शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Saturday, 31 July 2010

Sai Sandesh

ॐ सांई राम




श्री साईं सच्चरित्र संदेश,

जो स्वयं को कफनी से ढंकता हो, जिस पर सौ पेबंद लगे हों, जिसकी गद्दी और बिस्तर बोरे का बना हो; और जिसका ह्रदय सभी प्रकार की भावनाओं से मुक्त हो, उसके लिये चाँदी के सिंहासन की क्या कीमत ?, इस प्रकार का कोई भी सिंहासन तो उनके लिये रुकावट ही होगा I फिर भी अगर भक्तगण पीछे से चुपचाप सरका कर उसे निचे लगा देते थे, तो बाबा उनकी प्रेम और भक्ति देखते हुए, उनकी इच्छा की आदरपूर्ति के लिए मना नहीं करते थे I

"Whose clothing is a patched up kafni; whose seat is sack cloth; whose mind is free of desires. what is a silver throne for him ?, Seeing the devotion of the devotees, he ignored the fact that they. after their difficulties were resolved turned their back on him. "



बुरा संग सदैव हानिकारक होता है; वह दुखों और कष्टों का घर होता है, जो बिना बताये तुम्हे कुमार्ग पर लाकर खड़ा कर देता है Iवह सभी सुखों का हरण कर लेता हैं I एसी बुरीसंगति के कारण होने वाली बर्बादी और पाप से साईनाथ या सदगुरु के अलवा और कौन रक्षा कर सकता हैं ?

"Bad company is absolutely harmful. It is the adobe of severe miseries. Unknowingly it would take you to the by-lanes, by-passing the highway of happiness. Without the one and only Sainath or without a Sadguru who else can purify the ill-effects of the bad company."


साईं चालीसा



पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं ।


कैसे शिर्डी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं ॥1॥


कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना ।


कहां जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना ॥


कोई कहे अयोध्या के ये, रामचन्द्र भगवान हैं ।


कोई कहता साईंबाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं ॥


कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं ।


कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं ॥


शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते ।


कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते ॥


कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान ।


बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया है जीवन दान ॥


कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात ।


किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात ॥


आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर ।


आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर ॥


कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर ।


और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ॥


जैसे-जैसे उमर बढ़ी, वैसे ही बढ़ती गई शान ।


घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान ॥


दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम ।


दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम ॥


बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन ।


दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दु:ख के बन्धन ॥


कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान ।


एवं अस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान ॥


स्वयं दु:खी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल ।


अन्त: करण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ॥


भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान ।


माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान ॥


लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो ।


झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो ॥


कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया ।


आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया ॥


दे दो मुझको पुत्र दान, मैं ॠणी रहूंगा जीवन भर ।


और किसी की आस न मुझको, सिर्फ़ भरोसा है तुम पर ॥


अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश ।


तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष ॥


'अल्लाह भला करेगा तेरा', पुत्र जन्म हो तेरे घर ।


कृपा होगी तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ॥


अब तक नही किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार ।


पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ॥


तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार ।


सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार ॥


मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास ।


साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ॥


मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी ।


तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी ॥


सरिता सन्मुख होने पर भी मैं प्यासा का प्यासा था ।


दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था ॥


धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था ।


बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ॥


ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था ।


जंजालों से मुक्त मगर इस, जगती में वह मुझ-सा था ॥


बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार ।


साईं जैसे दया-मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार ॥


पावन शिर्डी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति ।


धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति ॥


जबसे किए हैं दर्शन हमने, दु:ख सारा काफूर हो गया ।


संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अन्त हो गया ॥


मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से ।


प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से ॥


बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में ।


इसका ही सम्बल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में ॥


साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ ।


लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ॥


"काशीराम" बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था ।


मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था ॥


सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में ।


झंकृत उसकी हृद तन्त्री थी, साईं की झंकारों में ॥


स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चांद-सितारे ।


नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ॥


वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से "काशी" ।


विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी ॥


घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल, अन्यायी ।


मारो काटो लूटो इस की ही ध्वनि पड़ी सुनाई ॥


लूट पीट कर उसे वहां से, कुटिल गये चम्पत हो ।


आघातों से ,मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥


बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में ।


जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में ॥


अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं ।


जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई ॥


क्षुब्ध उठा हो मानस उनका, बाबा गए विकल हो ।


लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो ॥


उन्मादी से इधर-उधर, तब बाबा लगे भटकने ।


सम्मुख चीजें जो भी आईं, उनको लगे पटकने ॥


और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला ।


हुए सशंकित सभी वहां, लख ताण्डव नृत्य निराला ॥


समझ गए सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में ।


क्षुभित खड़े थे सभी वहां पर, पड़े हुए विस्मय में ॥


उसे बचाने के ही खातिर, बाबा आज विकल हैं ।


उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्त:स्थल है ॥


इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई ।


लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा-सरिता लहराई ॥


लेकर कर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई ।


सम्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आईं ॥


शान्त, धीर, गम्भीर सिन्धु-सा, बाबा का अन्त:स्थल ।


आज न जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल ॥


आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी ।


और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी ॥51॥


आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था “काशी” ।


उसके ही दर्शन के खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी ॥


जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में ।


उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में ॥


युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी ।


आपातग्रस्त भक्त जब होता, आते खुद अन्तर्यामी ॥


भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं ।


जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई ॥


भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला ।


राम-रहीम सभी उनके थे, कृष्ण-करीम-अल्लाहताला ॥


घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना ।


मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ॥


चमत्कार था कितना सुंदर, परिचय इस काया ने दी ।


और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी ॥


सबको स्नेह दिया साईं ने, सबको सन्तुल प्यार किया ।


जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उनको वही दिया ॥


ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे ।


पर्वत जैसा दु:ख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥


साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई ।


जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर हो गई ॥


तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो ।


अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो ॥


जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा ।


और रात-दिन बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा ॥


तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी ।


तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी ॥


जंगल-जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को ।


एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को ॥


धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया ।


दु:ख में सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया ॥


गिरें संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े ।


साईं का ले नाम सदा तुम, सम्मुख सब के रहो अड़े ॥


इस बूढ़े की करामात सुन, तुम हो जाओगे हैरान ।


दंग रह गये सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान ॥


एक बार शिर्डी में साधू, ढ़ोंगी था कोई आया ।


भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया ॥


जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहां भाषण ।


कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥


औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति ।


इसके सेवन करने से ही, हो जाती दु:ख से मुक्ति ॥


अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से ।


तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से ॥


लो खरीद तुम इसको इसकी, सेवन विधियां हैं न्यारी ।


यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी ॥


जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खायें ।


पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पायें ॥


औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा ।


मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पायेगा ॥


दुनियां दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो ।


गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो ॥


हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी ।


प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगो की नादानी ॥


खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक ।


सुनकर भृकुटि तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक ॥


हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ ।


या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ ॥


मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को ।


कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥


पल भर में ही ऐसे ढ़ोंगी, कपटी नीच लुटेरे को ।


महानाश के महागर्त में, पहुंचा दूं जीवन भर को ॥


तनिक मिला आभास मदारी क्रूर कुटिल अन्यायी को ।


काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को ॥


पल भर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रखकर पैर ।


सोच था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर ॥


सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में ।


अंश ईश का साईंबाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में ॥


स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर ।


बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव-सेवा के पथ पर ॥


वही जीत लेता है जगती के, जन-जन का अन्त:स्थल ।


उसकी एक उदासी ही जग को कर देती है विह्वल ॥


जब-जब जग में भार पाप का, बढ़ बढ़ ही जाता है ।


उसे मिटाने के ही खातिर, अवतारी ही आता है ॥


पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के ।


दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर में ॥


स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में ।


गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में ॥


ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर ।


समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥


नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने ।


दाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने ॥


सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं ।


पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते थे साईं ॥


सूखी-रूखी, ताजी-बासी, चाहे या होवे पकवान ।


सदा प्यार के भूखे साईं की, खातिर थे सभी समान ॥


स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे ।


बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे ॥


कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे ।


प्रमुदित मन निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे ॥


रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके ।


बीहड़ वीराने मन में भी, स्नेह सलिल भर जाते थे ॥


ऐसी सुमधुर बेला में भी, दु:ख आपात विपदा के मारे ।


अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे ॥


सुनकर जिनकी करूण कथा को, नयन कमल भर आते थे ।


दे विभूति हर व्यथा,शान्ति, उनके उर में भर देते थे ॥


जाने क्या अद्भुत,शक्ति, उस विभूति में होती थी ।


जो धारण करते मस्तक पर, दु:ख सारा हर लेती थी ॥


धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाये ।


धन्य कमल-कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये ॥


काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता ।


बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता ॥


गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर ।


मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर ॥
 


(श्री मद भागवत गीता सार) * क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा ना पैदा होती है, न मरती है।



* जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।

* तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।

* खाली हाथ आए और खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।

* परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।

* न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जायेगा। परन्तु आत्मा स्थिर है - फिर तुम क्या हो?

* तुम अपने आपको भगवान के अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।

* जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्त का आनंन्द अनुभव करेगा।

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ॐ सांई राम



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Posted By : Sh. Yogesh Kumar Banga

OM SAI RAM

Monday, 26 July 2010

Guru Purnima 25/07/2010 - must see photos on orkut

ॐ सांई राम
Some Pictures from yesterdays
Guru Purnima Celebration
by
SHIRDI KE SAI BABA GROUP (Regd.)

Sai Palki Sewa
&
Bhandara Sewa

26/07/2010
ॐ सांई राम Some Pictures from yesterdays Guru Purnima Celebration by SHIRDI KE SAI BABA GROUP (Regd.) Sai Palki Sewa & Bhandara Sewa
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Guru Purnima (25/07/2010)

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Anand Sai
26 July 00:00
Guru Purnima (25/07/2010)
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Friday, 23 July 2010

Shirdi Ke Sai Baba

ॐ सांई राम
Presents:


About Shirdi Ke Sai Baba

Shirdi Sai Baba, also known as Sai Baba of Shirdi, was an Indian guru, yogi and fakir who is regarded by his Hindu and Muslim followers as a saint. Some of his Hindu devotees believe that he was an incarnation of Shiva or Dattatreya, and he was regarded as a sadguru and an incarnation of Kabir.


The name 'Sai Baba' is a combination of Persian and Indian origin; Sāī (Sa'ih) is the Persian term for "holy one" or "saint", usually attributed to Islamic ascetics, whereas Bābā is a word meaning "father" used in Indian languages. The appellative thus refers to SaiBaba as being a "holy father" or "saintly father". His parentage, birth details, and life before the age of sixteen are obscure, which has led to a variety of speculations and theories attempting to explain the SaiBaba's origins. In his life and teachings he tried to reconcile Hinduism and Islam: SaiBaba lived in a mosque, was buried in a Hindu temple, practised Hindu and Muslim rituals, and taught using words and figures that drew from both traditions. One of his well known epigrams says of God: "Allah Malik" ("God is Master").

Sai Baba taught a moral code of love, forgiveness, helping others, charity, contentment, inner peace, devotion to God and guru. His philosophy was Advaita Vedanta and his teachings consisted of elements both of this school as well as of bhakti and Islam.


Shirdi SaiBaba remains a popular saint and is worshipped mainly in Maharashtra, southern Gujarat, Andhra Pradesh and Karnataka. Debate on his Hindu or Muslim origins continues to take place. He is also revered by several notable Hindu and Sufi religious leaders. Some of his disciples received fame as spiritual figures and saints.


Sri SaiBaba left his physical body in October 15, 1918.... but he is believed to be with us even more now than he was earlier...

Shirdi Sai baba's BackgroundAlthough SaiBaba's origins are unknown, some indications exist that suggest that he was born not far from Shirdi.





Historical researches into genealogies in Shirdi give support to the theory that Baba could have been born with the name Haribhau Bhusari. SaiBaba was notorious for giving vague, misleading and contradictory replies to questions concerning his parentage and origins, brusquely stating the information was unimportant.


He had reportedly stated to a close follower, Mhalsapati, that he has been born of Brahmin parents in the village of Pathri and had been entrusted into the care of a fakir in his infancy. On another occasion, Baba reportedly said that the fakir's wife had left him in the care of a Hindu guru, Venkusa of Selu, and that he had stayed with Venkusa for twelve years as his disciple. This dichotomy has given rise to two major theories regarding SaiBaba's background, with the majority of writers supporting the Hindu background over the Islamic, while others combine both the theories (that Sai Baba was first brought up by a fakir and then by a guru).


SaiBaba reportedly arrived at the village of Shirdi in the Ahmednagar district of Maharashtra, India, when he was about sixteen years old.


Although there is no agreement among biographers about the date of this event, it is generally accepted that SaiBaba stayed in Shirdi for three years, disappeared for a year and returned permanently around 1858, which posits a possible birthyear of 1838. He led an ascetic life, sitting motionless under a neem tree and meditating while sitting in an asana.


The Sai Satcharita recounts the reaction of the villagers: "The people of the village were wonder-struck to see such a young lad practicing hard penance, not minding heat or cold. By day he associated with no one, by night he was afraid of nobody."


His presence attracted the curiosity of the villagers and the religiously-inclined such as Mhalsapati, Appa Jogle and Kashinatha regularly visited him, while others such as the village children considered him mad and threw stones at him. After some time he left the village, and it is unknown where he stayed at that time or what happened to him.



Shirdi Saibaba Settled in Shirdi

In 1858 SaiBaba returned to Shirdi with Chand Patil's wedding procession. After alighting near the Khandoba temple he was greeted with the words "Aao Sai" (welcome saint) by the temple priest Mhalsapati. The name Sai stuck to him and some time later he started being known as SaiBaba. It was around this time that Baba adopted his famous style of dress, consisting of a knee-length one-piece robe (kafni) and a cloth cap. Ramgir Bua, a devotee, testified that SaiBaba was dressed like an athlete and sported 'long hair flowing down to his buttocks' when he arrived in Shirdi, and that he never had his head shaved. It was only after SaiBaba forfeited a wrestling match with one Mohdin Tamboli did he take the kafni and cloth cap, articles of typically Sufi clothing.


This attire contributed to SaiBaba's identification as a Muslim fakir, and was a reason for initial indifference and hostility against him in a predominantly Hindu village.


For four to five years SaiBaba lived under a neem tree, and often wandered for long periods in the jungle in and around Shirdi. His manner was said to be withdrawn and uncommunicative as he undertook long periods of meditation.


He was eventually persuaded to take up residence in an old and dilapidated masjid and lived a solitary life there, surviving by begging for alms and receiving itinerant Hindu or Muslim visitors. In the mosque he maintained a sacred fire which is referred to as a dhuni, from which he had the custom of giving sacred ash ('Udhi') to his guests before they left and which was believed to have healing powers and protection from dangerous situations.


At first he performed the function of a local hakim and treated the sick by application of Udhi. SaiBaba also delivered spiritual teachings to his visitors, recommending the reading of sacred Hindu texts along with the Qur'an, especially insisting on the indispensability of the unbroken remembrance of God's name (dhikr, japa). He often expressed himself in a cryptic manner with the use of parables, symbols and allegories. He participated in religious festivals and was also in the habit of preparing food for his visitors, which he distributed to them as prasad. SaiBaba's entertainment was dancing and singing religious songs (he enjoyed the songs of Kabir most).


His behaviour was sometimes uncouth and violent.


After 1910 SaiBaba's fame began to spread in Mumbai. Numerous people started visiting him, because they regarded him as a saint (or even an avatar) with the power of performing miracles.


Sai Baba took Mahasamadhi on October 15, 1918 at 2.30pm. He died on the lap of one of his devotees with hardly any belongings, and was buried in the "Buty Wada" according to his wish.


Later a mandir was built there known as the "Samadhi Mandir".



Teachings and practices of Shirdi Saibaba

In his personal practice, SaiBaba observed worship procedures belonging to Hinduism and Islam; he shunned any kind of regular rituals but allowed the practice of namaz, chanting of Al-Fatiha, and Qur'an readings at Muslim festival times. Occasionally reciting the Al-Fatiha himself, SaiBaba also enjoyed listening to moulu and qawwali accompanied with the tabla and sarangi twice daily. He also wore clothing reminiscent of a Sufi fakir. SaiBaba also opposed all sorts of persecutions on religious or caste background. (In India at the times when he lived religious intolerance and conflicts were common).


SaiBaba of Shirdi was also an opponent of religious orthodoxy - both Hindu and Muslim. Although SaiBaba himself led the life of an ascetic, he advised his followers to lead an ordinary family life.


SaiBaba encouraged his devotees to pray, chant God's name and read holy scriptures - he told Muslims to study the Qur'an and Hindus texts like the Ramayana, Vishnu Sahasranam, Bhagavad Gita (and commentaries to it), Yoga Vasistha. He advised his devotees and followers to lead a moral life, help others, treat them with love and develop two important features of character: faith (Shraddha) and patience (Saburi). He also criticized atheism. In his teachings SaiBaba emphasised the importance of performing one's duties without attachment to earthly matters and being ever content regardless of the situation.


SaiBaba also interpreted the religious texts of both faiths. According to what the people who stayed with him said and wrote he had a profound knowledge of them. He explained the meaning of the Hindu scriptures in the spirit of Advaita Vedanta. This was the character of his philosophy. It also had numerous elements of bhakti. The three main Hindu spiritual paths - Bhakti Yoga, Jnana Yoga and Karma Yoga - were visible in the teachings of SaiBaba.


Another example of the way he combined both faiths is the Hindu name he gave to his mosque, Dwarakamai.


SaiBaba said that God penetrates everything and lives in every being, and as well that God is the essence of each of them. He emphasised the complete oneness of God which was very close to the Islamic tawhid and the Hindu doctrine, e.g. of the Upanishads. SaiBaba said that the world and all that the human may give is transient and only God and his gifts are eternal. SaiBaba also emphasised the importance of devotion to God - bhakti - and surrender to his will. He also talked about the need of faith and devotion to one's spiritual preceptor (guru).


He said that everyone was the soul and not the body. He advised his disciples and followers to overcome the negative features of character and develop the good ones. He taught them that all fate was determined by karma.


SaiBaba left no written works. His teachings were oral, typically short, pithy sayings rather than elaborate discourses. SaiBaba would ask his followers for money (dakshina), which he would give away to the poor and other devotees the same day and spend the rest on matches. According to his followers he did it in order to rid them of greed and material attachment.


SaiBaba encouraged charity and the importance of sharing with others. He said: "Unless there is some relationship or connection, nobody goes anywhere. If any men or creatures come to you, do not discourteously drive them away, but receive them well and treat them with due respect. Shri Hari (God) will be certainly pleased if you give water to the thirsty, bread to the hungry, clothes to the naked and your verandah to strangers for sitting and resting. If anybody wants any money from you and you are not inclined to give, do not give, but do not bark at him like a dog."


Other favourite sayings of his were:


"Why do you fear when I am here",


"He has no beginning... He has no end",


SaiBaba made eleven assurances to his devotees:


1. Whosoever puts their feet on Shirdi soil, their sufferings will come to an end.


2. The wretched and miserable will rise to joy and happiness as soon as they climb the steps of my Samadhi.


3. I shall be ever active and vigorous even after leaving this earthly body.


4. My tomb shall bless and speak to the needs of my devotees.


5. I shall be active and vigorous even from my tomb.


6. My mortal remains will speak from my tomb.


7. I am ever living to help and guide all who come to me, who surrender to me and who seek refuge in me.


8. If you look to me, I look to you.


9. If you cast your burden on me, I shall surely bear it.


10. If you seek my advice and help, it shall be given to you at once.


11. There shall be no want in the house of my devotee.


Shirdi Sai Baba helps Always.. in All Ways..


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Wednesday, 21 July 2010

पढेगा इंडिया !! तो बढेगा इंडिया !!

ॐ सांई राम





 


ॐ सांई राम

पढेगा इंडिया !!
तो बढेगा इंडिया !! 


One day a 6-year-old girl was sitting in a classroom. The teacher was going to explain evolution to the children.


The teacher asked a little boy: “Manav, do you see the tree outside?”


Manav: “Yes.”


Teacher: “Manav, do you see the grass outside?”


Manav: “Yes.”


Teacher: “Go outside and look up and see if you can see the sky.”


Manav: “Okay. (He returned a few minutes later.) Yes, I saw the sky.”


Teacher: “Did you see God anywhere?”


Manav: “No.”


Teacher: “That’s my point. We can’t see God because he isn’t there. He just doesn’t exist.”


A little girl spoke up and wanted to ask the boy some questions. The teacher agreed, and the little girl asked the boy:


“Manav, Do you see the tree outside?”


Manav: “Yes.”


Little Girl: “Manav, do you see the grass outside?”


Manav: “Yessssss!”


Little Girl: “Did you see the sky?”


Manav: “Yessssss!”


Little Girl: “Manav, do you see the teacher?”


Manav: “Yes”


Little Girl: “Do you see her mind or her brain?”


Manav: “No”


Little Girl: “Then according to what we were taught today in school, she must not have one!”


God cannot be seen with our physical eyes. He can be seen by the eyes of knowledge, faith, and devotion only. (Gita 7.24-25) For we walk by faith, not by sight. He answers our prayer!



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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.