ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. माँ का चुम्बन लेने में क्या दोष है?
श्री साईं लीलाएं
बाबा के सेवक को कुछ न कहना, बाबा गुस्सा होंगे
बाबा का स्वभाव था कि वे अपने भक्तों को उनकी इच्छा के अनुसार अपनी सेवा करने दिया करते थे| यदि कोई और उनके सेवक को कुछ उल्टा-सीधा कह देता तो बाबा एकदम गुस्सा हो जाते थे और उस पर अपने गुस्से का इजहार किया करते थे|
एक दिन मौसीबाई जिनका इससे पहले वर्णन आ चुका है, बाबा का पेट जोर लगाते हुए ऐसे मल रही थीं, मानो आटा गूंथ रही हों| उन्हें ऐसा करते औरों को अच्छा नहीं लगता था| जबकि साईं बाबा उसका सेवा से खुश रहते थे| उन्हें एक दिन इसी तरह सेवा करते देख एक अन्य भक्त ने मौसीबाई से कहा - "ओ बाई ! बाबा पर थोड़ा-सा रहम करो| बाबा का पेट धीरे-धीरे दबाओ| इस तरह जोर-जोर से उल्टा-सीधा दबाओगी तो आंतें व नाड़ियां टूट जायेंगी और दर्द भी होने लगेगा|"
इतना सुनते ही बाबा एक झटके से उठ बैठे और अपना सटका जोर-जोर से जमीन पर पटकने लगे| क्रोध के कारण उनकी आँखें और चेहरा अंगारे की भांति लाल हो गये| यह देखकर सब लोग डर गये|
फिर बाबा ने उसी सटके का एक सिरा पकड़कर नाभि में लगाया और दूसरा सिरा जमीन पर रख उसे अपने पेट से जोर-जोर से दबाने लगे| सटका दो-तीन फुट लम्बा था| यह दृश्य देखकर सब लोग और भी ज्यादा डर गये कि यदि यह सटका पेट में घुस गया तो? अब क्या किया जाये, किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था| बाबा सटके के और ज्यादा पास होते जा रहे थे| यह देख सब लोग किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे और भय-मिश्रित आश्चर्य से बाबा की इस लीला को देख रहे थे|
जिस व्यक्ति ने मौसीबाई को सलाह दी थी, उसे अपने किये पर बहुत पछतावा हो रहा था, कि कैसे मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई कि मैं बोल पड़ा| वह मन-ही-मन बाबा से माफी मांगने लगा| बाकी सभी भक्तजन बाबा से हाथ जोड़कर शांत होने की प्रार्थना कर रहे थे| फिर कुछ देर बाद बाबा का क्रोध शांत हो गया और वे आसन पर बैठ गये| उस समय भक्तों को बड़ा आराम महसूस हुआ| इस घटना के बाद सभी ने अपने मन में यह बात ठान ली कि वे बाबा के भक्त के किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे| भक्त जिस ढंग से चाहेंगे, वैसे ही बाबा की सेवा करने देंगे| क्योंकि बाबा भी अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप नहीं होने देना चाहते थे|
परसों चर्चा करेंगे... लालच बुरी बला
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. सब कुछ गुरु को अर्पण करता चल
श्री साईं लीलाएं
माँ का चुम्बन लेने में क्या दोष है?
साईं बाबा के एक भक्त थे दामोदर घनश्याम बावरे| लोग उन्हें 'अण्णा चिंचणीकर' के नाम से जानते थे| साईं बाबा पर उनकी इतनी आस्था था कि वे कई वर्ष तक शिरडी में आकर रहे| अण्णा स्वभाव से सीधे, निर्भीक और व्यवहार में रूखे थे| कोई भी बात उन्हें सहन न होती थी| पर मन में कोई कपट नहीं था| जो कुछ भी कहना होता था, दो टूक कह देते थे| अंदर से एकदम कोमल दिल और प्यार करने वाले थे| उनके इसी स्वभाव के कारण ही बाबा भी उन्हें विशेष प्रेम करते थे|एक बार दोपहर के समय बाबा अपना बायां हाथ कट्टे पर रखकर आराम कर रहे थे, सभी भक्त स्वेच्छानुसार बाबा के अंग दबा रहे थे| बाबा के दायीं ओर वेणुबाई कौजलगी नाम की एक विधवा भी बाबा की सेवा कर रही थी| साईं बाबा उन्हें माँ कहकर पुकारते थे, जबकि अन्य सभी भक्त उन्हें 'मौसीबाई' कहा करते थे| मौसीबाई बड़े सरल स्वभाव की थी| उसे भी हँसी-मजाक करने की आदत थी| उस समय वे अपने दोनों हाथों की उंगलियां मिलाकर बाबा का पेट दबा रही थीं| जब वे जोर लगाकर पेट दबातीं तो पेट व कमर एक हो जाते थे| दबाव के कारण बाबा भी इधर-उधर हो जाते थे| अण्णा चिंचणीकर भी बाबा की दूसरी ओर बैठे सेवा कर रहे थे| हाथों को चलाने से मौसीबाई का सिर ऊपर से नीचे हो रहा था| दोनों ही सेवा करने में व्यस्त थे| इतने में अचानक मौसीबाई का हाथ फिसला और वह आगे की तरफ झुक गयी और उनका मुंह अण्णा के मुंह के सामने हो गया|मौसीबाई मजाकिया स्वभाव की तो थी ही, वह एकदम से बोली - "अण्णा तुम मेरे से पप्पी (चुम्बन) मांगते हो| अपने सफेद बालों का ख्याल तो किया होता| तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती?" इतना सुनते ही अण्णा गुस्से के मारे आगबबूला हो गये और अनाप-शनाप बकने लगे - "क्या मैं मुर्ख हूं? तुम खुद ही मुझसे छेड़छाड़ कर झगड़ा कर रही हो|" अब मौसी का भी दिमाग गरम हो गया| दोनों में तू-तू, मैं-मैं बढ़ गयी| वहां उपस्थित अन्य भक्त इस विवाद का आनंद ले रहे थे| बाबा दोनों से बराबर का प्रेम करते थे| कुछ देर तक तो बाबा इस तमाशे को खामोशी से देखते रहे| फिर इस विवाद को शांत करते हुए बाबा अण्णा से बोले - "अण्णा ! क्यों इतना बिगड़ता है? अरे, अपनी माँ की पप्पी लेने में क्या दोष है?"बाबा का ऐसा कहते ही दोनों एकदम से चुप हो गये और फिर आपस में हँसने लगे तथा बाबा के भक्तजन भी ठहाका हँसी में शामिल हो गये|
कल चर्चा करेंगे... बाबा के सेवक को कुछ न कहना, बाबा गुस्सा होंगे
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
कल हमने पढ़ा था.. हैजे की क्या औकात, जब साईं बाबा है साथ
श्री साईं लीलाएं
सब कुछ गुरु को अर्पण करता चल
साईं बाबा कभी-कभी अपने भक्तों के साथ हँसी-मजाक भी किया करते थे, परन्तु उनकी इस बात से न केवल भक्तों का मनोरंजन ही होता था, बल्कि वह भावपूर्ण और शिक्षाप्रद भी होता था| एक ऐसी ही भावपूर्ण, शिक्षाप्रद व मनोरंजक कथा है -
शिरडी गांव में प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक बाजार लगा करता था| उस बाजार में न केवल शिरडी बल्कि आस-पास के गांवों के लोग भी खरीददारी करने आते थे| उस दिन मस्जिद में और दिनों की तुलना में अधिक लोग दर्शन करने आया करते थे|
ऐसे ही एक रविवार की बात है - हेमाडपंत मस्जिद में साईं बाबा के चरण दबा रहे थे| शामा बाबा के बायीं ओर थे| वामनराव दायीं ओर बैठे थे| कुछ देर बाद काका साहब और बूटी साहब भी वहां आ गये| उसी समय शामा ने हेमाडपंत से कहा - "अण्णा साहब ! लगता है आपकी बांह में यहां कुछ चिपका हुआ है, जरा देखो तो सही|" इस बात को सुन हेमाडपंत ने जब देखने के लिए अपनी बांह को सीधा किया तो उसमें से 20-25 चने निकलकर गिर गये| यह देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ|
वहां उपस्थित लोगों ने यह देखकर कई तरह के अनुमान लगाए| पर, किसी की समझ में कुछ भी नहीं आया, कि ये चने के दाने उनकी बांह में कैसे आए और अब तक कैसे चिपके रहे? इस रहस्य को जानने के लिए सभी उत्सुक थे| तभी बाबा ने विनोदपूर्ण लहजे में कहा - "इस अण्णासाहब को अकेले ही खाने की बुरी आदत है| आज रविवार का बाजार लगा है, ये वहीं से चने चबाते हुए आये हैं| मैं इनकी आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं और ये चने इस बात का सबूत हैं|" हेमाडपंत ने कहा - "बाबा ! यह आप क्या कह रहे हैं? मैं दूसरों को बांटे बिना कभी कुछ नहीं खाता हूं| आज तो मैं शिरडी के बाजार भी नहीं गया हूं, फिर चने खरीदने और खाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता| भोजन करते समय जो लोग मेरे पास होते हैं, पहले मैं उनको उनका हिस्सा देता हूं| फिर मैं भोजन खाता हूं|"
तब बाबा ने कहा - "अण्णा, चीजें बांटकर खाने की तेरी आदत को मैं जानता हूं| लेकिन जब तेरे पास कोई नहीं होता, तब तो तू अकेला ही खाता है| लेकिन इस बात का सदैव ध्यान रख, कि मैं हर क्षण तेरे साथ होता हूं| फिर तू मुझे अर्पण करके क्यों नहीं खाता?" बाबा के इन वचनों को सुनकर हेमाडपंत का दिल भर आया| बाबा हर क्षण अपने पास होते हैं, इस बात को उन्होंने कभी समझा ही नहीं और उन्हें कुछ अर्पण भी नहीं किया| यह सब सोचकर वे चुप हो गये कि मजाक ही मजाक में बाबा ने मुझे कितनी बड़ी शिक्षा दी है| उन्होंने बाबा के श्रीचरणों पर अपना मस्तक रख दिया|
यदि इन शब्दों पर ध्यान दिया जाये तो इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति परमात्मा को अर्पण किये बिना अकेला ही खाता है, वह दोषी होता है| यह बात केवल भोजन पर ही नहीं, बल्कि देखना, सुनना, सूंघना आदि सभी कार्यों पर समान भाव से लागू होती है| खाना-पीना, सोना-जागना तथा कोई भी कर्म किये बिना जीवन असंभव है| यदि ये सभी कर्म सद्गुरु या परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिये जायें तो व्यक्ति की इनकी आसक्ति नहीं रहती| वह व्यक्ति कर्म-बंधन में नहीं पड़ता है| उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और गुरु-चरणों की सेवा करने से आत्म-साक्षात्कार होता है| जो गुरु और परमात्मा दोनों एक हैं यानी उनमें कोई भेद नहीं है, ऐसा मानकर गुरु-सेवा करता है, वह भवसागर से पार हो जाता है|
कल चर्चा करेंगे... माँ का चुम्बन लेने में क्या दोष है?
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. सर्प विष-निवारक था
श्री साईं लीलाएं
हैजे की क्या औकात, जब साईं बाबा है साथ
एक बार शिरडी में हैजे का प्रकोप हो गया| जिससे शिरडीवासियों में भय फैल गया| अन्य गांवों से उनका सम्पर्क समाप्त-सा हो गया| तब गांव के पंचों ने यह आदेश जारी किया कि गांव में कोई भी आदमी बकरे की बलि न देगा और दूसरा यह कि गांव में लकड़ी की एक भी गाड़ी वगैरा बाहर से न आये| जो कोई भी इन आदेशों का पालन नहीं करेगा, उसे जुर्माना भरना पड़ेगा| सारे गांव में यह घोषणा कर दी गई|
साईं बाबा तो अंतर्यामी थे| बाबा इस बात को जानते थे कि यह सब कोरा अंधविश्वास है| इसलिए बाबा के लिए कौन-सा कानून और कैसा जुर्माना? इस दौरान शिरडी में एक दिन लकड़ियों से भरी एक गाड़ी आयी, तो उसे गांववालों ने गांव के बाहर ही रोक दिया और उसे वापस भगाने लगे| जबकि सब लोग इस बात को जानते थे कि इस समय गांव में लकड़ियों की सख्त आवश्यकता है| जुर्माने के डर से वह उसे गांव में प्रवेश करने से रोक रहे थे| साईं बाबा को जब इस बात का पता चला तो वे स्वयं वहां आए और गाड़ीवान से गाड़ी मस्जिद की ओर ले जाने को कहा| बाबा को रोक पाने या उन्हें कुछ कह पाने का साहस किसी में न था| फिर गाड़ीवान गाड़ी लेकर मस्जिद पर पहुंच गया|
मस्जिद में रात-दिन धूनी प्रज्जवलित रहती थी और उसके लिए लकड़ियों की आवश्यकता थी| बाबा ने लकडियां खरीद लीं| मस्जिद बाबा का ऐसा घर था, जो सभी जाति-धर्मों के लोगों के लिए हर वक्त खुला रहता था| गांव के गरीब लोग अपनी आवश्यकतानुसार मस्जिद से लकडियां ले जाते थे| बाबा कभी भी किसी से कुछ नहीं कहते थे| वे पूर्ण विरक्त थे|
पंचों के दूसरे आदेश 'बकरे की बलि न दी जाए' की भी बाबा ने कोई परवाह नहीं की| एक दिन एक व्यक्ति दुबला-पतला, मरियल-सा बकरा लाया| मालेगांव के फकीर पीर मोहम्मद उर्फ बड़े बाबा भी उस समय वहां पर मौजूद थे| वो साईं बाबा का बहुत आदर किया करते थे| सदैव बाबा के दाहिनी ओर बैठते थे| बाबा ने उन्हें बकरे को काटकर बलि चढ़ाने को कहा|
इन बड़े बाबा का भी बहुत महत्व था| साईं बाबा के चिलम भरने पर चिलम भी सबसे पहले बड़े बाबा पीते और बाद में साईं बाबा को देते थे| बाद में अन्य भक्तों को चिलम मिलती थी| दोपहर में भोजन के समय भी साईं बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपनी दायीं ओर बैठाते थे और तब सब लोग भोजन करते थे| इसकी वजह थी साईं बाबा और बड़े बाबा का आपसी प्यार| जब भी बड़े बाबा साईं बाबा से मिलने के लिये आते थे, बाबा उनकी मेहमाननवाजी में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ते थे| बाबा के पास जितनी भी दक्षिणा इकट्ठी होती थी, बाबा उसमें से 50 रुपये रोजाना बड़े बाबा को दिया करते थे और जब वे शिरडी से विदा लेते तो बाबा उन्हें कुछ दूर तक छोड़ने उनके साथ जाते थे|इतना सम्मान करने पर भी जब साईं बाबा ने उनसे बकरा काटने को कहा, तो उन्होंने कहा कि बलि देना निरर्थक है| बेवजह किसी जीव की जान क्यों ली जाए? तब साईं बाबा ने शामा से कहा - "अरे शामा ! तू छुरी लाकर इस बकरे को काट दे|" यह सुनते ही शामा राधाकृष्णा माई के घर से एक छुरी उठा लाया| छुरी लाकर बाबा के सामने रख दी| लेकिन जब राधाकृष्णा माई को यह पता चला कि आज मस्जिद में बकरे की बलि दी जा रही है तो वह अपना छुरा उठाकर ले गयी| फिर शामा दूसरा छुरा लाने के गया तो लौटा ही नहीं| बहुत देर तक इंतजार देखने के बाद शामा मस्जिद नहीं लौटा| तब साईं बाबा ने काका साहब दीक्षित से कहा - "काका ! तुम छुरा लाकर इस बकरे को काट दो| इसको दर्दभरी जिंदगी से मुक्त कर दो|" जबकि वास्तव में बाबा उनकी परीक्षा लेना चाहते थे| काका साहब जाति के ब्राह्मण थे और नियम-धर्म का पालन करने वाले अहिंसा के पुजारी थे| सब लोग यह बड़ी उत्सुकता के साथ देख रहे थे कि आगे क्या होने वाला है?
काका साहब साठेवाड़ा से एक छुरा ले आये और बाबा की आज्ञा से बकरा काटने को तैयार हो गये| लोग बड़े आश्चर्य से यह देख रहे थे कि काका साहब ब्राह्मण होकर बकरे की बलि देने को तैयार हैं| फिर काका साहब ने बकरे पास खड़े होकर साईं बाबा से पूछा - "बाबा ! इसे काट दूं क्या?" बाबा बोले - "देखता क्या है, कर दे इसका काम-तमाम|" काका ने अपने छुरेवाला दाहिना हाथ ऊपर उठाया और वार करने ही वाले थे कि दौड़कर साईं बाबा ने उनका हाथ पकड़ा और बोले - "काका ! क्या तू सचमुच इसे मारेगा? ब्राह्मण होकर भी तुम बकरे की बलि दे रहे हो? तुम कितने निर्दयी हो? इस निरीह जीव को मारते हुए तुम्हें जरा भी बुरा नहीं लगा?"
यह सुनते ही काका ने छुरे को जमीन पर फेंक दिया| फिर बाबा ने पूछा - "काका ! इतना धार्मिक होने पर भी तेरे मन में इतनी बेहरमी कैसे?" इस पर काका बोले - "बाबा ! मैं कोई धर्म, अहिंसा नहीं जानता| आपके आदेश का पालन करना यही मेरा धर्म है, यही मेरे लिए सर्वोपरी है| यदि आपके आदेश पर मैं अच्छे-बुरे का विचार करूंगा तो मैं अपने सेवक धर्म से गिर जाऊंगा| गुरु का आदेश ही मेरा धर्म है| उसके आगे मैं कुछ भी नहीं जानता| आपका प्रत्येक शब्द मेरे सिर-आँखों पर है| आपकी आज्ञा का पालन करते हुए मेरे प्राण भी चले जायें तो कोई चिन्ता नहीं| आप मेरे गुरु हैं और मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है|"
इस पर बाबा ने कहा कि वे स्वयं बकरे की बलि देंगे| तब वे तकिए के पास, जहां पर अनेक फकीर बैठते थे, वहां बकरे को बलि के लिए ले जाने लगे, लेकिन रास्ते में गिरकर ही बकरे ने प्राण त्याग दिये|
बाबा ने गुरु-आज्ञा की महत्ता दिखाने के लिए ही यह सब लीला रची थी| बड़े बाबा जैसे मुसलमान भक्त भी जहां इस परीक्षा में खरे न उतर सके, वहीं एक शुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण बिना किसी बात की परवाह किए परीक्षा में सफल रहा|
कल चर्चा करेंगे... सब कुछ गुरु को अर्पण करता चल
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. योगी का आत्मसमर्पण
श्री साईं लीलाएं
सर्प विष-निवारक था
शामा साईं बाबा के परमभक्त थे| साईं बाबा अक्सर कहा करते थे कि शामा अैर मेरा जन्मों-जन्म का नाता है| एक बार की बात है कि शाम के समय शामा को हाथ की अंगुली में एक जहरीले सांप ने डस लिया| सांप का जहर धीरे-धीरे अपना असर दिखाने लगा, तो दर्द के मारे शामा चीखने-चिल्लाने लगा| अब मृत्यु दूर नहीं, इस विचार के मन में आते ही घबराहट बढ़ गयी|
शाम की हालत को देखकर उसके मित्र उसे विठोला मंदिर ले जाना चाहते थे| वह मंदिर शिरडी के पास में ही था और सांप के काटे हुए व्यक्ति को वहां ले जाया जाता था| जहां इस तरह की पीड़ाओं का निवारण हो जाता था| परन्तु शामा अपने विठोवा यानी साईं बाबा के पास जाने के लिए मस्जिद की ओर दौड़े| साईं बाबा ने जब शामा को दूर से आता देखा, तो एकदम गरजते हुए क्रोधावेश में बोले - "ओ बम्मन ! रुक जा वहीं-के-वहीं| खबरदार ! अगर ऊपर चढ़ के आया तो| चल निकल जा, नीचे उतर|"
साईं बाबा को क्रोधावेश में देख और बाबा के वचन सुनकर शामा हैरान रह गया| वह बाबा को अपने जीवन का आधार मानता था| इसलिए पूरी तरह निराश होकर वहीं पर बैठ गया| कुछ देर बाद जब बाबा का क्रोध शांत हुआ और वे सामान्य हो गए तो शामा बाबा के पास जाकर बैठ गया| उसकी आँखें भर आयीं| साईं बाबा उससे बोले - " शामा ! डर मत| फिक्र की कोई बात नहीं| सीधा घर चला जा और शांति से बैठ, परन्तु घर से बाहर मत जाना| मुझ पर विश्वास रखते हुए चिंता छोड़ दे| मस्जिद का फकीर बहुत दयालु है| वह तुझे मरने नहीं देगा|" शामा की जान में जान में आ गयी|
शामा को घर भेजने के बाद बाबा ने तात्या और काका को उसके घर भेजा| उनके द्वारा कहलवा दिया - जो मन करे, खाये-पीये, घर में टहलता रहे, लेटना और सोना बिल्कुल नहीं| यानी जागता रहे| बाबा का प्यार देखकर शामा बेफिक्र हो गया| उसने बाबा के आदेश का दृढ़ता से पालन किया और सुबह होते ही मानो उसे नया जन्म मिल गया और वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया|
यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि शाम के समय बाबा ने जो शब्द 'चल निकल जा, नीचे उतर|' वे शामा को नहीं बल्कि उनका इशारा तो सांप और उसके जहर की तरफ था| तभी वह जहर बेअसर हो गया था| ऐसे हजारों चमत्कार किये थे बाबा ने|
कल चर्चा करेंगे...
हैजे की क्या औकात, जब साईं बाबा है साथ
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
ॐ सांई राम
परसों हमने पढ़ा था.. सबका रखवाला साईं
श्री साईं लीलाएं
योगी का आत्मसमर्पण
एक बार चाँदोरकर के साथ एक सज्जन साईं बाबा से मिलने के लिए शिरडी आये थे| उन्होंने योग साधना के अतिरिक्त अनेक ग्रंथों का भी अध्ययन किया था, लेकिन उन्हें जरा भी व्यावहारिक ज्ञान नहीं था| पलमात्र भी वे समाधि लगाने में सफल नहीं हो पाते थे| उनके समाधि साधने में बाधा आती थी| उन्होंने विचार किया कि यदि साईं बाबा उन पर कृपा कर देंगे तो उनकी समाधि लगाने के समय आने वाली बाधा समाप्त हो जाएगी| अपने इसी उद्देश्य से वे चाँदोरकर के साथ शिरडी आये थे|
चाँदोरकर के साथ जब वे साईं बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद पहुंचे तो उस समय साईं बाबा जुआर की बासी रोटी और कच्ची प्याज खा रहे थे| यह देखकर वह सज्जन सोचने लगे कि जो व्यक्ति कच्ची प्याज के संग बासी रोटी खाता हो, वह मेरी समस्या को कैसे दूर कर सकेगा? साईं बाबा तो अंतर्यामी थे| किसके मन में क्या विचार पैदा हो रहे हैं, यह उनसे छिपा न था| बाबा उन सज्जन के मन की बात जानकर नाना चाँदोरकर से बोले - "नाना ! जो प्याज को हजम करने की ताकत रखता है, प्याज भी उसी को खाना चाहिए, दूसरे को नहीं|"
वह सज्जन जो स्वयं को योगी समझते थे, बाबा के शब्दों को सुनकर अवाकू रह गये और उसी पल बाबा के श्रीचरणों में नतमस्तक हो गये| बाबा ने उसकी सारी समस्यायें जान लीं और उसे उनका समाधान भी बता दिया|
बाद में वे सज्जन बाबा के दर्शन कर जब वापस लौटने लगे तो बाबा ने उन्हें आशीर्वाद और ऊदी प्रसाद के साथ विदा किया|
कल चर्चा करेंगे... सर्प विष-निवारक था
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
ॐ साँई राम
आप सभी को शिर्डी के साँईं बाबा ग्रुप की और से साँईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साँईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साँईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साँईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साँईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साँईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 41 - चित्र की कथा, चिंदियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी के पठन की कथा ।
गत अध्याय में वर्णित घटना के नौ वर्ष पश्चात् अली मुहम्मद हेमाडपंत से मिले और वह पिछली कथा निम्निखित रुप में सुनाई ।
एक दिन बम्बई में घूमते-फिरते मैंने एक दुकानदार से बाबा का चित्र खरीदा । उसे फ्रेम कराया और अपने घर (मध्य बम्बई की बस्ती में) लाकर दीवाल पर लगा दिया । मुझे बाबा से स्वाभाविक प्रेम था । इसलिये मैं प्रतिदिन उनका श्री दर्शन किया करता था । जब मैंने आपको (हेमाडपंत को) वह चित्र भेंट किया, उसके तीन माह पूर्व मेरे पैर में सूजन आने के कारण शल्यचिकित्सा भी हुई थी । मैं अपने साले नूर मुहम्मद के यहाँ पड़ा हुआ था । खुद मेरे घर पर तीन माह से ताला लगा था और उस समय वहाँ पर कोई न था । केवल प्रसिदृ बाबा अब्दुल रहमान, मौलाना साहेब, मुहम्मद हुसेन, साई बाबा ताजुद्दीन बाबा और अन्य सन्त चित्रों के रुप में वही विराजमान थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें भी वहाँ न छोड़ा । मैं वहाँ (बम्बई) बीमार पड़ा हुआ था तो फिर मेरे घर में उन लोगों (फोटो) को कष्ट क्यों हो । ऐसा समझ में आता है कि वे भी आवागमन (जन्म और मृत्यु) के चक्कर से मुक्त नहीं है । अन्य चित्रों की गति तो उनके ओभाग्यनुसार ही हुई, परन्तु केवल श्री साईबाबा का ही चित्र कैसे बच निकला, इसका रहस्योदघाटन अभी तक कोई नहीं कर सका है । इससे श्री साईबाबा की सर्वव्यापकता और उनकी असीम शक्ति का पता चलता है ।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे मुहम्मद हुसेन थारिया टोपण से सन्त बाबा अब्दुल रहमान का चित्र प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने अपने साले नूर मुहम्मद पीरभाई को दे दिया, जो गत आठ वर्षों से उसकी मेज पर पड़ा हुआ था । एक दिन उसकी दृष्टि इस चित्र पर पड़ी, तब उसने उसे फोटोग्राफर के पास ले जाकर उसकी बड़ी फोटो बनवाई और उसकी कापियाँ अपने कई रिश्तेदारों और मित्रों में वितरित की । उनमें से एक प्रति मुझे भी मिली थी, जिसे मैंने अपने गर की दीवाल पर लगा रखा था । नूर मुहम्मद सन्त अब्दुल रहमान के शिष्य थे । जब सन्त अब्दुल रहमान साहेब का आम दरबार लगा हुआ था, तभी नूर मुहम्मद उन्हें वह फोटो भेंट करने के हेतु उनके समक्ष उपस्थित हुए । फोटो को देखते ही वे अति क्रोधित हो नूर मुहम्मद को मारने दौड़े तथा उन्हें बाहर निकाल दिया । तब उन्हें बड़ा दुःख और निराशा हुई । फिर उन्हें विचार आया कि मैंने इतना रुपया व्यर्थ ही खर्च किया, जिसका परिणाम अपने गुरु के क्रोध और अप्रसन्नता का कारण बना । उनके गुरु मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिये वे हाथ में फोटो लेकर अपोलो बन्दर पहुँचे और एक नाव किराये पर लेकर बीच समुद्र में वह फोटो विसर्जित कर आये । नूर मुहम्मद ने अपने सब मित्रों और सम्बन्धियों से भी प्रार्थना कर सब फोटो वापस बुला लिये (कुल छः फोटो थे) और एक मछुए के हाथ से बांद्रा के निकट समुद्र में विसर्जित करा दिये ।
इस समय मैं अपने साले के घर पर ही था । तब नूर मुहम्मद ने मुझसे कहा कि यदि तुम सन्तों के सब चित्रों को समुद्र में विसर्जित करा दोगे तो तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे । यह सुनकर मैंने मैनेजर मैहता को अपने घर भेजा और उसके द्घारा घर में लग हुए सब चित्रों को समुद्र में फिकवा दिया । दो माह पश्चात जब मैं अपने घर वापस लौटा तो बाबा का चित्र पूर्ववत् लगा देखकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ । मं समज न सका कि मेहता ने अन्य सब चित्र तो निकालकर विसर्जित कर दिये, पर केवल यही चित्र कैसे बच गया । तब मैंने तुरन्त ही उसे निकाल लिया और सोचने लगा कि कहीं मेरे साले की दृष्टि इस चित्र पर पड़ गई तो वह इसकी भी इति श्री कर देगा । जब मैं ऐसा विचार कर ही रहा था कि इस चित्र को कौन अच्छी तरह सँभाल कर रख सकेगा, तब स्वयं श्री साईबाबा ने सुझाया कि मौलाना इस्मू मुजावर के पास जाकर उनसे परामर्श करो और उनकी इच्छानुसार ही कार्य करो । मैंने मौलाना साहेब से भेंट की और सब बाते उन्हें बतलाई । कुछ देर विचार करने के पस्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इस चित्र को आपको (हेमाडपंत) ही भेंट करना उचित है, क्योकि केवल आप ही इसे उत्तम प्रकार से सँभालने के लिये सर्वथा सत्पात्र है । तब हम दोनों आप के घर आये और उपयुक्त समय पर ही यतह चित्र आपको भेंट कर दिया । इस कथा से विदित होता है कि बाबा त्रिकालज्ञानी थे और कितनी कुशलता से समस्या हल कर भक्तों की इच्छायें पूर्ण किया करते थे । निम्नलिखित कथा इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक जिज्ञासुओं पर बाबा किस प्रकार स्नेह रखते तथा किस प्रकार उनके कष्ट निवारण कर उन्हें सुख पहुँचाते थे ।
चिन्दियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी का पठन
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श्री. बी. व्ही. देव, जो उस समय डहाणू के मामलेदार थे, को दीर्घकाल से अन्य धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ ज्ञानेश्वरी के पठन की तीव्र इच्छा थी । (ज्ञानेश्वरी भगवदगीता पर श्री ज्ञानेश्वर महाराज द्घारा रचित मराठी टीका है ।) वे भगवदगीता के एक अध्याय का नित्य पाठ करते तथा थोड़े बहुत अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे । परन्तु जब भी वे ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो उनके समक्ष अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जाती, जिससे वे पाठ करने से सर्वथा वंचित रह जाया करते थे । तीन मास की छुट्टी लेकर वे शिरडी पधारे और तत्पश्चात वे अपने घर पौड में विश्राम करने के लिये भी गये । अन्य ग्रन्थ तो वे पढ़ा ही करते थे, परन्तु जब ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो नाना प्रकार के कलुषित विचार उन्हें इस प्रकार घेर लेते कि लाचार होकर उसका पठन स्थगित करना पड़ता था । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उनको केवल दो चार ओवियाँ पढ़ना भी दुष्कर हो गया, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि जब दयानिधि श्री साई ही कृपा करके इस ग्रन्थ के पठन की आज्ञा देंगे, तभी उसकी श्रीगणेश करुँगा । सन् 1914 के फरवरी मास में वे सहकुटुम्ब शिरडी पधारे । तभी श्री. जोग ने उनसे पूछा कि क्या आप ज्ञानेश्वरी का नित्य पठन करते है । श्री. देव ने उत्तर दिया कि मेरी इच्छा तो बहुत है, परन्तु मैं ऐसा करने में सफलता नहीं पा रहा हूँ । अब तो जब बाबा की आज्ञा होगी, तभी प्रारम्भ करुँगा । श्री, जोग ने सलाह दी कि ग्रन्थ की एक प्रति खरीद कर बाबा को भेंट करो और जब वे अपने करकमलों से स्पर्श कर उसे वापस लौटा दे, तब उसका पठन प्रारम्भ कर देना । श्री. देव ने कहा कि मैं इस प्रणाली को श्रेयस्कर नहीं समझता, क्योंकि बाबा तो अन्तर्यामी है और मेरे हृदय की इच्छा उनसे कैसे गुप्त रह सकती है । क्या वे स्पष्ट शब्दों में आज्ञा देकर मेरी मनोकामना पूर्ण न करेंगें ।
श्री. देव ने जाकर बाबा के दर्शन किये और एक रुपया दक्षिणा भेंट की । तब बाबा ने उनसे बीस रुपये दक्षिणा और माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दिया । रात्रि के समय श्री. देव ने बालकराम से भेंट की और उनसे पूछा आपने किस प्रकार बाबा की भक्ति तथा कृपा प्राप्त की है । बालकराम ने कहा मैं दूसरे दिन आरती समाप्त होने के पश्चात् आपको पूर्ण वृतान्त सुनाऊँगा । दूसरे दिन जब श्री. देवसाहब दर्शनार्थ मसजिद में आये तो बाबा ने फिर बीस रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष भेंट कर दी । मसजिद में भीड़ अधिक होने के कारण वे एक ओर एकांत में जाकर बैठ गये । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने समीप बैठा लिया । आरती समाप्त होने के पश्चात जब सब लोग अपने घर लौट गये, तब श्री. देव ने बालकराम से भेंट कर उनसे उनका पूर्व इतिहास जानने की जिज्ञासा प्रगट की तथा बाबा द्घारा प्राप्त उपदेश और ध्यानादि के संबंध में पूछताछ की । बालकराम इन सब बातों का उत्तर देने ही वाले थे कि इतने में चन्द्रू कोढ़ी ने आकर कहा कि श्री. देव को बाबा ने याद किया है । जब देव बाबा के पास पहुँचे तो उन्होंने प्रश्न किया कि वे किससे और क्या बातचीत कर रहे थे । श्री. देव ने उत्तर दिया कि वे बालकराम से उनकी कीर्ति का गुणगान श्रवण कर रहे थे । तब बाबा ने उनसे पुनः 25 रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी । फिर बाबा उन्हें भीतर ले गये और अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन पर दोषारोपण करते हुए कहा कि मेरी अनुमति के बिना तुमने मेरी चिन्दियों की चोरी की है । श्री. देव ने उत्तर दिया भगवन । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है । परन्तु बाबा कहाँ मानने वाले थे । उन्होंने अच्छी तरह ढँढ़ने को कहा । उन्होंने खोज की, परन्तु कहीं कुछ भी न पाया । तब बाबा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं हैं । तुम्ही चोर हो । तुम्हारे बाल तो सफेद हो गये है और इतने वृदृ होकर भी तुम यहां चोरी करने को आये हो । इसके पश्चात् बाबा आपे से बाहर हो गये और उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गई । वे बुरी तरह से गालियाँ देने और डाँटने लगे । देव शान्तिपूर्वक सब कुछ सुनते रहे । वे मार पड़ने की भीआशंका कर रहे थे कि एक घण्टे के पश्चात् ही बाबा ने उनसे वाड़े में लौटने को कहा । वाड़े को लौटकर उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसका पूर्ण विवरण जोग और बालकराम को सुनाया । दोपहर के पश्चात बाबा ने सबके साथ देव को भी बुलाया और कहने लगे कि शायद मेरे शब्दों ने इस वृदृ को पीड़ा पहुँचाई होगी । इन्होंने चोरी की है और इसे ये स्वीकार नहीं करते है । उन्होंने देव से पुनः बारह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने एकत्र करके सहर्ष भेंट करते हुए उन्हें नमस्कार किया । तब बाबा देव से कहने लगे कि तुम आजकल क्या कर रहे हो । देव ने उत्तर दिया कि कुछ भी नहीं । तब बाबा ने कहा प्रतिदिन पोथी (ज्ञानेश्वरी) का पाठ किया करो । जाओ, वाडें में बैठकर क्रमशः नित्य पाठ करो और जो कुछ भी तुम पढ़ो, उसका अर्थ दूसरों को प्रेम और भक्तिपूर्वक समझाओ । मैं तो तुम्हें सुनहरा शेला (दुपट्टा) भेंट देना चाहता हूँ, फिर तुम दूसरों के समीप चिन्दियों की आशा से क्यों जाते हो । क्या तुम्हें यह शोभा देता है ।
पोथी पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करके देव अति प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा कि मुझे इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई है और अब मैं आनन्दपूर्वक पोथी (ज्ञानेश्वरी) पढ़ सकूँगा । उन्होंने पुनः साष्टांग नमस्कार किया और कहा कि हे प्रभु । मैं आपकी शरण हूँ । आपका अबोध शिशु हूँ । मुझे पाठ में सहायता कीजिये । अब उन्हें चिन्दियों का अर्थ स्पष्टतया विदित हो गया था । उन्होंने बालकराम से जो कुछ पूछा था, वह चिन्दी स्वरुप था । इन विषयों में बाबा को इस प्रकार का कार्य रुचिकर नहीं था । क्योंकि वे स्वंय प्रत्येक शंका का समाधान करने को सदैव तैयार रहते थे । दूसरों से निरर्थक पूछताछ करना वे अच्छा नहीं समझते थे, इसलिये उन्होंने डाँटा और क्रोधित हुए । देव ने इन शब्दों को बाबा का शुभ आर्शीवाद समझा तथा वे सन्तुष्ट होकर घर लौट गये ।
यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती । अनुमति देने के पश्चात् भी बाबा शान्त नहीं बैठे तथा एक वर्ष के पश्चात ही वे श्री. देव के समीप गये और उनसे प्रगति के विषय में पूछताछ की । 2 अप्रैल, सन् 1914 गुरुवार को सुबह बाबा ने स्वप्न में देव से पूछा कि क्या तुम्हें पोथी समझ में आई । जब देव ने स्वीकारात्मक उत्तर न दिया तो बाबा बोले कि अब तुम कब समझोगे । देव की आँखों से टप-टप करके अश्रुपात होने लगा और वे रोते हुए बोले कि मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ कि हे भगवान् । जब तक आपकी कृपा रुपी मेघवृष्टि नहीं होती, तब तक उसका अर्थ समझना मेरे लिये सम्भव नहीं है और यह पठन तो भारस्वरुप ही है । तब वे बोले कि मेरे सामने मुझे पढ़कर सुनाओ । तुम पढ़ने में अधिक शीघ्रता किया करते हो । फिर पूछने पर उन्होंने अध्यात्म विषयक अंश पढ़ने को कहा । देव पोथी लाने गयेऔर जब उन्होंने नेत्र खोले तो उनकी निद्रा भंग हो गई थी । अब पाठक स्वयं ही इस बात का अनुमान कर लें कि देव को इस स्वप्न के पश्चात् कितना आनंद प्राप्त हुआ होगा ।
(श्री. देव अभी (सन् 1944) जीवित है और मुझे गत 4-5 वर्षों के पूर्व उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
जहाँ तक मुझे पता चला है, वह यही है कि वे अभी भी ज्ञानेश्वरी का पाठ किया करते है । उनका ज्ञान अगाध और पूर्ण है । यह उनके साई लीला के लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है) । (ता. 19.10.1944)
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. अम्मीर शक्कर की प्राण रक्षा
श्री साईं लीलाएं
सबका रखवाला साईं
साईं बाबा लोगों को उपदेश भी देते और उनसे विभिन्न धर्मग्रंथों का अध्ययन भी करवाते| साईं बाबा के कहने पर काका साहब दीक्षित दिन में एकनामी भागवत और रात में भावार्थ रामायण पढ़ते थे| उसका यह नियम और समय कभी नहीं चूकता था|
एक दिन काका साहब दीक्षित जब रामायण पाठ कर रहे थे तब हेमाडंपत भी वहां पर उपस्थित था| वहां उपस्थित सभी श्रोता पूरी तन्मयता के साथ प्रसंग का श्रवण कर रहे थे| हेमाडंपत भी प्रसंग सुनने में पूरी तरह से मग्न थे|
लेकिन तब ही न जाने कहां से एक बिच्छू आकर हेमाडंपत पर आकर गिरा और उनके दायें कंधे पर बैठ गया| हेमाडंपत को इसका पता न चला| कुछ देर बाद जब बाबा की नजर अचानक हेमाडंपत के कंधे पर पड़ी तो उन्होंने देखा कि बिच्छू उनके कंधे पर मरने जैसी अवस्था में पड़ा था| लेकिन बाबा ने बड़ी शांति के साथ बिच्छू को धोती के दोनों किनारे मिलाकर उसमें लपेटा और दूर जाकर छोड़ आये| बाबा की प्रेरणा से ही वह बिच्छू से बचे और कथा भी बिना बाधा के चलती रही|
इसी तरह एक बार शाम के समय काका साहब दीक्षित बाड़े के ऊपरी हिस्से में बैठे हुए थे| उसी समय एक सांप खिड़की की चौखट से छोटे-से छेद में से होकर अंदर आकर कुंडली मारकर बैठ गया| अंधेरे में तो वह दिखाई नहीं दिया, लेकिन लालटेन की रोशनी में वह स्पष्ट दिखाई पड़ा| वह बैठा हुआ फन हिला रहा था|
तभी कुछ लोग लाठी लेकर वहां दौड़े| उसी हड़बड़ाहट में वह सांप वहां से जान बचाने के लिए उसी छेद में से निकलकर भाग गया| लोगों ने उसके भाग जाने पर चैन की सांस ली| जब सांप भाग गया तो वहां उपस्थित लोग आपस में वाद-विवाद करने लगे| एक भक्त मुक्ताराम का कहना था - "कि अच्छा हुआ जो एक जीव के प्राण जाने से बच गए|" लेकिन हेमाडंपत को गुस्सा आ गया और वे मुक्ताराम का प्रतिरोध करते हुए बोले - "ऐसे खतरनाक जीवों के बारे में दया दिखायेंगे तो यह दुनिया कैसे चलेगी? सांप को तो मार डालना ही अच्छा था|" इस बारे में दोनों में बहुत देर तक बहस होती रही| दोनों ही अपनी-अपनी बातों पर अड़े रहे| आखिर में जब रात काफी हो गयी तो, तब कहीं जाकर बहस रुकी| सब लोग सोने के लिये चले गये|
अगले दिन प्रात: जब सब लोग बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद में गये, तब बाबा ने पूछा - "कल रात दीक्षित के घर में क्या बहस हो रही थी?" तब हेमाडंपत ने बाबा को सारी बात बताते हुए पूछा कि सांप को मारा जाये या नहीं? तब बाबा अपना निर्णय सुनाते हुए बोले - "सभी जीवों में ईश्वर का वास है| वह जीव चाहे सांप हो या बिच्छू| ईश्वर ही सबके नियंता हैं| ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता| इसलिए सबसे प्यार करना चाहिए| सारा संसार ईश्वर के आधीन है और इस संसार में रहनेवाले किसी का भी अलग अस्तित्व नहीं है| इसलिए सब जीवों पर दया करनी चाहिए| जहां तक संभव हो हिंसा न करें| हिंसा से क्रूरता बढ़ती है| धैर्य रखना चाहिए| अहिंसा में शांति और संतोष होता है| इसलिए शत्रुता त्यागकर शांत मन से जीवन जीना चाहिए| ईश्वर की सबका रक्षक है|" बाबा के इस अनमोल उपदेश को हेमाडंपत कभी नहीं भूले| बाबा ने हेमाडंपत ही नहीं अपने सम्पर्क में आये हजारों लोगों का जीवन सुधारा| वे सन्मार्ग पर चलने लगे|
परसों चर्चा करेंगे... योगी का आत्मसमर्पण
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
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बाबा के 11 वचन
ॐ साईं राम
1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य
.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....
गायत्री मंत्र
ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥
Word Meaning of the Gayatri Mantra
ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe
these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation
धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"
dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God
भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।
Simply :
तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.