tag:blogger.com,1999:blog-56455886415718364432024-03-19T14:17:55.993+05:30Shirdi Ke Sai Baba Group (Regd.)ॐ सांई रामhttp://www.blogger.com/profile/13587657941004143524noreply@blogger.comBlogger5351125tag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-21091478930120837632024-03-19T00:00:00.001+05:302024-03-19T07:10:24.611+05:30बाबा सुन्दर दास जी<div style="text-align: center;"><b><span style="color: orange; font-size: large;">बाबा सुन्दर दास जी</span></b></div><div><div><b><span style="color: blue;"><br /></span></b><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">जब कोई प्राणी परलोक सिधारता है तो उसके नमित रखे 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' के पाठ का भोग डालने के पश्चात 'रामकली राग की सद्द' का भी पाठ किया जाता है| गुरु-मर्यादा में यह मर्यादा बन गई है| यह सद्द बाबा सुन्दर दास जी की रचना है| सतिगुरु अमरदास जी महाराज जी के ज्योति जोत समाने के समय का वैराग और करुण दृश्य पेश किया गया है|</span></b></div><b><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">सद्द का उच्चारण करने वाले गुरमुख प्यारे, गुरु घर के श्रद्धालु बाबा सुन्दर दास जी थे| आप सीस राम जी के सपुत्र और सतिगुरु अमरदास जी के पड़पोते थे| आप ने गोइंदवाल में बहुत भक्ति की, गुरु का यश करते रहे|</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">बाबा सुन्दर दास जी का मेल सतिगुरु अर्जुन देव जी महाराज से उस समय हुआ, जब सतिगुरु जी बाबा मोहन जी से गुरुबाणी की पोथियां प्राप्त करने के लिए गोइंदवाल पहुंचे थे| उनके साथ बाबा बुड्ढा जी और अन्य श्रद्धालु सिक्ख भी थे| उस समय बाबा सुन्दर दास जी ने वचन विलास में महाराज जी के आगे व्यक्त कर दिया कि उन्होंने एक 'सद्द' लिखी है| महाराज जी ने वह 'सद्द' सुनी| सुन कर इतने प्रसन्न हुए कि 'सद्द' उनसे लेकर अपने पास रख ली| जब 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' जी की बीड़ तैयार की तो भाई गुरदास जी से यह 'सद्द' भी लिखवा दी| उस सद्द के कारण बाबा सुन्दर दास जी भक्तों में गिने जाने लगे और अमर हो गए| जो भी सद्द को सुनता है या सद्द का पाठ करता है, उसके मन को शांति प्राप्त होती है| उसके जन्म मरण के बंधन कट जाते हैं| यह 'सद्द' कल्याण करने वाली बाणी है|</span></b></div></span></b></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-76296759034253618192024-03-18T00:00:00.001+05:302024-03-18T06:30:03.749+05:30भाई तिलकू जी<div style="text-align: center;"><b><b><span style="color: orange; font-size: large;">भाई तिलकू जी</span></b></b></div><div><b></b><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ||</span></b></b></div><b></b><div style="text-align: center;"><b><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">सेवा पूज करउ तिसु मुरति की नानकु तिसु पग चाटै ||५||</span></b></b></div><b><br /><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">गुरु अर्जुन देव जी महाराज फरमाते हैं कि योगी वहीं सच्चा योगी है तथा उसी को मिलो जो माया के बंधन काटे, जो बंधन काटने वाला है, ऐसे पुरुष अथवा ज्ञानी की सेवा तथा पूजा करने के अतिरिक्त उसके चरण भी छूने चाहिए| चरणों की पूजा करनी चाहिए| सतिगुरु जी बहुत आराधना करते हैं|</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">पर पाखण्डी योगी संत आदि जो केवल भेषधारी हैं उनके चरणों पर माथा टेकने से वर्जित किया है| आजकल भेष के पीछे बहुत लगते हैं सत्य को नहीं जानते| ऐसे सत्य को परखने तथा गुरमति पर चलने वाले भाई तिलकू जी हुए हैं जो एक महांपुरुष थे|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई तिलकू जी गढ़शंकर के वासी तथा पंचम पातशाह जी के सिक्ख थे| उनका नियम था कि रात-दिन, हर क्षण मूल मंत्र का पाठ करते रहते थे| कभी किसी को बुरा वचन नहीं कहते थे, सत्य के पैरोकार तथा कार्य-व्यवहार में परिपूर्ण थे| गुरु महाराज के बिना किसी के चरणों पर सिर नहीं झुकाते थे| नेक कमाई करके रोटी खाते थे| देना-लेना किसी का कुछ नहीं था, ऐसी उन पर वाहिगुरु की अपार कृपा थी|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">गढ़शंकर में एक योगी रहता था| एक सौ दस साल की आयु हो जाने तथा घोर तपस्या करने पर भी उसके मन में से अहंकार नहीं निकला था, वह अभिमानी हो गया तथा अपनी प्रशंसा करवाता था| लोगों को पीछे लगा कर अपना यश सुनता|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">उसने अपने जीवित रहते एक बहुत बड़ा भंडारा किया| जब भंडारा तैयार हुआ तो उसने सारे नगर में तथा बाहर ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, नवयुवक भंडारे में भोजन करेगा, उसको दो साल के लिए स्वर्ग हासिल होगा, उसको परमात्मा के दर्शन होंगे| </span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">उस योगी का यह संदेश सुनकर नगर के लोग बाल-बच्चों सहित पधारे तथा भंडारा लिया, योगी का यश किया| जब सभी ने भोजन कर लिया तो योगी ने अपने मुख्य शिष्य को कहा -</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">'पता करो कोई स्त्री-पुरुष भंडारे में आने से रह तो नहीं गया| यदि रह गया हो तो उसे भी बुलाओ|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी का ऐसा हुक्म सुनकर उसके मुख्य शिष्य ने नगर में सेवक भेजे| उन्होंने पता किया तथा कहा-'महाराज! भाई तिलकू नहीं आया, शेष सब भोजन कर गए हैं| वह कहता है मुझे स्वर्ग की जरूरत नहीं, वह नहीं आता|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी ने उसके पास दोबारा आदमी भेजे था कहा, उसे कहो कि तुम्हें दस साल के लिए स्वर्ग मिलेगा, आ जाओ| मेरा भंडारा सम्पूर्ण हो जाए| हुक्म सुनकर वे पुन: भाई तिलकू जी के पास गए, उसको दस साल स्वर्ग के बारे में बताया तो वह हंस पड़ा| इतने सस्ते में स्वर्ग जीवन देने वाले योगी के माथे लगना ही पाप है| मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए| मेरे स्वर्ग मेरे जीवन को लेने-देने वाला मेरा सतिगुरु है, मैं तो उसकी पनाह में बैठा हूं| जाओ, योगी को बता दो|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">शिष्य हार कर चले गए तथा योगी को जाकर बताया| योगी सुनकर आपे से बाहर हो गया और क्रोध से बोल उठा| उसने कहा-'मैं देखता हूं उसका गुरु कौन है? उसकी कितनी शक्ति है? अभी वह आएगा तथा पांव में पड़ेगा| तिलकू तिलक कर ही रहेगा|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">इस तरह बोलता हुआ योगी लाल-पीला हो गया तथा आसन से उठ बैठा| उसके हृदय में अहंकार तथा वैर भावना आ गई| वैर भावना ने योगी की सारी तपस्या तथा भक्ति को शून्य कर दिया| योगी को अपने योग बल पर बहुत अभिमान था| उसने समाधि लगाई| योग बल से भूत-प्रेत, बीर बुलाए तथा उनको आज्ञा की-'जाओ तिलकू को परेशान करो, वह मेरे भंडारे में आए|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी का हुक्म सुनकर बीर तथा भूत-प्रेत भाई तिलकू के घर गए| पहले तो आंधी की तरह उसके घर के दरवाजे खुले तथा बंद हुए| धरती डगमगाई तथा भाई तिलकू जी के मुख से निकला-'सतिनाम सति करतार!' आंधी रुक गई| फिर भाई तिलकू जी मूल मंत्र का पाठ करने लग पड़ा| जैसे-जैसे वह पाठ करता गया वैसे-वैसे सारे खतरे दूर हो गए|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी के सारे भूत-प्रेत तथा बीर उसके पास गए| उन्होंने हाथ जोड़ कर बुरे हाल योगी के आगे विनती की-</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">हे मालिक! हमारी कोई पेश नहीं जाती| उसकी रक्षा हमसे ज्यादा कोई महान शक्तिशाली आदमी कर रहे हैं, उनसे तो थप्पड़ और धक्के लगते हैं| घुल-घुल कर हांफ कर आ गए हैं| वह तिलकू कोई कलाम पढ़ता जाता है| हम चले, हम सेवा नहीं कर सकते| यह कह कर सारी बुरी आत्माएं चली गईं| योगी की सुरति कायम न रह सकी| वह बुरी आत्माओं को काबू न रख सका, वह सारी चली गईं|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी ने निराश हो कर समाधि भंग की बैठा तथा भाई तिलकू के पास गया तथा उसके घर का दरवाजा खटखटाया| आवाज़ दी-'भाई तिलकू जी दरवाजा खोलो|' योगी आप के दर्शन करने आया है|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">यह सुन कर भाई तिलकू जी ने दरवाजा खोला तथा देखा योगी बाहर खड़ा था| उसके पीछे उसके शिष्य तथा कुछ शहर के लोग थे|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">'भाई जी! यह बताओ आपका गुरु कौन है?' योगी ने पूछा|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई तिलकू जी-'मेरे गुरु, सतिगुरु नानक देव जी हैं| जिन्होंने पांचों चोरों को मारने की शिक्षा दी है|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">योगी-'मंत्र कौन-सा पढ़ते हो?'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई तिलकू-'सति करतार १ ओ सतिनामु करता पुरखु......|' भाई जी ने मूल मंत्र का पाठ शुरू कर दिया| यह मंत्र ही कल्याणकारी है| आपकी तरह साल-दो साल मुक्ति नीलाम नहीं की जाती| यह आपकी गलती समझो| इसलिए मैं नहीं गया, मेरे गुरु ही भव-सागर से पार उतारते हैं|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई तिलकू जी के वचनों का प्रभाव योगी के मन पर बहुत पड़ा तथा अंत में भाई तिलकू योगी को साथ लेकर सतिगुरु जी की हजूरी में पहुंचे| सतिगुरु जी ने योगी को उपदेश दे कर भक्ति भाव के सच्चे मार्ग की ओर लगाया|</span></b></div></span></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-7993637136791232622024-03-17T00:00:00.001+05:302024-03-17T05:39:19.627+05:30भाई समुन्दा जी<p style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"> </span><b><b><span style="color: orange; font-size: large;">भाई समुन्दा जी</span></b></b></p><div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">अनदिनु सिमरहु तासु कऊ जो अंति सहाई होइ || इह बिखिआ </span></b></div><b><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ || का को मात पिता</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">सुत धीआ || ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ || ऐसी संचि</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">जु बिनसत नाही || पति सेती अपुनै घरि जाही || साधसंगि कलि</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">कीरतनु गाइआ || नानक ते ते बहुरि न आइआ ||१५||</span></b></div><br /><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">परमार्थ-उस परमात्मा का रात-दिन सिमरन करो जो कि अंत समय सहायक होता है| यह जो माया से पैदा की हुई खुशियां, विषय-विकार आदि हैं यह साथ नहीं जाते| ये तो थोड़े दिन के मेहमान हैं| मां, बाप, स्त्री, पुत्र, पुत्री यह भी साथ नहीं जाते| ऐसा धन इकट्ठा करना चाहिए जो साथ चले, वह है वाहिगुरु का सिमरन| वाहिगुरु के सिमरन के अतिरिक्त कोई शह साथ नहीं जाती| जिस पुरुष ने सत्संग में बैठ कर हरि कीर्तन गाया तथा वाहिगुरु का सिमरन किया है गुरु जी कहते हैं वह फिर जन्म मरण के चक्र में नहीं पड़ता| उसका जन्म मरण कट जाता है अत: वह मुक्त हो जाता है| ऐसे नाम सिमरन वाले गुरसिक्ख सेवकों में भाई समुन्दा गुरु के सिक्ख बने थे| सिक्ख बनने से पहले उनका जीवन मायावादी था| वे धन इकट्ठा करते, स्त्री से प्यार करते| स्त्री के लिए वस्त्र, आभूषण तथा खुशियों का सामान लाते| पुत्र, पुत्री से प्यार था| कभी किसी तीर्थ पर न जाते| परमात्मा है कि नहीं? यह प्रश्न उनके मन में उठता ही नहीं था, यदि कहीं चार छिलके गुम हो जाते तो उनकी आत्मा दुखी होती| वह दो-दो दिन रोटी न खाते| माया इकट्ठी करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था| माया के बदले यदि कोई जान भी मांगता तो देने के लिए तैयार हो जाते|</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">एक दिन वह भूल से गुरमुखों की संगत में बैठ गए| एक ज्ञानी ने उपरोक्त शब्द पढ़ा तथा साथ ही शब्द की व्याख्या की| शब्द के अंदरुनी भाव ने भाई समुन्दा जी की आत्मा पर गहन प्रभाव डाला| उनकी बुद्धि जाग पड़ी| वह सोचने लगे कि जो कुछ मैं कर रहा हूं, यह अच्छा है या जो कुछ गुरमुख कहते है, वह अच्छा है? वह असमंजस में पड़ गए| उठ कर घर आ गए, रोटी खाने को मन नहीं किया| रात को सोए तो नींद नहीं आई| रात्रि के बारह बज गए पर नींद न आई| जहां पहले पहल रात को गहरी नींद सो जाते थे, अब सोच में डूब गए| माया इकट्ठी करना अच्छा है या नहीं? स्त्री, पुत्र, पुत्री का सम्बंध कहां तक है? उसकी आंखों के आगे कई झांकियां आईं| एक यह झांकी भी आई कि कोई मर गया है| उसके पुत्र, पुत्रवधू, पुत्री तथा पत्नी उसका दाह-संस्कार करके घर आ गए हैं| चार दिन के बाद उसका किसी ने नाम न लिया, वह भूल गया| समुन्दे को अपने माता-पिता भी याद आए वे उसके पास से चले गए| वे चार दिन के दुःख के बाद उन्हें भूल गए| वह विचारों में खोए रहने लगे| ऐसी ही विचारों में सोए उनको स्वप्न आया जो बहुत भयानक था| उन्होंने देखा-वह बीमार हो जाते हैं| बीमारी के समय उनके पुत्र, पत्नी तथा सम्बन्धी उनके पास आते हैं| पहले-पहल सभी उससे सहानुभूति तथा प्यार करते पर धीरे-धीरे जैसे जैसे बीमारी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे सभी का प्यार घटता जाता है| अंतिम समय आ जाता है, यमदूत उसकी जान निकालने के लिए आते हैं, उनकी भयानक सूरतें देख कर वह भयभीत हो जाता है| पत्नी को कहता है, मेरी सहायता करो, मुझे यमों से बचाओ, पर वह आगे से रोती हुई न में सिर हिला देती है कि वह उसे बचा नहीं सकती, यम उसकी आत्मा को मारते-पीटते हुए धर्मराज के पास ले जाते हैं| धर्मराज कहता है, 'यह महां पापी है| इसने जीवन भर कभी भगवान का सिमरन नहीं किया, नेकी नहीं कमाई, इस महां पापी को आग के नरक में फैंको| जहां यह कई जन्म जलता रहेगा| फैंको! फैंको महां पापी है|' धर्मराज का यह हुक्म सुन कर यम उसको आग-नरक की तरफ खींच कर ले चले| जब नरक के निकट पहुंचे तो समुन्दे ने देखा-बहुत भयानक आग जल रही थी जिसका ताप दूर तक जाता था| निकट पहुंचने से पहले ही सब कुछ जल जाता था| समुन्दे ने देखा तथा सुना कि कई महां पापी उस नरक की भट्ठी में जल कर चिल्ला रहे हैं| समुन्दा-दहल गया, जब यम उसको उठा कर आग में फैंकने लगे तो उसकी चीख निकल गई, उस चीख के साथ ही उसकी नींद खुल गई वह तपक कर उठ बैठा, आंखें मल कर उसने देखा, वह नरकों में नहीं बल्कि अपने घर बैठा है| वह मरा नहीं जीवित है| पर उसका हृदय इतनी जोर से धड़क रहा था कि सांस आना भी मुश्किल हो रहा था, सारा शरीर पसीने से भीग गया|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">समुन्दा जी चारपाई से उठ गए| अभी रात्रि थी, आकाश पर तारे हंस रहे थे| परिवार वाले तथा पड़ोसी सभी सो रहे थे| चारों तरफ खामोशी थी| उस खामोशी के अन्धेरे में समुन्द्रा जी घर से निकले| जिस तरह किसी के घर से चोर निकलता है, दबे पांव, धड़कते दिल, जल्दी-जल्दी समुन्दा जी उस स्थान पर पहुंचे जहां गुरमुख आए हुए थे, वह गुरमुख जाग रहे थे| पिछली रात समझ कर उठे थे तथा स्नान कर रहे थे| स्नान करके उन्होंने भगवान का भजन करना शुरू कर दिया| घबराए हुए समुन्दा जी उनके पास बैठे रहे, बैठे-बैठे दिन निकल गया, दिन उदय होने पर उन गुरमुखों के चरणों में गिर कर इस तरह बिलखने और विनती करने लगे, 'मुझे नरक का डर है| मैं कैसे बख्शा जाऊं| मुझे स्वर्ग का मार्ग बताओ! नरक की भयानक आग से बचाओ! संत जगत के रक्षक होते हैं| भूले-भटके का मार्गदर्शन करते हैं| मेरी पुकार भी कोई सुने| आप ही तो सब कुछ हो| सोई हुई आत्मा जाग पड़ी|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">वह गुरमुख श्री गुरु अर्जुन देव जी के सिक्ख थे| श्री हरिमंदिर साहिब के निर्माण के लिए नगरों में से सामान इकट्ठा कर रहे थे| उन्होंने भाई समुन्दा जी की विनती सुनी| उनको धैर्य दिया और कहा, 'भाई! सुबह हमारे साथ चलना वहां जगत के रक्षक गुरु जी हैं उनके दर्शन करके तभी उद्धार होगा|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">अगले दिन भाई समुन्दा जी सिक्खों के साथ 'चक्क रामदास' पहुंचे, आगे दीवान लगा हुआ था| गुरगद्दी पर विराजमान सतिगुरु जी सिक्खों को उपदेश कर रहे थे| समुन्दा जी भी जा कर चरणों पर गिर पड़े, रो कर विनती की, 'दाता दया कीजिए! मुझे भवसागर से पार होने का साधन बताओ| नरक की आग से मुझे डर लगता है, बहुत सारी आयु व्यर्थ गंवा दी| अच्छी तरह जीने का ढंग बताओ! हे दाता! दयालु तथा कृपालु सतिगुरु मुझ पर कृपा करो|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">अंतर्यामी सतिगुरु जी ने देखा, समुन्दे की आत्मा पश्चाताप कर रही है| यह नेकी तथा धर्म के मार्ग पर चलने के लिए तैयार है| इस को गुरमति बख्शनी योग्य है| सतिगुरु जी ने फरमाया-'हे सिक्खा! तुम्हें वाहिगुरु ने इस संसार पर नाम सिमरन तथा लोक सेवा के लिए भेजा है, इसलिए उठकर वाहिगुरु का सिमरन करना, धर्म की कमाई करना, गुरुबाणी सुनना, निंदा चुगली से दूर रहना| यह जगत तुम्हारे लिए जीवन नहीं, बल्कि मार्ग का आसरा है| जीवन का मनोरथ है, प्रभु से जुदा हुए हो, उस के पास जाना तथा उसके साथ इस तरह घुल-मिल जाना जैसे पानी से पानी मिल जाता है| जैसे दो दीयों का प्रकाश एक लगता है| सच बोलना, गुरुद्वारे जाना तथा भूखे सिक्खों को भोजन खिलाना| यह है जीवन युक्ति|'</span></b></div></span></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-3365094056992903242024-03-16T00:00:00.001+05:302024-03-16T08:55:54.906+05:30साधू रणीया जी<p style="text-align: center;"><b><b><span style="color: orange; font-size: large;">साधू रणीया जी</span></b></b></p><div><b><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">जहां सरोवर रामसर है, सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी के समय एक साधू शरीर पर राख मल कर वृक्ष के नीचे बैठा हुआ शिवलिंग की पूजा कर रहा था| वह घण्टियां बजाए जाता तथा जंगली फूल अर्पण करता था, वह कोई पक्का शिव भक्त था|</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">जब वह शिवलिंग की पूजा में मग्न था तो अचानक उसके कानो में यह शब्द गूंजे 'ओ गुरमुखा! एक चोरी छोड़ी, दूसरा पाखण्ड शुरू किया| कुमार्ग से फिर कुमार्ग मार्ग पर चलना ठीक नहीं|'</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">यह वचन सुनकर उसने आंखें ऊपर उठा कर देखा तो सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी घोड़े पर सवार उसके सामने खड़े हुए मुस्करा रहे थे| जैसे कि कभी उसने दर्शन किए थे| कोई बादशाह समझा था| जीवन की घटना उसको फिर याद आने लगी|</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">वह साधू उठ कर खड़ा हो गया, हाथ जोड़ कर विनती की, 'महाराज! आप के हुक्म से चोरी और डकैती छोड़ दी| साधू बन गया, और बताएं क्या करुं?'</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">उसकी विनती सुनकर मीरी-पीरी के मालिक ने फरमाया-'हे गुरमुख! पत्थर की पूजा मत करना-आत्मा को समझो| उसकी पूजा करो, उसका नाम सिमरन करो, जिसने शिव जी, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की सृजना की है| करतार का नाम सिमरन करो, सत्संगत में बैठो, सेवा करो, यह जन्म बहुत बहुमूल्य है|'</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">"कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारै बार ||"</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">इस तरह वचन करके मीरी-पीरी के मालिक गुरु के महलों की तरफ चले गए तथा साधू सोच में पड़ा रहा|</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">वह साधू भाई रणीयां था जो पहले डाकू था| अकेले स्त्री-पुरुष को पकड़ कर उस से सोना-चांदी छीन लिया करता था| एक दिन की बात है, रणीयां का दो दिन कहीं दांव न लगा किसी से कुछ छीनने का| वह घूमता रहा तथा अंत में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा इन्तजार करने लगा| उसकी तेज निगाह ने देखा एक स्त्री सिर पर रोटियां रख कर खेत को जा रही थी, उसके पास बर्तन थे| बर्तनों की चमक देख कर वह उठा तथा उस स्त्री को जा दबोचा| उसके गले में आभूषण थे| बर्तन छीन कर आभूषण छीनने लगा ही था कि उसके पास शरर करके तीर निकल गया| उसने अभी मुड़ कर देखा ही था कि एक ओर तीर आ कर उसके पास छोड़ा| वह डर गया, उसके हाथ से बर्तन खिसक गए तथा हाथ स्त्री के आभूषणों से पीछे हो गया| </span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">इतने में घोड़े पर सवार मीरी पीरी के पातशाह पहुंच गए| स्त्री को धैर्य दिया| वह बर्तन ले कर चली गई तथा रणीये को सच्चे पातशाह ने सिर्फ यही वचन किया -</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">'जा गुरमुखा! कोई नेकी करो| अंत काल के वश पड़ना है|' रणीयां चुपचाप चल पड़ा| उस ने कुल्हाड़ी फैंक दी तथा वचन याद करता हुआ वह घर को जाने की जगह साधुओं के पास चला गया| एक साधू ने उसको नांगा साधू बना दिया| घूमते-फिरते गुरु की नगरी में आ गया|</span></b></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">सतिगुरु जी जब गुरु के महलों की तरफ चले गए तो साधू रणीये ने शिवलिंग वहीं रहने दिया| वह जब दुःख भंजनी बेरी के पास पहुंचा तो सबब से गुरु का सिक्ख मिला, वह गुरमुख तथा नाम सिमरन करने वाला था, उसकी संगत से रणीया सिक्ख बन गया, उसने वस्त्र बदले, सतिगुरु जी के दीवान में पहुंचा तथा गुरु के लंगर की सेवा करने लगा| रणीया जी बड़े नामी सिक्ख बने|</span></b></div></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-14620639086907315882024-03-15T00:00:00.001+05:302024-03-15T04:48:34.529+05:30भाई भाना परोपकारी जी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><b><span style="color: orange; font-size: large;">भाई भाना परोपकारी जी</span></b></b></div><div><b><div style="text-align: center;"><b><span style="color: orange; font-size: large;"><br /></span></b></div><span style="color: #cc0000;"><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">जिऊं मणि काले सप सिरि हसि हसि रसि देइ न जाणै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">जाणु कथूरी मिरग तनि जींवदिआं किउं कोई आनै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">आरन लोहा ताईऐ घड़ीऐ जिउ वगदे वादाणै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">सूरणु मारनि साधीऐ खाहि सलाहि पुरख परवानै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">पान सुपारी कथु मिलि चूने रंगु सुरंग सिञानै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">अउखधु होवै कालकूटु मारि जीवालनि वैद सुजाणै |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">मनु पारा गुरमुखि वसि आणै |</span></b></div></span><br /><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई गुरदास जी फरमाते हैं, जैसे काले नाग के सिर में मणि होती है पर उसको ज्ञान नहीं होता, मृग की नाभि में कस्तूरी होती है| दोनों के मरने पर उत्तम वस्तुएं लोगों को प्राप्त हो जाती हैं| इसी तरह लोहे की अहिरण होती है| जिमीकंद धरती में होता है| उसकी विद्वान उपमा करते तथा खाते हैं लाभ पहुंचता है| ऐसे ही देखो पान, सुपारी कत्था, चूना मिलकर रंग तथा स्वाद पैदा करते हैं| काला सांप जहरीला होता है, समझदार उसे मारते हैं तथा लाभ प्राप्त करते हैं|</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">इसी तरह जिज्ञासु जनो! मन जो है वह पारे की तरह है तथा सदा डगमगाता रहता है| उस पर काबू नहीं पाया जा सकता| यदि कोई मन पर काबू पा ले तो उसका कल्याण हो जाता है| ऐसे ही भाई भाना जी हुए हैं, जिन्होंने मन पर काबू पाया हुआ था| उनको कोई कुछ कहे वह न क्रोध करते थे तथा न खुशी मनाते| अपने मन को प्रभु सिमरन तथा लोक सेवा में लगाए रखते|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">ग्रंथों में उनकी कथा इस तरह आती है -</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाना प्रयाग (इलाहाबाद) का रहने वाला था| यह छठे सतिगुरु जी के हजूरी सिक्खों में था, वह सदा धर्म की कमाई करता| जब कभी फुर्सत मिलती तो दरिया यमुना के किनारे जा कर प्रभु जी का सिमरन करता, किसी का दिल न दुखाता, किसी की निंदा चुगली करना, जानता ही नहीं था, कोई उसे अपशब्द कहे तो वह चुप रहता|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">एक दिन भाई भाना यमुना किनारे बैठा हुआ सतिनाम का सिमरन करता बाणी पढ़ रहा था, पालथी मार कर बैठे हुए ने लिव गुरु चरणों से जोड़ी हुई थी| मन की ऊंची अवस्था के कारण उसकी आत्मा श्री अमृतसर में घूम रही थी तथा तन यमुना किनारे था, अलख निरंजन अगम अपार ब्रह्म के निकट होने तथा उसके भेद को पाने का प्रयत्न करता रहा था वह जब गुरु का सिक्ख बना था तब वह युवावस्था में था, व्यापारी आदमी था व्यापार में झूठ बोलना नहीं जानता था|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">हां, भाई भाना गुरु जी की बाणी पढ़ रहा था| संध्या हो रही थी| डूबता हुआ सूरज अपनी सुनहरी किरणें यमुने के निर्मल जल पर फैंक रहा था| उस समय एक नास्तिक (ईश्वर से विमुख) मुर्ख भाई जी के पास आ बैठा| भाई जी को कहने लगा - 'हे पुरुष! मुझे यह समझाओ कि तुम प्रतिदिन हर समय परमात्मा को बे-आराम क्यों करते हो| क्या तुम्हारा परमात्मा परेशान नहीं होता? एक दिन किसी को यदि कोई बात कह दि तो वह काफी है, रोज़ बुड़-बुड़ करते रहते हो|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई भाना ने नास्तिक के कटु वचनों का क्रोध नहीं किया, प्रेम से कहने लगा-सुनो नेक पुरुष मैं बहुत ज्ञानी तो नहीं पर जो कुछ मैं समझता हूं तुम्हें समझाने का यत्न करता हूं| ध्यान से सुनो, जैसे किसी को चोर मिले तो वह राजा के नाम की पुकार करता है, वह चोर भाग जाते हैं क्योंकि चोरों को डर होता है कि राजा उनको दण्ड न दे| इसी तरह मनुष्य के इर्द-गिर्द काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पांच चोर हैं| वह जीव को सुख से बैठने नहीं देते| जीव का भविष्य लूटते हैं| पाप कर्म की ओर प्रेरित करते हैं, उन पांचों चोरों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि सतिगुरों के बताए ढंग से राजाओं के राजा परमेश्वर के नाम का सिमरन किया जाए, साथ ही यदि हम परमेश्वर को याद रखे तो वह भी हमें याद रखता है| सांस-सांस नाम याद रखना चाहिए| भगवान को भूलने वाला अपने आप को भूल जाता है जो अपने आप को भूल क्र बुरे कर्म करता है, बुरे कर्मों के फल से उसकी आत्मा दुखी होती है| वह संसार से बदनाम हो जाता है, उस को कोई अच्छा नहीं समझता|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">जैसे खाली बांस में फूंक मारने से दूसरी ओर निकल जाती है बांस पर कोई असर नहीं होता, वैसे भाने के शुभ तथा अच्छे वचनों का असर मुर्ख पर बिल्कुल न हुआ| एक कान से सुना तथा दूसरे से बाहर निकाल दिया, साथ ही क्रोधित हो कर भाई भाने को कहने लगा, 'मुर्ख! क्यों झूठ बोलते जा रहे हो| न कोई परमात्मा है तथा न किसी को याद करना चाहिए|' यह कह कर उसने भाई साहिब को एक जोर से थप्पड़ मारा, थप्पड़ मार कर आप चलता बना, रास्ते में जाते-जाते भाई जी तथा परमात्मा को गालियां निकालते हुए चलता गया|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">भाई भाना जी धैर्यवान पुरुष थे| उन्होंने क्रोध न किया, बल्कि उठ कर घर चले गए| घर पहुंच कर सतिगुरों के आगे विनय की, 'सच्चे पातशाह! मैं तो शायद कत्ल होने के काबिल था, आप की कृपा है कि एक थप्पड़ से ही मुक्ति हो गई है| पर मैं चाहता हूं, उस नास्तिक का भला हो, वह सच्चाई के मार्ग पर लगे|'</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">इस घटना के कुछ समय पश्चात एक दिन भाई भाना जी फिर यमुना किनारे पहुंचे| आगे जा कर क्या देखते हैं कि वहीं नास्तिक वहां बैठा हुआ था, उसका हुलिया खराब था, तन के वस्त्र फटे हुए थे| तन पर फफोले ही फफोले थे| जैसे उसकी आत्मा भ्रष्ट हो रखी थी वैसे उसका तन भी भ्रष्ट हो गया| वह रो रहा था, उसके अंग-अंग में से दर्द निकल रहा था| उसका कोई हमदर्द नहीं बनता| भाई भाने जी को देखते ही वह शर्मिन्दा-सा हो गया, आंखें नीचे कर लीं| भाई साहिब की तरफ देख न सका| उसकी बुरी दशा पर भाई साहिब को बहुत रहम आया| उन्होंने दया करके उसको बाजु से पकड़ लिया तथा अपने घर ले आए| घर ला कर सेवा आरम्भ की, सतिनाम वाहिगुरु का सिमरन उसके कानों तक पहुंचाया| उसको समझाया कि भगवान अवश्य है| उस महान शक्ति की निंदा करना अच्छा नहीं| धीरे-धीरे उसका शरीर अरोग हो गया| आत्मा में परिवर्तन आ गया| वह परमात्मा को याद करने लगा, ज्यों-ज्यों सतिनाम कहता गया, त्यों-त्यों उसके शरीर के सारे रोग दूर होते गए|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">उसने भाई भाना जी के आगे मिन्नत की कि भाई साहिब उसको अपने सतिगुरों के पास ले चले, गुरों के दर्शन करके वह भी पार हो जाए क्योंकि उसने अपने बीते जीवन में कोई नेकी नहीं की थी|</span></b></div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="color: blue;"><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">यह सुन कर भाई भाना जी को खुशी हुई| उन्होंने उसी समय तैयारी की तथा मंजिल-मंजिल चल कर श्री अमृतसर पहुंच गए, आगे सतिगुरों का दीवान लगा हुआ था, दोनों ने जा कर सतिगुरों के चरणों पर माथा टेका| गुरु जी ने कृपा करके भाई भाने के साथ उस नास्तिक को भी पार कर दिया, वह गुरु का सिक्ख बन गया, फिर वह कहीं न गया| गुरु के लंगर में सेवा करके जन्म सफल करता रहा| इस तरह मन पर काबू पाने वाले भाई भाना जी बहुत सारे लोगों को गुरु घर में लेकर आए|</span></b></div></span></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-53795468939069198192024-03-14T00:00:00.001+05:302024-03-14T05:31:37.722+05:30भाई साईयां जी<p style="text-align: center;"><b><b><span style="color: #ffa400; font-size: large;">भाई साईयां जी</span></b></b></p><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">गुरमुख मारग आखीऐ गुरमति हितकारी |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">हुकमि रजाई चलना गुर सबद विचारी |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">भाणा भावै खसम का निहचउ निरंकारी |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">इशक मुशक महकार है होइ परउपकारी |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">सिदक सबूरी साबते मसती हुशिआरी |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">गुरमुख आपु गवाइआ जिणि हउमै मारी |</span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"><span style="color: #cc0000;"></span><br /><span style="color: blue;">भाई गुरदास जी महाज्ञानी थे| आप अपनी रचना द्वारा गुरमुखों या सच्चे सिक्खों के बारे में बताते हैं कि सच्चा सिक्ख या गुरमुख वह है, जो गुरमति गुर की शिक्षा से प्यार करता है| गुरु के शब्द का विचार करता हुआ करतार के हुक्म में चलता है| विश्वास के साथ प्रभु का नाम सिमरन करता तथा उनकी रजा मानता है, वह उसी तरह परोपकारी होता है जैसे कपूर, सुगंधि, कस्तूरी आदि होती है| दूसरे को महक आती है| वह गुरमुख अपने गुणों, परोपकारों तथा सेवा से दुनिया को सुख देता है, किसी को दुःख नहीं देता| सहनशील होता है, सबसे विशेष बात यह है कि वह अपने आप अहंकार को खत्म करके गुरु या लोगों का ही हो जाता है|</span><br /><br /><span style="color: blue;">गुरु घर में ऐसे अनेक गुरसिक्ख हुए हैं, जिन्होंने अहंकार को मारा तथा अपना आप न जताते हुए सेवा तथा परोपकार करने के साथ-साथ नाम का सिमरन भी करते रहे|</span><br /><br /><span style="color: blue;">ऐसे विनम्र सिक्खों में एक भाई साईयां जी हुए हैं| आप नाम का सिमरन करते तथा अपना आप जाहिर न करते| रात-दिन भक्ति करते रहते| आ</span></b><b style="color: blue; text-align: left;"><span style="color: blue;">प ने गांव से बाहर बरगद के नीचे त्रिण की झोंपड़ी बना ली| खाना-पीना भूल गया| नगरवासी अपने आप कुछ न कुछ दे जाते| इस तरह कहें कि उन्होंने रिजक की डोर भी वाहिगुरु के आसरे छोड़ दी| मोह, माया, अहंकार, लालच सब को त्याग दिया था| उसको भजन करते हुए काफी समय बीत गया|</span></b><b style="text-align: left;"><span style="color: blue;"><br /></span><br /><span style="color: blue;">एक समय आया देश में वर्षा न हुई| आषाढ़ सारा बीत गया| श्रावण का पहला सप्ताह आ गया पर पानी की एक बूंद न गिरी, टोए, तालाब सब सूख गए| पशु तथा पक्षी भी प्यासे मरने लगे| धरती जल गई, गर्म रोशनी मनुष्यों को तड़पाने लगी| हर एक जीव ने अपने इष्ट के आगे अरदास की, यज्ञ लगाए गए| कुंआरी लड़कियों को वृक्षों पर बिठाया गया, पर आकाश पर बादलों के दर्शन न हुए| इन्द्र देवता को दया न आई|</span><br /><br /><span style="color: blue;">उस इलाके के लोग बड़े व्याकुल हुए क्योंकि वहां कुआं नहीं था| छप्पड़ों तथा तालाबों का पानी पीने के लिए था, पर पानी सूख गया| आठ-आठ कोस से पीने के लिए पानी लाने लगे| भाई साईयां के नगर वासी तथा इर्द-गिर्द के नगरों वाले इकट्ठे हो कर भाई साईयां के पास गए| सब ने मिल कर हाथ जोड़ कर गले में दामन डाल कर भाई साईयां के आगे प्रार्थना की|</span><br /><br /><span style="color: blue;">'हे भगवान के भक्त! हम गरीबों, पापियों तथा निमाणे लोगों, बेजुबान पशुओं के जीवन के लिए भगवान के आगे प्रार्थना करो, वर्षा हो| कोई अन्न नहीं बोया, पशु-पक्षी तथा मनुष्य प्यासे मर रहे हैं| इतना दुःख होते हुए भी उस भगवान को हमारा कोई ख्याल नहीं| क्या पता हमने कितने पाप किए हैं| हमारे पापों का फल है कि वर्षा नहीं हो रही दया करें! कृपा करें! मासूम बच्चों पर रहम किया जाए|</span><br /><br /><span style="color: blue;">भाई साईयां ने मनुष्य हृदय का रुदन सुना, उसके नैनों में भी आंसू टपक आए| उसका मन इतना भरा कि वह बोल न सका| उसने आंखें बंद की, आधा घंटा अन्तर्ध्यान हो कर अपने गुरुदेव (श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी) के चरण कंवलों में लिव जोड़ी| कोई आधे घंटे के पश्चात आंखें खोल कर कहने लगे-'भक्तों! यह पता नहीं किस के पापों का फल है जो भगवान क्रोधित है| अपने-अपने घर जाओ, परमात्मा के आगे प्रार्थना करो| यह कह कर भाई साईयां अपनी झोंपड़ी में से उठा तथा उठ कर बाहर को चला गया| लोग देखते रह गए| वह चलता गया तथा लोगों की नज़रों से ओझल हो गया| लोग खुशी-खुशी घरों को लौट आए कि अब जब वर्षा होगी, भाई साईयां अपने गुरु के पास पहुंचेगा| हम गरीबों के बदले अरदास की जाएगी| लोग घर पहुंचे तो उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर से आंधी उठी| धीरे-धीरे वह आंधी लोगों के सिर के ऊपर आ गई, उसकी हवा बहुत ठण्डी थी|</span><br /><br /><span style="color: blue;">आंधी के पीछे महां काली घटा छिपी थी, आंधी आगे चली गई तथा मूसलाधार वर्षा होने लगी| एक दिन तथा एक रात वर्षा होती रही तथा चारों ओर जलथल हो गया| छप्पड़, तालाब भर गए, खेतों के किनारों के ऊपर से पानी गुजर गया| पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े तथा मनुष्य आनंदित हो कर नृत्य करने लगे| उजड़ा तथा मरा हुआ देश सजीव हो गया, जिन लोगों ने भाई साईयां जी के आगे प्रार्थना की थी या प्रार्थना करने वालों के साथ गए थे, वे सभी भाई साईयां के गुण गाने लगे, कोई कहे-भाई साईयां पूरा भगवान हो गया है| किसी ने कहा, उसका गुरु बड़ा है, सब गुरुओं की रहमतें हैं| हम कंगालों की खातिर उसने गुरु के आगे जाकर प्रार्थना की| गुरु जी ने अकाल पुरख को कहा, बस अकाल पुरुष ने दया करके इन्द्र देवता को हुक्म दिया| इन्द्र देवता दिल खोल कर बरसे| बात क्या, साईयां जी तथा उनके सतिगुरों की उपमा चारों तरफ होने लगी|'</span><br /><br /><span style="color: blue;">जब वर्षा रुक गई| नगरवासी इकट्ठे हो कर भाई साईयां जी की तरफ चले| भाई जी को भेंट करने के लिए वस्त्र, चावल, गुड़ तथा नगद रुपए थालियों में रखकर हाथों में उठा लिए| जूह के बरगद के पेड़ के नीचे टपकती हुई छत्त वाली झोंपड़ी में साईयां बैठा वाहिगुरु का सिमरन कर रहा था, संगतों को आता देख कर पहले ही उठ कर दस कदम आगे हुआ| उसने दोनों हाथ ऊपर उठा कर चीख मारी, 'ठहर जाओ! क्यों आ रहे हो, क्या बात है?'</span><br /><br /><span style="color: blue;">'आप गुरुदेव हो, हम आप का धन्यवाद करने आएं हैं| उजड़ा हुआ देश खुशहाल हो गया| हमने दर्शन करने हैं, चरण धूल लेनी है, लंगर चलाने है| आप के लिए पक्की कुटिया बनवानी है| आप ही हमारे परमेश्वर हो|'</span><br /><br /><span style="color: blue;">इस तरह उत्तर देते हुए लोग श्रद्धा से आगे बढ़ आए| जबरदस्ती साईयां जी के चरणों पर माथा टेकने लग पड़े जो सामग्री साथ लाए थे उसके ढेर लग गए| जब सबने माथा टेक लिया तो भाई साईयां जी ऊंची-ऊंची रोने लग पड़ा, आए हुए लोग देखकर हैरान हो गए| मौत जैसा सन्नाटा छा गया| भाई साहिब रोते हुए कहने लगे, 'मेरे सिर पर भार चढ़ाया है, मैं महां पापी हूं, मेरे यहां बैठने के कारण ही वर्षा नहीं होती थी| मुझ पापी के सिर पर और पाप चढ़ाया है मुझे माथा टेक कर, मुझे गुरुदेव कहा है मैं जरूर नरकों का भागी बनूंगा मुझे क्षमा कीजिए, मैंने त्रिण की झोंपड़ी में ही रहना है| मेरा दूसरा कोई ठिकाना नहीं, यह वर्षा सतिगुरों की कृपा है| धन्य छठे पातशाह मीरी-पीरी के स्वामी सच्चे पातशाह! मैं आप से बलिहारी जाऊं, वारी जाऊं, दुःख भंजन कृपालु सतिगुरु! जिन्होंने जलती हुई मानवता को शांत किया है| मैं कहता हूं यह सारी सामग्री, सारा कपड़ा, सारे रुपए इकट्ठे करके मेरे सतिगुरु के पास अमृतसर ले जाओ| मुझे अपने पाप माफ करवाने दें!' मैंने जीवन भर त्रिण की झोंपड़ी में रहना है| मैं पहले ही पापी हूं, मेरे बुरे कर्मों के कारण वर्षा नहीं हुई| अब मुझे गुरु कह कर और नरकों का भागी न बनाओ, जाओ बुजुर्गों जाओ!</span><br /><br /><span style="color: blue;">समझदार लोग भाई साईयां जी की नम्रता पर बहुत खुश हुए तथा उनकी स्तुति करने लगे, दूसरों को समझा कर पीछे मोड़ दिया| सारी सामग्री बांध कर श्री अमृतसर भेज दी, सभी जो पहले देवी-देवताओं के पुजारी थे, वे श्री गुरु नानक देव जी के पंथ में शामिल हुए| श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को नगर में बुला कर सब ने सिक्खी धारण की, गुरु जी ने भाई साईयां को कृतार्थ किया| उसका लोक-परलोक भी संवार दिया| धन्य है सतिगुरु जी तथा धन्य है नेक कमाई करने वाले सिक्ख|</span></b></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-33913259362090205702024-03-13T00:00:00.001+05:302024-03-13T04:51:49.493+05:30माई सरखाना जी<div style="text-align: center;"><span style="background-color: white; color: #e97b00; font-size: xx-large; font-weight: 700;"> </span><span style="background-color: white; color: #e97b00; font-size: xx-large; font-weight: 700;">माई सरखाना जी</span></div><div style="text-align: center;"><span face=""trebuchet ms" , "arial" , sans-serif" style="background-color: white; color: #e97b00; font-weight: bold; line-height: 19px;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">मान सरोवर हंसला खाई मानक मोती |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">कोइल अंब परीत है मिठ बोल सरोती |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">चंदन वास वणासपति हुइ पास खलोती |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">लोहा पारस भेटिए हुइ कंचन जोती |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">नदीआं नाले गंग मिल होन छोत अछोती |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">पीर मुरीदां पिरहड़ी इह खेप सिओती |६|</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"><span style="color: #cc0000;"></span><span style="color: blue;">आज की दुनिया में प्यार तथा श्रद्धा की बेअंत साखियां हैं| गुरु घर में तो अनगिनत सिक्ख हुए हैं, जिन्होंने गुरु चरणों से ऐसी प्रीति की है, जिस की मिसाल अन्य धर्मों में कम ही मिलती है| ऐसी प्रीति की व्याख्या करते हुए भाई गुरदास जि फरमाते हैं कि सिक्ख गुरु से ऐसी प्रीति करते हैं जैसे मान सरोवर के हंस मोतियों के साथ करते हैं, भाव मोती खाते है| कोयल का प्यार आमों के साथ है तथा उनके वैराग में मीठे गीत गाती रहती है| चंदन की सुगन्धि से सारी वनस्पति झूम उठती है| लोहा पारस के साथ मिल कर सोना हो जाता है| नदियां तथा नाले गंगा से मिल कर पवित्र हो जाते हैं| अंत में भाई साहिब कहते हैं, सिक्खों का प्यार ही उनकी पवित्र रास पूंजी है|</span><br /><br /><span style="color: blue;">जब इतिहास को देखे तो माई सरखाना का नाम आदर से लिया जाता है| आप गुरु घर में बड़ा आदर प्राप्त कर चुकी थीं| उसके प्यार की कथा बड़ी श्रद्धा दर्शाने वाली है| वह प्यारी दीवानी श्रद्धालु तथा अमर आत्मा हुई| जिसका यश आज भी गाया जाता है|</span><br /><br /><span style="color: blue;">किसी गुरु-सिक्ख से माई ने गुरु घर की शोभा सुनी| उस समय बुढ़ापा निकट था तथा जवानी ढल चुकी थी| बच्चों का विवाह हो गया था| जिम्मेवारियां सिर से उतर गई थीं| उसे अब जन्म-मरण के चक्र का ज्ञान हो गया था| पर यह पता नहीं था कि चौरासी का चक्र कैसे खत्म होता था|</span><br /><br /><span style="color: blue;">गुरसिक्ख ने माई सरखाना को गुरसिक्खी का ज्ञान करवाते हुए यह शब्द पढ़ा-</span></b><br style="text-align: left;" /></p><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;"><br /></span></b><b><span style="color: #cc0000;">मन मंदरु तनु वेस कलंदरु घट ही तीरथि नावा ||</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;">एकु सबदु मेरै प्रानि थसतु है बाहुड़ि जनमि न आवा ||१||</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: blue;">यह शब्द जो हृदय में बसता है, वह शब्द सतिगुरु जी से प्राप्त होता है| सतिगुरु त्रिकालदर्शी थे| सतिगुरु नानक देव जी की गुरुगद्दी पर छठे पातशाह हैं मीरी-पीरी के मालिक! उनको याद कर उनके चरणों में सुरत लगा कर मन में श्रद्धा धारण करो|</span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"><span style="color: #cc0000;"></span><br /><span style="color: blue;">अच्छा! मैं श्रद्धा करूंगी| मुझे बताओ सेवा के लिए भेंट क्या रखूंगी, जब दर्शन करूं| माई सरखाना ने पूछा था|</span><br /><br /><span style="color: blue;">गुरसिक्ख-सतिगुरु जी प्रीत पर श्रद्धा चाहते हैं| कार भेंट जो भी हो| पहुंच से ऊपर कुछ नहीं मांगते| एक टके से भी प्रसन्न होते हैं| उनके दरबार में सेवक हाथी, घोड़े, दुशाले, रेशमी वस्त्र, सोना, चांदी बेअंत भेंट चढ़ाते हैं| नौ निधियां तथा बारह सिद्धियां हैं| सतिगुरु जी अवश्य आपका जन्म-मरन काटेंगे, वह कृपा के सागर हैं :-</span></b><br style="text-align: left;" /></p><div style="text-align: center;"><span style="color: #cc0000;"><b>|</b><b>हरिगोविंद गुरु अरजनहुं गुरु गोबिंद नाउं सदवाया |</b></span></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">गुर मूरति गुर शबद है साध संगति विच प्रगटी आया |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">पैरीं पाइ सभ जगत तराया |२५</span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"></b><b style="text-align: left;"><span style="color: #cc0000;"></span></b><b style="text-align: left;"><br /><span style="color: blue;">इस तरह गुरु घर की शोभा सुन कर माई सरखाना गुरु घर की श्रद्धालु बन गई| उसने ध्यान कर लिया तथा गुरसिक्ख द्वारा सुने मूल मंत्र का जाप करने लगी| उसके मन में प्रेम जाग पड़ा| मन के साथ हाथ भी सेवा के लिए उत्साहित हुए| अपनी फसलों में से मोटे-मोटे गुल्लों वाली कपास चुनी| कपास चुन कर पेली तथा फिर रुई पिंजाई, रुई पिंजाई गई तो सतिगुरु जी का ध्यान धर कर कातती रही| रुई कात कर जुलाहे से श्रद्धा के साथ कपड़ा तैयार करवाया| बुढ़ापे में लम्बी आयु के तजुर्बे के साथ बारीक तथा सूत का कपड़ा रेशमी कपड़े जैसा था| उसने अपने हाथ से चादरा तैयार किया तथा मन में श्रद्धा धारण की, 'सतिगुरु जी के दर्शन हो|'</span><br /><br /><span style="color: blue;">पर गुरसिक्खों से सुनती रही कि गुरु जी के दरबार में राजा, महाराजा तथा वजीर आते हैं| फिर वैराग के साथ मन में सोचती मैं तो एक गुरसिक्ख हूं, जिसके पास एक चादरा है वह भी खादी का| कैसे सतिगुरु जी स्वीकार करेंगे? इस तरह मन में वैराग आया तथा मन में उतार चढ़ाव रहा|</span><br /><br /><span style="color: blue;">मीरी-पीरी के मालिक सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी मालवे की धरती को पूजनीय बनाने तथा सिक्ख सेवकों का उद्धार करने गए थे| डरोली भाई दीवान लगा था, सिक्ख संगतें आतीं तथा दर्शन करके वापिस जातीं| घरों तथा नगरों में जा कर गुरु यश को सुगन्धि की तरह फैलातीं|</span></b><br style="text-align: left;" /></p><div><b><span style="color: blue;"><br />माई सरखाना को भी खबर मिल गई कि सतिगुरु जी निकट आ गए हैं| वह भी सतिगुरु जी के दर्शन के लिए तैयार हो गई| देशी चीनी में घी मिलाया| मक्खन के परांठे बनाए तथा चादरे को जोड़ कर सिर पर रखकर चल पड़ी| चार-पांच कोस का रास्ता तय करके गुरु दरबार के निकट पहुंची तो माई के पैर रुक गए| वह मन ही मन विचार करने लगी, मैं निर्धन हूं, मेरा खादी का चादरा, चीनी, घी तथा परांठे क्या कीमत रखते हैं? जहां राजाओं, महाराजाओं के कीमती दुशाले आए होंगे|.....छत्तीस प्रकार का भोजन खाने वाले दाता यह भारी परांठे क्या पता खाए कि न खाएं यह तो.....</span><br /><br /><span style="color: blue;">वह दीवार के साथ जुड़ कर खड़ी हो गई| आंखें बंद कर लीं तथा अंतर-आत्मा में सतिगुरु जी को याद करने लगी| वह दुनिया को भूल गई, अटल ध्यान लग गया, सुरति जुड़ गई|</span><br /><br /><span style="color: blue;">उधर सच्चे पातशाह सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी महाराज, मीरी पीरी के मालिक, भवसागर से पार करने की समर्था रखने वाले दाता, दयावान, अन्तर्यामी जान गए| माता सरखाना ध्यान लगा कर खड़ी है| उसके आगे भ्रम की दीवार है| वह दीवार पीछे नहीं हट सकती, जितनी देर कृपा न हो|</span><br /><br /><span style="color: blue;">अन्तर्यामी दाता ने हुक्म दिया - 'घोड़ा लाओ!' यह हुक्म दे कर पलंग से उठ गए| जूता पहना तथा शीघ्र ही दीवान में से बाहर हुए| सिक्ख संगत चोजी प्रीतम के चोज को देख कर हैरान हुई, जो उनका भेद जानते थे, वह समझ गए कि किसी जीव को पार उतारने के लिए महाराज चले हैं तथा जो नए थे वे हैरान ही थे| उनकी हैरानी को दूर करने वाला कोई नहीं था|</span><br /><br /><span style="color: blue;">उधर माई सरखाना की आंखें बंद थीं तथा वह प्रार्थनाएं किए जा रही थीं| उसकी आत्मा कहती जा रही थी - 'हे सच्चे पातशाह! मैं निर्धन हूं| कैसे दरबार में आऊं, डर लगता है| अपनी कृपा करो, मैं दर्शन के लिए दूर खड़ी हूं| कोई रास्ता नहीं, डर आगे चलने नहीं देता, दाता जी कृपा करो! दया करो!'</span><br /><br /><span style="color: blue;">इस तरह आंखें बंद करके सतिगुरु जी को याद किए जा रही थी| उधर सतिगुरु जी घोड़े पर सवार हुए, घोड़े को दौड़ाया तथा उसी जगह पहुंचे जहां माई सरखाना दीवार से सहारा लगा कर खड़ी थी| सतिगुरु जी ने आवाज दी -</span><br /><br /><span style="color: blue;">'माता जी देखो! आंखें खोल कर देखो! सतिगुरु जी के यह शब्द सुन कर माई ने आंखें खोलीं, देखा दाता घोड़े पर सवार खड़े थे| माई शीघ्र ही आगे हुई, चरणों पर शीश झुका कर प्रणाम किया| खुशी में इतनी मग्न हो गई कि उसकी जुबान न खुली, वह कुछ बोल न सकी| बहती आंखों से सतिगुरु की तरफ देखती दर्शन करती गई|'</span><br /><br /><span style="color: blue;">सच्चे पातशाह ने कहा-'अच्छा माता जी! रोटी दें हम खाएं, हमें बहुत भूख लगी है|.... परांठे.....| आपका हम इन्तजार करते रहे आप तो रास्ते में ही खड़े रहे|'</span><br /><br /><span style="color: blue;">माई ने झोली में से घी, चीनी वाला डिब्बा तथा परांठे निकाल कर सतिगुरु को पकड़ा दिए| सतिगुरु ने प्रसन्न होकर भोजन किया| भोजन करने के बाद सतिगुरु जी ने चादरे की मांग की| माई ने चादरा गुरु जी को भेंट कर दिया| माई ने जी भर कर दर्शन कर लिये एवं मन की श्रद्धा पूरी हो गई| माई कृतार्थ हो गई| उसका जन्म मरन का चक्र खत्म हो गया| दाता ने अपनी कृपा से माई सरखाना को अमर कर दिया|</span><br /><br /><span style="color: blue;">सतिगुरु जी माई सरखाना का उद्धार कर ही रहे थे कि पीछे सिक्ख आ गए| हजूरी सिक्ख को सतिगुरु जी ने हुक्म दिया - 'माता जी को दरबार में ले आओ| यह हुक्म करके आप दरबार की तरफ चले गए| माई सरखाना दो दिन दरबार में रह कर दर्शन करती रही| उसका कल्याण हो गया| उस माई के नाम पर आज उसका गांव सरखाना मालवे में प्रसिद्ध है|</span></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-81321816123461370962024-03-12T00:00:00.001+05:302024-03-12T04:57:25.323+05:30भाई सुजान जी<div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><span style="background-color: white; color: #ffa400; font-size: x-large; font-weight: 700;">भाई सुजान जी</span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><br /></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #cc0000;">मंनै पावहि मोखु दुआरु || मंनै परवारै साधारु ||</span></span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #cc0000;">मंनै तरै तारे गुरु सिख || मंनै नानक भवहि न भिख ||</span></span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #cc0000;">ऐसा नामु निरंजनु होइ || जे को मंनि जाणै मनि कोई ||१५||</span></span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #cc0000;">गुर का बचनु जीअ कै साथ || गुर का बचनु अनाथ को नाथ ||</span></span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: left;"><span style="color: #cc0000; font-size: large;"></span><br /><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">उपरोक्त महां वाक का भावार्थ यह है कि जो परमात्मा के नाम का सुमिरन करते, उसको मानते, अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं वह सदा मोक्ष प्राप्त करते हैं| जो स्वयं भक्ति भाव पर चलते हैं, वह दूसरों को भी पार उतार देते हैं| साथ ही दाता का फरमान है कि गुरु जी का वचन, जिन्दगी भर न भूले, हृदय में बसाया जाए| गुरु जी का वचन, यह तो सब का आसरा है| उसके आसरे ही जीवन व्यतीत करते हैं भाव यह कि गुरु घर में हुक्म मानना, नाम का सुमिरन तथा सेवा ही महत्व रखती है| यही सिक्खी जीवन सर्वश्रेष्ठ है|<br /><br />सेवा और नाम सिमरन करने वाले सिक्खों में एक सिक्ख वैद्य सुजान जी भी आते हैं| श्री कलगीधर जी की आप पर दया दृष्टि हुई थी| जन्म मरन के चक्र कट गए थे|<br /><br />वैद्य सुजान जी लाहौर के रहने वाले थे| फारसी पढ़ने के साथ वैद्य हकीम भी बने थे तथा फारसी की कविता करते थे| वह हिकमत करते तो उनका मन अशांत रहता| मन की शांति ढूंढने के लिए एक कवि मित्र के साथ श्री आनंदपुर जा पहुंचे| उस समय श्री आनंदपुर में सतिगुरु जी के पास 52 कवि थे| आप कवियों का बहुत सम्मान करते थे| उनकी महिमा सारे उत्तर भारत में थी|<br /><br />भाई सुजान जी आए| दो दिन तो श्री आनंदपुर शहर की महिमा देखते रहे| जब सतिगुरु जी के दरबार में पहुंचे व दर्शन किए तो सतिगुरु जी ने अद्भुत ही खेल रचा|<br /><br />जब दर्शन करने गए भाई सुजान ने सतिगुरु जी के चरणों पर माथा टेककर नमस्कार की तो उस समय सतिगुरु जी ने एक अनोखा वचन किया|<br /><br />हे सुजान! तुम तो वैद्य हो| दीन-दुखियों की सेवा करो| चले जाओ, दूर चले जाओ तथा सेवा करो| उसी में तुम्हें शांति प्राप्त होगी, पार हो जाओगे| दौड़ जाओ|'<br /><br />'महाराज! कहां जाऊं?' भाई सुजान ने पूछा|<br /><br />'दौड़ जाओ! तुम्हारी आत्मा जानती है कि कहां जाना है अपने आप ले जाएगी| बस आनंदपुर से चले जाओ!'<br /><br />फिर नहीं पूछा, चरणों पर नमस्कार की, सारी भूख मिट गई, पानी पीने की तृष्णा नहीं रही| जूते पहनना भूल गया, नंगे पांव भाग उठा, कीरतपुर पार करने के पश्चात, सरसा पार कर गया, वह भागने से न रुका, एक सैनिक की तरह भागता गया| सूर्य अस्त होने वाला था, चरवाहे पशुओं को लेकर जा रहे थे| वह भागता जा रहा था, उसकी मंजिल कब खत्म होगी? यह उसको पता नहीं था| हां, सूर्य अस्त होने के साथ ही एक नगर आया| वहां दीवारों के पास जा कर उसको ठोकर लगी| जिससे वह मुंह के बल गिर पड़ा, गिरते हुए उसके मुंह से निकला-वाहिगुरु तथा मूर्छित हो गया|<br /><br />नगर की स्त्रियों ने देखा भागता आता हुआ राही गिर कर मूर्छित हो गया है| उन्होंने शोर मचा कर गाँव के आदमियों को बुला लिया| मर्दों ने भाई सुजान चंद को उठाया| चारपाई पर लिटा कर उसकी सेवा की, नंगे पांव में छाले थे, रक्त बह रहा था, पैरों को गर्म पानी से धोया, उसे होश में लाया गया| जब होश आई तो पास मर्द-स्त्रियों को देख कर उसके मुंह से सहज ही निकल गया 'धन्य कलगी वाले पिता|'<br /><br />'आपने कहां जाना है?' गांव के मुखिया ने पूछा<br /><br />'कहीं नहीं, जहां जाना था वहां पहुंच गया हूं| मेरा मन कहता है मैंने यहीं रहना है| मैं वैद्य हूं रोगियों-दुखियों की सेवा तन-मन से करूंगा| बताओ जिन को रोग है, मैंने कोई शुल्क नहीं लेना, मैंने यहां रहना है भोजन पान तथा सेवा करनी है| सुजान चंद जी ने उत्तर दिया था|<br /><br />सुनने वाले खुश हुए कि परमात्मा ने उन पर अपार कृपा की| वह गरीब लोग थे, गरीबी के कारण उनके पास कोई नहीं आता था| उनके धन्य भाग्य जो हकीम आ गया, एक माई आगे बढ़ी| उसने कहा- मेरा बुखार नहीं उतरता इसलिए मुझे कोई दवा दीजिए|<br /><br />'अभी उतर जाएगा! यह....चीज़ खा लो| चीज़ खाते समय मुंह से बोलना, धन्य कलगीधर पातशाह!' वह माई घर गई उस ने वैद्य जी की बताई चीज़ को खाया व मुंह से कहा, 'धन्य गुरु कलगीधर पातशाह सचमुच उसका बुखार उतर गया, वह अरोग हो गई| वैद्य की उपमा सारे गांव में फैल गई| एक त्रिण की झोंपड़ी में उस ने चटाई बिछा ली, बाहर से जड़ी बूटियां ले आया और रोगियों की सेवा करने लगा| चटाई पर रात को सो जाता तथा वाहिगुरु का सिमरन करता| आए गए रोगी की सेवा करता| इस तरह कई साल बीत गए| पत्नी, बच्चे तथा माता-पिता याद न आए| अमीरी लिबास तथा खाना भूल गया, वह एक संन्यासी की तरह विनम्र होकर लोगों की सेवा करने लगा| शाही मार्ग पर गांव था, जब रोगियों से फुर्सत मिलती तो राहगीरों को पानी पिलाने लग जाता| हर पानी पीने वाले को कहता - कहो धन्य गुरु कलगीधर पातशाह! यात्री ज्यादातर श्री आनंदपुर जाते-आते थे| जो जाते वह श्री आनंदपुर जी जाकर बताते कि मार्ग में एक सेवक है, वह बहुत सेवा करता है| हरेक जीव से कहलाता है, 'धन्य गुरु कलगीधर पातशाह|' यह सुनकर गुरु जी मुस्करा देते|<br /><br />एक दिन ऐसा आ पहुंचा| जिस दिन भाई सुजान की सेवा सफल होनी थी| उसके छोटे-बड़े ताप-संताप और पाप का खण्डन होना था| खबर आई कि सच्चे सतिगुरु जी आखेट के लिए इधर आ रहे हैं| यह खबर भाई सुजान को भी मिल गई| हृदय खुशी से गद्गद् हो गया, दर्शन करने की लालसा तेज हो गई, व्याकुल हो गया पर डर भी था कहीं दर्शन करने से न रह जाए| भाग्य जवाब न दे जाए| आखिर वह समय आ पहुंचा, गुरु जी गांव के निकट पहुंच गए| नगरवासी भाग कर स्वागत के लिए आगे जाने लगे, पर उस समय एक माई ने आकर आवाज़ दी-'पुत्र! जल्दी चलो, मेरी पुत्रवधू के पेट में दर्द हो रहा है| उसकी जान बचाओ| उसे उदर-स्फीति हो गई है| गरीब पर दया करो, चलो सतिगुरु तुम्हारा भला करे जल्दी चलो|'<br /><br />भाई सुजान के आगे मुश्किल खड़ी हो गई, एक तरफ रोगी चिल्ला रहा है| दूसरी तरफ कलगीधर पिता जी आ रहे हैं| गुरु जी के दर्शन करने अवश्य हैं, पर रोगी को भी छोड़ा नहीं जा सकता| यदि माई की पुत्रवधू मर गई तो हत्या का भागी भाई सुजान होगा| उसकी आत्मा ने आवाज़ दी|<br /><br />भाई सुजान! क्यों दुविधा में पड़े हो? रोगी की सेवा करो, तुम्हें सेवा करने के लिए दाता ने हुक्म किया है| उस प्रीतम का हुक्म है, गुरु परमेश्वर के दर्शन लोक सेवा में है|<br /><br />उसी समय भाई सुजान दवाईयों का थैला उठा कर माई के घर को चल दिया| लोग उत्तर दिशा की तरफ दौड़े जा रहे थे, भाई सुजान दक्षिण दिशा की तरफ जा रहा था| लोगों को गुरु जी के दर्शन करने की इच्छा थी तथा भाई सुजान को रोगी की हालत देखने की जल्दी थी| लोग गुरु जी के पास पहुंचे तथा भाई सुजान माई के घर पहुंच गया| उसने जा कर माई की पुत्रवधू को देखा, वह सचमुच ही कुछ पल की मेहमान थी| उसने उसे दवाईयां घोल कर पिलाई| वैदिक असूलों के अनुसार देखरेख की हिदायतें दीं, पर पूरा एक घण्टा लग गया| माई की रोगी पुत्रवधू खतरे से बाहर हो गई| उसकी उदर-स्फीति अब धीमी हो गई| पेट का दर्द नरम हो गया| भाई सुजान जी दवाईयां दे कर वापिस मुड़े| जल्दी-जल्दी आए तो क्या देखते हैं कि उनकी झोंपड़ी के आगे लोगों की बहुत भीड़ है| घुड़सवार खड़े हैं, सारा गांव इकट्ठा हुआ है| भाई सुजान भीड़ को चीर कर आगे चले गए| झोंपड़ी के अन्दर जा कर क्या देखते हैं कि नीले पर सवार सच्चे पातशाह गरीब की चटाई पर बैठे हुए छत्त की तरफ देख रहे हैं| जाते ही भाई सुजान सतिगुरु जी के चरण कंवलों पर गिर पड़ा| आंखों में खुशी के आंसू आ गए, चरण पकड़ कर विनती की 'करामाती प्रीतम! दाता कृपा की जो गरीब की झोंपड़ी में पहुंच कर गरीब को दर्शन दिए, मेरे धन्य भाग्य|'<br /><br />'भाई सुजान निहाल!' सच्चे सतिगुरु जी ने वचन किया| सचमुच तुमने गुरु नानक देव जी की सिक्खी को समझा है| गरीबों की सेवा की हैक यही सच्ची सिक्खी है| उठो! अब श्री आनंदपुर को चलो, हम तुम्हें लेने के लिए आए है|'<br /><br />गुरु के वचनों को मानना सिक्ख का परम धर्म है| उसी समय उठ कर भाई सुजान गुरु जी के साथ चल पड़ा तथा श्री आनंदपुर पहुंचा| गुरु जी ने आप को अमृत पान करवा कर सिंघ सजा दिया| नाम 'सुजान सिंघ' रखा| लाहौर से परिवार भी बुला लिया| परिवार को भी अमृत पान करवाया गया| सारा परिवार भाई सुजान सिंघ को मिल कर बहुत खुश हुआ| भाई सुजान सिंघ की धर्म पत्नी जिसने कई साल पति की जुदाई सहन की तथा पति के हुक्म में सती के समान रही, उसके हृदय को कौन जान सकता है|</span></b></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-18453405529599026152024-03-11T00:00:00.001+05:302024-03-11T07:05:45.887+05:30जटू तपस्वी<div style="text-align: center;"><span face=""trebuchet ms", arial, sans-serif" style="color: #ffa400; font-weight: 700;">जटू</span><span face=""trebuchet ms", arial, sans-serif" style="color: #ffa400; font-weight: 700;"> </span><span face=""trebuchet ms", arial, sans-serif" style="color: #ffa400; font-weight: 700;">तपस्वी</span></div><div style="text-align: center;"><span face=""trebuchet ms", arial, sans-serif" style="background-color: #fde293; color: #3c4043; font-size: 19px; font-weight: 700;"><br /></span></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">प्रेम पिआला साध संग शबद सुरति अनहद लिव लाई|</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">धिआनी चंद चकोर गति अंम्रित द्रिशटि स्रिसटि वरसाइ ||</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">घनहर चात्रिक मोर जयों अनहद धुनि सुनि पाइल पाई |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">चरण कमल मकरंद रस सुख संपट हुइ भवर समाई |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">सुख सागर विच मीन होइ गुरमुख चाल न खोज खुजाई |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">अपिउ पीअन निझर झरन अजरजरण न अलख लखाई |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">वीह इकीह उलंघि कै गुरसिखी गुरमुख फल खाई |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">वाहिगुरु वडी वडिआई |८| </span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"><br /><span style="color: blue;">आध्यात्मिक दुनिया में परमात्मा के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेक मार्ग अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनेक महां पुरुषों तथा अवतारों ने बताए हैं| जिन को ज्ञान ध्यान, जप ताप आदि नाम दिए जाते हैं| पुण्य, सेवा सिमरन भी है| भारत में ज्ञान पर बहुत जोर रहा है| ज्ञान के बाद ध्यान आया, मूर्ति पूजा के रूप में तथा जप आया मंत्रों के रूप में ग्यारह हजार करोड़ बार किसी मंत्र का जाप कर लेना तथा कहना बस अन्य कुछ करने की जरूरत नहीं समझें कि रिद्धियां-सिद्धियां या करामातें आ गईं| जप का फल प्राप्त करने के बाद अहंकार हो जाता है| उस अहंकार का उपयोग जादू, टोने, मंत्र, लोगों को अपने वश करने में होता रहा| जप के साथ ही योगी लोगों का शरीर जो पंचभूतक का बना है पुरुष का सुन्दर घर| योगी समझते रहे शरीर में जो शक्ति है, उसको निर्मल किया जाए तो मन स्वयं ही काम, क्रोध, मोह की तरफ नहीं भागेगा| भाव कि शारीरिक शक्तियों को कमजोर करते थे|</span><br /><br /><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">भारत के योगियों तथा साधुओं की कई सम्प्रदाएं हैं जो तपस्या कर भरोसा रखती थीं| पंजाब में अनेक तपस्वी हुए हैं| उन तपस्वियों में एक जटू तपस्वी था| उसके तप की बहुत चर्चा थी| पर उसकी तपस्या ने उसे न भगवान के निकट किया था तथा न मन को शांति मिली थी|<br />उस तपस्वी की साखी इस तरह है कि वह करतारपुर (ब्यास) में रहता था तथा तपस्या किया करता था| उसके तप करने का यह ढंग था कि वह अपने चारों तरफ पांच धूनियां जला लेता तथा स्वयं मध्य में बैठा रहता| सर्दी होती या गर्मी वह धूना जला कर तपस्या करता रहता| उसकी तपस्या की बड़ी चर्चा थी|<br /><br />करतारपुर नगर को पांचवे पातशाह ने आबाद किया था| गुरु की नगरी का नाम प्राप्त हो गया| जब जटू तपस्या करता था, तब सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी महाराज करतारपुर में विराजमान थे तथा वहां धार्मिक कार्यों के साथ सैनिक कार्य भी होते थे| नित्य शिकार खेले जाते तथा शत्रुओं से मुकाबला करने का प्रशिक्षण दिया जाता| देश की सेवा का भी मनोरथ था|<br /><br />जटू तपस्वी को प्रभु ज्ञान बता कर उसको शारीरिक कष्ट से मुक्त करने के लिए सतिगुरु जी ने ध्यान किया| तपस्वी की दशा बड़ी दयनीय थी| वह व्याकुल रहता तथा अहंकार और लालच में आ गया था| उसकी मनोवृति ठीक नहीं रहती थी| ऐसी दशा में फंसा होने पर कभी-कभी गुरु घर की निंदा कर देता| उसके मन को फिर भी चैन न आता, क्योंकि शरीर दुखी रहता| पर सतिगुरु जी ऐसे दुखियों के दुःख दूर करते थे| सतिगुरु जी शिकार को जाते हुए तपस्वी के पास पहुंचे, उस समय तपस्वी धूना जला कर तप कर रहा था| उसका ध्यान कहीं ओर था, बैठा कुछ सोच रहा था|<br /><br />सतिगुरु जी घोड़े पर सवार ही रहे, जटू तपस्वी की तरफ सतिगुरु जी ने कृपा दृष्टि से उसकी आंखों में आंखें डाल कर देखा| कोई चार-पांच मिनट तक देखकर गुरु साहिब जी ने उसके तप तथा भ्रम की शक्ति को खींच लिया तथा वह वचन करके कि-तपस्वी! खीझा न करो| कहो 'सति करतार|' साहिब जी घोड़े को एड़ी लगाकर आगे निकल गए|<br /><br />सतिगुरु जी के जाने के बाद जटू तपस्वी के दिल-दिमाग में खलल पैदा हो गया| वह स्वयं ही जबरदस्ती कहता गया-तपस्वी खीझा न करो| तपस्वी खीझा न करो| कहो सति करतार, सति करतार|'<br /><br />यह भी चमत्कार हुआ कि उनकी पांचों धुनियां ठण्डी हो गई| उस की हिम्मत न रही कि वह उठ कर फूंकें भी मार सके, उसने किसी को आवाज़ न दी| आसन में उठ गया, उसने कहा 'सति करतार|'<br /><br />'सति करतार' कहता हुआ नाचता रहा| उसकी ऐसी दशा हो गई, नाम की ऐसी अंगमी शक्ति आई कि वह सिमरन करने लग गया| वह पागलों के जैसे घूमने लगा तथा बच्चे और साधारण लोग जिन्हें आत्मिक दुनिया का ज्ञान नहीं था, वह व्यंग्य करने लगे| 'तपस्वी खीझा न करो! तपस्वी खीझा न करो|' पर वह क्रोध न करता, बल्कि कहता-कहो भाई! सति करतार|' इस तरह कोई उसे पागल समझने लग पड़ा| उसको गुरु दर्शनों की लिव लग गई| वह दर्शन के लिए तड़पने लगा| उतनी देर में सतिगुरु जी भाग्यवश श्री अमृतसर जी को चले गए|<br />पीछे से तपस्वी की बैचेनी और बढ़ गई तथा वह 'सति करतार' का सिमरन करता हुआ बिल्कुल पागल हो गया| उसके इर्द-गिर्द के कपड़े फट गए तथा कभी ढंका हुआ और कभी नग्न फिरने लगा| उसकी दशा बिगड़ती गई|<br /><br />उसको यह ज्ञान हो गया कि सतिगुरु जी श्री अमृतसर को चले गए हैं तो वह ब्यास से पार हो कर पीछे गया तथा अमृतसर पहुंचा|<br /><br />वह शहर में तथा श्री हरिमंदिर साहिब जी के इर्द-गिर्द घूमता रहा| पर उसे सतिगुरु जी के दरबार में दाखिल होने की आज्ञा न मिली|<br /><br />'ले आओ|' सतिगुरु जी ने एक दिन हुक्म दिया कि यह गुरमुख है| तपस्वी पहले खीझा रहता था, अब तपता है, नाम अभ्यासी हो गया है|<br /><br />भाई जटू को सतिगुरु जी के दरबार में हाजिर किया गया| सतिगुरु जी के चरणों में गिर पड़ा तथा बिलख-बिलखकर विनती करने लगा - हे दाता! जैसे पहले कृपा की है अब भी दया करो! सुधबुध रहे, सिमरन करूं|'<br /><br />सतिगुरु जी ने कृपा करके गुरु-मंत्र प्रदान किया, उसके मन को शांत किया तथा अंतर-आत्मा को ज्ञान कराया| उसको वस्त्र पहनाए तथा गुरु घर में सेवा पर लगाया| उनकी लिव लगी तथा सच्चा प्यार पैदा हो गया| धूनियों का ताप जो अहंकार पैदा करता था, वह समाप्त हो गया|<br /><br />सतिगुरु नानक देव जी ने सिमरन तथा सिक्खी मार्ग को प्रगट करके कलयुगी जीवों को कल्याण के साधन सिर्फ नाम सिमरन, सच्चा प्यार तथा सेवा ही बताया| वैसे ही भाई गुरदास जी फरमाते हैं कि गुरु घर में प्यार का प्याला मिलता है वह भी अनहद की धुनी बजती है| वह प्यार चांद चकोर जैसा होता है| ध्यान लगा रहता है| सिक्ख को सच्चे प्यार की कृपा होती है, गुरमुखों को ऐसा सुख मिलता है, सतिगुरु की प्रशंसा है|<br /><br />इसलिए हे जिज्ञासु जनो! नाम का सिमरन करो! धर्म की कमाई तथा सेवा करो| झूठे आडम्बर करके शरीर को कष्ट देने की जरूरत नहीं| सच्ची तपस्या तो नाम सिमरन है|</span></span></b></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-3612835865087619052024-03-10T00:00:00.001+05:302024-03-10T06:43:02.706+05:30छज्जू झीवर<div style="text-align: center;"><b style="background-color: white; font-size: x-large;"><u><span style="color: #ffa400;">छज्जू झीवर</span></u></b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-9ATZjWmi5CU/YI-TW6ADRuI/AAAAAAAAr7I/oOP9vUHioZYcIo9uqpqxpYXQWheoy81MgCLcBGAsYHQ/s600/chhajju%2Bjheevar.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="399" data-original-width="600" src="https://1.bp.blogspot.com/-9ATZjWmi5CU/YI-TW6ADRuI/AAAAAAAAr7I/oOP9vUHioZYcIo9uqpqxpYXQWheoy81MgCLcBGAsYHQ/s320/chhajju%2Bjheevar.jpg" width="320" /></a></div></div><br /><div style="text-align: center;"><span style="background-color: white;"><b><span style="font-size: large;"><span style="color: red;">श्री हरिकृष्ण धिआईऐ जिस डिठै सभि दुखि जाइ ||</span></span></b><br /></span></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>सतिगुरु हरिकृष्ण साहिब जी दिल्ली को जा रहे थे| आप को बालक रूप में गुरुगद्दी पर विराजमान देखकर कई अज्ञानी तथा अहंकारी पंडित मजाक करते थे| उनके विचार से गुरु साहिब के पास कोई आत्मिक शक्ति नहीं थी| ऐसे पुरुष जब निकट हो कर चमत्कार देखते हैं तो सिर नीचे कर लेते हैं| पर हर एक गुरु साहिब में सतिगुरु नानक देव जी अकाल पुरुष से प्राप्त की शक्ति थी, जो चाहें कर सकते थे|</b><br /><b><br />एक नगर में पड़ाव किया| जीव दर्शन करके आनंदित होते तथा जन्म मरन कटते और दुःख दूर करते थे| सतिगुरु जी की उपमा सुन कर अनेक लोग आए थे तथा दीवान सज गया तथा| उसी समय एक पंडित आया| उसका नाम लाल जी था| उसने दर्शन किए| <br /><br />अहंकार से भरा मन में विचार आया-'मैं चार वेदों, गीता तथा उपनिषदों का कथा वाचक हूं मेरी बराबरी कौन कर सकता है| यदि गुरु हो तो गीता के अर्थ करें| ऐसी मन की बात उसने व्यक्त कर दी| इस समय जो उसके पास थे उनको शंका हुई|<br /><br />ज्योति स्वरूप कृपा के दाता, अंतर्यामी सतिगुरु जी पंडित लाल के मन की बात जान गए| उन्होंने ऊंचे स्वर में वचन किया -'पंडित जी! आप के मन में जो शंका है निवृत कर लो सतिगुरु नानक देव जी सर्वज्ञाता हैं|<br /><br />पंडित लाल कुछ शर्मिन्दा हुआ, फिर भी उस को विद्या तथा आयु का अभिमान था| उठ कर आगे हुआ तथा कहने लगा -<br /><br />'गीता के अर्थ सुनाओ|'<br /><br />'यदि हमने अर्थ बताए तो आप सोचेंगे शायद अर्थ याद किए हैं, इसलिए कोई आदमी बाहर से ले आओ| आप ने सतिगुरु महाराज के घर पर भी संदेह किया है, इसलिए उसको दूर करो|' सतिगुरु जी ने पंडित को फ़रमाया|<br /><br />पंडित लाल बहुत अहंकार में आ गया|<br /><br />वह दीवान में से उठ कर बाहर गया तथा एक अनपढ़ छज्जू झीवर को पकड़ कर ले आया| सतिगुरु जी ने छज्जू को अपने पास बिठाया तथा उसके सिर पर छड़ी रखी तथा वचन किया -<br /><br />'हे पंडित! जिस को ले आए हो, ठीक है, कर्मों की गति न्यारी है यह तो पूर्व जन्म में पंडित था| चार वेद तथा गीता की कथा किया करता था| पर इस समय दाने भुनता है तथा आप लोग अज्ञानी मुर्ख समझ रहे हो| इसका ज्ञान किसी को नहीं|<br /><br />यह सुन कर पंडित लाल बहुत हक्का-बक्का हुआ तथा इधर छज्जू की भी पूर्व जन्म की चेतना जाग पड़ी| उसके सामने गीता आई| गीता के सारे श्लोक आए तथा श्लोकों के भाव अर्थ! उसने हाथ जोड़ कर सतिगुरु जी के पास विनती की-'महाराज! आपकी अपार कृपा दृष्टि हुई है, जो आप ने पूर्व जन्म का ज्ञान करा दिया है| मुझे अहंकार हो गया था, इसलिए मैं जितना विद्वान तथा ज्ञानी था उतना ही फिर मुर्ख, अनपढ़ तथा अज्ञानी हुआ| यह जन्म मेरे अहंकार का दण्ड है| परमात्मा की लीला है कि संयोग बना दिया तथा आपके चरणों में हाजिर हो गया हूं| जैसे हुक्म करोगे वैसा ही होगा| आप तो त्रिलोकी के मालिक हो, ज्ञानी हो, ब्रह्म ज्ञान का पता है| कृपा करो तथा यह पुतली नाचती रहेगी|<br /><br />पंडित लाल ने छज्जू से यह कुछ सुना तो उसके पैरों के नीचे की मिट्टी निकल गई, उसको प्रत्यक्ष दिखाई दिया, छज्जू पंडित की तरह तिलकधारी बैठा था तथा उसके गले में जनेऊ था| उसने आंखें मली तो हैरान हुआ पर उसकी अहंकारी आत्मा इस भेद को न जान सकी तथा उसी समय कहने लगा - 'यह भी देख लेता हूं कैसा तुम्हारा ज्ञान है|'<br /><br />हे पंडित लाल जी! आप श्लोक पढ़ो तथा पंडित छज्जू जी कथा करेंगे| व्याख्या भी हर श्लोक की होगी|<br /><br />सतिगुरु जी ने पंडित लाल को कहा तथा उस ने एक श्लोक पड़ा जिसे वह बहुत कठिन पाठ तथा अर्थ भाव वाला श्लोक समझता था| <br /><br />'पंडित लाल जी!' छज्जू बोला-आपने श्लोक अशुद्ध पढ़ा है, वास्तविक पाठ इस तरह है-<br /><br />छज्जू संस्कृत का श्लोक मौखिक पढ़ने लग पड़ा तथा श्लोक का पाठ करने के बाद उसने अर्थ करने शुरू किए| भगवान श्री कृष्ण जी उच्चारण करते हैं - 'मैं परमात्मा माया रूप भी हूं तथा निरंजन भी, जीव आत्मा अमर है| इसके बाद व्याख्या की| व्याख्या को सुन कर पंडित लाल को पसीना आ गया| वह बड़ा लज्जित हुआ कि उसने सतिगुरु नानक देव जी की गुरुता पर शक क्यों किया? जैसे सतिगुरु नानक देव जी महान थे, उसी तरह पिछले गुरु महाराज|'<br /><br />पंडित लाल के अहंकार का सिर झुक गया, उसको इस तरह प्रतीत हुआ जैसे उसकी विद्या सारी छज्जू के पास चली गई थी| वह तो शुद्ध पाठ भी करने के योग्य नहीं रह गया था| उठ कर सतिगुरु जी के चरणों पर नतमस्तक हो गया| आंखों से आंसू आ गए| दिल में पश्चाताप तथा वैराग| वह विनती करने लगा -<br /><br />'हे दातार! आप तो प्रत्यक्ष अवतार हो| मुझे क्षमा कीजिए| मेरी विद्या मुझे लौटा दें| मैं मुर्ख न बन जाऊं| छज्जू पंडित है कि नहीं पर आप तो अवश्य पंडितों के भी पंडित हो महां विद्वान|'<br /><br />सतिगुरु महाराज जी दया के घर में आए| बख्शनहार दाता ने पंडित लाल की भूल क्षमा की| उसका अहंकार खत्म करके उसको सुखी जीवन का सही मार्ग बताया| वह गुरु घर में रह कर सेवा करने लगा तथा कहा, 'मैं आप के चरणों में ही रहूंगा|'<br /><br />सतिगुरु महाराज जी ने उसकी यह विनती स्वीकार कर ली तथा उसको हुक्म किया, गुरु चरणों से ध्यान जोड़ कर प्रभु नाम का सिमरन किया करो| आप का कल्याण होगा| अनपढ़ जीवों को अक्षर ज्ञान करवाया करो| गांव में धर्मशाला कायम करो| नाम ज्ञान तथा हरि कीर्तन की मण्डली तैयार करके भजन बंदगी में लगो| गुणों का लोगों को लाभ पहुंचा|<br /><br />पण्डित लाल ने सब वचन आदर सहित स्वीकार किये| छज्जू का भी जन्म मरन कट गया और भजन करने लगा|<br /><br />सतिगुरु महाराज की विशाल तथा अपार महिमा के बारे भाई गुरदास जी फरमाते हैं -</b><br /></span></span><div style="text-align: center;"><b><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></b></div><div style="text-align: center;"><b><b><span style="background-color: white;"><span style="color: red;">धंन गुरु गुरसिख धंन आदि पुरख आदेस कराया |</span></span></b></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: red;">सतिगुर दरशन धंन है धंन द्रिशटि गुर धिआन धराया |</span></span></b></div><b style="background-color: white;"><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">धंन धंन सतिगुर शबद धंन सुरति गुर गिआन सुनाया |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">चरनकवल गुर धंन धंन मसतक गुर चरणी लाया |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">धंन धंन गुर उपदेश है धंन रिदा गुरमंत्र वसाया|</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">धंन धंन गुर चरनांम्रितो धंन मुहत जित अपिओ पीआया |</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">गुरमुख सुख फल अजर जराया ||१९||</span></b></div><br /><span style="color: #2b00fe;">भाई साहिब जी फरमाते हैं कि सतिगुरु जी भी धन्य हैं, उनकी महिमा ब्यान नहीं की जा सकती तथा सतिगुरु जी के सिक्ख भी, जिन्होंने अनेक कुर्बानियां दीं| सेवा करते तथा हुक्म मानते हुए कोई कमी बाकी न छोड़ी| सतिगुरु जी ने सिक्खों को अकाल पुरुष के आगे डण्डवत कराई अथवा नाम सिमरन में लगाया| सतिगुरु जी के दर्शन भी धन्य उपमा योग्य है क्योंकि दर्शन करने से जन्म मरन के बंधन कट जाते हैं, मन एक तरफ लग जाता है| धन्य हैं सतिगुरु जी के चरण कंवल, जिन पर जब शीश झुकाते हैं तो जंगाल लगे हुए पाप भी दूर हो जाते हैं| सतिगुरु जी का बक्शा हुआ चरणामृत (पाहुल) आजकल खंण्डे का अमृत ऐसा नशा होता है कि जीवन भर नहीं उतरता तथा सदा -</span><br /><br /><div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">नाम खुमारी नानका चढ़ी रहै दिन रात |</span></b></div><br /><span style="color: #2b00fe;">जैसी बात होती है| सतिगुरु महाराज ने गुरमुखों को ऐसा बना दिया कि वह विनम्र हो गए| अहं खत्म हो गया|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">ऐसी ही कृपा सतिगुरु हरिकृष्ण जी ने आठवीं देह रूप में पंडित लाल तथा भाई छज्जू पर की|</span></b></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-81297544463512058582024-03-09T00:00:00.001+05:302024-03-09T05:09:22.966+05:30बीबी बसन्त लता जी<div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">बीबी बसन्त लता जी</span></span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-1E9s8gnHWfI/YI-Q6BQmQbI/AAAAAAAAr7A/NL6HghV74XANGijCpkKHrLywE-QwW7uPQCLcBGAsYHQ/s259/biwi%2Bbasant%2Blata%2Bji.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="194" data-original-width="259" height="300" src="https://1.bp.blogspot.com/-1E9s8gnHWfI/YI-Q6BQmQbI/AAAAAAAAr7A/NL6HghV74XANGijCpkKHrLywE-QwW7uPQCLcBGAsYHQ/w400-h300/biwi%2Bbasant%2Blata%2Bji.jpg" width="400" /></a></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #e69138; font-size: large;"><span style="background-color: #fde293; color: #3c4043;"><br /></span></span></b></div><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"></b><span style="background-color: white; text-align: left;"><b style="color: #2b00fe;">श्री कलगीधर पिता जी की महिमा अपरम्पार है, श्री आनंदपुर में चोजी प्रीतम ने बड़े कौतुक किए| अमृत तैयार करके गीदड़ों को शेर बना दिया| धर्म, स्वाभिमान, विश्वास, देश-भक्ति तथा प्रभु की नई जोत जगाई| सदियों से गुलाम रहने के कारण भारत की नारी निर्बल हो कर सचमुच ही मर्द की गुलाम बन गई तथा मर्द से बहुत डरने लगी| सतिगुरु नानक देव जी ने जैसे स्त्री जाति को समानता तथा सत्कार देने का ऐलान किया था, वैसे सतिगुरु जी ने स्त्री को बलवान बनाने के लिए अमृत पान का हुक्म दिया| अमृत पान करके स्त्रियां सिंघनी बनने लगीं तथा वह अपने धर्म की रक्षा स्वयं करने लगी| उनको पूर्ण ज्ञान हो गया कि धर्म क्या है? अधर्मी पुरुष कैसे नारी को धोखा देते हैं विश्वास के जहाज पार होते हैं|</b><b><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">ऐसी बहुत-सी सहनशील नारियों में से एक बीबी बसन्त लता थी, वह सतिगुरु जी के महल माता साहिब कौन जी के पास रहती और सेवा किया करती थी| नाम बाणी का सिमरन करने के साथ-साथ वह बड़ी बहादुर तथा निडर थी| उसने विवाह नहीं किया था, स्त्री धर्म को संभाल कर रखा था| उसका दिल बड़ा मजबूत और श्रद्धालु था|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बीबी बसन्त लता दिन-रात माता साहिब कौर जी की सेवा में ही जुटी रहती| सेवा करके जीवन व्यतीत करने में ही हर्ष अनुभव करती थी|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">माता साहिब कौर जी के पास सेवा करते हुए बसन्त लता जी की आयु सोलह साल की हो गई| किशोर देख कर माता-पिता उसकी शादी करना चाहते थे| पर उसने इंकार कर दिया| अकाल पुरुष ने कुछ अन्य ही चमत्कार दिखाए| श्री आनंदपुर पर पहाड़ी राजाओं और मुगलों की फौजों ने चढ़ाई कर दी| लड़ाई शुरू होने पर खुशी के सारे समागम रुक गए और सभी सिक्ख तन-मन और धन से नगर की रक्षा और गुरु घर की सेवा में जुट गए|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता ने भी पुरुषों की तरह शस्त्र पहन लिए और माता साहिब कौर जी के महल में रहने लगी और पहरा देती| उधर सिक्ख शूरवीर रणभूमि में शत्रुओं से लड़ते शहीद होते गए| बसंत लता का पिता भी लड़ता हुआ शहीद हो गया| इस तरह लड़ाई के अन्धेरे ने सब मंगलाचार दूर किए, बसन्त लता कुंआरी की कुंआरी रही|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">जैसे दिन में रात आ जाती है, तूफान शुरू हो जाता है वैसे सतिगुरु जी तथा सिक्ख संगत को श्री आनंदपुर छोड़ना पड़ा, हालात ऐसे हो गए कि और ठहरना असंभव था| पहाड़ी राजाओं तथा मुगल सेनापतियों ने धोखा किया| उन्होंने कुरान तथा गायों की कसमें खाईं मर मुकर गए| प्रभु की रज़ा ऐसे ही होनी थी|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">सर्दी की रात, रात भी अन्धेरी| उस समय सतिगुरु जी ने किला खाली करने का हुक्म कर दिया| सब ने घर तथा घर का भारी सामान छोड़ा, माता साहिब कौर तथा माता सुन्दरी जी भी तैयार हुए| उनके साथ ही तैयार हुए तमाम सेवक| कोई पीछे रह कर शत्रुओं की दया पर नहीं रहना चाहता था| अपने सतिगुरु के चरणों पर न्यौछावर होते जाते| बसन्त लता भी माता साहिब कौर के साथ-साथ चलती रही| अपने वीर सिंघों की तरह शस्त्र धारण किए| चण्डी की तरह हौंसला था| वह रात के अन्धेरे में चलती गई| काफिला चलता गया| पर जब अन्धेरे में सिक्ख संगत झुण्ड के रूप में दूर निकली तो शत्रुओं ने सारे प्रण भुला दिए और उन्होंने सिक्ख संगत पर हमला कर दिया| पथ में लड़ाईयां शुरू हो गईं| लड़ते-लड़ते सिक्ख सरसा के किनारे पहुंच गए|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">वाहिगुरु ने क्या खेल करना है यह किसी को क्या पता? उस के रंगों, कौतुकों और भाग्यों को केवल वह ही जानता है और कोई नहीं जान सकता| उसी सर्दी की पौष महीने की रात को अंधेरी और बादल आ गए| बादल बहुत जोर का था| आंधी ने राहियों को रास्ता भुला दिया| उधर शत्रुओं ने लड़ाई छेड़ दी सिर्फ बहुमूल्य सामान लूटने के लिए| इस भयानक समय में सतिगुरु जी के सिक्खों ने साहस न छोड़ा तथा सरसा में छलांग लगा दी, पार होने का यत्न किया| चमकती हुई बिजली, वर्षा और सरसा के भयानक बहाव का सामना करते हुए सिंघ-सिंघनियां आगे जाने लगे|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता ने कमरकसा किया हुआ था और एक नंगी तलवार हाथ में ले रखी थी| उस ने पूरी हिम्मत की कि माता साहिब कौर की पालकी के साथ रहे, पर तेज पानी के बहाव ने उसे विलग कर दिया, उन से बह कर विलग हो गई और अन्धेरे में पता ही न लगा किधर को जा रही थी, पीछे शत्रु लगे थे| नदी से पार हुई तो अकेली शत्रुओं के हाथ आ गई| शत्रु उस को पकड़ कर खान समुन्द खान के पास ले गए| उन्होंने बसन्त लता को नवयौवना और सौंदर्य देखकर पहले आग से शरीर को गर्मी पहुंचाई फिर उसे होश में लाया गया| शत्रुओं की नीयत साफ नहीं थी, वह उसे बुरी निगाह से देखने लगे|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान एक छोटे कस्बे का हाकिम था| वह बड़ा ही बदचलन था, किसी से नहीं डरता था और मनमानियां करता था| वह बसन्त लता को अपने साथ अपने किले में ले गया| बसन्त लता की सूरत ऐसी थी जो सहन नहीं होती जाती थी| उसके चेहरे पर लाली चमक रही थी|समुन्द खान को यह भी भ्रम था की शायद बसन्त लता गुरु जी के महलों में से एक थी| जैसे कि मुगल हाकिम और राजा अनेक दासियां बेगमें रखते हैं| उसने बसन्त लता को कहा -'इसका मतलब यह हुआ कि तुम पीर गोबिंद सिंघ की पत्नी नहीं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'नहीं! मैं एक दासी हूं, माता साहिब कौर जी की सेवा करती रही हूं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान-'इस का तात्पर्य यह हुआ कि स्वर्ग की अप्सरा अभी तक कुंआरी है, किसी पुरुष के संग नहीं लगी|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'मैंने प्रतिज्ञा की है कुंआरी रहने और मरने की| मैंने शादी नहीं करवानी और न किसी पुरुष की सेविका बनना है| मेरे सतिगुरु मेरी सहायता करेंगे| मेरे धर्म को अट्टल रखेंगे| जीवन भर प्रतिज्ञा का पालन करूंगी|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान-'ऐसी प्रतिज्ञा औरत को कभी भी नहीं करनी चाहिए| दूसरा तुम्हारा गुरु तो मारा गया| उसके पुत्र भी मारे गए| कोई शक्ति नहीं रही, तुम्हारी सहायता कौन करेगा?'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'यह झूठ है| गुरु महाराज जी नहीं मारे जा सकते| वह तो हर जगह अपने सिक्ख की सहायता करते हैं| वह तो घट-घट की जानते हैं, दुखियों की खबर लेते हैं| उन को कौन मारने वाला है| वह तो स्वयं अकाल पुरुष हैं| तुम झूठ बोलते हो, वह नहीं मरे|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान-'हठ न करो| सुनो मैं तुम्हें अपनी बेगम बना कर रखूंगा, दुनिया के तमाम सुख दूंगा| तुम्हारे रूप पर मुझे रहम आता है| मेरा कहना मानो, हठ न करो, तुम्हारे जैसी सुन्दरी मुगल घरानों में ही शोभा देती है| मेरी बात मान जाओ|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'नहीं! मैं भूखी मर जाऊंगी, मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो, जो प्रतिज्ञा की है वह नहीं तोड़ूंगी| धर्म जान से भी प्यारा है| सतिगुरु जी को क्या मुंह दिखाऊंगी, यदि मैं इस प्रतिज्ञा को तोड़ दूं?'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान-'अगर मेरी बात न मानी तो याद रखो तुम्हें कष्ट मिलेंगे| उल्टा लटका कर चमड़ी उधेड़ दूंगा| कोई तुम्हारा रक्षक नहीं बनेगा, तुम मर जाओगी|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'धर्म के बदले मरने और कष्ट सहने की शिक्षा मुझे श्री आनंदपुर से मिली थी| मेरे लिए कष्ट कोई नया नहीं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान-'मैं तुम्हें बन्दीखाने में फैकूंगा| क्या समझती हो अपने आप को, अन्धेरे में भूखी रहोगी तो होश टिकाने आ जाएंगे|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'गुरु रक्षक|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान ने जब देखा कि यह हठ नहीं छोड़ती तो उसने भी अपने हठ से काम लिया| उसको बंदीखाने में बंद कर दिया| उसके अहलकार उसे रोकते रहे| किसी ने भी सलाह न दी कि बसन्त लता जैसी स्त्री को वह बन्दीखाने में न डाले| मगर वह न माना, बसन्त लता को बन्दीखाने में डाल ही दिया| परन्तु बसन्त लता का रक्षक सतिगुरु था| गुरु जी का हुक्म भी है:</span><br /><br /><span style="color: red;">राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता को बन्दीखाने में फैंक दिया गया| बन्दीखाना नरक के रूप में था, जिस में चूहे, सैलाब मच्छर इत्यादि थे| मौत जैसा अंधेरा रहता| किसी मनुष्य के माथे न लगा जाता| ऐसे बन्दीखाने में बसन्त लता को फैंक दिया गया| पर उसने कोई दुःख का ख्याल न किया|</span><br /><span style="color: #2b00fe;">वाह! भगवान के रंग पहली रात बसन्त लता के सिर उस बन्दीखाने में आई| दुश्मन पास न रहे| उसे अन्धेरे में अकेली बैठी हुई को अपना ख्याल भूल गया पर सतिगुरु जी वह सतिगुरु जी के परिवार का ख्याल आ गया| आनंदपुर की चहल-पहल, उदासी, त्याग तथा सरसा किनारे अन्धेरे में भयानक लड़ाई की झांकियां आंखों के आगे आईं उसका सुडौल तन कांप उठा| सिंघों का माता साहिब कौर की पालकी उठा कर दौड़ना तथा बसन्त लता का गिर पड़ना उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि वह बन्दीखाने में नहीं अपितु सरसा के किनारे है, उसके संगी साथी उससे बिछुड़ रहे हैं| वह चीखें मार उठी-'माता जी! प्यारी माता जी! मुझे यहां छोड़ चले हो, किधर जाओगे? मैं कहां आ कर मिलूं? आपके बिना जीवित नहीं रह सकती, गुरु जी के दर्शन कब होंगे? माता जी! मुझे छोड़ कर न जाओ! तरंग के बहाव में बही हुई बसन्त लता इस तरह चिल्लाती हुई भाग कर आगे होने लगी तो बन्दीखाने की भारी पथरीली दीवार से उसका माथा टकराया| उसको होश आई, वह सरसा किनारे नहीं बल्कि बंदिखाने में है, वह स्वतंत्र नहीं, कैदी है| उफ! मैं कहां हूं? उसके मुंह से निकला|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">पालथी मार कर नीचे बैठ गई तथा दोनों हाथ जोड़ कर सतिगुरु जी के चरणों का ध्यान किया| अरदास विनती इस तरह करने लगी- 'हे सच्चे पातशाह! कलयुग को तारने वाले, पतित पावन, दयालु पिता! मुझ दासी को तुम्हारा ही सहारा है| तुम्हारी अनजान पुत्री ने भोलेपन में प्रण कर लिया था कि तुम्हारे चरणों में जीवन व्यतीत करूंगी| माता जी की सेवा करती रहूंगी| गुरु घर के जूठे बर्तन मांज कर संगतों के जूते साफ कर जन्म सफल करूंगी.....दाता! तुम्हारे खेल का तुम्हें ही पता है| मैं अनजान हूं कुछ नहीं जानती, क्या खेल रचा दिया| सारे बिछुड़ गए, आप भी दूर चले गए| मैं बन्दीखाने में हूं, मेरा रूप तथा जवानी मेरे दुश्मन बन रहे हैं| हे दाता! दया करो, कृपा करो, दासी की रक्षा कीजिए| दासी की पवित्रता को बचाओ| यदि मेरा धर्म चला गया तो मैं मर जाऊंगी, नरक में वास होगा| मुझे कष्ट के पंजे में से बचाओ| द्रौपदी की तरह तुम्हारा ही सहारा है, हे जगत के रक्षक दीन दयालु प्रभु!</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe; font-size: large;">'राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">विनती खत्म नहीं हुई थी कि बन्दीखाने में दीये का प्रकाश उज्ज्वल हुआ| प्रकाश देख कर उसने पीछे मुड़ कर देखा तो एक अधेड़ उम्र की स्त्री बन्दीखाने के दरवाजे में खड़ी थी|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">आने वाली स्त्री ने आगे हो कर बड़े प्यार, मीठे तथा हंसी वाले लहजे में बसन्त लता को कहना शुरू किया-</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">पुत्री! मैं हिन्दू हूं, तुम्हारे लिए रोटी पका कर लाई हूं, नवाब के हुक्म से पकाई है| रोटी खा लो बहुत पवित्र भोजन है|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'मुझे तो भूख नहीं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-'पुत्री! पेट से दुश्मनी नहीं करनी चाहिए| यदि सिर पर मुसीबत पड़ी है तो क्या डर, भगवान दूर कर देगा| यदि दुखों का सामना करना भी पड़े तो तन्दरुस्त शरीर ही कर सकता है| रोटी तन्दरुस्त रखती है, जो भाग्य में लिखा है, सो करना तथा खान पड़ता है, तुम समझदार हो|'</span><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'रोटी से ज्यादा मुझे बन्दीखाने में से निकाल दो तो अच्छा है, मैंने तुर्कों के हाथ का नहीं खाना, मरना स्वीकार, जाओ! तुम से भी मुझे डर लग रहा है, खतरनाक डर, मैंने कुछ नहीं खाना, मैं कहती हूं मैंने कुछ नहीं खाना|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-'यह मेरे वश की बात नहीं| खान के हुक्म के बिना इस किले में पत्ता भी नहीं हिल सकता| हां, खान साहिब दिल के इतने बुरे नहीं है, अच्छे हैं, जरा जवान होने के कारण रंगीले जरूर हैं| वह तुम्हारे रूप के दीवाने बने हुए हैं| मैं हिन्दू हूं, चन्द्रप्रभा मेरा नाम है| डरो मत, रोटी खा लो|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'क्या सबूत है कि तुम हिन्दू हो?'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-'राम राम, क्या मैं झूठ बोलती हूं| मेरा पुत्र खान साहिब के पास नौकर है| हम हिन्दू हैं| यह हिन्दुओं को बहुत प्यार करते हैं, अच्छे हैं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'पर मुझे तो कैद कर रखा है, यह झूठ है?'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-'मैं क्या बताऊं, यह मन के बड़े चंचल हैं| तुम्हारे रूप पर मोहित हो गए हैं| वह इतने मदहोश हुए हैं कि उन को खाना-पीना भी भूल गया| कुछ नहीं खाते-पीते, बस तुम्हारा फिक्र है|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'इसका मतलब है कि वह मुझे....|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-(बसन्त लता की बात टोक कर) नहीं, नहीं! डरने की कोई जरूरत नहीं, वह तुम्हारे साथ अन्याय नहीं करेंगे| समझाऊंगी मेरी वह मानते हैं, तुम्हारे साथ जबरदस्ती नहीं करेंगे| यदि तुम्हारी मर्जी न हो तो वह तुम्हारे शरीर को भी हाथ नहीं लगाएंगे| बहुत अच्छे हैं, यूं डर कर शरीर का रक्त मत सुखाओ|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता-'माई तुम्हारी बातें अच्छी नहीं, तुम जरूर....|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">स्त्री-'राम राम कहो पुत्री| तुम्हारे साथ मैंने कोई धोखा करना है, फिर तुम्हारा मेरा धर्म एक, रोटी खाओ| राम का नाम लो| जो सिर पर बनेगी सहना, मगर भूखी न मरो| भूखा मरना ठीक नहीं|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">चन्द्रप्रभा की प्रेरणा करने और सौगन्ध खाने पर बसन्त लता ने भोजन कर लिया| वह कई दिनों की भूखी थी, खाना खा कर पानी पिया और सतिगुरु महाराज का धन्यवाद किया| </span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">वह दिन बीत गया तथा अगला दिन आया| समुन्द खान की रात बड़ी मुश्किल से निकली, दिन निकलना कठिन हो गया| वह बंदीखाने में गया तथा उसने जा कर बसन्त लता को देखा|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता उस समय अपने सतिगुरु जी का ध्यान लगा कर विनती कर रही थी| जब समुन्द खान ने आवाज़ दी तो वह उठ कर दीवार के साथ लग कर खड़ी हो गई तथा उसकी तरफ ऐसे देखने लगी, जिस तरह भूखी शेरनी किसी शिकार की तरफ देखती है कि शिकारी के वार करने से पहले वह उस पर ऐसा वार करे कि उसकी आंतड़ियों को बाहर खींच ले, पर वह खड़ी हो कर देखने लगी कि समुन्द खान क्या कहता है|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'बसन्त लता!' समुन्द खान बोला| 'यह ठीक है कि तेरा मेरा धर्म नहीं मिलता, मगर स्त्री-पुरुष का कुदरती धर्म तो है| तुम्हारे पास जवानी है, यह जवानी ऐसे ही व्यर्थ मत गंवा| आराम से रहो| तुम्हारे साथी नहीं रहे| उनको लश्कर ने चुन-चुन कर मार दिया है| तुम्हारा गुरू........|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">पहले तो बसन्त लता सुनती रही| मगर जब समुन्द खान के मुंह से 'गुरु' शब्द निकला तो वह शेरनी की तरह गर्ज कर बोली, 'देखना! पापी मत बनना! मेरे सतिगुरु के बारे में कोई अपशब्द मत बोलना, सतिगुरु सदा ही जागता है, वह मेरे अंग-संग है|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">मैं नहीं जानता तुम्हारे गुरु को| जो खबरें मिली हैं, वह बताती हैं कि गुरु सब खत्म..... कोई नहीं बचा| सारा इलाका सिक्खों से खाली है| मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता| तेरे रूप का दीवाना हो गया हूं| कहना मानो.....अगर अब मेरे साथ खुशी से न बोली तो समझना-मैं बलपूर्वक उठा लूंगा|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">ज़ालिम दुश्मन के मुंह से ऐसे वचन सुन कर बसन्त लता भयभीत नहीं हुई| उसको अपने सतिगुरु महाराज की अपार शक्ति पर मान था| उसने कहा-'मैं लाख बार कह चुकी हूं मैं मर जाऊंगी, पर किसी पुरुष की संगत नहीं करनी| मेरा सतिगुरु मेरी रक्षा करेगा| मेरे साथ जबरदस्ती करने का जो यत्न करेगा, वह मरेगा.....मैं चण्डी हूं| मेरी पवित्रता का रक्षक भगवान है| वाहिगुरु! सतिगुरु!'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">पिछले शब्द बसन्त लता ने इतने जोर से कहे कि बन्दीखाना गूंज उठा| एक नहीं कई आवाज़ें पैदा हुईं| यह आवाज़ें सुन कर भी समुन्द खान को बुद्धि न आई| वह तो पागल हो चुका था| वासना ने उसको अंधा कर दिया था|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'मैं कहता हूं, कहना मान जाओ! तेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता तुम मेरे....!' यह कह कर वह आगे बढ़ा और उसने बसन्त लता को बांहों में लेने के लिए बांहें फैलाई तो उसकी एक बांह में पीड़ा हुई| उसी समय बसन्त लता पुकार उठी-</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'ज़ालिम! पीछे हट जा! वह देख, मेरे सतिगुरु जी आ गए| आ गए!' बसन्त लता को सीढ़ियों में रोशनी नजर आई| बसन्त लता के इशारे पर समुन्द खान ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस को कुछ नजर न आया| उस ने दुबारा बसन्त लता को कहा-'ऐसा लगता है कि तुम पागल हो गई हो| डरो मत, केवल फिर मेरे साथ चल, नहीं तो.....|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'अब मैं क्यों तेरी बात मानूं? मेरे सतिगुरु जी आ गए हैं, मेरी सहायता कर रहे हैं|' बसन्त लता ने उत्तर दिया|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'देखो! महाराज देखो! यह ज़ालिम नहीं समझता, इसको सद्-बुद्धि दो, इसको पकड़ो, धन्य हो मेरे सतिगुरु! आप बन्दीखाने में दासी की पुकार सुन कर आए|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान आगे बढ़ने लगा तो उसके पैर धरती से जुड़ गए, बाहें अकड़ गई, उसको इस तरह प्रतीत होने लगा जैसे वह शिला पत्थर हो रही थी| उस के कानों में कोई कह रहा था -</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'इस देवी को बहन कह, अगर बचना है तो कह बहन|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">अद्भुत चमत्कार था, उधर बसन्त लता दूर हो कर नीचे पालथी मार कर दोनों हाथ जोड़ कर कहने लगी, 'सच्चे पातशाह! आप धन्य हो तथा मैं आप से बलिहारी जाती हूं| सतिनाम! वाहिगुरु हे दाता! आप ही तो अबला की लाज रखने वाले हो, दातार हो|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">समुन्द खान घबरा गया उसको इस तरह अनुभव हुआ जैसे कोई अगोचर शक्ति उसके सिर में जूते मार रही थी| उसकी आंखों के आगे मौत आ गई तथा वह डर गया| उसके मुंह से निकला, 'हे खुदा! मुझे क्षमा करें, कृपा करो! मैं कहता हूं, बहन लता-बहन बसन्त लता!'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">यह कहने की देर थी कि उसके सिर पर लगने वाले जूते रुक गए| एक बाजू हिली तो उसने फिर विनती की-हे खुदा! हे सतिगुरु जी आनंदपुर वाले सतिगुरु जी कृपा करो! मैं आगे से ऐसी भूल कदापि नहीं करूंगा, बसन्त लता मेरी बहन है| बहन ही समझूंगा, जहां कहेगी भेज दूंगा| मैं कान पकड़ता हूं|' इस तरह कहते हुए जैसे ही उसने कानों की तरफ हाथ बढ़ाए तो वह बढ़ गए| उसकी बांह खुल गई तथा पैर भी हिल गए| उसका शरीर उसको हल्का-हल्का-सा महसूस होने लगा| उसने आगे बढ़ कर बसन्त लता के पैरों, पर हाथ रख दिया तथा कहा -</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'बहन! मुझे माफ करो, मैं पागल हो गया था, तुम्हारा विश्वास ठीक है| तुम पाक दामन हो, मुझे क्षमा करो|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">'सतिगुरु की कृपा है, मैं कौन हूं, सतिगुरु जी ही तुम्हें क्षमा करेंगे| मैं बलिहारी जाऊं सच्चे सतिगुरु से| बसन्त लता ने उत्तर दिया तथा उठ कर खड़ी हो गई| समुन्द खान बसन्त लता को बहन बना कर बन्दीखाने में से बाहर ले आया तथा हरमों में ले जा कर बेगमों को कहने लगा-'यह मेरी बहन है|'</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता का बड़ा आदर सत्कार हुआ, उसको देवी समझा गया| कोई दैवी शक्ति वाली पाकदामन स्त्री तथा उसको बड़ी शान से अपने किले से विदा किया, घुड़सवार साथ भेजे| वस्त्र तथा नकद रुपए दिए| उसी तरह जैसे एक भाई अपनी सगी बहन को देकर भेजता है| चंद्र प्रभा भी उसके साथ चल पड़ी तथा रास्ते में पूछते हुए 'सतिगुरु जी, किधर को गए|' वह चलते गए आखिर दीने के मुकाम पर पहुंचे जहां सतिगुरु जी रुके थे| सतिगुरु जी के महल माता सुंदरी जी तथा साहिब देवां जी भी घूमते-फिरते पहुंच गए|</span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;">बसन्त लता ने जैसे ही सतिगुरु जी के दर्शन किए तो भाग कर चरणों पर गिर पड़ी| चरणों का स्पर्श प्राप्त किया| आंखों में से श्रद्धा के आंसू गिरे| दाता से प्यार लिया|</span></b></span></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-66528190053015677752024-03-08T00:00:00.001+05:302024-03-08T04:46:06.305+05:30राजा जनक<div style="text-align: center;"><strong style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #ffa400; font-size: large;">राजा जनक</span></strong></div><div style="text-align: center;"><strong><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-HvrHFUvOyAU/YI-PCOXVibI/AAAAAAAAr6Y/-glVrCo9pIkXEtqHRzYPA8Pqg7QKfh6FQCLcBGAsYHQ/s770/King-Janak.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="450" data-original-width="770" src="https://1.bp.blogspot.com/-HvrHFUvOyAU/YI-PCOXVibI/AAAAAAAAr6Y/-glVrCo9pIkXEtqHRzYPA8Pqg7QKfh6FQCLcBGAsYHQ/s320/King-Janak.jpg" width="320" /></a></div></strong></div><p style="text-align: center;"><span style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><strong><br />जनक जी एक धर्मी राजा थे| उनका राज मिथिलापुरी में था| वह एक सद्पुरुष थे| न्यायप्रिय और जीवों पर दया करते थे| उनके पास एक शिव धनुष था| वह उस धनुष की पूजा किया करते थे| आए हुए साधू-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं भोजन करते थे|<br /><br />लेकिन एक दिन एक महात्मा ने राजा जनक को उलझन में डाल दिया| उस महात्मा ने राजा जनक से पूछा-हे राजन! आप ने अपना गुरु किसे धारण किया है?<br /><br />यह सुन कर राजा सोच में पड़ गया| उसने सोच-विचार करके उत्तर दिया-हे महांपुरुष! मुझे याद है कि अभी तक मैंने किसी को गुरु धारण नहीं किया| मैं तो शिव धनुष की पूजा करता हूं|<br /><br />यह सुनकर उस महात्मा ने राजा जनक से कहा-राजन! आप गुरु धारण करो| क्योंकि इसके बिना जीवन में कल्याण नहीं हो सकता और न ही इसके बिना भक्ति सफल हो सकती है| आप धर्मी एवं दयावान हैं|<br /><br />'सत्य वचन महाराज|' राजा जनक ने उत्तर दिया और अपना गुरु धारण करने के लिए मन्त्रियों से सलाह-मशविरा किया| तब यह फैसला हुआ कि एक विशाल सभा बुलाई जाए| उस सभा में सारे ऋषि, मुनि, पंडित, वेदाचार्य बुलाए जाएं| उन सब में से ही गुरु को ढूंढा जाए|<br /><br />सभा बुलाई गई| सभी देशो में सूझवान पंडित, विद्वान और वेदाचार्य आए| राजा जनक का गुरु होना एक महान उच्च पदवी थी, इसलिए सभी सोच रहे थे कि यह पदवी किसे प्राप्त हो, किसको राजा जनक का गुरु बनाया जाए| हर कोई पूर्ण तैयारी के साथ आया था| सभी विद्वान आ गए तो राजा जनक ने उठकर प्रार्थना कि 'हे विद्वान और ब्राह्मण जनो! यह तो आप सबको ज्ञात ही होगा कि यह सभा मैंने अपना गुरु धारण करने के लिए बुलाई है| परन्तु मेरी एक शर्त यह है कि मैं उसी को अपना गुरु धारण करना चाहता हूं जो मुझे घोड़े पर चढ़ते समय रकाब के ऊपर पैर रखने पर काठी पर बैठने से पूर्व ही ज्ञान कराए| इसलिए आप सब विद्वानों, वेदाचार्यों और ब्राह्मणों में से अगर किसी को भी स्वयं पर पूर्णत: विश्वास है तो वह आगे आए| आगे आ कर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो पर यदि चन्दन की चौकी पर बैठ कर मुझे ज्ञान न करा सका तो उसे दण्डमिलेगा| क्योंकि सभा में उस की सबने हंसी उड़ानी है और इससे मेरी भी हंसी उड़ेगी| इसलिए मैं सबसे प्रार्थना करता हूं कि योग्य बल बुद्धि वाला सज्जन ही आगे आए|<br /><br />यह प्रार्थना करके धर्मी राजा जनक अपने आसान पर बैठ गया| सभी विद्वान और ब्राह्मण राजा जनक की अनोखी शर्त सुनकर एक दूसरे की तरफ देखने लगे| अपने-अपने मन में विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा तरीका है जो राजा जनक को इतने कम समय में ज्ञान करा सके| सब के दिलों-दिमाग में एक संग्राम शुरू हो गया| सारी सभा में सन्नाटा छा गया| राजा जनक का गुरु बनना मान्यता और आदर हासिल करना, सब सोचते और देखते रहे| चन्दन की चौकी की ओर कोई न बढ़ा| यह देखकर राजा जनक को चिंता हुई| वह सोचने लगा कि उसके राज्य में ऐसा कोई विद्वान नहीं? राजा ने खड़े हो कर सभा में उपस्थित हर एक विद्वान के चेहरे की ओर देखा| लेकिन किसी ने आंख न मिलाई| राजा जनक बड़ा निराश हुआ|<br /><br />कुछ पल बाद एक ब्राह्मण उठा, उसका नाम अष्टावकर था| जब वह उस चन्दन की चौकी की ओर बढ़ने लगा तो उसकी शारीरिक संरचना देखकर सभी विद्वान और ब्राह्मण हंस पड़े| राजा भी कुछ लज्जित हुआ| उस ब्राह्मण की कमान पर दो बल थे| छाती आगे को और पेट पीछे को गया हुआ था| टांगें टेढ़ी थीं और हाथों का तो क्या कहना, एक पंजा है ही नहीं था तथा दूसरे पंजे की उंगलियां जुड़ी हुई थीं| जुबान चलती थी और आंखें तथा चेहरा भी ठीक नहीं था| वह आगे होने लगा तो मंत्री ने उसको रोका और कहा-पुन: सोच लीजिए! राजा जनक की संतुष्टि न हुई तो मृत्यु दण्ड मिलेगा| यह कोई मजाक नहीं है, यह राजा जनक की सभा है|<br /><br />अष्टावकर बोला-हे मन्त्री! यह बात आपको कहने का इसलिए साहस पड़ा है क्योंकि मैं शरीर से कुरुप दिखता हूं| हो सकता है गरीब और बेसहारा हूं| आपके मन में भी यह भ्रम आया होगा कि मैं शायद लालच के कारण आगे आने लगा हूं| इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे इस भरी सभा में कोई ज्ञानी नहीं, कोई राजा का गुरु बनने की योग्यता नहीं रखता, वैसे आप भी अज्ञानी हो| आप ने अपने जैसे अज्ञानियों को ही बुलाया है| पर मैं सभी से पूछता हूं क्या ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा और दिमाग के साथ है या किसी के शरीर के साथ? जो सुन्दर शरीर वाले, तिलक धारी, ऊंची कुल और अच्छे वस्त्रों वाले बैठे हैं, वह आगे क्यों नहीं आते? सभी सोच में क्यों पड़ गए हो? मेरे शरीर की तरफ देख कर हंसते हुए शर्म नहीं आती, क्योंकि शरीर ईश्वर की रचित माया है| उसने अच्छा रचा है या बुरा| जिसको तन का अभिमान है, उसको ज्ञान अभिमान नहीं हो सकता, अष्टावकर गुस्से से बोला| उसकी बातें सुन कर सभी तिलकधारी राज ब्राह्मण शर्मिन्दा हो गए| उन सब को अपनी भूल पर पछतावा हुआ|<br /><br />राजा जनक आगे बढ़ा| उसने हाथ जोड़ कर कहा, 'आओ महाराज! अगर आप को स्वयं पर विश्वास है तो ठीक है| मेरी संतुष्टि कर देना|'<br /><br />अष्टावकर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसी समय राजा ने घोड़ा मंगवाया| वह घोड़ा हवा से बातें करने वाला था| उसकी लगाम बहुत पक्की थी| अष्टावकर ने घोड़े की ओर देखा| तदुपरांत राजा जनक की तरफ देख कर कहने लगा, 'हे राजन! यदि मैंने आपको ज्ञान करा दिया तो आप ने मेरा शिष्य बन जाना है|'<br /><br />'यह तो पक्की बात है!' राजा जनक ने उत्तर दिया|<br /><br />'जब मैं आपका गुरु बन गया और आप मेरे शिष्य तो मुझे दक्षिणा भी अवश्य मिलेगी|' अष्टावकर ने कहा|<br /><br />'यह भी ठीक है महाराज! आपको दक्षिणा मिलनी चाहिए|' राजा जनक ने आगे से कहा|<br /><br />'क्योकि मैंने आप को ज्ञान का उपदेश उस समय देना है, जब आपने रकाब के ऊपर पैर रखना है और फिर आपने घोड़ा दौड़ा कर दूर निकल जाना है, इसलिए मेरी दक्षिणा पहले दे दीजिए| परन्तु दक्षिणा तन, मन और धन किसी एक वस्तु की हो|' अष्टावकर बोला|<br /><br />राजा जनक सोच में पड़ गया कि बात तो ठीक है| दक्षिणा तो पहले ही देनी पड़ेगी| पर दक्षिणा दूं किस वस्तु की तन की, मन की या धन की| इन तीनों का सम्बन्ध ही जीवन से है| अगर एक भी कम हो जाए तो हानि होगी, जीवन सुखी नहीं रहता| यह अनोखा ऋषि है, इसकी बातें भी अनोखी हैं| राजा सोचता रहा पर उसको कोई बात न सूझी| वह कोई भी फैसला न कर सका|<br /><br />राजा जनक ने कहा, 'महाराज! मुझे राजमहल में जाने की आज्ञा दीजिए| मैं वापिस आ कर आपको बताऊंगा कि मैं किस वस्तु की दक्षिणा दे सकता हूं|'<br /><br />'आप जा सकते हैं|' अष्टावकर ने आज्ञा दी|<br /><br />यह सुन कर सारी सभा में सन्नाटा छा गया| सभी विद्वान सोचने लगे कि यह कुरुप ब्राह्मण अवश्य गुणी है|<br /><br />राजा जनक राजमहल में चला गया और अष्टावकर चंदन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसकी पूजा होने लगी| जैसे कि गुरु धारण करने से पहले गुरु पूजा करनी पड़ती है|<br /><br />राजा जनक महल में पहुंचा और रानी से कहा-जिसको मैं गुरु धारण करने लगा हूं, वह तन, मन और धन में से एक को दक्षिणा में मांगता है| बताओ मैं क्या दूं, क्योंकि आप मेरी दुःख सुख की साथी हो|<br /><br />यह सुन कर रानी सोच में पड़ गई| कुछ समय सोच कर उसने कहा-'हे राजन! यदि धन दान किया तो दुःख प्राप्त होगा, गरीबी आएगी, यदि तन दान किया तो कष्ट उठाना पड़ेगा, अच्छा यही है कि आप मन को दक्षिणा में दे दीजिए| मन को देने से कोई कष्ट नहीं होगा|<br /><br />'राजा जनक विचार करने लगा कि रानी ने जो सलाह दी है वह ठीक है या नहीं| पर विचार करके वह भी इसी परिणाम पर पहुंचा और सभा में आकर उसने हाथ जोड़ कर अष्टावकर को कहा-'मैं गुरु दक्षिणा में मन अर्पण करता हूं| अब मेरे मन पर आपका अधिकार हुआ|'<br /><br />'चलो ठीक है| अब आप घोड़े पर चढ़ने की तैयारी करें| आपका मन मेरा है तो मेरा कहना अवश्य मानेगा|' अष्टावकर ने आज्ञा की| सभा में बैठे सब हैरान हो गए कि यह राजा जनक का गुरु बनने लगा है, कैसे कुरुप व्यक्ति के भाग्य जाग पड़े|<br /><br />राजा घोड़े के ऊपर चढ़ने लगा, सभी रकाब में पैर रखा ही था कि अष्टावकर बोला, राजन! मेरे मन की इच्छा नहीं कि आप घोड़े के ऊपर चढ़ो| यह सुनकर राजा ने उसी समय रकाब से पैर उठा कर धरती पर रख लिए तथा अष्टावकर की ओर देखने लगा| घोड़े के ऊपर चढ़ने की उसकी मन की इच्छा दूर हो गई| उसी समय अष्टावकर ने दूसरी बार कहा-राजन! मेरा मन चाहता है कि आस-पास का लिबास उतार दिया जाए| राजा जनक उसी समय वस्त्र उतारने लगा तो उसको ज्ञान हुआ, मन पर काबू पाना, मन के पीछे स्वयं न लगना ही सुखों का ज्ञान है| मन भटकता रहता है| राजा जनक ने उसी समां अष्टावकर के चरणों में माथा झुका दिया और कहा, 'आप मेरे गुरु हुए|'<br /><br />उसी समय खुशी के मंगलाचार होने लग पड़े| यज्ञ शुरू हो गया| बड़े-बड़े ब्राह्मणों को अष्टावकर के चरणों में लगना पड़ा|<br /><br />राजा जनक के बारे में भाई गुरदास जी फरमाते हैं :-<br /></strong><br /></span></span></p><div style="text-align: center;"><strong><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: red;">भगत वडा राजा जनक है गुरमुख माइआ विच उदासी|<br />देव लोक नो चलिआ गण गंधरब सभा सुख वासी|<br />जमपुर गईया पुकार सुणि विललावन जीअ नरक निवासी|<br />धरमराइ नों आखिओनु सभनां दी कर बंद खलासी|<br />करे बेनती धरमराइ हऊ सेवक ठाकुर अबिनासी|<br />गहिने धरिअनु एक नाऊ पापां नाल करै निरजासी|<br />पासंग पाप न पुजनी गुरमुख नाऊ अतुल न तुलासी|<br />नरकहु छुटे जीअ जंत कटी गलहु सिलक जम फासी|<br />मुकति जुगति नावै की दासी|</span></span></strong></div><div style="text-align: justify;"></div><p style="text-align: center;"><span style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></p><div style="text-align: justify;"><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>राजा जनक बहुत बड़ा प्रतापी हुआ, जो माया में उदास था| गुरु धारण करने के बाद उसने बहुत भक्ति की| मन को ऐसा बना लिया कि माया का कोई भी रंग उस पर प्रभाव नहीं डालता था| मोह माया, लोभ, अहंकार तथा वासना, काम का जोश भी उसके मन की इच्छा अनुसार हो गया| वह राजा भक्त बन गया|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>एक दिन उसके मन में आया कि आखिर मैं भक्ति करता हूं.....क्या पता भक्ति का असर हुआ है कि नहीं? क्यों न परीक्षा लेकर देखा जाए| बात तो अहंकार वाली थी पर उसके मन में आ गई| जो मन में आए वह हो जाता है|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>एक दिन राजा ने अद्भुत ही कौतुक रचा| उसने एक तेल का कड़ाहा गर्म करवाया| उस छोटे कड़ाहे के पास बिछौना बिछा कर उस पर अपनी सबसे सुन्दर स्त्री को कहा कि वह लेट जाए| जब स्त्री लेट गई तो राजा जनक ने एक पैर कड़ाहे में रखा और एक उस स्त्री के बदन पर| वह अडोल खड़ा रहा| अग्नि ने उसको जरा भी आंच न आने दी|....और रानी की सुन्दरता, पैर द्वारा शरीर के स्पर्श ने उसके खून को न गरमाया, गर्म तेल उबलता था, रानी की जवानी दोपहर में थी| यह देखकर लोग राजा जनक की जै जै बोलने लगे| वह धर्मात्मा-बड़ा भक्त बन गया| उसके पश्चात राजा को कभी माया ने न भरमाया|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>प्रतापी राजा जनक की कथा बड़ी विस्तृत है| यदि पूरी कथा बयान करने लगे तो ग्रन्थों के ग्रन्थ बन जाएंगे| भक्त की कथाएं ही खत्म न हों| आपका अन्तिम समय आ गया| पंचतत्व शरीर को छोड़ कर अगली दुनिया की तरफ जाना था| शरीर को जैसे ही आत्मा ने छोड़ा तो कुदरत की तरफ से अपने आप ही बेअंत शंख बजने लग गए, नरसिंघे बोले, मंगलाचार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं| कहते हैं देवता और गन्धर्व आए, अप्सराएं आईं| भक्त जन और नेक आत्माओं के दल स्वागत करने के लिए आए|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>कहते हैं, जनक ने जो भक्ति का दिखावा किया था, वह परमात्मा के दरबार में उसका अहंकार लिखा गया| जब देवता लेने के लिए आए तो परमात्मा ने हुक्म दिया-हे देवताओं! राजा जनक को नरक वाले रास्ते से देवपुरी ले आना, क्योंकि उसके अहंकार का फल उसको अवश्य मिले| यहां बे-इंसाफी नहीं होती, इंसाफ होता है| बस इतना ही काफी है| उसका फूलों वाला बिबान उधर से ही आए|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>जिस तरह परमात्मा का हुक्म था, सब ने उसी तरह ही मानना था| देवताओं ने राजा जनक का बिबान नरकों की तरफ मोड़ लिया| नरक आया| नरकों में हाहाकार मची हुई थी| जीव पापों और कुकर्मों का फल भुगत रहे थे| कोई आग में जल रहा था तो कोई उल्टा लटकाया हुआ था और नीचे आग जल रही थी| कई आत्माओं को गर्म तेल के कड़ाहों में डाला हुआ था| तिलों की तरह कोहलू में पीसे जा रहे थे| हैरानी की बात यह थी कि वह न मरते थे और न जीते थे| आत्माएं दुःख उठाती हुई तड़प रही थीं| नरक की तरफ देख कर राजा जनक ने पूछा-यह कौन-सा स्थान है? नरक के राजा यमदूत ने कहा-महाराज! यह नरक है, उन लोगों के लिए जो संसार में अच्छे काम नहीं करते रहें, अब दुःख उठा रहे हैं|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>राजा जनक ने कहा-इन सब को अब छोड़ देना चाहिए| बहुत दुःख उठा लिया है| देखो कैसे मिन्नतें कर रहे हैं|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>यम-परमात्मा की आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता| हां, यदि कोई पुण्य का फल दे तो इनको भी छुटकारा मिल सकता है|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>राजा जनक को रहम आ गया| उसने कहा-मेरे एक पल के सिमरन का फल लेकर इन को छोड़ दो|</b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></span></div><div style="margin: 0px;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>यमों ने तराजू मंगवाया| एक तरफ राजा जनक के सिमरन का फल रखा गया और दूसरी तरफ नरकगामी आत्माएं बिठाईं| धीरे-धीरे सभी नरकगामी आत्माएं तराजू पर चढ़ गईं| नरक खाली हो गया| आत्माएं राजा जनक के साथ ही स्वर्ग की ओर चल पड़ीं| बड़े प्रताप और शान से राजा जनक परमात्मा के दरबार में उसके देव लोक में पहुंचा|</b></span></span></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-48781330549449996332024-03-07T00:00:00.001+05:302024-03-07T04:54:35.937+05:30भक्त बेनी जी<div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; color: #ffa400; font-size: large;"><span>भक्त</span> <span>बेनी</span> <span>जी</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-CIQdLKHO_vg/YI-NgiYkq4I/AAAAAAAAr6Q/loK16gMGDRYmw7xUxXJQX38ldOu5cKHCgCLcBGAsYHQ/s480/bhakt%2Bbeni%2Bji.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="480" src="https://1.bp.blogspot.com/-CIQdLKHO_vg/YI-NgiYkq4I/AAAAAAAAr6Q/loK16gMGDRYmw7xUxXJQX38ldOu5cKHCgCLcBGAsYHQ/s320/bhakt%2Bbeni%2Bji.jpg" width="320" /></a></div><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></div><div><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><span><b><span>भक्त</span>ों की दुनिया बड़ी निराली है| प्रभु <span>भक्त</span>ि करने वालों की गिनती नहीं हो सकती| इस जगत में अनेकों महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने प्रभु के नाम के सहारे <span>जी</span>वन व्यतीत किया तथा वह इस जगत में अमर हुए, जबकि अन्य लोग जो मायाधारी थे, मारे गए तथा उनका कुछ न बना| ऐसे पुरुषों में ही <span>भक्त</span> बेणी <span>जी</span> हुए हैं| आपका वास्तविक नाम ब्रह्म भट्ट बेणी था| आपका जन्म सम्वत १६७० विक्रमी में 'असनी' गांव में हुआ| आप जाति के ब्राह्मण थे और इतने निर्धन थे कि <span>जी</span>वन से उदास हो गए थे| रात-दिन यही विचार करते रहते थे कि मानव <span>जी</span>वन का अन्त कर लें, अगला <span>जी</span>वन क्या पता कैसे हो| हो सकता है कि यदि इस जन्म दुखी हैं तो अगले जन्म में सुखी हो जाएंगे| ऐसी ही दलीलें किया करते थे, क्योंकि भूखे बच्चों का रोना उनसे न देखा जाता| हर रोज़ पत्नी झगड़ा करती| वह इसी माया की कमी के दुखों से तंग आ गया तथा हर रोज़ मन ही मन क्लेश करने लगे|</b><br /><br /><b>वह उदास हो कर घर से चल पड़े| अचानक रास्ते में उनको एक महांपुरुष मिला| उनके साथ वचन-विलास हुए तो उन्होंने पूछा, 'हे बेणी! किधर चले हो?'</b><br /><br /><b>बेणी-'महाराज क्या बताऊं, घर में बहुत गरीबी है| इस भूखमरी की दशा ने दुखी किया है| समझ नहीं आता क्या करूं-यही मन करता है कि आत्मघात कर लूं| पत्नी तथा बच्चे अपने-आप भूख से मर जाएंगे| ऐसा सोच कर बाहर को चला हूं|</b><br /><br /><b>महांपुरुष-'मरने से दुःख दूर नहीं होते| आत्महत्या करेगा तो आत्मा दुखी होगी, नरकों का भागी बनेगा| मेहनत करो, यदि कोई और मेहनत नहीं करनी तो प्रभु <span>भक्त</span>ि की ही मेहनत किया करो| जो <span>भक्त</span>ि करता है, परमात्मा उसकी सारी कामनाएं पूरी करता है| <span>जी</span>वों की चिंता परमात्मा को है| कर्म गति है, कर्मों का फल भोगना पड़ता है| किसी जन्म में ऐसा कर्म हुआ है, जो यह दुःख के दिन देखने पड़े| अब तो प्रभु की <span>भक्त</span>ि करो तो ज़रूर भला होगा|</b><br /><br /><b>उस महांपुरुष का उपदेश बेणी को अच्छा लगा| मन पर प्रभाव पड़ा तो जंगल की ओर चला गया| वह जा का कर <span>भक्त</span>ि करने लगा| इस तरह कुछ दिन बीत गए| भाई गुरदास <span>जी</span> ने यह शब्द उच्चारा -</b></span><br /></span></span><pre style="text-wrap: wrap;"><div style="text-align: center;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">
</span><b><span style="color: red; font-size: large;">गुरमुख बेणी भगति करि जाई इकांत बहै लिव लावै|</span></b></span></div><span style="background-color: white;"><b><span><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b><span style="font-size: large;">करमकरै अधिआतमी होरसु किसै न अलख लखावै|</span></b></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>घर आइआजां पूछिअै राज दुआरि गइआ आलावै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>घर सभ वथू मंगीअनिवल छल करिकै झत लंघावै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>वडा साग वरतदा ओहु इक मन परमेसर धिआवै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>पैज सवारै भगत दी राजा होइकै घरि चलिआवै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>देइ दिलासा तुसि कै अनगिनती खरची पहुंचावै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>ओथहुंआइआ भगत पासि होइ दिआल हेत उपजावै| </b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b>भगत जनां जैकारकरावै|</b></span></div></span></span></b></span></pre><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /><span style="font-weight: bold;">जिसका परमार्थ है - महांपुरुष के कथन अनुसार बेणी बाहर एकांत में समाधि लगा कर <span>भक्त</span>ि करने के लिए मन एकाग्र कर लेता पर <span>भक्त</span> गुप्त रखने लग पड़ा| किसी को उसने नहीं बताया था, जब वह घर आता तो पत्नी पूछती कहां से आए हो?'<br /><br />राज दरबार में कथा करता हूं| जब कथा समाप्त होती भोग पड़ेगा तो अवश्य ही राजा दक्षिणा देगा| वह धन पदार्थ बहुत होगा, सारी जरूरतें पूरी हो जाएंगी|<br /><br />यह सुन कर बेणी <span>जी</span> की पत्नी क्रोधित होकर आपे से बाहर हो गई| उसने कहा-'चूल्हे में पड़े तुम्हारा राजा!' कथा का क्या पता कब भोग पड़ेगा| आप मुझे भोजन सामग्री ला दो नहीं तो घर मत लौटना|<br /><br />अपनी पत्नी के इस तरह के कटु वचन सुनकर बेणी चुपचाप जंगल को चला गया| <span>भक्त</span>ि में जा लगा| ऐसी सुरति प्रभु से जुड़ी कि सब कुछ भूल गया| पत्नी का रोना याद न आया| भूखमरी तथा अपनी भूख याद न रही केवल परमात्मा को याद करता गया|<br /><br />उधर अन्तर्यामी प्रभु ने सत्य ही <span>भक्त</span> की <span>भक्त</span>ि सुन ली| अपने सेवक की लाज रखने के लिए, अपने नाम की महिमा व्यक्त करने के लिए उन्होंने राजा का रूप धारण किया तथा भोजन सामग्री की गाड़ियां भर लीं| धन ढोया तथा जा कर बेणी की पत्नी को पूछा - 'ब्रह्म भट्ट बेणी का घर यही है?'<br /><br />बेणी की पत्नी-'<span>जी</span>, यही है| पता नहीं कहां उजड़ा है? परमात्मा ने राजा के अहलकार के रूप में कहा, 'वह राज दरबार में कथा करते हैं| भोजन सामग्री भे<span>जी</span> है| अन्न है, वस्त्र, मीठा, घी, संभाल लो| कथा पूरी होने पर बहुत कुछ मिलेगा|' बेणी की पत्नी को लाज आई कि वह झूठ नहीं कहते थे, सत्यता ही राजा के दरबार में जाते थे, यूं ही क्रोध किया| उसने सारा सामान रख लिया तथा खुश हो कर बेणी <span>जी</span> को याद करने लगी, यह भी कह दिया, '<span>जी</span>! सुबह कुछ नाराज होकर गए हैं, उनको शीघ्र भेज देना|'<br /><br />प्रभु यह लीला देखकर प्रसन्न हो गए तथा सीधे बेणी <span>जी</span> के पास पहुंचे, उनको जा कर होश में लाया तथा कहा-'होश करो तुम्हारी <span>भक्त</span>ि स्वीकार हुई! जाओ, तुम्हारी सारी आवश्यकताएं पूरी हुईं| किसी बात की कमी नहीं रह गई|' बेणी <span>जी</span> ने साक्षात् दर्शन किए| वचन सुने पर जब आगे बढ़ कर नमस्कार करने लगे तो प्रभु अपनी माया शक्ति से अदृश्य हो गए|<br /><br />सारा कौतुक देखकर <span>भक्त</span> बेणी <span>भक्त</span>ि करने से उठे तथा खुशी से गद्गद् हो कर वापिस घर को चल दिए| जब घर आए तो उनकी पत्नी उनको प्रसन्नचित्त हो कर मिली| चरणों में माथा टेका, 'मुझे क्षमा करना नाथ! मैं तो भूल गई भूख ने तंग किया था| अयोग्य बातें मुंह से निकल गईं| मुझे क्षमा कीजिए, आप तो सब कुछ जानते हो| राजा का अहलकार सब कुछ दे गया| अब किसी बात की कमी नहीं| प्रभु ने बात सुन ली|'<br /><br />बेणी सुन कर प्रसन्न हो गया कि यह सब कुछ प्रभु <span>भक्त</span>ि का फल है, जो माया आई तथा साथ ही घर की माया (स्त्री) भी खुश हो गई|<br /><br />बेणी <span>जी</span> ने <span>भक्त</span>ि करते रहने का मन बना लिया तथा प्रसिद्ध <span>भक्त</span> बना| उनकी बाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब <span>जी</span> में भी विद्यमान है| आप की बाणी का शब्द है-<br /><br />तनि चंदनु मसतकि पाती || रिद अंतरि कर तल काती ||<br />ठग दिसटि बगा लिव लागा || देखि बैसनो प्रान मुख भागा ||१||<br />कलि भगवत बंद चिरांमं || क्रूर दिसटि रता निसि बादं ||१||रहाउ ||<br />नितप्रति इसनानु सरीरं || दुइ धोती करम मुखि खीरं ||<br />रिदै छुरी संधिआनी || पर दरबु हिरन की बानी ||२||<br />सिलपूजसि चक्र गनेसं || निसि जागसि भगति प्रवेसं ||<br />पग नाचसि चितु अकरमं || ए लंपट नाच अधरमं ||३||<br />म्रिग आसणु तुलसी माला || कर ऊजल तिलकु कपाला ||<br />रिदै कूडु कंठि रुद्रांख || रे लंपट क्रिसनु अभाखं ||४||<br />जिनि आतम ततु न चीन्हिआ || सभ फोकट धरम अबीनिआ ||<br />कहु बेणी गुरमुखि धिआवै ||बिनु सतिगुर बाट न पावै ||५||१||<br /><br />जिसका परमार्थ - उपदेश देते हैं, पंडित को कहते हैं, हे पंडित! जरा सुनो तो तुम्हारे हृदय में प्रभु <span>भक्त</span>ि भी है| ...तभी तो ब्राह्मण भूखे मरते हैं, <span>भक्त</span>ि नहीं करते अपितु आडम्बर करते हैं| आप फरमाते हैं - हे पंडित! तन को चंदन से तथा माथे को चंदन के पत्ते लगा कर शीतल रखते हो, पर कभी सोचा है तुम्हारे हृदय में तो कटार है| भाव खोट है| हरेक से धोखा करने तथा बगुले की तरह बेईमानी की समाधि लगा कर बैठते हो की कोई संदेह न करे जब मौका मिले तो खा पी जाए| उपर से तो विष्णु <span>भक्त</span> लगता है, जैसे ज्ञान नहीं होती तथा रात को सूरत कुत्ते की तरह हो जाती है| पाप कर्म की तरफ भागा फिरता हुआ काम क्रोध की तरफ जाता है| स्त्री का गुलाम बनता है| चोरी करके खाता है| दो धोती रखता, स्नान करता, जुबान से मीठे बोल बोलता है| मन में बेईमानी, पराया माल लूटने तथा उठाने की आदत है| आप का <span>जी</span>वन कैसा है?<br /><br />वाह रे पंडित! द्वारिका, काशी आदि जा कर तन पर कष्ट उठाता, पत्थर की पूजा करता हुआ पत्थर रूप बन गया है| लाभ कुछ नहीं| लोगों से माया लेने तथा धोखा करने के लिए नाचता है, गाता है तथा कई प्रकार की लीला करता है| वाह! तेरे ढ़ोंग कभी मृगछाला बिछा कर बैठ गया, कभी तुलसी की माला, चंदन का तिलक, जुबान से जाप, पर कभी यह नहीं सोचा कि हृदय किधर दौड़ता है| ख्याल तो नारी भोग की तरफ दौड़ते हैं| हे पंडित! यह दिखावा हैं| ज्ञान की आवश्यकता है| आवश्यकता है प्रभु को युद्ध हृदय से याद किया जाए| मन की वासनाएं रोकी जाए तो प्रभु परमात्मा से मेल होता है|<br /><br />ऐसा उपदेश देने लग पड़े| परमात्मा ने ऐसा भाग्य बनाया कि उनके घर में कोई भी कमी न रही| वह भजन बंदगी करते रहे| आज उनके नगर असनी में उनकी याद मनाई जाती है| प्रभु को जो स्मरण करते हैं, लोग उनको स्मरण करते हैं| ऐसी नाम की महिमा है| हे जिज्ञासु जनो! <span>भक्त</span>ि एवं नाम का सिमरन करो ताकि कलयुग में कल्याण हो|</span></span></span></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-579435122341576862024-03-06T00:00:00.001+05:302024-03-06T04:38:31.351+05:30भक्त परमानंद जी<div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">भक्त परमानंद जी</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-1FBmkSx475A/YI1qo7HZmcI/AAAAAAAAr5E/q8_vq6bS1Z0cqBD8mFptQUpxTpfBQMxBQCLcBGAsYHQ/s300/parmanand%2Bji.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="238" data-original-width="300" src="https://1.bp.blogspot.com/-1FBmkSx475A/YI1qo7HZmcI/AAAAAAAAr5E/q8_vq6bS1Z0cqBD8mFptQUpxTpfBQMxBQCLcBGAsYHQ/s0/parmanand%2Bji.gif" /></a></div><p style="text-align: center;"><span style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><b>भूमिका:<br /></b><br /></span></span></p><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">भक्त परमानंद जी अतीत ज्ञानी, विद्वान, हरि भक्त तथा कवि हुए हैं| </span></span></b></div><p style="text-align: center;"><span style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br />परिचय:<br /><br />आपका जन्म गाँव बारसी जिला शोलापुर में हुआ| आपका समय 1606 विक्रमी के निकट का है| जब भक्ति लय जोरो पर चल रही थी| आपने अधिकतर समय वृन्दावन में गुजारा| आप मुम्बई की तरफ के रहने वाले थे| </b><b><br /><br />आपने उपदेश दिया:<br /><br />हे मनुष्य! इतिहास की कथा सुनकर तुमने क्या किया| यह जो कथा कहानियाँ सुनी, वह नाशवान भक्ति है| सच्ची भक्ति तो तेरे अन्दर आई ही नहीं| सारी उमर डींगे मरता रहा| किसी भूखे को कमाई में से दान तक नहीं दिया| पराई निन्दा, क्रोध, लिंग वासना तो छोड़ी ही नहीं| यही बड़ी बीमारियाँ हैं| इसलिए तुमने जितनी भी भक्ति की वह भी व्यर्थ ही गई|<br /><br />हे पुरुष तुम रहा रोकते रहे| ताक भी लगाई रखी| ताले तोड़ दिए| इन कामों ने परलोक में तुम्हारी निन्दा कराई और निरादर भी हुआ| तुम्हारे यह सारे कार्य मूर्खो वाले हैं| तुमने शिकार खेलना नहीं छोड़ा| जीव हत्या करते रहे| कभी पक्षी पर भी दया नहीं की| और तो और सतसंग में जाकर हरि यश नहीं सुना| तो बताओ तुम्हारा कल्याण कैसे होगा? इस प्रकार उन्होंने सबको उपदेश दिया|<br /><br /><br />साहित्य देन:<br /><br />भक्त परमानंद जी के निम्नलिखित ग्रंथ मिलते हैं -<br /><br />परमानंद सागर<br />परमदास पद<br />दान लीला<br />ध्रुव चरित्र</b></span></span></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-92104362542567761002024-03-05T00:00:00.001+05:302024-03-05T07:27:41.568+05:30भक्त ध्रुव जी <div style="text-align: center;"><span style="background-color: white; color: #ffa400; text-align: left;"><span style="font-size: large;"><b>भक्त ध्रुव </b></span></span><b style="background-color: white; color: #ffa400;"><span style="font-size: large;">जी</span></b><span style="background-color: white; color: #ffa400;"> </span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=http://2.bp.blogspot.com/-RMlDhyJVgG8/UlEblweQlyI/AAAAAAAAH_4/c6Z3jUmmueE/s1600/dhruv.jpg&source=gmail&ust=1619966073844000&usg=AFQjCNF56vqY_aCNGmHeIs3CSvDWyca8hA" href="http://2.bp.blogspot.com/-RMlDhyJVgG8/UlEblweQlyI/AAAAAAAAH_4/c6Z3jUmmueE/s1600/dhruv.jpg" style="color: #4285f4; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-decoration-line: none;" target="_blank"><img border="0" height="258" src="https://2.bp.blogspot.com/-RMlDhyJVgG8/UlEblweQlyI/AAAAAAAAH_4/c6Z3jUmmueE/s400/dhruv.jpg" width="400" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div><b><span style="color: blue;">भूमिका:</span><br /><br /><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">जो भक्त करता है वह उत्तम पदवी, मोक्ष तथा प्रसिद्धि प्राप्त करता है| यह सब भगवान की लीला है| सतियुग में एक ऐसे ही भक्त हुए हैं जिनका नाम ध्रुव था|<br /><br /><br />परिचय:<br /><br />भक्त ध्रुव जी का जन्म राजा उतानपाद के महल में हुआ| राजा की दो रानियाँ थी| भक्त ध्रुव की माता का नाम सुनीती था| वह बड़ी धार्मिक, नेक व पतिव्रता नारी थी| छोटी रानी सुरुचि जो की बहुत सुन्दर, चंचल व ईर्ष्यालु स्वभाव की थी| उसने राजा को अपने वश में किया हुआ था| वह उसे अपने महल में ही रखती थी तथा उसका भी एक पुत्र था, जिसे राजा प्यार करता था| परन्तु छोटी रानी बड़ी रानी के पुत्र ध्रुव को राजा की गोद में बैठकर पिता के प्रेम का आनन्द न लेने देती| ध्रुव हमेशा यह सोचता कि जिस बालक को पिता का प्यार नहीं मिलता उस बालक का जीवन अधूरा है| </span></span></b><span style="background-color: white;"><b><span style="color: #2b00fe;"><br /><br />भाई गुरदास जी ने भक्त ध्रुव की जीव<wbr></wbr>न कथा इस प्रकार ब्यान की है:<br /><br />ध्रुव एक दिन बालको के साथ खेलता हुआ राजमहल में पहुँचा| उसे हँसता देखकर राजा के मन में पुत्र मोह उत्पन हों गया और उसे गोद में बिठा लिया| जब राजा पुत्र से प्रेम भरी बातें कर रहा था तो छोटी रानी वहाँ आ गई| वह जलन करने लगी क्योंकि वह अपने पुत्र को राजा बनाना चाहती थी| उसके मन में बहुत क्रोध आया| उसने शीघ्र ही बालक को बाजू से पकड़कर राजा की गोद से उठाकर कहा, "तुम राजा की गोद में नहीं बैठ सकते, निकल जाओ! इस महल में दोबारा इस ओर कभी मत आना|"<br /><br />राजा जो की रानी की सुंदरता का दास था वह रानी के सामने कुछ न बोल सका| वह उसे इतना तक नहीं कह सका कि उसे क्या अधिकार था, पिता की गोद से पुत्र को बाजू से पकड़कर उठाने का| दूसरी ओर ध्रुव दुःख अनुभव करता हुआ और आहें भरता हुआ अपने माता की ओर चला गया| वह मन में सोचने लगा, उसे अपने ही पिता की गोद से क्यों वंचित किया गया है? जैसे जैसे उसके कदम माँ की ओर बढ रहे थे उसका रुदन बढता जा रहा था| माँ के नजदीक पहुँचे ही उसकी सीखे निकाल गई जैसे किसी ने खूब पिटाई की हो|<br /><br />माँ ने पुत्र से पूछा कि तुम्हें क्या हुआ है? क्या किसी ने तुम्हें मारा है? मुझे रोने का कारण बताओ| पुत्र ने रोते रोते सारी बात बता दी कि छोटी माँ ने उसके साथ कैसा सलूक किया है| माँ ने कहा तुम्हें अपने पिता की गोद में नहीं बिठना चाहिए तुम्हारा कोई अधिकार नहीं| कोई अधिकार नहीं मेरे लाल! रानी ने पुत्र को गले से लगा लिया और उसकी आँखों में आँसू आ गए|<br /><br /><br />माँ ....... ! मुझे सत्य बताओ तुम रानी हो या दासी? मुझे कुछ पता तो चले|<br /><br />पुत्र! हूँ तो मैं रानी! पर ........! वह चुप कर गई|<br /><br />फिर पिता की गोद में क्यों नहीं बैठ सकता?<br /><br />माँ ने कहा तुमने भक्त नहीं की| भक्त न करने के कारण तुम्हारी यह दशा हो रही है| राज सुख भक्त करने वालो को ही प्राप्त होता है|<br /><br />माँ ! बताओ में क्या करू जिस से मुझे राज सुख मिले| मुझे कोई राज सिंघासन से न उठाए, कोई न डांटे|<br /><br />सात वर्ष के पुत्र को माँ ने कहा बेटा! परमात्मा की आराधना करनी चाहिए| जिससे राज सुख प्राप्त होता है|<br /><br />माँ का यह उत्तर सुनकर बालक ने कहा ठीक है माँ में भक्त करने जा रहा हूँ|<br /><br />तुम तो अभी बहुत छोटे हो और तुम्हारे जाने के बाद मैं क्या करूँगी| मुझे पहले ही कोई नहीं पूछता|<br /><br />रात हो गई पर ध्रुव को नींद न आई| उसके आगे वही छोटी माँ के दृश्य घूमने लगे| वह बेचैन होकर उठकर बैठ गया| सोई हुई माँ को देखकर राजमहल त्याग देने का इरादा और भी दृढ़ हो गया| भयानक जंगल में वह निर्भयता से चलता गया| शेर और बघेल दहाड़ रहे थे| परन्तु वह तनिक भी न डरा| उसका मासूम ह्रदय पुकारने लगा हे ईश्वर! मैं आ रहा हूँ| मैं आपका नाम नहीं जानता| मैं नहीं जानता कि आप कहाँ है| वह थककर धरती पर बैठ गया और उसे नींद आ गई| आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी| उसने पानी पिया और कहना शुरू किया, "ईश्वर! ईश्वर! मैं आया हूँ|" आवाज़ सुनते ही नारद मुनि आ गए|<br /><br />बालक ने पूछा क्या आप भगवान हैं?<br /><br />नारद ने उत्तर दिया नहीं! मैं ईश्वर नहीं, ईश्वर तो बहुत दूर रहते हैं|<br /><br />ध्रुव - मैं क्यों नहीं जा सकता?<br /><br />नारद - तुम्हारी आयु छोटी है| तुम राजा के पुत्र हो| मार्ग में भयानक जंगल है| भूत प्रेत तुम्हें खा जाएगें| भूख, प्यास, बिजली, बारिश, शीत तथा गर्मी आदि तुम्हारा शरीर सहन नहीं कर सकता| आओ मैं तुम्हें तुम्हारे पिता के पास ले चलूँ वह तुम्हें आधा राज दे देगा|<br /><br />ध्रुव हँस पड़ा, "आधा राज!" अभी मैं परमात्मा के दर्शन करने जा रहा हूँ, अगर दर्शन कर लूँगा आधा राज तो क्या पूरा राज अवश्य मिल जाएगा| उसने नारद से कहा मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं| आप मुझे परमात्मा की भक्ति से रोक रहे हो तो आप मेरे दुश्मन हो| आपके लिए केवल येही अच्छा है कि आप यहाँ से चले जाओ| मुझे कोई भूत प्रेत खाये इससे आपको क्या|<br /><br />बालक के दृढ़ विश्वक को देखकर नारद ने उपदेश दिया - ठीक है तुम कोई महान आत्मा हो| इसलिए यह मन्त्र याद कर लो कोई विघ्न नहीं पड़ेगा| तुम्हारे सारे कार्य पूरे होंगे|<br /><br />"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" और आँखें बन्द कर "केशव कलेष हरि" हरि का ध्यान करते रहना|<br /><br />दूसरी और माँ सुनीति जाग गई, महल मैं शोर मच गया| माँ की आँखों के आगे अँधेरा छा गया उसके सिर के बाल गले में अपने आप ही बिखर गए| राजा ने छोटी रानी ने यह कहकर रोक दिया कि उसने कोई चालाकी की होगी| यह सुनकर राजा रुक गया| उसी समय नारद जी आ गए| नारद जी ने बताया कि आपका पुत्र गुम नहीं हुआ| वह तो तपो वन में जाकर भक्त करने लग गया है| हे राजन! उस मासूम का ह्रदय दुखाकर आपने बहुत बड़ी भूल की है| यह सुनकर राजा बहुत लजित हुआ| उसने नारद से कहा आप उसे वपिस ले आए मैं उसे आधा राज दे दूँगा| लेकिन मैं यह नहीं देख सकता कि मेरा पुत्र भूक प्यास से मरे| नारद ने उत्तर दिया वह आएगा नहीं अवश्य ही तपस्या करेगा|<br /><br />इसके पश्चात नारद जी माँ सुनीति के पास गए और यह कहकर हौंसला दिया कि हे रानी आपकी गोद सफल हुई चिंता न करें| आपका पुत्र महान भक्त बनेगा| राजा भी जंगल में उसे लेने गया परन्तु वह निराश होकर वापिस आ गया| राजा के जाने से ध्रुव का विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भक्त करना उचित है|<br /><br />इंद्र देवता ने माया के बड़े चमत्कार दिखाए और अंत में एक दानव को भी भेजा| उसने अँधेरी, बारिश, ओले, वृष गुराए और धरती को हिला दिया परन्तु ध्रुव अडिग बैठा रहा| उसने इंद्र को ही भयभीत कर दिया| इंद्र विष्णु भगवान के पास आया और कहने लगा - प्रभु! ध्रुव तपस्या कर रहा है कहीं.......! इंद्र की बात पूरी न हुई परन्तु विष्णु भगवान सारी बात समझ गए और कहने लगे उसकी इच्छा तुम्हारा राज लेने की नहीं है| वह तो अपने परमात्मा का ध्यान कर रहा है| उसे ऊँची पदवी व संसार में प्रसिद्धि प्राप्त होगी|<br /><br />भगवान ने वैसा ही रूप धारण किया जैसा ध्रुव ने सोचा था| ध्रुव भगवान के दार्शन करके बहुत प्रसन्न हुआ| उसकी प्रसन्नता देखकर श्री हरि ने वचन किया - "घोर तपस्या द्वारा तुमने हमारा मन मोह लिया है जब तक सृष्टि है तब तक तुम्हारी भक्त व नाम प्रसिद्ध रहेगा| जाओ राज सुख प्राप्त होगा और तुम्हारा नाम सदा अमर रहेगा|" यह वर देकर भक्त को घर भेजकर भगवान विष्णु अपने आसन की ओर चल पड़े|<br /><br />राजा स्वम रथ लेकर अपने पुत्र का स्वागत करने के लिए खुशी से आया| प्रजा ने मंगलाचार व खुशी मनाई| राजा ने अपना सारा शासन उसे सौंप दिया| श्री हरि के वरदान से ध्रुव का नाम राज करने के बाद संसार में अमर हो गया| आज उसे ध्रुव तारे के नाम से याद किया जाता है| वह जीवन का एक अमिट और अडोल केन्द्र है|</span></b></span></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-63723820283716050202024-03-04T00:00:00.001+05:302024-03-04T07:21:52.088+05:30भक्त धन्ना जी<div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">भक्त धन्ना जी</span></span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-U0OdOT8jgj0/YI1noSfgGBI/AAAAAAAAr4c/kxzymM36MwM7ABWPjqOXbUny8nLXaaH1wCLcBGAsYHQ/s600/dhanna%2Bji.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="600" src="https://1.bp.blogspot.com/-U0OdOT8jgj0/YI1noSfgGBI/AAAAAAAAr4c/kxzymM36MwM7ABWPjqOXbUny8nLXaaH1wCLcBGAsYHQ/s320/dhanna%2Bji.jpg" width="320" /></a></div><p style="text-align: center;"><span style="background-color: white; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;"><b>परिचय: </b><b>भक्त धन्ना जी का जन्म श्री गुरु नानक देव जी से पूर्व कोई 53 वर्ष पहले माना जाता है| आपका जन्म मुंबई के पास धुआन गाँव में एक जाट घराने में हुआ| आप के माता पिता कृषि और पशु पालन करके अपना जीवन यापन करते थे| वह बहुत निर्धन थे| जैसे ही धन्ना बड़ा हुआ उसे भी पशु चराने के काम में लगा दिया| वह प्रतिदिन पशु चराने जाया करता|</b></span></span></p><div><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br />गाँव के बाहर ही कच्चे तालाब के किनारे एक ठाकुर द्वार था जिसमे बहुत सारी ठाकुरों की मूर्तियाँ रखी हुई थी| लोग प्रतिदिन वहाँ आकर माथा टेकते व भेंटा अर्पण करते| धन्ना पंडित को ठाकुरों की पूजा करते, स्नान करवाते व घंटियाँ खड़काते रोज देखता| अल्पबुद्धि का होने के कारण वह समझ न पाता| एक दिन उसके मन में आया कि देखतें हैं कि क्या है| उसने एक दिन पंडित से पूछ ही लिया कि आप मूर्तियों के आगे बैठकर आप क्या करते हो? पंडित ने कहा ठाकुर की सेवा करते हैं| जिनसे कि मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं| धन्ने ने कहा, यह ठाकुर मुझे भी दे दो| उससे छुटकारा पाने के लिए पंडित ने कपड़े में पत्थर लपेटकर दे दिया|<br /><br />घर जाकर धन्ने ने पत्थर को ठाकुर समझकर स्नान कराया और भोग लगाने के लिए कहने लगा| उसने ठाकुर के आगे बहुत मिन्नते की| धन्ने ने कसम खाई कि यदि ठाकुर जी आप नहीं खायेंगे तो मैं भी भूखा ही रहूंगा| उसका यह प्रण देखकर प्रभु प्रगट हुए तथा रोटी खाई व लस्सी पी| इस प्रकार धन्ने ने अपने भोलेपन में पूजा करने और साफ मन से पत्थर में भी भगवान को पा लिया|<br /><br />जब धन्ने को लगन लगी उस समय उसके माता - पिता बूढ़े हों चूके थे और छ अकेला नव युवक था| उसे ख्याल आया कि ठाकुर को पूजा से खुश करके यदि सब कुछ हासिल किया जा सकता है तो उसे अवश्य ही यह करना होगा जिससे घर की गरीबी चली जाए तथा सुख की साँस आए| ऐसा सोच कर ही वह पंडित के पास गया| पंडित ने पहले ठाकुर देने से मना के दिया कि जाट इतना बुद्धिमान नहीं होता कि वह ठाकुर की पूजा कर सके| दूसरा तुम अनपढ़ हो| तीसरा ठाकुर जी मन्दिर के बिना कही नहीं रहते और न ही प्रसन्न होते| इसलिए तुम जिद्द मत करो और खेतों की संभाल करो| ब्रहामण का धर्म है पूजा पाठ करना| जाट का कार्य है अनाज पैदा करना|</b><b><br />परन्तु धन्ना टस से मस न हुआ| अपनी पिटाई के डर से पंडित ने जो सालगराम मन्दिर में फालतू पड़ा था उठाकर धन्ने को दे दिया और पूजा - पाठ की विधि भी बता दी| पूरी रात धन्ने को नींद न आई| वह पूरी रात सोचता रहा कि ठाकुर को कैसे प्रसन्न करेगा और उनसे क्या माँगेगा| सुबह उठकर अपने नहाने के बाद ठाकुर को स्नान कराया| भक्ति भाव से बैठकर लस्सी रिडकी व रोटी पकाई| उसने प्रार्थना की, हे प्रभु! भोग लगाओ! मुझ गरीब के पास रोटी, लस्सी और मखन ही है और कुछ नहीं| जब और चीजे दोगे तब आपके आगे रख दूँगा| वह बैठा ठाकुर जी को देखता रहा| अब पत्थर भोजन कैसे करे? पंडित तो भोग का बहाना लगाकर सारी सामग्री घर ले जाता था| पर भले बालक को इस बात का कहाँ ज्ञान था| वह व्याकुल होकर कहने लगा कि क्या आप जाट का प्रसाद नहीं खाते? दादा तो इतनी देर नहीं लगाते थे| यदि आज आपने प्रसाद न खाया तो मैं मर जाऊंगा लेकिन आपके बगैर नहीं खाऊंगा|<br /><br />प्रभु जानते थे कि यह मेरा निर्मल भक्त है| छल कपट नहीं जानता| अब तो प्रगट होना ही पड़ेगा| एक घंटा और बीतने के बाद धन्ना क्या देखता है कि श्री कृष्ण रूप भगवान जी रोटी मखन के साथ खा रहे हैं और लस्सी पी रहें हैं| भोजन खा कर प्रभु बोले धन्ने जो इच्छा है मांग लो मैं तुम पर प्रसन्न हूँ| धन्ने ने हाथ जोड़कर बिनती की --<br /><br />भाव- जो तुम्हारी भक्ति करते हैं तू उनके कार्य संवार देता है| मुझे गेंहू, दाल व घी दीजिए| मैं खुश हो जाऊंगा यदि जूता, कपड़े, साथ प्रकार के आनाज, गाय या भैंस, सवारी करने के लिए घोड़ी तथा घर की देखभाल करने के लिए सुन्दर नारी मुझे दें|<br /><br />धन्ने के यह वचन सुनकर प्रभु हँस पड़े और बोले यह सब वस्तुएं तुम्हें मिल जाएँगी|<br /><br />प्रभु बोले - अन्य कुछ?<br /><br />प्रभु! मैं जब भी आपको याद करू आप दर्शन दीजिए| यदि कोई जरुरत हुई तो बताऊंगा|<br /><br />तथास्तु! भगवान ने उत्तर दिया|<br /><br />हे प्रभु! धन्ना आज से आपका आजीवन सेवक हुआ| आपके इलावा किसी अन्य का नाम नहीं लूँगा| धन्ना खुशी से दीवाना हो गया| उसकी आँखे बन्द हो गई| जब आँखे खोली तो प्रभु वहाँ नहीं थे| वह पत्थर का सालगराम वहाँ पड़ा था| उसने बर्तन में बचा हुआ प्रसाद खाया जिससे उसे तीन लोको का ज्ञान हो गया|<br /><br />प्रभु के दर्शनों के कुछ दिन पश्चात धन्ने के घर सारी खुशियाँ आ गई| एक अच्छे अमीर घर में उसका विवाह हो गया| उसकी बिना बोई भूमि पर भी फसल लहलहा गई| उसने जो जो प्रभु से माँगा था उसे सब मिल गया|<br /><br />किसी ने धन्ने को कहा चाहे प्रभु तुम पर प्रसन्न हैं तुम्हें फिर भी गुरु धारण करना चाहिए| उसने स्वामी रामानंद जी का नाम बताया| एक दिन अचानक ही रामानंद जी उधर से निकले| भक्त धन्ने ने दिल से उनकी खूब सेवा की तथा दीक्षा की मांग की| रामानंद जी ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और दीक्षा देकर धन्ने को अपना शिष्य बना लिया| धन्ना राम नाम का सिमरन करने लगा| मौज में आकर धन्ना कई बार भगवान को अपने पास बुला लेता और उनसे अपने कार्य पूर्ण करवाता|</b></span></span></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-72368010439014132552024-03-03T00:00:00.001+05:302024-03-03T04:41:30.121+05:30भक्त सैन जी<div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">भक्त सैन जी</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=http://2.bp.blogspot.com/-dmuFURPDvZY/UkwmWmagnSI/AAAAAAAAH-s/tqf2W-YGPo4/s1600/bhagat%252520sain%252520ji.jpg&source=gmail&ust=1619699276590000&usg=AFQjCNFeBZ0CdVpzzxrnxPdphKzZdO02uQ" href="http://2.bp.blogspot.com/-dmuFURPDvZY/UkwmWmagnSI/AAAAAAAAH-s/tqf2W-YGPo4/s1600/bhagat%2520sain%2520ji.jpg" style="color: #4285f4; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-decoration-line: none;" target="_blank"><img border="0" height="400" src="https://2.bp.blogspot.com/-dmuFURPDvZY/UkwmWmagnSI/AAAAAAAAH-s/tqf2W-YGPo4/s400/bhagat%2520sain%2520ji.jpg" width="353" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">भूमिका:</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">भक्तों की महिमा अनन्त है| हजारों ही ऐसे भक्त हैं जिन्होंने परमात्मा का नाम जप कर भक्ति करके संसार में यश कमाया| ऐसे भक्तों में "सैन भगत जी" का भी नाम आता है|</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">परिचय:</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">श्री सैन जी के जन्म व परिवार के विषय में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती| परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह जाति से नाई थे| उनकी बाणी का शब्द भी है -</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">धूप दीप घ्रित साजि आरती || वारने जाउ कमला पती || १ ||</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">मंगला हरि मंगला || नित मंगलु राजा राम राइ को || १ || रहाउ ||</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">ऊतमु दीअरानिरमल बाती || तुंही निरंजनु कमला पाती || २ ||</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">रामा भगति रामानंदु जानै || पूरन परमानंदु बखानै || ३ ||</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">मदन मूरति भै तारि गोबिंदे || सैनु भणै भजु परमानंदे || ४ || २ ||</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सैन जी के समय में भक्ति की लहर का जोर था| भक्त मंडलियाँ काशी व अन्य स्थानों में बन चुकी थी| भक्त मिलकर सतसंग किया करते थे| सैन नाई जी एक राजा के पास नौकर थे| वह सुबह जाकर मालिश व मुठी चापी किया करते थे| </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">एक दिन संत आ गए| सारी रात कीर्तन होना था| प्रभु भक्ति में सैन जी इतने मग्न थे कि उन्हें राजा के पास जाने का ख्याल ही न रहा| संत सारी रात कीर्तन करते रहे| </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">राजा ने सुबह उठना था और उसकी सेवा होनी थी| अपने भक्त की लाज रखने के लिए भक्तों के रक्षक ईश्वर को सैन जी का रूप धारण करके राजा के पास आना पड़ा| भगवान ने राजा की सेवा इतनी श्रद्धा के साथ की कि राजा प्रसन्न हो गया| प्रसन्न होकर उसने अपने गले का हार उतारकर सैन जी के भ्रम में भगवान को दे दिया| भगवान मुस्कराए और हार ले लिया| अपनी माया शक्ति से उन्होंने वह हार सैन जी के गले में डाल दिया और उनको पता तक न लगा| प्रभु भक्तों के प्रेम में ऐसा बन्ध जाता कि वश में होकर कहीं नहीं जाता| </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सुबह हुई| सैन जी को होश आया कि वह महल में नहीं गए तो राजा नाराज़ हो जाएगा| यह सोचकर वह महल की तरफ चल पड़े| आगे राजा बाधवगढ़ अपने महल में टहल रहा था| उसने स्नान करके नए वस्त्र पहन लिए थे| सैन उदासी के साथ राजा के पास पहुँचा तो राजा ने पूछा, "सैन! अब फिर क्यों आए? क्या किसी और चीज़ की जरूरत है? आज तुम्हारी सेवा से हम बहुत खुश हुए हैं|" </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सैन ने सोचा कि राजा मेरे से नाराज़ है| उसने कांपते हुए बिनती की, महाराज! क्षमा कीजिए, मैं नहीं आ सका| भक्त जन आ गए थे तो रात भर कीर्तन होता रहा| यह बात सुनकर राजा बहुत हैरान हुआ| उसने कहा "आज तुम्हें क्या हो गया है, यह कैसी बातें कर रहे हो, मेरे पास तुम समय पर आए| सोए को उठाया, नाख़ून काटे, मालिश की, स्नान करवाया, कपड़े पहनाए तथा मैंने प्रसन्न होकर अपना हार उतारकर तुझे दिया| वह हार आज तुम्हारे गले में है|"</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सैन ने देखा उसके गले में सचमुच ही हार था| उस समय उसे ज्ञान हुआ तथा राजा को कहने लगा, यह सत्य है महाराज! मैं नहीं आया| मैं जिसकी भक्ति कर रहा था, उसने स्वयं आकर मेरा कार्य किया| यह माला आपने भगवान के गले में डाल दी थी और भगवान अपनी शक्ति से मेरे गले में डाल गए| यह तो प्रभु का चमत्कार है| </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">यह सुनकर राजा बहुत हैरान हुआ| वह सैन जी चरणों में नतमस्तक होकर कहने लगा, भक्त जी! अब आपको राज्य की तरफ से खर्च मिला करेगा अब आप बैठकर भक्ति किया करें| </span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">ऐसे हुए भक्त सैन नाई जी| कबीर और रविदास जी की तरह आप की महिमा बेअन्त है| इस भक्त के बारे में भाई गुरदास जी लिखते हैं -</span></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सुन प्रताप कबीर दा दूजा सिख होआ सैन नाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">प्रेम भगति राती करे भलके राज दुवारै जाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">आए संत पराहुने कीरतन होआ रैनि सबाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">छड न सकै संत जन राज दुआरि न सेव कमाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">सैन रूप हरि होई कै आया राने नों रिझाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">रानै दूरहु सद के गलहु कवाई खोल पैन्हाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">वस कीता हऊ तुध अ़ज बोलै राजा सुनै लुकाई|</span></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;">प्रगट करै भगतां वडिआई|</span></span></b></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-79552933459638581942024-03-02T00:00:00.001+05:302024-03-02T04:53:33.500+05:30भक्त भीखण जी<div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">भक्त भीखण जी</span></span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div><br /></div></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=http://2.bp.blogspot.com/-IqrIdPLAKa8/UkwkqWkDeUI/AAAAAAAAH-U/99-BrlTEUFE/s1600/800-Bhagat-Bhikhan-Shah.jpg&source=gmail&ust=1619699276584000&usg=AFQjCNHivZJskgpenBhTm5OILkCJLy7J8g" href="http://2.bp.blogspot.com/-IqrIdPLAKa8/UkwkqWkDeUI/AAAAAAAAH-U/99-BrlTEUFE/s1600/800-Bhagat-Bhikhan-Shah.jpg" style="color: #4285f4; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-decoration-line: none;" target="_blank"><img border="0" height="295" src="https://2.bp.blogspot.com/-IqrIdPLAKa8/UkwkqWkDeUI/AAAAAAAAH-U/99-BrlTEUFE/s400/800-Bhagat-Bhikhan-Shah.jpg" width="400" /></a></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><br /></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">भूमिका:</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">न्यौछावर जाए शहीदों के सिरताज, ब्रह्म ज्ञानी आप परमेश्वर सतिगुरु अर्जन देव जी के, जिन्होंने हर एक महापुरुष तथा परमेश्वर भक्त का सत्कार किया| हिन्दू मुसलमान के सत्कार के साथ उनका भी आदर सत्कार किया, जिनको ब्रह्मण समाज निम्न समझता था| मनव जाति का सत्कर किया|</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><br /></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">परिचय:</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">भीखण जी मुसलमान फकीर थे| आपका सम्बन्ध सूफियों के साथ था तथा प्रसिद्ध फकीर सैयद पीर इब्राहीम के शिष्य थे| आपका जन्म लखनऊ के गाँव काकोरी में हुआ| आपका समय 15वीं विक्रमी के पूर्व मध्य में हुआ| आप एक महान फकीर व भक्त हुए हैं| </span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">जब सतिगुरु जी श्री गुरुग्रंथ साहिब की रचना कर रहे थे तो भगत भीखण जी की भी बाणी प्राप्त हुई| इनके दो शब्द गुरुग्रंथ साहिब में भी लिखवाए गए| इनकी बाणी बैराग्य से भरी हुई व कल्याण के मार्ग की ओर ले जाने वाली है| </span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">मनुष्य के शारीरिक रूप से तीन जन्म होते हैं-</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">बचपन</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">किशोरा अवस्था</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">बुढ़ापा</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">जीवन की पहली दो अवस्थाए बचपन व किशोरा अवस्था में नेकी की तरफ ध्यान नहीं जाता परन्तु बुराई की ओर ही भागता है| परन्तु जब वह बुजुर्गी की अवस्था में आता है तो पश्चाताप से भार जाता है| आप फरमाते हैं - बुढ़ापा आया आँखों से पानी बहता रहा| शरीर कमजोर हो गया| बाल दूध जैसे सफ़ेद हो गए| बोलने लगता है तो गले में बलगम आ जाती है बोला नहीं जाता| उस समय प्रभु का नाम लेना चाहता है परन्तु नहीं ले पता| वह कहता है हे प्रभु! आप ही वैद बनो मेरा रोग दूर करो| मेरे शरीर में कंपकपी आ गई है|</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">भक्त खुद ही उत्तर देते हैं ऐसे रोगों की दवा दुनिया के पास नहीं मिलती| इलाज है - हरि नाम, प्रभु का सिमरन करना| परन्तु ऐसा गुरु की कृपा से ही संभव हो सकता है जब मन भक्ति की तरफ लगता है| इसके पश्चात मोक्ष स्वम ही प्राप्त हो जाता है| वास्तव में भक्ति करने का समय सदैव ही होता हो| इसलिए मनुष्य को बचपन से ही भक्ति की तरफ बढ़ना चाहिए| भक्ति ही तो है जो इंसान को निम्न से ऊँचा व श्रेष्ठ बनाती है|</span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;"><br /></span></b></div><div style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: justify;"><div style="margin: 0px;"><b><span style="background-color: white; color: #2b00fe;">भीखण जी का देहांत 1631 विक्रमी में हुआ माना जाता है|</span></b></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-15466065275256611802024-03-01T00:00:00.001+05:302024-03-01T05:13:28.652+05:30संत तुलसीदास जी<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: center;"><b style="font-size: 12.8px;"><span style="background-color: white; font-size: large;"><span style="color: #ffa400;">संत तुलसीदास जी</span></span></b></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><b style="color: #e97b00; font-family: mangal, serif; font-size: large;"><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div></b></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px; text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=http://1.bp.blogspot.com/-V4_1t0wWm60/UkwjXMOQ3HI/AAAAAAAAH-E/oPUvYEaba5I/s1600/tulsidas.jpg&source=gmail&ust=1619699276573000&usg=AFQjCNFJ0fpovviacCy4l9wLviQQmQtMMQ" href="http://1.bp.blogspot.com/-V4_1t0wWm60/UkwjXMOQ3HI/AAAAAAAAH-E/oPUvYEaba5I/s1600/tulsidas.jpg" style="background-color: white; color: #4285f4; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-decoration-line: none;" target="_blank"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-V4_1t0wWm60/UkwjXMOQ3HI/AAAAAAAAH-E/oPUvYEaba5I/s400/tulsidas.jpg" width="281" /></a></div><p style="text-align: center;"><span face="sans-serif" style="background-color: white; font-size: 12.8px; text-align: left;"><b><span style="color: #2b00fe;">भूमिका:<br /><br />श्रीमद भागवत के बाद दूसरे स्थान पर भारतीय जन मानस को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला ग्रंथ रामचरितमानस ही रहा है| ये दोनों ग्रंथ ही सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं|<br /><br /><br />राम भक्ति शाखा के शिरोमणि तुलसी दास जी रामचरितमानस ग्रंथ के रचियता कहे जाते हैं| जिसके तन और मन में राम हों वही ऐसे भक्ति रस से परिपूर्ण ग्रंथ रचना कर सकता है| तुलसीदास जी ऐसे ही व्यक्ति थे| गुरु ने बचपन में ही उनका नाम "रामबोला" रख दिया था|<br /><br />परिचय:<br /><br />तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजपुर गाँव में हुआ| इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम तुलसी था| आप की शारीरिक देह पांच वर्ष के बालक जैसी थी| सामान्यता प्रत्येक बच्चा रोते हुए जन्म लेता है परन्तु इस विलक्षण बालक ने रोने की बजाए "राम" शब्द का उच्चारण किया था| कहा जाता है कि जन्म के समय इनके मुख में पूरे बत्तीस दांत थे|<br /><br />इस विचित्र बालक की विलक्षणता को लेकर माता-पिता को अनिष्ट की आशंका हुई| उन्होंने तब अपने बालक को अपनी सेविका चुनिया को सोंप दिया| वह उसे अपने ससुराल ले गई| जब तुलसीदास जी साढे पांच वर्ष के हुए तो चुनिया इस संसार को छोड़ के चली गई| तब इस बालक पर अनंतानंद जी के शिष्य नरहरि आनन्द की दृष्टि पड़ी| वह तुलसीदास जी को अपने साथ अयोध्या ले गए| उन्होंने ही उनका नाम रामबोला रखा| तुलसीदास का विवाह रत्नावली जी से हुआ|<br /><br />प्रभु भक्ति की प्रेरणा:<br /><br />तुलसीदास जी अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे| वह अपनी पत्नी का विछोड़ा एक दिन के लिए भी सहन नहीं कर सकते थे| एक बार उनकी पत्नी उनको बताए बिना मायके आ गई| तुलसीदास जी उसी रात छिपकर ससुराल पहुँच गए| इससे उनकी पत्नी को बहुत शर्म महसूस हुई|<br /><br />वह तुलसीदास जी से कहने लगी, "मेरा शरीर तो हाड-मास का पुतला है| जितना तुम इस शरीर से प्रेम करते हो यदि उससे आधा भी भगवान श्री राम जी से करोगे तो इस संसार के माया जाल से मुक्त हो जाओगे| तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा|"<br /><br />तुलसीदास के मन पर इस बात का गहरा प्रभाव पड़ा| वह उसी क्षण वहाँ से निकाल पड़े और अपना सब कुछ छोडकर भारत के तीर्थ स्थलों के दर्शन को चल दिए| कहते हैं कि हनुमान जी की कृपा से उन्हें भगवान राम जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन राम जी की महिमा में लगा दिया|<br /><br />साहित्यक देन:<br /><br />तुलसीदास जी का काव्य लेखन केवल रामचरितमानस तक ही सीमित न रहा| इन्होने कवितावली, दोहावली, गीतावली व विनय पत्रिका जैसी रचनाएँ भी लिखी हैं| तुलसीदास जी ने बारह पुस्तकें लिखी जिसमे रामचरितमानस सबसे अधिक प्रसिद्ध है| इन्ही को बाल्मीकि का अवतार माना जाता है जिन्होंने संस्कृत में रामायण लिखी थी|<br /><br />इनका लेखन अवधी व ब्रज भाषा दोनों में मिलता है| जन मानस को अधिक प्रभावित करने वाला ग्रंथ रामचरितमानस की रचना लोक भाषा में हुई| उस काल में प्रचलित दोहा, चौपाई, कविता व सवैया और पद लेखन की गीति शैली को भी अपनाया गया|</span></b></span></p><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-5099609009577343922024-02-29T00:00:00.001+05:302024-02-29T04:39:06.294+05:30भक्त नामदेव जी <p style="text-align: center;"><span style="color: #e69138; font-family: sans-serif; font-size: large;"><b>भक्त नामदेव जी</b></span><span style="font-family: sans-serif; font-size: large;"> </span></p><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/8837172169183017105%23&source=gmail&ust=1619339834045000&usg=AFQjCNHCnrKwE2re2_58qQptocCMruLfrA" href="https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/8837172169183017105#" rel="noreferrer" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" height="400" src="https://3.bp.blogspot.com/-igGKhiZQExs/UkwhtCAyeFI/AAAAAAAAH9o/6vmz0u3uCbI/s400/Namdev-11.jpg" width="291" /></a></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: center;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: center;"><div style="text-align: justify;"><strong><span style="color: blue;">भूमिका:</span></strong></div><br /><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">परमात्मा ने सब जीवो को एक - सा जन्म दिया है| माया की कमी या फिर जीवन के धंधो के कारण लोगो तथा कई चालाक पुरुषों ने ऐसी मर्यादा बना दी कि ऊँच - नीच का अन्तर डाल दिया| उसी अन्तर ने करोडों ही प्राणियों को नीचा बताया| परन्तु जो भक्ति करता है वह नीच होते हुए भी पूजा जाता है| भक्ति ही भगवान को अच्छी लगती है| भक्ति रहित ऊँचा जीवन शुद्र का जीवन है| </span></div><span><strong></strong></span><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">परिचय:</span></strong></strong></div><span><strong></strong></span><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">भक्त नामदेव जी का जन्म जिला सतार मुंबई गाँव नरसी ब्राह्मणी में कार्तिक सुदी संवत 1327 विक्रमी को हुआ| आपकी माता का नाम गोनाबाई तथा पिता का नाम सेठी था| ये छींबा जाति से सम्बन्ध रखते थे|वे कपड़े धोते व छापते थे| सेठी बहुत ही नेक पुरुष था|वे सदा सच बोलते व कर्म करते रहते थे|</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">पिता की नेकी का असर पुत्र पर भी पड़ा| वहा भी साधू संतो के पास बैठता| वह उनसे उपदेश भरे वचन सुनता रहता| उनके गाँव मैं देवता का मन्दिर था| जिसे विरोभा देव का मन्दिर कहा जाता था| वहाँ जाकर लोग बैठते व भजन करते थे| वह भी बच्चो को इकट्ठा करके भजन - कीर्तन करवाता| सभी उसको शुभ बालक कहते थे| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">वह बैरागी और साधू स्वभाव का हो गया| कोई काम काज भी न करता और कभी - कभी काम काज करता हुआ राम यश गाने लगता| एक दिन पिता ने उससे कहा - बेटा कोई काम काज करो| अब काम के बिना गुजारा नहीं हो सकता| कर्म करके ही परिवार को चलाना है| अब तुम्हारा विवाह भी हो चुका है|</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">"विवाह तो अपने कर दिया" नामदेव बोला| लेकिन मेरा मन तो भक्ति में ही लगा हुआ है| क्या करूँ? जब मन नहीं लगता तो ईश्वर आवाजें मरता रहता है| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बेटा! भक्ति भी करो| भक्ति करना कोई गलत कार्य नहीं है लेकिन जीवन निर्वाह के लिए रोजी भी जरुरी है| वह भी कमाया करो| ईश्वर रोजी में बरकत डाले गा| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">नामदेव जी की शादी छोटी उम्र में ही हो गई| उनकी पत्नी का नाम राजाबाई था| नामदेव का कर्म - धर्म भक्ति करने को ही लोचता था| पर उनकी पत्नी ने उन्हें व्यापार कार्य में लगा दिया| परन्तु वह असफल रहा| </span></div><span><strong></strong></span><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">भाई गुरदास जी भी फरमाते हैं - </span></strong></strong></div><span><strong></strong></span><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">३६६</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">भक्त नामदेव जी जो जाति से छींबा थे अपना ध्यान प्रभु भक्ति में लगाया हुआ था| एक दिन उच्च जाति के क्षत्रिय व ब्राह्मण मन्दिर में बैठकर प्रभु यश गान कर रहे थे| जब उन्होंने देखा कि निम्न जाति का नामदेव उनके पास बैठ कर प्रभु की भक्ति कर रहा है, तो उन्होंने उसे पकड़कर संगत से उठा दिया| वह देहुरे मन्दिर के पिछले भाग के पास जाकर प्रभु का नाम जपने लगा| भगवान ने ऐसी लीला रची कि देहुरे का मुँह घुमा दिया| यह उस तरफ हो गया जहाँ नामदेव जी बैठे थे| उच्च जाति के लोग यह देखकर हैरान रह गए| प्रभु के दर पर तो निमानो को भी मान मिलता है| प्रभु का प्रेम भी निम्न लोगों की ओर ही जाता है| जैसे नीर नीचे स्थान की ओर बहता है ऊँचाई की तरफ नहीं जाता|</span></div><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">ठाकुर को दूध पिलाना:</span></strong></strong></div><span><strong></strong></span><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे| उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना| जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना| देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे|</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे| जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे| नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे| उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए| भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की - </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">३६९</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">हे प्रभु! यह दूध मैं कपला गाय से दोह कर लाया हूँ| हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे| सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है| पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया| यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें| पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं| यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं| पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे|</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया| उस मासूम बच्चे को पंडितो की बईमानी का पता नहीं था| वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा| अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए| पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे| नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है - </span></div><pre><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">
</span></div><span>
</span><div style="text-align: justify;"><span>
<span style="color: blue;">ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै|| </span></span></div><span>
</span><div style="text-align: justify;"><span>
<span style="color: blue;">नामे देखि नराइनु हसै|| (पन्ना ११६३)</span></span></div><span>
</span><div style="text-align: justify;"><br /></div></pre><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">एक भक्त प्रभु के ह्रदय में बस गया| नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े| हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया| दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई| </span></div><pre><span>
</span><div style="text-align: justify;"><span>
<span style="color: blue;">दूधु पीआई भगतु घरि गइआ || </span></span></div><span>
</span><div style="text-align: justify;"><span>
<span style="color: blue;">नामे हरि का दरसनु भइआ|| (पन्ना ११६३ - ६४)</span></span></div><div style="text-align: justify;">
</div></pre><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए| इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए| यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">शुद्ध ह्रदय से की हुई प्रर्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई| वह भक्ति भव वाले हो गए और जो वचन मुँह निकलते वही सत्य होते| जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने समझा उनकी कुल सफल हो गई है| </span></div><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">परलोक गमन:</span></strong></strong></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधू संतो से भ्रम दूर करते रहे| ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई त्यों त्यों आपका यश फैलता गया| आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया| आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए| अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए| अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">साहित्यक देन:</span></strong></strong></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue; font-family: "times new roman";">नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती हैं| बहुत सारी बाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है| आपकी बाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है| </span></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-90340041771119059452024-02-28T00:00:00.001+05:302024-02-28T03:25:49.389+05:30भक्त रहीम जी<p style="text-align: center;"><b style="font-family: "times new roman";"><span style="color: #e69138; font-size: large;">भक्त रहीम जी</span></b></p><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/3232077027090354605%23&source=gmail&ust=1619339175293000&usg=AFQjCNFzsy0Z-8DLIRa9FFeNLLp5wnwJsQ" href="https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/3232077027090354605#" rel="noreferrer" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" height="311" src="https://2.bp.blogspot.com/-wDPe__vETtY/Ukwf4A-m59I/AAAAAAAAH9c/5AJr2gD4JoQ/s320/rahim_khankhana2.jpg" width="320" /></a></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><br /><div style="text-align: justify;"><strong><span style="color: blue;">भूमिका:</span></strong></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">अब्दुल रहीम खानखाना का नाम हिन्दी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण रहा है| इनका नाम साहित्य जगत में इतना प्रसिद्ध है कि इन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है| </span></div><strong></strong><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">परिचय:</span></strong></strong></div><strong></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">अब्दुल रहीम खानखाना का जन्म 17 दिसम्बर 1556 को लाहौर में हुआ| इनके पिता का नाम बैरम खान तथा माता का नाम सुल्ताना बेगम था| उस समय बैरम खान की आयु 60 वर्ष हो चुकी थी जब रहीम का जन्म हुआ| बैरम खान की दूसरी पत्नी का नाम सईदा खां था| यह बाबर की बेटी गुलरुख बेगम की पुत्री थी| खानखाना की उपाधि अकबर ने इनके पिता बैरम खान को दी थी| वे अकबर के सरक्षक के रूप में कार्यरत थे| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">वीरता, राज्य-संचालन, दानशीलता, दूरदर्शिता तथा काव्य रचना जैसे अदभुत गुण इन्हें अपने माता-पिता से विरासत में मिले थे| बचपन से ही रहीम साहित्य प्रेमी और बुद्धिमान बालक थे| उनकी दूसरी माँ सईदा बेगम भी अच्छी कवित्री थी| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">सन 1562 में बैरम खान की मौत के बाद पूरा परिवार अकबर के समक्ष प्रस्तुत हुआ| अकबर ने रहीम की बुद्धिमता को परखते हुए उनकी शिक्षा-दीक्षा का पूर्ण प्रबंद कर दिया| वह रहीम से इतना प्रभावित हुआ कि शहजादो को प्रदान की जाने वाली उपाधि "मिर्जा खान" कहकर सम्बोधित करने लगा| अकबर उन्हें जो भी जटिल से जटिल कार्य सौपते वह उन्हें शीघता से कर देते| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">मुल्ला मुहम्मद अमीन रहीम के शिक्षक थे| इन्होने रहीम को तुर्की, अरबी व फारसी भाषा का ज्ञान दिया| इन्होने ही रहीम को छंद रचना, कविता करना, गणित, तर्कशास्त्र तथा फारसी व्यकरण का ज्ञान कराया| बदाऊनी रहीम के संस्कृत के शिक्षक थे| </span></div><br /><ul><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><strong>रहीम का पहला निकाह माहबानो से हुआ|</strong> माहबानो ने दो बेटियों और तीन बेटों को जन्म दिया| पहले बेटे का नाम इरीज, दूसरे का दाराब और तीसरे का नाम फरन था| यह नाम अकबर ने रखे| रहीम की बड़ी बेटी का नाम जाना बेगम जिसका निकाह शहजादा दनिभाव से हुआ व छोट्टी बेटी का निकाह मीर अमीनु दीन से हुआ|</span></li><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><strong>रहीम का दूसरा निकाह सौदा जाति की एक लड़की से हुआ|</strong> जिससे एक बेटे रहमान दाद का जन्म हुआ|</span></li><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><strong>रहीम का तीसरा निकाह एक दासी से हुआ|</strong> उससे भी एक बेटे मिर्जा अमरुल्ला का जन्म हुआ|</span></li></ul><strong></strong><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">साहित्यक देन:</span></strong></strong></div><strong></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">मुस्लिम धर्म के अनुयायी होते हुए भी रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की उसकी मिसाल विरले ही मिल सकेगी| रहीम जी की कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें उन्होंने दोहों के रूप में लिखा| इन दोहो में नीति परक का विशेष स्थान है| </span></div><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">रहीम के ग्रंथो में रहीम दोहावली या सतसई, बरवै, नायिका भेद, श्रृंगार, सोरठा, मदनाष्ठ्क, राग पंचाध्यायी, नगर शोभा, फुटकर बरवै, फुटकर छंद तथा पद, फुटकर कवितव, सवैये, संस्कृत काव्य सभी प्रसिद्ध हैं|</span></strong></strong></div><strong></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">इन्होंने तुर्की भाषा में लिखी बाबर की आत्मकथा "तुजके बाबरी" का फारसी में अनुवाद किया| "मआसिरे रहीमी" और "आइने अकबरी" में इन्होंने "खानखाना" व रहीम नाम से कविता की है|</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">रहीम जी का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था| यह मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे| इन्होंने खुद को "रहिमन" कहकर भी सम्बोधित किया है| इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">रहीम जी ने अपने अनुभवों को अति सरल व सहजता से जिस शैली में अभिव्यक्त किया है वह वास्तव में अदभुत है| उनकी कविताओं, छंदों, दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है| पर मुख्य रूप से ब्रज भाषा का ही प्रयोग हुआ है| भाषा को सरल, सरस व मधुर बनाने के लिए इन्होंने तदभव शब्दों का अधिक प्रयोग किया है|</span></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-33738835070539999272024-02-27T00:00:00.001+05:302024-02-27T04:57:14.782+05:30भक्त बुल्ले शाह जी<div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><b><span style="color: #e69138; font-size: large;">भक्त बुल्ले शाह जी</span></b></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-3PdZ-3TFaSQ/YIPVbQrU1-I/AAAAAAAAr2g/NCpcQ2weDbkakmv7NrQIjg000BXzO_e-gCLcBGAsYHQ/s567/images%2B%25289%2529.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="567" data-original-width="537" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-3PdZ-3TFaSQ/YIPVbQrU1-I/AAAAAAAAr2g/NCpcQ2weDbkakmv7NrQIjg000BXzO_e-gCLcBGAsYHQ/s320/images%2B%25289%2529.jpeg" /></a></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><br /><div style="text-align: left;"><strong><span style="color: blue;">भूमिका:</span></strong></div><br /><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">पंजाब की माटी की सौंधी गन्ध में गूंजता एक ऐसा नाम जो धरती से उठकर आकाश में छा गया| वे ही भारतीय सन्त परम्परा के महान कवि थे जो पंजाब की माटी में जन्मे, पले और उनकी ख्याति पूरे देश में फैली| ऐसे ही पंजाब के सबसे बड़े सूफी बुल्ले शाह जी हुए हैं|</span></div><br /><div style="display: inline; text-align: justify;"><div style="text-align: left;"><strong><span style="color: blue;">परिचय:</span></strong></div></div><div style="text-align: justify;"><strong style="text-align: center;"></strong></div><br /><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था| आगे चलकर इनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया| प्यार से इन्हें साईं बुल्ले शाह या बुल्ला कहते| इनके जीवन से सम्बन्धित विद्वानों में अलग-२ मतभेद है| इनका जन्म 1680 में उच गीलानियो में हुआ| इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था| वह आजीविका की खोज में गीलानिया छोड़ कर परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर "पांडो के भट्टिया" गाँव में बस गए| उस समय बुल्ले शाह की आयु छे वर्ष की थी| बुल्ले शाह जीवन भर कसूर में ही रहे| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">इनके पिता मस्जिद के मौलवी थे| वे सैयद जाति से सम्बन्ध रखते थे| पिता के नेक जीवन के कारण उन्हें दरवेश कहकर आदर दिया जाता था| पिता के ऐसे व्यक्तित्व का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा| इनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई| इनके उस्ताद हजरत गुलाम मुर्तजा सरीखे ख्यातनामा थे| अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">परमात्मा की दर्शन की तड़प इन्हें फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई| हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था| वे जाति से अराई थे| अराई लोग खेती-बाड़ी, बागबानी और साग-सब्जी की खेती करते थे| बुल्ले शाह के परिवार वाले इस बात से दुखी थे कि बुल्ले शाह ने निम्न जाति के इनायत शाह को अपना गुरु बनाया है| उन्होंने समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए| परिवार जनों के साथ हुई तकरार का जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया -</span></div><strong></strong><br /><div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">बुल्ले नूं समझावण आइयां</span></strong></strong></div><div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">भैणा ते भरजाइयां</span></strong></strong></div><div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">मन्न लै बुल्लिआ साडा कहणा </span></strong></strong></div><strong><div><strong><span style="color: #cc0000;">छड दे पल्ला, राइयां| </span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">आल नबी औलाद अली नूं</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">तूं क्यों लीकां लाइयां?</span></strong></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><strong>भाव- तुम नबी के खानदान से हो और अली के वंशज हो| फिर क्यों अराई की खातिर लोकनिंदा का कारण बनते हो| परन्तु बुल्ले शाह जी जाति भेद-भाव को भुला चुके थे| उन्होंने उत्तर दिया -</strong></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">जेहड़ा सानूं सैयद आखे</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">दोजख मिले सजाइयां |</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">जो कोई सानूं, राई आखे</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">भिश्ती पींगा पाइयां||</span></strong></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><br /></div><div style="color: blue; text-align: justify;"><strong>भाव - जो हमे सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमे अराई कहेगा वह स्वर्गो में झूला झूलेगा|</strong></div></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बाते प्रचलित हैं| एक दिन इनायत जी के पास बगीचे में बुल्ले शाह जी पहुँचे| वे अपने कार्य में व्यस्त थे जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा| बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर आमो की ओर देखा तो पेडो से आम गिरने लगे| गुरु जी ने पूछा,<strong> "क्या यह आम अपने तोड़े हैं?" </strong>बुल्ले शाह ने कहा न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके| भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, "अरे तू चोर भी है और चतुर भी|" बुल्ला गुरु जी के चरणों में पड़ गया| बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ| साईं जी ने कहा, <strong>"बुल्लिहआ रब दा की पौणा| एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा|"</strong> इन सीधे - सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है| बुल्ले शाह ने या प्रथम दीक्षा गांठ बांध ली| सतगुरु के दर्शन पाकर बुल्ले शाह बेखुद हो गया और मंसूर की भांति बेखुदी में बहने लगा| उसे कोई सुध - बुध नहीं रही| </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">कहते हैं कि एक बार बुल्ले शाह जी की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ की जियारत को जाए| उन्होंने अपनी इच्छा गुरु जी को बताई| इनायत शाह जी ने वहाँ जाने का कारण पूछा| बुल्ले शाह ने कहा कि <strong>"वहाँ हजरत मुहम्मद का रोजा शरीफ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी कब्र की जियारत की, गोया उसने मुझे जीवित देख लिया|"</strong> गुरु जी ने कहा कि इसका जवाब मैं तीन दिन बाद दूँगा| बुल्ले शाह ने अपने मदीने की रवानगी स्थगित कर दी| तीसरे दिन बुल्ले शाह ने सपने में हजरत रसूल के दर्शन किए| रसूल अल्ला ने बुल्ले शाह से कहा,<strong> "तेरा मुरशद कहाँ है? उसे बुला लाओ|" </strong>रसूल ने इनायत शाह को अपनी दाई ओर बिठा लिया| बुल्ला नजरे झुकाकर खड़ा रहा| जब नजरे उठीं तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है| वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन है| </span></div><strong></strong><br /><div style="color: blue; text-align: justify;"><strong>बुल्ले शाह जी लिखते हैं - </strong></div><strong></strong><br /><div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">हाजी लोक मक्के नूं जांदे</span></strong></strong></div><strong><div><strong><span style="color: #cc0000;">असां जाणा तख्त हजारे |</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">जित वल यार उसे वल काबा</span></strong></div><div><strong><span style="color: #cc0000;">भावें खोल किताबां चारे |</span></strong></div></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">प्रेम मार्ग में छोटी सी भूल नाराजगी का कारण बन जाती है| बुल्ले शाह की छोटी सी भूल के कारण उनका मुरशद नाराज हो गया| मुरशद ने बुल्ले शाह की क्यारियों की तरफ से अपनी कृपा का पानी मोड लिया| प्रकाश अंधकार में और खुशी गमी में बदल गई| शिष्य के लिए यह भीषण संताप की घड़ी आ गई| जब मुरशद ने उन्हें डेरा छोड़ने को कह दिया| वह विरह की आग में तड़पने लगा| मुरशद ने जब देखा कि वियोग की अग्नि में बुल्ले शाह कुंदन बन गया है तो उन्होंने उसकी गलती माफ कर दी| इस प्रकार फिर से सूखी क्यारियों को पानी मिल गया| बुल्ले शाह की आत्मा सतगुरु की आत्मा के रंग में डूब गई, दोनों में कोई भेद न रहा| </span></div><strong></strong><br /><div style="color: blue; text-align: justify;"><strong>इस अवस्था का वर्णन बुल्ले शाह ने इस तरह किया है -</strong></div><strong></strong><br /><div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">रांझा - रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई |</span></strong></strong></div><strong><strong><span style="color: #cc0000;">रांझा मैं विच मैं रांझे विच होर ख्याल न कोई ||</span></strong></strong><br /><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बुल्ले शाह जी का देहांत 1757 ईस्वी में कसूर में हुआ| पंजाब में सूफी कवियों की लम्बी परम्परा है| परन्तु किसी अन्य सूफी कवि द्वरा अपने मुरशद के प्रति ऐसी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं की गई| इन्होंने अपने मुरशद को सजण, यार, साईं, आरिफ, रांझा, शौह आदि नामो से पुकारा है| </span></div><br /><div style="text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: #cc0000;">साहितिक देन:</span></strong></strong></div><strong></strong><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">बुल्ले शाह जी ने पंजाबी मुहावरे में अपने आप को अभिव्यक्त किया| जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे| पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा| बुल्ले शाह ने अपने विचारों व भावों को काफियों के रूप में व्यक्त किया है| काफी भक्तों के पदों से मिलता जुलता काव्य रूप है| काफिया भक्तों के भावों को गेय रूप में प्रस्तुत करती हैं इसलिए इनमे बहुत से रागों की बंदिश मिलती है| जन साधारण भी सूफी दरवेशों के तकियों पर जमा होते थे और मिल कर भक्ति में विभोर होकर काफियां गाते थे| काफियों की भाषा बहुत सादी व आम लोगों के समझने योग्य हैं| बुल्ले शाह लोक दिल पर इस तरह राज कर रहे थे कि उन्होंने बुल्ले शाह की रचनाओं को अपना ही समझ लिया| वह बुल्ले शाह की काफियों को इस तरह गाते थे जैसे वह स्वयं ही इसके रचयिता हों| इनकी काफियों में अरबी फारसी के शब्द और इस्लामी धर्म ग्रंथो के मुहावरे भी मिलते हैं| लेकिन कुल मिलाकर उसमे स्थानीय भाषा, मुहावरे और सदाचार का रंग ही प्रधान है| </span></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-16797869823625264932024-02-26T00:00:00.001+05:302024-02-26T05:52:39.155+05:30भक्त कबीर दास जी <p style="text-align: center;"><b style="font-family: "times new roman";"><span style="color: #e69138; font-size: large;">भक्त कबीर दास जी</span></b><span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"> </span></p><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/1309469157074354505%23&source=gmail&ust=1619338500404000&usg=AFQjCNHrRm0F_Mi9gkdPOJSFmGwFLEXQkw" href="https://draft.blogger.com/blog/post/edit/5645588641571836443/1309469157074354505#" rel="noreferrer" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" height="355" src="https://3.bp.blogspot.com/-t5cbM4V3aII/UkoufXr8nVI/AAAAAAAAH80/OpziuPLYK1s/s400/kabirdas_child.jpg" width="400" /></a></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; font-size: large; text-align: center;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><strong><span style="color: blue;">भूमिका:</span></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">संत कबीर का स्थान भक्त कवियों में ध्रुव तारे के समान है| जिनके शब्द, साखी व रमैनी आज भी उतने ही प्रसिद्ध हैं जितने कि उनके समय में थे| </span></div><p style="text-align: center;"><strong style="font-family: "times new roman"; text-align: left;"></strong><br style="font-family: "times new roman"; font-size: large; text-align: left;" /></p><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">परिचय:</span></strong></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">भक्त कबीर का जन्म संवत 1455 जेष्ठ शुक्ल 15 को बताया जाता है| यह भी कहा जाता है कि जगदगुरु रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से काशी में एक विधवा ब्रह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए| लाज के मारे वह नवजात शिशु को लहरतारा के तालाब के पास फेंक आई| नीरू नाम का एक जुलाहा उस बालक को अपने घर में ले आया| उसी ने बालक का पालन-पोषण किया| यही बालक कबीर कहलाया| </span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">कुछ कबीरपंथियों का मानना है कि कबीर का जन्म काशी के लहरतारा तालाब में कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ| यह भी कहा जाता है कि कबीर की धर्म पत्नी का नाम लोई था| उनके पुत्र व पुत्री के नाम 'कमाल' व 'कमाली' था| संत कबीर पढ़े - लिखे नहीं थे| उन्होंने स्वयं कहा है -</span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><strong><strong><span style="color: #cc0000;">मसि कागद छूवो नहीं,</span></strong></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><strong><span style="color: #cc0000;">कलम गहो नहिं हाथ|</span></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"><strong><span style="color: #cc0000;"><br /></span></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">परिवार के पालन पोषण के लिए कबीर को करघे पर खूब मेहनत करनी पड़ती थी| उनके घर साधु - संतो का जमघट लगा रहता था| ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन एक पहर रात को कबीर जी पञ्चगंगा घाट की सीढ़ीयों पर जा लेटे| वहीं से रामानंद जी भी स्नान के लिए उतरा करते थे| रामानंद जी का पैर कबीर जी के ऊपर पड़ गया| रामानंद जी एक दम "राम-राम" बोल उठे कबीर ने इनके बोलो को ही गुरु की दीक्षा का मंत्र मान लिया| वे स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु कहने लगे| उनके अनुसार -</span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">हम काशी में प्रगट भये हैं, रामानन्द चेताये |</span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">कुछ लोगो का यह भी कथन है कि कबीर जी जन्म से मुसलमान मान थे और समझदारी की उम्र पाने पर स्वामी रामानन्द के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म की बातें जानी| मुसलमान कबीरपंथियों की मान्यता है कि की कबीर ने मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा ली| </span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">हकीकत चाहे कुछ भी हो, मान्यताये चाहे अलग-अलग हों, पर इस बात से सभी सहमत हैं कि कबीर जी ने हिन्दू - मुसलमान का भेद - भाव मिटाकर हिन्दू संतो और मुसलमान फकीरों का सतसंग किया| उन्हें जो भी तत्व प्राप्त हुआ उसे ग्रहण करके अपने पदों के रूप में दुनिया के सामने रखा| वह निराकार ब्रह्मा के उपासक थे| उनका मानना था कि ईश्वर घर-घर में व सबके मन में बसे हैं| ईश्वर की प्रार्थना हेतु मन्दिर - मसजिद में जाना आवश्यक नहीं| </span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><strong><strong><span style="color: blue;">साहितयक देन:</span></strong></strong></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">कबीर की बाणी का संग्रह "बीजक" नाम से प्रसिद्ध है| इसके तीन भाग हैं - </span></div><ul style="font-family: "times new roman";"><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">रमैनी</span></li><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">सबद</span></li><li style="text-align: justify;"><span style="color: blue;">साखी</span></li></ul><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: center;"></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;">इनकी भाषा खिचड़ी है - पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रज भाषा आदि कई बोलियों का मिश्रण मिलता है| कबीर जी बाहरी आडम्बर के विरोधी थे| उन्होंने समान रूप से हिन्दू - मुस्लिम मान्यताओ में बाहरी दिखावे पर अपने दोहों के द्वारा जमकर चोट की है| इनके दोहों में अधिक ग्रामीण जीवन की झलक देखने को मिलती है| अपने दोहों के द्वारा इन्होंने समाज में फैली कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया है| </span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><span style="color: blue;"><br /></span></div><div dir="auto" style="font-family: "times new roman"; text-align: justify;"><strong><span style="color: blue;"><strong>कबीर जी अपने अन्तिम समय में काशी से मगहर नामक स्थान पर आ गए| यहीं 119 वर्ष की आयु में इन्होंने शरीर छोड़ा|</strong> </span></strong></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-32636338800199850142024-02-25T00:00:00.001+05:302024-02-25T04:50:24.775+05:30भक्त मीरा बाई जी<div style="text-align: center;"><b><span style="color: red;">भक्त मीरा बाई जी</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-elgn5xVaWj4/UkosPFNjqgI/AAAAAAAAH8U/lK4aWqlIMp8/s1600/Mystic_Meera.jpg"><img border="0" src="https://3.bp.blogspot.com/-elgn5xVaWj4/UkosPFNjqgI/AAAAAAAAH8U/lK4aWqlIMp8/s400/Mystic_Meera.jpg" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b>राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा!</b></div><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: 700;"><br /></span></div><p style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe; text-align: left;"><span style="font-weight: bold;">परिचय:</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना न छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती| मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| उन्हें मरने की साजिशे रची जाने लगी| मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -</span><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई|</span><br /><span style="font-weight: bold;">जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई||</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई|</span><br /><span style="font-weight: bold;">छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई||</span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है| स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|</span><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ|</span><br /><span style="font-weight: bold;">मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास||</span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शूद्र गुरु रविदास की भक्ति की|साधु - संतो की संगत की|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत हैं|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">· लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">· रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताई|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">· डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|हरमेन गोएटस ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परन्तु वह मौलिक नहीं| उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही| उसने भक्ति व प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया| चित्तौड़ के शासक कर्मकांड व राजसी वैभव में डूबकर उसे भूल चुके थे| किसी ने उसे ढूँढने का प्रयास नहीं किया|</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|साहितिक देन:</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे -</span><br /><span style="font-weight: bold;">हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|</span><br /><br /></span></p><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold;">भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|</span></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5645588641571836443.post-25262297673392538512024-02-24T00:00:00.001+05:302024-02-24T07:47:37.688+05:30श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना<p style="text-align: center;"><b style="color: #ffa400; text-align: left;">श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना</b></p><div class="MsoNormal" style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-qb4YX37gMYQ/UjZbZZsIkkI/AAAAAAAAH5I/fQ5efcXdm-w/s1600/Guru_Gobind_SIngh_JI_black_and_white.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://2.bp.blogspot.com/-qb4YX37gMYQ/UjZbZZsIkkI/AAAAAAAAH5I/fQ5efcXdm-w/s400/Guru_Gobind_SIngh_JI_black_and_white.jpg" width="281" /></a></div><div class="MsoNormal"><span style="color: #ffa400; font-size: medium;"><b><br /></b></span></div><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><div class="MsoNormal"><b><span style="color: blue;">श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दोनों समय दीवान लगाकर संगत को उपदेश देकर निहाल करते थे| इस समय दो युवक पठान भी दीवान में उपस्थित होकर श्रद्धा भाव से गुरु जी के वचन सुनते|</span></b></div><b><br /><span style="color: blue;">एक दिन शाम के समय जब गुरु जी अपने तम्बू में विश्राम कर रहे थे तो इनमें से एक पठान गुलखां ने समय ताड़ कर आप जी के पेट में कटार के दो वार कर दिए| गुरु जी ने शीघ्र ही अपने आप को </span></b><b><span style="color: blue;">सँभालते हुए उसका सिर एक वार से धड़ से अलग कर दिया| गुलखां का साथी रुस्तमखां जो तम्बू से बाहर खड़ा था उसे पहरेदारों ने मार दिया| इसके पश्चात सिंघो ने नादेड़ नगर से जराह को बुलाकर आपके जख्मों की मरहम पट्टी कराई| तथा रोज ही आप की आरोग्यता के लिए बाणी का पाठ व अरदास करने लगे| </span></b></div><div class="MsoNormal"><b><br /><span style="color: blue;">जब गुरु जी के जख्म गहरे होने के कारण ठीक होने की आशा न रही तो सिहों ने बेबस होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! हमें आप किसके पास छोड़ कर सच्च खंड की तैयारी कर रहे हो? आपके पीछे हमारी रखवाली कौन करेगा|</span><br /><br /><span style="color: blue;">सिहों की प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया तथा पांच तैयार सिंह हजूरी में खड़े करके आपने तीन परिक्रमा करके पांच पैसे व नारियल श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आगे रखकर माथा टेक कर वचन किया कि आज से देहधारी गुरु का सिलसिला समाप्त करके इस वाणी को आत्म प्रकाश करने वाली बड़े गुरु साहिब तथा प्रभु के भक्तों ने उच्चारण की हुई है, गुरु नानक साहिब जी की गुरु गद्दी पर स्थापित कर दिया| हमारे बाद यह गुरु युगों-युग अटल रहेगा| जिसने हमारे आत्मिक दर्शन करने हों, वह इस शब्द गुरु के दर्शन करे और जिसने हमारे पांच भूतक शरीर के दर्शन करने हों, तो वह हमारे तैयार बर तैयार खालसे के दर्शन करे| </span><br /><br /><span style="color: blue;">संवत 1765 वाले दिन कार्तिक सुदी को आप जी ने खालसा पंथ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख करके यह वचन किया| </span><br /></b><br /><div style="text-align: center;"><b><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">दोहरा || </span></b></b></div><b></b><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">गुरु ग्रंथ जी मानिओ प्रगट गुरां की देह ||</span></b></b></div><b><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शबद में लेह ||</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><span style="color: blue;">गुरु स्थापना की मर्यादा करके गुरु जी ने सिहों को हुक्म दिया कि हमारा अंगीठा तैयार करो तथा उसके चारों तरफ कनात लगा दो| सिक्खों ने वैसा ही किया|</span><br /><br /><span style="color: blue;">गुरु जी ने सिहों को बड़ा उदास देखा और प्रेम से वचन किया हे प्यारे सिहों! अकाल पुरख के नियम के अनुसार यह अस्थूल शरीर मिलते और बिछड़ते रहते हैं| इनका प्यार कभी नहीं निभता| श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी हमारा ह्रदय है| रात दिन इनके मिलने से प्रभु के गुणों को अपने मन में जोड़ना| इनकी उपस्थिति में पांच सिंह जो हुक्म करेगें, उसे गुरु का हुक्म मानकर स्वीकार करना|</span><br /><br /><span style="color: blue;">गुरबाणी का पाठ और शास्त्रों का अभ्यास करना| गुरु साहिब का इतिहास सुनना| पांच रहितवान सिहों को मेरा रूप समझना| जो श्रद्धा से पांच सिहों से अरदास कराएगा, उसके सभी मनोरथ पूरे होंगे| </span><br /><br /><span style="color: blue;">सिहों को धैर्य उपदेश देकर जब आदी रात बीत गई तो आप जी ने पहले "जपुजी साहिब" फिर - </span><br /><br /><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">"हरि हरि जन दुइि ऐक हैं || </span></b></div><span style="color: #cc0000; font-size: large;"><div style="text-align: center;"><b>बिब बिचार किछु नाहि || </b></div><div style="text-align: center;"><b>जल ते उपज तरंगि||</b></div></span></b></div><div class="MsoNormal"><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000; font-size: large;">ज्यों जल ही बिखै समाहि ||"</span></b></div><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold;"><br /></span></div><b style="color: blue;"><br />आदि पांच दोहरे पढ़कर अरदास की और इसके पश्चात मखमल का कमर कस्सा करके किरपान, धनुष, तीर तथा हाथ में बंदूक पकड़कर सिख वीरो को हाथ जोड़कर "वाहिगुरू जी का खालसा || वाहिगुरू जी की फतहि ||" बुलाई| इस समय सिक्ख संगत सेजल नेत्रों से आपको नमस्कार करने लगी, तो उनको आपके शरीर की कोई छुह प्राप्त न हुई| मगर शरीर करके आपके दर्शन सबको हो रहे थे| इस कौतक को अनुभव करके सब संगत ने हाथ जोड़कर धरती पर शीश रखकर आप जी को नमस्कार किया|<br /><br />अन्तिम समय आप जी ने अपने सिहों को कहा कि अब तुम सब अपने-अपने घर चले जाना और जथेदार संतोख सिंह को आज्ञा की कि तुम यहाँ रहकर हमारे स्थान की सेवा करनी| जो धन आ जाए उससे लंगर चलाना|<br /><br />यह वचन करके आप जी कनात अन्दर चले गए और चिखा ऊपर चौकड़ा मारकर बैठ गए| इसके पश्चात चिखा को अग्नि प्रचंड करा कर ज्योति में ज्योत मिलाकर अनंत में लीन हो गए|</b></div></div></div></div></div></div><div class="blogger-post-footer">Visit us at : http://www.shirdikesaibabagroup.com</div>Anand Saihttp://www.blogger.com/profile/03491424829441251032noreply@blogger.com