहंकार तथा वैर भावना आ गई| वैर भावना ने योगी की सारी तपस्या तथा भक्ति को शून्य कर दिया| योगी को अपने योग बल पर बहुत अभिमान था| उसने समाधि लगाई| योग बल से भूत-प्रेत, बीर बुलाए तथा उनको आज्ञा की-'जाओ तिलकू को परेशान करो, वह मेरे भंडारे में आए|'

योगी का हुक्म सुनकर बीर तथा भूत-प्रेत भाई तिलकू के घर गए| पहले तो आंधी की तरह उसके घर के दरवाजे खुले तथा बंद हुए| धरती डगमगाई तथा भाई तिलकू जी के मुख से निकला-'सतिनाम सति करतार!' आंधी रुक गई| फिर भाई तिलकू जी मूल मंत्र का पाठ करने लग पड़ा| जैसे-जैसे वह पाठ करता गया वैसे-वैसे सारे खतरे दूर हो गए|

योगी के सारे भूत-प्रेत तथा बीर उसके पास गए| उन्होंने हाथ जोड़ कर बुरे हाल योगी के आगे विनती की-

हे मालिक! हमारी कोई पेश नहीं जाती| उसकी रक्षा हमसे ज्यादा कोई महान शक्तिशाली आदमी कर रहे हैं, उनसे तो थप्पड़ और धक्के लगते हैं| घुल-घुल कर हांफ कर आ गए हैं| वह तिलकू कोई कलाम पढ़ता जाता है| हम चले, हम सेवा नहीं कर सकते| यह कह कर सारी बुरी आत्माएं चली गईं| योगी की सुरति कायम न रह सकी| वह बुरी आत्माओं को काबू न रख सका, वह सारी चली गईं|

योगी ने निराश हो कर समाधि भंग की बैठा तथा भाई तिलकू के पास गया तथा उसके घर का दरवाजा खटखटाया| आवाज़ दी-'भाई तिलकू जी दरवाजा खोलो|' योगी आप के दर्शन करने आया है|'

यह सुन कर भाई तिलकू जी ने दरवाजा खोला तथा देखा योगी बाहर खड़ा था| उसके पीछे उसके शिष्य तथा कुछ शहर के लोग थे|

'भाई जी! यह बताओ आपका गुरु कौन है?' योगी ने पूछा|

भाई तिलकू जी-'मेरे गुरु, सतिगुरु नानक देव जी हैं| जिन्होंने पांचों चोरों को मारने की शिक्षा दी है|

योगी-'मंत्र कौन-सा पढ़ते हो?'

भाई तिलकू-'सति करतार १ ओ सतिनामु करता पुरखु......|' भाई जी ने मूल मंत्र का पाठ शुरू कर दिया| यह मंत्र ही कल्याणकारी है| आपकी तरह साल-दो साल मुक्ति नीलाम नहीं की जाती| यह आपकी गलती समझो| इसलिए मैं नहीं गया, मेरे गुरु ही भव-सागर से पार उतारते हैं|'

भाई तिलकू जी के वचनों का प्रभाव योगी के मन पर बहुत पड़ा तथा अंत में भाई तिलकू योगी को साथ लेकर सतिगुरु जी की हजूरी में पहुंचे| सतिगुरु जी ने योगी को उपदेश दे कर भक्ति भाव के सच्चे मार्ग की ओर लगाया|

Wednesday 24 May 2023

भाई समुन्दा जी

 ॐ श्री साँई राम जी



भाई समुन्दा जी

अनदिनु सिमरहु तासु कऊ जो अंति सहाई होइ || इह बिखिआ 
दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ || का को मात पिता
सुत धीआ || ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ || ऐसी संचि
जु बिनसत नाही || पति सेती अपुनै घरि जाही || साधसंगि कलि
कीरतनु गाइआ || नानक ते ते बहुरि न आइआ ||१५||

परमार्थ-उस परमात्मा का रात-दिन सिमरन करो जो कि अंत समय सहायक होता है| यह जो माया से पैदा की हुई खुशियां, विषय-विकार आदि हैं यह साथ नहीं जाते| ये तो थोड़े दिन के मेहमान हैं| मां, बाप, स्त्री, पुत्र, पुत्री यह भी साथ नहीं जाते| ऐसा धन इकट्ठा करना चाहिए जो साथ चले, वह है वाहिगुरु का सिमरन| वाहिगुरु के सिमरन के अतिरिक्त कोई शह साथ नहीं जाती| जिस पुरुष ने सत्संग में बैठ कर हरि कीर्तन गाया तथा वाहिगुरु का सिमरन किया है गुरु जी कहते हैं वह फिर जन्म मरण के चक्र में नहीं पड़ता| उसका जन्म मरण कट जाता है अत: वह मुक्त हो जाता है| ऐसे नाम सिमरन वाले गुरसिक्ख सेवकों में भाई समुन्दा गुरु के सिक्ख बने थे| सिक्ख बनने से पहले उनका जीवन मायावादी था| वे धन इकट्ठा करते, स्त्री से प्यार करते| स्त्री के लिए वस्त्र, आभूषण तथा खुशियों का सामान लाते| पुत्र, पुत्री से प्यार था| कभी किसी तीर्थ पर न जाते| परमात्मा है कि नहीं? यह प्रश्न उनके मन में उठता ही नहीं था, यदि कहीं चार छिलके गुम हो जाते तो उनकी आत्मा दुखी होती| वह दो-दो दिन रोटी न खाते| माया इकट्ठी करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था| माया के बदले यदि कोई जान भी मांगता तो देने के लिए तैयार हो जाते|

एक दिन वह भूल से गुरमुखों की संगत में बैठ गए| एक ज्ञानी ने उपरोक्त शब्द पढ़ा तथा साथ ही शब्द की व्याख्या की| शब्द के अंदरुनी भाव ने भाई समुन्दा जी की आत्मा पर गहन प्रभाव डाला| उनकी बुद्धि जाग पड़ी| वह सोचने लगे कि जो कुछ मैं कर रहा हूं, यह अच्छा है या जो कुछ गुरमुख कहते है, वह अच्छा है? वह असमंजस में पड़ गए| उठ कर घर आ गए, रोटी खाने को मन नहीं किया| रात को सोए तो नींद नहीं आई| रात्रि के बारह बज गए पर नींद न आई| जहां पहले पहल रात को गहरी नींद सो जाते थे, अब सोच में डूब गए| माया इकट्ठी करना अच्छा है या नहीं? स्त्री, पुत्र, पुत्री का सम्बंध कहां तक है? उसकी आंखों के आगे कई झांकियां आईं| एक यह झांकी भी आई कि कोई मर गया है| उसके पुत्र, पुत्रवधू, पुत्री तथा पत्नी उसका दाह-संस्कार करके घर आ गए हैं| चार दिन के बाद उसका किसी ने नाम न लिया, वह भूल गया| समुन्दे को अपने माता-पिता भी याद आए वे उसके पास से चले गए| वे चार दिन के दुःख के बाद उन्हें भूल गए| वह विचारों में खोए रहने लगे| ऐसी ही विचारों में सोए उनको स्वप्न आया जो बहुत भयानक था| उन्होंने देखा-वह बीमार हो जाते हैं| बीमारी के समय उनके पुत्र, पत्नी तथा सम्बन्धी उनके पास आते हैं| पहले-पहल सभी उससे सहानुभूति तथा प्यार करते पर धीरे-धीरे जैसे जैसे बीमारी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे सभी का प्यार घटता जाता है| अंतिम समय आ जाता है, यमदूत उसकी जान निकालने के लिए आते हैं, उनकी भयानक सूरतें देख कर वह भयभीत हो जाता है| पत्नी को कहता है, मेरी सहायता करो, मुझे यमों से बचाओ, पर वह आगे से रोती हुई न में सिर हिला देती है कि वह उसे बचा नहीं सकती, यम उसकी आत्मा को मारते-पीटते हुए धर्मराज के पास ले जाते हैं| धर्मराज कहता है, 'यह महां पापी है| इसने जीवन भर कभी भगवान का सिमरन नहीं किया, नेकी नहीं कमाई, इस महां पापी को आग के नरक में फैंको| जहां यह कई जन्म जलता रहेगा| फैंको! फैंको महां पापी है|' धर्मराज का यह हुक्म सुन कर यम उसको आग-नरक की तरफ खींच कर ले चले| जब नरक के निकट पहुंचे तो समुन्दे ने देखा-बहुत भयानक आग जल रही थी जिसका ताप दूर तक जाता था| निकट पहुंचने से पहले ही सब कुछ जल जाता था| समुन्दे ने देखा तथा सुना कि कई महां पापी उस नरक की भट्ठी में जल कर चिल्ला रहे हैं| समुन्दा-दहल गया, जब यम उसको उठा कर आग में फैंकने लगे तो उसकी चीख निकल गई, उस चीख के साथ ही उसकी नींद खुल गई वह तपक कर उठ बैठा, आंखें मल कर उसने देखा, वह नरकों में नहीं बल्कि अपने घर बैठा है| वह मरा नहीं जीवित है| पर उसका हृदय इतनी जोर से धड़क रहा था कि सांस आना भी मुश्किल हो रहा था, सारा शरीर पसीने से भीग गया|

समुन्दा जी चारपाई से उठ गए| अभी रात्रि थी, आकाश पर तारे हंस रहे थे| परिवार वाले तथा पड़ोसी सभी सो रहे थे| चारों तरफ खामोशी थी| उस खामोशी के अन्धेरे में समुन्द्रा जी घर से निकले| जिस तरह किसी के घर से चोर निकलता है, दबे पांव, धड़कते दिल, जल्दी-जल्दी समुन्दा जी उस स्थान पर पहुंचे जहां गुरमुख आए हुए थे, वह गुरमुख जाग रहे थे| पिछली रात समझ कर उठे थे तथा स्नान कर रहे थे| स्नान करके उन्होंने भगवान का भजन करना शुरू कर दिया| घबराए हुए समुन्दा जी उनके पास बैठे रहे, बैठे-बैठे दिन निकल गया, दिन उदय होने पर उन गुरमुखों के चरणों में गिर कर इस तरह बिलखने और विनती करने लगे, 'मुझे नरक का डर है| मैं कैसे बख्शा जाऊं| मुझे स्वर्ग का मार्ग बताओ! नरक की भयानक आग से बचाओ! संत जगत के रक्षक होते हैं| भूले-भटके का मार्गदर्शन करते हैं| मेरी पुकार भी कोई सुने| आप ही तो सब कुछ हो| सोई हुई आत्मा जाग पड़ी|'

वह गुरमुख श्री गुरु अर्जुन देव जी के सिक्ख थे| श्री हरिमंदिर साहिब के निर्माण के लिए नगरों में से सामान इकट्ठा कर रहे थे| उन्होंने भाई समुन्दा जी की विनती सुनी| उनको धैर्य दिया और कहा, 'भाई! सुबह हमारे साथ चलना वहां जगत के रक्षक गुरु जी हैं उनके दर्शन करके तभी उद्धार होगा|'

अगले दिन भाई समुन्दा जी सिक्खों के साथ 'चक्क रामदास' पहुंचे, आगे दीवान लगा हुआ था| गुरगद्दी पर विराजमान सतिगुरु जी सिक्खों को उपदेश कर रहे थे| समुन्दा जी भी जा कर चरणों पर गिर पड़े, रो कर विनती की, 'दाता दया कीजिए! मुझे भवसागर से पार होने का साधन बताओ| नरक की आग से मुझे डर लगता है, बहुत सारी आयु व्यर्थ गंवा दी| अच्छी तरह जीने का ढंग बताओ! हे दाता! दयालु तथा कृपालु सतिगुरु मुझ पर कृपा करो|

अंतर्यामी सतिगुरु जी ने देखा, समुन्दे की आत्मा पश्चाताप कर रही है| यह नेकी तथा धर्म के मार्ग पर चलने के लिए तैयार है| इस को गुरमति बख्शनी योग्य है| सतिगुरु जी ने फरमाया-'हे सिक्खा! तुम्हें वाहिगुरु ने इस संसार पर नाम सिमरन तथा लोक सेवा के लिए भेजा है, इसलिए उठकर वाहिगुरु का सिमरन करना, धर्म की कमाई करना, गुरुबाणी सुनना, निंदा चुगली से दूर रहना| यह जगत तुम्हारे लिए जीवन नहीं, बल्कि मार्ग का आसरा है| जीवन का मनोरथ है, प्रभु से जुदा हुए हो, उस के पास जाना तथा उसके साथ इस तरह घुल-मिल जाना जैसे पानी से पानी मिल जाता है| जैसे दो दीयों का प्रकाश एक लगता है| सच बोलना, गुरुद्वारे जाना तथा भूखे सिक्खों को भोजन खिलाना| यह है जीवन युक्ति|'

Tuesday 23 May 2023

साधू रणीया जी

 ॐ श्री साँई राम जी



साधू रणीया जी

जहां सरोवर रामसर है, सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी के समय एक साधू शरीर पर राख मल कर वृक्ष के नीचे बैठा हुआ शिवलिंग की पूजा कर रहा था| वह घण्टियां बजाए जाता तथा जंगली फूल अर्पण करता था, वह कोई पक्का शिव भक्त था|

जब वह शिवलिंग की पूजा में मग्न था तो अचानक उसके कानो में यह शब्द गूंजे 'ओ गुरमुखा! एक चोरी छोड़ी, दूसरा पाखण्ड शुरू किया| कुमार्ग से फिर कुमार्ग मार्ग पर चलना ठीक नहीं|'

यह वचन सुनकर उसने आंखें ऊपर उठा कर देखा तो सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी घोड़े पर सवार उसके सामने खड़े हुए मुस्करा रहे थे| जैसे कि कभी उसने दर्शन किए थे| कोई बादशाह समझा था| जीवन की घटना उसको फिर याद आने लगी|

वह साधू उठ कर खड़ा हो गया, हाथ जोड़ कर विनती की, 'महाराज! आप के हुक्म से चोरी और डकैती छोड़ दी| साधू बन गया, और बताएं क्या करुं?'

उसकी विनती सुनकर मीरी-पीरी के मालिक ने फरमाया-'हे गुरमुख! पत्थर की पूजा मत करना-आत्मा को समझो| उसकी पूजा करो, उसका नाम सिमरन करो, जिसने शिव जी, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की सृजना की है| करतार का नाम सिमरन करो, सत्संगत में बैठो, सेवा करो, यह जन्म बहुत बहुमूल्य है|'

"कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारै बार ||"

इस तरह वचन करके मीरी-पीरी के मालिक गुरु के महलों की तरफ चले गए तथा साधू सोच में पड़ा रहा|

वह साधू भाई रणीयां था जो पहले डाकू था| अकेले स्त्री-पुरुष को पकड़ कर उस से सोना-चांदी छीन लिया करता था| एक दिन की बात है, रणीयां का दो दिन कहीं दांव न लगा किसी से कुछ छीनने का| वह घूमता रहा तथा अंत में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा इन्तजार करने लगा| उसकी तेज निगाह ने देखा एक स्त्री सिर पर रोटियां रख कर खेत को जा रही थी, उसके पास बर्तन थे| बर्तनों की चमक देख कर वह उठा तथा उस स्त्री को जा दबोचा| उसके गले में आभूषण थे| बर्तन छीन कर आभूषण छीनने लगा ही था कि उसके पास शरर करके तीर निकल गया| उसने अभी मुड़ कर देखा ही था कि एक ओर तीर आ कर उसके पास छोड़ा| वह डर गया, उसके हाथ से बर्तन खिसक गए तथा हाथ स्त्री के आभूषणों से पीछे हो गया| 

इतने में घोड़े पर सवार मीरी पीरी के पातशाह पहुंच गए| स्त्री को धैर्य दिया| वह बर्तन ले कर चली गई तथा रणीये को सच्चे पातशाह ने सिर्फ यही वचन किया -

'जा गुरमुखा! कोई नेकी करो| अंत काल के वश पड़ना है|' रणीयां चुपचाप चल पड़ा| उस ने कुल्हाड़ी फैंक दी तथा वचन याद करता हुआ वह घर को जाने की जगह साधुओं के पास चला गया| एक साधू ने उसको नांगा साधू बना दिया| घूमते-फिरते गुरु की नगरी में आ गया|

सतिगुरु जी जब गुरु के महलों की तरफ चले गए तो साधू रणीये ने शिवलिंग वहीं रहने दिया| वह जब दुःख भंजनी बेरी के पास पहुंचा तो सबब से गुरु का सिक्ख मिला, वह गुरमुख तथा नाम सिमरन करने वाला था, उसकी संगत से रणीया सिक्ख बन गया, उसने वस्त्र बदले, सतिगुरु जी के दीवान में पहुंचा तथा गुरु के लंगर की सेवा करने लगा| रणीया जी बड़े नामी सिक्ख बने|

Monday 22 May 2023

भाई भाना परोपकारी जी

ॐ श्री साँई राम जी


भाई भाना परोपकारी जी

जिऊं मणि काले सप सिरि हसि हसि रसि देइ न जाणै |
जाणु कथूरी मिरग तनि जींवदिआं किउं कोई आनै |
आरन लोहा ताईऐ घड़ीऐ जिउ वगदे वादाणै |
सूरणु मारनि साधीऐ खाहि सलाहि पुरख परवानै |
पान सुपारी कथु मिलि चूने रंगु सुरंग सिञानै |
अउखधु होवै कालकूटु मारि जीवालनि वैद सुजाणै |
मनु पारा गुरमुखि वसि आणै |

भाई गुरदास जी फरमाते हैं, जैसे काले नाग के सिर में मणि होती है पर उसको ज्ञान नहीं होता, मृग की नाभि में कस्तूरी होती है| दोनों के मरने पर उत्तम वस्तुएं लोगों को प्राप्त हो जाती हैं| इसी तरह लोहे की अहिरण होती है| जिमीकंद धरती में होता है| उसकी विद्वान उपमा करते तथा खाते हैं लाभ पहुंचता है| ऐसे ही देखो पान, सुपारी कत्था, चूना मिलकर रंग तथा स्वाद पैदा करते हैं| काला सांप जहरीला होता है, समझदार उसे मारते हैं तथा लाभ प्राप्त करते हैं|

इसी तरह जिज्ञासु जनो! मन जो है वह पारे की तरह है तथा सदा डगमगाता रहता है| उस पर काबू नहीं पाया जा सकता| यदि कोई मन पर काबू पा ले तो उसका कल्याण हो जाता है| ऐसे ही भाई भाना जी हुए हैं, जिन्होंने मन पर काबू पाया हुआ था| उनको कोई कुछ कहे वह न क्रोध करते थे तथा न खुशी मनाते| अपने मन को प्रभु सिमरन तथा लोक सेवा में लगाए रखते|

ग्रंथों में उनकी कथा इस तरह आती है -

भाना प्रयाग (इलाहाबाद) का रहने वाला था| यह छठे सतिगुरु जी के हजूरी सिक्खों में था, वह सदा धर्म की कमाई करता| जब कभी फुर्सत मिलती तो दरिया यमुना के किनारे जा कर प्रभु जी का सिमरन करता, किसी का दिल न दुखाता, किसी की निंदा चुगली करना, जानता ही नहीं था, कोई उसे अपशब्द कहे तो वह चुप रहता|

एक दिन भाई भाना यमुना किनारे बैठा हुआ सतिनाम का सिमरन करता बाणी पढ़ रहा था, पालथी मार कर बैठे हुए ने लिव गुरु चरणों से जोड़ी हुई थी| मन की ऊंची अवस्था के कारण उसकी आत्मा श्री अमृतसर में घूम रही थी तथा तन यमुना किनारे था, अलख निरंजन अगम अपार ब्रह्म के निकट होने तथा उसके भेद को पाने का प्रयत्न करता रहा था वह जब गुरु का सिक्ख बना था तब वह युवावस्था में था, व्यापारी आदमी था व्यापार में झूठ बोलना नहीं जानता था|

हां, भाई भाना गुरु जी की बाणी पढ़ रहा था| संध्या हो रही थी| डूबता हुआ सूरज अपनी सुनहरी किरणें यमुने के निर्मल जल पर फैंक रहा था| उस समय एक नास्तिक (ईश्वर से विमुख) मुर्ख भाई जी के पास आ बैठा| भाई जी को कहने लगा - 'हे पुरुष! मुझे यह समझाओ कि तुम प्रतिदिन हर समय परमात्मा को बे-आराम क्यों करते हो| क्या तुम्हारा परमात्मा परेशान नहीं होता? एक दिन किसी को यदि कोई बात कह दि तो वह काफी है, रोज़ बुड़-बुड़ करते रहते हो|'

भाई भाना ने नास्तिक के कटु वचनों का क्रोध नहीं किया, प्रेम से कहने लगा-सुनो नेक पुरुष मैं बहुत ज्ञानी तो नहीं पर जो कुछ मैं समझता हूं तुम्हें समझाने का यत्न करता हूं| ध्यान से सुनो, जैसे किसी को चोर मिले तो वह राजा के नाम की पुकार करता है, वह चोर भाग जाते हैं क्योंकि चोरों को डर होता है कि राजा उनको दण्ड न दे| इसी तरह मनुष्य के इर्द-गिर्द काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पांच चोर हैं| वह जीव को सुख से बैठने नहीं देते| जीव का भविष्य लूटते हैं| पाप कर्म की ओर प्रेरित करते हैं, उन पांचों चोरों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि सतिगुरों के बताए ढंग से राजाओं के राजा परमेश्वर के नाम का सिमरन किया जाए, साथ ही यदि हम परमेश्वर को याद रखे तो वह भी हमें याद रखता है| सांस-सांस नाम याद रखना चाहिए| भगवान को भूलने वाला अपने आप को भूल जाता है जो अपने आप को भूल क्र बुरे कर्म करता है, बुरे कर्मों के फल से उसकी आत्मा दुखी होती है| वह संसार से बदनाम हो जाता है, उस को कोई अच्छा नहीं समझता|

जैसे खाली बांस में फूंक मारने से दूसरी ओर निकल जाती है बांस पर कोई असर नहीं होता, वैसे भाने के शुभ तथा अच्छे वचनों का असर मुर्ख पर बिल्कुल न हुआ| एक कान से सुना तथा दूसरे से बाहर निकाल दिया, साथ ही क्रोधित हो कर भाई भाने को कहने लगा, 'मुर्ख! क्यों झूठ बोलते जा रहे हो| न कोई परमात्मा है तथा न किसी को याद करना चाहिए|' यह कह कर उसने भाई साहिब को एक जोर से थप्पड़ मारा, थप्पड़ मार कर आप चलता बना, रास्ते में जाते-जाते भाई जी तथा परमात्मा को गालियां निकालते हुए चलता गया|

भाई भाना जी धैर्यवान पुरुष थे| उन्होंने क्रोध न किया, बल्कि उठ कर घर चले गए| घर पहुंच कर सतिगुरों के आगे विनय की, 'सच्चे पातशाह! मैं तो शायद कत्ल होने के काबिल था, आप की कृपा है कि एक थप्पड़ से ही मुक्ति हो गई है| पर मैं चाहता हूं, उस नास्तिक का भला हो, वह सच्चाई के मार्ग पर लगे|'

इस घटना के कुछ समय पश्चात एक दिन भाई भाना जी फिर यमुना किनारे पहुंचे| आगे जा कर क्या देखते हैं कि वहीं नास्तिक वहां बैठा हुआ था, उसका हुलिया खराब था, तन के वस्त्र फटे हुए थे| तन पर फफोले ही फफोले थे| जैसे उसकी आत्मा भ्रष्ट हो रखी थी वैसे उसका तन भी भ्रष्ट हो गया| वह रो रहा था, उसके अंग-अंग में से दर्द निकल रहा था| उसका कोई हमदर्द नहीं बनता| भाई भाने जी को देखते ही वह शर्मिन्दा-सा हो गया, आंखें नीचे कर लीं| भाई साहिब की तरफ देख न सका| उसकी बुरी दशा पर भाई साहिब को बहुत रहम आया| उन्होंने दया करके उसको बाजु से पकड़ लिया तथा अपने घर ले आए| घर ला कर सेवा आरम्भ की, सतिनाम वाहिगुरु का सिमरन उसके कानों तक पहुंचाया| उसको समझाया कि भगवान अवश्य है| उस महान शक्ति की निंदा करना अच्छा नहीं| धीरे-धीरे उसका शरीर अरोग हो गया| आत्मा में परिवर्तन आ गया| वह परमात्मा को याद करने लगा, ज्यों-ज्यों सतिनाम कहता गया, त्यों-त्यों उसके शरीर के सारे रोग दूर होते गए|

उसने भाई भाना जी के आगे मिन्नत की कि भाई साहिब उसको अपने सतिगुरों के पास ले चले, गुरों के दर्शन करके वह भी पार हो जाए क्योंकि उसने अपने बीते जीवन में कोई नेकी नहीं की थी|

यह सुन कर भाई भाना जी को खुशी हुई| उन्होंने उसी समय तैयारी की तथा मंजिल-मंजिल चल कर श्री अमृतसर पहुंच गए, आगे सतिगुरों का दीवान लगा हुआ था, दोनों ने जा कर सतिगुरों के चरणों पर माथा टेका| गुरु जी ने कृपा करके भाई भाने के साथ उस नास्तिक को भी पार कर दिया, वह गुरु का सिक्ख बन गया, फिर वह कहीं न गया| गुरु के लंगर में सेवा करके जन्म सफल करता रहा| इस तरह मन पर काबू पाने वाले भाई भाना जी बहुत सारे लोगों को गुरु घर में लेकर आए|

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.