शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Monday, 31 October 2022

श्री साईं लीलाएं - बांद्रा गया भूखा ही रह गया

ॐ सांई राम


कल हमने पढ़ा था.. बाबा की आज्ञा का पालन अवश्य हो      

श्री साईं लीलाएं - बांद्रा गया भूखा ही रह गया

बाबा के एक भक्त रामचन्द्र आत्माराम तर्खड जिन्हें लोग बाबा साहब के नाम से भी जानते थेबांद्रा में रहते थेवैसे वो प्रार्थना समाजी थे परन्तु साईं बाबा के अनन्य भक्त थेउनकी पत्नी और पुत्र तो साईं बाबा के प्रति पूर्णतया समर्पित थेउनका पुत्र तो साईं बाबा की तस्वीर को बिना भोग लगाये खाना भी नहीं खाता था|एक बार गर्मियों की छुट्टियों में उनके मन में विचार आया कि उनकी पत्नी और पुत्र छुट्टियां शिरडी में ही बितायेंलेकिन उनका पुत्र उनकी इस बात से सहमत नहीं थावह छुट्टियां बांद्रा में ही बिताना चाहता थाक्योंकि उसके मन में यह शंका थी कि उसके घर में न रहने की वजह से साईं बाबा की पूजा और भोग में व्यवधान पड़ेगाशायद उसके पिता प्रार्थना समाजी होने के कारण इस पर पूरा ध्यान न दे पाएंलेकिन जब उसके पिता ने उसे इस बारे में पूरी तरह से आश्वस्त कर दियाफिर वह लड़का अपनी माँ को साथ लेकर शिरडी रवाना हो गया|अपने बेटे से किये गये वायदे के अनुसार बाबा साहब रोजाना पूजन करते और बाबा की तस्वीर को भोग भी चढ़ातेएक दिन वह पूजा करके अपने ऑफिस चले गएजब दोपहर को भोजन करने लगे तो उनकी थाली में प्रसाद नहीं थाप्रसाद थाली में न देखकर उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और वे शीघ्र उठे और बाबा की तस्वीर के आगे दंडवत् होकर क्षमा मांगने लगे और फिर सारी बातें पत्र में लिखकर अपने पुत्र को अपनी ओर से बाबा से क्षमा मांगने को भी कहा|यह घटना दोपहर को बांद्रा में घटी थीयह वह समय था जब दोपहर को शिरडी में आरती होने वाली थीजब वे माँ-बेटा बाबा के दर्शन करने बाबा के पास गये तो तभी बाबा श्रीमती तर्खड से बोले - "माँ ! मैं आज हमेशा की तरह भोजन के लिए बांद्रा गया थापर खाना न मिलने के कारण दोपहर को भूखा ही लौट आया|"साईं बाबा की इन बातों का अर्थ वहां उपस्थित कोई भी भक्त नहीं समझ पायापर वहीं पर खड़ा तर्खड का पुत्र तुरंत समझ गया कि बांद्रा में पूजा के दौरान कोई न कोई भूल अवश्य ही हुई हैवह बाबा से भोग के लिए भोजन लाने की आज्ञा मांगने लगातो बाबा ने उसे मना कर दिया और वहीं पूजन करने को कहाबाद में पुत्र ने अपने पिता तर्खड को पत्र में सारी बातें विस्तार से लिखकर भविष्य में उन्हें पूजन के दौरान सावधानी बरतने को कहा|पत्र को पढ़कर उसके पिता को इस बात का बहुत दुःख हुआ कि उसकी भूल के कारण बाबा को भूखा रहना पड़ाऔर वे रो पड़े|

कल चर्चा करेंगे..प्यार की रोटी से मन तृप्त हुआ 

ॐ सांई राम

ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Sunday, 30 October 2022

श्री साईं लीलाएं - बाबा की आज्ञा का पालन अवश्य हो

 ॐ सांई राम



कल हमने पढ़ा था.. बाबा को खुशहालचंद की चिंता   

श्री साईं लीलाएं - बाबा की आज्ञा का पालन अवश्य हो


रहाता शिरडी की दक्षिण दिशा और नीम गांव उत्तर दिशा में बसा हुआ थाइन दोनों गांवों के मध्य में बसा था शिरडीपर साईं बाबा अपने पूरे जीवनकाल में इन दोनों गांव के बाहर कभी नहीं गएन ही बाबा न रेलगाड़ी देखी थी और न ही उसमें कभी सफर ही किया थाफिर भी साईं बाबा को शिरडी से जाने वाली रेलगाड़ी के सही समय की जानकारी रहती थी|बाबा शिरडी आने वाले प्रत्येक भक्त को सही मार्ग बड़े प्यार से दिखातेउसके संकट से उसे मुक्ति दिलातेजो बाबा का कहना मानता वह हर समय सुरक्षित रहता और जा बाबा के कहने को नहीं मानता वह स्वयं ही संकटों में घिर जाताशिरडी की एक विशेषता यह थीकि जो भी शिरडी आतावह बाबा की मर्जी से ही आता और लौटता भी बाबा की मर्जी से हीयदि कोई बाबा से वापस जाने की आज्ञा मांगता तो बाबा बड़े सहज भाव से कहते - 'अरे ! ठहर जरा! दाल-रोटी खाकर जाना|' यदि बाबा की आज्ञा को न मानकर जल्दबाजी में ऐसे ही निकलता तो गाड़ी भी छूटती और खाना भी नसीब न होता तथा बाबा की आज्ञा की अवहेलना करने पर कोई दुर्घटना का शिकार हो जाता|एक बार की बात है तात्या कोते पाटिल बाजार जाने के लिए घर से चला और मस्जिद के पास तांगा रोककर बाबा के चरण स्पर्श किये और फिर बाबा से निवेदन किया कि - "बाबा मैं कोपर गांव के बाजार जा रहा हूंआज्ञा दें|"बाबा ने कहा - "तात्या ! आज गांव मत छोड़ोबाजार रहने दो|" लेकिन तात्या नहीं मानाफिर उसकी जिद्द को देखते हुए बाबा बोले - "अच्छा ! अगर जा ही रहा है तो अपने साथ शामा को भी ले जा|"पर तात्या कोते ने बाबा की बात सुनी-अनसुनी कर तांगे पर सवार होकर अकेला ही चल दियाउस तांगे में एक तेज दौड़ने वाला घोड़ा भी था जो बड़ा चंचल थाशिरडी से तीन मील आगे सांवली विहार गांव के पास पहुंचते ही वह घोड़ा बड़ी तेजी के साथ उल्टी-सीधी दौड़ लगाने लगापरिणाम यह हुआ कि घोड़े की कमर में मोच आ जाने से घोड़ा जमीन पर गिर पड़ा तथा तांगे का नुकसान भी बहुत हो गयातात्या कोते को चोट तो नहीं लगीपर साईं बाबा द्वारा आज्ञा ने देने की बात उसे अवश्य याद आ गयी|तात्या कोते ने एक बार पहले भी साईं बाबा की आज्ञा का उल्लंघन किया थाजब वह तांगे से कोल्हर गांव जा रहा था और घोड़ा बेकाबू होकर बबूल के पेड़ से जा टकराया थातांगा टूट गया थाघटना जानलेवा थी पर बाबा की कृपा से ही वह बाल-बाल बच गया थाइसके बाद तात्या ने फिर कभी भी बाबा की बात नहीं टाली|
कुछ इस तरह का अनुभव साईं सच्चरित्र लिखने वाले गोविन्द रघुनाथ दामोलकर का रहा हैएक बार वह शिरडी अपने परिवार के साथ गये थेवे वापस जाने के लिए जब साईं बाबा से आज्ञा मांगी तो बाबा ने कहाखाना खाकर जानाजल्दबाजी में बाबा की आज्ञा ने मानते हुए शिरडी छोड़ीरेलगाड़ी पकड़ने के लिए उन्होंने रास्ते में बैलगाड़ी वाले से गाड़ी तेज चलाने को कहाजिसका नतीजा यह हुआ कि बैलगाड़ी का पहिया टूटकर नाले में जा गिराबाबा के आशीर्वाद से किसी को कुछ नहीं हुआपर गाड़ी को ठीक-ठाक करके जाने तक रेलगाड़ी निकल चुकी थीजिस कारणउन्हें एक दिन कोपर गांव में रहकर दूसरे दिन गाड़ी से मुम्बई जाना पड़ा|


यूरोप के रहनेवाले एक अंग्रेज जो मुम्बई में रहा करते थेवह अपने मन में कुछ इच्छा लेकर बाबा के दर्शन करने को आया थाउसे बाबा के भक्तों ने एक शानदार तम्बू में ठहरा दियाउसके मन में यह इच्छा थी कि वह बाबा को सिर झुकाकर उनके कर-कमलों को चुम्बन करेअपनी इस इच्छा को पूरी करने के लिए वह तीन बार मस्जिद की सीढ़ियों पर चढ़ना चाहापर हर बार बाबा ने उसे सीढ़ियों पर चढ़ने से मना कर दियाउसे आँगन में रहकर ही दर्शन कर लेने को कहा गयाइससे वह निराश हो गयाउसने शीघ्र ही शिरडी से वापस जाने का मन बना लिया|लौटते समय जब वह बाबा के पास आज्ञा लेने आया तो बाबा ने कहा - "इतनी भी जल्दी क्या हैकल चले जाना|" लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआवहां उपस्थित बाबा के भक्तों ने उसे बाबा की आज्ञा मान लेने को कहालेकिन वह नहीं मानावह तांगे में बैठकर चल दियातांगा अभी सांवली विहार गांव तक ही पहुंचा था कि अचानक सामने से एक साइकिलसवार आ गया जिससे घोड़े बिदक गये और अत्यन्त तेजी से दौड़ने लगेपरिणामत: तांगा पलट गया और वह गिरकर घायल हो गयेवहां मौजूद लोगों की मदद से तांगेवाले ने उन्हें उठाकर कोपर गांव के अस्पताल में भर्ती करायाजहां उन्हें कई दिनों तक रहना पड़ा|


मुम्बई निवासी रघुवीर भास्कर पुरंदरे एक बार अपने परिवार के साथ शिरडी गये थेलौटते समय अपनी माँ की इच्छानुसार उन्होंने नासिक होकर जाने के लिए साईं बाबा की अनुमति मांगीतो बाबा बोले, - "ठीक हैपर नासिक में दो दिन रुकनाफिर आगे जाना|" पुरंदरे जब शिरडी से नासिक आये तो उसी दिन उनके छोटे भाई को तेज बुखार हो गयायह देखते परिवार के सब लोग मुम्बई जाने के लिए जिद्द करने लगेतब बाबा ने उन्हें बाबा के वचन याद दिलाये और अपना फैसला सुना दियाकि चाहे कुछ भी हो जायेमैं दो दिन बाद ही यहां से जाऊंगा|" फिर उन्हें मजबूरी में वहां रहना पड़ादूसरे दिन बुखार किसी जादू की तरह अपने आप गायब हो गया और फिर तीसरे दिन सभी प्रसन्नता से मुम्बई लौट आये|


एक बार नाना साहब चाँदोरकर और दो अन्य साथी तथा एक कीर्तनकार मिलकर साईं बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आयेबाबा के दर्शन कर लेने के बाद वापस लौटने के लिए कीर्तनकार जल्दी करने लगेउनका कीर्तन अहमदनगर में पहले से निश्चित थायह जानकर चाँदोरकर से लौटने के लिए बाबा से अनुमति मांगी तो बाबा ने उन्हें भोजनप्रसाद खाकर जाने के लिए कहालेकिन वे कीर्तनकार नहीं माने और चाँदोरकर के साथ वाले एक सज्जन के साथ रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ेचाँदोरकर और एक सज्जन वहीं पर रुक गयेदोपहर को भोजनप्रसाद खाकर जब वे बाबा से मिलने गये तो साईं बाबा बोले - "आराम से जाओअभी गाड़ी के लिए देर है|"जब दोनों स्टेशन पर पहुंचे तो गाड़ी देर से आने वाली थी और कीर्तनकार और उनके साथी गाड़ी के लिए बैठे थेइनको देखकर वे बोले - "आपने बाबा का कहना मानकर अच्छा ही कियाहम बाबा की बात न मानकर अभागे निकलेतभी तो हमें यहां भूखा-प्यासा तड़पने बैठने की नौबत आयी|" फिर गाड़ी आने के बाद सब चले गये|

एक बार तात्या साहब नूलकर और भाऊ साहब दीक्षित अपने कुछ साथियों के साथ शिरडी साईं बाबा के दर्शन करने के लिये आये थेजब वह वापस लौटने लगे तब उन्होंने साईं बाबा से अनुमति मांगीतो साईं बाबा बोले - "कल चले जाओ और जाते-जाते कोपर गांव के भोजनालय में खाना भी खा लेना|" उन्होंने वैसा ही किया और कोपर गांव भोजनालय में संदेशा भी भिजवा दियालेकिन जब दूसरे दिन कोपर गांव पहुंचे तो खाना बनने में अभी कुछ समय लगना थायह देखते ही गाड़ी पकड़ने के लिए वह बिना खाने खायेवैसे ही स्टेशन चले गयेतो वहां पता चला कि अभी रेलगाड़ी दो घंटे देरी से आयेगीफिर उन्होंने तांगा भेजकर भोजनालय से भोजन मंगाया और वहीं स्टेशन पर खायादस मिनट बाद रेलगाड़ी आयी और फिर सब लोग आगे रवाना हो गए|

कल चर्चा करेंगे..बांद्रा गया भूखा ही रहा 

ॐ सांई राम
ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।  

Saturday, 29 October 2022

श्री साईं लीलाएं - बाबा को खुशहालचंद की चिंता

ॐ सांई राम


कल हमने पढ़ा था.. तात्या और म्हालसापति को बाबा का सानिध्य      

श्री साईं लीलाएं

बाबा को खुशहालचंद की चिंता

शिरडी से कुछ दूरी पर रहाता गांव थावहां खुशालचंद नाम का एक साहूकार रहता थाबाबा इससे भी तात्या जितना प्रेम किया करते थेवह जाति से मारवाड़ी थाउसके चाचा चंद्रभान पर भी बाबा का बड़ा प्रेम थाउनसे मिलने के लिए बाबा कई बार उनके गांव खुद चले जाते थे|बाबा कभी-कभी अकेले और कभी अपने भक्तों के साथ बैलगाड़ी में तो कभी तांगे में बैठकर रहाता चले जातेजैसे ही बाबा गांव की सीमा पर पहुंचतेरहाता ग्रामवासी उनका अभूतपूर्व स्वागत करते और बड़ी धूमधाम से उन्हें गांव के अंदर ले जातेवहां से खुशालचंद बाबा को घर ले जातेआसन पर बैठाकर उत्तम भोजन करातेफिर काफी समय तक वह बाबा से वार्तालाप करतेइस वार्तालाप के दौरान वहां उपस्थित सभी भक्तों को बहुत आनन्द आताबाद में बाबा सबकी अपना आशीर्वाद देकर शिरडी लौट आते थे|खुशालचंद भी अक्सर साईं बाबा से मिलने के लिए शिरडी आता थाएक समय जब वह बहुत दिनों तक शिरडी नहीं आया तो बाबा ने उसे बुलाने के लिए हरीसिंह दीक्षित को तांगे के साथ भेजाजब दीक्षित ने उसे जानकारी दी कि बाबा ने उसे लाने के लिए तांगा देकर भेजा है तो यह सुनते ही उसकी आँखों में आँसू आ गये और वह तुरंत उसके साथ शिरडी आया|


कल चर्चा करेंगे..बाबा की आज्ञा का पालन अवश्य हो         


ॐ सांई राम
ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Friday, 28 October 2022

श्री साईं लीलाएं - तात्या और म्हालसापति को बाबा का सानिध्य

ॐ सांई राम


परसों हमने पढ़ा था.. बाइजाबाई द्वारा साईं सेवा
     
श्री साईं लीलाएं - तात्या और म्हालसापति को बाबा का सानिध्य

तात्या कोते पाटिल और खडोबा मंदिर के पुजारी म्हालसापति दोनों ही साईं बाबा के परम भक्त थे और साईं बाबा भी दोनों से बहुत स्नेह किया करते थेये दोनों रात को बाबा के साथ मस्जिद में ही सोया करते थेइस लोगों का सोने का ढंग भी बड़ा अजीब थाये तीनों सिरों को पूर्वपश्चिम और उत्तर दिशा की ओर करते थे और तीनों के पैर बीच में आपस में एक जगह मिले हुए होते थेफिर इस तरह लेटे-लेटे तीनों देर रात तक बातचीत और चर्चा करते रहते थेयदि इस बीच में किसी को नींद आने लगती तो दूसरा उसे जगा देता थाजब तात्या खर्रांटे लेने लगता तो बाबा उसे उठकर हिलातेकभी-कभी म्हालसापति और बाबा मिलकर तात्या को अपनी तरफ खींचकर पैरों को धकेलकर पीठ थपथपा दिया करते थेकभी उसके हाथ-पैर दबाते|यह सिलसिला चौदह साल तक चला - जब तात्या और म्हालसापति दोनों बाबा के साथ मस्जिद में सोया करते थेलेकिन जब तात्या के पिता की मृत्यु हो गयी तब घर की जिम्मेदारी निभाने के लिए घर में रहना और सोना जरूरी हो गया|ऐसे सौभाग्यशाली थे तात्या और म्हालसापति जिन्हें बाबा के साथ शयन करने का अवसर मिला|

कल चर्चा करेंगे..बाबा को खुशहालचंद की चिंता        

ॐ सांई राम
ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Thursday, 27 October 2022

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, 
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा |



किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31

मुक्ति-दान
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1. सन्यासी विरजयानंद
2. बालाराम मानकर
3. नूलकर
4. मेघा और
5. बाबा के सम्मुख बाघ की मुक्त

इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा के सामने कुछ भक्तों की मृत्यु तथा बाघ के प्राण-त्याग की कथा का वर्णन करते है ।


प्रारम्भ

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मृत्यु के समय जो अंतिम इच्छा या भावना होती है, वही भवितव्यता का निर्माण करती है । श्री कृष्ण ने गीता (अध्याय-8) में कहा है कि जो अपने जीवन के अंतिम क्षण में मुझे सम्रण करता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है तथा उस समय वह रजो कुछ भी दृश्य देखता है, उसी को अन्त में पाता है । यह कोई भी निश्चयात्मक रुप से नहीं कह सकता कि उस क्षण हम केवल उत्तम विचार ही कर सकेंगे । जहाँ तक अनुभव में आया है, ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय अनेक कारणों से भयभीत होने की संभावना अधिक होती है । इसके अनेक कारण है । इसलिये मन को इच्छानुसार किसी उत्तम विचार के चिंतन में ही लगाने के लिए नित्याभ्यास अत्यन्त आवश्यक है । इस कारण सभी संतों ने हरिस्मरण और जप को ही श्रेष्ठ बताया है, ताकि मृत्यु के समय हम किसी घरेलू उलझन में न पड़ जायें । अतः ऐसे अवसर पर भक्तगण पूर्णतः सन्तों के शरणागत हो जाते है, ताकि संत, जो कि सर्वज्ञ है, उचित पथप्रदर्शन कर हमारी यथेष्ठ सहायता करें । इसी प्रकार के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।

1. विजयानन्द
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एक मद्रसी सन्यासी विजयानंद मानसरोवर की यात्रा करने निकले । मार्ग में वे बाबा की कीर्ति सुनकर शिरडी आये, जहाँ उनकी भेंट हरिद्घार के सोमदेव जी स्वामी से हुई और इनसे उन्होंने मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में पूछताछ की । स्वामीजी ने उन्हें बताया कि गंगोत्री से मानसरोवर 500 मील उत्तर की ओर है तथा मार्ग में जो कष्ट होते है, उनका भी उल्लेख किया जैसे कि बर्फ की अधिकता, 50 कोस तक भाषा में भिन्नता तथा भूटानवासियों के संशयी स्वभाव, जो यात्रियों को अधिक कष्ट पहुँचाया करते है । यह सब सुनकर सन्यासी का चित्त उदास हो गयाऔर उसने यात्रा करने का विचार त्यागकर मसजिद में जाकर बाबा के श्री चरणों का स्पर्श किया । बाबा क्रोधित होकर कहने लगे – इस निकम्मे सन्यासी को निकालो यहाँ से । इसका संग करना व्यर्थ है । सन्यासी बाबा के स्वभाव से पूर्ण अपरिचित था । उसे बड़ी निराशा हुई, परन्तु वहाँ जो कुछ भी गतिविधियाँ चल रही थी, उन्हें वह बैठे-बैठे ही देखता रहा । प्रातःकाल का दरबार लोगों से ठसाठस भरा हुआ था और बाबा को यथाविधि अभिषेक कराया जा रहा था । कोई पाद-प्रक्षालन कर रहा था तो कोई चरणों को छूकर तथा कोई तीर्थस्पर्श से अपने नेत्र सफल कर रहा था । कुछ लोग उ्हें चन्दन का लेप लगा हे थे तो कोई उनके शरीर में इत्र ही मल रहा था । जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर सब भक्त यह कार्य कर रहे थे । यघपि बाबा उस पर क्रोधित हो गये थे तो भी सन्यासी के हृदय में उनके प्रति बड़ा प्रेम उत्पन्न हो गया था । उसे यह स्थान छोड़ने की इच्छा ही न होती थी । दो दिन के पश्चात् ही मद्रास से पत्र आया कि उसकी माँ की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है, जिसे पढ़कर उसे बड़ी निराशा हुई और वह अपनी माँ के दर्शन की इच्छा करने लगा, परन्तु बाबा की आज्ञा के बिना वह शिरडी से जा ही कैसे सकता था । इसलिये वह हाथ में पत्र लेकर उनके समीप गया और उनसे घर लौटने की अनुमति माँगी । त्रिकालदर्शी बाबा को तो सबका भविष्य विदित ही था । उन्होंने कह कि जब तुम्हें अपनी माँ से इतना मोह था तो फिर सन्यास धारण करने का कष्ट ही क्यों उठाया । ममता या मोह भगवा वस्त्रधारियों को क्या शोभा देता है । जाओ, चुपचाप अपने स्थान पर रहकर कुछ दिन शांतिपूर्वक बिताओ । परन्तु सावधान । वाड़े में चोर अधिक है । इसलिए द्घार बंद कर सावधानी से रहना, नहीं तो चोर सब कुछ चुराकर ले जायेंगे । लक्ष्मी यानी संपत्ति चंचला है और यह शरीर भी नाशवान् है, ऐसा ही समझ कर इहलौकिक व पालौकिक समस्त पदार्थों का मोह त्याग कर अपना कर्त्व्य करो । जो इस प्रकार का आचरण कर श्रीहरि के शरणागत हो रजाता है, उसका सब कष्टों से शीघ्र छुटकार हो उसे परमानंद की प्राप्ति हो जाती है । जो परमात्मा का ध्यान व चिंतन प्रेंम और भक्तिपूर्वक करता है, परमात्मा भी उसकी अविलम्ब सहायता करते है । पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप ही तुम यहाँ पहुँचे हो और अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और अपने जीवन के अंतिम ध्येय पर विचार करो । इच्छारहित होकर कल से भागवत का तीन सप्ताह तक पठन-पाठन प्रारम्भ करो । तब भगवान् प्रसन्न होंगे और तुम्हारे सब दुःख दूर कर देंगे । माया का आवरण दूर होकर तुम्हें शांति प्राप्त होगी । बाबा ने उसका अंतकाल समीप देखकर उसे यह उपचार बता दिया और साथ ही रामविजय पढ़ने की भी आज्ञा दी, जिससे यमराज अधिक प्रसन्न् होते है । दूसरे दिन स्नानादि तथा अन्य शुद्घि के कृत्य कर उसने लेंडी बाग के एकांत स्थान में बैठकर भागवत का पाठ आरम्भ कर दिया । दूसरी बार का पठन समाप्त होने पर वह बहुत थक गया और वाड़े में आकर दो दिन ठहरा । तीसरे दिन बड़े बाबा की गोद में उसके प्राण पखेरु उड़े गये । बाबा ने दर्शनों के निमित्त एक दिन के लिये उसका शरीर सँभाल कर रखने के लिये कहा । तत्पश्चात् पुलिस आई और यथोचित्त जाँच-पडताल करने के उपरांत मृत शरीर को उठाने की आज्ञा दे दी । धार्मिक कृत्यों के साथ उसकी उपयुक्त स्थान पर समाधि बना दी गई । बाबा ने इस प्रकार सन्यासी की सहायता कर उसे सदगति प्रदान की ।

2. बालाराम मानकर
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बालाराम मानकर नामक एक गृहस्थबाबा के परम भक्त थे । जब उनकी पत्नी का देहांत हो गया तो वो बड़े निराश हो गये और सब घरबार अपने लड़के को सौंप वे शिरडी में आकर बाबा के पास रहने लगे । उनकी भक्ति देखकर बाबा उनके जीवन की गति परिवर्तित कर देना चाहते थे । इसीलिये उन्होंने उन्हें बारह रुपये देकर मच्छिंग्रगढ़ (जिला सातार) में जाकर रहने को कहा । मानकर की इच्छा उनका सानिध्य छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने की न ती, परन्तु बाबा ने उन्हें समझाया कि तुम्हारे कलायाणार्थ ही मैं यह उत्तम उपाय तुम्हें बतलता रहा हूँ । इसीलिये वहाँ जाकर दिन में तीन बार प्रभु का ध्यान करो । बाबा के शब्दों में व्श्वास कर वह मच्छंद्रगढ़ चाल गया और वहाँ के मनोहर दृश्यों, शीतल जल तथा उत्तम पवन और समीपस्थ दृश्यों को देखकर उसके चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई । बाबा द्घारा बतलाई विधि से उसने प्रभु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ दिनों पश्चात् ही उसे दर्शन प्राप्त हो गया । बहुधा भक्तों को समाधि या तुरीयावस्था में ही दर्शन होते है, परन्तु मानकर जब तुरीयास्था से प्राकृतावस्था में आया, तभी उसे दर्शन हुए । दर्शन होने के पश्चात् मानकर ने बाबा से अपने को वहाँ भेजने का कारण पूछा । बाबा ने कहा कि शिरडी में तुम्हारे मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे थे । इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ भेजा कि तुम्हारे चंचल मन को शांति प्राप्त हो । तुम्हारी धारणा थी कि मैं शिरडी में ही विघमान हूँ और साढ़ेतीन हाथ के इस पंचतत्व के पुतले के अतिरिक्त कुछ नही हूँ, परन्तु अब तुम मुझे देखकर यह धारणा बना लो कि जो तुम्हारे सामने शिरडी में उपस्थित है और जिसके तुमने दर्शन किये, वह दोनों अभिन्न है या नहीं । मानकर वह स्थान छोडकर अपने निवास स्थान बाँद्रा को रवाना हो गया । वह पूना से दादर रेल द्घारा जाना चाहता था । परन्तु जब वह टिकट-घर पर पहुँचा तो वहाँ अधिक भीड़ होने के कारण वह टिकट खरीद न सका । इतने में ही एक देहाती, जिसके कंधे पर एक कम्बल पड़ा था तथा शरीर पर केवल एक लंगोटी के अतिरिक्त कुछ न था, वहाँ आया और मानकर से पूछने लगा कि आप कहाँ जा रहे है । मानकर ने उत्तर दिया कि मैं दादर जा रहा हूँ । तब वह कहने लगा कि मेरा यह दादर का टिकट आप ले लीजिय, क्योंकि मुझे यहाँ एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मेरा जाना आज न हो सकेगा । मानकर को टिकट पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी जेब से वे पैसे निकालने लगे । इतने में ही टिकट देने वाला आदमी भीड़ में कहीं अदृस्य हो गया । मानकर ने भीड़ में पर्याप्त छानबीन की, परन्तु सब व्यर्थ ही हुआ । जब तक गाड़ी नहीं छूटी, मानकर उसके लौटने की ही प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वह अन्त तक न लौटा । इस प्रकार मानकर को इस विचित्र रुप में द्घितीय बार दर्शन हुए । कुछ दिन अपने घर ठहरकर मानकर फिर शिरडी लौट आया और श्रीचरणों में ही अपने दिन व्यतीत करने लगा । अब वह सदैव बाबा के वचनों और आज्ञा का पालन करने लगा । अन्ततः उस भाग्यशाली ने बाबा के समक्ष ही उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने प्राण त्यागे ।

3. तात्यासाहेब नूलकर
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हेमाडपंत ने तात्यासाहेब नूलकर के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं लिखा है । केवल इतना ही लिखा है कि उनका देहांत शिरडी में हुआ था । साईलीला पत्रिका में संक्षिप्त विवरण प्रकाशित हुआ था, रजो नीचे उद्घृत है – सन 1909 में जिस समय तात्यासाहेब पंढरपुर में उपन्यायाधीश थे, उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर भी वहाँ के मामलतदार थे । ये दोनो आपस में बहुधा मिला करते और प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे । तात्यासाहेब सन्तों में अविश्वास करते थे, जबकि नानासाहेब की सन्तों के प्रति विशेष श्रद्घा थी । नानासाहेब ने उन्हें साईबाबा की लीलाएँ सुनाई और एक बार शिरडी जाकर बाब का दर्शन-लाभ उठाने का आग्रह भी किया । वे दो शर्तों पर चलने को तैयार हुए –

1. उन्हें ब्राहमण रसोइया मिलना चाहिये ।

2. भेंट के लिये नागपुरसे उत्तम संतरे आना चाहिये ।

शीघ्र ही ये दोनों शर्ते पूर्ण हो गयी । नानासाहेब के पास एक ब्राहमण नौकरी के लिये आया, जिसे उन्होंने तात्यासाहेब के पास भिजवा दिया और एक संतरे का पार्सन भी आया, जिसपर भेजने वाले का कोई पता न लिखा था । उनकी दोनों शर्ते पूरी हो गई थी । इसीलिये अब उन्हें शिरडी जाना ही पड़ा । पहले तो बाबा उन पर क्रोधित हुए, परन्तु जब धीरे-धीरे तात्यासाहेब को विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही ईश्वरावतार है तो वे बाबा से प्रभावित हो गये और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे । जब उनका अन्तकाल समीप आया तो उन्हें पवित्र धार्मिक पाठ सुनाया गया और अंतिम क्षणों में उन्हें बाबा का पद तीर्थ भी दिया गया । उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बाबा बोल उठे – अरे तात्या तो आगे चला गया । अब उसका पुनः जन्म नहीं होगा ।

4. मेघा
.........
28वे अध्याय में मेघा की कथा का वर्णन किया जा चुका है । जब मेघा का देहांत हुआ तो सब ग्रामबासी उनकी अर्थी के साथ चले और बाबा भी उनके साथ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने उसके मृत शरीर पर फूल बरसाये । दाह-संस्कार होने के पश्चात् बाबा की आँखों से आँसू गिरने लगे । एक साधारण मनुष्य के समान उनका भी हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया । उनके शरीर को फूलों से ढँककर एक निकट समबन्धी के सदृश रोते-पीटते वे मसजिद को लौटे । सदगति प्रदान करते हुए अनेक संत देखने में आये है, परन्तु बाबा की महानता अद्घितीय ही है । यहाँ तक कि बाघ सरीखा एक हिंसक पशु भी अपनी रक्षा के लिये बाबा की शरण में आया, जिसका वृतान्त नीचे लिखा है -

 5. बाघ की मुक्ति

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बाबा के समाधिस्थ होने के सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी । मसजिद के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी, जिसपर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था । उसका भयानक मुख गाड़ी के पीछे की ओर था । वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था । उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेएष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके जीविकोवपार्जन का एक साधन था । उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ । कहीं से बाबा की कीर्ति भी उनके कानों में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये । हाथों से जंजीरें पकड़कर उन्होंने बाघ को मसजिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया । वह स्वभावतः ही भयानक था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था । लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखने लगे । दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर वे बाघ को उनके सामने लाये । जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन नीचे झुका दी । जब रदोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा । ुसने अपनी पूँछ हिलाकर तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षम ही अपने प्राण त्याग दिये । उसे मृत देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए । तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त थी ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी । चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे सदगति प्राप्त हो गई । वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋम चुक गया तो वह स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई । जब कोई प्राणीससंतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी मुक्ति हो जाती है । पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद अंत प्राप्त होना कैसे संभव है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 26 October 2022

श्री साईं लीलाएं - बाइजाबाई द्वारा साईं सेवा

ॐ सांई राम


कल हमने पढ़ा था.. साईं बाबा द्वारा भिक्षा माँगना        

श्री साईं लीलाएं - बाइजाबाई द्वारा साईं सेवा

साईं बाबा पूर्ण सिद्धपुरुष थे और उनका कार्य-व्यवहार भी बिल्कुल सिद्धों जैसा ही था| उनके इस व्यवहार को देखकर शुरू-शुरू में शिरडी को लोग उन्हें पागल समझते थे और पागल फकीर कहते थे| बाद में बाबा इसी पागल सम्बोधन से प्रसिद्ध भी हो गए| जबकि साईं बाबा बाह्य दृष्टि से जैसे दिखाई देते थे, वास्तव में वे वैसे थे ही नहीं| बाबा उदार हृदय, और त्याग की साक्षात् मूर्ति थे| उनका हृदय महासागर की तरह बिल्कुल शांत था| लेकिन शिरडी में कुछ लोग ऐसे भी थे, जो बाबा को ईश्वर मानते थे| उनमे एक थी वाइजाबाई|

वाइजाबाई एक भद्र महिला वे तात्या कोते पाटिल की माता थीं| उन्होंने अपने पूरे जीवन में साईं बाबा की बहुत सेवा की थी| रोजाना दोपहर को वे एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर बाबा को ढूंढती-फिरतीं, कड़ी धूप में भी दो-चार मील घूमतीं, जहां पर भी उन्हें बाबा मिलते, उन्हें बड़े प्यार से अपने हाथों से खिलातीं| जब कभी बाबा अपनी ध्यानावस्था में मग्न बैठे रहते, तो वह घंटों बैठे उनके होश में आने का इंतजार करतीं| आंख खुलने पर उन्हें जबरन खिलातीं| साईं बाबा भी वाइजाबाई की इस सेवा को अपने अंतिम समय तक नहीं भुला पाए| वाइजाबाई और उसके पुत्र तात्या कोते की भी साईं बाबा के प्रति गहन निष्ठा और श्रद्धा थी| वाइजाबाई की सेवा का प्रतिफल बाद में उसके पुत्र तात्या कोते को भी दिया|

साईं बाबा वाइजाबाई और तात्या कोते से यही कहा करते थे कि फकीरी ही सच्ची अमीरी है| वह अनंत है| जिसे अमीरी कहते हैं वह तो एक दिन समाप्त हो जाने वाली है| वाइजाबाई की सेवा को साईं बाबा ने समझ लिया और फिर उन्होंने भटकना छोड़ दिया और मस्जिद में रहकर ही भोजन करने लगे| वाइजाबाई की मृत्यु के पश्चात् उसके बेटे ने भी यह सिलसिला जारी रखा| वह भी बाबा के लिए भोजन लाता|

कल चर्चा करेंगे..तात्या और म्हालसापति को बाबा का सानिध्य       

ॐ सांई राम

ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.