शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Friday 31 August 2018

श्री साईं लीलाएं - बापू साहब बूटी को अभय दान

ॐ सांई राम




परसो हमने पढ़ा था.. बाबा का संकट के प्रति सचेत करना

श्री साईं लीलाएं

बापू साहब बूटी को अभय दान
एक बार बापू साहब बूटी शिरडी आये हुए थे| तब एक दिन उनसे बाबा साहब डेंगले जो ज्योतिष विद्या के जानकर भी थे, ने बापू साहब बूटी से कहा - "आज का दिन आपके लिए बहुत घातक है| आपके जीवन पर कोई संकट आ सकता है| सावधान रहिये|" इस बात को सुनकर बापू साहब उदास और बेचैन हो गये कि अब क्या होगा?

जब बापू साहब बाबा के दर्शन करने को मस्जिद गये, तो बाबा ने उनसे पूछा - "बापू, क्या हो गया? ये नाना क्या कहते हैं? क्या वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे हैं? लेकिन डरना नहीं| इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि वह तुम्हें कैसे मारेगा, यह मुझे देखना है?" बाबा के इन शब्दों को सुनकर बापू साहब को बड़ा हौसला मिला| जिसके साथ बाबा जैसा रखवाला है उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है? यह सोचकर वह बेफिक्र हो गये|

शाम के समय जब बापू साहब शौच करने के लिए गये तो वहां उन्हें एक सांप दिखाई दिया| उनके नौकर ने भी सांप को देखा और मारने के लिए पत्थर उठा लिया| बापू साहब ने एक लम्बी लाठी मंगवाई| लाठी आने से पहले ही वह सांप दीवार पर चढ़ते हुए नीचे गिर गया और शीघ्र ही गायब हो गया| उस समय बापू साहब को बाबा के सुबह कहे वचन याद आये और उनकी आँखें कृतज्ञता से भर आयीं|


कल चर्चा करेंगे... अम्मीर शक्कर की प्राण-रक्षा
ॐ सांई राम
==ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ==
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Thursday 30 August 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 9

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार के शुभ अवसर की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 9
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विदा होते समय बाबा की आज्ञा का पालन और अवज्ञा करने के परिणामों के कुछ उदाहरण, भिक्षा वृत्ति और उसकी आवश्यकता, भक्तों (तर्खड कुटुम्व) के अनुभव
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गत अध्याय के अन्त में केवल इतना ही संकेत किया गया था कि लौटते समय जिन्होंने बाबा के आदेशों का पालन किया, वे सकुशल घर लौटे और जिन्होंने अवज्ञा की, उन्हें दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा । इस अध्याय में यह कथन अन्य कई पुष्टिकारक घटनाओं और अन्य विषयों के सात विस्तारपूर्वक समझाया जायेगा ।


शिरडी यात्रा की विशेषता
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शिरडी यात्रा की एक विशेषता यह थी कि बाबा की आज्ञा के बिना कोई भी शिरडी से प्रस्थान नहीं कर सकता था और यदि किसी ने किया भी, तो मानो उसने अनेक कष्टों को निमन्त्रण दे दिया । परन्तु यदि किसी को शिरडी छोड़ने की आज्ञा हुई तो फिर वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता था । जब भक्तगण लौटने के समय बाबा को प्रणाम करने जाते तो बाबा उन्हें कुछ आदेश दिया करते थे, जिनका पालन अति आवश्यक था । यदि इन आदेशों की अवज्ञा कर कोई लौट गया तो निश्चय ही उसे किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना पड़ता था । ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं ।

तात्या कोते पाटील
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एक समय तात्या कोते पाटील गाँगे में बैठकर कोपरगाँव के बाजार को जा रहे थे । वे शीघ्रता से मसजिद में आये । बाबा को नमन किया और कहा कि मैं कोपरगाँव के बाजार को जा रहा हूँ । बाबा ने कहा, शीघ्रता न करो, थोड़ा ठहरो । बाजार जाने का विचार छोड़ दो और गाँव के बाहर न जाओ । उनकी उतावली को देखकर बाबा ने कहा अच्छा, कम से कम शामा को साथ लेते जाओ । बाबा की आज्ञा की अवहेलना करके उन्होंने तुरन्त ताँगा आगे बढ़ाया । ताँगे के दो घोड़ो में से एक घोड़ा, जिसका मूल्य लगभग तीन सौ रुपया था, अति चंचल और द्रुतगामी था । रास्ते में सावली विहीर ग्राम पार करने के पश्चात ही वह अधिक वेग से दौड़ने लगा । अकस्मात ही उसकी कमी में मोच आ गई । वह वहीं गिर पड़ा । यघरि तात्या को अधिक चोट तो न आई, परन्तु उन्हें अपनी साई माँ के आदेशों की स्मृति अवश्य हो आई । एक अन्य अवसर पर कोल्हार ग्राम को जाते हुए भी उन्होंने बाबा के आदेशों की अवज्ञा की थी और ऊपर वर्णित घटना के समान ही दुर्घटना का उन्हें सामना करना पड़ता था ।

एक यूरोपियन महाशय
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एक समय बम्बई के एक यूरोपियन महाशय, नानासाहेब चांदोरकर से परिचय-पत्र प्राप्त कर किसी विशेष कार्य से शिरडी आये । उन्हें एक आलीशान तम्बू में ठहराया गया । वे तो बाबा के समक्ष नत होकर करकमलों का चुम्बन करना चाहते थे । इसी कारण उन्होंने तीन बार मसजिद की सीढ़ियों पर चढ़ने का प्रयत्न किया, परन्तु बाबा ने उन्हें अपने समीप आने से रोक दिया । उन्हें आँगन में ही ठहरने और वहीं से दर्शन करने की आज्ञा मिली । इस विचित्र स्वागत से अप्रसन्न होकर उन्होंने शीघ्र ही शिरडी से प्रस्थान करने का विचार किया और बिदा लेने के हेतु वे वहाँ आये । बाबा ने उन्हें दूसरे दिन जाने और शीघ्रता न करने की राय दी । अन्य भक्तों ने भी उनसे बाबा के आदेश का पालन करने की प्रार्थना की । परन्तु वे सब की उपेक्षा कर ताँगे में बैठकर रवाना हो गये । कुछ दूर तक तो घोड़े ठीक-ठीक चलते रहे । परन्तु सावली विहीर नामक गाँव पार करने पर एक बाइसिकिल सामने से आई, जिसे देखकर घोड़े भयभीत हो गये और द्रुत गति से दौड़ने लगे । फलस्वरुप ताँगा उलट गया और महाशय जी नीचे लुढ़क गये और कुछ दूर तक ताँगे के साथ-साथ घिसटते चले गये । लोगों ने तुरन्त अस्पताल में शरण लेनी पड़ी । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि जो बाबा के आदेशों की अवहेलना करते हैं, उन्हें किसी न किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होना ही पड़ता है और जो आज्ञा का पालन करते है, वे सकुशल और सुखपूर्वक घर पहुँच जाते हैं ।

भिक्षावृत्ति की आवश्यकता

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अब हम भिक्षावृत्ति के प्रश्न पर विचार करेंगें । संभव है, कुछ लोगों के मन में सन्देह उत्पन्न हो कि जब बाबा इतने श्रेष्ठ पुरुष थे तो फिर उन्होंने आजीवन भिक्षावृत्ति पर ही क्यों निर्वाह किया ।

इस प्रश्न को दो दृष्टिकोण समक्ष रख कर हल किया जा सकता हैं ।

पहला दृष्टिकोण – भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का कौन अधिकारी है ।
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शास्त्रानुसार वे व्यक्ति, जिन्होंने तीन मुख्य आसक्तियों –
1. कामिनी
2. कांचन और
3. कीर्ति का त्याग कर, आसक्ति-मुक्त हो सन्यास ग्रहण कर लिया हो

– वे ही भिक्षावृत्ति के उपयुक्त अधिकारी है, क्योंकि वे अपने गृह में भोजन तैयार कराने का प्रबन्ध नहीं कर सकते । अतः उन्हें भोजन कराने का भार गृहस्थों पर ही है । श्री साईबाबा न तो गृहस्थ थे और न वानप्रस्थी । वे तो बालब्रहृमचारी थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि विश्व ही मेरा गृह है । वे तो स्वया ही भगवान् वासुदेव, विश्वपालनकर्ता तथा परब्रहमा थे । अतः वे भिक्षा-उपार्जन के पूर्ण अधिकारी थे ।

दूसरा दृष्टिकोण
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पंचसूना – (पाँच पाप और उनका प्रायश्चित) – सब को यह ज्ञात है कि भोजन सामग्री या रसोई बनाने के लिये गृहस्थाश्रमियों को पाँच प्रकार की क्रयाएँ करनी पड़ती है –

1. कंडणी (पीसना)
2. पेषणी (दलना)
3. उदकुंभी (बर्तन मलना)
4. मार्जनी (माँजना और धोना)
5. चूली (चूल्हा सुलगाना)

इन क्रियाओं के परिणामस्वरुप अनेक कीटाणुओं और जीवों का नाश होता है और इस प्रकार गृहस्थाश्रमियों को पाप लगता है । इन पापों के प्रायश्चित स्वरुप शास्त्रों ने पाँच प्रकार के याग (यज्ञ) करने की आज्ञा दी है, अर्थात्
1. ब्रहमयज्ञ अर्थात् वेदाध्ययन - ब्रहम को अर्पण करना या वेद का अछ्ययन करना
2. पितृयज्ञ – पूर्वजों को दान ।
3. देवयज्ञ – देवताओं को बलि ।
4. भूतयज्ञ – प्राणियों को दान ।
5. मनुष्य (अतिथि) यज्ञ – मनुष्यों (अतिथियों) को दान ।
यदि ये कर्म विधिपूर्वक शास्त्रानुसार किये जायें तो चित्त शुदृ होकर ज्ञान और आत्मानुभूति की प्राप्ति सुलभ हो जाती हैं । बाबा दृार-दृार जाकर गृहस्थाश्रमियों को इस पवित्र कर्तव्य की स्मृति दिलाते रहते थे और वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली थे, जिन्हें घर बैठे ही बाबा से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल जाता था ।

भक्तों के अनुभव
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अब हम अन्य मनोरंजक विषयों का वर्णन करते हैं । भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है – जो मुझे भक्तिपूर्वक केवल एक पत्र, फूल, फल या जल भी अर्पण करता है तो मैं उस शुदृ अन्तःकरण वाले भक्त के दृारा अर्पित की गई वस्तु को सहर्ष स्वीकार कर लेता हूँ ।

यदि भक्त सचमुच में श्री साईबाबा की कुछ भेंट देना चाहता था और बाद में यदि उसे अर्पण करने की विस्मृति भी हो गई तो बाबा उसे या उसके मित्र दृारा उस भेंट की स्मृति कराते और भेंट देने के लिये कहते तथा भेंट प्राप्त कर उसे आशीष देते थे । नीचे कुछ ऐसी कुछ ऐसी घटनाओं का वर्णन किया जाता हैं ।

तर्खड कुटुम्ब (पिता और पुत्र)
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श्री रामचन्द्र आत्माराम उपनाम बाबासाहेब तर्खड पहले प्रार्थनासमाजी थे । तथारि वे बाबा के परमभक्त थे । उनकी स्त्री और पुत्र तो बाबा के एकनिष्ठ भक्त थे । एक बार उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि पुत्र व उसकी माँ ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ शिरडी में ही व्यतीत करें । परन्तु पुत्र बाँद्रा छोड़ने को सहमत न हुआ । उसे भय था कि बाबा का पूजन घर में विधिपूर्वक न हो सकेगा, क्योंकि पिताजी प्रार्थना-समाजी है और संभव है कि वे श्री साईबाबा के पूजनादि का उचित ध्यान न रख सके । परन्तु पिता के आश्वासन देने पर कि पूजन यथाविधि ही होता रहेगा, माँ और पुत्र ने एक शुक्रवार की रात्रि में शिरडी को प्रस्थान कर दिया ।

 दूसरे दिन शनिवार को श्रीमान् तर्खड ब्रहमा मुहूर्त में उठे और स्नानादि कर, पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व, बाबा के समक्ष साष्टांग दण्डवत् करके बोले- हे बाबा मैं ठीक वैसा ही आपका पूजन करता रहूँगा, जैसे कि मेरा पुत्र करता रहा है, परन्तु कृपा कर इसे शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित न रखना । ऐसा कहकर उन्होंने पूजन आरम्भ किया और मिश्री का नैवेघ अर्पित किया, जो दोपहर के भोजन के समय प्रसाद के रुप में वितरित कर दिया गया ।

उस दिन की सन्ध्या तथा अगला दिन इतवार भी निर्विघ्र व्यतीत हो गया । सोमवार को उन्हें आँफिस जाना था, परन्तु वह दिन भी निर्विघ्र निकल गया । श्री तर्खड ने इस प्रकार अपने जीवन में कभी पूजा न की थी । उनके हृदय में अति सन्तोष हुआ कि पुत्र को दिये गये वचनानुसार पूजा यथाक्रम संतोषपूर्वक चल रही है । अगले दिन मंगलवार को सदैव की भाँति उन्होंने पूजा की और आँफिस को चले गये । दोपहर को घर लौटने पर जब वे भोजन को बैठे तो थाली में प्रसाद न देखकर उन्होंने अपने रसोइये से इस सम्बन्ध में प्रश्न किया । उसने बतलाया कि आज विस्मृतिवश वे नैवेघ अर्पण करना भूल गये है । यह सुनकर वे तुरन्त अपने आसन से उठे और बाबा को दण्वत् कर क्षमा याचना करने लगे तथा बाबा से उचित पथ-प्रदर्शन न करने तथा पूजन को केवल शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित रखने के लिये उलाहना देने लगे । उन्होंने संपूर्ण घटना का विवरण अपने पुत्र को पत्र दृारा कुचित किया और उससे प्रार्थना की कि वह पत्र बाबा के श्री चरणों पर रखकर उनसे कहना कि वे इस अपराध के लिये क्षमाप्रार्थी है । यह घटना बांद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की घटना बाँद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की आरती प्रारम्भ होने ही वाली थी कि बाबा ने श्रीमती तर्खड से कहा – माँ, मैं कुछ भोजन पाने के विचार से तुम्हारे घर बाँद्रा गया था, दृार में ताला लगा देखकर भी मैंने किसी प्रकार गृह में प्रवेश किया । परन्तु वहाँ देखा कि भाऊ (श्री. तर्खड) मेरे लिये कुछ भी खाने को नहीं रख गये है । अतः आज मैं भूखा ही लौट आया हूँ । किसी को भी बाबा के वचनों का अभिप्राय समझ में नहीं आया, परन्तु उनका पुत्र जो समीप ही खड़ा था, सब कुछ समझ गया कि बाँद्रा में पूजन में कुछ तो भी त्रुटि हो गई है, इसलिये वह बाबा से लौटने की अनुमति माँगने लगा । परन्तु बाबा ने आज्ञा न दी और वहीं पूजन करने का आदेश दिया । उनके पुत्र ने शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे पत्र में लिख कर पिता को भेजा और भविष्य में पूजन में सावधानी बर्तने के लिये विनती की । दोनों पत्र डाक दृारा दूसरे दिन दोनों पश्रों को मिले । किया यह घटना आश्चर्यपूर्ण नहीं है ।
श्रीमती तर्खड
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एक समय श्रीमती तर्खड ने तीन वस्तुएँ अर्थात्
1. भरित (भुर्ता यानी मसाला मिश्रित भुना हुआ बैगन और दही)
2. काचर्या (बैगन के गोल टुकड़े घी में तले हुए) और
3. पेड़ा (मिठाई) बाबा के लिये भेजी ।

बाबा ने उन्हे किस प्रकार स्वीकार किया, इसे अब देखेंगे ।

बाँद्रा के श्री रघुवीर भास्कर पुरंदरे बाबा के परम भक्त थे । एक समय वे शिरडी को जा रहे थे । श्रीमती तर्खड ने श्रीमती पुरंदरे को दो बैगन दिये और उनसे प्रार्थना की कि शिरडी पहुँचने पर वे एक बैगन का भुर्ता और दूसरे का काचर्या बनाकर बाबा को भेंट कर दें । शिरडी पहुँचने पर श्रीमती पुरंदरे भुर्ता लेकर मसजिद को गई । बाबा उसी समय भोजन को बैठे ही थे । बाबा को वह भुर्ता बड़ा स्वादिष्ट प्रतीत हुआ, इस कारण उन्होंने थोडा़-थोड़ा सभी को वितरित किया । इसके पश्चात ही बाबा ने काचर्या माँग रहे है । वे बड़े राधाकृष्णमाई के पास सन्देशा भेजा गया कि बाबा काचर्या माँग रहे है । वे बड़े असमंजस में पड़ गई कि अव क्या करना चाहिये । बैंगन की तो अभी ऋतु ही नीं है । अब समस्या उत्पन्न हुई कि बैगन किस प्रकार उपलब्ध हो । जब इस बात का पता लगाया गया कि भर्ता लाया कौन था । तब ज्ञात हुआ कि बैगन श्रीमती पुरंदरे लाई थी तथा उन्हें ही काचर्या बनाने का कार्य सौंपा गया था । अब प्रत्येक को बाबा की इस पूछताछ का अभिप्राय विदित हो गया और सब को बाबा की सर्वज्ञता पर महान् आश्चर्य हुआ ।
दिसम्बर, सन् 1915 में श्री गोविन्द बालाराम मानकर शिरडी जाकर वहाँ अपने पिता की अन्त्येष्चि-क्रिया करना चाहते थे । प्रस्थान करने से पूर्व वे श्रीमती तर्खड से मिलने आये । श्रीमती तर्खड बाबा के लिये कुछ भेंट शिरडी भेजना चाहती थी । उन्होंने घर छान डाला, परन्तु केवल एक पेड़े के अतिरिक्त कुछ न मिला और वह पेड़ा भी अर्पित नैवेघ का था । बालक गोविन्द ऐसी परिस्थिति देखकर रोने लगा । परन्तु फिर भी अति प्रेम के कारण वही पेड़ा बाबा के लिये भेज दिया । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि बाबा उसे अवश्य स्वीकार कर लेंगे । शिरडी पहुँचने पर गोविन्द मानकर बाबा के दर्शनार्थ गये, परन्तु वहाँ पेड़ा ले जाना भूल गये । बाबा यह सब चुपचाप देखते रहे । परन्तु जब वह पुनः सन्ध्या समय बिना पेड़ा लिये हुए वहाँ पहुँचा तो फिर बाबा शान्त न रह सके और उन्होंने पूछा कि तुम मेरे लिये क्या लाये हो । उत्तर मिला – कुछ नहीं । बाबा ने पुनः प्रश्न किया और उसने वही उपयुर्क्त उत्तर फिर दुहरा दिया । अब बाबा ने स्पष्ट शब्दों में पूछा, क्या तुम्हें माँ (श्रीमती तर्खड) ने चलते समय कुछ मिठाई नहीं दी थी । अब उसे स्मृति हो आई और वह बहुत ही लज्जित हुआ तथा बाबा से क्षमा-याचना करने बाबा ने तुरन्त ही पेड़ा खा लिया । वह दौड़कर शीघ्र ही वापस गया और पेड़ा लाकर बाबा के सम्मुख रख दिया । बाबा ने तुरन्त ही पेड़ा खा लिया । इस प्रकार श्रीमती तर्खड की भेंट बाबा ने स्वीकार की और भक्त मुझ पर विश्वास करता है इसलिये मैं स्वीकार कर लेता हूँ । यह भगवदृचन सिदृ हुआ ।


बाबा का सन्तोषपूर्वक भोजन
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एक समया श्रीमती तर्खड शिरडी आई हुई थी । दोपहर का भोजन प्रायः तैयार हो चुका था और थालियाँ परोसी ही जा रही थी कि उसी समय वहाँ एक भूखा कुत्ता आया और भोंकने लगा । श्रीमती तर्खड तुरन्त उठी और उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा कुत्ते को डाल दिया । कुत्ता बड़ी रुचि के साथ उसे खा गया । सन्ध्या के समय जब वे मसजिद में जाकर बैठी तो बाबा ने उनसे कहा माँ आज तुमने बड़े प्रेम से मुझे खिलाया, मेरी भूखी आत्मा को बड़ी सान्त्वना मिली है । सदैव ऐसा ही करती रहो, तुम्हें कभी न कभी इसका उत्तम फल अवश्य प्राप्त होगा । इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूँगा । सदैव मुझ पर ऐसा ही अनुग्रह करती रहो । पहले भूखों को भोजन कराओ, बाद में तुम भोजन किया करो । इसे अच्छी तरह ध्यान में रखो । बाबा के शब्दों का अर्थ उनकी समझ में न आया, इसलिये उन्होंने प्रश्न किया, भला । मैं किस प्रकार भोजन करा सकती हूँ मैं तो स्वयं दूसरों पर निर्भर हूँ और उन्हें दाम देकर भोजन प्राप्त करती हूँ । बाबा कहने लगे, उस रोटी को ग्रहण कर मेरा हृदय तृप्त हो गया है और अभी तक मुझे डकारें आ रही है । भोजन करने से पूर्व तुमने जो कुत्ता देखा था और जिसे तुमने रोटी का टुकडा़ दिया था, वह यथार्थ में मेरा ही स्वरुप था और इसी प्रकार अन्य प्राणी (बिल्लियाँ, सुअर, मक्खियाँ, गाय आदि) भी मेरे ही स्वरुप हैं । मै ही उनके आकारों में ड़ोल रहा हूँ । जो इन सब प्राणियों में मेरा दर्शन करता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । इसलिये दैत या भेदभाव भूल कर तुम मेरी सेवा किया करो ।
इस अमृत तुल्य उपदेश को ग्रहण कर वे द्रवित हो गई और उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, गला रुँध गया और उनके हर्ष का पारावार न रहा ।

शिक्षा
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समस्त प्राणियों में ईश्वर-दर्शन करो – यही इस अध्याय की शिक्षा है । उपनिषद्, गीता और भागवत का यही उपदेश है कि ईशावास्यमिदं सर्वम् – सब प्राणियों में ही ईश्वर का वास है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव करो ।

अध्याय के अन्त में बतलाई घटना तथा अन्य अनेक घटनाये, जिनका लिखना अभी शेष है, स्वयं बाबा ने प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया कि किस प्रकार उपनिषदों की शिक्षा को आचरण में लाना चाहिये ।
इसी प्रकार श्री साईबाबा शास्त्रग्रंथों की शिक्षा दिया करते थे ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday 29 August 2018

श्री साईं लीलाएं - बाबा का संकट के प्रति सचेत करना

ॐ सांई राम




कल हमने पढ़ा था.. लोग दक्षिणा भी देते थे और गालियाँ भी


श्री साईं लीलाएं
बाबा का संकट के प्रति सचेत करना

साईं बाबा रहते तो शिरडी में ही थे, पर उनकी नजरें सदैव अपने भक्तों पर लगी रहती थीं| बाबा अपने भक्तों पर आने वाले संकटों के प्रति उन्हें आगाह भी करते और संकटों से उनकी रक्षा भी किया करते थे| अहमदनगर गांव के रहने वाले काका साहब मिरीकर, जिन्हें उस समय की सरकार ने 'सरदार' के खिताब से नवाजा था| उनके बेटे वाला साहब मिरीकर भी अपने पिता की ही तरह प्रसिद्ध थे| वे कोपर गांव के तहसीलदार थे| एक बार वे अपने ऑफिस के किसी कार्य से दिल्ली जा रहे थे, तब जाते समय वे शिरडी आये|

मस्जिद में पहुंचकर उन्होंने बाबा के दर्शन कर, चरणवंदना की और कुशलक्षेम पूछने के बाद, कुछ इधर-उधर की बातें कीं| बातों के बीच में बाबा ने उनसे पूछा - "मिरीकर, क्या तुम हमारी द्वारिकामाई को जानते हो?" बाला साहब इस प्रश्न से हैरान रह गये| तब साईं बाबा बोले - "क्या समझे नहीं? यह द्वारिकामाई अपनी मस्जिद ही है| यह माई अपनी गोद में आकर बैठनेवाले बच्चों क अभय देती हैं| उनके कष्टों और परेशानियों को दूर कर देती हैं| यह बड़ी ममतामयी और दयालु हैं| यह सरल हृदय भक्तों की माँ हैं| यदि किसी पर कोई संकट आ जाता है तो यह अवश्य ही उसकी रक्षा करती हैं| जो इनकी गोद में आकर बैठा, उसका कल्याण हो गया| जो विश्वास के साथ इनकी छांव में बैठा, मानो वह सुख के सिंहासन पर बैठा| इसलिये इसे द्वारिका या द्वारावती भी कहते हैं|"

जब बाला साहब जाने लगे तो बाबा ने उनके सिर पर अपना वरदहस्त रखकर उन्हें आशीर्वाद के साथ ऊदी प्रसाद भी दिया| जब वे उठे तो बाबा ने पूछा - "क्या तुम लम्बे बाबा को जानते हो?" तो मिरीकर ने मना कर दिया| फिर बाबा ने अपने बायें हाथ की मुट्ठी बनाकर दाहिने हाथ की हथेली पर कोहनी के बल खड़ी की और सांप की भांति हिलाते हुए बोले - "वह ऐसा भयानक होता है| लेकिन वह द्वारिकामाई के पुत्रों का बिगाड़ ही क्या सकता है| इसकी करनी कोई नहीं जानता| हमें सिर्फ इसकी लीला देखने का ही काम है| जब द्वारिकामाई स्वयं रक्षा करने - वाली है तो वह लम्बा बाबा हमारा क्या बिगाड़ेगा?" सब लोग बैठे बाबा की बात सुन रहे थे| उन्हें समझ नहीं आया कि बाबा के संकेत किसकी ओर हैं| पर बाबा से पूछने का साहस किसी में नहीं था|

फिर बाबा ने शामा को अपने पास बुलाकर उसे मिरीकर के साथ चितली गांव जाने को कहा| फिर वे दोनों तांगे से रवाना हो गये| वहां पहुंचकर उन्हें मालूम हुआ कि बड़े अफसर जिन्हें उनसे मिलना था अब तक नहीं आये थे| कुछ देर तक उनका इंतजार करने के बाद वे दोनों हनुमान मंदिर में जाकर ठहर गए| खाना खाने के बाद, रात का एक पहर बीत जाने पर वे बिस्तर पर बैठे, दीये के उजाले में बैठे इधर-उधर की बातों में लगे रहे| कुछ देर बाद बाला साहब ने एक अखबार उठाया और उसे पढ़ने लगे| वह अखबार पढ़ने में तल्लीन थे| न जाने कहां से एक सांप आया और उनके अंगोछे पर बैठ गया| उस समय सांप को किसी ने नहीं देखा|

जब वह रेंगने लगा तो उसके रेंगने की आवाज सुनकर चपरासी के होश-हवास उड़ गये| वह बुरी तरह घबराकर 'सांप-सांप' कहता हुआ चीखने लगा| उसकी आवाज सुनकर बाला साहब की हालात ऐसी हो गयी कि काटो तो खून नहीं| शामा भी बौखला गया| वे बाबा को याद करने लगा|

फिर वहां उपस्थित सभी लोग संभल गये| जिसके जो हाथ लगा उसने वही उठाकर सांप का काम तमाम कर दिया| सब लोग बला टलने से बेफिक्र हो गये| मिरीकर को बाबा ने निकलते समय 'लम्बा बाबा' यानी सांप की भविष्यवाणी शिरडी में ही कर दी थी| इसलिए साथ में संकट टालने हेतु शामा को भेजा था| इस घटना के बाद मिरीकर की साईं बाबा के प्रति निष्ठा और भी दृढ़ हो गयी|

परसो चर्चा करेंगे... बापू साहब बूटी को अभय दान

ॐ सांई राम
==ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ==
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Tuesday 28 August 2018

श्री साईं लीलाएं - लोग दक्षिणा भी देते थे और गालियाँ भी

ॐ सांई राम




कल हमने पढ़ा था.. घोड़े की लीद का रहस्य    

श्री साईं लीलाएं
लोग दक्षिणा भी देते थे और गालियाँ भी

किसी के बारे में कोई भला-बुरा कहे या बुराई करे, यह बाबा को बिल्कुल पसंद नहीं था| बाबा सब जान जाते और अवसर पाकर बातों ही बातों में उसे उसके बारे में समझा भी देते| ऐसे ही एक घटना का यहां वर्णन किया जा रहा है -एक वार पंढरपुर के एक वकील बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद आये थे| उन्होंने बाबा की चरणवंदना की और कुछ दक्षिणा अर्पण कर वहीं एक कोने में बैठे वार्तालाप सुनने लगे|

उस समय बाबा किसी दूसरे भक्त से वार्ता कर रहे थे| वार्ता करते-करते अचानक बाबा ने वकील की ओर देखते हुए कहा - "कुछ लोग कितने चालाक होते हैं| यहां आकर चरणवंदना करते हैं, दक्षिणा भी देते हैं और पीठ पीछे गालियां भी देते हैं| उनके इस तरह के व्यवहार के बारे में क्या कहा जाये?"

वहां बैठे वकील को बाबा के कहे गये ये शब्द मानो तीर की भांति चुभ गये| वे समझ गये कि बाबा का इशारा उनकी तरफ ही है और जिस घटना के बारे में था, वह भी उन्हें याद आ गयी| उन्हें अपने किये पर पछतावा होने लगा| वे चुपचाप सिर झुकाये बैठे रहे| बाद में बाड़े में लौटकर उन्होंने यह बात काका साहब दीक्षित को बतायी और बोले - "यह एक तरह से मेरे लिए चेतावनी ही थी कि मैं किसी को भला-बुरा न कहूं|" फिर उन्होंने काका साहब को पूरा वाकया बताते हुए कहा - "एक बार जब उप-न्यायाधीश नूलकर साहब अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए शिरडी आकर ठहरे, तब उनके बारे में बाररूम में बातें चल रही थीं कि मैं बातों-बातों में कह उठा, कि साहब जिस रोग से पीड़ित हैं, वह बिना औषधि लिए क्या साईं बाबा ठीक कर देंगे? ऐसा करके वे ठीक कैसे होंगे? इतने बड़े अफसर के लिए क्या ऐसा करना शोभा देता है?" उस समय नूलकर व साईं बाबा का उपहास किया जा रहा था| यह बात साईं बाबा की नजरों से छुपी नहीं| आज उन्होंने मुझे मेरी भूल दिखाकर मानो उपदेश ही दिया कि मुझे न तो किसी की निंदा ही करनी चाहिए और न ही किसी के काम में बाधा ही डालनी चाहिए|

इसके बाद वकील साहब ने यह निश्चय किया कि वे आगे से कभी भी किसी के बारे में भला-बुरा नहीं कहेंगे और न निंदा करेंगे| बाबा का यह उपदेश वकील के लिए नहीं बल्कि सभी मनुष्यों के लिये था|

कल चर्चा करेंगे..बाबा का संकट के प्रति सचेत करना       

ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Monday 27 August 2018

श्री साईं लीलाएं - घोड़े की लीद का रहस्य

ॐ सांई राम




कल हमने पढ़ा था.. धर्मग्रंथ गुरु के बिना पढ़ना बेकार है
श्री साईं लीलाएं

घोड़े की लीद का रहस्य

अनंतराव पाटणकर पूना के रहनेवाले थे| उन्होंने वेद और उपनिषदों का अध्ययन कर लिया था| उनका तत्वज्ञान भी समझ लिया था| लेकिन इतना सब करने के बाद भी उनका मन शांत न था|

उनके मन में साईं बाबा के दर्शन करने की प्रबल इच्छा थी| बाद में उन्होंने शिरडी में जाकर साईं बाबा के दर्शन किये, तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई| बाबा की चरणवंदना करने के बाद वे बाबा से बोले - "बाबा ! मैंने वेद, पुराण, उपनिषद् आदि अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया है, सुना भी है लेकिन मेरे मन को शांति नहीं मिली| इसलिए मेरी सारी मेहनत करनी व्यर्थ हो रही है| यह मैं समझ भी गया हूं| इसीलिए मैं आपकी शरण में आया हूं, अब आप ही मुझे कोई रास्ता बताइये और मेरे मन को शांति मिले, ऐसा आप आशीर्वाद भी दीजिये|"

तब साईं बाबा ने उसे एक कथा सुनायी| जो इस प्रकार है - "एक बार एक सौदागर यहां आया था| उसकी घोड़ी ने उसके सामने ही लीद के नौ गोले डाल दिये| सौदागर बहुत जिज्ञासु प्रवृति था| उसने तुरंत दौड़कर अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसने लीद के वे नौ गोले रख लिए| इससे उसके मन को बड़ी शांति मिली|" इतना कहकर बाबा चुप हो गये|

पाटणकर ने इस पर बहुत सोच-विचार किया, परन्तु वह इस कथा का मर्म समझने में असफल ही रहे| उन्होंने दादा केलकर से इस कथा का अर्थ समझाने का निवेदन किया| इस पर दादा केलकर ने कहा, बाबा जो कुछ भी कहते हैं उसका अर्थ ठीक से मैं भी नहीं समझ पाता हूं| फिर भी बाबा ने जो कुछ कहा और जितना मैं समझ पाया हूं, वह मैं तुम्हें बताता हूं| वे बोले कि घोड़ी से अर्थ है - परमात्मा की कृपा| नौ गोलों का अर्थ है - नवद्या भक्ति| नवद्या भक्ति इस प्रकार से है - श्रवण, कीर्तन, नामस्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, सेवा, संयम व आत्म-निवेदन| यही भक्ति के नौ प्रकार हैं|

जब तक इनमें किस भी भक्ति के द्वारा स्वयं को परमात्मा से जोड़ा न जाए, तो वह कृपा नहीं करता| जब तक मन में ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम-भाव नहीं रहेगा| तब तक जब, तप, व्रत, योग, वेद-पुराण आदि पढ़ना-पढ़ाना सब व्यर्थ है| देवता प्यार के भूखे होते हैं, बिना लगन से किया हुआ भजन देवता को आकर्षित नहीं कर सकता - और जो ईश्वर से प्रेम करता है, उसे फिर किसी साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती| इन नौ साधनों में से किसी एक पर मन से किया गया प्रयास ही पर्याप्त है| ईश्वर उसी से संतुष्ट होता है| ईश्वरभक्ति ही सर्वोपरि है| सबके प्रति मन में प्रेमभाव रखोगे तो मन शांत होगा| स्वयं को सौदागर की उत्सुकतापूर्वक सत्य को खोजकर नवद्या भक्ति को पा जाओ| तभी मन स्थिर होकर मानसिक शांति मिलेगी| बाबा ने तुम्हें यही भक्ति का संदेश दिया है|" दादा से यह सब सुनकर पाटणकर खुश हो गये|

दूसरे दिन जब पाटणकर बाबा के दर्शन करने मस्जिद गये तो बाबा ने पूछा - "क्यों, क्या तुमने लीद के नौ गोले बांध लिये?" बाबा के इस प्रश्न का संकेत समझकर पाटणकर बोले - "बाबा ! आपकी कृपा के बिना यह कैसे संभव हो सकता है?" इस पर बाबा हँस पड़े और उसका कल्याण हो, इसके लिए बाबा ने आशीर्वाद दिया| पाटणकर ने बाबा के श्रीचरणों पर अपना सिर झुका दिया|


कल चर्चा करेंगे..लोग दक्षिणा भी देते थे और गालियाँ भी

ॐ सांई राम
==ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ==
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Sunday 26 August 2018

श्री साईं लीलाएं - धर्मग्रंथ गुरु के बिना पढ़ना है बेकार

ॐ सांई राम




कल हमने पढ़ा था.. दासगणु को ईशोपनिषद का रहस्य नौकरानी द्वारा सिखाना  

श्री साईं लीलाएं
धर्मग्रंथ गुरु के बिना पढ़ना है बेकार

एक तहसीलदार (व्ही.एच.ठाकुर) रेवेन्यू विभाग में कार्यरत थे| बहुत पढ़े-लिखे होकर भी उन्हें सत्संग से बहुत लगन थी| इसलिए अपने विभाग के साथ जहां कहीं भी जाते, यदि वहां किसी संत महात्मा के बारे में सुनते तो उनके दर्शन अवश्य करते|

एक बार वे अपने ऑफिस के कार्य से जिला बेलगांव के पास बड़गांव गये| कार्य से निपटकर वे उसी गांव में कानडी संत अप्पा जी के दर्शन कर उनकी चरण-वंदना की| उस समय वे महात्मा निश्चलदास रचित 'विचार सागर' ग्रंथ का अर्थ अपने भक्तों के समक्ष कर रहे थे| यह वेदांत से संबंधित ग्रंथ है| कुछ देर बैठने के बाद जब उन्होंने जाने के लिए महात्मा जी से अनुमति मांगी तो उन महात्मा ने उन्हें अपना ग्रंथ देते हुए कहा - "तुम इस ग्रंथ का अध्ययन करो|

तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी| इतना ही नहीं, भविष्य में जब तुम उत्तर दिशा की ओर जाओगे, तो तुम्हारी एक महापुरुष से भेंट होगी| वे तुम्हें परमार्थ की राह दिखायेंगे|" ठाकुर साहब ने स्वयं को सौभाग्यशाली समझकर वह ग्रंथ बड़े प्रेम से माथे से लगाकर स्वीकार किया और बड़े आदर के साथ महात्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त कर विदा हुए|

कुछ समय बाद ठाकुर का तबादला कल्याण तहसील में उच्च पद पर हो गया, जो मुम्बई के नजदीक है| वहां पर उनकी भेंट साईं बाबा के भक्त नाना साहब चाँदोरकर से हुई| चाँदोरकर से साईं बाबा की लीलाएं सुनकर उनके मन में साईं बाबा के दर्शनों की तीव्र इच्छा हुई| उन्होंने चाँदोरकर से अपनी इच्छा प्रकट कर दी| अगले ही दिन चाँदोरकर शिरडी जाने वाले थे| उन्होंने ठाकुर से भी शिरडी चलने को कहा| इस पर ठाकुर ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा - "नाना साहब ! यह अवसर तो अच्छा है, लेकिन क्या करूं? ठाणे की एक अदालत में पेशी है और मेरा उस मुकदमे के सिलसिले में उपस्थित होना जरूरी है| इसलिए चाहते हुए भी न चल सकूंगा|" चाँदोरकर ने कहा - "आप मेरे साथ चलिये तो सही| बाबा के दर्शन को जाने पर उस दावे की क्या बात है, बाबा सब संभाल लेंगे| ऐसा विश्वास रखो, और चलो मेरे साथ|" लेकिन ठाकुर की समझ में यह बात नहीं आयी| वे बोले - "अदालत के कानून तो आप जानते ही हैं| यदि तारीख निकल गयी तो आगे बहुत चक्कर लगाने पड़ेंगे|" और वे अपने निर्णय पर अड़े रहे|

फिर चाँदोरकर अकेले ही चले गये| इधर जब ठाकुर ठाणे की अदालत पहुंचे तो पता चला कि आगे की तारीख मिल गयी है| तब उन्हें इस बात का बड़ा पछतावा हुआ, कि नाना कि बात मान लेता तो अच्छा होता| फिर वे यह सोच शिरडी पहुंचे कि साईं बाबा के दर्शन भी कर लेंगे और नाना साहब भी मिल जायेंगे| जब वे शिरडी गये तो पता चला कि नाना साहब तो वापस लौट चुके थे| इसलिए उनसे भेंट न हो पायी| फिर वे मस्जिद में बाबा के दर्शन करने के लिए गये| बाबा के दर्शन और चरणवंदना कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी|

बाबा बोले - "उस कानडी अप्पा का दिया हुआ 'विचारसागर' ग्रंथ पढ़ चुके हो क्या? उसका मार्ग तो भैंसे की पीठ पर चढ़कर घाट पार करना है| लेकिन यहां का मार्ग बहुत संकरीला है| उस पर चलना आसान नहीं है| इस पर चलने के लिए तुम्हें कठोर श्रम करना पड़ेगा| यहां कष्ट-ही-कष्ट हैं|" साईं बाबा के ऐसे वचन सुनकर ठाकुर को बहुत प्रसन्नता हुई| उनके वचन का मतलब वे समझ चुके थे| उन्हें साईं बाबा के वचन सुनकर बड़गांव के कानडी महात्मा जी के वचन स्मरण हो आये| उन्होंने जिस महापुरुष के बारे में कहा था वे साईं बाबा ही हैं|यह बात उन्होंने अपने मन में धारण कर ली| फिर ठाकुर ने बाबा के चरणों में सिर झुकाकर विनती की - "बाबा ! आप मुझ अनाथ पर कृपा करके मुझे अपना लो|"

फिर बाबा उसे समझाते हुए बोले - "अप्पा ने जो कहा था, वह सब सत्य है| जब तुम उसके अनुसार आचरण करके साधना करोगे, तभी मनोकामनायें पूरी होंगी| सद्गुरु के बिना किताब का ज्ञान व्यर्थ है| फिर गुरु-मार्गदर्शन से ग्रंथ पढ़ना, सुनना और उस पर अमल करना| ये सब बातें फल देती हैं|" इस उपदेश के बाद ठाकुर बाबा के परम भक्त बन गये|


कल चर्चा करेंगे..घोड़े की लीद का रहस्य       

ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Saturday 25 August 2018

श्री साईं लीलाएं - दासगणु को ईशोपनिषद का रहस्य नौकरानी द्वारा सिखाना

ॐ सांई राम



कल हमने पढ़ा था.. किसी से बुरा मत बोलो 

श्री साईं लीलाएं

दासगणु को ईशोपनिषद का रहस्य नौकरानी द्वारा सिखाना

एक बार दासगणु जी महाराज ने ईशोपनिषद् पर 'ईश्वास्य-भावार्थ-बोधिनी टीका' लिखनी शुरू की| इस ग्रंथ पर टीका लिखना वास्तव में बहुत ही कठिन कार्य है| दासगणु ने ओवी छंदों में इसकी टीका तो की, पर सारतत्व उनकी समझ में नहीं आया| टीका लिखने के बाद भी उन्हें आत्मसंतुष्टि नहीं हुई| अपनी शंका के समाधान के लिए उन्होंने अनेक विद्वानों से परामर्श किया, परन्तु उसका कोई समाधान नहीं हो सका|

जब दासगणु को किसी भी तरह से संतुष्टि न हुई हो उन्होंने अपने मन में विचार किया कि इस समस्या का समाधान वही कर सकता है, जिसने आत्म-साक्षात्कार कर लिया हो, क्योंकि उपनिषद् एक ऐसा शास्त्र है जिसका रहस्य जानने से जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है| इसलिए उन्होंने शिरडी जाने का निर्णय का लिया| फिर अवसर पाते ही वह शिरडी जा पहुंचे - और साईं बाबा के दर्शन करके चरणवंदना की| फिर उपनिषद् पर टीका लिखने पर आयी समस्या और अपनी शंका के लिए बाबा से प्रार्थना की - "बाबा आप यदि मेरी समस्या का समाधान कर दें तो मेरे सारे परिश्रम पूर्णता होंगे| आप तो सब कुछ जानने वाले हैं| अप आप ही कुछ करें|"

सब कुछ सुनने के बाद साईं बाबा ने उन्हें अपना आशीर्वाद देते हुए आश्वासन दिया - "इसमें फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है| इसमें कठिनाई ही क्या है, जब तुम वापस लौटोगे तो बिलपार्ले में रहने वाले काका साहब दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी समस्या का समाधान कर देगी|"

बाबा के श्रीमुख से ऐसे वचन सुनकर दासगणु हैरान रह गये| उन्होंने अपने मन में सोचा, 'कहीं बाबा मजाक तो नहीं कर रहे| क्या एक साधारण अनपढ़ नौकरानी, उपनिषद् का रहस्य सुलझा देगी? जो मैं न जान सका, जहां विद्वानों की बुद्धि हार गयी, वह यह कैसे करेगी?' लेकिन बाबा की बात तो ब्रह्म वाक्य होते हैं| अत: वे कभी असत्य नहीं हो सकते| उन्हें बाबा का पूर्ण विश्वास था|

बाबा के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखकर दासगणु शिरडी से मुम्बई के विलेपार्ले में काका साहब दीक्षित के घर पहुंचे| अगले दिन जब वे सुबह के समय उठे तो उन्हें किसी बालिका द्वारा गीत गाने की आवाज सुनाई दी| गीत का भाव यह था कि वह लाल साड़ी कितनी सुंदर थी, उसका जरी वाला आंचल कितना सुंदर था, उसके किनारे कितने सुंदर थे| दासगणु को यह गीत बड़ा अच्छा लगा और वे धीरे-धीरे गीत के बोल पर झूमने लगे| मन को अद्भुत आनंद प्राप्त हुआ| जब उन्होंने बाहर आकर देखा तो वह गीत काका साहब दीक्षित की नाम्या नाम की नौकर की बहन बर्तन मांजते हुए गा रही थी| वह मात्र आठ वर्ष की थी और अपने तन को एक फटी-पुरानी साड़ी से ढके हुए थी| दरिद्रता की ऐसी अवस्था में भी वह कितनी खुश थी| उसको खुश देखकर दासगणु का मन दया से भर गया| अगले दिन दासगणु ने भोरेश्वर विश्वनाथ प्रधान से एक अच्छी-सी साड़ी मंगवाकर उस लड़की को दे दी| जब उस बालिका को साड़ी दी तो वह इतनी खुश हुई जितनी खुशी भूखे को भोजन मिलने पर होती है| दूसरे दिन उसने वह नई साड़ी पहनी और नाचने-कूदने लगी, गाती रही|

फिर अगले दिन उसने नई साड़ी को संभालकर रख दिया और पहले की तरह फटी-पुरानी उसी साड़ी को पहनकर काम पर आयी| लेकिन नई साड़ी पाने से जो खुशी कल उसके चेहरे पर झलक रही थी, वह आज भी विद्यमान थी| उसे देखकर दासगणु की दया आश्चर्य में बदल गयी|

दासगणु विचारने लगे कि गरीबी के कारण उसे फटे-पुराने वस्त्र पहनने पड़ते थे| लेकिन अब तो उसके पास नयी साड़ी थी, फिर भी उसने नई साड़ी को संभालकर रख दिया था और फटे-पुराने कपड़े पहनकर भी उसके आनंद में कोई कमी नहीं आई थी| उसके चेहरे पर दुःख या निराशा का भाव जरा-सा भी नहीं था| उसे दोनों स्थितियों में खुश देखकर दासगणु समझ गये कि सुख और दुःख केवल अपनी मनोस्थिति पर निर्भर हैं| फिर ईशावास्य का रहस्य उनकी समझ में आ गया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि परमात्मा ने जो कुछ दिया है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए और जो भी जैसी भी स्थिति है, उसी परमात्मा का कृपा-प्रसाद है| वह स्थिति निश्चित ही सुखद रहेगी| फिर वे विचार करने लगे, बालिका की निर्धन अवस्था, उसके फटे-पुराने कपड़े, नई साड़ी देने वाला और उसकी स्वीकृति देने वाला आदि ये सब उस परमात्मास द्वारा निर्देशित था|

दासगणु को उस नौकरानी द्वारा प्रत्यक्ष में यह शिक्षा मिली कि जो कुछ स्वयं के पास है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए, उसी में कल्याण है| साईं बाबा उसको स्वयं इसका अर्थ बता सकते थे| चाहे वे कितने शब्दों का उपयोग करते तो भी तत्वज्ञान उनकी समझ में नहीं आता, जितना एक अनुभव से आ गया| इसलिए उन्होंने दासगणु को काका साहब की नौकरानी के पास भेजा था| परमात्मा कण-कण में मौजूद है| यह सारा संसार उस परमात्मा के द्वारा ही संचालित हो रहा है और वही सबके अंतर्मन में समाकर यह खेल खेलता है| बाबा और उस नौकरानी में कोई अंतर नहीं है - यही समझाने के लिए दासगणु को बाबा ने वहां भेजा था|


कल चर्चा करेंगे..धर्मग्रंथ गुरु बिना पढ़ना बेकार       

ॐ सांई राम

==ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ==


बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Friday 24 August 2018

श्री साईं लीलाएं - किसी से बुरा मत बोलो

ॐ सांई राम



परसों हमने पढ़ा था.. दाभोलकर के मन की बात
श्री साईं लीलाएं


किसी से बुरा मत बोलो
    
बाबा केवल यही चाहते थे कि सबका भला हो| बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सत्य-मार्ग पर चलने के लिए कहते| अच्छाई करने के लिए सबको प्रेरित करते| जो भी व्यक्ति अच्छाई की राह पर चलता, बाबा उसका हौसला और बढ़ाते|

एक बार हेमाडपंत साईं बाबा के दर्शन करने शिरडी गये थे| वहां पर उनके मन में यह विचार आया कि उस परम पावन स्थान पर गुरुवार (बृहस्पतिवार) के दिन राम-नाम का अखण्ड स्मरण और कीर्तन करें| दूसरे ही दिन गुरुवार था|अपने निश्चय को याद करके बुधवार की रात वे राम-नाम लेते-लेते सो गये| गुरुवार को सुबह उठते ही उन्होंने राम-नाम लेना शुरू कर दिया| नित्य काम से निवृत होकर मस्जिद में साईं बाबा के दर्शन करने गए| जब वे बूटीवाड़े के पास से गुजर रहे थे तो मस्जिद के आंगन में औरंगाबादकरनाम के भक्त, संत एकनाथ महाराज का रामभक्ति बताने वाला अमंगा गा रहे थे| उसका अर्थ इस तरह था - "मैंने गुरु-कृपा का काजल पाया है और सब उसे लगाने से राम के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं देता है| मेरे अंदर और बाहर भी राम हैं| मेरे सपनों में भी राम हैं| इतना ही नहीं, मैं जागते हुए और सोते हुए राम को ही देखता हूं, मैं हर जगह राम को ही देखता हूं| सभी कामनाएं पूरी करने वाला राम कण-कण में भरा है और वह जनार्दन के एकनाथ का अनुभव है|"

यह गीत सुनते ही हेमाडपंत सोचने लगे - "बाबा का खेल समझ से बाहर है| मेरे मन की बात जानकर ही उन्होंने औरंगाबादकर से वह अमंगा गवाया होगा| नहीं तो हजारों गीत जानते हुए भी उन्होंने यही अमंगा क्यों गाया? बाबा सब कुछ करते हैं और हम केवल कठपुतलियाँ हैं - और यही सच है| मैंने जो कहा, जो सोचा है वह साईं माँ को पसंद है|' -यह सोचने हुए उन्हें और भी उम्मीद मिली और यह सब मंत्र बाबा से ही मिला| ऐसा सोच के वह पूरा दिन उन्होंने राम-नाम के साथ बिताया|एक बार की बात है - बाबा के एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में अन्य लोगों के सामने एक दोस्त की बात निकलते ही उसे भला-बुरा कहना शुरू कर दिया| उसके शब्द इतने बुरे थे कि उससे सभी को घृणा हुई| ऐसा देखने में आता है कि बिना वजह निंदा  करने से विवाद ही पैदा होते हैं| पर ऐसे व्यक्ति को सही मार्ग पर लाने की बाबा की प्रणाली बड़ी विचित्र थी|

उसकी बकवास सुनकर सभी लोग मस्जिद की तरफ चल पड़े| अंतर्यामी साईं बाबा से यह बात छुपी न रह सकी| दोपहर को लैंडीबाग से लौटते समय जब बाबा की उस भक्त से भेंट हुई तो बाबा उसे अपने साथ लेकर आने लगे| रास्ते में एक जगह विष्ठा खाते एक सूअर की ओर इशारा करते हुए बाबा ने उससे कहा - "देखो, वह कितने प्रेम से विष्ठा खा रहा है| तुम लोगों को अपशब्द कहते हो, तुम्हारा यह आचरण निष्ठा खाते सूअर जैसा ही है| तुम्हारे पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के कारण ही तुम्हें यह मानव शरीर मिला है| फिर भी तुम ऐसा आचरण करोगे तो क्या शिरडी तुम्हारी कोई सहायता कर पायेगी, सोचो?"

वह भक्त उसी समय बाबा का उपदेश सुनकर चुपचाप वहां से चला गया|



कल चर्चा करेंगे..दासगणु को ईशोपनिषद का रहस्य नौकरानी द्वारा सिखाना

ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Thursday 23 August 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 8

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 8
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मानव जन्म का महत्व, श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति, बायजाबई की सेवा-शुश्रूशा, श्री साईबाबा का शयनकक्ष, खुशालचन्त पर प्रेम ।
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जैसा कि गत अध्याय में कहा गया है, अब श्री हेमाडपन्त मानव जन्म की महत्ता को विस्तृत रुप में समझातेहैं । श्री साईबाबा किस प्रकार भिक्षा उपार्जन करते थे, बायजाबाई उनकी किस प्रकार सेवा-शुश्रूशा करती थी, वे मसजिद में तात्या कोते और म्हालसापति के साथ किस प्रकार शयन करते तथा खुशानचन्द पर उनका कैसा स्नेह था, इसका आगे वर्णन किया जायेगा ।

मानव जन्म का महत्व
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इस विचित्र संसार में ईश्वर ने लाखों प्राणियों (हिन्दू शास्त्र के अनुसार 84 लाख योनियों) को उत्पन्न किया है (जिनमें देव, दानव, गन्धर्व, जीवजन्तु और मनुष्य आदि सम्मिलित है), जो स्वर्ग, नरक, पृथ्वी, समुदआ तथा आकाश में निवास करते और भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं । इन प्राणियों में जिनका पुण्य प्रबल है, वे स्वर्ग में निवास करते और अपने सत्कृत्यों का फल भोगते हैं । पुण्य के क्षीण होते ही वे फिर निम्न स्तर में आ जाते हैं और वे प्राणी, जिन्होंने पाप या दुष्कर्म किये हैं, नरक को जाते और अपने कुकर्मों का फल भोगते हैं । जब उनके पाप और पुण्यों का समन्वय हो जाता है, तब उन्हें मानव-जन्म और मोक्ष प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है । जब पाप और पुण्य दोनों नष्ट हो जाते है, तब वे मुक्त हो जाते हैं । अपने कर्म तथा प्रारब्ध के अनुसार ही आत्माएँ जन्म लेतीं या काया-प्रवेश करती हैं ।


मनुष्य शरीर अनमोल
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यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में चार बातें एक समान है – आहार, निद्रा, भय और मैथुन । मानव प्राणी को ज्ञान एक विशेष देन हैं, जिसकी सहायता से ही वह ईश्वर-दर्शन कर सकता है, जो अन्य किसी योलि में सम्भव नहीं । यही कारण है कि देवता भी मानव योनि से ईष्रर्य़ा करते हैं तथा पृथ्वी पर मानव-जन्म धारण करने के हेतु सदैव लालायित रहते है, जिससे उन्हें अंत में मुक्ति प्राप्त हो ।
किसी-किसी का ऐसा भी मत है कि मानव-शरीर अति दोषयुक्त है । यह कृमि, मज्जा और कफ से परिपूर्ण, क्षण-भंगुर, रोग-ग्रस्त तथा नश्वर है । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कथन अंशतः सत्य है । परन्तु इतना दोषपूर्ण होते हुए भी मानव शरीर का मूल्य अधिक है, क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति केवल इसी योनि में संभव है । मानव-शरीर प्राप्त होने पर ही तो ज्ञात होता है कि यह शरीर नश्वर और विश्व परिवर्तनशीन है और इस प्रकार धारणा कर इन्द्रिय-जन्य विषयों को तिलांजलि देकर तथा सत्-असत् क् विवेक कर ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है । इसलिये यदि हम शरीर को तुच्छ और अपवित्र समझ कर उसकी उपेक्षा करे तो हम ईश्वर दर्शन के अवसर से वंचित रह जायेंगे । यदि हम उसे मूल्यवान समझ कर उसका मोह करेंगे तो हम इन्द्रिय-सुखों की ओर प्रवृत्त हो जायेंगे और तब हमारा पतन भी सुनिशि्चत ही हैं ।
इसलिये उचित मार्ग, जिसका अवलम्बन करना चाहिये, यह है कि न तो देह की उपेक्षा ही करो और न ही उसमें आसक्ति रखो । केवल इतना ही ध्यान रहे कि किसी घुड़सवार का अपनी यात्रा में अपने घोड़े पर तब तक ही मोह रहता है, जब तक वह अपने निर्दिष् स्थान पर पहुँच कर लौट न आये ।
इसलिये ईश्वर दर्शन या आत्मसाक्षात्कार के निमित्त शरीर को सदा ही लगाये रखना चाहिये, जो जीवन का मुख्य ध्येय है । ऐसा कहा जाता है कि अनेक प्राणियों की उत्पत्ति करने के पश्चात् भी ईश्वर को संतोष नहीं हुआ, कारण यह है कि कोई भी प्राणी उसकी अलौकिक रचना और सृष्टि को समझने में समर्थ न हो सका और इसी कारण उसने एक विशेष प्राणी अर्थात् मानव जाति की उत्पत्ति की और उसे ज्ञान की विशेष सुविधा प्रदान की । जब ईश्वर ने देखा कि मानव उसकी लीला, अद्भभुत रचनाओं तथा ज्ञान को समझने के योग्य है, तब उन्हें अति हर्ष एवं सन्तोष हुआ । (भागवत स्कंध 11-9-28 के अनुसार) । इसलिये मानव जन्म प्राप्त होना बड़े सौभाग्य का सूचक है । उच्च ब्राहमण कुल में जन्म लेना तो परम सौभाग्य का लक्षण है, परन्तु श्री साई-चरणाम्बुजों में प्रीति और उनकी शरणागति प्राप्त होना इन सभी में अति श्रेष्ठ हैं ।

मानव का प्रत्यन
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इस संसार में मानव-जन्म अति दुर्लभ है । हर मनुष्य की मृत्यु ते निश्चित ही है और वह किसी भी क्षण उसका आलिंगन कर सकती है । ऐसी ही धारणा कर हमें अपने ध्येय की प्राप्ति में सददैव तत्पर रहना चाहिये । जिस प्रकार खोये हुये राजकुमार की खोज में राजा प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग में लाता है, इसी प्रकार किंचित् मात्र भी विलंब न कर हमें अपने अभीष्ट की सिदि के हेतु शीघ्रता करनी ही सर्वथा उचित है । अतः पूर्ण लगगन और उत्सुकतापूर्वक अपने ध्येय, आलस्य और निद्रा को त्याग कर हमें ईश्वर का सर्वदा ध्यान रखना चाहिये । यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमें पशुओं के स्तर पर ही अपने को समझना पड़ेगा ।

कैसे प्रवृत्त होना ।
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अधिक सफलतापूर्वक और सुलभ साक्षात्कार को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है-किसी योग्य संत या सदगुरु के चरणों की शीतल छाया में आश्रय लेना, जिसे कि ईश्वर-साक्षात्कार हो चुका हो । जो लाभ धार्मिक व्याख्यानों के श्रवण करने और धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन करने से प्राप्त नहीं हो सकता, वह इन उच्च आत्मज्ञानियों की संगति से सहज ही में प्राप्त हो जाता है । जो प्रकाश हमें सूर्य से प्राप्त होता है, वैसा विश्व के समस्त तारे भी मिल जायें तो भी नहीं दे सकते । इसी प्रकार जिस आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि हमें सदगुरु की कृपा से हो सकती है, वह ग्रन्थों और उपदेशों से किसी प्रकार संभव नहीं है । उनकी प्रत्येक गतिविधि, मृदु-भाषण, गुहा उपदेश, क्षमाशीलता, स्थरता, वैराग्य, दान और परोपकारिता, मानव शरीर का नियंत्रण, अहंकार-शून्यता आदि गुण, जिस प्रकार भी वे इस पवित्र मंगल-विभूति दृारा व्यवहार में आते है, सत्संग दृारा भक्त लोगों को उसके प्रत्यक्ष दर्शन होते है । इससे मस्तिष्क की जागृति होती तथा उतत्रोत्तर आध्यात्मिक उन्नति होती रहती है । श्री साईबाबा इसी प्रकार के एक संत या सदगुरु थे । यघपि वे बाहृरुप से एक फकीर का अभिनय करते थे, परन्तु वे सदैव आत्मलीन रहते थे । वे समस्त प्राणियों से प्रेम करते और उनमें भगवत्-दर्शन का अनुभव करते थे । सुखों का उनको कोई आकर्षण न था और न वे आपत्तियों से विचलित होते थे । उनके लिये अमीर और फकीर दोनों ही एक समान थे । जिनकी उपार्जन किया करते थे । यह कार्य वे इस प्रकार करते थे –



श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति
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शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि जिनके दृार पर परब्रहा भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, औ साई । एक रोटी का टुकड़ा मिले और उसे प्राप्त करने के लिये अपना हाथ फैलाते थे । एक हाथ में वे सदा टमरेल लिये रहते तथा दूसरे में एक झोली । कुछ गृहों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-किसी के दृार पर केवल फेरी ही लगाते थे । वे साग, दूध या छाँछ आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे । बाबा की जिहृा को कोई स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था । इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते । जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे ।
अमुक पदार्थ स्वादिष्ट है या नही, बाबा ने इस ओर कभी ध्यान ही न दिया, मानो उनकी जिहृा में स्वाद बोध ही न हो । वे केवल मध्याहृ तक ही भिक्षा-उपार्जन करते थे । यह कार्य बहुत अनियमित था । किसी दिन तो वो छोटी सी फेरी ही लगाते तथा किसी दिन बारह बजे तक । वे एकत्रित भोजन एक कुण्डी में डाल देते, जहाँ कुत्ते, बिल्लियाँ, कौवे आदि स्वतंत्रतापूर्वक भोजन करते थे । बाबा ने उन्हें कभी नहीं भगाया । एक स्त्री भी, जो मसजिद में झाडू लगाया करती थी, रोटी के दस-बारह टुकड़े उठाकर अपने घर ले जाती थी, परन्तु किसी ने कभी उसे नहीं रोका । जिन्होंने स्वप्न में भी बिल्लियों और कुत्तों को कभी दुतकार कर नहीं भगाया, वे भला निस्सहाय गरीबों को रोटी के कुछ टुकड़ो को उठाने से क्यों रोकते । ऐसे महान् पुरुष का जीवन धन्य हैं । शिरडीवासी तो पहले पहल उन्हें केवल एक पागल ही समझते थे और वे शिरडी में इसी नाम से विख्यात भी हो गये थे । जो भिक्षा के कुछ टुकडो पर निर्वाह करता हो, भला उसका कोई आदर कैसे करता । परंतु ये तो उदार हृदय, त्याती और धर्मात्मा थे । यघपि वे बाहर से चंचल और अशान्त प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से दृढ़ और गंभीर थे । उनका मार्ग गहन तथा गूढ़ था । फिर भी ग्राम में कुछ ऐसे श्रदृावान् और सौभाग्यशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें पहिचान कर एक महान् पुरुष माना । ऐसी ही एक घटना नीचे दी जाती हैं ।



बायजाबई की सेवा
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तात्या कोते की माता, जिनका नाम बायजाबाई था, दोपहर के समय एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर जंगल को जाया करती थीं । वे जंगल में कोसों दूर जाती और बाबा को ढूँढ़कर उनके चरण पकड़ती थीं । बाबा तो शान्त और ध्यानमग्न बैठे रहते थे । वे एक पत्तल बिछाकर उस पर सब प्रकार के व्यंजनादि जैसे-रोटी, साग आदि परोसती और बाबा से भोजन कर लेने के लिये आग्रह करती । उनकी सेवा तथा श्रदृा की रीति बड़ी ही विलक्षण थी – प्रतिदिन दोपहर को जंगल में बाबा को ढूँढ़ना और भोजन के लिये आग्रह करना । उनकी सेवा और उपासना की स्मृति बाबा को अपने अन्तिंम क्षणों तक बनी रही । उनकी सेवा का ध्यान कर बाबा ने उनके पुत्र को बहुत लाभ पहुँचाया । माँ और बेटे दोनों की ही फकीर पर दृढ़ निष्ठा थी । उन्होंने बाबा को सदैव ईश्वर के समान ही पूजा । बाबा उनसे कभी-कभी कहा करते थे कि फकीरी ही सच्ची अमीरी है । उसका कोई अन्त नहीं । जिसे अमीरी के नाम से पुकारा जाता है, वह शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाली है । कुछ वर्षों के अनन्तर बाबा ने जंगल में विचरना त्याग दिया । वे गाँव में ही रहने और मसजिद में ही भोजन करने लगे । इस कारण बायजाबाई को भी उन्हें जंगल में ढूँढ़ने के कष्ट से छुटकारा मिल गया।

तीनों का शयन-कक्ष
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वे सन्त पुरुष धन्य है, जिनके हृदय मेंभगवान वासुदेव सदैव वास करते है । वे भक्त भी भाग्यशाली है, जिन्हें उनका सालिध्य प्राप्त होता है । ऐसे ही दो भाग्यशाली भक्त थे ।
1. तात्या कोते पाटील और
2. भगत म्हालसापति ।

दोनों ने बाबा के सानिध्य का सदैव पूर्ण लाभ उठाया । बाबा दोनों पर एक ससमान प्रेम रखते थे । ये तीनों महानुभाव मसजिद में अपने सिर पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर की ओर करते और केन्द्र में एक दूसरे के पैर से पैर मिलाकर शयन किया करते थे । बिस्तर में लेटे-लेटे ही वे आधी रात तक प्रेमपूर्वक वार्तालाप और इधर-उधर की चर्चायें किया करते थे । यदि किसी को भी निद्रा आने लगती तो दूसरा उसे जगा देता था । यदि तात्या खुर्रार्टे लेने लगते तो बाबा शीघ्र ही उठकर उसे हिलाते और सिर पकड़ कर जोर से दबाते थे । यदि कहीं वह म्हालसापति हुए तो उन्हें भी अपनी ओर खींचते और पैंरों पर धक्का देकर पीठ थपथपाते थे । इस प्रकार तात्या ने 14 वर्षों तक अपने माता-पिता को गृह ही पर छोड़कर बाबा के प्रेमवश मसजिद में निवास किया । कैसे सुहाने दिन थे वे । उनकी क्या कभी विस्मृति हो सकती है । उस प्रेम के क्या कहना । बाबा की कृपा का मूल्य कैसे आँका जा सकता था । पिता की मृत्यु होने के पश्चात तात्या पर घरबार की जिम्मेदारी आ पड़ी, इसलिये वे अपने घर जाकर रहने लगे ।

राहाता निवासी खुशालचन्द
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शिरडी के गणपत तात्या कोते को बाबा बहुत ही चाहते थे । वे राहाता के मारवाड़ी सेठ श्री. चन्द्रभान को भी बहुत प्यार करते थे । सेठजी का देहान्त होने के उपरांत बाबा उसके भतीजे खुशालचन्द को भी अधिक प्रेम करते थे । वे उनके कल्याण की दिनरात फिक्र किया करते थे । कभी बैलगाड़ी में तो कभी ताँगें में वे अपने अंतरंग मित्रों के साथ राहाता को जाया करते थे । ग्रामवासी बाबा के गाँव के फाटक पर आते ही उनका अपूर्व स्वागत करते और उन्हें प्रणाम कर बड़ी धूमधाम से गाँव में ले जाते ते । खुशालचन्द बाबा को अपने घर ले जाते और कोमल आसन पर बिठाकर उत्तम सुस्वादु भोजन कराते और आनन्द तथा प्रसन्न चित्त से कुछ काल तक वार्तालाप किया करते थे । फिर बाबा सबको आनंदित कर और आर्शीवाद देकर शिरडी वारिस लौट आते थे ।
एक ओर राहाता (दक्षिण में) तथा दूसरी ओर नीमगाँव (उत्तर में) था । इन दोनों ग्रामों के मध्य में शिरडी स्थित हैं । बाबा अपने जीवनकाल में कभी भी इन सीमाओं के पार नहीं गये । उन्होंने कभी रेलगाड़ी नहीं देखी और न कभी उसमें प्रवास ही किया, परन्तु फिर भी उन्हें सब गाड़ियों के आवागमन का समय ठीक-ठीक ज्ञात रहता था । जो भक्तगण बाबा से लौटने की आनुमति माँगते और जो आदेशानुकूल चलते, वे कुशलतापूर्वक घर पहुँच जाते थे । परन्तु इसके विपरीत जो अवज्ञा करते, उन्हें दुर्भाग्य व दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता था । इस विषय से सम्बन्धित घटनाओं और अन्य विषयों का अगले अध्याय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया जायेगा ।

विशेष
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इस अध्याय के नीचे दी हुई टिप्पणी बाबा के खुशालचन्द पर प्रेम के संबंध में है । किस प्रकार उन्होंने काकासाहेब दीक्षित को राहाता जाकर खुशालचन्द को लिवा लाने को कहा और उसी दोपहर को खुशालचन्द से स्वप्न में शिरडी आने को कहा, इसका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है, क्योंकि इसका वर्णन इस सच्चरित्र के 30वें अध्याय में किया जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.