शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Saturday, 31 December 2022

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मीठा रीठा

 ॐ सांई राम



श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मीठा रीठा


 जब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) पूरब दिशा कि तरफ बनारस जा रहे थे तो रास्ते में मरदाने ने कहा महाराज! आप मुझे जंगल पहाडों में ही घुमाए जा रहे हो, मुझे बहुत भूख लगी है| अगर कुछ खाने को मिल जाये तो कुछ खाकर चलने के लायक हो जाऊंगा| उस समय गुरु जी रीठे के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे| आप ने वृक्ष के ऊपर देखा और मरदाने से कहने लगे, अगर तुम्हे भूख लगी है तो रीठे कि टहनी को हिलाकर रीठे गेरकर खा लो|

मरदाने ने गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के हुक्म का पालन किया| उसने टहनी को हिलाया व रीठो को नीचे गिरा दिया| जब मरदाने ने रीठे खाए तो वो छुहारे कि तरह मीठे थे| उसने पेट भरकर रीठे खाए| इस वृक्ष के रीठे आज भी मीठे है जो नानक मते जाने वाले प्रेमियों को प्रसाद के रूप में दिए जाते है|

मीठा रीठा नानक मते से ४५ मील दूर है|

Friday, 30 December 2022

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मक्के का काबा फेरना

ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मक्के का काबा फेरना
मक्के में मुसलमानों का एक प्रसिद्ध पूजा स्थान है जिसे काबा कहते है| गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) रात के समय काबे की तरफ विराज गए तब जिओन ने गुस्से में आकर गुरु जी से कहा कि तू कौन काफ़िर है जो खुदा के घर की तरफ पैर पसारकर सोया हुआ है? गुरु जी ने बड़ी नम्रता के साथ कहा, मैं यहाँ सरे दिन के सफर से थककर लेटा हूँ, मुझे नहीं मालूम की खुदा का घर किधर है तू हमारे पैर पकड़कर उधर करदे जिधर खुदा का घर नहीं है| यह बात सुनकर जिओन ने बड़े गुस्से में आकर गुरु जी के चरणों को घसीटकर दूसरी ओर कर दिया और जब चरणों को छोड़कर देखा तो उसे काबा भी उसी तरफ ही नजर आने लगा| इस प्रकार उसने जब फिर चरण दूसरी तरफ किए तो काबा उसी और ही घुमते हुआ नज़र आया|

जिओन ने जब यहे देखा कि काबा इनके चरणों के साथ ही घूम जाता है तो उसने यह बात हाजी और मुलानो को बताई जिससे बहुत सारे लोग वहाँ एकत्रित हो गए| गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के इस कौतक को देखकर सभी दंग रहगए और गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के चरणों पर गिर पड़े| उन्होंने गुरु जी से माफ़ी भी माँगी| जब गुरु जी ने वहाँसे चलने की तैयारी की तो काबे के पीरों ने विनती करके गुरु जी की एक खड़ाव निशानी के रूप में अपने पास रख ली|

भाई गुरदास जी लिखते हैं:
धरी निशानी कौस दी मक्के अंदर पूज कराई || 
जिथे जाए जगत विच बाबे बाझ न खाली जाई || 

Thursday, 29 December 2022

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 40 - श्री साईबाबा की कथाएँ

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साँईं-वार  और होली के रंग भरे पावन पर्व की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साई-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साई सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साई जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साई सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साई चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 40 - श्री साईबाबा की कथाएँ

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1. श्री. बी. व्ही. देव की माता के उघापन उत्सव में सम्मिलित होना, और

2. हेमाडपंत के भोजन-समारोह में चित्र के रुप में प्रगट होना ।


इस अध्याय में दो कथाओं का वर्णन है


1. बाबा किस प्रकार श्रीमान् देव की मां के यहाँ उघापन में सम्मिलित हुए । और

2. बाबा किस प्रकार होली त्यौहार के भोजन समारोह के अवसर पर बाँद्रा में हेमाडपंत के गृह पधारे ।




प्रस्तावना

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श्री साई समर्थ धन्य है, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है । वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते है और भक्तों को अपनी जीवन ध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें सुखी बनाते है । श्री साई अपना वरद हस्त भक्तों के सिर पर रखकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते है । वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराते है । भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते है और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते है । वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते है, जैसे वर्षाऋतु में समुद्र नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है । इससे यह सिदृ होता है कि जो भक्तों की लीलाओं का गुणगान करते है, वे ईश्वर को उन लोगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रिय है, जो बिना किसी मध्यस्थ के ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करते है ।




श्री मती देव का उघापन उत्सव

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श्री. बी. व्ही. देव डहाणू (जिला ठाणे) में मामलतदार थे । उनकी माता ने लगभग पच्चीस या तीस व्रत लिये थे, इसलिये अब उनका उघापन करना आवश्यक था । उघापन के साथ-साथ सौ-दो सौ ब्राहमणों का भोजन भी होने वाला था । श्री देव ने एक तिथि निश्चित कर बापूसाहेब जोग को एक पत्र शिरडी भेजा । उसमें उन्होंने लिखा कि तुम मेरी ओर से श्री साईबाबा को उघापन और भोजन में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे देना और उनसे प्रार्थना करना कि उनकी अनुपस्थिति में उत्सव अपूर्ण ही रहेगा । मुझे पूर्ण आशा है कि वे अवश्य डहाणू पधार कर दास को कृतार्थ करेंगे । बापूसाहेब जोग ने बाबा को वह पत्र पढ़कर सुनाया । उन्होंने उसे ध्यानपूर्वक सुना और शुदृ हृदय से प्रेषित निमंत्रण जानकर वे कहने लगे कि जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है । मुझे यात्रा के लिये कोई भी साधन – गाड़ी, ताँगा या विमान की आवश्यकता नहीं है । मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ । उसे एक सुखद पत्र भेज दो कि मैं और दो व्यक्तियों के साथ अवश्य आऊँगा । जो कुछ बाबा ने कहा था, जोग ने श्री. देव को पत्र में लिखकर भेज दिया । पत्र पढ़कर देव को बहुत प्रसन्नता हुई, परन्तु उन्हें ज्ञात था कि बाबा केवल राहाता, रुई और नीमगाँव के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं जाते है । फिर उन्हें विचार आया कि उनके लिये क्या असंभव है । उनकी जीवनी अपार चमत्कारों से भरी हुई है । वे तो सर्वव्यापी है । वे किसी भी वेश में अनायास ही प्रगट होकर अपना वचन पूर्ण कर सकते है । उघापन के कुछ दिन पूर्व एक सन्यासी डहाणू स्टेशन पर उतरा, जो बंगाली सन्यासियों के समान वेशभूषा धारण किये हुये था । दूर से देखने में ऐसा प्रतीत होता था कि वह गौरक्षा संस्था का स्वंयसेवक है । वह सीधा स्टेशनमास्टर के पास गया और उनसे चंदे के लिये निवेदन करने लगा । स्टेशनमास्टर ने उसे सलाह दी कि तुम यहाँ के मामलेदार के पास जाओ और उनकी सहायता से ही तुम यथेष्ठ चंदा प्राप्त कर सकोगे । ठीक उसी समय मामलेदार भी वहाँ पहुँच गये । तब स्टेशन मास्टर ने सन्यासी का परिचय उनसे कराया और वे दोनों स्टेशन के प्लेटफाँर्म पर बैठे वार्तालाप करते रहे । मामलेदार ने बताया कि यहाँ के प्रमुख नागरिक श्री. रावसाहेब नरोत्तम सेठी ने धर्मार्थ कार्य के निमित्त चन्दा एकत्र करने की एक नामावली बनाई है । अतः अब एक और दूसरीनामावली बनाना कुछ उचित सा प्रतीत नहीं होता । इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि आप दो-चार माह के पश्चात पुनः यहाँ दर्शन दे । यह सुनकर सन्यासी वहाँ से चला गया और एक माह पश्चात श्री. देव के घर के सामने ताँगे से उतरा । तब उसे देखकर देव ने मन ही मन सोचा कि वह चन्दा माँगने ही आया है । उसने श्री. देव को कार्यव्यस्त देखकर उनसे कहा श्रीमान् । मैं चन्दे के निमित्त नही, वरन् भोजन करने के लिये आया हूँ ।


देव ने कहा बहुत आनन्द की बात है, आपका सहर्ष स्वागत है ।


सन्यासी – मेरे साथ दो बालक और है ।


देव – तो कृपया उन्हें भी साथ ले आइये ।


भोजन में अभी दो घण्टे का विलम्ब था । इसलिये देव ने पूछा – यदि आज्ञा हो तो मैं किसी को उनको बुलाने को भेज दूँ ।


सन्यासी – आप चिंता न करें, मैं निश्चित समय पर उपस्थित हो जाऊँगा ।


देव ने उने दोपहर में पधारने की प्रार्थना की । ठीक 12 बजे दोपहर को तीन मूर्तियाँ वहाँ पहुँची और भोज में सम्मिलित होकर भोजन करके वहाँ से चली गई ।



उत्सव समाप्त होने पर देव ने बापूसाहेब जोग को पत्र में उलाहना देते हुए बाबा पर वचन-भंग करने का आरोप लगाया । जोग वह पत्र लेकर बाबा के पास गये, परन्तु पत्र पढ़ने के पूर्व ही बाबा उनसे कहने लगे – अरे । मैंने वहाँ जाने का वचन दिया था तो मैंने उसे धोखा नहीं दिया । उसे सूचित करो कि मैं अन्य दो व्यक्तियों के साथ भोजन में उपस्थित था, परन्तु जब वह मुझे पहचान ही न सका, तब निमंत्रम देने का कष्ट ही क्यों उठाया था । उसे लिखो कि उसने सोचा होगा कि वह सन्यासी चन्दा माँगने आया है । परन्तु क्या मैंने उसका सन्देह दूर नहीं कर दिया था कि दो अन्य व्यक्तियों के सात मैं भोजन के लिये आऊँगा और क्या वे त्रिमूर्तियाँ ठीक समय पर भोजन में सम्मिलित नहीं हुई देखो । मैं अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूँगा । मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगें । इस उत्तर से जोग के हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने पूर्ण उत्तर लिखकर देव को भेज दिया । जब देव ने उत्तर पढ़ा तो उनकी आँखों से अश्रुधाराँए प्रवाहित होने लगी । उन्हें अपने आप पर बड़ा क्रोध आ रहा था कि मैंने व्यर्थ ही बाबा पर दोषारोपण किया । वे आश्चर्यचकित से हो गये कि किस तरह मैंने सन्यासी की पूर्व यात्रा से धोखा खाया, जो कि चन्दा माँगने आया था और सन्यासी के शब्दों का अर्थ भी न समझ पाया कि अन्य दो व्यक्तियों के साथ मैं भोजन को आऊँगा ।

इस कथा से विदित होता है कि जब भक्त अनन्य भाव से सदगुरु की सरण में आता है, तभी उसे अनुभव होने लगता है कि उसके सब धार्मिक कृत्य उत्तम प्रकार से चलते और निर्विघ्र समाप्त होते रहते है ।



हेमाडपन्त का होली त्यौहार पर भोजन-समारोह

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अब हम एक दूसरी कथा ले, जिसमें बतलाया गया है कि बाबा ने किस प्रकार चित्र के रुप में प्रगट हो कर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण की ।


सन् 1917 में होली पूर्णिमा के दिन हेमाडपंत को एक स्वप्न हुआ । बाबा उन्हें एक सन्यासी के वेश में दिखे और उन्होंने हेमाडपंत को जगाकर कहा कि मैं आज दोपहर को तुम्हारे यहाँ भोजन करने आऊँगा । जागृत करना भी स्वप्न का एक भाग ही था । परन्तु जब उनकी निद्रा सचमुच में भंग हुई तो उन्हें न तो बाबा और न कोई अन्य सन्यासी ही दिखाई दिया । वे अपनी स्मृति दौड़ाने लगे और अब उन्हें सन्यासी के प्रत्येक शब्द की स्मृति हो आई । यघपि वे बाबा के सानिध्य का लाभ गत सात वर्षों से उठा रहे थे तथा उन्हीं का निरन्तर ध्यान किया करते थे, परन्तु यह कभी भी आशा न थी कि बाबा भी कभी उनके घर पधार कर भोजन कर उन्हें कृतार्थ करेंगे । बाबाके शब्दों से अति हर्षित होते हुए वे अपनी पत्नी के समीप गये और कहा कि आज होली का दिन है । एक सन्यासी अतिथि भोजन के लिये अपने यहाँ पधारेंगे । इसलिये भात थोड़ा अधिक बनाना । उनकी पत्नी ने अतिथि के सम्बन्ध में पूछताछ की । प्रत्युत्तर में हेमाडपंत ने बात गुप्त न रखकर स्वप्न का वृतान्त सत्य-सत्य बतला दिया । तब वे सन्देहपूर्वक पूछने लगी कि क्या यह भी कभी संभव है कि वे शिरडी के उत्तम पकवान त्यागकर इतनी दूर बान्द्रा में अपना रुखा-सूका भोजन करने को पधारेंगे । हेमाडपंत ने विश्वास दिलाया कि उनके लिये क्या असंभव है । हो सकता है, वे स्वयं न आयें और कोई अन्य स्वरुप धारण कर पधारे । इस कारण थोड़ा अधिक भात बनाने में हानि ही क्या है । इसके उपरान्त भोजन की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई । दो पंक्तियाँ बनाई गई और बीच मे अतिथिके लिये स्थान छोड़ दिया गया । घर के सभी कुटुम्बी-पुत्र, नाती, लड़कियाँ, दामाद इत्यादि ने अपना-अपना स्थान ग्रहम कर लिया और भोजन परोसना भी प्रारम्भ हो गया । जब भोजन परोसा जा रहा था तो प्रत्येक व्यक्ति उस अज्ञात अतिथि की उत्सुकतापूर्वक राह देख रहा था । जब मध्याहृ भी हो गया और कोई भी न आया, तब द्घार बन्द कर साँकल चढ़ा दी गई । अन्न शुद्घि के लिये घृत वितरण हुआ, जो कि भोजन प्रारम्भ करने का संकेत है । वैश्वदेव (अग्नि) को औपचारिक आहुति देकर श्रीकृष्ण को नैवेघ अर्पण किया गया । फिर सभी लोग जैसे ही भोजन प्रारम्भ करने वाले थे कि इतने में सीढ़ी पर किसी के चढ़ने की आहट स्पष्ट आने लगी । हेमाडपंत ने शीघ्र उठकर साँकल खोली और दो व्यक्तियों


1. अली मुहम्मद और


2. मौलाना इस्मू मुजावर को द्गार पर खड़े हुए पाया ।


इन लोगों ने जब देखा कि भोजन परोसा जा चुका है और केवल प्रारम्भ करना ही शेष है तो उन्होंने विनीत भाव में कहा कि आपको बड़ी असुविधा हुई, इसके लिये हम क्षमाप्रार्थी है । आप अपनी थाली छोड़कर दौड़े आये है तथा अन्य लोग भी आपकी प्रतीक्षा में है, इसलिये आप अपनी यह संपदा सँभालिये । इससे सम्बन्धित आश्चर्यजनक घटना किसी अन्य सुविधाजनक अवसर पर सुनायेंगें – ऐसा कहकर उन्होंने पुराने समाचार पत्रों में लिपटा हुआ एक पैकिट निकालकर उसे खोलकर मेज पर रख दिया । कागज के आवरण को ज्यों ही हेमाडपंत ने हटाया तो उन्हें बाबा का एक बड़ा सुन्दर चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ । बाबा का चित्र देखकर वे द्रवित हो गये । उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी और उनके समूचे शरीर में रोमांच हो आया । उनका मस्तक बाबा के श्री चरणों पर झुक गया । वे सोचने लगे किबाबा ने इस लीला के रुप में ही मुझे आर्शीवाद दिया है । कौतूहलवश उन्होंने अली मुहम्मद से प्रश्न किया कि बाबा का यह मनोहर चित्र आपको कहाँ से प्राप्त हुआ । उन्होंने बताया कि मैंने इसे एक दुकान से खरीदा था । इसका पूर्ण विवरण मैं किसी अन्य समय के लिये शेष रखता हूँ । कृपया आप अब भोजन कीजिए, क्योंकि सभी आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे है । हेमाडपंत ने उन्हें धन्यवाद देकर नमस्कार किया और भोजन गृह में आकर अतिथि के स्थान पर चित्र कोमध्य में रखा तथा विधिपूर्वक नैवेघ अर्पम किया । सब लोगों ने ठीक समय पर भोजन प्रारम्भ कर दिया । चित्र में बाबा का सुन्दर मनोहर रुप देखकर प्रत्येक व्यक्ति को प्रसन्नता होने लगी और इस घटना पर आश्चर्य भी हुआ कि वह सब कैसे घटित हुआ । इस प्रकार बाबा ने हेमाडपंत को स्वप्न में दिये गये अपने वचनों को पूर्ण किया ।


इस चित्र की कथा का पूर्ण विवरण, अर्थात् अली मुहम्मद को चित्र कैसे प्राप्त हुआ और किस कारण से उन्होंने उसे लाकर हेमा़डपंत को भेंट किया, इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जायेगा ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 28 December 2022

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - हसन अब्दाल - वली कंधारी का अहंकार तोड़ना (पंजा साहिब)

  ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - हसन अब्दाल - वली कंधारी का अहंकार तोड़ना (पंजा साहिब)

गुरु जी होती मरदान और नौशहरे से होते हुआ हसन अब्दाल से बहार पहाड़ी के नीचे आकर बैठ गए| उस पहाड़ी पर एक वली कंधारी रहता था जिसे अपनी करामातो पर बहुत अहंकार था| इसके साथ की पहाड़ी पर ही पानी का एक चश्मा निकलता था| गुरु जी ने उसका अहंकार तोड़ने के लिए मरदाने को उस पहाड़ी पर चश्मे का पानी लाने के लिए भेजा| पर वली कंधारी ने वहाँ से पानी लाने को मना कर दिया| उसने कंधारी के आगे बहुत मिन्नतें की पर वली ने कहा अगर तेरा पीर शक्तिशाली है तो वह नया चश्मा निकालकर तुम्हे पानी दे|जब यह बातें मरदाने ने आकर गुरु जी को बताई तो गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) ने मरदाने से कहा की सतिनाम कहकर एक पत्थर उठाकर दूसरी तरफ रखदो, करतार के हुक्म से पानी का चश्मा चल पड़ेगा| जब पत्थर के नीचे से पानी का चश्मा निकला तो इसके चलने से ही पहाड़ी पर वली कंधारी का चश्मा बंद हो गया|

जब वली कंधारी ने यह देखा की उसका चश्मा बंद हो गया है और नीचे की पहाड़ी का चश्मा चल रहा है तो उसने क्रोध में आकर अपनी पूरी शक्ति के साथ पहाड़ी की एक चट्टान को गुरु जी की तरफ फैंक दिया| पर गुरु जी ने उसे अपने हाथ के पंजे से रोक दिया| गुरु जी की यह दोनो शक्तियाँ, पहले पानी का चश्मा नीचे लेके आना और दूसरा पहाड़ को पंजे से रोकना, से वली कंधारी का अहंकार टूट गया और गुरु जी से अपने अपमान भरे शब्दों के कारण माफ़ी मांगने लगा|

गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) के हाथ से लगा हुआ पंजे वाला पत्थर अभी तक गुरुद्वारा पंजा साहिब-हसन अब्दाल में दर्शन दे रहा है| हजारों संगते श्रदा के साथ इसके दर्शन करके गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) की महिमा गाते हुए सुनी व देखी गयी हैं|


पंजा साहिब की यह घटना 3 वैसाख संवत १५७९ में लिखी हुई हैं।

Tuesday, 27 December 2022

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - कलयुग से वार्तालाप

 ॐ सांई राम

श्री गुरु नानक देव जी 
– साखियाँ
 

 कलयुग से वार्तालाप
गुरु जी मरदाने के साथ बैठकर शब्द कीर्तन कर रहे थे तो अचानक अँधेरी आनी शुरू हो गई, जिसका गुबार पुरे आकाश में फ़ैल गया| इस भयानक अँधेरी में भयानक सूरत नजर आनी शुरू हो गई, जिसका सिर आकाश के साथ व पैर पाताल के साथ के साथ थे| मरदाना यह सब देखकर घबरा गया| तब गुरु जी मरदाने से कहने लगे, मरदाना तू वाहेगुरु का सिमरन कर, डर मत| यह बला तेरे नजदीक नहीं आएगी| उस भयानक सूरत ने कई भयानक रूप धारण किए पर गुरु जी अडोल ही बैठे रहे| आप की अडोलता व निर्भयता को देखकर उसने मानव का रूप धारण करके गुरु जी को नमस्कार की और कहने लगा इस युग का मैं राजा हूँ| मेरा सेनापती झूठ और निंदा, चुगली व मर धाड़ है| जुआ शराब आदि खोटे करम मेरी फ़ौज है| आप मेरे युग के अवतार है, मैं आपको मोतियों से जड़े हुए सोने के मंदिर तैयार कर देता हूँ, आप इसमे निवास करना| ऐसे मंदिर चन्दन व कस्तूरी से लिपे होंगे, केसर का छिड़काव होगा| आप उसमे सुख लेना व आनंदित रहना|
तब गुरु जी ने इस शब्द का उच्चारण किया:
मोती त मंदर उसरहि रतनी त होए जड़ाऊ ||
कस्तू रि कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||
 धरती त हीरे लाल जड़ती पलघि लाल जड़ाऊ ||
मोहणी मुखि मणी सोहै करे रंगि पसाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||
हुकमु हासलु करी बैठा नानका सभ वाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||


  गुरु जी के ऐसे बचन सुनकर कलयुग ने कहा, महाराज! मुझे निरंकार की आज्ञा है की मैं सभ जीवो की बुधि उलट दू, जिसके कारण वह चोरी यारी झूठ निंदा व चुगली आदि खोटे कर्म करे, गुणवान का निरादर हो और मूर्खों को राजे के पास बिठाकर आदर करा ऊ| जत सत का नाम ना रहना दूँ, ऊँच व नीच को बराबर कर दूँ| पर आप मुझे जैसे हुक्म करेंगे में उसकी पलना करूँगा| गुरु जी ने कहा, जो हमारे प्रेमी श्रद्धावान व हरी कीर्तन, सत्संग इत्यादि में लिप्त हो उनपर यह सेना धावा ना बोले| फिर तेरा प्रभाव हमारे उन प्रेमियों पर भी ना पड़े जिन्हें हमारे बचनों पर भरोसा है| कलयुग ने तभी हाथ जोड़े और कहा, महाराज! जो व्यक्ति निरंकार के सिमरण को अपने ह्रदय में बसाए रखेगा, उनपर हमारा प्रभाव कम पड़ेगा| ऐसा भरोसा देकर कलयुग अंतर्धयान हो गया|

Monday, 26 December 2022

श्री गुरु नानक देव जी

श्री गुरु नानक देव जी


Parkash Ustav (Birth date) :April 15, 1469. Saturday;
at Talwandi (Nankana Sahib, Present day Pakistan)
 प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 15 अप्रैल 1469. शनिवार,
तलवंडी (ननकाना साहिब, वर्तमान  पाकिस्तान)

 Father : Mehta Kalyan Dass (Mehta Kalu)
 पिता: मेहता कल्याण दास (मेहता कालू)
Mother : Mata Tripta Ji
 माँ: माता तृप्ता जी
Sibling :Bebe Nanaki Ji (sister)
सहोदर: बेबे नानकी जी (बहन)

Mahal (spouse) : Mata Sulakhani Ji
महल (पत्नी): माता सुलखनी जी

Sahibzaday (offspring) : Baba Sri Chand Ji, Baba Lakhmi Das Ji.
साहिबज़ादे (वंश): बाबा श्री चंद जी, बाबा लखमी दास जी.

Joti Jyot (ascension to heaven) :September 7, 1539 at Sri Kartarpur Sahib (present day Pakistan)ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): श्री करतारपुर साहिब (वर्तमान पाकिस्तान) में 7 सितम्बर 1539

जीवनी  

जोर जबरदस्ती और हाक्मो के अत्याचारों से दुखी सृष्टि की पुकार सुनकर अकाल पुरख ने गुरु नानक जी के रूप में जलते हुए संसार की रक्षा करने के लिए माता तृप्ताजी की कोख से महिता कालू चंद बेदी खत्री के घर राये भोये की तलवंडी (ननकाना साहिब) में कतक सुदी पूरनमाशी संवत १५२६ को सवा पहर के तड़के अवतार धारण किया|
गुरु जी (अवतार) का सृष्टि पर प्रभाव 
भाई गुरदास जी
सतिगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध जग चानण होआ ||जिउ कर सूरज निकलिआ तारे छपे अंधेर पलोआ ||सिंघ बुके म्रिगावली भन्नी जाई न धीर धरोआ ||जिथे बाबा पैर धरे पूजा आसण थापण सोआ ||सिध आसण सभ जगत दे नानक आदि मते जे कोआ ||घर घर अंदर धरमसाल होवै कीरतन सदा विसोआ ||बाबे तारे चार चके नौ खंड प्रिथमी सचा ढोआ ||गुरमुख कलि विच परगट होआ ||

जब पंडित जी ने महिता कालू से पूछा की दाई से यह पूछो की जनम के समय बच्चे ने कैसी आवाज निकाली थीतब दौलता दाई ने बताया कि पंडित जी! मेरे हाथों से अनेकों बच्चों ने जनम लिया है,पर मैंने ऐसा बालक आज तक नहीं देखाऔर बच्चे तो रोते हुए पैदा होते है पर यह बच्चा तो हँसते हुए पैदा हुआ हैमानों दुपहर का सूरज चड़ गया हो,और पूरा घर में सुगंध फ़ैल गयी होदाई कि बातों से पंडित जी ने यह अनुभव कर लिया कि यह को ई अवतार पैदा हुआ है गुरु जी को हिंदीहिसाब पढ़ने के लिए पांधे गोपाल के पाससंस्कृत के लिए पंडित ब्रिज लाल तथा फारसी पढ़ने के लिए मुल्ला कुतबुद्दीन के पास भेजा गया |गुरु जी ने जन कल्याण व समाज सुधार के लिए चार उदासियाँ कीपहली उदासी पूरब दिशा की तरफ संवत १५५६-१५६५ तक की व दूसरी उदासी दक्षिण दिशा की और संवत १५६७-१५७१ तक कीयहीं तक गुरु जी नहीं रुकेउनकी अगली उदासी उत्तर दिशा की तरफ संवत १५७१ में प्रारम्भ हो ग ई तथा चौथी उदासी संवत १५७५ के साथ यह कल्याण यात्रा समाप्त हो गई|

Sunday, 25 December 2022

श्री साईं लीलाएं - साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश

 ॐ सांई राम



कल हमने पढ़ा था.. काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा


श्री साईं लीलाएं - साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश

आत्मचिंतन: 

अपने आपकी पहचान करो, कि मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है|

विनम्रता: 

जब तक तुममें विनम्रता का वास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के प्रिय शिष्य नहीं बन सकते और जो शिष्य गुरु को प्रिय नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता|

क्षमा:

दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूले क्षमा करता है|
श्रद्धा और सबुरी (धीरज और विश्वास): पूर्णश्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु का पूजन करो समय आने पर मनोकामना भी पूरी होंगी|

कर्मचक्र:

कर्म देह प्रारम्भ (वर्तमान भाग्य) पिछले कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ेगा, गुरु इन कष्टों को सहकर सहना सिखाता है, गुरु सृष्टि नहीं दृष्टि बदलता है|

दया:

मेरे भक्तों में दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरों पर दया करने का अर्थ है मुझे प्रेम करना चाहिए, मेरी भक्ति करना|

संतोष:

ईश्वर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) प्राप्त है, हमें उसी में संतोष रखना चाहिए|
सादगी, सच्चाई और सरलता: सदैव सादगी से रहना चाहिए और सच्चाई तथा सरलता को जीवन में पूरी तरह से उतार लेना चाहिए|

अनासक्ति: 

सभी वस्तुएं हमरे उपयोग के लिए हैं, पर उन्हें एकत्रित करके रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है| प्रत्येक जीव में मैं हूँ: प्रत्येक जीव में मैं हूँ, सभी जगह मेरे दर्शन करो|

गुरु अर्पण:

तुम्हारा प्रतेक कार्य मुझे अर्पण होता है, तुम किसी दूसरे प्राणी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा व्यवहार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्यवहार जो दूसरों से होता है सीधा मेरे साथ होता है| यदि तुम किसी को गाली देते हो, तो वह मुझे मिलती है, प्रेम करते हो तो वह भी मुझे ही प्राप्त होता है|

भक्त:

जो भी व्यक्ति पत्नी, संतान और माता-पिता से पूर्णतया विमुख होकर केवल मुझसे प्रेम करता है, वही मेरा सच्चा भक्त है, वह भक्त मुझमे इस प्रकार से लीन हो जाता है, जैसे नदियां समुद्र में मिलकर उसमें लीन हो जाती हैं|

एकस्वरुप:

भोजन करने से पहले तुमने जिस कुत्ते को देखा, जिसे तुमने रोटी का टुकड़ा दिया, वह मेरा ही रूप है| इसी तरह समस्त जीव-जन्तु इत्यादि सभी मेरे ही रूप हैं| मैं उन्ही का रूप धरकर घूम रहा हूं| इसलिए द्वैत-भाव त्याग के कुत्ते को भोजन कराने की तरह ही मेरी सेवा किया करो| 



कर्त्तव्य: 

विधि अनुसार प्रतेक जीवन अपना एक निश्चित लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भाव से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन निर्विकार नहीं हो सकता यानि वह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पने का अधिकारी नहीं हो सकता|
लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|

लोभ (लालच):

लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|

दरिद्रता: 

दरिद्रता (गरीबी) सर्वोच्च संपत्ति है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बादशाह है| फकीर का नाश नहीं होता, लकिन अमीर का साम्राज्य शीघ्र ही मिट जाता है|

भेदभाव:

अपने मध्य से भेदभाव रुपी दीवार को सदैव के लिए मिटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसलिए मैं कौन हूं? इस प्रशन के साथ सदैव आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करो| वैसे जो बिना किसी भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वे सच में बड़े महान होते हैं|

मृत्यु: 

प्राणी सदा से मृत्यु के अधीन रहा है| मृत्यु की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदि तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ईश्वर हो और उससे भिन्न नहीं हो| वास्तव में किसी भी प्राणी की मृतु नहीं होती| वह अपने कर्मों के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यक कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जीवात्मा भी अपने पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है|

ईश्वर:

उस महान् सर्वशक्तिमान् का सर्वभूतों में वास है| वह सत्य स्वरुप परमतत्व है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषण एवं विनाश करने वाला एवं कर्मों के फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सत्य साईं का अंश धारण करके इस धरती के प्रत्येक जीव में वास करता है| चाहे वह विषैले बिच्छू हों या जहरीले नाग-समस्त जीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं|

ईश्वर का अनुग्रह:

तुमको सदैव सत्य का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ करना चाहिए और दिए गए वचनों का सदा निर्वाह करना चाहिए| श्रद्धा और धैर्य सदैव ह्रदय में धारण करो| फिर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा|

ईश्वर प्रदत्त उपहार:

मनुष्य द्वरा दिया गया उपहार चिरस्थायी नहीं होता और वह सदैव अपूर्ण होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जीवन अपने पास सहेजकर सुरक्षित नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार प्रत्तेकप्राणी को देता है वह जीवन भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुमिरन, सेवा, सत्संग की तुलना मनुष्य प्रदत्त किसी उपहार से नहीं हो सकती है|

ईश्वर की इच्छा:

जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की शरण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता|

आत्मसमर्पण:

जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित हो चुका है, जो श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदैव याद करता है और जो निरन्तर मेरे इस स्वरूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष प्रदान करना मेरा विशिष्ट गुण है|

सार-तत्त्व:

केवल ब्रह्म ही सार-तत्त्व है और संसार नश्वर है| इस संसार में वस्तुतः हमार कोई नहीं, चाहे वह पुत्र हो, पिता हो या पत्नी ही क्यों न हो|

भलाई:

यदि तुम भलाई के कार्य करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरण करेगी|

सौन्दर्य:

हमको किसी भी व्यक्ति की सुंदरता अथवा कुरूपता से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके रूप में निहित ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए|

दक्षिणा: 

दक्षिणा (श्रद्धापूर्वक भेंट) देना वैराग्ये में बढोत्तरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भक्ति की वृद्धि होती है|

मोक्ष:

मोक्ष की आशा में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु-चरणों की सेवा अनिवार्य है|

दान:

दाता देता है यानी वह भविष्य में अच्छी फसल काटने के लिए बीज बोता है| धन को धर्मार्थ कार्यों का साधन बनाना चाहिए| यदि यह पहले नहीं दिया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतएव पाने के लिए उत्तम मार्ग दान देना है|

सेवा: 

इस धारणा के साथ सेवा करना कि मैं स्वतंत्र हूं, सेवा करूं या न करूं, सेवा नहीं है| शिष्य को यह जानना चाहिए कि उसके शरीर पर उसका नहीं बल्कि उसके 'गुरु' का अधिकार है और इस शरीर का अस्तित्व केवल 'गुरु' की सेवा करने में ही सार्थक है|

शोषण:

किसी को किसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाहिए| काम करने वाले को उसके काम के बदले शीघ्र और उदारतापूर्वक पारिश्रमिक देना चाहिए|

अन्नदान:

यह निश्चित समझो कि जो भूखे को भोजन कराता है, वह वास्तव में उस भोजन द्वारा मेरी सेवा किया करता है| इसे अटल सत्य समझो|

भोजन:

इस मस्जित में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, फिर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ बांध लो|

बुद्धिमान:

जिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान मिल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किया करता| भगवान की दया के अभाव में व्यक्ति अनावश्यक बातें करता है|

झगड़े: 

यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गालियां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदि तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापूर्वक शब्द बोलो अथवा उस स्थान से हट जाओ, लेकिन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो|

वासना: 

जिसने वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त की है, उसे प्रभु के दर्शन (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता|

पाप:

मन-वचन-कर्म द्वारा दूसरों के शरीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है|

सहिष्णुता: 

सुख और दुख तो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं| इसलिए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे उसे अविचल रहकर सहन करो|

त्य:

तुम्हें सदैव सत्य ही बोलना चाहिए| फिर चाहे तुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा|

एकत्व:

राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किंचित मात्र भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ मिला और दोनों समुदायों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए| बुद्धिमानी के साथ एक-दूसरे से व्यवहार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा कर पाओगे|

अहंकार:

कौन किसका शत्रु है? किसी के लिए ऐसा मत कहो, कि वह तुम्हारा शत्रु है? सभी एक हैं और वही हैं|

आधार स्तम्भ:

चाहे जो हो जाये, अपने आधार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदैव उसके साथ एककार रूप में रहकर स्थित रहो|

आश्वासन: 

यदि कोई व्यक्ति सदैव मेरे नाम का उच्चारण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा| यदि वह निष्ठापूर्वक मेरी जीवन गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदैव उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदैव उपस्थित रहूंगा|

मन-शक्ति: 

चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्थित बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्थित रहकर शांतिपूर्वक अपने सामने से गुजरते हुए सभी वस्तुओं के दृश्यों के अविचलित देखते रहो|

भक्ति: 

वेदों के ज्ञान अथवा महान् ज्ञानी (विद्वान) के रूप में प्रसिद्धि अथवा औपचारिकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्व नहीं है, जब तक उसमे भक्ति का योग न हो|

भक्त और भक्ति: 

जो भी कोई प्राणी अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बाद, निष्काम भाव से मेरी शरण में आ जाता है| जिसे मेरी भक्ति बिना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ|

भाग्य:

जिसे दण्ड निर्धारित है, उसे दण्ड अवश्य मिलेगा| जिसे मरना है, वह मरेगा| जिसे प्रेम मिलना है उसे प्रेम मिलेगा| यह निश्चित जानो|

नाम स्मरण:

यदि तुम नित्य 'राजाराम-राजाराम' रटते रहोगे तो तुम्हें शांति प्राप्त होगी और तुमको लाभ होगा|

अतिथि सत्कार:

पूर्व ऋणानुबन्ध के बिना कोई भी हमारे संपर्क में नहीं आता| पुराने जन्म के बकाया लेन-देन 'ऋणानुबन्ध' कहलाता है| इसलिए कोई कुत्ता, बिल्ली, सूअर, मक्खियां अथवा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत|

गुरु: 

अपने गुरु के प्रति अडिग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जितने कम गुण हों|

आत्मानुभव:

हमको स्वंय वस्तुओं का अनुभव करना चाहिए| किसी विषय में दूसरे के पास जाकर उसके विचार या अनुभवों के बारे में जानने की क्या आवश्यकता है?

गुरु-कृपा: 

मां कछुवी नदी के दूसरे किनारे पर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किनारे पर| कछुवी न तो उन बच्चों को दूध पिलाती है और न ही उष्णता प्रदान करती है| पर उसकी दृष्टिमात्र ही उन्हें उष्णता प्रदान करती है| वे छोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करने के अलावा कुछ नहीं करते| कछुवी की दृष्टि उसके बच्चों के लिए अमृत वर्षा है, उनके जीवन का एक मात्र आधार है, वही उनके सुख का भी आधार है| गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी प्रकार के हैं|

सहायता: 

जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण विश्वास करेगा और जब भी वह अपनी मदद के लिए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्वयं ही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी प्रकार यदि कोई तुमसे कुछ मांगता है और वह वास्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्य तुममे है और तुम उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सकते हो तो वह वस्तु उसे दो| मना मत करो| यदि उसे देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापूर्वक इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध करो| ऐसा करना साईं के आदेश पर चलने के समान है|

विवेक:

संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं - अच्छी और आकर्षक| ये दोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के लिए उसे आकर्षित करती हैं| उसे सोच-विचार कर इन दोनों में से कोई एक वस्तु का चुनाव करना चाहिए| बुद्धिमान व्यक्ति आकर्षक वस्तु की उपेक्षा अच्छी वस्तु का चुनाव करता है, लेकिन मूर्ख व्यक्ति लोभ और आसक्ति के वशीभूत होकर आकर्षक या सुखद वस्तु का चयन कर लेता है और परिणामतः ब्रह्मज्ञान (आत्मानुभूति) से वंचित हो जाता है|

जीवन के उतार-चढ़ाव:

लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु-भगवान के हाथों में है, लेकिन लोग कैसे उस भगवान को भूल जाते हैं, जो इस जीवन की अंत तक देखभाल करता है|

सांसारिक सम्मान: 

सांसारिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर भ्रमित मत हो| इष्टदेव के स्वरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे मानस पटल पर सदैव अंकित रहना चाहिए| अपनी समस्त एन्द्रिक वासनाओं और अपने मन को सदैव भगवान की पूजा में निरंतर लगाये रखो|

जिज्ञासा प्रश्न:

केवल प्रश्न पूछना ही पर्याप्त नहीं है| प्रश्न किसी अनुचित धारणा से या गुरु को फंसाने और उसकी गलतियां पकड़ने के विचार से या केवल निष्किय अत्सुकतावश नहीं पूछे जाने चाहिए| प्रश्न पूछने के मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति अथवा आध्यात्मिक के मार्ग में प्रगति करना होना चाहिए|

आत्मानुभूति: 

मैं एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारणा केवल कोरा भ्रम है और इस धारणा के प्रति प्रतिबद्धता ही सांसारिक बंधनों का मुख्य कारण है| यदि सच में तुम आत्मानुभूति के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारणा और आसक्ति का त्याग कर दो|

आत्मीय सुख: 

यदि कोई तुमसे घृणा और नफरत करता है तो तुम स्वयं को निर्दोष मत समझो| क्योंकि तुम्हारा कोई दोष ही उसकी घृणा और नफरत का कारण बाना होगा| अपने अहं की झूठी संतुष्टि के लिए उससे व्यर्थ झगड़ा मोल मत लो, उस व्यक्ति की उपेक्षा करके, अपने उस दोष को दूर करने का प्रयास करो जिससे कारण यह सब घटित हुआ है| यदि तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम आत्मीय सुख का अनुभव कर सकोगे| यही सुख और प्रसन्नता का सच्चा मार्ग है|


ॐ सांई राम

ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Saturday, 24 December 2022

श्री साईं लीलाएं - काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा

 ॐ सांई राम



कल हमने पढ़ा था.. कर्म भोग न छूटे भाई

श्री साईं लीलाएं - काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा

शिरडी आने वाले लोगों में कई लोग किसी धार्मिक ग्रंथ का पाठ करते थे| या तो मस्जिद में बैठकर बाबा के सामने पढ़ते या अपने ठहरने की जगह पर बैठकर| कई लोगों का ऐसा रिवाज भी था कि वह अपनी पसंद का ग्रंथ खरीदकर शामा के द्वारा साईं बाबा के कर-कमलों में दे देते| बाबा उस ग्रंथ को उल्टा-पुल्टाकर फिर उसे वापस कर देते थे| भक्तों की ऐसी आस्था थी कि ऐसा प्रसाद ग्रंथ पढ़ने से उनका कल्याण हो जायेगा|

कभी-कभी ऐसा भी होता था कि बाबा किसी का ग्रंथ वापस भी न करते और उसे शामा को रखने के लिए कहते| वह एक भक्त ने खरीदा है - ऐसा सोचकर शामा यदि उसे लौटाने के लिए बाबा से पूछते तो भी बाबा ग्रंथ नहीं लौटाते थे और यह ग्रंथ तेरे पास ही रहेगा ऐसा सीधा-सा जवाद देते| यानी कौन ग्रंथ पढ़े, क्या पढ़े, ये निर्णय बाबा ही करते थे|

एक बार की बात है कि काका महाजनी बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आये| उन्हें एक ऐसा ही ग्रंथ 'नाथ भागवत' बाबा ने दिया था| वे उसे हर समय अपने साथ रखते थे और रोजाना पढ़ते थे| जब काका महाजनी शिरडी आये तो शामा उनसे मिलने गये और निकलते समय काका से बोले - "काका, यह भागवत मैं देखकर लौटा देता हूं|" और ग्रंथ को अपने साथ में ले गये| जब शामा मस्जिद में गये तो बाबा ने पूछा - "शामा, यह ग्रंथ कौन-सा है?" तो शामा ने वही ग्रंथ बाबा के हाथ में दे दिया और बाबा ने वह ग्रंथ देखकर उसे वापस देते हुए कहा - "यह ग्रंथ तू अपने पास ही रखना, आगे काम आयेगा|"

तब शामा ने कहा - "बाबा ! यह ग्रंथ तो काका साहब का है, मैं उन्हें इसे वापस लौटाने का वादा करके आया हूं| यह मैं कैसे रख लूं?" बाबा ने कहा - "जब मैंने इस ग्रंथ को तुम्हें रखने के लिए कहा है तब यह समझ ले कि यह आगे चलकर तुम्हारे काम आनेवाला है|" अब शामा करे भी तो क्या करे, उन्होंने काका के पास जाकर सारी बात उन्हें ज्यों-की-त्यों बता दी और वह ग्रंथ अपने पास रख लिया|

कुछ दिन बाद काका जब फिर से शिरडी आये तो वह अपने साथ एक और भागवत ग्रंथ लाये थे| मस्जिद में बाबा के दर्शन करने के बाद जब काका ने वह ग्रंथ बाबा के हाथ में दिया, तो बाबा ने उसे प्रसाद के रूप में लौटाते हुए कहा - "ऐ काका ! यही ग्रंथ आगे चलकर तेरे काम आने वाला है| इसलिए अब यह ग्रंथ किसी को मत दे देना|" बाबा ने जिस ढंग से यह बात कही थी, उसे देखते हुए काका ने वह ग्रंथ अपने सिर पर उठाया और फिर साथ में ले गये|

ऐसा ही पार्सल एक बार शिरडी के डाकघर में बाबू साहब जोग के पास आया| पार्सल खोलने पर उन्होंने देखा तो वह लोकमान्य तिलक की लिखी किताब थी, जिसका नाम था 'गीता रहस्य'| जोग उस किताब को बगल में दबाये हुए सीधे मस्जिद में पहुंचे| वहां पहुंचकर बाबा के दर्शन कर चरणवंदना करने लगे, तभी वह पार्सल नीचे गिर पड़ा|

तब बाबा ने पूछा - "बापू साहब, इसमें क्या है?" जोग ने पार्सल खोलकर वह पुस्तक निकालकर चुपचाप बाबा के श्रीचरणों के पास रख दी| बाबा ने उठाकर कुछ देर उसके पन्ने उल्ट-पुल्ट कर देखे और उस पर एक रुपया रखकर वह पुस्तक जोग को लौटाते हुए बाबा ने कहा - "इस ग्रंथ को तू मन लगाकर पढ़ना| इसी से तेरा कल्याण हो जायेगा|" श्री जोग को ऐसा लगा कि यह साईं बाबा ने उन पर बड़ा अनुग्रह किया, फिर वह ग्रंथ को लेकर लौट गये|


कल चर्चा करेंगे... साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश

ॐ सांई राम

ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Friday, 23 December 2022

श्री साईं लीलाएं - कर्म भोग न छूटे भाई

ॐ सांई राम


परसों हमने पढ़ा था.. लाओ, अब बाकी के तीन रुपये दे दो


शिर्डी से श्री साँई बाबा जी की श्री कमल चरण पादुका एंवम सटके की यह तस्वीर बाबा जी के म्यूज़ियम से ली गयी है

श्री साईं लीलाएं - कर्म भोग न छूटे भाई

पूना के रहनेवाले गोपाल नारायण अंबेडकर बाबा के अनन्य भक्त थे| वे सरकारी कर्मचारी थे| शुरू में वे जिला ठाणे में नौकरी पर थे, बाद में तरक्की हो जाने पर उनका तबादला ज्वाहर गांव में हो गया| लगभग 10 वर्ष नौकरी करने के बाद उन्हें किसी कारणवश त्यागपत्र देना पड़ा| फिर उन्होंने दूसरी नौकरी के लिए अनथक प्रयास किये, परंतु सफलता नहीं मिली| नौकरी न मिलने के कारण माली हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती चली गयी और घर-बार चलाना उनके लिए मुसीबत बन गया| ऐसी स्थिति सात वर्ष तक चली, परन्तु ऐसी स्थिति होने के बावजूद भी प्रत्येक वर्ष शिरडी जाते और बाबा को अपनी फरियाद सुनाकर वापस आ जाते| आगे चलकर उनकी हालत इतनी बदत्तर हो गयी कि अब उनके सामने आत्महत्या करने के अलावा और कोई रास्ता न बचा था| तब वे शिरडी जाकर आत्महत्या करने का निर्णय कर परिवार सहित शिरडी आये और दो महीने तक दीक्षित के घर में रहे|

एक रात के समय दीक्षित बाड़े के सामने बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे उन्होंने कुएं में कूदकर आत्महत्या करने का विचार किया, लेकिन बाबा ने उन्हें आत्महत्या करने से रोकने का निश्चय कर लिया था| यह देखकर कि अब कोई देखने वाला नहीं है, यह सोचकर वे कुएं के पास आये| वहां पास ही सगुण सरायवाले का घर था और उसने वहीं से पुकारा और पूछा - "गोपालराव, क्या आपने अक्कलकोट महाराज स्वामी की जीवनी पढ़ी है क्या?" गोपालराव ने कहा - "नहीं| पर जरा दिखाओ तो सही|" सगुण ने वह किताब उन्हें थमा दी| किताब के पन्ने उलटते-पलटते वे एक जगह पर रुके और वहां से पढ़ने लगे| वह एक ऐसी घटना थी कि श्री स्वामी महाराज का एक भक्त अपनी बीमारी से तंग आ चुका था| बीमारी से मुक्ति पाने के लिए उसने स्वामी जी की जी-जान से सेवा भी की, पर कोई फायदा न होते देख उसने आत्महत्या करने की सोची| रात के अंधेरे का लाभ उठाकर वह एक कुएं में कूद गया| उसी श्रण स्वामी जी वहां प्रकट हुए और उसे कुएं में से बाहर निकाल लिया| फिर उसे समझाते हुए बोले - "ऐसा करने से क्या होने वाला है? तुम्हें अपने पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना चाहिए| यदि इन भोगों को नहीं भोगोगे तो फिर से किसी निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड़ेगा - और कर्म-भोग तुम्हें ही भोगने पड़ेंगे| इसलिए जो भी अपना कर्मफल है, उसे यहीं इसी जन्म में भोगकर तुम सदैव के लिए मुक्त हो जाओ|" इन वचनों को सुनकर भक्त को अपनी गलती का अहसास हो गया| फिर उसने विचार किया कि जब स्वामी जी जैसे मेरे रखवाले हों तो मैं कर्मफल से क्यों डरूं?

यह कहानी पढ़कर गोपालराव के विचार भी बदल गये और उसने आत्महत्या करने का विचार त्याग दिया| उसे इस बात का अनुभव हो गया कि साईं बाबा ने मुझे सगुण के द्वारा आज बचाया है| यदि सगुण न बुलाता तो आज मैं गलत रास्ते पर चल दिया होता और मेरा परिवार अनाथ हो जाता| फिर उसने मन-ही-मन बाबा की चरणवंदना की और लौट गया| बाबा के आशीर्वाद से उसका भाग्य चमक गया| आगे चलकर उसे बाबा की कृपा से ज्योतिष विद्या की प्राप्ति हुई और उस विद्या के बल पर उसने धनोपार्जन कर अपना कर्ज उतार दिया और शेष जीवन सुख-शांति से बिताया|


कल चर्चा करेंगे... काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा

ॐ सांई राम
ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं

बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।

Thursday, 22 December 2022

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 39

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 39 - बाबा का संस्कृत ज्ञान
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गीता के एक श्लोक की बाबा द्घारा टीका, समाधि मन्दिर का निर्माण ।

इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है । कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी । इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है । दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है ।


प्रस्तावना
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शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है । श्री द्घारिकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास कियाऔर वहीं समाधिस्थ हुए ।

शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया ।

शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अभिन्न विश्वास के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी ।


बाबा द्वारा टीका
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किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है । एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया । इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बीय व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है । इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है । ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्घारा रचित है । श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्घारा रचित पुस्तक के भक्तों के अनुभव, भाग 3 में छापा गया है । श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्घान विघार्थियों में से एक थे । उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था । उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है । इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया । यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे । बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे ।


नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे ।

बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो ।
नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ ।
बाबा – कौन सा श्लोक है वह ।
नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है ।
बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो ।
तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे ः-

“तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“

बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है ।
नाना – जी, महाराज ।
बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ ।
नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्घारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सद्घस्तु (ब्रहम्) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें ।

बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता । मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ ।

अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे ।
बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है ।
नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं प्रणिपात का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता ।
बाबा – परिप्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – प्रश्न पूछना ।
बाबा – प्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – वही (प्रश्न पूछना) ।
बाबा – यदि परिप्रश्न और प्रश्न दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने परिउपसर्ग का प्रयोग क्यों किया क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी ।
नाना – मुझे तो परिप्रश्न का अन्य अर्थ विदित नहीं है ।
बाबा – सेवा । किस प्रकार की सेवा से यहाँ आशय है ।
नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है ।
बाबा – क्या यह सेवा पर्याप्त है ।
नाना – और इससे अधिक सेवा का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है ।
बाबा – दूसरी पंक्ति के उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो ।
नाना – जी हाँ ।
बाबा – कौन सा शब्द ।
नाना – अज्ञानम् ।
बाबा – ज्ञानं के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है ।
नाना - जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है ।
बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ । यदि अज्ञान शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है ।
नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें अज्ञान शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा ।
बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था । क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे । वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप ।
नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा ।
बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया ।

अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे ।

1. ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है । हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये ।

2. केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये ।

3. मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है ौर केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विघमान है ।

इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्घारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है । नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार अज्ञान की शिक्षा देते है ।

बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है । अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन । यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो । वह इसी प्रकार है । गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है ) । अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्घैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्घैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्घैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्घैत स्थिति प्राप्त हने का लक्षण है । द्घैत में रहकर अद्घैत की चर्चा कौन कर सकता है । जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है ।

शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है । उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्घितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है । सदगुरु निर्गुण निराार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है । गीता का अध्याय 5 देखो । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः । जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि मैं जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और अस्सहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ, गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में मैं ही ईश्वर हूँ । सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है । यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया । वह अज्ञान कहाँ है और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है ।



अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –
..............................

1. मैं एक जीव (प्राणी) हूँ ।
2. शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ)
3. ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है ।
4. मैं ईश्वर नहीं हूँ ।
5. शरीर आत्मा नहीं है, इसका अबोध ।
6. इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है ।

जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है, उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है । इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही अज्ञान का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है । उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है ।

बाबा ने आगे कहा –

1. प्रणिपात का अर्थ है शरणागति ।
2. शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) ।
3. कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है । सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है । (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा ।
(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विघमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया ।



समाधि-मन्दिर का निर्माण
...........................

बाबा जो कुछ करना चाहते थे, उसकी चर्चा वे कभी नहीं करते थे, प्रत्युत् आसपास ऐसा वातावरण और परिस्थिति निर्माण कर देते थे कि लोगों को उनका मंथर, परन्तु निश्चित परिणाम देखकर बड़ा अचम्भा होता था । समाधि-मन्दिर इस विषय का उदाहरण है । नागपुर के प्रसिद्घ लक्षाधिपति श्रीमान् बापूसाहेब बूटी सहकुटुम्ब शिरडी में रहते थे । एक बार उन्हें विचार आया कि शिरडी में स्वयं का एक वाड़ा होना चाहिए । कुछ समय के पश्चात जब वे दीक्षित वाड़े में निद्रा ले रहे थे तो उन्हें एक स्वप्न हुआ । बाबा ने स्वप्न में आकर उनसे कहा कि तुम अपना एक वाड़ा और एक मन्दिर बनवाओ । शामा भी वहीं शयन कर रहा था और उसने भी ठीक वैसा ही स्वप्न देखा । बापूसाहेब जब उठे तो उन्होंने शामा को रुदन करते देखकर उससे रोने का कारण पूछा ।



तब शामा कहने लगा –

अभी-अभी मुझे एक स्वप्न आया था कि बाबा मेरे बिलकुल समीप आये और स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि मन्दिर के साथ वाड़ा बनवाओ । मैं समस्त भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण करुँगा । बाबा के मधुर और प्रेमपूर्ण शब्द सुनकर मेरा प्रेम उमड़ पड़ा तथा गला रुँध गया और मेरी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी । इसलिये मैं जोर से रोने लगा । बापूसाहेब बूटी को आश्चर्य हुआ कि दोनों के स्वप्न एक से ही है । धनाढ्य तो वे थे ही, उन्होंने वाड़ा निर्माण करने का निश्चय कर लिया और शामा के साथ बैठकर एक नक्शा खींचा । काकासाहेब दीक्षित ने भी उसे स्वीकृत किया और जब नक्शा बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने भी तुरंत स्वीकृति दे दी । तब निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया और शामा की देखरेख में नीचे मंजिल, तहखाना और कुआँ बनकर तैयार हो गया । बाबा भी लेंडी को आते-जाते समय परामर्श दे दिया करते थे । आगे यतह कार्य बापूसाहेब जोग को सौंप दिया गया । जब कार्य इसी तरह चल ही रहा था, उसी समय बापूसाहेब जोग को एक विचार आया कि कुछ खुला स्थान भी अवश्य होना चाहिये, बीचोंबीच मुरलीधर की मूर्ति की भी स्थापना की जाय । उन्होंने अपना विचार शामा को प्रकट किया तता बाबा से अनुमति प्राप्त करने को कहा । जब बाबा वाड़े के पास से जा रहे थे, तभी शामा ने बाबा से प्रश्न कर दिया । शामा का प्रश्न सुनकर बाबा ने स्वीकृति देते हुए कहा कि जब मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जायगा, तब मैं स्वयं वहाँ निवास करुँगा, और वाड़े की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा जब वाड़ा सम्पूर्ण बन जायगा, तब हम सब लोग उसका उपभोग करेंगे । वहीं रहेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे और एक दूसरे को हृदय से लगायेंगे तथा आनन्दपूर्वक विचरेंगे । जब शामा ने बाबा से पूछा कि क्या यह मूर्ति के मध्य कक्ष की नींव के कार्य आरम्भ का शुभ मुहूर्त्त है । तब उन्होंने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया । तभी शामा ने एक नारियल लाकर फोड़ा और कार्य प्रारम्भ कर दिया । ठीक समय में सब कार्य पूर्ण हो गया और मुरलीधर की एक सुन्दर मूर्ति बनवाने का प्रबन्ध किया गया । अभी उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ भी न हो पाया था कि एक नवीन घटना घटित हो गई । बाबा की स्थिति चिंताजक हो गई और ऐसा दिखने लगा कि वे अब देह त्याग देंगे । बापूसाहेब बहुत उदास और निराश से हो गये । उन्होंने सोचा कि यदि बाबा चले गये तो बाड़ा उनके पवित्र चरण-स्पर्श से वंचित रह जायगा और मेरा सब (लगभग एक लाख) रुपया व्यर्थ ही जायेगा, परन्तु अंतिम समय बाबा के श्री मुख से निकले हुए वचनों ने (मुझे बाड़े में ही रखना) केवल बूटीसाहेब को ही सान्त्वना नहीं पहुँचाई, वरन् अन्य लोगों को भी शांति मिली । कुछ समय के पश्चात् बाबा का पवित्र शरीर मुरलीधर की मूर्ति के स्थान पर रख दिया गया । बाबा स्वयं मुरलीधर बन गये और वाड़ा साईबाबा का समाधि मंदिर । उनकी अगाध लीलाओं की थाह कोई न पा सका । श्री. बापूसाहेब बूटी धन्य है, जिनके वाड़े में बाबा का दिव्य और पवित्र पार्थिव शरीर अब विश्राम कर रहा है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।*******************************************

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.