शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Sunday 30 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - चंदू की करनी का फल

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





चंदू की करनी का फल

एक दिन जहाँगीर ने गुरु जी के हाथ में कपूरों और मोतियों की एक माला देखकर कहा कि इसमें से एक मनका मुझे बक्शो| मैं इसे अपनी माला का मेरु बनाकर आपकी निशानी के तौर पर रखूँगा| गुरु जी ने जहाँगीर की पूरी बात सुनी और कहने लगे पातशाह! इससे भी सुन्दर और कीमती 1080 मनको की माला जो हमारे पिताजी के पास थी वह चंदू के पास है| उसने यह माला हमारे पिताजी से तब ली थी जब उसने पिताजी को हवेली में कैद करके रखा था| वह माला आप चंदू से मँगवा लो|

जहाँगीर ने अपने आदमी को चंदू के पास भेजा| जब चंदू दरबार में आ गया, तो बादशाह ने कहा कि आप हमें वह माला दे जो आपने गुरु अर्जन देव जी से लाहौर में ली थी| यह आज्ञा सुनकर चंदू ने कहा जहाँपनाह! मैंने कोई भी माला गुरु जी से नहीं ली| ना ही मेरे पास कोई माला है| फिर गुरु जी के कहने पर ही बादशाह ने उसके घर आदमी भेजे और तलाशी ली| माला चंदू के घर से ही प्राप्त हुई|

चंदू का झूठ पकड़ा गया| जहाँगीर को बहुत गुस्सा आया| उसने गुरु जी से कहा कि यह आपका अपराधी है जिसने आपके निर्दोष पिता को घोर कष्ट देकर शहीद किया है| इसको पकड़ो, आपके जो मन में आये इसको सजा दो|

बादशाह की आज्ञा सुनकर भाई जेठा जी आदि सिखों ने चंदू को पकड़ लिया| उसके हाथ पैर बांध दिए| बांध कर उसे डेरे मजनू टिले ले आये| इसके पश्चात बादशाह ने चंदू के पुत्र और स्त्री को भी पकड़ लिया| उनको पकड़कर गुरु जी के पास मजनू टिले भेज दिया| ताकि इनको भी गुरु जी मर्जी के अनुसार सजा दे सके| परन्तु गुरु जी ने कहा इनका कोई दोष नहीं है| इनको छोड़ दो| अतः वह दोनों माँ-बेटा गुरु जी की महिमा करते हुए घर को चले गए|

Saturday 29 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - गुरु जी का चालीसा काटना

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ






गुरु जी का चालीसा काटना

बादशाह जहाँगीर के साथ गुरु जी के मेल मिलाप बढ़ गए| ऐसा देखकर चंदू बहुत तंग था| वह उस मौके की तलाश में था जब किसी भी तरह मेल मिलाप को रोका जाये या तोड़ा जाये| एक दिन जहाँगीर को बुखार हो गया| चंदू ने एक ज्योतिषी को बुलाया| उसे पांच सौ रूपये भी दिए और साथ साथ यह भी सिखाया कि बादशाह को कहो कि आपके घर घोर कष्ट की घड़ी आई है| जिसके कारण और दुःख मिलने की संभावना है| इसका उपाय जल्दी करना चाहिए|

जब ज्योतिषी ने यह बात बताई तो राजे ने पूछा इसका क्या उपाय करना चाहिए? ज्योतिषी ने सब कुछ वैसा ही बोल दीया जैसे चंदू ने सिखाया था| उसने कहा कि जो परमात्मा का नाम लेने वाला प्रभू का प्यारा बंदा, जो लोगों में पूजनीय हो अगर वह 40 दिन ग्वालियर के किले में एकांत बैठकर आपके निमित माला फेरे और प्रार्थना करे तो ही आपका कष्ट दूर हो सकता है वरना नहीं|

राजे ने जैसे ही यह बात सुनी उसने अपने अहिलकारो को कहा ऐसे गुणों वाले बंदे को जल्दी लाओ| इस समय चंदू जो वही पास बैठा था झट से बोल पड़ा जहाँपनाह! श्री गुरु हरिगोबिंद जी इस काम के लिए योग्य हैं| अगर आप उनको प्रार्थना करे तो वह आपकी प्रार्थना को स्वीकार कर लेंगे और किले में चले जाएगें और आपका कष्ट भी टल जाएगा|

बादशाह जो सहमा बैठा था वह झट से ही उसकी बात मान गया| उसने गुरु जी को बुलाया और सारी बात बताई| उसने यह भी कहा कि आप मेरी भलाई के लिए एक चालीसा ग्वालियर के किले में बिताए| गुरु जी जो कि अन्तर्यामी थे भविष्य की वार्ता को जानते थे| इस बात को स्वीकार करते हुए पांच सिखों सहित ग्वालियर के किले में प्रवेश के गए| \

ज्ञानी ज्ञान सिंह जी ने यह दिन 11 वैशाख संवत 1674 का लिखा है| जहाँगीर, जिसका गुरु जी के साथ प्यार था किले के दरोगा हरिदास को लिखा कि गुरु जी मेरे लिए किले में चालीसा काटने आ रहे इनको किसी प्रकार की कोई तकलीफ न होने देना| इनके हुकम का पालन करना|

Friday 28 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - बादशाह को भ्रम हो गया

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ






बादशाह को भ्रम हो गया

श्री गुरु हरिगोबिंद जी जब ग्वालियर के किले में चालीसा काट रहे थे तो उनको चालीस दिन से भी ऊपर हो गए, तो सिखों को बहुत चिंता हुई| उन्हें यह चिंता सता रही थी कि बादशाह ने गुरु जी को बाहर क्यों नहीं बुलाया| उधर बादशाह को भी भ्रम हो गया| और उसे रात को डर लगना शुरू हो गया| वह रात को उठ उठ कर बैठता| दुबिस्तान मजाह्ब ने अपने पुस्तक में लिखा है कि हजारों सिख जो गुरु जी के रोज दर्शन करने आते थे और अन्य जो घर बैठे ही गुरु जी के दर्शन को तरस रहे थे उनकी आह और बदअसीस से बादशाह को भ्रम हो गया| बादशाह को भयानक शेर आदि की शक्ले रात के समय दिखाई देने लगी| जिसके कारण वह भयभीत होकर डर डर कर उठने लगा|

एक दिन बादशाह ने पीर जलाल दीन को इसका कारण पूछा| पीर ने कहा तुमने किसी प्रभु के प्यारे को दुःख दिया है जिसका फल तुझे यह मिल रहा है| इसके पश्चात पीर मीया मीर जी ने भी दिल्ली जाकर बादशाह से उसके रोग का कारण यही बताया|

मीया मीर जी ने चंदू की वह सारी बात सुनाई जिसके कारण उसने श्री गुरु हरिगोबिंद जी के पिता श्री गुरु अर्जन देव जी को कष्ट देकर शहीद किया था| अब तुम चंदू के कहने पर ही उनके सुपुत्र गुरु हरिगोबिंद जी को कैद किया हुआ है इसका फल अशुभ है और तुझे परेशानी हो रही है|

यह भी लिखा है कि भाई जेठा जी अपनी सिद्धियों के बल के कारण रात को शेर बनकर आता है और बादशाह को डराता है| जब इस बात का पता गुरु जी को लगा तो आपने भाई जेठे को इस काम से रोक दिया|

Thursday 27 November 2014

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5


ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5
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चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन, अभिनंदन तथा श्री साई शब्द से सम्बोधन, अन्य संतों से भेंट, वेश-भूषा व नित्य कार्यक्रम, पादुकाओं की कथा, मोहिद्दीन के साथ कुश्ती, मोहिद्दीन का जीवन परिवर्तन, जल का तेल में रुपान्ततर, मिथ्या गरु जौहरअली ।



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जैसा गत अध्याय में कहा गया है, मैं अब श्री साई बाबा के शिरडी से अंतर्दृान होने के पश्चात् उनका शिरडी में पुनः किस प्रकार आगमन हुआ, इसका वर्णन करुँगा ।

चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन
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जिला औरंगाबाद (निजाम स्टेट) के धूप ग्राम में चाँद पाटील नामक एक धनवान् मुस्लिम रहते थे । जब वे औरंगाबाद जा रहे थे तो मार्ग में उनकी घोड़ी खोगई । दो मास तक उन्होंने उसकी खोज में घोर परिश्रम किया, परन्तु उसका कहीं पता न चल सका । अन्त में वे निराश होकर उसकी जीन को पीट पर लटकाये औरंगाबाद को लौट रहे थे । तब लगभग 14 मील चलने के पश्चात उन्होंने एक आम्रवृक्ष के नीचे एस फकीर को चिलम तैयार करते देखा, जिसके सिर पर एक टोपी, तन पर कफनी और पास में एक सटका था । फकीर के बुलाने पर चाँद पाटील उनके पास पहुँचे । जीन देखते ही फकीर ने पूछा यह जीन कैसी । चाँद पाटील ने निराशा के स्वर में कहा क्या कहूँ मेरी एक घोड़ी थी, वह खो गई है और यह उसी की जीन है ।

फकीर बोले – थोड़ा नाले की ओर भी तो ढूँढो । चाँद पाटील नाले के समीप गये तो अपनी घोड़ी को वहाँ चरते देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि फकीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, वरन् कोई उच्च कोटि का मानव दिखलाई पड़ता है । घोड़ी को साथ लेकर जब वे फकीर के पास लोटकर आये, तब तक चिलम भरकर तैयार हो चुकी थी । केवल दो वस्तुओं की और आवश्यकता रह गई थी। एक तो चिलम सुलगाने के लिये अग्नि और दितीय साफी को गीला करने के लिये जल की ।फकीर ने अपना चिमटा भूमि में घुसेड़ कर ऊपर खींचा तो उसके साथ ही एक प्रज्वलित अंगारा बाहर निकला और वह अंगारा चिलम पर रखा गया । फिर फकीर ने सटके से ज्योंही बलपूर्वक जमीन पर प्रहार किया, त्योंही वहाँ से पानी निकलने लगा ओर उसने साफी को भिगोकर चिलम को लपेट लिया । इस प्रकार सब प्रबन्ध कर फकीर ने चिलम पी ओर तत्पश्चात् चाँद पाटील को भी दी । यह सब चमत्कार देखकर चाँद पाटील को बड़ा विस्मय हुआ । चाँद पाटील ने फकीर ने अपने घर चलने का आग्रह किया । दूसरे दिन चाँद पाटील के साथ फकीर उनके घर चला गया । और वहाँ कुछ समय तक रहा । पाटील धूप ग्राम की अधिकारी था और बारात शिरडी को जाने वाली थी । इसलिये चाँद पाटील शिरडी को प्रस्थान करने का पूर्ण प्रबन्ध करने लगा । फकीर भी बारात के साथ ही गया । विवाह निर्विध्र समाप्त हो गया और बारात कुशलतापू्र्वक धूप ग्राम को लौट आई । परन्तु वह फकीर शिरडी में ही रुक गया और जीवनपर्यन्त वहीं रहा ।


फकीर को साई नाम कैसे प्राप्त हुआ
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जब बारात शिरडी में पहुँची तो खंडोबा के मंदिर के समीप म्हालसापति के खेत में एक वृक्ष के नीचे ठहराई गई । खंडोबा के मंदिर के सामने ही सब बैलगाड़ियाँ खोल दी गई और बारात के सब लोग एक-एक करके नीचे उतरने लगे । तरुण फकीर को उतरते देख म्हालसापति ने आओ साई कहकर उनका अभिनन्दन किया तथा अन्य उपस्थित लोगों ने भी साई शब्द से ही सम्बोधन कर उनका आदर किया । इसके पश्चात वे साई नाम से ही प्रसिदृ हो गये ।

अन्त संतों से सम्पर्क
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शिरडी आने पर श्री साई बाबा मसजिद में निवास रने लगे । बाबा के शिरडी में आने के पूर्व देवीदास नाम के एक सन्त अनेक वर्षों से वहाँ रहते थे । बाबा को वे बहुत प्रिय थे । वे उनके साथ कभी हनुमान मन्दिर में और कभी चावड़ी में रहते थे । कुछ समय के पश्चात् जानकीदास नाम के एक संत का भी शिरडी में आगमन हुआ । अब बाबा जानकीदास से वार्तालाप करने में अपना बहुत-सा समय व्यतीत करने लगे । जानकीदास भी कभी-कभी बाबा के स्थान पर चले आया करते थे और पुणताम्बे के श्री गंगागीर नामक एक पारिवारिक वैश्य संत भी बहुधा बाबा के पास आया-जाया करते थे । जब प्रथम बार उन्होंने श्री साई बाबा को बगीचा-सिंचन के लिये पानी ढोते देखा तो उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ । वे स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि शिरडी परम भाग्यशालिनी है, जहाँ एक अमूल्य हीरा है । जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं है । अपितु यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक प्रसिदृ शिष्य पधारे, उन्होंने भी स्पष्ट कहा कि यघपि बाहृदृषि्ट से ये साधारण व्यक्ति जैसे प्रतीत होते है, परंतु ये सचमुच असाधारण व्यक्ति है । इसका तुम लोगों को भविष्य में अनुभव होगा । ऐसा कहकर वो येवला को लौट गये । यह उस समय की बात है, जब शिरडी बहुत ही साधारण-सा गाँव था और साई बाबा बहुत छोटी उम्र के थे ।



बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम
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तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे । जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है)तो गहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे । वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि दोखकर लगा देते और स्वंय सींचते थे । वामन तात्या नाम के एक भक्त इन्हें नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे । इन घड़ों दृारा बाबा स्वंय ही पौधों में पानी डाला करते थे । वे स्वंय कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे । जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी क बने रहते थे । दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे । यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है ।



नीम वृक्ष के नीचे पादुकाओं की कथा
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श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक भक्त, जिनका नाम भाई कृष्ण जी अलीबागकर था, उनके चित्र का नित्य-प्रति पूजन किया करते थे । एक समय उन्होंने अक्कलकोटकर (शोलापुर जिला) जाकर महाराज की पादुकाओं का दर्शन एवं पूजन करने का निश्चय किया । परन्तु प्रस्थान करने के पूर्व अक्कलकोटकर महाराज ने स्वपन में दर्शन देकर उनसे कहा कि आजकल शिरडी ही मेरा विश्राम-स्थल है और तुम वहीं जाकर मेरा पूजन करो । इसलिये भाई ने अपने कार्यक्रम में परिवर्तन कर शिरडी आकर श्री साईबाबा की पूजा की । वे आनन्दपूर्वक शिरडी में छः मास रहे और इस स्वप्न की स्मृति-स्वरुप उन्होंने पादुकायें बनवाई । शके सं. 1834 में श्रावण में शुभ दिन देखकर नीम वृक्ष के नीचे वे पादुकायें स्थापित कर दी गई । दादा केलकर तथा उपासनी महाराज ने उनका यथाविधि स्थापना-उत्सव सम्पन्न किया । एक दीक्षित ब्राहृमण पूजन के लिये नियुक्त कर दिया गया और प्रबन्ध का कार्य एक भक्त सगुण मेरु नायक को सौंप गया ।

कथा का पूर्ण विवरण
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ठाणे के सेवानिवृत मामलतदार श्री.बी.व्ही.देव जो श्री साईबाबा के एक परम भक्त थे, उन्होंने सगुण मेरु नायक और गोविंद कमलाकर दीक्षित से इस विषयमें पूछताछ की । पादुकाओं का पूर्ण विवरण श्री साई लीला भाग 11, संख्या 1, पृष्ठ 25 में प्रकाशित हुआ है, जो निम्नलिखित है – शक 1834 (सन् 1912) में बम्बई के एक भक्त डाँ. रामराव कोठारे बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये । उनका कम्पाउंडर और उलके एक मित्र भाई कृष्ण जी अलीबागकर भी उनके साथ में थे । कम्पाउंडर और भाई की सगुण मेरु नायक तथा जी. के. दीक्षित से घनिष्ठ दोस्ती हो गई । अन्य विषयों पर विवाद करता समय इन लोगों को विचार आया कि श्री साई बाबा के शिरडी में प्रथम आगमन तथा पवित्र नीम वृक्ष के नीचे निवास करने की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष्य में क्यों न पादुकायें स्थापित की जायें । अब पादुकाओं के निर्माण पर विचार विमर्श होने लगा । तब भाई के मित्र कम्पाउंडर ने कहा कि यदि यह बात मेरे स्वामी कोठारी को विदित हो जाय तो वे इस कार्य के निमित्त अति सुन्दर पादुकायें बनवा देंगे । यह प्रस्ताव सबको मान्य हुआ और डाँ. कोठारे को इसकी सूचना दी गई । उन्होंने शिरडी आकर पादुकाओं की रुपरेखा बनाई तथा इस विषय में उपासनी महीराज से भी खंडोवा के मंदिर में भेंट की । उपासनी महाराज ने उसमेंबहुत से सुधार किये और कमल फूलादि खींच दिये तथा नीचे लिखा श्लोक भी रचा, जो नीम वृक्ष के माहात्म्य व बाबा की योगशक्ति का घोतक था, जो इस प्रकार है -

सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात्
सुधास्त्राविणं तित्तमप्यप्रियं तम् ।
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तं
नमानीश्वरं सद्गगुरुं साईनाथम् ।।

अर्थात् मैं भगवान साईनाथ को नमन करता हूँ, जिनका सानिध्य पाकर नीम वृक्ष कटु तथा अप्रिय होते हुए भी अमृत वर्षा करता था । (इस वृक्ष का रस अमृत कहलाता है) इसमें अनेक व्याधियों से मुक्ति देने के गुण होने के कारण इसे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ कहा गया है ।

उपासनी महाराज का विचार सर्वमान्य हुआ और कार्य रुप में भी परिणत हुआ । पादुकायें बम्बई में तैयार कराई गई और कम्पाउंडर के हाथ शिरडी भेज दी गई । बाबा की आज्ञानुसार इनकी स्थापना श्रावण की पूर्णिमा के दिन की गई । इस दिन प्रातःकाल 11 बजे जी.के. दीक्षित उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर खंडोबा के मंदिर से बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दृारका माई में लाये । बाबा ने पादुकायें स्पर्श कर कहा कि ये भगवान के श्री चरण है । इनकी नीम वृक्ष के नीचे स्थापना कर दो । इसके एक दिन पूर्व ही बम्बई के एक पारसी भक्त पास्ता शेट ने 25 रुपयों का मनीआर्डर भेजा । बाबा ने ये रुपये पादुकाओं की स्थापना के निमित्त दे दिये । स्थापना में कुल 100 रुपये हुये, जिनमें 75 रुपये चन्दे दृारा एकत्रित हुए । प्रथम पाँच वर्षों तक डाँ. कोठारे दीपक के निमित्त 2 रुपये मासिक भेजते रहे । उन्होंने पादुकाओं के चारों ओर लगाने के लिये लोहे की छडे़ भी भेजी । स्टेशन से छड़े ढोने और छप्पर बनाने का खर्च (7 रु. 8 आने) सगुण मेरु नायक ने दिये । आजकल जरबाड़ी (नाना पुजारी) पूजन करते है और सगुण मेरु नायक नैवेघ अर्पण करते तथा संध्या को दीहक जलाते है । भाई कृष्ण जी पहले अक्कलकोटकर महाराज के शिष्य थे । अक्कलकोटकर जाते हुए, वे शक 1834 में पादुका स्थापन के शुभ अवसर पर शिरडी आये और दर्शन करने के पश्चात् जब उन्होंने बाबा से अक्कलकोटकर प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी, तब बाबा कहने लगे, अरे अक्कलकोटकर में क्या है । तुम वहाँ व्यर्थ क्यों जाते हो । वहाँ के महाराज तो यही (मैं स्वयं) हैं यह सुनकर भाई ने अक्कलकोटकर जाने का विचार त्याग दिया । पादुकाएँ स्थापित होने के पश्चात् वे बहुधा शिरडी आया करते थे । श्री बी.व्ही, देव ने अंत में ऐसा लिखा है कि इन सब बातों का विवरण हेमाडपंत को विदित नहीं था । अन्यथा वे श्री साई सच्चरित्र में लिखना कभी नहीं भूलते ।

मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती और जीवन परिवर्तन
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शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था । बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया । फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये । इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया । वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे । वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे । इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे । वे सदैव यही कहा करते थे । कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई । गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था । एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई । इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये । इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया । पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा । श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे । जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे । दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे । कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे । और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे । नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे । बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे । उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी । बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा । कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ । इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी । अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई । तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा । बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे । केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे । वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोदाार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।



 



जल का तेल में परिवर्तन
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बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था । वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल मागँ लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे । यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा । अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे । नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ । किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उनपर दृष्टि जमाये हुये थे । बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था । उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये । उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया । उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की । बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया ।

मिथ्या गुरु जौहर अली
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उपयुक्त वर्णित कुश्ती के 5 वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये । वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे । फकीर विदृान था । कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी ।उसका कंठ मधुर था । गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसे पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा । लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया । इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया ओर बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा । उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हर लिया । वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा । बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीका कर लिया । तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे । गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था । इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबाहते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की । वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था । श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था । इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये । इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई ओर उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया । बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे । अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये । इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे । इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से ने जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रुदृ हुए । कुछ वादविवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे । कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई । चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे 12 वर्ष पूर्व देवीदास लगभग 10 या 11 वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मंदिर में रहते थे । देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे । वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञगनी थे । बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे । लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये । विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया । वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की । उसका यह भ्रम कि वह स्वये पुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था । श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ । इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उरस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये । ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथनानुसार है । अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा ।



।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday 26 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - गुरु जी का चालीसा काटना

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





गुरु जी का चालीसा काटना

बादशाह जहाँगीर के साथ गुरु जी के मेल मिलाप बढ़ गए| ऐसा देखकर चंदू बहुत तंग था| वह उस मौके की तलाश में था जब किसी भी तरह मेल मिलाप को रोका जाये या तोड़ा जाये| एक दिन जहाँगीर को बुखार हो गया| चंदू ने एक ज्योतिषी को बुलाया| उसे पांच सौ रूपये भी दिए और साथ साथ यह भी सिखाया कि बादशाह को कहो कि आपके घर घोर कष्ट की घड़ी आई है| जिसके कारण और दुःख मिलने की संभावना है| इसका उपाय जल्दी करना चाहिए|

जब ज्योतिषी ने यह बात बताई तो राजे ने पूछा इसका क्या उपाय करना चाहिए? ज्योतिषी ने सब कुछ वैसा ही बोल दीया जैसे चंदू ने सिखाया था| उसने कहा कि जो परमात्मा का नाम लेने वाला प्रभू का प्यारा बंदा, जो लोगों में पूजनीय हो अगर वह 40 दिन ग्वालियर के किले में एकांत बैठकर आपके निमित माला फेरे और प्रार्थना करे तो ही आपका कष्ट दूर हो सकता है वरना नहीं|

राजे ने जैसे ही यह बात सुनी उसने अपने अहिलकारो को कहा ऐसे गुणों वाले बंदे को जल्दी लाओ| इस समय चंदू जो वही पास बैठा था झट से बोल पड़ा जहाँपनाह! श्री गुरु हरिगोबिंद जी इस काम के लिए योग्य हैं| अगर आप उनको प्रार्थना करे तो वह आपकी प्रार्थना को स्वीकार कर लेंगे और किले में चले जाएगें और आपका कष्ट भी टल जाएगा|

बादशाह जो सहमा बैठा था वह झट से ही उसकी बात मान गया| उसने गुरु जी को बुलाया और सारी बात बताई| उसने यह भी कहा कि आप मेरी भलाई के लिए एक चालीसा ग्वालियर के किले में बिताए| गुरु जी जो कि अन्तर्यामी थे भविष्य की वार्ता को जानते थे| इस बात को स्वीकार करते हुए पांच सिखों सहित ग्वालियर के किले में प्रवेश के गए|

ज्ञानी ज्ञान सिंह जी ने यह दिन 11 वैशाख संवत 1674 का लिखा है| जहाँगीर, जिसका गुरु जी के साथ प्यार था किले के दरोगा हरिदास को लिखा कि गुरु जी मेरे लिए किले में चालीसा काटने आ रहे इनको किसी प्रकार की कोई तकलीफ न होने देना| इनके हुकम का पालन करना|

Tuesday 25 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - जब शाहजहाँ को घोड़े के बारे में पता लगा

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





जब शाहजहाँ को घोड़े के बारे में पता लगा

काबुल के एक श्रद्धालु सिख ने अपनी कमाई में से दसवंध इक्कठा करके गुरु जी के लिए एक लाख रूपए का एक घोड़ा खरीदा जो की उसने ईराक के सौदागर से खरीदा था| जब वह काबुल कंधार की संगत के साथ यह घोड़ा लेकर अटक दरिया से पार हुआ तो शाहजहाँ के एक उमराव ने वह घोड़ा देख लिया|

वह शाहजहाँ के लिए अच्छे घोड़े खरीदा करता था| उसने घोड़े को देखा और कहने लगा कि यह घोड़ा तो शाहजहाँ के लिए ही बना है| उसने सिख से कहा तुम मुझसे इसकी कीमत ले लो| परन्तु सिख जिसने बड़ी श्रद्धा के साथ वह घोड़ा खरीदा था कहने लगा कि यह घोड़ा तो मैंने गुरु जी के निमित खरीद कर उनको भेंट करने जा रहा हूँ| मैं इसे आपको नहीं बेच सकता|

जब शाहजहाँ को घोड़े के बारे में पता लगा तो उसने अपने सिपाही भेजे| सिपाहियों ने घोड़ा जबरदस्ती लेकर तबेले में बांध लिया| तो गुरु का सिख दुखी हो गया| वह दुखी मन से गुरु जी के पास पहुँचा| पास पहुँच कर उसने गुरु जी को अपनी सारी व्यथा सुनाई| उसकी बात सुनकर गुरु जी कहने लगे, गुरु के सिखा! तुम चिंता न करो, तुम्हारी भेंट हमे स्वीकार हो गई है| घोड़ा हमारे पास जल्दी ही आ जाएगा|

Monday 24 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - घोड़े का इलाज़

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





घोड़े का इलाज़

शाहजहाँ घोड़े को देख कर बहुत खुश हो गया| उसकी सेवा व देखभाल के लिए उसने सेवादार भी रख लिया| परन्तु घोड़ा थोड़े ही दिनों में बीमार हो गया| उसने चारा खाना और पानी पीना छोड़ दिया| एक पाँव जमीन से उठा लिया और लंगड़ा होकर चलने लगा|

शाहजहाँ के स्लोत्री ने घोड़े को देखकर सलाह दी कि इसे जल्दी जी तबेले से बाहर निकाल दो| अगर इसे बाहर नहीं निकाला तो इसकी मुँह खुर की छूत वाली बीमारी से दूसरे घोड़ों के बीमार होने का डर है| बादशाह ने उसकी सलाह मानकर घोड़ा पने काजी रुस्तम खां को दे दिया| काजी घोड़ा लेकर बहुत खुश हुआ और इलाज करने लगा|

एक दिन भाई सुजान जी जो यह घोड़ काबुल से लाए थे उन्होंने यह घोड़ा काजी के पास देख लिया| उन्होंने गुरु जी को भी यह बताया कि घोड़ा काजी के पास है और कुछ बीमार भी लगता है| गुरु जी ने काजी को अपने पास बुलाया और घोड़ा खरीदने की बात की| उन्होंने कहा हम इसका दस हजार रुपया देंगे| इलाज करके हम इसे स्वस्थ भी कर लेंगे| काजी ने गुरु जी को घोड़ा बेच दिया|

गुरु जी ने घोड़े का इलाज अपने स्लोत्री से कराया| घोड़ा जल्दी ही स्वस्थ हो गया| वह घास दाना भी खाने लगा| उसने अपनी लंगडी टांग भी जमीन पर लगा दी| भाई सुजान को अपना घोड़ा स्वस्थ देखकर बहुत खुशी हुई| गुरु जी ने उसके ऊपर सुनहरी पालना डलवा कर जब सवारी की तो भाई सुजान जी कहने लगे, गुरु जी! अब मेरा मनोरथ पूरा हो गया है| आपने मेरी भावना पूरी कर दी है|

गुरु जी बोले भाई सुजान! तुम निहाल हो गए हो| तेरा प्रेम और श्रद्धा धन्य है| इस प्रकार भाई सुजान अपनी मनोकामना पूरी करके अपने देश काबुल चला गया|

Sunday 23 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - जले पीपल को फिर से हरा-भरा करना

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





जले पीपल को फिर से हरा-भरा करना

एक दिन एक सिख गुरु जी के पास आया और कहने लगा की महाराज! गुरु स्थान नानक मते का सिद्ध लोग घोर अनादर कर रहे है| आप कृपा करके जल्दी वहाँ पहुँच कर सत्संग नानक साहिब की यादगार को नष्ट होने से बचाओ सिख की`यह प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने बाबा बुड्डा जी आदि सिखों से कहा कि हम नानक मते जाकर गुरु साहिब कि यादगारे पीपल और मीठा रीठा सिद्धों से बचाना चाहते है| अगर हम वहाँ नहीं गए तो सिद्ध इसे मिटा देंगे|

रास्ते में अनेक प्राणियों का उद्धार करते हुए गुरु जी नानक मते पहुंच गए| गुरु जी ने भाई अलमस्त से सारी बात सुनी| योगियों द्वारा पीपल जलाये जाने कि बात सुनकर गुरु जी ने स्नान किया| शस्त्र-वस्त्र सजाये और पीपल के पास दीवान सजा कर सोदर की चौकी पड़ कार अरदास की| इसके पश्चात निर्मल जल मंगवा कर उसमें केसर और चन्दन घिसवा कार मिलाया और सतिनाम कह कर जले हुए पीपल पार डाल दिया जो कि सिद्धों ने इर्षा करके,गुरु घर की निशानी मिटाने के लिए जला दी थी|

दूसरे दिन उसे पीपल में से हरी- हरी शाखाएँ और पत्ते निकाल आये| ऐसा देखकर सभी भगत खुश हो गए व गुरु जी की जय-जयकार करने लगे| इस पीपल पार आज तक केसर के निशान और चन्दन के सफ़ेद निशान साफ़ दिखाई देते है|

Saturday 22 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ - पुत्र का वरदान

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी – साखियाँ





पुत्र का वरदान


एक दिन गुरु हरिगोबिंद जी के पास माई देसा जी जो कि पट्टी की रहने वाली थीगुरु जी से आकर प्रार्थना करने लगी कि महाराज! मेरे घर कोई संतान नहीं हैआप किरपा करके मुझे पुत्र का वरदान दोगुरु जी ने अंतर्ध्यान होकर देखा और कहा कि माई तेरे भाग में पुत्र नहीं हैमाई निराश होकर बैठ गई|
भाई गुरदास जी ने माई से निराशा का कारण पूछाउसने सारी बात भाई गुरदास जी को बताई कि किस तरह गुरु जी ने उसे कहा है कि उसके भाग्य में पुत्र नहीं हैभाई गुरदास जी ने उसे दोबारा से गुरु जी को प्रार्थना करने को कहाअगर गुरु जी वही उत्तर देंगे तो आप उन्हें कहना कि महाराज! यहाँ वहाँ आप ही लिखने वाले हैंअगर पहले नहीं लिखातो अब यहाँ ही लिख दोआप समर्थ हैं|
दूसरे दिन गुरु जी घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए जाने लगेजल्दी से माई ने आगे हो कर गुरु जी से कहा कि महाराज! किरपा करके मुझे एक पुत्र का वरदान बक्श कर मेरी आशा पूरी करोगुरु जी ने फिर वही उत्तर दिया कि माई तेरे भाग्य में पुत्र नहीं लिखामाई ने कलम दवात गुरु जी के आगे रखकर कहा कि सच्चे पादशाह! अगर आपने वहाँ नहीं लिखा तो यहाँ लिख दोयहाँ वहाँ आप ही भाग्य विधाता हो|
माई की यह युक्ति की बात सुनकर गुरु जी हँस पड़े और कहा माई तेरे घर पुत्र होगामाई ने कलम दवात गुरु जी के आगे कर दी और कहा महाराज! यह वचन मेरे हाथ पर लिख दो ताकि मेरे मन को शांति होगुरु जी ने कलाम पकड़कर जैसे ही माई के दाये हाथ पर लिखने लगे तो नीचे से घोड़े के पाँव हिलने से एक की जगह सात अंक लिखा गयागुरु जी ने हँस कर कहा माई तुम एक लेने आई थी परन्तु स्वाभाविक ही सात लिखे गए हैंअब तुम्हारे घर सात पुत्र ही होंगेमाई देसो गुरु जी की उपमा करती हुई खुशी खुशी अपने घर आ गई|
एक दिन गुरु हरिगोबिंद जी के पास माई देसा जी जो कि पट्टी की रहने वाली थीगुरु जी से आकर प्रार्थना करने लगी कि महाराज! मेरे घर कोई संतान नहीं हैआप किरपा करके मुझे पुत्र का वरदान दोगुरु जी ने अंतर्ध्यान होकर देखा और कहा कि माई तेरे भाग में पुत्र नहीं हैमाई निराश होकर बैठ गई|
भाई गुरदास जी ने माई से निराशा का कारण पूछाउसने सारी बात भाई गुरदास जी को बताई कि किस तरह गुरु जी ने उसे कहा है कि उसके भाग्य में पुत्र नहीं हैभाई गुरदास जी ने उसे दोबारा से गुरु जी को प्रार्थना करने को कहाअगर गुरु जी वही उत्तर देंगे तो आप उन्हें कहना कि महाराज! यहाँ वहाँ आप ही लिखने वाले हैंअगर पहले नहीं लिखातो अब यहाँ ही लिख दोआप समर्थ हैं|
दूसरे दिन गुरु जी घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए जाने लगेजल्दी से माई ने आगे हो कर गुरु जी से कहा कि महाराज! किरपा करके मुझे एक पुत्र का वरदान बक्श कर मेरी आशा पूरी करोगुरु जी ने फिर वही उत्तर दिया कि माई तेरे भाग्य में पुत्र नहीं लिखामाई ने कलम दवात गुरु जी के आगे रखकर कहा कि सच्चे पादशाह! अगर आपने वहाँ नहीं लिखा तो यहाँ लिख दोयहाँ वहाँ आप ही भाग्य विधाता हो|
माई की यह युक्ति की बात सुनकर गुरु जी हँस पड़े और कहा माई तेरे घर पुत्र होगामाई ने कलम दवात गुरु जी के आगे कर दी और कहा महाराज! यह वचन मेरे हाथ पर लिख दो ताकि मेरे मन को शांति होगुरु जी ने कलाम पकड़कर जैसे ही माई के दाये हाथ पर लिखने लगे तो नीचे से घोड़े के पाँव हिलने से एक की जगह सात अंक लिखा गयागुरु जी ने हँस कर कहा माई तुम एक लेने आई थी परन्तु स्वाभाविक ही सात लिखे गए हैंअब तुम्हारे घर सात पुत्र ही होंगेमाई देसो गुरु जी की उपमा करती हुई खुशी खुशी अपने घर आ गई|
एक दिन झंगर नाथ गुरु हरिगोबिंद जी से कहने लगे कि आप जैसे गृहस्थियों का हमारे साथ ,जिन्होंने संसार के सभ पदार्थों का त्याग कर रखा है उनके साथ  झगड़ा करना अच्छा नहीं हैइस लिए आप हमारे स्थान गोरख मते को छोड़ कर चले जायेगुरु जी हँस कर कहने लगेआपका मान ममता में फँसा हुआ हैकिसे स्थान व पदार्थ में अपनत्व रक्खना योगियों का काम नहीं हैआप अपने आप को त्यागी कहते हुए भी मोह माया में फँसे हुए है|
गुरु जी की यह बात सुनकर योगी अपनी अजमत दिखाने के लिए आकाश में उड़ कर पथरो कि वर्षा और आग कि चिंगारियां उड़ाने लगेमिट्टी कंकरो कि जोरदार आंधी चल पड़ीबड़े-बड़े भयानक रूप धारण करके मुँह से मार लो मार लो कि आवाजें करके सिखों को डराने लगेसाथ ही साथ शेर और सांप के भयंकर रूप धारण करके फुंकारे मारने लगेगुरु जी ने सिखों को चुपचाप तमाशा देखने को कहाइनकी सारी शक्ति अभी नष्ट हो जायेगी|
गुरु जी ने ऐसे वचन करके जब ऊपर देखा तो सिद्ध जो जिस आकार में थावहाँ ही उसको आग जलाने लगीइस अग्नि से व्याकुल होकर सिद्ध भाग कर गोरख नाथ के पास चले गए और रख लो रख लो कि दुहाई देकर उसकी शरण पड़ गएगोरख ने कहा कि हमने आपको पहले ही समझाया था कि गुरु नानक कि गद्दी से झगड़ा करना ठीक नहींपरन्तु आपने हमारी बात नहीं मानीअब मान गँवा कर भागे आये होइस तरह गोरख ने  उनको लज्जित किया|

Friday 21 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी - गुरुदाद्दी मिलना

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी - गुरुदाद्दी मिलना





जहाँगीर ने श्री गुरु अर्जन देव जी को सन्देश भेजा| बादशाह का सन्देश पड़कर गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक समझकर अपने दस-ग्यारह सपुत्र श्री हरिगोबिंद जी को गुरुत्व दे दिया| उन्होंने भाई बुड्डा जी, भाई गुरदास जी आदि बुद्धिमान सिखों को घर बाहर का काम सौंप दिया| इस प्रकार सारी संगत को धैर्य देकर गुरु जी अपने साथ पांच सिखों-

· भाई जेठा जी

· भाई पैड़ा जी

· भाई बिधीआ जी

· लंगाहा जी

· पिराना जी


को साथ लेकर लाहौर पहुँचे|

इस प्रकार श्री गुरु अर्जन देव जी  लाहौर जाने से पहले ही श्री हरिगोबिंद जी को 14 संवत 1663 को गुरु गद्दी सौंप गए थे| परन्तु श्री गुरु अर्जन देव जी की रसम क्रिया वाले दिन आपको पगड़ी बांधी गई और आप जी गुरु गद्दी पर सुशोभित हुए|

गुरु घर की मर्यादा के अनुसार आप ने सेली टोपी के जगह सिर पर जिगा कलगी और मीरी-पीरी की दो तलवारे धारण की| आप ने कहा अब सेली टोपी पहनने का समय नहीं है| हमारे पिता जी श्री गुरु अर्जन देव जी  जो कि शांति के पुंज थे उनके साथ अत्याचारी राजा के अधिकारियों ने जो कुछ किया है उसका बदला और धर्म की रक्षा शस्त्र के बिना नहीं की जा सकती| इस जगह पर बैठकर जहाँ आप गुरु गद्दी पर सुशोभित हुए वहाँ आप जी ने आषाढ़ सुदी 10 संवत 1663 विक्रमी को अकाल बुग्गे की नीव रखी|

अकाल बुग्गे की तैयारी आरम्भ करके श्री गुरु हरिगोबिंद जी ने सब मसंदो और सिक्खों को हुक्मनामें लिखवा दिए कि जो सिख हमारे लिए घोड़े और शस्त्र भेंट लेकर आएगा, उसपर गुरु की बहुत मेहर होगी|

इसके बाद गुरु जी ने आप भी घोड़े और शस्त्र खरीदे| उन्होंने कुछ शूरवीर नौकर भी रखे| गुरु जी के हुक्मनामे को पड़कर बहुत तेजी से घोड़े और शस्त्र भेंट आनी शुरू हो गई| इस तरह थोड़े ही समय में गुरु जी के पास बहुत घोड़े और शस्त्र इकट्ठे हो गए|

अपने सिखों को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए गुरु जी ने एक ढाडी अबदुल को नौकर रख लिया| दूसरे पहर के दीवान में वह शूरवीरों की शूरवीरता की वारे सुनाता| वारे और घोड़ सवारी का अभ्यास कराने के लिए रोज ही जंगल में शिकार खेलने के लिए ले जाता| इस प्रकार योद्धाओ का युद्ध अभ्यास बढता गया और सेना भी बढती गई|

Thursday 20 November 2014

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 4

ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 4
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श्री साई बाबा का शिरडी में प्रथम आगमन
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सन्तों का अवतार कार्य, पवित्र तीर्थ शिरडी, श्री साई बाबा का व्यक्तित्व, गौली बुवा का अनुभव, श्री विटठल का प्रगट होना, क्षीरसागर की कथा, दासगणु का प्रयाग – स्नान, श्री साई बाबा का शिरडी में प्रथम आगमन, तीन वाडे़ ।



Wednesday 19 November 2014

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी जीवन – परिचय

श्री गुरु हरिगोबिन्द जी - जीवन परिचय






Parkash Ustav (Birth date): June 19, 1595; at Wadali village near Amritsar (Punjab). 
प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 19 जून 1595, अमृतसर (पंजाब) के पास वडाली गांव में.

Father: Guru Arjan Dev ji 
पिता जी : गुरू अर्जन देव जी

Mother: Mata Ganga ji 
माता जी: माता गंगा जी 

Mahal (spouse): Mata Nanaki ji , Mata Damodari ji , Mata Marvahi ji 
सहोदर: - महल (पति या पत्नी): माता नानकी जी, माता दामोदरी जी, माता मरवाही जी 

Sahibzaday (offspring): Baba Gurditta, Baba Viro, Baba Suraj Mal, Baba Ani Rai, Baba Atal Rai,
Baba Tegh Bahadur and a daughter.

साहिबज़ादे (वंश): बाबा गुरदित्ता जी, बाबा वीरो जी, बाबा सूरजमल, बाबा अनी राय, बाबा अटल राय,
बाबा तेग बहादुर और एक बेटी.

Joti Jyot (ascension to heaven): March 3, 1644
ज्योति  ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): 3 मार्च, 1644

पंज पिआले पंज पीर छठम पीर बैठा गुर भारी|| 

अर्जन काइआ पलटिकै मूरति हरि गोबिंद सवारी|| 



(वार १|| ४८ भाई गुरदास जी)



बाबा बुड्डा जी के वचनों के कारण जब माता गंगा जी गर्भवती हो गए, तो घर में बाबा पृथीचंद के नित्य विरोध के कारण समय को विचार करके श्री गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर से पश्चिम दिशा वडाली गाँव जाकर निवास किया| तब वहाँ श्री हरिगोबिंद जी का जन्म 21 आषाढ़ संवत 1652 को रविवार श्री गुरु अर्जन देव जी के घर माता गंगा जी की पवित्र कोख से वडाली गाँव में हुआ|

तब दाई ने बालक के विषय में कहा कि बधाई हो आप के घर में पुत्र ने जन्म लिया है| श्री गुरु अर्जन देव जी ने बालक के जन्म के समय इस शब्द का उच्चारण किया|


सोरठि महला ५ ||



परमेसरि दिता बंना || 

दुख रोग का डेरा भंना || 
अनद करहि नर नारी || 
हरि हरि प्रभि किरपा धारी || १ || 

संतहु सुखु होआ सभ थाई || 
पारब्रहमु पूरन परमेसरू रवि रहिआ सभनी जाई || रहाउ || 

धुर की बाणी आई || 
तिनि सगली चिंत मिटाई || 
दइिआल पुरख मिहरवाना || 
हरि नानक साचु वखाना || २ || १३ || ७७ || 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पन्ना ६२८)



श्री गुरु अर्जन देव जी ने बधाई की खबर अकालपुरख का धन्यवाद इस शब्द से किया-
आसा महला ५|| 



सतिगुरु साचै दीआ भेजि || 

चिरु जीवनु उपजिआ संजोगि || 
उदरै माहि आइि कीआ निवासु || 
माता कै मनि बहुतु बिगासु || १ || 

जंमिआ पूतु भगतु गोविंद का || 
प्रगटिआ सभ महि लिखिआ धुर का || रहाउ || 

दसी मासी हुकमी बालक जन्मु लीआ मिटिआ सोगु महा अनंदु थीआ || 
गुरबाणी सखी अनंदु गावै || 
साचे साहिब कै मनि भावै || १ || 

वधी वेलि बहु पीड़ी चाली || 
धरम कला हरि बंधि बहाली || 
मन चिंदिआ सतिगुरु दिवाइिआ || 
भए अचिंत एक लिव लाइिआ || ३ || 

जिउ बालकु पिता ऊपरि करे बहु माणु || 
बुलाइिआ बोलै गुर कै भाणि || 
गुझी छंनी नाही बात || 
गुरु नानकु तुठा कीनी दाति || ४ || ७ || १०१ || 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब: पन्ना ३९६)

साहिबजादे की जन्म की खुशी में श्री गुरु अर्जन देव जी ने वडाली गाँव के पास उत्तर दिशा में एक बड़ा कुआँ लगवाया, जिस पर छहरटा चाल सकती थी| गुरु जी ने छहरटे कुएँ को वरदान दिया कि जिस स्त्री के घर संतान नहीं होती या जिसकी संतान मर जाती हो, वह स्त्री अगर नियम से बारह पंचमी इसके पानी से स्नान करे और नीचे लीखे दो शब्दों के 41 पाठ करे तो उसकी संतान चिरंजीवी होगी| 

पहला शब्द-

सतिगुरु साचै दीआ भेजि||






दूसरा शब्द- 

बिलावलु महला ५||

सगल अनंदु कीआ परमेसरि अपणा बिरदु सम्हारिआ || 
साध जना होए क्रिपाला बिगसे सभि परवारिआ || १ || 

कारजु सतिगुरु आपि सवारिआ || 
वडी आरजा हरि गोबिंद की सुख मंगल कलियाण बीचारिआ || १ || रहाउ || 

वण त्रिण त्रिभवण हरिआ होए सगले जीअ साधारिआ || 
मन इिछे नानक फल पाए पूरन इछ पुजारिआ || २ || ५ || २३ || 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब: पन्ना ८०६-०७)




कुछ समय के बाद एक दिन श्री हरि गोबिंद जी को बुखार हो गया| जिससे उनको सीतला निकाल आई| सारे शरीर और चेहरे पर छाले हो गए| इससे माता और सिख सेवकों को चिंता हुई| श्री गुरु अर्जन देव जी ने सबको कहा कि बालक का रक्षक गुरु नानक आप हैं| चिंता ना करो बालक स्वस्थ हो जाएगा|

जब कुछ दिनों के पश्चात सीतला का प्रकोप धीमा पड गया और बालक ने आंखे खोल ली| गुरु जी ने परमात्मा का धन्यवाद इस शब्द के उच्चारण के साथ किया-




राग गउड़ी महला ५|| 



नेत्र प्रगास कीआ गुरदेव || 

भरम गए पूरन भई सेव || १ || रहाउ || 

सीतला ने राखिआ बिहारी || 
पारब्रहम प्रभ किरपा धारी || १ || 

नानक नामु जपै सो जीवै || 
साध संगि हरि अंमृतु पीवै || २ || १०३ || १७२ || 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब: पन्ना २००)

श्री गुरु हरि गोबिंद जी के तीन विवाह हुए| 

पहला विवाह - 
12 भाद्रव संवत 1661 में (डल्ले गाँव में) नारायण दास क्षत्री की सपुत्री श्री दमोदरी जी से हुआ|

संतान - 
बीबी वीरो, बाबा गुरु दित्ता जी और अणी राय|


दूसरा विवाह - 
8 वैशाख संवत 1670 को बकाला निवासी हरीचंद की सुपुत्री नानकी जी से हुआ|

संतान - 
श्री गुरु तेग बहादर जी|


तीसरा विवाह -
11 श्रावण संवत 1672 को मंडिआला निवासी दया राम जी मरवाह की सुपुत्री महादेवी से हुआ|

संतान - 
बाबा सूरज मल जी और अटल राय जी|
 

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.