शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Monday 28 February 2022

माथा टेक टेक कर आज हमनें, साँईं जी पूरी शिर्डी हिलानी हैं

ॐ साँई राम जी


माथा टेक टेक कर आज हमनें
साँईं जी पूरी शिर्डी हिलानी हैं
एक हमारी बात छोड़ो बाबा जी
पूरी दुनिया ही आपकी दीवानी हैं


शब्द आपसे मिल जाते हैं
उसे बाबा परवान करते हैं
दोहे सजीले बन ही जाते हैं
साँईं कृपा से मेहरबान करते हैं


ना जिव्हा थके ना गला ही सूखे
हमारी आवाज में वो सरूर भर दे
सारी दुनिया में गुंजे जयकारे साँईं
थोड़ी सी इस जान में जान भर दे


एक तेरे ही नाम से हैं रौशन जहाँ मेरा
वर्ना कौन जानता था कल तक नाम मेरा
जानता हूँ हैं ही क्या आखिर मुझमें मेरा
सब तुझी से लिया और सब कुछ हैं तेरा


रौशन चिराग साँईं तेरे ही दम से होते हैं
जलते चिराग को फूंक मारने वाले कहां कम होते है
इन फूंको से कैसे बुझेंगे साँईं के रौशन चिराग

जिनको बुझाने के लिए तुफान भी कम होते हैं

Sunday 27 February 2022

बेटी बचाओ! मनुष्य कहलाओ!

 ॐ सांई राम




हे नारी तू श्रद्धेय है! मेरा तुझे शत-शत नमन !
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१- नारी चाहे किसी भी आयु और अवस्था की क्यूँ न हो लेकिन प्रकृति से माँ ही होती है और पुरुष चाहे किसी भी आयु और अवस्था का क्यूँ न हो जाये लेकिन प्रकृति से बालक ही रहता है!

२- धरती पर नारी का एक ही स्वरुप विद्यमान है और वो है माँ का स्वरुप! बाकी सब स्वरुप उसके माँ स्वरुप के उपक्रम मात्र हैं!

३- जिसने नारी को मान-सम्मान-प्रेम और विश्वास देना नहीं सीखा, उसने अपने मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं की है!

४- नारी की सार्थकता पुरुष को बाँधने में है और उसकी पूर्णता पुरुष को मुक्ति देने में है!

५- नारी को इज्ज़त शब्दों से ही नहीं बल्कि दिल से देने वाला ही सत्पुरुष कहलाता है!


जरा कल्पना करो कि नारी बिना यह दुनिया कितनी अंधकारमय लगेगी!

बेटी बचाओ!

मनुष्य कहलाओ!

SAVE GIRL CHILD......

माँ चाहे मुझे प्यार न देना,चाहे दुलार न देना कर सको तो इतना करना,जन्म से पहले मार न देना।।

Saturday 26 February 2022

साईं नाथ तुम्हारे चरणों में दो फूल ये दास चढ़ाता है

ॐ सांई राम


 साईं नाथ तुम्हारे चरणों में
दो फूल ये दास चढ़ाता है
इक श्रद्धा सुमन है हे साईं
इक सबुरी को दर्शाता है

माना हर प्राणी धरती पे
फल कर्मों का भुगताता है
पर कृपा हो गर तेरी साईं
निर्धन भी धनी बन जाता है

साईं नाथ .........

तू जिसपे रहम खाता साईं
उसको ही शिर्डी बुलाता है
आ जाये तेरे दर जो साईं
वो झोली भर ले जाता है

साईं नाथ ..........

जो भी जन्मा इस धरती पे
मोह बंधन में फँस जाता है
पर तेरी कृपा गर हो साईं
भव बंधन से छुट जाता है

साईं नाथ ..........

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Friday 25 February 2022

5 Moral Evils... Kaam, Krodh, Lobh, Moh & Ahankaar

ॐ सांई राम


5 Moral Evils... Kaam, Krodh, Lobh, Moh & Ahankaar

Kaam: refers to lust and illegitimate sex. It is one of the greatest evils that tempts people away from God. It makes an individual weak-willed and unreliable. Normal sexual relationship as a house-holder is not restricted in any way. But sex against the will of the partner is taboo, as it can cause unlimited sorrows.
Krodh: is anger and needs to be controlled. A person overcome by 'krodh' loses his balance of mind and becomes incapable of thinking. 'krodh' takes a person away from God as hatred has no place in any religious practice.
Lobh: means greed, a strong desire to possess what rightfully belongs to others. It makes an individual selfish and self-centred. It takes a person away from his religious and social duties. A person can become blind with greed if an effort to control the desire for unlimited possessions is not made.
Moh: refers to the strong attachment that an individual has to worldly possessions and relationships. It blurs the perspective of a human being and makes him narrow minded. It deviates a person from his moral duties and responsibilities and leads him towards a path of sin.
Ahankar: means false pride due to one's possessions, material wealth, intelligence or powers. It gives an individual a feeling that he is superior to others and therefore they are at a lower level than him. It leads to jealousy, feelings of enmity and restlessness amongst people.
8 VIRTUES TO COMBAT THE 5 EVILS

Wisdom (gyan): is the complete knowledge of a set of religious principles. It can be achieved by hearing good, thinking good and doing good. A man of wisdom tries to achieve a high moral standard in his life and interaction with others. According to me, the first steps to wisdom is to consider oneself as an ignorant person who has to learn a lot in life.
Truthful Living (sat): This is more than 'truth'. It means living according to the way of God i.e. the thoughts should match the words that a person speaks and his actions should also match his words. Truthful living brings a person closer to God.
Justice (niaon): means freedom and equal opportunities for all. Respect for the rights of others and strict absence of attempts to exploit a fellow being.
Temperance (santokh): means self control which has to be developed through meditation and prayers. An individual has to banish evil thoughts from his mind by constantly repeating Gods name and reciting prayers. Torture to the body to develop self-control is not advocated in our religion.
Patience (dhiraj): implies a high level of tolerance and empathy for others. It requires control over ones ego and willingness to overlook another's weakness or mistakes. A person should be strong willed, but kind hearted.
Courage (himmat): means bravery i.e. absence of fear. It is the ability to stake ones life for ones convictions and for saving others from injustice or cruelty.
Humility (namarta): is a deliberate denial of pleasure at one's own praise and admiration. It means underplaying ones own strengths and respecting the abilities of others. It is the antidote to 'ahankar'.
Contentment (sabar): means refraining from worldly fears and submitting oneself to the will of God. The typical worldly fears can be fear of death, poverty, disrespect and defeat

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Thursday 24 February 2022

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 45 - संदेह निवारण

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 45 - संदेह निवारण

काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न, बाबा के विश्राम के लिये लकड़ी का तख्ता।


प्रस्तावना

गत तीन अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका निराकार स्वरुप तो सदैव ही विघमान रहेगा । अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवमकाल में घटित हुई थी । उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ रही है, जिनसे यह सिदृ होता है कि बाबा अभी भी विघमान है और पूर्व की ही भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है । बाबा के जीवन-काल में जिन व्यक्तियों को उनका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य की सराहना कौन कर सकता है । यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति । समस्त चेतनाओं, इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ । यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही अभिलाषा है तो वह शुदृ मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये ।

जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री का विशुदृ प्रेम अपने पति पर होता है, इस प्रेम की उपमा कभी-कभी लोग शिष्य और गुरु के प्रेम से भी दिया करते है । परन्तु फिर भी शिष्य और गुरु-प्रेम के समक्ष पतिव्रता का प्रेम फीका है और उसकी कोई समानता नहीं की जा सकती । माता, पिता, भाई या अन्य सम्बन्धी जीवन का ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते । इसके लिये हमें स्वयं अपना मार्ग अन्वेषण कर आत्मानुभूति के पथ पर अग्रसर होना पड़ता है । सत्य और असत्य में विवेक, इहलौकिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग, इन्द्रियनिग्रह और केवल मोक्ष की धारणा रखते हुए अग्रसर होना पड़ता है । दूसरों पर निर्भर रहने के बदले हमें आत्मविश्वास बढ़ाना उचित है । जब हम इस प्रकार विवेक-बुद्घि से कार्य करने का अभ्यास करेंगे तो हमें अनुभव होगा कि यह संसार नाशवान् और मिथ्या है । इस प्रकार की धारणा से सांसारिक पदार्थों में हमारी आसक्ति उत्तरोत्तर घटती जायेगी और अन्त में हमें उनसे वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा । तब कहीं आगे चलकर यह रहस्य प्रकट होगा कि ब्रहृ हमारे गुरु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, वरन् यथार्थ में वे ही सदवस्तु (परमात्मा) है और यह रहस्योदघाटन होता है कि यह दृश्यमान जगत् उनका ही प्रतिबिम्ब है । अतः इस प्रकार हम सभी प्राणियों में उनके ही रुप का दर्शन कर उनका पूजन करना प्रारम्भ कर देते है और यही समत्वभाव दृश्यमान जगत् से विरक्ति प्राप्त करानेवाला भजन या मूलमंत्र है । इस प्रकार जब हम ब्रहृ या गुरु की अनन्यभाव से भक्ति करेंगे तो हमें उनसे अभिन्नता की प्राप्ति होगी और आत्मानुभूति की प्राप्ति सहज हो जायेगी । संक्षेप में यह कि सदैव गुरु का कीर्तन और उनका ध्यान करना ही हमें सर्वभूतों में भगवत् दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है और इसी से परमानंद की प्राप्ति होती है । निम्नलिखित कथा इस तथ्य का प्रमाण है ।


काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न

यह तो सर्वविदित ही है कि बाबा ने काकासाहेब दीक्षित को श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थ

1.श्री मदभागवत और

2.भावार्थ रामायण

का नित्य पठन करने की आज्ञा दी थी । काकासाहेब इन ग्रन्थों का नियमपूर्वक पठन बाबा के समय से करते आये है और बाबा के सम्धिस्थ होने के उपरान्त अभी भी वे उसी प्रकार अध्ययन कर रहे । एक समय चौपाटी (बम्बई) में काकासाहेब प्रातःकाल एकनाथी भागवत का पाठ कर रहे थे । माधवराव देशपांडे (शामा) और काका महाजनी भी उस समय वहाँ उपस्थित थे तथा ये दोनों ध्यानपूर्वक पाठ श्रवण कर रहे थे । उस समय 11वें स्कन्ध के द्घितीय अध्याय का वाचन चल रहा था, जिसमें नवनाथ अर्थात् ऋषभ वंश के सिद्घ यानी कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुदृ, पिप्पलायन, आविहोर्त्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन का वर्णन है, जिन्होंने भागवत धर्म की महिमा राजा जनक को समझायी थी । राजा जनक ने इन नव-नाथों से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे और इन सभी ने उनकी शंकाओं का बड़ा सन्तोषजनक समाधान किया था, अर्थात् कवि ने भागवत धर्म, हरि ने भक्ति की विशेषताएँ, अतंरिक्ष ने माया क्या है, प्रबुदृ ने माया से मुक्त होने की विधि, पिप्लायन ने परब्रहृ के स्वरुप, आविहोर्त्र ने कर्म के स्वरुप, द्रुमिल ने परमात्मा के अवतार और उनके कार्य, चमस ने नास्तिक की मृत्यु के पश्चात् की गति एवं करभाजन ने कलिकाल में भक्ति की पद्घतियों का यथाविधि वर्णन किया । इन सबका अर्थ यही था कि कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन केवल हरिकीर्तन या गुरु-चरणों का चिंतन ही है । पठन समाप्त होने पर काकसाहेब बहुत निराशापूर्ण स्वर में माधवराव और अन्य लोगों से कहने लगे कि नवनाथों की भक्ति पदृति का क्या कहना है, परन्तु उसे आचरण में लाना कितना दुष्कर है । नाथ तो सिदृ थे, परन्तु हमारे समान मूर्खों में इस प्रकार की भक्ति का उत्पन्न होना क्या कभी संभव हो सकता है । अनेक जन्म धारण करने पर भी वैसी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती तो फिर हमें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे लिये तो कोई आशा ही नहीं है । माधवराव को यह निराशावादी धारणा अच्छी न लगी । व कहने लगे कि हमारा अहोभाग्य है, जिसके फलस्वरुप ही हमें साई सदृश अमूल्य हीरा हाथ लग गया है, तब फिर इस प्रकार का राग अलापना बड़ी निन्दनीय बात है । यदि तुम्हें बाबा पर अटल विश्वास है तो फिर इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही क्या है । माना कि नवनाथों की भक्ति अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ा और प्रबल होगी, परन्तु क्या हम लोग भी प्रेम और स्नेहपूर्वक भक्ति नहीं कर रहे है । क्या बाबा ने अधिकारपूर्ण वाणी में नहीं कहा है कि श्रीहरि या गुरु के नाम जप से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब फिर भय और चिन्ता को स्थान ही कहाँ रह जाता है । परन्तु फिर भी माधवराव के वचनों से काकासाहेब का समाधान न हुआ । वे फिर भी दिन भर व्यग्र और चिन्तित ही बने रहे । यह विचार उनके मस्तिष्क में बार-बार चक्कर काट रहा था कि किस विधि से नवनाथों के समान भक्ति की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी ।

एक महाशय, जिनका नाम आनन्दराव पाखाडे था, माधवराव को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ पहुँचे । उस समय भागवत का पठन हो रहा था । श्री. पाखाडे भी माधवराव के समीप ही जाकर बैठ गये और उनसे धीरे-धीरे कुछ वार्ता भी करने लगे । वे अपना स्वप्न माधवराव को सुना रहे थे । इनकी कानाफूसी के कारण पाठ में विघ्न उपस्थित होने लगा । अतएव काकासाहेब ने पाठ स्थगित कर माधवराव से पूछा कि क्यों, क्या बात हो रही है । माधवराव ने कहा कि कल तुमने जो सन्देह प्रगट किया था, यह चर्चा भी उसी का समाधान है । कल बाबा ने श्री. पाखाडे को जो स्वप्न दिया है, उसे इनसे ही सुनो । इसमें बताया गया है कि विशेष भक्ति की कोई आवश्यकता नही, केवल गुरु को नमन या उनका पूजन करना ही पर्याप्त है । सभी को स्वप्न सुनने की तीव्र उत्कंठा थी और सबसे अधिक काकासाहेब को । सभी के कहने पर श्री. पाखाडे अपना स्वप्न सुनाने लगे, जो इस प्रकार है – मैंने देखा कि मैं एक अथाह सागर में खड़ा हुआ हूँ । पानी मेरी कमर तक है और अचानक ही जब मैंने ऊपर देखा तो साईबाबा के श्री-दर्शन हुए । वे एक रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थे और उनके श्री-चरण जल के भीतर थे । यह सुन्र दृश्य और बाबा का मनोहर स्वरुप देक मेरा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । इस स्वप्न को भला कौन स्वप्न कह सकेगा । मैंने देखा कि माधवराव भी बाबा के समीप ही खड़े है और उन्होंने मुझसे भावुकतापूर्ण शब्दों में कहा कि आनन्दराव । बाबा के श्री-चरणों पर गिरो । मैंने उत्तर दिया कि मैं भी तो यही करना चाहता हूँ । परन्तु उनके श्री-चरण तो जल के भीतर है । अब बताओ कि मैं कैसे अपना शीश उनके चरणों पर रखूँ । मैं तो निस्सहाय हूँ । इन शब्दों को सुनकर शामा ने बाबा से कहा कि अरे देवा । जल में से कृपाकर अपने चरण बाहर निकालिये न । बाबा ने तुरन्त चरण बाहर निकाले और मैं उनसे तुरन्त लिपट गया । बाबा ने मुझे यह कहते हुये आशीर्वाद दिया कि अब तुम आनंदपूर्वक जाओ । घबराने या चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । अब तुम्हारा कल्याण होगा । उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि एक जरी के किनारों की धोती मेरे शामा को दे देना, उससे तुम्हें बहुत लाभ होगा । बाबा की आज्ञा को पूर्ण करने के लिये ही श्री. पाखाडे धोती लाये और काकासाहेब से प्रार्थना की कि कृपा करके इसे माधवराव को दे दीजिये, परन्तु माधवराव ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया ।

उन्होंने कहा कि जब तक बाबा से मुझे कोई आदेश या अनुमति प्राप्त नहीं होती, तब तक मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ । कुछ तर्क-वतर्क के पश्चात काका ने दैवी आदेशसूचक पर्चियाँ निकालकर इस बात का निर्णय करने का विचार किया । काकासाहेब का यह नियम था कि जब उन्हें कोई सन्देह हो जाता तो वे कागज की दो पर्चियों पर स्वीकार-अश्वीकार लिखकर उसमेंसे एक पर्ची निकालते थे और जो कुछ उत्तर प्राप्त होता था, उसके अनुसार ही कार्य किया करते थे । इसका भी निपटारा करने के लिये उन्होंने उपयुक्त विधि के अनुसार ही दो पर्चियाँ लिखकर बाबा के चित्र के समक्ष रखकर एक अबोध बालक को उसमें से एक पर्ची उठाने को कहा । बालक द्घारा उठाई गई पर्ची जब खोलकर देखी गई तो वह स्वीकारसूचक पर्ची ही निकली और तब माधवराव को धोती स्वीकार करनी पड़ी । इस प्रकार आनन्दराव और माधवराव सन्तुष्ट हो गये और काकासाहेब का भी सन्देह दूर हो गया ।

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अन्य सन्तों के वचनों का उचित आदर करना चाहिये, परन्तु साथ ही साथ यह भी परम आवश्यक है कि हमें अपनी माँ अर्थात् गुरु पर पूर्ण विश्वास रखस उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिये, क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा हमारे कल्याण की उन्हें अधिक चिन्ता है ।

बाबा के निम्नलिखित वचनों को हृदयपटल पर अंकित कर लो – इस विश्व में असंख्य सन्त है, परन्तु अपना पिता (गुरु) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरु) है । दूसरे चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हो, परन्तु अपना गुरु-उपदेश कभी नहीं भूलना चाहिये । संक्षेप में सार यही है कि शुगृ हृदय से अपने गुरु से प्रेम कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्घापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो । तभी तुम देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के समक्ष अँधेरे का ।



बाबा की शयन शैया-लकड़ी का तख्ता

बाबा अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में एक लकड़ी के तख्ते पर शयन किया करते थे । वह तख्ता चार हाथ लम्बा और एक बीता चौड़ा था, जिसके चारों कोनों पर चार मिट्टी के जलते दीपक रखे जाया करते थे । पश्चात् बाबा ने उसके टुकड़े टुकडे कर डाले थे । (जिसका वर्णन गत अध्याय 10 में हो चुका है ) । एक समय बाबा उस पटिये की महत्ता का वर्णन काकासाहेब को सुना रहे थे, जिसको सुनकर काकासाहेब ने बाबा से कहा कि यदि अभी भी आपको उससे विशेष स्नेह है तो मैं मसजिद में एक दूसरी पटिया लटकाये देता हूँ । आप सूखपूर्वक उस पर शयन किया करें । तब बाबा कहने लगे कि अब म्हालसापति को नीचे छोड़कर मैं ऊपर नहीं सोना चाहता । काकासाहेब ने कहा कि यदि आज्ञा दें तो मैं एक और तख्ता म्हालसापति के लिये भी टाँग दूँ ।

बाबा बोले कि वे इस पर कैसे सो सकते है । क्या यह कोई सहज कार्य है जो उसके गुण से सम्पन्न हो, वही ऐसा कार्य कर सकता है । जो खुले नेत्र रखकर निद्रा ले सके, वही इसके योग्य है । जब मैं शयन करता हूँ तो बहुधा म्हालसापति को अपने बाजू में बिठाकर उनसे कहता हूँ कि मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर देखते रहो कि कहीं मेरा भगवज्जप बन्द न हो जाय और मुझे थोड़ा- सा भी निद्रित देखो तो तुरन्त जागृत कर दो, परन्तु उससे तो भला यह भी नहीं हो सकता । वह तो स्वंय ही झपकी लेने लगता है और निद्रामग्न होकर अपना सिर डुलाने लगता है और जब मुझे भगत का हाथ पत्थर-सा भारी प्रतीत होने लगता है तो मैं जोर से पुकार कर उठता हूँ कि ओ भगत । तब कहीं वह घबड़ा कर नेत्र खोलता है । जो पृथ्वी पर अच्छी तरह बैठ और सो नहीं सकता तथा जिसका आसन सिदृ नहीं है और जो निद्रा का दास है, वह क्या तख्ते पर सो सकेगा । अन्य अनेक अवसरों पर वे भक्तों के स्नेहवश ऐसा कहा करते थे कि अपना अपने साथ और उसका उसके साथ ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Wednesday 23 February 2022

यह जो सिर चढ़कर बोलता है, साँई कृपा का ही असर डोलता है

ॐ सांँई राम जी


यह जो सिर चढ़कर बोलता है
साँई कृपा का ही असर डोलता है
कब से अनजान था खुद से ही मैं
अब तेरे भक्तों में ढूंढता खुद को मैं


कभी गरूर था अपनी कामयाबी पर
जबकि कामयाब बिल्कुल भी ना था
आज जब भरपूर कामयाबी पाई है 
तो पता चला कि इसके पीछे साँई हैं

अपने आप से सीधा सवाल करता हूँ
क्यों इतराता अपनी शख्सियत पर हैं
ऐसा क्या रूतबा हासिल कर लिया हैं
साँई ने जिसे परवान नहीं किया हैं


अगर जिंदगी में कुछ हासिल करने की हैं तमन्ना
तो ना किसी से कभी भी कुछ उम्मीद करना
हासिल तो मंजिल एक दिन हो ही जाएगी
दिल को ठेस पहुंचने की संभावना घट जाएगी


ना मैं मुझ में रहूं और ना तू तुझ में रहे
आ गले लग जाए कोई धर्म ना रहे
कम तो तुम भी कुछ मुझ से ना थे कभी
मुझमें भी तुम से ज्यादा होने की आस ना रहे


क्युं ना कुछ सीख पंछियों से भी ले लू
मंदिर पर बैठ राम और गुरूद्वारे पर बैठ वाहेगुरू बोलू
इरादे बुलंद रहे आसमान को छू लेने के

धर्म के नाम पर कभी भी ना मैं डोलू

Tuesday 22 February 2022

तू है मेरे जीने का सहारा, मेरे शिर्डी वाले साईं बाबा,

ॐ साईं राम


तू है मेरे जीने का सहारा,
मेरे शिर्डी वाले साईं बाबा,
बिन तेरे जीवन ऐसा लगे,
जैसे हो कोई गम का मारा,


ओ शिर्डी के राजा,
ओ मेरे साईं बाबा,


तेरे लिए ही खुलती मेरी आंखे,
तेरी लिए ही है रोती,
तेरे लिए ही मेरे साईं,
रूह है मेरी तड़पती,
आकर अब तो मुझको साईं,
तू थोडा हस्सा जा,


ओ शिर्डी राजा,
ओ मेरे साईं बाबा,


बिन तेरे न कुछ अच्छा लगे,
मुझको मेरे साईं,
तू तो है साईं जी मेरा गुसाई,
तुजो मेरे पास है तो,
फिर नहीं किसी क़ि आशा,


ओ शिर्डी के राजा,
ओ मेरे साईं बाबा,


जुडी है मेरी सांसे,
तुमसे ही मेरे साईं,
तुम तो मेरा रब हो,
तुम ही हो मेरी माई,
झूटे दुनिया के जाल से,
तू मुझे बचा जा,


ओ शिर्डी के राजा, 
ओ मेरे साईं बाबा,

सुन लो मेरी विनती साईं,
अबतो दरश दिखा दो,
प्यार भरा आचल बाबा,
मुझपर भी लहरा दो,
अपनी करुना आज तू,
मुझपर भी बरसा जा,

ओ शिर्डी के राजा,
ओ मेरे साईं बाबा |
सच्चे दिल से जो हो फ़रियाद तो,
दुनिया की हर एक चीज मिल जाती, 
जिस पर साईं की रहमत जो जाय,
उसे काँटों में भी ख़ुशी मिल जाती !

||श्री सच्चीदानंद समर्थ सदगुरू सांईनाथ महाराज की जय||

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Monday 21 February 2022

शिर्डी में जो जाये वो साईं राम की सुहानी मूरत के दीवाने बन गए

ॐ सांई राम



शिर्डी में जो जाये
वो साईं राम की
सुहानी मूरत के
दीवाने बन गए

साईं के दर पे
जो भी आ गए
उसके तो जीवन के
सब तूफां थम गए

जिस घर में उसे पूजा
वहीँ पर बस गए साईं
मांगें जो भी कुछ कोई
सभी कुछ देते हैं साईं
पसारे जो कोई झोली
तो भर देते मेरे साईं

शिर्डी में जो जाये
वो साईं राम की
सुहानी मूरत के
दीवाने बन गए

साईं के दर पे
जो भी आ गए
उसके तो जीवन के
सब तूफां थम गए

जीवन हो अगर ग़मगीन
ऐ इंसां तू न घबराना
छोड़ के सारी चिंताएं
तू शिर्डी में चले आना
वहां दाता हैं सब सुख के
वहीँ झोली तू फैलाना

शिर्डी में जो जाये
वो साईं राम की
सुहानी मूरत के
दीवाने बन गए

साईं के दर पे
जो भी आ गए
उसके तो जीवन के
सब तूफां थम गए

जिसने श्रद्धा उपजाई
सबुरी जिसका जीवन है
भक्ति जिसकी मंजिल है
उसका हर दिन पावन है
उसे चिंता रहे कैसे
साईं का जिसपे दामन है

शिर्डी में जो जाये
वो साईं राम की
सुहानी मूरत के
दीवाने बन गए

साईं के दर पे
जो भी आ गए
उसके तो जीवन के
सब तूफां थम गए

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Sunday 20 February 2022

थोड़ी फुरसत गर मिले तो साईं मेरे घर आना

ॐ सांई राम



थोड़ी फुरसत गर मिले तो साईं मेरे घर आना
रूबरू होंगी मेरी बातें साईं सुनकर जाना
तेरी आने की लगायी है उम्मीदें कब से
मेरे हालात पे हँसता है ये सारा ज़माना
थोड़ी फुरसत गर मिले तो साईं मेरे घर आना
रूबरू होंगी मेरी बातें साईं सुनकर जाना
तेरे साये में ही रहने को ये दिल कहता है
अपने चरणों में बिठा लो अब मुकर ना जाना
थोड़ी फुरसत गर मिले तो साईं मेरे घर आना
रूबरू होंगी मेरी बातें साईं सुनकर जाना
क्या गुनाह कर दिया ऐसा की साईं तू आया ना
'काला' के होठों पे है आखिरी ग़म दक फ़साना
थोड़ी फुरसत गर मिले तो साईं मेरे घर आना
रूबरू होंगी मेरी बातें साईं सुनकर जाना

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This is also a kind of SEWA.

Saturday 19 February 2022

प्रकृति की रक्षा करें

ॐ सांँई राम जी


पढ़-पढ़ कर पोथीयाँ पंडित जी कहाये
ढाई आखर प्रेम का हृदय ना धारे कोये
गर बांचते नाम भी दिल से राम जी का
तो ना कहाते अंश कभी भी रावण का
मैं ना जानू दीन धर्म का फलसफा
पूरी दुनिया से हूँ कुछ खफा खफा
मोहब्बत का समय मिलता नही हैं
नफरत को रहते हैं तैयार हर दफा
कभी जायका ठीक करना हो फिजा का
तो हरपल दो बूंद प्यार की ज़बान पर रखो
खुद-ब-खुद सुधर जाएगी रंगत नज़ारो की
दुसरो को लुत्फ उठाने दो, मजा खुद भी चखो
फिज़ायें रंग बदलती हैं हरकते हमारी देख
क्या दोगे अपनी पीढ़ी को गर ना की देखरेख
चूल्हे कागज की जरूरत में पेड़ काटने लगे
अब सांस लेने में हुई तकलीफ तो चिल्लाने लगे
वक्त हैं अब भी सम्भल जाओ
और ना अब भी समय गंवाओ
अस्पताल में नहीं चाहते भर्ती
तो बस पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.