शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Wednesday, 31 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-फग्गू का प्रेम

ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-फग्गू का प्रेम

काशी से गुरु तेग बहादर जी सासाराम शहर की ओर चाल पड़े| वहाँ पहुँच कर आपने गुरु घर के एक मसंद सिख फग्गू की चिरकाल से दर्शन करने की भावना को पूरा करने के लिए गए| भाई फग्गू ने एक मकान बनवाया| उसने उसका दरवाज़ा बहुत बड़ा रखवाया| उसके आगे एक खुला आँगन भी रखा हुआ था|

लोगों ने फग्गू से जब इसका कारण पूछा कि उसके मकान बनवाकर उसका दरवाज़ा इतना बड़ा क्यों रखा है? फग्गू ने उनका उत्तर दिया कि यह मैंने गुरु जी के लिए बनवाया है| जब वह मेरे घर में आयेगें तब वह घोड़े पर सवार होकर आयेगें| उन्हें बाहर नहीं उतरना पड़ेगा| वह घोड़े पर बैठे-बैठे ही मेरे घर के अंदर आ जाये इसलिए मैंने दरवाज़ा खुला रखवाया है|

फग्गू की इस श्रद्धा भावना को अन्तर्यामी गुरु जान गए| वह रास्ते में सभी को दर्शन देते हुए फग्गू के घर में जा पहुँचे| आप एक दम ही पहुँच गए जिसको देखकर फग्गू बहुत खुश हुआ| उसने गुरु जी के चरणों पर माथा टेका| फिर गुरु जी को पलंघ पर बिठाया जो की उसने विशेष रूप से गुरु जी के लिए ही तैयार किया था| गुरु जी कुछ दिन वहाँ रुके| वह फग्गू की श्रद्धा व प्रेम से की हुई सेवा से प्रसन्न हुए| प्रसन्न होकर आपने फग्गू ब्रह्म ज्ञान की दात बक्शी और उसको निहाल किया| इस नगर के बाहर गुरु जी को एक बाग भी संगत ने भेंट किया, जो कि गुरु का बाग करके प्रसिद्ध है|

Tuesday, 30 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-आसाम के राजा राम राय को पुत्र का वरदान

 ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-आसाम के राजा राम राय को पुत्र का वरदान

गुरु तेग बहादर जी की महिमा सुनकर आसाम देश का राजा अपनी रानी सहित गुरु जी की शरण में आया| उसने गुरु जी के आगे भेंट आदि अर्पण की| भेंट अर्पण करने के पश्चात उसने प्रार्थना की कि महाराज! मेरे पास कोई औलाद नहीं है| मुझे पुत्र का वरदान दो जो हमारे राज्य का मालिक बने|

गुरु जी राजे तथा रानी की श्रद्धा व प्रेम पर प्रसन्न हुए| प्रसन्न होकर गुरु जी ने वचन किया कि आपके घर एक धर्मात्मा तथा उदारचित पुत्र होगा| गुरु जी से ऐसा आशीर्वाद लेकर राजा व रानी बहुत प्रसन्न हुए|

यह वचन करके गुरु जी ने अपने हाथ की मोहर का एक निशान राजे के माथे पर लगाकर कहा कि ऐसा निशान आपके घर होने वाले पुत्र के माथे पर भी होगा| तब तुम यह समझ लेना कि यह पुत्र गुरु घर की कृपा है|

गुरु जी के ऐसे वचन सुनकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा| वह बहुत प्रसन्न थे| गुरु जी का चरणामृत लेकर उन्होंने सिखी धारण कर ली| गुरु जी के आशीर्वाद से उनके घर पुत्र पैदा हुआ|

Monday, 29 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-गुरु वचन मानने में ही सुख

 ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-गुरु वचन मानने में ही सुख

श्री गुरु तेग बहादर जी कैथल विश्राम करके बारने गाँव आ गये| इस गाँव के बाहर ही ठहर कर गुरु जी ने पुछा कि यहाँ कोई गुरु नानक देव जी का सिख रहता है? उसने कहा महाराज! यहाँ जिमींदार सिख रहता है|गुरु जी ने उसे बुलाने के लिए कहा|यह आदमी जाकर जिमींदार को बुला लाया|

उसने आकर गुरु जी के चरणों पर माथा टेका|उसने यह भी प्रार्थना की कि मेरे घर आकर विश्राम करो| तब तक मैं अपनी खेती कि कूत (मिनती) करा आऊँ| गुरु जी ने उसे कहा कि आप हमारे साथ घर चले|तुम्हारी खेती का गुरु रखवाला है| तुम कूत कराने ना जाओ|

जिमींदार ने वचन को काटते हुए कहा कि महाराज! आप चले जाये, हम शीघ्र ही आ जायेंगे| ऐसा कहता हुआ वह सिख वहाँ से चल दिया|
जब उसके खेत कि कूत हुई तो पहले वह दो सौ विघा थी, अब वह सौ विघा हो गई|उसके शरीको ने कहा कि कूत करने वाला रिश्वत खा गया है|कूत दुबारा होनी चाहिए|जब खेती कि दुबारा कूत हुई तो वह सौ विघा ही निकली|इस बात से उसे गुरु जी पर विश्वास हो गया कि उसे वचन नहीं काटना चाहिए था|उसने गुरु जी के चरणों पर माथा टेका|उसने सारी बात गुरु जी को बताई|

गुरु जी प्रातकाल उठकर स्नान किया और उसे वचन किया कि आज से आप तम्बाकू पीना छोड़ दो व सिक्ख संगतो कि स्सेवा किया करो| तुम्हारा परलोक सुधर जायेगा|तुम्हारा वंश जब तक हुक्के का त्याग करके खेती करेगा तब तक बहुत बढेगा|परन्तु यदि हूका तम्बाकू पीना आरम्भ कर देगा,तो कंगाल हो जायेगा| सारा धन भी जाता रहेगा|गुरु जी का वचन मानकर जिमींदार ने गुरु जी के चरणों पर माथा टेका और हुक्का पीना छोड़ दिया|

भाई संतोख जी लिखते है कि यह हमने अपनी आँखों से देखा कि जब उसकी कुल का एक आदमी हुक्का पीने लगा तो वह अति गरीब हो गया|

Sunday, 28 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-श्री दसमेश जी का गर्भ प्रवेश

 ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-श्री दसमेश जी का गर्भ प्रवेश

प्राग राज के निवास समय एक दिन माता नानकी जी ने स्वाभाविक श्री गुरु तेग बहादर जी को कहा कि बेटा! आप जी के पिता ने एक बार मुझे वचन दिया था कि तेरे घर तलवार का धनी बड़ा प्रतापी शूरवीर पोत्र इश्वर का अवतार होगा|मैं उनके वचनों को याद करके प्रतीक्षा कर रही हूँ कि आपके पुत्र का मुँह मैं कब देखूँगी| बेटा जी! मेरी यह मुराद पूरी करो,जिससे मुझे सुख कि प्राप्ति हो| 

अपनी माता जी के यह मीठे वचन सुनकर गुरु जी ने वचन किया कि माता जी! आप जी का मनोरथ पूरा करना अकाल पुरख के हाथ मैं है|हमें भरोसा है कि आप के घर तेज प्रतापी ब्रह्मज्ञानी पोत्र देंगे|

गुरु जी के ऐसे आशावादी वचन सुनकर माता जी बहुत प्रसन्न हुए|माता जी के मनोरथ को पूरा करने के लिए गुरु जी नित्य प्रति प्रातकाल त्रिवेणी स्नान करके अंतर्ध्यान हो कर वृति जोड़ कर बैठ जाते व पुत्र प्राप्ति के लिए अकाल पुरुष कि आराधना करते|

गुरु जी कि नित्य आराधना और याचना अकाल पुरख के दरबार में स्वीकार हो गई|उसुने हेमकुंट के महा तपस्वी दुष्ट दमन को आप जी के घर माता गुजरी जी के गर्भ में जन्म लेने कि आज्ञा की|जिसे स्वीकार करके श्री दमन (दसमेश) जी ने अपनी माता गुजरी जी के गर्भ में आकर प्रवेश किया

श्री दसमेश जी अपनी जीवन कथा बचितर नाटक में लिखते है-

चौपाई 

मुर पित पूरब कीयसि पयाना|| भांति भांति के तीरथि नाना||
जब ही जात त्रिबेणी भए ||पुन्न दान दिन करत बितए||१||
तही प्रकास हमारा भयो|| पटना सहर बिखे भव लयो||२||
(दशम ग्रन्थ :बिचित्र नाटक ,७वा अध्याय)

Saturday, 27 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-संत मलूक दास का भ्रम दूर करना

ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-संत मलूक दास का भ्रम दूर करना


चलते-चलते गुरु तेग बहादर जी मानकपुर नगर के पास जा ठहरे|इस गाँव में एक वैष्णव संत मलूक दस रहते थे|वह गुरु जी के दर्शन करना चाहता था,परन्तु वह यह निश्चय करके बैठारहा कि गुरु जी अगर अंतर्यामी है,तो स्वयं मुझे बुलाकर दर्शन देंगे| 

अन्तर्यामी गुरु मलूक दास कि प्रतिज्ञा जान गये|उन्होंने एक सिख को कहा कि मलूक दास के डेरे जाकर उसे पालकी में बिठाकर हमारे पास लाओ| एक सिख ने मलूक दास को जाकर बताया कि गुरु जी आपको याद कर रहे है|पालकी में बैठ जाओ,हम आपको ले चलते है|

गुरु तेग बहादर जी का ऐसा हुक्म सुनकर मलूक दास बहुत प्रसन्न हुआ|यह पालकी में बैठकर गुरु जी के पास पहुँच गया| पालकी से उतकर उसने गुरु को माथा टेका और फिर यह दोहरा उच्चारण किया-

मलूका पापी खेड को भगति ण जानी तोहि||
भगति लिखी थी और को प्रभू धोखा दे मोहि||४७||


गुरु जी ने कहा-

सुनि मलूक हरि के भगति नहि राखो मन दरोहि ||
भगति लिखी थी अवर को करि किरपा दई तोहि||४९||


गुरु जी के वचन सुनकर और दर्शन करके म्ल्लुक दास आनंदमय हो गया| उसने प्रार्थना कि आप मेरे डेरे चले|मैं भी आपकी सेवा करके जनम सफल करना चाहता हूँ|उसकी प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने डेरे पे जाना स्वीकार किया|

मलूक ने भोजन तैयार करके गुरु जी के आगे रख दिया|उसने यह भी प्रार्थना की कि महाराज! पहले मैं पत्थर के ठाकरों को भोग लगाया करता हूँ|आज आप प्रत्यक्ष ठाकर मेरे पास बैठकर भोग लगा रहे हो|

गुरु जी अब तो मेरा भ्रम भी दूर हो गया है|अब मैं प्रत्यक्ष ठाकर की पूजा ही किया करूँगा|मलूक दास पास एक रात का विश्राम और वार्तालाप करके गुरु जी दूसरे दिन प्रातकाल ही मलूक दास को खुशी देकर आगे की ओर चल पड़े|

Friday, 26 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-हडियाए नगर, बुखार रोग दूर करना

ॐ सांई राम जी 



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-हडियाए नगरबुखार रोग दूर करना

गुरु तेग बहादर जी हडियाए नगर पहुँचे वह नगर से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे आ ठहरे| उस समय गाँव का एक बीमार आदमी लेता हुआ था|बुखार के साथ उसकी हडियाँ टूट रही थी| गुरु तेग बहादर जी ने पुछा इसको घर क्यों नहीं ले जाते?

उसको घर वालों ने कहा की महाराज! गाँव में बुखार का बड़ा जोर है,कोई विरला ही बचा है|बहुत लोग मार भी गये है|

वह पास ही पानी का एक जौहड़ था| गुरु जी कहा कि इस इसमें स्नान करा दो| बुखार भी उतर जायेगा|उन्होंने गुरु जी का वचन माना| बीमार व्यक्ति को उठा कर जौहड़ में स्नान कराया गया| उसका बुखार शीघ्र ही उतर गया|बीमार आदमी भी स्वस्थ हो गया|

इस बात का पता जब गाँव वालों को लगा तो वो सरे बीमार लोगों को लेकर गुरु जी के पास ले आये|सबको जौहड़ में स्नान कराया गया| सभी स्वस्थ हो गये| यह कौतक देखकर सभी दंग रह गये| सभी भेंट लेकर गुरु जी के दर्शन करने आने लगे|सतिनाम का उपदेश ले कर सिख बन गये|

गुरु जी यह एक धर्मशाला व लंगर चलाने का हुक्म देकर आगे चल दिए| इस जौहड़ को संगत ने पक्का सरोवर करा दिया,जिसका नाम "गुरुसर " प्रसिद्ध है|संगत ने गुरु जी कि आज्ञा अनुसार धर्मशाला भी तैयार कर दी|

Thursday, 25 March 2021

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 49

ॐ सांई राम जी 



श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 49


आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 49

हरि कानोबा, सोमदेव स्वामी, नानासाहेब चाँदोरकर की कथाएँ ।
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प्रस्तावना
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जब वेद और पुराण ही ब्रहमा या सदगुरु का वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रगट करते है, तब मैं एक अल्पज्ञ प्राणी अपने सदगुरु श्रीसाईबाबा का वर्णन कैसे कर सकता हूँ । मेरा स्वयं का तो यतह मत है कि इस विषय में मौन धारण करना ही अति उत्तम है । सच पूछा जाय तो मूक रहना ही सदगुरु की विमल पताकारुपी विरुदावली का उत्तम प्रकार से वर्णन करना है । परन्तु उनमें जो उत्तम गुण है, वे हमें मूक कहाँ रहने देत है । यदि स्वादिष्ट भोजन बने और मित्र तथा सम्बन्धी आदि साथ बैठकर न खायेंतो वह नीरस-सा प्रतीत होता है और जब वही भोजन सब एक साथ बैठकर खाते है, तब उसमें एक विशेष प्रकार की सुस्वादुता आ जाती है । वैसी ही स्थिति साईलीलामृत के सम्बन्ध में भी है । इसका एकांत में रसास्वादन कभी नहीं हो सकता । यदि मित्र और पारिवारिक जन सभी मिलकर इसका रस लें तो और अधिक आनन्द आ जाता है । श्री साईबाबा स्वयं ही अंतःप्रेरणा कर अपनी इच्छानुसार ही इन कथाओं को मुझसे वर्णित कर रहे है । इसलिये हमारा तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि अनन्यभाव से उनके शरणागत होकर उनका ही ध्यान करें । तप-साधन, तीर्थ यात्रा, व्रत एवं यज्ञ और दान से हरिभक्ति श्रेष्ठ है और सदगुरु का ध्यान इन सबमें परम श्रेष्ठ है । इसलिये सदैव मुख से साईनाम का स्मरण कर उनके उपदेशों का निदिध्यासन एवं स्वरुप का चिनत्न कर हृदय में उनके प्रति सत्य और प्रेम के भाव से समस्त चेष्टाएँ उनके ही निमित्त करनी चाहिये । भवबन्धन से मुक्त होने का इससे उत्तम साधन और कोई नहीं । यदि हम उपयुक्त विधि से कर्म करते जाये तो साई को विवश होकर हमारी सहायता कर हमें मुक्ति प्रदान करनी ही पड़ेगी । अब इस अध्याय की कथा श्रवण करें ।


हरि कानोबा
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बम्बई के हरि कानोबा नामक एक महानुभाव ने अपने कई मित्रों और सम्बन्धियों से साई बाबा की अनेक लीलाऐं सुनी थी, परन्तु उन्हें विश्वास ही न होता था, क्योंकि वे संशयालु प्रकृति के व्यक्ति थे । अविश्वास उनके हृदयपटल पर अपना आसन जमाये हुये था । वे स्वयं बाबा की परीक्षा करने का निश्चय करके अपने कुछ मित्रों सहित बम्बई से शिरडी आये । उन्होंने सिर पर एक जरी की पगड़ी और पैरों में नये सैंडिल पहिन रखे थे । उन्होंने बाबा को दूर से ही देखकर उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम तो करना चाहा, परन्तु उनके नये सैंडिल इस कार्य में बाधक बन गये । उनकी समझ में नही आ रहा था कि अब क्या किया जाय । तब उन्होंने अपने सैंडिल मंडप क एक सुरक्षित कोने में रखे और मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । उनका ध्यान सैंडिलों पर ही लगा रहा । उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक बाबा को प्रणाम किया और उनसे प्रसाद और उदी प्राप्त कर लौट आये । पर जब उन्होंने कोने में दृष्टि डाली तो देखा कि सैंडिल तो अंतद्घार्न हो चुके है । पर्याप्त छानबीन भी व्यर्थ हुई और अन्त में निराश होकर वे अपने स्थान पर वापस आ गये ।

स्नान, पूजन और नैवेघ आदि अर्पित करक वे भोजन करने को तो बैठे, परन्तु वे पूरे समय तक उन सैंडिलों के चिन्तन में ही मग्न रहे । भोजन कर मुँह-हाथधोकर जब वे बाहर आये तो उन्होंने एक मराठा बालक को अपनी ओर आते देखा, जिसके हाथ में डण्डे के कोने पर एक नये सैंडिलों का जोड़ा लटका हुआ था । उस बालक ने हाथ धोने के लिये बाहर आने वाले लोगों से कहा कि बाबा ने मुझे यह डण्डा हाथ में देकर रास्तों में घूम-गूम कर हरि का बेटा जरी का फेंटा की पुकार लगाने को कहा है तथा जो कोई कहे कि सैंडिल हमारे है, उससे पहले यह पूछना कि क्या उसका नाम हरि और उसके पिता का क (अर्थात् कानोबा) है । साथ ही यह भी देखना कि वह जरीदार साफा बाँधे हुए है या नही, तब इन्हें उसे दे देना । बालक का कथन सुनकर हरि कानोबा को बेहद आनन्द व आश्चर्य हुआ । उन्होंने आगे बढ़कर बालक से कहा कि ये हमारे ही सैंडिल है, मेरा ही नाम हरि और मैं ही क (कानोबा) का पुत्र हूँ । यह मेरा जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने सोचा कि मेरी जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने भी सोचा कि मेरी जरीदार पगड़ी तो सब को ही दिख रही थी । हो सकता है कि बाबा की भी दृष्टि में आ गई हो । परन्तु यह मेरी शिरडी-यात्रा का प्रथम अवसर है, फिर बाबा को यह कैसे विदित हो गया कि मेरा ही नाम हरि है और मेरे पिता का कानोबा । वहतो केवल बाबा की परीक्षार्थ वहाँ आया था । उसे इस घटना से बाबा की महानता विदित हो गई । उसकी इच्छा पूर्ण हो गई और वह सहर्ष घर लौट गया ।
सोमदेव स्वामी
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अब एक दूसरे संशयालु व्यक्ति की कथा सुनिये, जो बाबा की परीक्षा करने आया था । काकासाहेब दीक्षित के भ्राता श्री. भाईजी नागपुर में रहते थे । जब वे सन् 1906 में हिमालय गये थे, तब उनका गंगोत्री घाटी के नीचे हरिद्घार के समीप उत्तर काशी में एक सोमदेव स्वामी से परिचय हो गया । दोनों ने एक दूसरे के पते लिख लिये । पाँच वर्ष पश्चात् सोमदेव स्वामी नागपुर में आये और भाईजी के यहां ठहरे । वहाँ श्री साईबाबा की कीर्ति सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई तथा वहाँ श्री साईबाबा के दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा हुई । मनमाड और कोपरगाँव निकल जाने पर वे एक ताँगे में बैठकर शिरडी को चल पड़े । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्होंने दूर से ही मसजिद पर दो ध्वज लहरते देखे । सामान्यतः देखने में आता है कि भिन्न-भिन्न सन्तों का बर्ताव, रहन-सहन और बाहृ सामग्रियाँ प्रायः भिन्न प्रकार की ही रहा करती है । परन्तु केवल इन वस्तुओं से ही सन्तों की योग्यता का आकलन कर लेना बड़ी भूल है । सोमदेव स्वामी कुछ भिन्न प्रकृति के थे । उन्होंने जैसे ही ध्वजों को लहराते देखा तो वे सोचने लगे कि बाबा सन्त होकर इन ध्वजों में इतनी दिलचस्पी क्यों रखते है । क्या इससे उनका सन्तपन प्रकट होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह सन्त अपनी कीर्ति का इच्छुक है । अतएव उन्होंने शिरडी जाने का विचार त्याग कर अपने सहयात्रियों से कहा कि मैं तो वापस लौटना चाहता हूँ । तब वे लोग कहने लगे कि फिर व्यर्थ ही इतनी दूर क्यों आये । अभी केवल ध्वजों को देखकर तुम इतने उद्गिग्न हो उठे हो तो जब शिरडी में रथ, पालकी, घोड़ा और अन्य सामग्रियाँ देखोगे, तब तुम्हारी क्या दशा होगी । स्वामी को अब और भी अधिक घबराहट होने लगी और उसने काह कि मैंने अनेक साधु-सन्तों के दर्शन किये है, परन्तु यह सन्त कोई बिरला ही है, जो इस प्रकार ऐश्वर्य की वस्तुएँ संग्रह कर रहा है । ऐसे साधु के दर्शन न करना ही उत्तम है, ऐसा कहकर वे वापस लौटने लगे । तीर्थयात्रियों ने प्रतिरोध करते हुए उन्हें आगे बढ़ने की सलाह दी और समझाया कि तुम यह संकुचित मनोवृत्ति छोड़ दो । मसजिद में जो साधु है, वे इन ध्वजाओं और अन्य सामग्रियों या अपनी कीर्ति का स्वप्न में भी सोचविचार नहीं करते । ये सब तो उनके भक्तगण प्रेम और भक्ति के कारण ही उनको भेंट किया करते है । अन्त में वे शडी जाकर बाबा के दर्शन करने को तैयार हो गये । मसजिद के मंडप में पहुँच कर तो वे द्रवित हो गये । उनकी आँखों से अश्रुधारा बहले लगी और कंठ रुँध गया । अब उनके सब दूषित विचार हवा हो गये और उन्हें अपने गुरु के शब्दों की स्मृति हो आई कि मन जहाँ अति प्रसन्न औ आकर्षित हो जाय, उसी स्थान को ही अपना विश्रामधाम समझना । वे बाबा की चरण-रज में लोटना चाहते थे, परन्तु वे उनके समीप गये तो बाबा एकदम क्रोधित होकर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगे कि हमारा सामान हमारे ही साथ रहने दो, तुम अपने घर वापस लौट जाओ । सावधान । यदि फिर कभी मसजिद की सीढ़ी चढ़े तो । ऐसे संत के दर्शन ही क्यों करना चाहिये, जो मसजिद पर ध्वजायें लगाकर रखे । क्या ये सन्तपन के लक्षण है । एक क्षण भी यहाँ न रुको । अब उसे अनुभव हो गया कि बाबा ने अपने हृदय की बात जान ली है और वे कितने सर्वज्ञ है । उसे अपनी योग्यता पर हँसी आने लगी तथा उसे पता चल गया कि बाबा कितने निर्विकार और पवित्र है । उसने देखा कि वे किसी को हृदय से लगाते और किसी को हाथ से स्पर्श करते है तथा किसी को सान्तवना देकर प्रेमदृष्टि से निहारते है । किसी को उदी प्रसाद देकर सभी प्रकार से भक्तों को सुख और सन्तोष पहुँचा रहे है तो फिर मेरे साथ ऐसा रुक्ष बर्ताव क्यों । अधिक विचार करने पर वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसका कारण मेरे आन्तरिक विचार ही थे और इससे शिक्षा ग्रहण कर मुझे अपना आचरण सुधारना चाहिये । बाबा का क्रोध तो मेरे लिये वरदानस्वरुप है । अब यह कहना व्यर्थ ही होगा, कि वे बाबा की शरण मे आ गये और उनके एक परम भक्त बन गये ।


नानासाहेब चाँदोरकर
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अन्त में नानासाहेब चाँदोरकर की कथा लिखकर हेमाडपंत ने यह अध्याय समाप्त किया है । एक समय जब नानासाहेब म्हालसापति और अन्य लोगों के साथ मसजिद में बैठे हुए थे तो बीजापुर से एक सम्भ्रान्त यवन परिवार श्री साईबाबा के दर्शनार्थ आया । कुलवन्तियों की लाजरक्षण भावना देखकर नानासाहेब वहाँ से निकल जाना चाहते थे, परन्तु बाबा ने उन्हे रोक लिया । स्त्रियाँ आगे बढ़ी और उन्होंने बाबा के दर्शन किये । उनमें से एक महिला ने अपने मुँह पर से घूँघट हटाकर बाबा के चरणों में प्रणाम कर फिर घूँघट डाल लिया । नानासाहेब उसके सौंद4य से आक4षित हो गये और एक बार पुनः वह छटा देखने को लालायित हो उठे । नाना के मन की व्यथा जानकर उन लोगों के चले जाने के पश्चात् बाबा उनसे कहने लगे कि नाना, क्यों व्यर्थ में मोहित हो रहे हो । इन्द्रयों को अपना कार्य करने दो । हमें उनके कार्य में बाधक न होना चाहिये । भगवान् ने यह सुन्दर सृष्टि निर्माण की है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उसके सौन्दर्य की सराहना करें । यह मन तो क्रमशः ही स्थिर, होता है और जब सामने का द्घार खुला है, तब हमें पिछले द्घार से क्यों प्रविष्ट होना चाहिये । चित्त शुदृ होते ही फिर किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता । यदि हमारे मन में कुविचार नहीं है तो हमें किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं । नेत्रों को अपना कार्य करने दो । इसके लिये तुम्हें लज्जित तथा विचलित न होना चाहिये । उस समया शामा भी वही थे । उनकी समझ में न आया कि आखिर बाबा के कहने का तात्पर्य क्या है । इसलिये लौटते समय इस विषय में उन्होंने नाना से पूछा । उस परम सुन्दरी के सौन्दर्य को देखकर जिस प्रकार वे मोहित हुए तता यह व्यथा जानकर बाबा ने इस विषय पर जो उपदेश उन्हें दिये, उन्होंने उसका सम्पूर्ण वृतान्त उनसे कहकर शामा को इस प्रकार समझाया – हमारा मन स्वभावतः ही चंचल है, पर हमें उसे लम्पट न होने देना चाहिये । इन्द्रयाँ चाहे भले ही चंचल हो जाये, परन्तु हमें अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रखकर उसे अशांत न होने देना चाहिये । इन्द्रियाँ तो अपने विषयपदार्थों के लिये सदैव चेष्टा कि यही करती है, पर हमें उनके वशीभूत होकर उनके इच्छित पदार्थों के समीप न जाना चाहिये । क्रमशः प्रयत्न करते रहने से इस चंचलता को नियंत्रित किया जा सकता है । यघपि उन पर पूर्ण नियंत्रण सम्भव नहीं है तो भी हमें उनके वशीभूत न होना चाहिये ।

प्रसंगानुसार हमें उनका वास्तविक रुप से उचित गति-अवरोध करना चाहिये । सौन्दर्य तो आँखें सेंकने का विषय है, इसलिये हमें निडर होकर सुन्दर पदार्थों की ओर देखना चाहिये । यदि हममें किसी प्रकार के कुविचार न आवे तो इसमें लज्जा और भय की आवश्यकता ही क्या है । यदि मन को निरिच्छ बनाकर ईश्वर के सौन्दर्य को निहारो तो इन्द्रियाँ सहज और स्वाभाविक रुप से अपने वश में आ जायेगी और विषयानन्द लेते समय भी तुम्हें ईश्वर की स्मृति बनी रहेगी । यदि उसे इन्द्रियों के पीछे दौड़ने तथा उनमें लिप्त रहने दोगे तो तुम्हारा जन्म-मृत्यु के पाश से कदापि छुटकारा न होगा । विषयपदार्थ इंद्रियों को सदा पथभ्रष्ट करने वाले होते है । अतएव हमें विवेक को सारथी बनाकर मन की लगाम अपने हाथ में लेकर इन्द्रिय रुपी घोड़ों को विषयपदार्थों की ओर जाने से रोक लेना चाहिये । ऐसा विवेक रुपी सारथी हमें विष्णु-पद की प्राप्ति करा देगा, जो हमारा यथार्थ में परम सत्य धाम है और जहाँ गया हुआ प्राणी फिर कभी यहाँ नहीं लौटता ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 24 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-गुरु गद्दी मिलना

 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु तेग बहादर जी-गुरु गद्दी मिलना


जब श्री गुरु हरिगोबिंद जी ने गुरु गद्दी अपने छोटे पोत्र श्री हरि राय जी को दी तथ स्वंय ज्योति-ज्योत समाने का निर्णय कर लिया तो माता नानकी जी ने आपको हाथ जोड़कर विनती की कि महाराज! मेरे पुत्र जो कि संत स्वरुप हैं, उनकी ओर आपने ध्यान नहीं दिया| उनका निर्वाह किस तरह होगा? गुरु हरि गोबिंद जी ने जब अपनी पत्नी की यह बात सुनी तो उन्होंने वचन किया कि आप इस समय अपने पुत्र श्री तेग बहादर जी को लेकर अपने मायके बकाले गाँव चले जाओ| समय पर इन्ही को गुरु गद्दी प्राप्त हो जायेगी|


गुरु जी का वचन मानकर माता नानकी जी श्री (गुरु) तेग बहादर जी को लेकर बकाले आ गई| वहाँ आकर श्री तेग बहादर जी अलग बैठकर भजन सिमरन करते रहते| वह किसी भी काम काज की ओर अपना ध्यान न देते| इस तरह ऐसी तप साधना में आपजी ने 21-22 साल व्यतीत किए|


आठवें गुरु श्री हरि कृष्ण जी ने दिल्ली में ज्योति-ज्योत समाने से पहले पांच पैसे और नारियल थाली में रख कर और उसको माथा टेक कर वचन किया था कि "गुरु बाबा बकाले"| जब यह वचन सारे सिख सेवकों में प्रकट हो गया तो श्री तेग बहादर जी कोष्ठ में समाधि लगाकर छुप कर बैठ गए| 15 दिनों के बाद जब आपकी समाधि खुली तो माता जी ने कहा कि बेटा! आप संगत में प्रकट होकर दर्शन दो और उनकी मनोकामना पूर्ण करो| पर गुरु जी अपनी लिव जोड़कर बैठे रहे|


दूसरी ओर धीरमल जी गुरु गद्दी लगाकर बकाले आकर गुरु बनकर बैठ गए| उसने जगह जगह यह प्रचार किया कि मैं ही गुरु हूँ| इनको देखकर और सोढ भी यहाँ डेरा लगाकर बैठ गए| यह आपा धापी देखकर श्रधालु सिख विचलित से होने लगे|


मखन शाह लुभाना जिला जेहलम गाँव टांडा में रहता था, जो कि देश विदेश में व्यपार का काम करता था| एक बार वह किसी विदेश से जहाज का माल लादकर समुन्द्र के रस्ते देश को आ रहा था| तूफान के कारण जहाज रेतीली जिल्हण में फस गया| कोई चारा ना चलता देखकर उसने गुरु जी से हाथ जोड़कर अरदास की कि सच्चे पातशाह! मैं आपके घर का सेवक हूँ मेरी सहायता करके पार लगाओ| मैं आपके आगे पांच सौ मोहरे भेंट करूँगा|


अपने भगत के हृदय की पुकार सुनकर अन्तर्यामी गुरु ने अपना कंधा देकर मखन शाह का डूबता जहाज पार लगा दिया| और अपने सेवक की प्रार्थना कबूल की|


जहाज पार लगाकर मखन शाह ने सारा माल बेच दिया| तो वह अपनी मनौत पूरी करने के लिए पंजाब आया| पंजाब आकर उसको पता लगा इस समय गुरु बकाले में निवास करते हें| तब उसने यह विचार किया कि अन्तर्यामी गुरु स्वंय ही मुझसे पांच सौ मोहरे माँगेगे| बकाले जाकर उसने देखा कि वहाँ कई गुरु बैठे हैं| उसने हर एक गद्दी लगाकर बैठे गुरु के आगे दो दो मोहरे रखकर माथा टेका| पर किसी भी गुरु ने पांच सौ मोहरे पूरी ना माँगी| फिर वह सच्चे गुरु को पूछता-पूछता श्री गुरु तेग बहादर जी के पास पहुँच गया| आप जी कोष्ठ में बैठे थे| आपने माता जी से पूछ कर कोष्ठ में जाकर जब दो मोहरे रखकर माथा टेका तो आपने हँस कर कहा - मखन शाह! तू पांच सौ मोहरे गुरु घर की मनौत मानकर अब दो ही मोहरे रखता है| तुम्हें गुरु घर की मनौत पूरी करनी चाहिए|


गुरु जी के यह वचन सुनकर मखन शाह को यकीन आ गया कि यही सच्चे गुरु हैं| उसने पांच सौ मोहरे गुरु जी के आगे भेंट कर दी और खुशी से कोठे पर चढ़कर ऊँची-ऊँची कपड़ा फेरकर कहा, "गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे|"


इस तरह जब सबको पता लग गया कि बकाले वाले बाबा श्री गुरु तेग बहादर जी हैं तो संगत उमड़-उमड़ कर आपके दर्शन करने के लिए आने लगी| मखन शाह ने अपनी वार्ता सबको सुनाई कि सच्चे गुरु की परख किस तरह हुई है| यह वार्ता सुनकर श्रद्धालु सिख सेवकों ने गुरु जी के आगे भेंट रखकर माथा टेका|


दूसरे दिन माता जी तथा भाई गढ़ीये से सलाह करके मखन शाह ने चंदोआ और नीचे दरियाँ बिछाई और गुरु जी के दीवान के लिए तैयारी करके गुरु जी को गद्दी लगवाकर बिठा दिया| गुरु जी का दीवान में प्रगट होकर बैठना सुनकर सिख सेवक उमड़-उमड़ कर दर्शन करने को आए| आए हुए सभी श्रदालुओं ने यथा शक्ति भेंट अर्पण की और गुरु जी को माथा टेका|


धीरमल ने इस तरह संगत की आवाजाई और गुरु जी भेंट अर्पण होते देखकर आदमी भेजकर सारा चढ़ावा जो संगत ने भेंट किया था उठवा लिया| इस समय शीहें मसंद ने गुरु जी को मारने के लिए गोली भी चलाई| परन्तु वह खाली गई और गुरु जी बच गए|


मखन शाह अपने साथ आदमी लेकर धीरमल के डेरे से श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ के साथ-साथ डेरे से सब कुछ ले आया जो धीरमल के आदमी लूट कर ले गए थे| परन्तु गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ के अतिरिक्त धीरमल को वापिस करा दिया| इस तरह अपना आदर ना होता देखकर अपना सामान उठवाकर करतारपुर चला गया|

Tuesday, 23 March 2021

श्री गुरु तेग बहादर जी-जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी




श्री गुरु तेग बहादर जी-जीवन परिचय

प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): अमृतसर में 1 अप्रैल 1621 (पंजाब)Parkash Ustav (Birth date): April 1, 1621 at Amritsar (Punjab)

पिता: गुरु हरगोबिंद जी
Father: Guru Hargobind ji
माँ: माता Nanaki जी
Mother: Mata Nanaki ji
सहोदर: बाबा गुरदित्ता, बाबा वीरो, बाबा सूरजमल, बाबा अनी राय, बाबा अटल राय
Sibling: Baba Gurditta, Baba Viro, Baba Suraj Mal, Baba Ani Rai, Baba Atal Rai
महल (पति या पत्नी): करतारपुर जिला के माता गुज़री जी, पुत्री श्री लाल चंद जी, जालंधर.
Mahal (spouse): Mata Gujri ji D/o Lal Chand of Kartarpur Distt. Jullandhar.
साहिबज़ादे (वंश): गोबिंद राय जी
Sahibzaday (offspring): Gobind Rai ji
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): चांदनी चौक, दिल्ली में 11 नवंबर 1675
Joti Jyot (ascension to heaven): November 11, 1675 at Chandini Chowk, Delhi


गुरु मंगल 

दोहरा|| हिंदू धरम तरु मूल को राखयो धरनि मझार|| 
तेग बहादर सतिगुरु त्रिण समान तन डारि||१||


श्री गुरु तेग बहादर जी का जन्म श्री गुरु हरि गोबिंद जी के घर माता नानकी जी की पवित्र कोख से रविवार वैसाख वदी पंचमी संवत 1678 विक्रमी को अमृतसर में हुआ| आप जी का विवाह गुजरी जी से जो कि श्री लाल चंद सुभिखी क्षत्रि की सुपुत्री से 15 असूज संवत 1689 विक्रमी को करतारपुर में हुआ|

माता गुजरी जी की पवित्र कोख से पटने शहर में पोष सुदी सप्तमी रविवार असूज संवत 1723 विक्रमी को सवा पहर रात रहती श्री (गुरु) गोबिंद सिंह जी ने अवतार धरण किया|

Monday, 22 March 2021

श्री गुरु हरि कृष्ण जी-ज्योति ज्योत-श्री गुरु हरि कृष्ण जी ज्योति ज्योत समाना

  ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु हरि कृष्ण जी-ज्योति ज्योत-श्री गुरु हरि कृष्ण जी ज्योति ज्योत समाना

रानियों के महल से वापिस आकर कुछ समय बाद गुरु जी को बुखार हो गया जिससे सबको चिंता हो गई| बुखार के साथ-साथ दूसरे दिन ही गुरु जी को शीतला निकल आई| जब एक दो दिन इलाज करने से बीमारी का फर्क ना पड़ा तो इसे छूत की बीमारी समझकर राजा जयसिंह के बंगले से आपको यमुना नदी के किनारे तिलेखरी में तम्बू कनाते लगाकर भेज दिया|

इस प्रकार दो दिन दो राते गुरु जी को बहुत कष्ट रहा जिससे आपकी हालत खराब हो गई| सिखो ने प्रार्थना की महाराज! संगत के लिए क्या आज्ञा है किसके जिम्मे लगा चले हो| घर-घर गुरु बन बैठेगें| इसलिए संगत की बाजू किसे पकड़ाओगे| कृपा करके हमें बताए|


गुरु जी ने अपने मसंद भाई गुरुबक्श जी से एक ओर पांच पैसे मंगवाकर थाल में रखकर उनको माथा टेक कर कहा - 

"बाबा बसहि जि गराम बकले|| बनि गुर संगति सकल समाले||"


यह वचन करके आपजी कुश के आसन पर चादर तान कर लेट गए और शरीर त्यागकर स्वर्ग सिधार गए| 



कुल आयु व गुरु गद्दी का समय (Shri Guru Har Krishan Ji Total Age and Ascension to Heaven)


श्री गुरु हरि कृष्ण जी 5 साल 2 महीने की उम्र में गुरु गद्दी पर बैठ कर 2 साल 5 महीने गुरुत्व करके चेत्र सुदी चौदस 1721 विक्रमी को ज्योति ज्योत समां गए|

Sunday, 21 March 2021

श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-अनपढ़ झीवर से श्री भागवत गीता के अर्थ करवायें

ॐ साँई राम जी




 श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-अनपढ़ झीवर से श्री भागवत गीता के अर्थ करवायें


कीरतपुर से दिल्ली को जाते हुए गुरु जी अम्बाले के पास पंजोखरे गाँव में ठहरे| पंडित जो उसी गाँव के रहने वाले थे आपसे कहने लगे कि आप छोटी उम्र में ही ईश्वर अवतार और गुरु कहलाते हो|

अगर आपमें शक्ति है तो मुझे आप गीता के अर्थ करके दिखाओ| पंडित की ऐसी बात सुनकर गुरु जी ने कहा, पंडित जी! अगर अपने गीता के अर्थ सुनने हैं तो अपने गाँव में से किसी आदमी को लेकर आओ, हम उससे ही गीता के अर्थ आपको सुनवा देंगे|

गुरु जी की यह बात सुनकर पंडित जी ने एक अनपढ़ झीवर को बुलाया| गुरु जी ने उस झीवर को हाथ मुँह धुलवा कर एक आसन पर बिठा दिया|गुरु जी ने अपने हाथ की छड़ी उसके सिर पर रख कर कहा कि "पंडित जी को गीता के अर्थ करके सुनाओ|" गुरु जी की कृपा से उस झीवर ने गीता पड़कर शास्त्र अनुसार अर्थ करके पंडित को सुनाए|

गुरु जी के ऐसे कौतक को देखकर पंडित जी दंग रह गए| उनकी ऐसी प्रत्यक्ष शक्ति को देखकर पंडित ने गुरु जी को प्रणाम किया और क्षमा माँगी| अब इस स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना हुआ है|

Saturday, 20 March 2021

श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-चरणामृत से रोगियों के रोग दूर करना

ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-चरणामृत से रोगियों के रोग दूर करना

पंजोखरे से चलकर और स्थान-स्थान पर संगतो को दर्शन की खुशी देते हुए गुरु हरि कृष्ण जी दिल्ली पहुँच गए| गुरु जी के रहने का प्रबंध राजा जयसिंह ने अपने बंगले में कराया| उसने गुरु जी के दिल्ली पहुँचने की खबर बादशाह को भी दे दी|

उस समय दिल्ली शहर में हैजे की बीमारी से बहुत लोग बीमार थे| गुरु जी के आने की खबर सुनकर बहुत से रोगी आपके पास आने लगे| आप जिन्हें भी अपने चरणों का चरणामृत देते वह जल्द ही स्वस्थ हो जाता| इस प्रकार आपकी उपमा को सुनकर बहुत रोगी आपके पास आने लगे| आपने एक कुंड बनवाया जिसमे अमृत समय के स्मरण से उठकर अपने चरणों की छोह का पानी भर देते| इस कुंड में आए हुए रोगियों को सेवादार आठों पहर चरणामृत देते| जिससे बहुत से रोगी स्वस्थ हो गए| वह गुरु जी की महिमा गाते और भेंट अर्पण करते|


इस वार्ता को सुनकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अरदास में यह शब्द रखे -

"श्री हरि कृष्ण जी धिआईअै जिस डिठै सभ दुख जाइ||"

Friday, 19 March 2021

श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-बादशाह औरंगजेब के शहिजादे का गुरु जी से प्रभावित होना

 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु हरि कृष्ण जी-साखियाँ-बादशाह औरंगजेब के शहिजादे का गुरु जी से प्रभावित होना

राजा जयसिंह ने जब बादशाह को यह बताया कि गुरु जी ने मेने बंगले में निवास कर लिया है तो दूसरे ही दिन उसने अपने शहिजादे को गुरु जी के पास भेज दिया| शहिजादे ने बादशाह की ओर से गुरु जी को भेंट अर्पण की और माथा टेका| उसने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि बादशाह आपके दर्शन करना चाहते हैं| पर गुरु जी आगे से कहने लगे कि हमारा प्रण है कि हम किसी बादशाह के माथे नहीं लगेंगे|



शहिजादे गुरु जी से बातचीत करके बहुत प्रभावित हुआ| उसने यह सारी बात बादशाह को बताई कि गुरु जी उम्र में चाहे बच्चे हैं परन्तु उनकी सूझ-बूझ वृद्धों वाली है| इस प्रकार शहिजादा गुरु हरि कृष्ण जी से प्रभावित हुए बिना ना रह सका|

Thursday, 18 March 2021

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 48 - भक्तों के संकट निवारण

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 48 - भक्तों के संकट निवारण
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1. शेवड़े और
2. सपटणेकर की कथाएँ ।

अध्याय के प्रारम्भ करने से पूर्व किसी ने हेमाडपंत से प्रश्न किया कि साईबाबा गुरु थे या सदगुरु । इसके उत्तर में हेमाडपंत सदगुरु के लक्षणों का निम्नप्रकार वर्णन करते है ।

सदगुरु के लक्षण
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जो वेद और वेदान्त तथा छहों शास्त्रों की शिक्षा प्रदान करके ब्रहृविषयक मधुर व्याख्यान देने में पारंगत हो तता जो अपने श्वासोच्छवास क्रियाओं पर नियंत्रण कर सहज ही मुद्रायें लगाकर अपने शिष्यों को मंत्रोपदेश दे नि0श्चित अवधि में यथोचित संख्या का जप करने का आदेश दे और केवल अपने वाकचातुर्य से ही उन्हें जीवन के अंतिम ध्येय का दर्शन कराता हो तथा जिसे स्वयं आत्मसाक्षात्कार न हुआ हो, वह सदगुरु नहीं वरन् जो अपने आचरणों से लौकिक व पारलौकिक सुखों से विरक्ति की भावना का निर्माण कर हमें आत्मानुभूति का रसास्वादन करा दे तथा जो अपने शिष्यों को क्रियात्मक और प्रत्यक्ष ज्ञान (आत्मानुभूति) करा दे, उसे ही सदगुरु कहते है । जो स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से वंचित है, वे भला अपने अनुयायियों को किस प्रकार अनुभूति कर सकते है । सदगुरु स्वप्न में भी अपने शिष्य से कोई लाभ या ससेवा-शुश्रूषा की लालसा नहीं करते, वरन् स्वयं उनकी सेवा करने को ही उघत करते है । उन्हें यह कभी भी भान नहीं होता है कि मैं कोई महान हूँ और मेरा शिष्य मुझसे तुच्छ है, अपितु उसे अपने ही सदृश (या ब्रहमस्वरुप) समझा करते है । सदगुरु की मुख्य विशेषता यही है कि उनके हृदय में सदैव परम शांति विघमान रहती है । वे कभी अस्थिर या अशांत नहीं होते और न उन्हं अपने ज्ञान का ही लेशमात्र गर्व होता है । उनके लिये राजा-रंक, स्वर्ग-अपवर्ग सब एक ही समान है ।

हेमाडपंत कहते है कि मुझे गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप श्री साईबाब सदृश सदगुरु के चरणों की प्राप्ति तथा उनके कृपापात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वे अपने यौवन काल में चिलम के अतिरिक्त कुछ संग्रह न किया करते थे । न उनके बाल-बच्चे तथा मित्र थे, न घरबार था और न उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त था । 18 वर्ष की अवस्था से ही उनका मनोनिग्रह बड़ा विलश्रण था । वे निर्भय होकर निर्जन स्थानों में विचरण करते एवं सदा आत्मलीन रहते थे । वे सदैव भक्तों की निःस्वार्थ भक्ति देखकर ही उनकी इच्छानुसार आचरण किया करते थे । उनका कथना था कि मैं सदा भक्त के पराधीन रहता हूँ । जब वे शरीर में थे, उस समय भक्तों ने जो अनुभव किये, उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् आज भी जो उनके शरणागत होचुके है, उन्हें उसी प्रकार के अनुभव होते रहते है । भक्तों को तो केवल इतना ही यथेष्ठ है कि यदि वे अपने हृदय को भक्ति और विश्वास का दीपक बनाकर उसमें प्रेम की ज्योति प्रज्वलित करें तो ज्ञानज्योति (आत्मसाक्षात्कार) स्वयं प्रकाशित हो उठेगी । प्रेम के अभाव में शुष्क ज्ञान व्यर्थ है । ऐसा ज्ञान किसी को भी लाभप्रद नहीं हो सकता, प्रेमभाव में संतोष नहीं होता । इसलिये हमारा प्रेम असीम और अटूट होना चाहिये । प्रेम की कीर्ति का गुणगान कौन कर सकता है, जिसकी तुलना में समस्त वस्तुएँ तुच्छ जान पड़ती है । प्रेमरहित पठनपाठन सब निष्फल है । प्रेमांकुर के उदय होते ही भक्ति, वैराग्य, शांति और कल्याणरुपी सम्पत्ति सहज ही प्राप्त हो जाती है । जब तक किसी वस्तु के लिये प्रेम उत्पन्न नहीं होता, तब तक उसे प्राप्त करने की भावना ही उत्पन्न नहीं होती । इसलिये जहाँ व्याकुलता और प्रेम है, वहाँ भगवान् स्वयं प्रगट हो जाते है । भाव में ही प्रेम अंतर्निहित है और वही मोक्ष का कारणीभूत है । यदि कोई व्यक्ति कलुषित भाव से भी किसी सच्चे संत के चरण पकड़ ले तो यह निश्चित है कि वह अवश्य तर जायेगा । ऐसी ही कथा नीचे दर्शाई गई है ।


श्री शेवड़े
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अक्कलकोट (सोलापुर जिला) के श्री. स्पटणेकर वकालत का अध्ययन कर रहे थे । एक दिन उनकी अपने सहपाठी श्री. शेवड़े से भेंट हुई । अन्य और भी विधार्थी वहाँ एकत्रित हुए और सब ने अपनी-अपनी अध्ययन संबंधी योग्यता का परस्पर परीक्षण किया । प्रश्नोत्तरों से विदित हो गया कि सब से कम अध्ययन श्री. शेवड़े का है और वे परीक्षा में बैठने के अयोग्य है । जब सब मित्रों ने मिलकर उनका उपहास किया, तब शेवड़े ने कहा कि यघपि मेरा अध्ययन अपूर्ण है तो भी मैं परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरे साईबाबा ही सबको सफलता देने वाले है । श्री. सपटणेकर को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने श्री. शेवड़े से पूछा कि ये साईबाबा कौन है, जिनका तुम इतना गुणगान कर रहे हो । उन्होंने उत्तर दिया कि वे एक फकीर है, जो शिरडी (अहमदनगर) की एक मसजिद में निवास करते है । वे महान सत्पुरुष है । ऐसे अन्य संत भी हो सकते है, परन्तु वे उनसे अद्गितीय है । जब तक पूर्व जन्म के शुभ संस्कार संचित न हो, तब तक उनसे भेंट होना दुर्लभ है । मेरी तो उन पर पूर्ण श्रद्घा है । उनके श्रीमुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं होते । उन्होंने ही मुझे विश्वास दिलाया है कि मैं अगले वर्ष परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा । मेरा भी अटल विश्वास है कि मैं उनकी कृपा से परीक्षा में अवश्य ही सफलता पाऊँगा । श्री. सपटणेकर को अपने मिक्ष के ऐसे विश्वास पर हँसी आ गई और साथ ही साथ श्री साईबाबा का भी उन्होंन उपहास किया । भविष्य में जब शेवड़े दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये, तब सपटणेकर को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ ।



श्री. सपटणेकर
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श्री. सपटणेकर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् अक्कलकोट में रहले लगे और वहीं उन्हो्ने अपनी वकालत प्रारम्भ कर दी । दस वर्षों के पश्चात् सन् 1913 में उनके इकलौते पुक्ष की गले की बीमारी से मृत्यु हो गई, जिससे उनका हृदय विचलित हो उठा । मानसिक शांति प्राप्त करने हेतु उन्होंने पंढ़रपुर, गाणगापुर और अन्य तीर्थस्थानों की यात्रा की, परन्तु उनकी अशांति पूर्ववत् ही बनी रही । उन्होंने वेदांत का भी श्रवण किया, परन्तु वह भी व्यर्थ ही सिदृ हुआ । अचानक उन्हें शेवड़े के वचनों तथा श्री साईबाबा के प्रति उनके विश्वास की स्मृति हो आई और उन्होंने विचार किया कि मुझे भी शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करना चाहिये । वे अपने छोटे भाई पंड़ितराव के साथ शिरडी आये । बाबा के दर्शन कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । जब उन्होंने समीप जाकर नमस्कार करेक शुदृ भाना से श्रीफल भेंट किया तो बाबा तुरन्त क्रोधित हो उठे और बोले कि यहाँ से निकल जाओ । सपटणेकर का सिर झुक गया और वे कुछ हटकर पीछे बैठ गये । वे जानना चाहते थे कि किस प्रकार उनके समक्ष उपस्थित होना चाहिए । किसी ने उन्हें बाला शिम्प का नाम सुझा दिया । सपटणेकर उनके पास गये और उनसे सहायता करने की प्रार्थना करने लगे । तब वे दोनों बाबा का एक चित्र लेकर मसजिद को आये । बाला शिम्पी ने अपने हाथ में चित्र लेकर बाबा के हाथ में दे दिया और पूछा कि यह किसका चित्र है । बाबा ने सपटणेकर की ओर संकेत कर रहा कि यह तो मेरे यार का है । यह कहकर वे हंसने लगे और साथ ही सब भक्त मंडली भी हँसने लगी । बाला शिम्पी के इशारे पर जब सपटणेकर उन्हें प्रणाम करने लगे तो वे पुनः चिल्ला पड़े कि बाहर निकलो । सपटणेकर की समझ में नहीं आता था कि वे क्या करे । तब वे दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बाबा के सामने बैठ गये, परन्तु बाबा ने उन्हें तुरन्त ही बाहर निकलने की आज्ञा दी । वे दोनों बहुत ही निराश हुए । उनकी आज्ञा कौन टाल सकता था । आखिर सपटणेकर खिन्न-हृदय शिरडी से वापस चले आये । उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की कि हे साई । मैं आपसे दया की भक्षा माँगता हूँ । कम से कम इतना ही आश्वासन दे दीजिये कि मुझे भविष्य में कभी न कभी आपके श्री दर्शनों की अनुमति मिल जायेगी ।


श्रीमती सपटणेकर
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एक वर्ष बीत गया, फिर भी उनके मन में शांति न आई । वे गाणगापुर गये, जहाँ उनके मन में और अधिक अशांति बढ़ गई । अतः वे माढ़ेगाँव विश्राम के लिये पहुँचे और वहाँ से ही काशी जाने का निश्चय किया । प्रस्थान करने के दो दिन पूर्व उनकी पत्नी को स्वप्न हुआ कि वह स्वप्न में एक गागर ले लक्कड़शाह के कुएँ पर जल भरने जा रही है । वहाँ नीम के नीचे एक फकीर बैठा है । सिर पर एक कपड़ा बँधा हुआ है । फकीर उसके पास आकर कहने लगा कि मेरी प्रिय बच्ची । तुम क्यों व्यर्थ कष्ट उठा रही हो । मैं तुम्हारी गागर निर्मल जल से भर देता हूँ । तब फकीर के भय से वह खाली गागर लेकर ही लौट आई । फकीर भी उसके पीछे-पीछे चला आया । इतने में ही घबराहट में उसकी नीद भंग हो गई और उसने आँखे खोल दी । यह स्वप्न उसने अपने पति को सुनाया । उन्होंने इस एक शुभ शकुन जाना और वे दोनों शिरडी को रवाना हो गये । जब वे मसजिद पहुँचे तो बाबा वहाँ उपस्थित न थे । वे लेण्डी बाग गये हुए थे । उनके लौटने की प्रतीक्षा में वे वहीं बैठे रहे । जब बाबा लौटे तो उन्हें देखकर उनकी पत्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि स्वप्न में जिस फकीर के उसने दर्शन किये थे, उनकी आकृति बाबा से बिलकुल मिलती-जुलती थी । उसने अति आदरसहित बाबा को प्रणाम किया और वहीं बैठे-बैठे उन्हें निहारने लगी । उसका विनम्र स्वभाव देखकर बाबा अत्यन्त प्रसन्न हो गये । अपनी पदृति के अनुसार वे एक तीसरे व्यक्ति को अपने अनोखे ढंग से एक कहानी सुनाने लगे – मेरे हाथ, उदर, शरीर तथा कमर में बहुत दिनों से दर्द हुआ करता था । मैंनें अनेक उपचार किये, परन्तु मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा । मैं औषधियों से ऊब उठा, क्योंकि मुझे उनसे कोई लाभ न हो रहा था, परन्तु अब मुझे बड़ा अचम्भा हो रहा है कि मेरी समस्त पीड़ाये एकदम ही जाती रही । यघपि किसी का नाम नहीं लिया गया था, परन्तु यह चर्चा स्वयं श्रीमती सपटणेकर की थी । उनकी पीड़ा जैसा बाब ने अभी कहा, सर्वथा मिट गई और वे अत्यन्त प्रसन्न हो गई ।



संतति-दान
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तब श्री. सपटणेकर दर्शनों के लिए आगे बढ़, परन्तु उनका पूर्वोक्त वचनों से ही स्वागत हुआ कि बाहर निकल जाओ । इस बार वे बहुत धैर्य और नम्रता धारण करके आये थे । उन्होंने कहा कि पिछले कर्मों के कारण ही बाबा मुझसे अप्रसन्न है और उन्होंने अपना चरित्र सुधारने का निश्चय कर लिया और बाबा से एकान्त में भेंट करके अपने पिछले कर्मों की क्षमा माँगने का निश्चय किया । उन्होंने वैसा ही किया भी और अब जब उन्होंने अपना मस्तक उनके श्रीचरमणों पर रखा तो बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया । अब सपटणेकर उनके चरण दबाते हुए बैठे ही थे कि इतने में एक गड़ेरिन आई और बाबा की कमर दबाने लगी । तब वे सदैव की भाँति एक बनिये की कहानी सुनाने लगे । जब उन्होंने उसके जीवन के अनेकों परिवर्तन तथा उसके इकलौते पुत्र की मृत्यु का हाल सुनाया तो सपटणेकर को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि जो कथा वे सुना रहे है, वह तो मेरी ही है । उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ कि उनको मेरे जीवन की प्रत्येक बात का पता कैसे चल गया । अब उन्हं विदित हो गया कि बाबा अन्तर्यामी है और सबके हृदय का पूरा-पूरा रहस्य जानते है । यह विचार उनके मन में आया ही था कि गड़ेरिन से वार्तालाप चालू रखते हुए बाबा सपटणेकर की ओर संकेत कर कहने लगे कि यह भला आदमी मुझ पर दोषारोपण करता है कि मैंने ही इसके पुत्र को मार डाला है । क्या मैं लोगों के बच्चों के प्राण-हरण करता हूँ । फिर ये महाशय मसजिद में आकर अब क्यों चीख-पुकार मचाते है । अब मैं एक काम करुँगा । अब मैं उसी बालक को फिर से इनकी पत्नी के गर्भ में ला दूँगा । - ऐसा कहकर बाबा ने अपना वरद हस्त सपटणेकर के सिर पर रखा और उसे सान्त्वना देते हुए काह कि ये चरण अधिक पुरातन तथा पवित्र है । जब तुम चिंता से मुक्त होकर मुझ पर पूरा विश्वास करोगे, तभी तुम्हें अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । सपटणेकर का हृदय गदरगद हो उठा । तब अश्रुधारा से उनके चरण धोकर वे अपने निवासस्थान पर लौट आये और फिर पूजन की तैयारी कर नैवेघ आदि लेकर वे सपत्नीक मसजिद में आये । वे इसी प्रकार नित्य नैवेघ चढ़ाते और बाबा से प्रसाद ग्रहण करते रहे ।

मसजिद में अपार भीड़ होते हुए भी वे वहाँ जाकर उन्हें बार-बार नमस्कार करते थे । एक दूसरे से सिर टकराते देखकर बाब ने उनसे कहा कि प्रेम तथा श्रद्घा द्घारा किया हुआ एक ही नमस्कार मुझे पर्याप्त है । उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी का उत्सव देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें बाबा ने पांडुरंग के रुप में दर्शन दिये ।

जब वे दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो उन्होंने विचार किया कि पहले दक्षिणा में बाबा को एक रुपया दूँगा । यदि उन्होंने और माँगे तो अस्वीकार करने के बजाय एक रुपया और भेंट में चढ़ा दूँगा । फिर भी यात्रा के लिये शेष द्रव्यराशि पर्याप्त होगी । जब उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा को एक रुपया दक्षिणा दी तो बाबा ने भी उनकी इच्छा जानकर एक रुपया उनसे और माँगा । जब सपटणेकर ने उसे सहर्ष दे दिया तो बाबा ने भी उन्हें आर्शीवाद देकर कहाकि यह श्रीफल ले जाओ और इसे अपनी पत्नी की गोद में रखकर निश्चिंत होकर घर जाओं । उन्होंने वैसा ही किया और एक वर्ष के पश्चात ही उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । आठ मास का शिशु लेकर वह दम्पति फिर शिरडी को आये और बाबा के चरणों पर बालक को रखकर फिर इस प्रकार प्रर्थना करने लगे कि हे श्री साईनाथ । आपके ऋण हम किस प्रकार चुका सकेंगें । आपके श्री चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम है । हम दीनों पर आप सदैव कृपा करते रहियेगा, क्योंकि हमारे मन में सोते-जागते हर समय न जाने क्या-क्या संकल्प-विकल्प उठा करते है । आपके भजन में ही हमारा मन मग्न हो जाये, ऐसा आर्शीवाद दीजिये ।

उस पुत्र का नाम मुरलीधर रखा गया । बाद में उनके दो पुत्र (भास्कर और दिनकर) और उत्पन्न हुए । इस प्रकार सपटणेकर दम्पति को अनुभव हो गया कि बाबा के वचन कभी असत्य और अपूर्ण नहीं निकले ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.