शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Thursday 31 August 2023

घृणा, ईर्ष्या, लालच और डींग हांकने जैसे दुष्ट गुणों को ख़त्म किया जाना चाहिए।

घृणा, ईर्ष्या, लालच और डींग हांकने जैसे दुष्ट गुणों को ख़त्म किया जाना चाहिए।


घृणा, ईर्ष्या, लालच और डींग हांकने जैसे दुष्ट गुणों को ख़त्म किया जाना चाहिए। ये लक्षण न सिर्फ आम आदमी बल्कि संन्यासियों, भिक्षुओं और संस्थाओं के प्रमुख को भी भटका देते हैं। इन में, ईर्ष्या और लालच में अनियंत्रित वृद्धि हुई है। आज दुनिया को एक नया आदेश, एक नई शिक्षा प्रणाली, एक नए समाज या एक नयें धर्म की जरूरत नहीं है। पवित्रता हर युवाओं और बच्चों के मन और ह्रदय में विकसित किया जाना चाहिए: यही इस समय की जरूरत है। अच्छे और धर्मी लोगो को इसे बढ़ावा देने की सबसे बड़ी साधना (आध्यात्मिक अभ्यास) करना चाहिए ताकि हर कोई इसे अपनाये।


Evil qualities such as hatred, envy, greed and ostentation should be uprooted. These traits are vitiating not only common people but even ascetics, monks and heads of institutions. Among these, envy and greed have gone unchecked. What the world needs today is not a new order, a new educational system, a new society or a new religion. Holiness must take root and grow in the minds and hearts of youth and children everywhere: this is the need of the hour. The good and godly must endeavour to promote this as the greatest Sadhana (spiritual practice) that everyone must undertake.

Saturday 26 August 2023

खाना खाना एक पवित्र अनुष्ठान की तरह है

खाना खाना एक पवित्र अनुष्ठान की तरह है


खाना खाना एक पवित्र अनुष्ठान की तरह है, एक यझ है इसे चिंता या भावनात्मक क्षणों के दौरान नहीं किया जाना चाहिए। भोजन को भूख के बीमारी के लिए दवा के रूप में लिया जाना चाहिए और यह जीवन के लिए जीविका के रूप में है। तुम्हे आने वाले परिशानियो को देखकर अपने लिए भाग्यशाली मौका समझना चाहिए ताकि आप इस अवसर का उपयोग अपने आपको मन और आत्मिक शक्ति का विकास कर सकेंगे।



Eating food is a holy ritual, a Yajna. It should not be performed during moments of anxiety or emotional upheavals. Food should be considered as medicine for the illness of hunger and as the sustenance for life. Treat each trouble you encounter as a fortunate opportunity to develop your strength of mind and toughen you spiritually.

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि


दृष्टि के बदलते ही सृष्टि बदल जाती है, क्योंकि दृष्टि का परिवर्तन मौलिक परिवर्तन है। अतः दृष्टि को बदलें सृष्टि को नहीं, दृष्टि का परिवर्तन संभव है, सृष्टि का नहीं। दृष्टि को बदला जा सकता है, सृष्टि को नहीं। हाँ, इतना जरूर है कि दृष्टि के परिवर्तन में सृष्टिभी बदल जाती है। इसलिए तो सम्यकदृष्टि की दृष्टि में सभी कुछ सत्य होता है और मिथ्या दृष्टि बुराइयों को देखता है। अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हमारी दृष्टि पर आधारित हैं।

दृष्टि दो प्रकार की होती है। एक गुणग्राही और दूसरी छिन्द्रान्वेषी दृष्टि। गुणग्राही व्यक्ति खूबियों को और छिन्द्रान्वेषी खामियों को देखता है। गुणग्राही कोयल को देखता है तो कहता है कि कितना प्यारा बोलती है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी बदसूरत दिखती है।


गुणग्राही मोर को देखता है तो कहता है कि कितना सुंदर है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी भद्दी आवाज है, कितने रुखे पैर हैं। गुणग्राही गुलाब के पौधे को देखता है तो कहता है कि कैसा अद्भुत सौंदर्य है। कितने सुंदर फूल खिले हैं और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितने तीखे काँटे हैं। इस पौधे में मात्र दृष्टि का फर्क है।


जो गुणों को देखता है वह बुराइयों को नहीं देखता है।

कबीर ने बहुत कोशिश की बुरे आदमी को खोजने की। गली-गली, गाँव-गाँव खोजते रहे परंतु उन्हें कोई बुरा आदमी न मिला। मालूम है क्यों? क्योंकि कबीर भले आदमी थे। भले आदमी को बुरा आदमी कैसे मिल सकता है?

कबीर जी ने कहा है
बुरा जो खोजन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

कबीर अपने आपको बुरा कह रहे हैं। यह एक अच्छे आदमी का परिचय है, क्योंकि अच्छा आदमी स्वयं को बुरा और दूसरों को अच्छा कह सकता है। बुरे आदमी में यह सामर्थ्य नहीं होती। वह तो आत्म प्रशंसक और परनिंदक होता है।

वह कहता है
भला जो खोजन मैं चला भला न मिला कोय,
जो दिल खोजा आपना मुझसे भला न कोय।

ध्यान रखना जिसकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूँढने की आदत पड़ गई, वे हजारों गुण होने पर भी दोष ढूँढ निकाल लेते हैं और जिनकी गुण ग्रहण की प्रकृति है, वे हजार अवगुण होने पर भी गुण देख ही लेते हैं, क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई भीचीज नहीं है जो पूरी तरह से गुणसंपन्ना हो  या  पूरी तरह से गुणहीन हो। एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं। मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं गुण या अवगुण।

तुलसीदासजी ने कहा है -

जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है
उसे वैसी ही मूरत नजर आती है।

Friday 25 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीरामभक्त विभीषण

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीरामभक्त विभीषण

महर्षि विश्रवा को असुर कन्या कैकसी के संयोग से तीन पुत्र हुए - रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण| विभीषण विश्रवा के सबसे छोटे पुत्र थे| बचपन से ही इनकी धर्माचरण में रुचि थी| ये भगवान् के परम भक्त थे| तीनों भाइयों ने बहुत दिनों तक कठोर तपस्या कर के श्री ब्रह्माजी को प्रसन्न किया| ब्रह्मा ने प्रकट होकर तीनों से वर माँगने के लिये कहा - रावण ने अपने महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के अनुसार श्रीब्रह्माजी से त्रैलोक्य विजयी होने का वरदान माँगा, कुम्भकर्ण ने छ: महीने की नींद माँगी और विभीषणने उनसे भगवद्भक्ति की याचना की| सबको यथायोग्य वरदान देकर श्रीब्रह्माजी अपने लोक पधारे| तपस्या से लौटने के बाद रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर से सोने की लंका पूरी को छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया और ब्रह्मा के वरदान के प्रभाव से त्रैलोक्य विजयी बना| ब्रह्माजी की सृष्टि में जितने भी शरीर धारी प्राणी थे, सभी रावण के वश में हो गये| विभीषण भी रावण के साथ लंका में रहने लगे|

रावण ने जब सीताजी का हरण किया, तब विभीषण ने परायी स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीताजी को श्रीराम को लौटा देने की उसे सलाह दी| किन्तु रावण ने उस पर कोई ध्यान न दिया| श्रीहनुमान् जी सीता की खोज करते हुए लंका में आये| उन्होंने श्रीराम नाम से अंकित विभीषण का घर देखा| घर के चारों ओर तुलसी के वृक्ष लगे हुए थे| सूर्योदय के पूर्व का समय था, उसी समय श्रीराम-नाम का स्मरण करते हुए विभीषणजी की निद्रा भंग हुई| राक्षसों के नगर में श्रीराम भक्त को देखकर हनुमान् जी को आश्चर्य हुआ| दो राम भक्तों का परस्पर मिलन हुआ| श्रीहनुमान् जी का दर्शन करके विभीषण भाव विभोर हो गये| उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रीराम दूत के रूप में श्रीराम ने ही उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया है| श्रीहनुमान् जी ने उनसे पता पूछकर अशोक वाटिका में माता सीता का दर्शन किया| अशोक वाटिका-विध्वंस और अक्षय कुमार के वध के अपराध में रावण हनुमान् जी को प्राण दण्ड देना चाहता था| उस समय विभीषण ने ही उसे दूत को अवध्य बताकर हनुमान् जी को कोई और दण्ड देनेकी सलाह दी| रावण ने हनुमान् जी की पूँछ में आग लगाने की आज्ञा दी और विभीषण के मन्दिर को छोड़कर सम्पूर्ण लंका जलकर राख हो गयी|

भगवान् श्रीराम ने लंका पर चढ़ायी कर दी| विभीषण ने पुन: सीता को वापस कर के युद्ध की विभीषण को रोकने कि रावण से प्रार्थना की| इस पर रावण ने इन्हें लात मारकर निकाल दिया| ये श्रीराम के शरणागत हुए| रावण सपरिवार मारा गया| भगवान् श्रीराम ने विभीषण को लंका का नरेश बनाया और अजर-अमर होने का वरदान दिया| विभीषणजी सप्त चिरंजीवियों एक हैं और अभी तक विद्यमान हैं|

Thursday 24 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - रामभक्त श्रीहनुमान

रामायण के प्रमुख पात्र - रामभक्त श्रीहनुमान



श्रीहनुमान जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी, व्याकरण के महान् पण्डित, ज्ञानि शिरोमणि, परम बुद्धिमान् तथा भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त हैं| ये ग्यारहवें रुद्र कहे जाते हैं| भगवान् शिव ही संसार को सेवा धर्म की शिक्षा प्रदान करने के लिये श्रीहनुमान के रूप में अवतरित हुए थे| वनराज केशरी और माता अञ्जनी को श्रीहनुमान् जी का पिता-माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| भगवान् शिव का अंश पवन देव के द्वारा अञ्जनी में स्थापित होने के कारण पवन देव को भी श्रीहनुमान् जी का पिता कहा जाता है| जन्म के कुछ समय पश्चात् श्रीहनुमान् जी सूर्य को लाल-लाल फल समझकर उन्हें निगलने के लिये उनकी ओर दौड़े| उस दिन सूर्य-ग्रहण का समय था| राहु ने देखा कि मेरे स्थान पर आज कोई दूसरा सूर्य को पकड़ने आ रहा है, तब वह हनुमान् जी की ओर चला| श्रीहनुमान् जी उसकी ओर लपके, तब उसने डरकर इन्द्र से अपनी रक्षा के लिये पुकार की| इन्द्र ने श्रीहनुमान् जी पर वज्र का प्रहार किया, जिससे ये मूर्च्छित होकर गिर पड़े और इनकी हनु की हड्डी टेढ़ी हो गयी| पुत्र को मूर्च्छित देखकर वायु देव ने कुपित होकर अपनी गति बन्द कर दी| वायु के रुक जाने से सभी प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गये| अन्त में सभी देवताओं ने श्रीहनुमान् जी को अग्नि, वायु, जल आदि से अभय होने के साथ अमरत्व का वरदान दिया| इन्होंने सूर्य नारायण से वेद, वेदाङ्ग प्रभृति समस्त शास्त्रों एवं कलाओं का अध्ययन किया| तदनन्तर सुग्रीव ने इन्हें अपना प्रमुख सचिव बना लिया और ये किष्किन्धा में सुग्रीव के साथ रहने लगे| जब बाली ने सुग्रीव को निकाल दिया, तब भी ये सुग्रीव के विपत्ति के साथी बनकर उनके साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे|

भगवान् श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ अपनी पत्नी सीता जी को खोजते हुए ऋष्यमूक के पास आये| श्रीसुग्रीव के आदेश से श्रीहनुमान् जी विप्रवेश में उनका परिचय जानने के लिये गये| अपने स्वामी को पहचान कर ये भगवान् श्रीराम के चरणों में गिर पड़े| श्रीराम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और श्रीकेशरी कुमार सर्वदा के लिये श्रीराम के दास हो गये| इन्हीं की कृपा से सुग्रीव को श्रीराम का मित्र होने का सौभाग्य मिला| बाली मारा गया और सुग्रीव किष्किन्धा के राजा बने|

सीता शोध, लंकिनी-वध, अशोक वाटिका में अक्षय कुमार-संहार, लंकादाह आदि अनेक कथाएँ श्रीहनुमान् जी की प्रखर प्रतिभा और अनुपम शौर्य की साक्षी हैं| लंका युद्ध में इनका अद्भुत पराक्रम तथा इनकी वीरता सर्वोपरि रही| मेघनाद के द्वारा लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर इन्होंने संजीवनी लाकर उन्हें प्राण दान दिया| राक्षस इनकी हुंकार मात्र से काँप जाते थे| रावण की मृत्यु के बाद जब भगवान् श्रीराम अयोध्या लौटे, तब श्रीहनुमान् जी ने ही श्रीराम के लौटने का शुभ समाचार श्रीभरतजी को सुनाकर उनके निराश जीवन में नवीन प्राणों का सञ्चार किया|

श्रीहनुमान् जी विद्या, बुद्धि, ज्ञान तथा पराक्रमी की मूर्ति हैं| जब तक पृथ्वी पर श्रीराम कथा रहेगी, तब तक श्रीहनुमान् जी को इस धरा-धाम पर रहने का श्रीराम से वरदान प्राप्त है| आज भी ये समय-समय पर श्रीराम भक्तों को दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ किया करते हैं|

Wednesday 23 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - भक्ति मति शबरी

रामायण के प्रमुख पात्र - भक्ति मति शबरी

शबरी का जन्म भील कुल में हुआ था| वह भीलराज की एकमात्र कन्या थी| उसका विवाह एक पशु स्वभाव के क्रूर व्यक्ति से निश्चय हुआ| अपने विवाह के अवसर पर अनेक निरीह पशुओं को बलि के लिये लाया गया देखकर शबरी का हृदय दया से भर गया| उसके संस्कारों में दया, अहिंसा और भगवद्भक्ति थी| विवाह की रात्रि में शबरी पिता के अपयश की चिन्ता छोड़कर बिना किसी को बताये जंगल की ओर चल पड़ी| रात्रि भर वह जी-तोड़कर भागती रही और प्रात:काल महर्षि मतंग के आश्रम में पहुँची| त्रिकालदर्शी ऋषि ने उसे संस्कारी बालिका समझकर अपने आश्रम में स्थान दिया| उन्होंने शबरी को गुरुमन्त्र देकर नाम-जप की विधि भी समझायी|

महर्षि मतंग ने सामाजिक बहिष्कार स्वीकार किया, किन्तु शरणागता शबरी का त्याग नहीं किया| महर्षि का अन्त निकट था| उनके वियोग की कल्पना मात्र से शबरी व्याकुल हो गयी| महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया - 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना| प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे| प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है| वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं| शबरी का मन अप्रत्याशित आनन्द से भर गया और महर्षि की जीवन-लीला सम्पात हो गयी|

शबरी अब वृद्धा हो गयी थी| 'प्रभु आयेंगे' गुरुदेव की यह वाणी उसके कानों में गूँजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह कर्मकाण्डी ऋषियों के अनाचार शान्ति से सहती हुई अपनी साधना में लगी रही| वह नित्य भगवान् के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती| आखिर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई| अभी वह भगवान् के भोग के लिये मीठे-मीठे फलों को चखकर और उन्हें धोकर दोनों में सजा ही रही थी कि अचानक एक वृद्ध ने उसे सूचना दी - 'शबरी! तेरे श्रीराम भ्राता श्रीलक्ष्मण सहित आ रहे हैं|' वृद्ध के शब्दों ने शबरी में नवीन चेतना का संचार कर दिया| वह बिना लकुट लिये हड़बड़ी में भागी| श्रीराम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी| देह की सुध भूलकर वह श्रीराम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी| देह की सुध भूलकर वह श्रीराम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी| किसी तरह भगवान् श्रीराम ने उसे उठाया| अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी| कुटिया में पहुँचकर उसने भगवान् का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया| फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली - 'प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊँगी| खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो नारी जाति ही अधम है और मैं तो अन्त्यज, मूढ और गँवार हूँ| 'कहते-कहते शबरी की वाणी रुक गयी और उसके नेत्रों से अश्रुजल छलक पड़े|

श्रीराम ने कहा - 'बूढ़ी माँ! मैं तो एक भक्ति का ही नाता मानता हूँ| जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं| मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो|' शबरी भगवान् को फल खिलाती जाती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे| महर्षि मंतग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना| उसने भगवान् को सीता की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्रीराम के चरणों में लीन हो गयी| श्रीराम-भक्ति की अनुपम पात्र शबरी धन्य है|

Tuesday 22 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीशत्रुघ्न

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीशत्रुघ्न


श्रीशत्रुघ्नजी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है| ये मौन सेवा व्रती हैं| बचपन से श्रीभरतजी का अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख व्रत था| ये मित भाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान् श्रीराम के दासानुदास हैं| जिस प्रकार श्रीलक्ष्मणजी हाथ में धनुष श्रीराम की रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्रीशत्रुघ्न जी भी श्रीभरतजी के साथ रहते थे|

जब श्रीभरतजी के मामा युधाजित् श्रीभरतजी को अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्रीशत्रुघ्न जी भी उनके साथ ननिहाल चले गये| इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्रीभरतजी के साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था| भरतजी के साथ ननिहाल से लौटने पर पिता के मरण और लक्ष्मण, सीता सहित श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर इनका हृदय दुःख और शोक से व्याकुल हो गया| उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनी के षड्यन्त्र से श्रीराम का वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणों से सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोध से व्याकुल हो गये| ये मन्थरा की चोटी पकड़कर उसे आँगन में घसीटने लगे| इनके लात के प्रहार से उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया| उसकी दशा देखकर श्रीभरतजी को दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया| इस घटना से श्रीशत्रुघ्नजी की श्रीराम के प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्ति का परिचय मिलता है|

चित्रकूट से श्रीराम पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्रीशत्रुघ्न जी श्रीराम से मिले, तब इनके तेज स्वभाव को जानकर भगवान् श्रीराम ने कहा - 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है, तुम माता कैकेयी की सेवा करना, उन पर कभी भी क्रोध मत करना|'

श्रीशत्रुघ्नजी का शौर्य भी अनुपम था| सीता-वनवास के बाद एक दिन ऋषियों ने भगवान् श्रीराम की सभा में उपस्थित होकर लवणासुर के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध कर के उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की| श्रीशत्रुघ्नजी ने भगवान् श्रीराम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और मथुरापुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया|

भगवान् श्रीराम के परम धाम पधारने के समय मथुरा में अपने पुत्रों का राज्याभिषेक करके श्रीशत्रुघ्नजी अयोध्या पहुँचे| श्रीराम के पास आकर और उनके चरणों में प्रणाम करके इन्होंने विनीत भाव से कहा - 'भगवन्! मैं अपने दोनों पुत्रों का राज्याभिषेक करके आपके साथ चलने का निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ| आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलने की अनुमति प्रदान करें|' भगवन् श्रीराम ने शत्रुघ्नजी की प्रार्थना स्वीकार की और वे श्रीरामचन्द्र के साथ ही साकेत पधारे|

Monday 21 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण

श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे| किसी भी अवस्था में भगवान् श्रीराम का वियोग इन्हें सहा नहीं था| इसलिये ये सदैव छाया की भाँति श्रीराम का ही अनुगमन करते थे| श्रीराम के चरणों की सेवा ही इनके जीवन का मुख्य व्रत था| श्रीराम की तुलना में संसार के सभी सम्बन्ध इनके लिये गौण थे| इनके लिये श्रीराम ही माता-पिता, गुरु, भाई सब कुछ थे और उनकी आज्ञा का पालन ही इनका मुख्य धर्म था| इसलिये जब भगवान् श्रीराम विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिये गये तो लक्ष्मण जी भी उनके साथ गये| भगवान् श्रीराम जब सोने जाते थे तो ये उनका पैर दबाते और भगवान् के बार-बार आग्रह करने पर ही स्वयं सोते तथा भगवान् के जागने के पूर्व ही जाग जाते थे| अबोध शिशु की भाँति इन्होंने भगवान् श्रीराम के चरणों को ही दृढ़ता पूर्वक पकड़ लिया और भगवान् ही इनकी अनन्य गति बन गये| भगवान् श्रीराम के प्रति किसी के भी अपमान सूचक शब्द को ये कभी बरदाश्त नहीं करते थे| जब महाराज जनक ने धनुष के न टूटने के क्षोभ में धरती को वीर-विहीन कह दिया, तब भगवान् के उपस्थित रहते हुए जनकजी का यह कथन श्रीलक्ष्मणजी को बाण-जैसा लगा| ये तत्काल कठोर शब्दों में जनकजी का प्रतिकार करते हुए बोले - 'भगवान् श्रीराम के विद्यमान रहते हुए जनक ने जिस अनुचित वाणी का प्रयोग किया है, वह मेरे हृदय में शूल की भाँति चुभ रही है| जिस सभा में रघुवंश का कोई भी वीर मौजूद हो, वहाँ इस प्रकार की बातें सुनना और कहना उनकी वीरता का अपमान है| यदि श्रीराम आदेश दें तो मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठा सकता हूँ, फिर जनक के इस सड़े धनुष की गिनती ही क्या है|' इसी प्रकार जब श्रीपरशुरामजी ने धनुष तोड़ने वाले को ललकारा तो ये उनसे भी भिड़ गये|

भगवान् श्रीराम के प्रति श्रीलक्ष्मण की अनन्य निष्ठा का उदाहरण भगवान् के वनगमन के समय मिलता है| ये उस समय देह-गेह, सगे-सम्बन्धी, माता और नव-विवाहिता पत्नी सबसे सम्बन्ध तोड़कर भगवान् के साथ वन जाने के लिये तैयार हो जाते हैं| वन में ये निद्रा और शरीर के समस्त सुखों का परित्याग करके श्रीराम-जानकी की जी-जान से सेवा करते हैं| ये भगवान् की सेवा में इतने मग्न हो जाते हैं कि माता-पिता, पत्नी, भाई तथा घर की तनिक भी सुधि नहीं करते|

श्रीलक्ष्मणजी ने अपने चौदह वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य और अद्भुत चरित्र-बल पर लंका में मेघनाद-जैसे शक्तिशाली योद्धा पर विजय प्राप्त किया| ये भगवान् की कठोर-से-कठोर आज्ञा का पालन करने में भी कभी नहीं हिचकते| भगवान् की आज्ञा होने पर आँसुओं को भीतर-ही-भीतर पीकर इन्होंने श्रीजानकीजी को वन में छोड़ने में भी संकोच नहीं किया| इनका आत्मत्याग भी अनुपम है| जिस समय तापस वेशधारी कालकी श्रीराम से वार्ता चल रही थी तो द्वारपाल के रूप में उस समय श्रीलक्ष्मण ही उपस्थित थे| किसी को भीतर जाने की अनुमति नहीं थी| उसी समय दुर्वासा ऋषिका आगमन होता है और वे श्रीराम का तत्काल दर्शन करने की इच्छा प्रकट करते हैं| दर्शन न होने पर वे शाप देकर सम्पूर्ण परिवार को भस्म करने की बात करते हैं| श्रीलक्ष्मणजी ने अपने प्राणों की परवाह न करके उस समय दुर्वासा को श्रीराम से मिलाया और बदले में भगवान् से परित्याग का दण्ड प्राप्तकर अद्भुत आत्मत्याग किया| श्रीराम के अनन्य सेवक श्रीलक्ष्मण धन्य हैं|

Sunday 20 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीभरत

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीभरत

श्रीभरतजी का चरित्र समुद्र की भाँति अगाध है, बुद्धि की सीमा से परे है| लोक-आदर्श का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेम की तो ये सजीव मूर्ति थे|

ननिहाल से अयोध्या लौटने पर जब इन्हें माता से अपने पिता के सर्वगवास का समाचार मिलता है, तब ये शोक से व्याकुल होकर कहते हैं - 'मैंने तो सोचा था कि पिता जी श्रीराम का अभिषेक कर के यज्ञ की दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे बड़े भइया श्रीराम को सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये| अब श्रीराम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ| उन्हें मेरे आने की शीघ्र सुचना दें| मैं उनके चरणों में प्रणाम करूँगा| अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं|'

जब कैकयी ने श्रीभरतजी को श्रीराम-वनवास की बात बतायी, तब वे महान् दुःखसे संतप्त हो गये| इन्होंने कैकेयी से कहा - 'मैं समझता हूँ, लोभ के वशीभूत होने के कारण तू अब तक यह न जान सकी कि मेरा श्रीरामचन्द्र के साथ भाव कैसा है| इसी कारण तूने राज्य के लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला| मुझे जन्म देने से अच्छा तो यह था कि तू बाँझ ही होती| कम-से-कम मेरे-जैसे कुल कलंक का तो जन्म नहीं होता| यह वर माँगने से पहले तेरी जीभ कटकर गिरी क्यों नहीं!'

इस प्रकार कैकेयी को नाना प्रकार से बुरा-भला कहकर श्रीभरत जी कौसल्याजी के पास गये और उन्हें सान्त्वना दी| इन्होंने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से पिता कि अंत्येष्टि क्रिया सम्मपन्न की| सबके बार-बार आग्रह के बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बल के साथ श्रीराम को मनाने के लिये चित्रकूट चल दिये| श्रृंगवेरपुर में पहुँचकर इन्होंने निषादराज को देखकर रथ का परित्याग कर दिया और श्रीराम सखा गुह से बड़े प्रेम से मिले| प्रयाग में अपने आश्रम पर पहुँचने पर श्रीभरद्वाज इनका स्वागत करते हुए कहते हैं - 'भरत! सभी साधनों का परम फल श्रीसीता राम का दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है| आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गये|'

श्रीभरतजी को दल-बल के साथ चित्रकूट में आता देखकर श्रीलक्ष्मण को इनकी नीयत पर शंका होती है| उस समय श्रीराम ने उनका समाधान करते हुए कहा - 'लक्ष्मण! भरत पर सन्देह करना व्यर्थ है| भरत के समान शीलवान् भाई इस संसार में मिलना दुर्लभ है| अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी पद प्राप्त कर के श्रीभरत को मद नहीं हो सकता|' चित्रकुट में भगवान् श्रीराम से मिलकर पहले श्रीभरत जी उनसे अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रुचि कुछ और है तो भगवान् की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं| नन्दिग्राम में तपस्वी-जीवन बिताते हुए ये श्रीराम के आगमन की चौदह वर्ष तक प्रतीक्षा करते हैं| भगवान् को इनकी दशा का अनुमान है| वे वनवास की अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरह को शान्त करते हैं| श्रीराम भक्ति और आदर्श भ्रातप्रेम के अनुपम उदाहरण श्रीभरत जी धन्य हैं|

Saturday 19 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवती श्रीसीता

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवती श्रीसीता

भगवती श्रीसीता जी की महिमा अपार है| वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास तथा धर्म शास्त्रों में इनकी अनन्त महिमा का वर्णन है| ये भगवान् श्रीराम की प्राण प्रिया आद्याशक्ति हैं| ये सर्व सर्वमङ्गल दायिनी, त्रिभुवन की जननी तथा भक्ति और मुक्ति का दान करने वाली हैं| महाराज सीरध्वज जनक की यज्ञ भूमि से कन्या रूप में प्रकट हुई भगवती सीता ही संसार का उद्भव, स्थिति और संहार करने वाली पराशक्ति हैं| ये पतिव्रताओं में शिरोमणि तथा भारतीय आदर्शों की अनुपम शिक्षिका हैं|

अपनी ससुराल अयोध्या में आने के बाद अनेक सेविकाओं के होने पर भी भगवती सीता अपने हाथों से सारा गृहकार्य स्वयं करती थीं और पति के संकेत मात्र से उनकी आज्ञा का तत्काल पालन करती थीं| अपने पतिदेव भगवान् श्रीराम को वन गमन के लिये प्रस्तुत देखकर इन्होंने तत्काल अपने कर्तव्य कर्म का निर्णय कर लिया और श्रीराम से कहा - 'हे आर्य पुत्र! माता - पिता, भाई, पुत्र तथा पुत्रवधू - ये सब अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःख का भोग करते हैं| एकमात्र पत्नी ही पति के कर्म फलों की भागिनी होती है| आपके लिये जो वनवास की आज्ञा हुई है, वह मेरे लिये भी हुई है| इसलिये वनवास में आपके साथ में मैं भी चलूँगी| आपमें ही मेरा हृदय अनन्य भाव से अनुरक्त है| आपके वियोग में मेरी मृत्यु निश्चित है| इसलिये आप मुझे अपने साथ वन में अवश्य ले चलिये| मुझे ले चलने से आप पर कोई भार नहीं होगा| मैं वन में नियम पूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर आपकी सेवा करुँगी|'

अपने पति श्रीराम से वन में ले चलने का निवेदन करती हुई सीता प्रेम-विह्वल हो गयीं| उनकी आँखों से आँसू बहने लगे| वे संज्ञा हीन-सी होने लगीं| अन्त में श्रीराम को उन्हें साथ चलने कि आज्ञा देनी पड़ी| माता सीता अपने सतीत्व के परम तेज से लंकेश को भी भस्म कर सकती थीं| पापात्मा रावण के कुत्सिक मनोवृत्ति की धज्जियाँ उड़ाती हुई पतिव्रता सीता कहती हैं - 'हे रावण! तुम्हें जलाकर भस्म कर देने की शक्ति रखती हुई भी मैं श्रीराम चन्द्र का आदेश न होने के कारण एवं तपोभग्ङ होने के कारण तुम्हें जलाकर भस्म नहीं कर रही हूँ|'

महासती सीता ने हनुमान् जी की पूँछ में आग लगने के समय अग्निदेव से प्रार्थना की - 'हे अग्निदेव! यदि मैंने अपने पति की सच्चे मन से सेवा की है| यदि मैंने श्रीराम के अतिरिक्त किसी का चिन्तन न किया हो तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ|' महासती सीता की प्रार्थना से अग्निदेव हनुमान् के लिये सुख और शीतल हो गये और लंका के लिये दाहक बन गये| माता सीता के पातिव्रत्य की गवाही अग्नि परीक्षा के पश्चात् स्वयं अग्निदेव ने दी थी| महासती सीता के सतीत्व की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती| भगवती सीता का चरित्र समस्त नारियों के लिये वन्दनीय तथा अनुकरणीय है|

Friday 18 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी


कैकेयी जी महाराज केकय नरेश की पुत्री तथा महाराज दशरथ की तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे| इन्होंने देवासुर संग्राममें महाराज दशरथ के साथ सारथि का कार्य करके अनुपम शौर्य का परिचय दिया और महाराज दशरथ के प्राणों की दो बार रक्षा की| यदि शम्बरासुर से संग्राम में महाराज के साथ महारानी कैकेयी न होतीं तो उनके प्राणों की रक्षा असम्भव थी| महाराज दशरथ ने अपने प्राण-रक्षा के लिये इनसे दो वार माँगने का आग्रह किया और इन्होंने समय पर माँगने की बात कहकर उनके आग्रह को टाल दिया| इनके लिये पति प्रेम के आगे संसार की सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं|

महारानी कैकेयी भगवान् श्रीराम से सर्वाधिक स्नेह करती थीं| श्रीराम के युवराज बनाये जाने का संवाद सुनते ही ये आनन्द मग्न हो गयीं| मन्थरा के द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा - 'मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है| मेरे लिये श्रीराम-अभिषेक के समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता| इसके लिये तू मुझसे जो भी माँगेगी, मैं अवश्य दूँगी!' इसी से पता लगता है कि ये श्रीराम से कितना प्रेम करती थीं| इन्होंने मन्थरा कि विपरीत बात सुनकर उसकी जीभ तक खींचने की बात कहीं| इनके श्रीराम के वन गमन में निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीराम की प्रेरणा से देवकार्य के लिये सरस्वती देवी के द्वारा इनकी बुद्धि का परिवर्तन कर दिया जाना था| महारानी कैकेयी ने भगवान् श्रीराम की लीला में सहायता करने के लिये जन्म लिया था| यदि श्रीराम का अभिषेक हो जाता तो वन गमन के बिना श्रीराम का ऋषि-मुनियों को दर्शन, रावण-वध, साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतार के प्रमुख कार्य नहीं हो पाते| इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजी ने श्रीराम की लीला में सहयोग करने के लिये ही जन्म लिया था| इसके लिये इन्होंने चिर कालिक अपयश के साथ पापिनी, कुलघातिनी, कलक्ङिनी आदि अनेक उपाधियों को मौन होकर स्वीकार कर लिया|

चित्रकूट में जब माता कैकेयी श्रीराम से एकान्त में मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रों में आँसू भरकर उनसे कहा - 'हे राम! माया से मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है| आप मेरी कुटिलता को क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमा शील होते हैं| देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है| मैंने आपको पहचान लिया है| आप देवताओं के लिये भी मन, बुद्धि और वाणी से परे हैं|'

भगवान् श्रीराम ने उनसे कहा - 'महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है| मेरी प्रेरणा से ही देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्हारे मुख से वे शब्द निकले थे| उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है| अब तुम जाओ| सर्वत्र आसक्ति रहित मेरी भक्ति के द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी|'

भगवान् श्रीराम के इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयीजी श्रीराम की अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान-सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं| इन्होंने सदा के लिये अपकीर्तिका वरण करके भी श्रीराम की लीलामें अपना विलक्षण योगदान दिया|

Thursday 17 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा



महारानी सुमित्रा त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं| ये महाराज दशरथ की दूसरी पटरानी थीं| महाराज दशरथ ने जब पुष्टि यज्ञ के द्वारा खीर प्राप्त किया, तब उन्होंने खीर का एक भाग महारानी सुमित्रा को स्वयं न देकर महारानी कौसल्या और महारानी कैकेयी के द्वारा दिलवाया| जब महारानी सुमित्रा को उस खीर के प्रभाव से दो पुत्र हुए तो इन्होंने निश्चय कर लिया कि इन दोनों पुत्रों पर मेरा अधिकार नहीं है| इसलिये अपने प्रथम पुत्र श्रीलक्ष्मण को श्रीराम और दूसरे शत्रुघ्न को श्रीभरत की सेवा में समर्पित कर दिया| त्याग कर ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है|

जब भगवान् श्रीराम वन जाने लगे तब लक्ष्मणजी ने भी उनसे स्वयं को साथ ले चलने का अनुरोध किया| पहले भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मणजी को अयोध्या में रहकर माता-पिता कि सेवा करने का आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मणजी ने किसी प्रकार भी श्रीराम के बिना अयोध्या में रुकना स्वीकार नहीं किया| अन्त में श्रीराम ने लक्ष्मण को माता सुमित्रा से आदेश लेकर अपने साथ चलने की आज्ञा दी| उस समय विदा माँगने के लिये उपस्थित श्रीलक्ष्मण को माता सुमित्राने जो उपदेश दिया उसमें भक्ति, प्रीति, त्याग, पुत्र-धर्म का स्वरूप, समपर्ण आदि श्रेष्ठ भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है|

माता सुमित्रा ने श्रीलक्ष्मण को उपदेश देते हुए कहा - ' बेटा! विदेह नन्दिनी श्रीजानकी ही तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्रीरामचन्द्र ही तुम्हारे पिता हैं| जहाँ श्रीराम हैं, वहीं अयोध्या है और जहाँ सूर्य का प्रकाश है वही दिन है| यदि श्रीसीता-राम वन को जा रहे हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है| जगत में जितने भी पूजनीय सम्बन्ध हैं, वे सब श्रीराम के नाते ही पूजनीय और प्रिय मानने योग्य हैं| संसार में वही युवती पुत्रवती कहलाने योग्य है, जिसका पुत्र श्रीराम का भक्त है| श्रीराम से विमुख पुत्र को जन्म देने से निपूती रहना ही ठीक है| तुम्हारे ही भाग्य से श्रीराम वन को जा रहे हैं| हे पुत्र! इसके अतिरिक्त उनके वन जाने का अन्य कोई कारण नहीं है| समस्त पुण्यों का सबसे बड़ा फल श्रीसीता रामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम है| हे पुत्र! राग, रोष, ईर्ष्या, मद आदि समस्त विकारों पर विजय प्राप्त करके मन, कर्म और वचन से श्रीसीता राम की सेवा करना| इसी में तुम्हारा परम हित है|'

श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ वन चले गये| अब हर तरह से माता कौसल्या को सुखी बनाना ही सुमित्राजी का उद्देश्य हो गया| ये उन्हीं की सेवा में रात-दिन लगी रहती थीं| अपने पुत्रों के विछोह के दुःखको भूलकर कौसल्याजी के दुःख में दुखी और उन्हीं के सुख में सुखी होना माता सुमित्रा का स्वभाव बन गया| जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगने का इन्हें संदेश मिलता है, तब इनका रोम-रोम खिल उठता है| ये प्रसन्नता और उत्सर्ग के आवेश में बोल पड़ती हैं - 'लक्ष्मण ने मेरी कोख में जन्म लेकर उसे सार्थक कर दिया| उसने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया है|' इतना ही नहीं, ये श्रीराम की सहायता के लिये श्रीशत्रुघ्न को भी युद्ध में भेजने के लिये तैयार हो जाती हैं| माता सुमित्राके जीवन में सेवा, संयम और सर्वस्व-त्याग का अद्भुत समावेश है| माता सुमित्रा-जैसी देवियाँ ही भारतीय कुल की गरिमा और आदर्श हैं|

Wednesday 16 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या


महारानी कौसल्या का चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथ की सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्म में महराज मनु के साथ इन्होंने उनकी पत्नी रूप में कठोर तपस्या कर के श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया था| इस जन्म में इनको कौसल्या रूप में भगवान् श्रीराम की जननी होने का सौभाग्य मिला था|


श्री कौसल्या जी का मुख्य चरित्र रामायण के अयोध्या काण्ड से प्रारम्भ होता है| भगवान् श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है| नगर भर में उत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं| माता कौसल्या के आनन्द का पार नहीं है | वे श्रीराम की मंगल-कामना से अनेक प्रकार के यज्ञ, दान, देवपूजन और उपवास में संलग्न हैं| श्रीराम को सिहांसन पर आसीन देखने की लालसा से इनका रोम-रोम पुलकित है| परन्तु श्रीराम तो कुछ दूसरी ही लीला करना चाहते हैं | सत्य प्रेमी महाराज दशरथ कैकेयी के साथ वचनबद्ध होकर श्रीराम को वनवास देने के लिये बाध्य हो जाते हैं|


प्रात:काल भगवान् श्रीराम माता कैकेयी और पिता महाराज दशरथ से मिलकर वन जाने का निश्चय कर लेते हैं और माता कौसल्या का आदेश प्राप्त करने के लिये उनके महल में पधारते हैं| श्रीराम को देखकर माता कौसल्या उनके पास आती हैं| इनके हृदय में वात्सल्य-रस की बाढ़ आ जाती है और मुँह से आशीर्वाद की वर्षा होने लगती है| ये श्रीराम का हाथ पकड़कर उनको उन्हें शिशु की भाँति अपनी गोदमें बैठा लेती हैं और कहने लगती हैं - 'श्रीराम! राज्याभिषेक में अभी विलम्ब होगा| इतनी देर तक कैसे भूखे रहोगे, दो-चार मधुर फल ही खा लो|' भगवान् श्रीराम ने कहा - 'माता! पिताजी ने मुझको चौदह वर्षों के लिये वन का राज्य दिया है, जहाँ मेरा सब प्रकार से कल्याण ही होगा| तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मुझको वन जाने की आज्ञा दे दो| चौदह साल तक वन में निवास कर मैं पिताजी के वचनों का पालन करूँगा, पुन: तुम्हारे श्रीचरणों का दर्शन करूँगा|'


श्रीराम के ये वचन माता कौसल्या के हृदय में शूल की भाँति बिंध गये| उन्हें अपार क्लेश हुआ| वे मूर्च्छित होकर धरती पर गिर गयीं, उनके विषाद की कोई सीमा न रही| फिर वे सँभलकर उठीं और बोलीं - 'श्रीराम! यदि तुम्हारे पिता का ही आदेश हो तो तुम माता को बड़ी जानकार वन में न जाओ! किन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकयी की भी इच्छा हो तो मैं तुम्हारे धर्म-पालन में बाधा नहीं बनूँगी| जाओ! कानन का राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के राज्य से भी सुखप्रद हो|' पुत्र वियोग में माता कौसल्य का हृदय दग्ध हो रहा है, फिर भी कर्त्तव्य को सर्वोपरि मानकर तथा अपने हृदय पर पत्थर रखकर वे पुत्र को वन जाने की आज्ञा दे देती हैं| सीता-लक्ष्मण के साथ श्रीराम वन चले गये| महाराज दशरथ कौसल्या के भवन में चले आये| कौसल्या जी ने महराज को धैर्य बँधाया, किन्तु उनका वियोग-दुःख कम नहीं हुआ| उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया| कौसल्या जी ने पतिमरण, पुत्रवियोग-जैसे असह्य दुःख केवल श्रीराम-दर्शन की लालसा में सहे| चौदह साल के कठिन वियोग के बाद श्रीराम आये| कौसल्याजी को अपने धर्मपालन का फल मिला| अन्त में ये श्रीराम के साथ ही साकेत गयीं|

Tuesday 15 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - महाराज दशरथ

रामायण के प्रमुख पात्र - महाराज दशरथ


अयोध्या नरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे| पूर्वकाल में कठोर तपस्या से इन्होंने भगवान् श्रीराम को पुत्ररूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था| ये परम तेजस्वी, वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, प्रजा का पुत्रवत् पालन करने वाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे| इनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से धर्मरत तथा धन-धान्य से सम्पन्न थी| देवता भी महाराज दशरथ कि सहायता चाहते थे| देवासुर-संग्राम में इन्होंने दैत्यों को पराजित किया था| इन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ भी किये|


महाराज दशरथ कि बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं| महाराज की वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ| इन्होंने अपनी इस समस्या से गुरुदेव वसिष्ठ को अवगत कराया| गुरु की आज्ञा से ॠष्य श्रृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन हुआ| यज्ञपुरुष ने स्वयं प्रकट होकर पायसत्र से भरा पात्र महाराज दशरथ को देते हुए कहा - 'राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्य वर्धक तथा पुत्रों को उत्पन्न करने वाली है| इसे तुम अपनी रानियों को खिला दो|' महाराज ने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा में बाँटकर दे दिया| समय आने पर कौसल्या के गर्भ से सनातन पुरुष भगवान् श्रीराम का अवतार हुआ| कैकेयी ने भरत और सुमित्रा ने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को जन्म दिया |


चारों भाई माता-पिता के लाड़-प्यार में बड़े हुए| यद्यपि महाराज को चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीराम पर इनका विशेष स्नेह था| ये श्रीराम को क्षण भर के लिये भी अपनी आँखों से ओझल नहीं करना चाहते थे| जब विश्वामित्र जी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम-लक्ष्मण को माँगने आये तो वसिष्ठ के समझाने पर बड़ी कठिनाई से ये उन्हें भेजने के लिये तैयार हुए|


अपनी वृद्धावस्था को देखकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को युवराज बनाना चाहा| मंथरा की सलाह से कैकेयी ने अपने पुराने दो वरदान महाराज से माँगे - एक में भरतको राज्य और दूसरे में श्रीरामके लिये चौदह वर्षों का वनवास| कैकेयी की बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये| थोड़ी देर के लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी| होश आनेपर इन्होंने कैकयी को समझाया| बड़ी ही नम्रता से दीन शब्दों में इन्होंने कैकेयी से कहा - 'भरत को तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीराम को वन भेजने का आग्रह मत करो|' विधि के विधान एवं भावी की प्रबलता के कारण महाराज के विनय का कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| भगवान् श्रीराम पिता के सत्य की रक्षा और आज्ञा पालन के लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ वन चले गये| महाराज दशरथके शोक का ठिकाना न रहा| जब तक श्रीराम रहे तभी तक, इन्होंने अपने प्राणोंको रखा और उनका वियोग होते ही श्रीराम प्रेमानल में अपने प्राणों कि आहुति दे डाली|


जिअत राम बिधु बदनु निहारा| राम बिरह करि मरनु सँवारा||


महाराज दशरथ के जीवन के साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी| श्रीराम के वियोग में अपने प्राणों को देकर इन्होंने प्रेम का एक अनोखा आदर्श स्तापित किया| महाराज दशरथके सामान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समय में राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया|

Monday 14 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधिके पुत्र थे| कुश्वंशमें पैदा होनेके कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं| ये बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थे| एक बार ये सेनाको साथ लेकर जंगलमें शिकार खेलनेके लिये गये| वहाँपर वे महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर पहुँचे|महर्षि वसिष्ठने इनसे इनकी तथा राज्यकी कुशल-श्रेम पूछी और सेनासहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करनेकी प्रार्थना की|

विश्वामित्रने कहा - 'भगवन्! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं| आपने जो फल-फूल दिये, उसीसे हमारा सत्कार हो गया| अब हमें जानेकी आगया दें|'

महर्षि वसिष्ठने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करनेका आग्रह किया| उनके विनयको देखकर विश्वामित्रने अपनी स्वीकृति दे दी| महर्षि वसिष्ठने अपने योगबल और कामधेनुकी सहायतासे विश्वामित्रको सैनिकोंसहित भलीभांति तृप्त कर दिया| कामधेनुके विलक्षण प्रभावसे विश्वामित्र चकित हो गये| उन्होंने कामधेनुको देनेके लिये महर्षि वसिष्ठसे प्रार्थना की| वसिष्ठजीके इनकार करनेपर वे जबरन कामधेनुको अपने साथ ले जाने लगे| कामधेनुने अपने प्रभावसे लाखों सैनिक पैदा किये| विश्वामित्रकी सेना भाग गयी और वे पराजित हो गये| इससे विश्वामित्रको बड़ी ग्लानी हुई| उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया| वे जंगलमें जाकर ब्रह्मर्षि होनेके लिये कठोर तपस्या करने लगे|

तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सराके माध्यमसे विश्वामित्रके जीवनमें कामका विघ्न आया| ये सब कुछ छोड़कर मेनकाके प्रेममें डूब गये| जब इन्हें होश आया तो इनके मनमें पश्चात्तापका उदय हुआ| ये पुन: कठोर तपस्यामें लगे और सिद्ध हो गये| कामके बाद क्रोधने भी विश्वामित्रको पराजित किया| राजा त्रिशुंक सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे| यह प्रकृतिके नियमोंके विरुद्ध होनेके कारण वसिष्ठजीने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया| विश्वामित्रके तपका तेज उस समय सर्वाधिक था| त्रिशुंक विश्वामित्रके पास गये| वसिष्ठसे पुराने वैरको स्मरण करके विश्वामित्रने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया| सभी ऋषि इस यज्ञमें आये, किन्तु वसिष्ठके सौ पुत्र नहीं आये| इसपर क्रोधके वशीभूत होकर विश्वामित्रने उन्हें मार डाला| अपनी भयङ्कर भूलका ज्ञान होनेपर विश्वामित्रने पुन: तप किया और क्रोधपर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए| सच्ची लगन और सतत उद्योगसे सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्रने इसे सिद्ध कर दिया|

श्रीविश्वामित्रजीको भगवान् श्रीरामका दूसरा गुरु होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ| ये दण्डकारण्यमें यज्ञ कर रहे थे| रावणके द्वारा वहाँ नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस इनके यज्ञमें बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे| विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे जान लिया कि त्रैलोक्यको भयसे त्राण दिलानेवाले परब्रह्म श्रीरामका अवतार अयोध्यामें हो गया है| फिर ये अपनी यज्ञरक्षाके लिये श्रीराम को महाराज दशरथसे माँग ले आये| विश्वामित्रके यज्ञ की रक्षा हुई| इन्होंने भगवान् श्रीरामको अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका मिथिलामें श्रीसीताजीसे विवाह सम्पन्न कराया| महर्षि विश्वमित्र आजीवन पुरुषार्थ और तपस्याके मूर्तिमान् प्रतीक रहे| सप्तऋषिमण्डलमें ये आज भी विद्यमान हैं|

Sunday 13 August 2023

श्री रामायण के प्रमुख पात्र महर्षि वशिष्ठ

श्री रामायण के प्रमुख पात्र महर्षि वशिष्ठ


महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्तिका वर्णन पुराणोंमें विभित्र रूपोंमें प्राप्त होता है| कहीं ये ब्रह्माके मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुणके पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं| इनकी पत्नीका नाम अरुन्धती देवी था| जब इनके पिता ब्रह्माजीने इन्हें मृत्युलोकमें जाकर सृष्टिका विस्तार करने तथा सूर्यवंशका पौरोहित्य कर्म करनेकी आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्मको अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करनेमें अपनी असमर्थता व्यक्त की| ब्रह्माजीने इनसे कहा - 'इसी वंशमें आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करेगा|' फिर इन्होंने इस धराधामपर मानव-शरीरमें आना स्वीकार किया|

महर्षि वसिष्ठने सूर्यवंशका पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्योंको सम्पन्न किया| इन्हींके उपदेशके बलपर भगीरथने प्रयत्न करके गङ्गा-जैसी लोककल्याणकारिणी नदीको हमलोगोंके लिये सुलभ कराया| दिलीपको नन्दिनीकी सेवाकी शिक्षा देकर रघु - जैसे पुत्र प्रदान करनेवाले तथा महाराज दशरथकी निराशामें आशाका सञ्चार करनेवाले महर्षि वसिष्ठ ही थे| इन्हींकी सम्मतिसे महाराज दशरथने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| भगवान् श्रीरामको शिष्यरूपमें प्राप्तकर महर्षि वसिष्ठका पुरोहित-जीवन सफल हो गया| भगवान् श्रीरामके वनगमसे लौटनेके बाद इन्हींके द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ| गुरु वसिष्ठने श्रीरामके राज्यकार्यमें सहयोगके साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये|

महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी प्रतिमूर्ति थे| एक बार श्रीविश्वामित्र उनके अतिथि हुए| महर्षि वसिष्ठने कामधेनुके सहयोगसे उनका राजोचित सत्कार किया| कामधेनु की अलौकिक क्षमताको देखकर विश्वामित्रके मनमें लोभ उत्पन्न हो गया| उन्होंने इस गौको वसिष्ठसे लेनेकी इच्छा प्रकट की| कामधेनु वसिष्ठजीके लिये आवश्यक आवश्यकताओंकी पूर्तिहेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देनेमें असमर्थता व्यक्त की| विश्वामित्रने कामधेनुको बलपूर्वक ले जाना चाहा| वसिष्ठजीके संकेतपर कामधेनुने अपार सेनाकी सृष्टि कर दी| विश्वामित्रको अपनी सेनाके साथ भाग जानेपर विवश होना पड़ा| द्वेष-भावनासे प्रेरित होकर विश्वामित्रने भगवान् शंकरकी तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठपर पुन: आकर्मण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्रदण्डके सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रियबलको धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभके लिये तपस्याहेतु वन जाना पड़ा|

विश्वामित्रकी अपूर्व तपस्यासे सभी लोग चमत्कृत हो गये| सब लोगोंने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे| अन्तमें उन्होंने वसिष्ठजीको मिटानेका निश्चय कर लिया और उनके आश्रममें एक पेड़पर छिपकर वसिष्ठजीको मारनेके लिये उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे| उसी समय अरुन्धतीके प्रश्न करनेपर वसिष्ठजीने फेंककर श्रीवसिष्ठजीने शरणागत हुए| वसिष्ठजीने उन्हें उठाकर गलेसे लगाया और ब्रह्मर्षिकी उपाधिसे विभूषित किया| इतिहास-पुराणोंमें महर्षि वसिष्ठके चरित्रका विस्तृत वर्णन मिलता है| ये आज भी सप्तर्षियोंमें रहकर जगत् का कल्याण करते रहते हैं|

Saturday 12 August 2023

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवान श्रीराम

भगवान श्रीराम



असंख्य सद्गुण रूपी रत्नों के महान निधि भगवान् श्रीराम धर्म परायण भारतीयों के परमाराध्य हैं| श्रीराम ही धर्म के रक्षक, चराचर विश्व की सृष्टि करने वाले, पालन करने वाले तथा संहार करने वाले परब्रह्म के पूर्णावतार हैं| रामायण में यथार्थ ही कहा गया है - 'रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता|' भगवान् श्रीराम धर्म के क्षीण हो जाने पर साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और भूतल पर शान्ति एवं धर्म की स्थापना करने के लिये अवतार लेते हैं| उन्होंने त्रेतायुग में देवताओं की प्रार्थना सुन कर पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के यहाँ चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अवतार लिया और राक्षसों का संहार करके त्रिलोक में अपनी अविचल कीर्ति स्थापित की| पृथ्वी का धारण-पोषण, समाज का संरक्षण और साधुओं का परित्राण करने के कारण भगवान् श्रीराम मूर्तिमान् धर्म ही हैं|

भगवान् श्रीराम जीवमात्र के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे| विविध रामायणों, अठराह महापुराणों, रघुवंशादि महाकाव्यों, हनुमदादि नाटकों, अनेक चप्पू-काव्यों तथा महाभारतादि में इनके विस्तृत चरित्र का ललित वर्णन मिलता है| श्रीराम के विषय में जितने ग्रन्थ लिखे गये, उतने किसी अन्य अवतार के चरित्र पर नहीं लिखे गये| गुरुगृह से अल्पकाल में शिक्षा प्राप्त करके लौटने के बाद इनका चरित्र विश्वामित्र की यज्ञरक्षा, जनकपुर में शिव-धनुष-भंग, सीता-विवाह, परशुराम का गर्वभंग आदि के रूप में विख्यात है| यज्ञरक्षा के लिये जाते समय इन्होंने ताड़का-वध, महर्षि विश्वामित्र के आश्रम पर सुबाहु आदि दैत्यों का संहार तथा गौतम की पत्नी अहल्या का उद्धार किया| कैकेयी के वरदान स्वरूप पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ये चौदह वर्षों के लिये वन में गये| चित्रकूटादि अनेक स्थानों में रह कर इन्होंने ऋषियों को कृतार्थ किया| पञ्चवटी में शूर्पणखा की नाक काटकर और खर-दूषण, त्रिशिरा आदि का वध कर इन्होंने रावण को युध्द के लिये चुनौती दी| रावण ने मारीच की सहायता से सीता का अपहरण किया| सीता की खोज करते हुए इन्होंने सुतीक्ष्ण, शरभंग, जटायु, शबरी आदि को सद्गति प्रदान की तथा ऋष्यमूक पर्वतपर पहुँच कर सुग्रीव से मैत्री की और वाली का वध किया| फिर श्री हनुमान् जी के द्वारा सीता का पता लगवा कर इन्होंने समुद्र पर सेतु बँधवाया और वानरी-सेना की सहायता से रावण-कुम्भकर्णादिका वध किया तथा विभीषण को राज्य देकर सीता जी का उद्धार किया| भगवान् श्रीराम ने लगभग ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य कर के त्रेता में सत्ययुग की स्थापना की| अपने राज्यकाल में राम राज्य को चिरस्मरणीय बना कर पुराण पुरुष श्री राम सपरिकर अपने दिव्यधाम साकेत पधारे|

कर्तव्य ज्ञान की शिक्षा देना रामावतार की विशेषता है| इसका दुष्टान्त भगवान् श्रीराम ने स्वयं अपने आचरणों के द्वारा कर्म करके दिखाया| वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श वीर, आदर्श देश सेवक और सर्वश्रेष्ठ महा मानव होने के साथ साक्षात् परमात्मा थे| भगवान् श्रीराम का चरित्र अनन्त है, उनकी कथा अनन्त है| उसका वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है| भक्तगण अपनी भावना के अनुसार उनका गुणगान करते हैं|

Friday 11 August 2023

ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,

ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की



हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की
ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,

जम्बुद्वीपे, भरत खंडे. आर्यावर्ते, भारतवर्षे,
इक नगरी है विख्यात अयोध्या नाम की,
यही जन्म भूमि है परम पूज्य श्री राम की,
हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की,
ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,

रघुकुल के राजा धर्मात्मा, चक्रवर्ती दशरथ पुण्यात्मा,
संतति हेतु यज्ञ करवाया,धर्म यज्ञ का शुभ फल पाया,
नृप घर जन्मे चार कुमारा, रघुकुल दीप जगत आधारा,
चारों भ्रातों के शुभ नामा, भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण रामा,
गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल जाके, अल्प काल विद्या सब पाके,
पूरण हुयी शिक्षा, रघुवर पूरण काम की,

मृदु स्वर, कोमल भावना, रोचक प्रस्तुति ढंग,
इक इक कर वर्णन करें, लव कुश राम प्रसंग,
विश्वामित्र महामुनि राई, तिनके संग चले दोऊ भाई,
कैसे राम ताड़का मारी, कैसे नाथ अहिल्या तारी,

मुनिवर विश्वामित्र तब, संग ले लक्ष्मण राम,
सिया स्वयंवर देखने, पहुंचे मिथिला धाम,
जनकपुर उत्सव है भारी, अपने वर का चयन करेगी सीता सुकुमारी,
जनकपुर उत्सव है भारी, जनक राज का कठिन प्रण,
सुनो सुनो सब कोई, जो तोडे शिव धनुष को,
सो सीता पति होय, को तोरी शिव धनुष कठोर,
सबकी दृष्टि राम की ओर, राम विनय गुण के अवतार,
गुरुवर की आज्ञा शिरधार, सहज भाव से शिव धनु तोड़ा,
जनकसुता संग नाता जोड़ा, रघुवर जैसा और न कोई,
सीता की समता नही होई, दोउ करें पराजित कांति कोटि रति काम की,

सब पर शब्द मोहिनी डारी, मन्त्र मुग्ध भये सब नर नारी,
यूँ दिन रैन जात हैं बीते, लव कुश नें सबके मन जीते,
वन गमन, सीता हरण, हनुमत मिलन, लंका दहन,
रावण मरण, अयोध्या पुनरागमन सविस्तार सब कथा सुनाई,
राजा राम भये रघुराई, राम राज आयो सुख दाई,
सुख समृद्धि श्री घर घर आई

काल चक्र नें घटना क्रम में ऐसा चक्र चलाया,
राम सिया के जीवन में फिर घोर अँधेरा छाया,
अवध में ऐसा, ऐसा इक दिन आया,
निष्कलंक सीता पे प्रजा नें मिथ्या दोष लगाया
चल दी सिया जब तोड़ कर सब स्नेह नाते मोह के,
पाषण हृदयों में न अंगारे जगे विद्रोह के,
ममतामयी माँओं के आँचल भी सिमट कर रह गये,
गुरुदेव ज्ञान और नीति के सागर भी घट कर रह गए,
न रघुकुल न रघुकुलनायक, कोई न सिया का हुआ सहायक, 
मानवता को खो बैठे जब, सभ्य नगर के वासी,
तब सीता को हुआ सहायक, वन का इक सन्यासी,
उन ऋषि परम उदार का वाल्मीकि शुभ नाम,
सीता को आश्रय दिया ले आए निज धाम,
रघुकुल में कुलदीप जलाये, राम के दो सुत सिया नें जाय,
श्रोतागण,
जो एक राजा की पुत्री है,
एक राजा की पुत्रवधू है,
और एक चक्रवर्ती राजा की पत्नी है, 
वही महारानी सीता वनवास के दुखों में अपने दिन कैसे काटती है.
अपने कुल के गौरव और स्वाभिमान के रक्षा करते हुए,
किसी से सहायता मांगे बिना कैसे अपना काम वो स्वयं करती है,
स्वयं वन से लकड़ी काटती है, स्वयं अपना धान कूटती है,
स्वयं अपनी चक्की पीसती है, और अपनी संतान को स्वावलंबी बनने की शिक्षा कैसे देती है अब उसकी एक करुण झांकी देखिये;

जनक दुलारी कुलवधू दशरथजी की,
राजरानी होके दिन वन में बिताती है,
रहते थे घेरे जिसे दास दासी आठों याम,
दासी बनी अपनी उदासी को छिपती है,
धरम प्रवीना सती, परम कुलीना,
सब विधि दोष हीना जीना दुःख में सिखाती है,
जगमाता हरिप्रिया लक्ष्मी स्वरूपा सिया,
कूटती है धान, भोज स्वयं बनती है,
कठिन कुल्हाडी लेके लकडियाँ काटती है,
करम लिखे को पर काट नही पाती है,
फूल भी उठाना भारी जिस सुकुमारी को था,
दुःख भरे जीवन का बोझ वो उठाती है,
अर्धांगिनी रघुवीर की वो धर धीर, भरती है नीर,
नीर नैन में न लाती है, जिसकी प्रजा के अपवादों के कुचक्र में वो,
पीसती है चाकी स्वाभिमान को बचाती है,
पालती है बच्चों को वो कर्म योगिनी की भांति,
स्वाभिमानी, स्वावलंम्भी, सबल बनाती है,
ऐसी सीता माता की परीक्षा लेते दुःख देते,
निठुर नियति को दया भी नही आती है,
उस दुखिया के राज दुलारे, हम ही सुत श्री राम तिहारे,
सीता माँ की आँख के तारे, लव कुश हैं पितु नाम हमारे,
हे पितु, भाग्य हमारे जागे, राम कथा कही राम के आगे.

!!!۞!!! ॥ॐ श्री राम ॥ !!!۞!!!
॥ॐ श्री हनुमते नमः ॥ !!!۞!!!

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Thursday 10 August 2023

रुपये की भाग - दौड़ मे अपनो को भुला देता है...

रुपये की भाग - दौड़ मे अपनो को भुला देता है... 



बच्चा जब पैदा होता है,
तो उसके वस्त्रों में जेब नहीं होती

और ...


जब मनुष्य मर जाता है, तब उसके कफ़न में भी जेब नहीं होती
जेब तो जन्म और मरण के बीच में आती है,

और

जब से जेब बीच में आने लगी है, तब से मनुष्य रुपये के लिए  सभी अच्छे - बुरे काम करता है,

और
रुपये की भाग - दौड़ मे अपनो को भुला देता है... 

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Wednesday 9 August 2023

If God is ruler of the universe and controller of all, then why is He not responsible for anything?

If God is ruler of the universe and controller of all, then why is He not responsible for anything?


Question:

If God is ruler of the universe and controller of all, then why is He not responsible for anything? And why are we held responsible for every thing when we are not born knowing all that God is about. Why didn't God create us knowing His word so we would have a real choice?

Answer:
What a great question! From a human perspective it seems reasonable to think that if God made us, and if he is sovereign, he is responsible for anything we do. Therefore, logically, it seems unreasonable for him to hold us responsible for things he knew before hand that we would do.Like Paul puts it in Romans chapter 9, "why does he still blame us?"The answer is that God, in his sovereign will, has chosen to give us human beings a limited sovereignty over our own lives. In other words,God has chosen to give us what is commonly called "free will." Now,either human beings have free will or they do not.
I love the way Thomas Aquinas put it. He said "God, therefore, is the first cause, who moves causes both natural and voluntary. And just as by moving natural causes He does not prevent their actions from being natural, so by moving voluntary causes He does not deprive their actions of being voluntary; but rather is He the cause of this very thing in them, for He operates in each thing according to his own nature." In other words, God did not lose his sovereignty when he gave us voluntary will. This is hard to grasp. I can tell that you struggle with this. Well, so do I! However, one of the clearest teachings of the Bible is that God gives us a choice and that he holds us accountable for that choice. Surely that is the message of Genesis chapter three and an almost unlimited number of other passages. Biblically, God is"responsible" for his actions and we are "responsible" for our actions.God gives us real choice. He does not force us to do right. He does not force us to read the Bible. He does not force knowledge of his will on rebellious people who choose to reject the love he offers. He does give us a conscience and an innate desire to know him, but he does not force us to act on that desire. The God of the Bible is just. On Judgment Day I do not plan on blaming him for my own sinful behaviour.

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Tuesday 8 August 2023

"माँ कैसी होती है"

"माँ कैसी होती है"



एक माँ थी जिसका एक लड़का था, बाप मर चुका था, माँ घरो में बर्तन मांजती थी बेटे को अपना पेट काटकर एक अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाती थी,एक दिन स्कूल में किसी बच्चे ने उसके लड़के के आँख में पेंसिल मार दी ,लड़के की आँख चली गई ,डाक्टर ने कहा ये आँख नहीं बचेगी दूसरी लगेगी ,तो माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े के लिए अपनी एक आँख दे दी ,अब वो देखने में भी अच्छी नहीं थी, बेटा उसको स्कूल आने को मना करता था क्योंकि वो देखने में अच्छी और पढ़ी लिखी नहीं थी ऊपर से एक आँख भी नहीं रही, उसे अपनी माँ पर शर्म आती थी, कभी लंच बॉक्स देने आती भी थी तो मुह छुपा कर और अपने को नौकरानी बताती थी ,अपने बच्चे की ख्वाइश पूरी करने को वो दिन रात काम करती लेकिन बेटे को कमी महसूस नहीं होने देती , बेटा जवान हुआ एक सरकारी अधिकारी बना उसने लव मैरिज की, उसने अपनी माँ को भी नहीं बुलाया ,और अलग घर ले बीबी के साथ रहने लगा माँ बूढी हो रही थी बीमार भी रहने लगी ,लेकिन लड़का अपनी पत्नी और हाई सोसाइटी में व्यस्त रहने लगा उसे माँ की याद भी नहीं आती थी, माँ बीमार रहती लेकिन दिन रात अपने पुत्र की सम्रद्धि और उन्नति के लिए भगवान् से दुआ मांगती रहती कुछ पडोसी माँ का ख्याल रखते ,एक बार वो बहुत बीमार पड़ी तो उसने अपने बेटे को देखने की इच्छा जाहिर की लोग लड़के को बुलाने गए तो,वो अपनी बीबी के साथ कहीं टूर पे घुमने जा रहा था वो नहीं आया उसने कुछ पैसे इलाज़ के लिए भेज दिए ,लेकिन माँ का इलाज़ तो उसका बेटा था जिसको मरने से पहले देखना चाहती थी उसे प्यार देना चाहती थी, वो फिर भी बेटे का इन्तेजार करती रही ,उसके कलेजे का टुकड़ा उसके आशाओं के टुकड़े कर रहा था ,वो आया लेकिन तब तक माँ मर चुकी थी उसके हाथ में एक फोटो था लड़के का वही बचपन की स्कूल ड्रेस बाला फोटो धुन्दला गन्दा सा जिसे हर वक्त सीने से लगाये रहती थी, आज भी सीने से लगाये थी ,लेकिन मरते दम तक वो अपने कलेजे के टुकड़े को कलेजे से न लगा सकी दिन बीते वक्त बदला लड़के का कार से एक्सिडेंट हुआ इस एक्सिडेंट में उसकी दोनों आँख चली गई चेहरे पर चोट लगने से कुरूप लगने लगा दोनों पैर बेकार हो गए चलने में लचार हो गया ,पत्नी अमीर घर की लड़की थी ,वो दिनों दिन पति से दूर होने लगी क्योंकि पति अब कुरूप और विकलांग था ,और एक दिन वो पति को छोड़ कर चली गई ,तब बेटे को माँ की याद आयी ,की कैसे उसने अपने बेटे के लिए अपनी एक आँख दे दी जीवन के आखरी समय तक वो उसकी फोटो को सीने से लगाये रही,और वो उसको अपनी पत्नी और हाई सोसाइटी के लिए माँ को याद भी नहीं करता था आज ईश्वर ने उसे बता दिया की माँ का प्यार असीम होता है, निस्वार्थ होता है, दुनिया में उससे ज्यादा प्यार करने बाला कोई नहीं ,वो लेटे लेटे यही सोंच रहा था और रो रहा था की ईश्वर ने शायद माँ के प्यार की क़द्र न करने की सजा दी-----------लेकिन शायद माँ स्वर्ग में भी उसकी इस हालत को देख तड़प उठी होगी "

"माँ जीवन का अनमोल और निस्वार्थ प्यार है किसी और के प्यार के लिए उसे मत ठुकराना"

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.