शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Saturday 29 February 2020

पालकी यात्रा का उद्देश्य

ॐ सांई राम



पालकी यात्रा शिर्डी की एक परंपरा है इसकी शुरुआत ९ दिसम्बर १९१० में
हुई थी, जब बाबा सगुण (मानव शरीर) रूप से शिर्डी की द्वारकामाई में वास करते (रहते) थे! बाबा एक दिन द्वारकामाई और एक दिन चावडी जाते थे तो उनकी पालकी की एक शोभा यात्रा निकलती थी, जिसमे शिर्डी ही नहीं बल्कि अन्य स्थानों से आए भक्तगण भाग लेते थे और आनंदित होते थे! यदपि द्वारकामाई से चावडी की दूरी बहुत अधिक नहीं थी, फिर भी बाजे - गाजे के साथ भजन - कीर्तन, जय - जयकार करते हुए चावडी पहुचने में काफी समय लग जाता था! नर-नारी, और सभी भक्त एक अनोखे आनंद का अनुभव करते थे, शिर्डी में यह परम्परा आज भी चल रही है!

पालकी यात्रा के उद्देश्य पर यदि गंभीर रूप से विचार किया जाये तो उसके कुछ महत्वपूर्ण कारण मिलते है ! पालकी सद्भावना का प्रसार करती है, उसमे सब मिलकर चलते है, इसके द्वारा जातिगत तथा अन्य सभी प्रकार की विविधता तोड़ने की भावना जागृत होती है! इसके मूल में असली भाव समानता का है इस शोभायात्रा में सब सदभाव और आनंद भाव से जाते है! इसके द्वारा बाबा का नाम स्मरण और बाबा के प्रति प्रेम का अनुभव होता है! गुरु का नाम, कीर्तन और श्रवण करने एवं बाबा का स्वरुप (फोटो) और बाबा की चरणपादुका लेकर चलने में गुरु के संग चलने का आनंद भाव उत्पन्न होता है और इससे अध्यात्मिक प्रगति होती है!



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Friday 28 February 2020

माँ तेरी बातों का मुझे एहसास आज भी है

ॐ सांई राम




माँ तेरी बातों का मुझे एहसास आज भी है
तेरे  होठों  से  निकला  एक-एक शब्द याद आज भी है

चाहे चली गयी हो इस दुनिया के लिए

पर माँ मेरे शरीर में तेरी रूह का वास आज भी है...

तेरे  क़दमों  में  मर मिटने की प्यास आज भी है

तेरी राह निहारने के लिए मुझमे सांस आज भी है

जब तक हूँ जिन्दा तब तक याद करता रहूँगा माँ

किसी जनम में तो मिलोगी मुझसे ये विश्वास आज भी है


लड़ जाऊँगा दुनिया से तेरा नाम लेकर ये आस आज भी है

भूल नहीं सकता तुझको तेरी यादें मेरे पास आज भी है

जरूरत ही नहीं मुझे किसी भगवान की

क्योंकि रहता मेरे साथ तेरा आशीर्वाद आज भी है


बाबा साईं मेरी माँ का ख्याल रखना.......

जय साईं माँ


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Thursday 27 February 2020

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 40 - श्री साईबाबा की कथाएँ

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साँईं-वार  और होली के रंग भरे पावन पर्व की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 40 - श्री साईबाबा की कथाएँ
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1. श्री. बी. व्ही. देव की माता के उघापन उत्सव में सम्मिलित होना, और
2. हेमाडपंत के भोजन-समारोह में चित्र के रुप में प्रगट होना ।

इस अध्याय में दो कथाओं का वर्णन है

1. बाबा किस प्रकार श्रीमान् देव की मां के यहाँ उघापन में सम्मिलित हुए । और
2. बाबा किस प्रकार होली त्यौहार के भोजन समारोह के अवसर पर बाँद्रा में हेमाडपंत के गृह पधारे ।



प्रस्तावना
..........

श्री साई समर्थ धन्य है, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है । वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते है और भक्तों को अपनी जीवन ध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें सुखी बनाते है । श्री साई अपना वरद हस्त भक्तों के सिर पर रखकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते है । वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराते है । भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते है और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते है । वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते है, जैसे वर्षाऋतु में समुद्र नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है । इससे यह सिदृ होता है कि जो भक्तों की लीलाओं का गुणगान करते है, वे ईश्वर को उन लोगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रिय है, जो बिना किसी मध्यस्थ के ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करते है ।



श्री मती देव का उघापन उत्सव
...............................

श्री. बी. व्ही. देव डहाणू (जिला ठाणे) में मामलतदार थे । उनकी माता ने लगभग पच्चीस या तीस व्रत लिये थे, इसलिये अब उनका उघापन करना आवश्यक था । उघापन के साथ-साथ सौ-दो सौ ब्राहमणों का भोजन भी होने वाला था । श्री देव ने एक तिथि निश्चित कर बापूसाहेब जोग को एक पत्र शिरडी भेजा । उसमें उन्होंने लिखा कि तुम मेरी ओर से श्री साईबाबा को उघापन और भोजन में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे देना और उनसे प्रार्थना करना कि उनकी अनुपस्थिति में उत्सव अपूर्ण ही रहेगा । मुझे पूर्ण आशा है कि वे अवश्य डहाणू पधार कर दास को कृतार्थ करेंगे । बापूसाहेब जोग ने बाबा को वह पत्र पढ़कर सुनाया । उन्होंने उसे ध्यानपूर्वक सुना और शुदृ हृदय से प्रेषित निमंत्रण जानकर वे कहने लगे कि जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है । मुझे यात्रा के लिये कोई भी साधन – गाड़ी, ताँगा या विमान की आवश्यकता नहीं है । मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ । उसे एक सुखद पत्र भेज दो कि मैं और दो व्यक्तियों के साथ अवश्य आऊँगा । जो कुछ बाबा ने कहा था, जोग ने श्री. देव को पत्र में लिखकर भेज दिया । पत्र पढ़कर देव को बहुत प्रसन्नता हुई, परन्तु उन्हें ज्ञात था कि बाबा केवल राहाता, रुई और नीमगाँव के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं जाते है । फिर उन्हें विचार आया कि उनके लिये क्या असंभव है । उनकी जीवनी अपार चमत्कारों से भरी हुई है । वे तो सर्वव्यापी है । वे किसी भी वेश में अनायास ही प्रगट होकर अपना वचन पूर्ण कर सकते है । उघापन के कुछ दिन पूर्व एक सन्यासी डहाणू स्टेशन पर उतरा, जो बंगाली सन्यासियों के समान वेशभूषा धारण किये हुये था । दूर से देखने में ऐसा प्रतीत होता था कि वह गौरक्षा संस्था का स्वंयसेवक है । वह सीधा स्टेशनमास्टर के पास गया और उनसे चंदे के लिये निवेदन करने लगा । स्टेशनमास्टर ने उसे सलाह दी कि तुम यहाँ के मामलेदार के पास जाओ और उनकी सहायता से ही तुम यथेष्ठ चंदा प्राप्त कर सकोगे । ठीक उसी समय मामलेदार भी वहाँ पहुँच गये । तब स्टेशन मास्टर ने सन्यासी का परिचय उनसे कराया और वे दोनों स्टेशन के प्लेटफाँर्म पर बैठे वार्तालाप करते रहे । मामलेदार ने बताया कि यहाँ के प्रमुख नागरिक श्री. रावसाहेब नरोत्तम सेठी ने धर्मार्थ कार्य के निमित्त चन्दा एकत्र करने की एक नामावली बनाई है । अतः अब एक और दूसरीनामावली बनाना कुछ उचित सा प्रतीत नहीं होता । इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि आप दो-चार माह के पश्चात पुनः यहाँ दर्शन दे । यह सुनकर सन्यासी वहाँ से चला गया और एक माह पश्चात श्री. देव के घर के सामने ताँगे से उतरा । तब उसे देखकर देव ने मन ही मन सोचा कि वह चन्दा माँगने ही आया है । उसने श्री. देव को कार्यव्यस्त देखकर उनसे कहा श्रीमान् । मैं चन्दे के निमित्त नही, वरन् भोजन करने के लिये आया हूँ ।

देव ने कहा बहुत आनन्द की बात है, आपका सहर्ष स्वागत है ।

सन्यासी – मेरे साथ दो बालक और है ।

देव – तो कृपया उन्हें भी साथ ले आइये ।

भोजन में अभी दो घण्टे का विलम्ब था । इसलिये देव ने पूछा – यदि आज्ञा हो तो मैं किसी को उनको बुलाने को भेज दूँ ।

सन्यासी – आप चिंता न करें, मैं निश्चित समय पर उपस्थित हो जाऊँगा ।

देव ने उने दोपहर में पधारने की प्रार्थना की । ठीक 12 बजे दोपहर को तीन मूर्तियाँ वहाँ पहुँची और भोज में सम्मिलित होकर भोजन करके वहाँ से चली गई ।


उत्सव समाप्त होने पर देव ने बापूसाहेब जोग को पत्र में उलाहना देते हुए बाबा पर वचन-भंग करने का आरोप लगाया । जोग वह पत्र लेकर बाबा के पास गये, परन्तु पत्र पढ़ने के पूर्व ही बाबा उनसे कहने लगे – अरे । मैंने वहाँ जाने का वचन दिया था तो मैंने उसे धोखा नहीं दिया । उसे सूचित करो कि मैं अन्य दो व्यक्तियों के साथ भोजन में उपस्थित था, परन्तु जब वह मुझे पहचान ही न सका, तब निमंत्रम देने का कष्ट ही क्यों उठाया था । उसे लिखो कि उसने सोचा होगा कि वह सन्यासी चन्दा माँगने आया है । परन्तु क्या मैंने उसका सन्देह दूर नहीं कर दिया था कि दो अन्य व्यक्तियों के सात मैं भोजन के लिये आऊँगा और क्या वे त्रिमूर्तियाँ ठीक समय पर भोजन में सम्मिलित नहीं हुई देखो । मैं अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूँगा । मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगें । इस उत्तर से जोग के हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने पूर्ण उत्तर लिखकर देव को भेज दिया । जब देव ने उत्तर पढ़ा तो उनकी आँखों से अश्रुधाराँए प्रवाहित होने लगी । उन्हें अपने आप पर बड़ा क्रोध आ रहा था कि मैंने व्यर्थ ही बाबा पर दोषारोपण किया । वे आश्चर्यचकित से हो गये कि किस तरह मैंने सन्यासी की पूर्व यात्रा से धोखा खाया, जो कि चन्दा माँगने आया था और सन्यासी के शब्दों का अर्थ भी न समझ पाया कि अन्य दो व्यक्तियों के साथ मैं भोजन को आऊँगा ।
इस कथा से विदित होता है कि जब भक्त अनन्य भाव से सदगुरु की सरण में आता है, तभी उसे अनुभव होने लगता है कि उसके सब धार्मिक कृत्य उत्तम प्रकार से चलते और निर्विघ्र समाप्त होते रहते है ।


हेमाडपन्त का होली त्यौहार पर भोजन-समारोह
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अब हम एक दूसरी कथा ले, जिसमें बतलाया गया है कि बाबा ने किस प्रकार चित्र के रुप में प्रगट हो कर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण की ।

सन् 1917 में होली पूर्णिमा के दिन हेमाडपंत को एक स्वप्न हुआ । बाबा उन्हें एक सन्यासी के वेश में दिखे और उन्होंने हेमाडपंत को जगाकर कहा कि मैं आज दोपहर को तुम्हारे यहाँ भोजन करने आऊँगा । जागृत करना भी स्वप्न का एक भाग ही था । परन्तु जब उनकी निद्रा सचमुच में भंग हुई तो उन्हें न तो बाबा और न कोई अन्य सन्यासी ही दिखाई दिया । वे अपनी स्मृति दौड़ाने लगे और अब उन्हें सन्यासी के प्रत्येक शब्द की स्मृति हो आई । यघपि वे बाबा के सानिध्य का लाभ गत सात वर्षों से उठा रहे थे तथा उन्हीं का निरन्तर ध्यान किया करते थे, परन्तु यह कभी भी आशा न थी कि बाबा भी कभी उनके घर पधार कर भोजन कर उन्हें कृतार्थ करेंगे । बाबाके शब्दों से अति हर्षित होते हुए वे अपनी पत्नी के समीप गये और कहा कि आज होली का दिन है । एक सन्यासी अतिथि भोजन के लिये अपने यहाँ पधारेंगे । इसलिये भात थोड़ा अधिक बनाना । उनकी पत्नी ने अतिथि के सम्बन्ध में पूछताछ की । प्रत्युत्तर में हेमाडपंत ने बात गुप्त न रखकर स्वप्न का वृतान्त सत्य-सत्य बतला दिया । तब वे सन्देहपूर्वक पूछने लगी कि क्या यह भी कभी संभव है कि वे शिरडी के उत्तम पकवान त्यागकर इतनी दूर बान्द्रा में अपना रुखा-सूका भोजन करने को पधारेंगे । हेमाडपंत ने विश्वास दिलाया कि उनके लिये क्या असंभव है । हो सकता है, वे स्वयं न आयें और कोई अन्य स्वरुप धारण कर पधारे । इस कारण थोड़ा अधिक भात बनाने में हानि ही क्या है । इसके उपरान्त भोजन की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई । दो पंक्तियाँ बनाई गई और बीच मे अतिथिके लिये स्थान छोड़ दिया गया । घर के सभी कुटुम्बी-पुत्र, नाती, लड़कियाँ, दामाद इत्यादि ने अपना-अपना स्थान ग्रहम कर लिया और भोजन परोसना भी प्रारम्भ हो गया । जब भोजन परोसा जा रहा था तो प्रत्येक व्यक्ति उस अज्ञात अतिथि की उत्सुकतापूर्वक राह देख रहा था । जब मध्याहृ भी हो गया और कोई भी न आया, तब द्घार बन्द कर साँकल चढ़ा दी गई । अन्न शुद्घि के लिये घृत वितरण हुआ, जो कि भोजन प्रारम्भ करने का संकेत है । वैश्वदेव (अग्नि) को औपचारिक आहुति देकर श्रीकृष्ण को नैवेघ अर्पण किया गया । फिर सभी लोग जैसे ही भोजन प्रारम्भ करने वाले थे कि इतने में सीढ़ी पर किसी के चढ़ने की आहट स्पष्ट आने लगी । हेमाडपंत ने शीघ्र उठकर साँकल खोली और दो व्यक्तियों

1. अली मुहम्मद और

2. मौलाना इस्मू मुजावर को द्गार पर खड़े हुए पाया ।

इन लोगों ने जब देखा कि भोजन परोसा जा चुका है और केवल प्रारम्भ करना ही शेष है तो उन्होंने विनीत भाव में कहा कि आपको बड़ी असुविधा हुई, इसके लिये हम क्षमाप्रार्थी है । आप अपनी थाली छोड़कर दौड़े आये है तथा अन्य लोग भी आपकी प्रतीक्षा में है, इसलिये आप अपनी यह संपदा सँभालिये । इससे सम्बन्धित आश्चर्यजनक घटना किसी अन्य सुविधाजनक अवसर पर सुनायेंगें – ऐसा कहकर उन्होंने पुराने समाचार पत्रों में लिपटा हुआ एक पैकिट निकालकर उसे खोलकर मेज पर रख दिया । कागज के आवरण को ज्यों ही हेमाडपंत ने हटाया तो उन्हें बाबा का एक बड़ा सुन्दर चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ । बाबा का चित्र देखकर वे द्रवित हो गये । उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी और उनके समूचे शरीर में रोमांच हो आया । उनका मस्तक बाबा के श्री चरणों पर झुक गया । वे सोचने लगे किबाबा ने इस लीला के रुप में ही मुझे आर्शीवाद दिया है । कौतूहलवश उन्होंने अली मुहम्मद से प्रश्न किया कि बाबा का यह मनोहर चित्र आपको कहाँ से प्राप्त हुआ । उन्होंने बताया कि मैंने इसे एक दुकान से खरीदा था । इसका पूर्ण विवरण मैं किसी अन्य समय के लिये शेष रखता हूँ । कृपया आप अब भोजन कीजिए, क्योंकि सभी आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे है । हेमाडपंत ने उन्हें धन्यवाद देकर नमस्कार किया और भोजन गृह में आकर अतिथि के स्थान पर चित्र कोमध्य में रखा तथा विधिपूर्वक नैवेघ अर्पम किया । सब लोगों ने ठीक समय पर भोजन प्रारम्भ कर दिया । चित्र में बाबा का सुन्दर मनोहर रुप देखकर प्रत्येक व्यक्ति को प्रसन्नता होने लगी और इस घटना पर आश्चर्य भी हुआ कि वह सब कैसे घटित हुआ । इस प्रकार बाबा ने हेमाडपंत को स्वप्न में दिये गये अपने वचनों को पूर्ण किया ।

इस चित्र की कथा का पूर्ण विवरण, अर्थात् अली मुहम्मद को चित्र कैसे प्राप्त हुआ और किस कारण से उन्होंने उसे लाकर हेमा़डपंत को भेंट किया, इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Wednesday 26 February 2020

साईं नाथ दया करना इतनी, नित नाम तुम्हारा उच्चार करूँ!

ॐ सांई राम



साईं नाथ दया करना इतनी,
नित नाम तुम्हारा उच्चार करूँ!

बिठाके तुम्हे मन मंदिर में,
दिव्य रूप तुम्हारा निहारा करूँ!
भर के भृग पांतो में प्रेम का जल,
पद पंकज नाथ पखारा करूँ!
मृदु मंजुल भावो की माला बना,
तेरी पूजा के साज संवारा करूँ!

साईं नाथ दया करना इतनी,
नित नाम तुम्हारा उच्चार करूँ!

बनूँ प्रेम पुजारी मैं तुम्हारा प्रभु,
तुम्हारी आरती भव्य उत्तारा करूँ!
तेरे नाम की माला हे साईं,
मन के मनको पे फिराया करूँ!

साईं नाथ दया करना इतनी,
नित नाम तुम्हारा उच्चार करूँ!

तुम आओ न आओ यहाँ साईं,
दिन रात में तुम्हे बुलाया करूँ!
जिस पथ पर पाँव धरे तुमने,
पलके उस पथ पे बिछाया करूँ!

साईं नाथ दया करना इतनी,
नित नाम तुम्हारा उच्चार करूँ!


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Tuesday 25 February 2020

कर्मों का फल तो बंदे तुझे भोगना पड़ेगा

ॐ सांँई राम जी


कर्म हो पिछले जन्म के, या इस जन्म कमायें |
लेखा झोखा कर्मों का, हर प्राणी पूर्ण निभाये |

कष्ट लिखे जो भाग्य में, उसको सहता जाये |
प्राणी वो ही सफल है, जो पूर्ण जीवन बिताये |

अपना जीवन अपने हाथो, कभी ना स्वयं गवायें |
आत्महत्या महापाप है, साँई जी ये बतलाये |

कष्टों से हो के परेशान, गर जीवन तू गवाँये |
वही कष्ट फिर पुनर्जन्म, तेरे पीछे पीछे आये |

बाबा जी का नित्य ही, मन में स्मरण लाये |
इस मामूली परिश्रम से, आनन्दी फल पाये |

सात समुद्र पार के भी, भक्तों को खींचे जाये |
पाँव बंधे चिड़िया के जैसे, और खींची चली आये |

प्रति तीजे दिन साँई जी, मस्जिद से दूरी पर जाये |
आँतें उदर से बाहर कर, धौने में लग जाये |

आँतों को कर साफ फिर, बरगद पर रहे सुखाये |
इस क्रिया के साक्षी कई, शिर्डी मे आज भी पाये |

एक रोज एक महाशय, जब द्वारिकामाई आये |
बाबा जी के अंगो को, पृथक पृथक वह पाये |

साँई का हो गया कत्ल, सोचा ये शोर मचाये |
पर सूचना देने वाला ही, पहले पकड़ा जाये |

ये सोच कर महाशय जी, बस चुप्पी साधे जाये |
अगले दिन मस्जिद गये, बाबा को स्वस्थ वह पाये |

बाबा को भक्तों के संग, देख के वह चकराये |
जो देखा आँखो से कल, कहीं स्वपन तो नही आये |

Monday 24 February 2020

जो प्यार तुम हमसे करते हो तो मिलने आना बाबा जी,

ॐ सांई राम




जो  प्यार  तुम  हमसे  करते  हो  तो  मिलने  आना  बाबा  जी, 
बस  ध्यान  रहे  इस  बात  का  साईं  भूल  न  जाना  बाबा  जीमैं  देखना  चाहूँ  उसी  तरह  जो  रूप  मेरे  मन  में  है  बसा कांधे पर  झोली  लटकी  हो  और  सर  पे  साईं  पटका  कसा एक  हाथ  में  साथ  हो  साईं  एक  हाथ  में  कांसा  बाबा  जी दाड़ी हो  प्यारी  चेहरे  पर  मूछों  की  बात  निराली  हो करूणा हो  साईं  आँखों  में  हर  दुआ  की  बात  निराली  हो तुम  बोलो  तो  अमृत  बरसे  पर  लगे  हमें  की  दिवाली  हो तुम  सबकी  झोली  भर  देना  जिसकी  भी  झोली  खाली  हो बस  ध्यान  रहे इस  बात  का  साईं  भूल  न  जाना  बाबा  जी
जय साईं  नाथ

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Sunday 23 February 2020

जीने को तो सब जीते है, पर... सांई के संग की बात निराली है.

ॐ सांई राम




 

कितनी भी ये दुनिया हसीं हो, सांई के दर की बात निराली,
जीने को तो सब जीते है,
पर... सांई के संग की बात निराली है...
...प्रीत लगी तोहे नाम की,
मोहे मिलो तो आ कर सांई...
मेरे अंग संग आप सहाई
मेरे साईं साईं साईं
तुझे पा कर खुशियाँ पायी
मेरे साईं साईं साईं
मेरे घर विच रौनक छाई
मेरे साईं साईं साईं
मेरे अंग संग आप सहाई
मेरे साईं साईं साईं
तुने बिगड़ी मेरी बनाई 

मेरे अंग संग आप सहाई

मेरे साईं साईं साईं

तू ही मेरा पिता

मेरे साईं साईं साईं
तू ही मेरी माई

मेरे साईं साईं साईं

तू ही मेरा सखा


मेरे साईं साईं साईं
तू ही है मेरा भाई
मेरे साईं साईं साईं
मेरे अंग संग आप सहाई
मेरे साईं साईं साईं
तुझे पा कर खुशियाँ पायी
मेरे साईं साईं साईं
मेरे घर विच रौनक छाई
मेरे साईं साईं साई


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Saturday 22 February 2020

युग बदले रंग बदले नहीं बदले मेरे साईं

ॐ सांई राम




युग  बदले  रंग  बदले  नहीं  बदले  मेरे  साईं
और  किसी  का  प्यार  न  माँगा  जब  प्रीत  साईं  से  लगाई

साईं  मेरे  तन  मन  में  हैं  साईं  ही   मेरी  आत्मा
किस्मत  मेरी  का  क्या  कहना  जो  मिला  ये  परमात्मा 

साईं  भक्ति  साईं  सुमिरन  यही  है  जीवन  की  कमाई
साईं  साईं  जपूँ  हरदम   साईं  भजन  ही  गाऊं

साईं  अपनी  दया  करे  तो  में  शिर्डी  जल्दी  जाऊं 
मुझे  मत  कहो  में  अकेली  हूँ   मेरे  साथ  है  साईं 

जिसके  साथ  है  साईं  उसके  साथ  सारी  खुदाई
युग  बदले  रंग  बदले  नहीं  बदले  मेरे  साईं

दुनियाँ  की  दौलत  का  क्या  करना  जब  साईं  है  पास  मेरे 
किसी  और  की  चिंता  में  मन  क्यूँ  भटके  जब  साईं  है  एहसास  मेरे 

ये  सारी  दुनियाँ  बस  एक  साईं  नाम  में  हे  समाई 
युग  बदले  रंग  बदले  नहीं  बदले  मेरे  साई
ॐ सांई राम
-: आज का साईं सन्देश :-
शिर्डी में सब ही बसें,
निर्धन और धनवान |
साईं के दरबार में,
सब पावें सम्मान ||

जीव,जंतु,जन धन्य हैं,
शिर्डी जन्म लिवाय |
साईं चरनन धूरि जब,
मस्तक पर लग जाय ||
 
बाबा की कृपा हम सब पर बनी रहे |

  
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Friday 21 February 2020

साईं वे साईं प्रीत करके निभाई,

ॐ सांई राम



साईं वे साईं प्रीत करके निभाई,
दिल कदे न तू दुखाई,
भूलके तू सानूँ ना भुलाई,

तेरेयाँ विछोड़ेयाँ दी,
मार सही जावे ना,
पीड़ एह जुदाइयां वाली,
मुहो कई जावे ना,
साईं वे साईं वेखी दूरी ना पाई,
अपने नेडे तू वसाई,
भूलके वि सानु ना भुलाईं,

साड़ियाँ उदास्सियाँ ते जग वाले हसदे,
तीर तीखे तानेयाँ दे हस हस कस्दे,
साईं वे साईं किदरे हँसा ना बनाईं,
जग हसाई तो बच्चाईं,
भूलके वि सानूँ ना भुलाईं,

सच्चे साहेबा वे तेनु वास्ता है प्यार दा,
हर वेले दिल तैनू वाजाँ पया मारदा,
साईं वे साईं वे उडीकां ना कराई,
जद वि सदीये छेत्ती आई,

हन्जुन दे हार साडे गले विच पाके,
दस कि मिलदा हैं सानूँ तडपा के,
साईं वे साईं आज़माइश ना कराईं,
पर्दे ऐबां उत्ते पाई,
भूलके वि सानूँ ना भुलाईं,

अपने प्यारेयाँ नु इन्झ नहीं सताइदा,
सीने नाल लाके बोता प्यार जताइदा,
साईं वे साईं बेकरारी ना वधाई,
चैन बनके आई जाईं,
भूलके वि सानूँ ना भुलाईं,

बच्चेयां निमानेयाँ दा मान तुहियो मालका,
रुढ पूढ जानेयाँ दी शान तुहियो मालका,
साईं वे लाज बच्चें दी बचाईं,
वेखी नीवां ना बनाई,
भूलके वि सानूँ ना भुलाईं,

साईं वे साईं प्रीत करके निभाई,
दिल कदे न तू दुखाई,
भूलके तू सानूँ ना भुलाई,

साईं साईं साईं साईं साईं !


ॐ सांई राम
-: आज का साईं सन्देश :-

बाबाजी मस्जिद रहें,
कभी चावड़ी जाय |
वायु सेवन के लिये,
बगिया में आ जाय ||

दया और करुणामयी,
बाबा सुख पहुंचाय |
शिर्डी पावन हो गई,
सद्गुरु साईं पाय ||

बाबा की कृपा हम सब पर बनी रहे |



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Thursday 20 February 2020

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 39 - बाबा का संस्कृत ज्ञान

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 39 - बाबा का संस्कृत ज्ञान
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गीता के एक श्लोक की बाबा द्घारा टीका, समाधि मन्दिर का निर्माण ।

इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है । कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी । इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है । दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है ।


प्रस्तावना
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शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है । श्री द्घारिकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास कियाऔर वहीं समाधिस्थ हुए ।

शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया ।

शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अभिन्न विश्वास के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी ।


बाबा द्वारा टीका
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किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है । एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया । इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बीय व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है । इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है । ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्घारा रचित है । श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्घारा रचित पुस्तक के भक्तों के अनुभव, भाग 3 में छापा गया है । श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्घान विघार्थियों में से एक थे । उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था । उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है । इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया । यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे । बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे ।


नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे ।

बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो ।
नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ ।
बाबा – कौन सा श्लोक है वह ।
नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है ।
बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो ।
तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे ः-

“तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“

बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है ।
नाना – जी, महाराज ।
बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ ।
नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्घारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सद्घस्तु (ब्रहम्) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें ।

बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता । मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ ।

अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे ।
बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है ।
नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं प्रणिपात का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता ।
बाबा – परिप्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – प्रश्न पूछना ।
बाबा – प्रश्न का क्या अर्थ है ।
नाना – वही (प्रश्न पूछना) ।
बाबा – यदि परिप्रश्न और प्रश्न दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने परिउपसर्ग का प्रयोग क्यों किया क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी ।
नाना – मुझे तो परिप्रश्न का अन्य अर्थ विदित नहीं है ।
बाबा – सेवा । किस प्रकार की सेवा से यहाँ आशय है ।
नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है ।
बाबा – क्या यह सेवा पर्याप्त है ।
नाना – और इससे अधिक सेवा का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है ।
बाबा – दूसरी पंक्ति के उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो ।
नाना – जी हाँ ।
बाबा – कौन सा शब्द ।
नाना – अज्ञानम् ।
बाबा – ज्ञानं के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है ।
नाना - जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है ।
बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ । यदि अज्ञान शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है ।
नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें अज्ञान शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा ।
बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था । क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे । वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप ।
नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा ।
बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया ।

अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे ।

1. ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है । हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये ।

2. केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये ।

3. मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है ौर केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विघमान है ।

इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्घारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है । नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार अज्ञान की शिक्षा देते है ।

बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है । अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन । यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो । वह इसी प्रकार है । गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है ) । अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्घैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्घैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्घैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्घैत स्थिति प्राप्त हने का लक्षण है । द्घैत में रहकर अद्घैत की चर्चा कौन कर सकता है । जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है ।

शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है । उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्घितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है । सदगुरु निर्गुण निराार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है । गीता का अध्याय 5 देखो । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः । जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि मैं जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और अस्सहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ, गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में मैं ही ईश्वर हूँ । सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है । यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया । वह अज्ञान कहाँ है और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है ।



अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –
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1. मैं एक जीव (प्राणी) हूँ ।
2. शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ)
3. ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है ।
4. मैं ईश्वर नहीं हूँ ।
5. शरीर आत्मा नहीं है, इसका अबोध ।
6. इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है ।

जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है, उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है । इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही अज्ञान का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है । उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है ।

बाबा ने आगे कहा –

1. प्रणिपात का अर्थ है शरणागति ।
2. शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) ।
3. कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है । सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है । (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा ।
(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विघमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया ।



समाधि-मन्दिर का निर्माण
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बाबा जो कुछ करना चाहते थे, उसकी चर्चा वे कभी नहीं करते थे, प्रत्युत् आसपास ऐसा वातावरण और परिस्थिति निर्माण कर देते थे कि लोगों को उनका मंथर, परन्तु निश्चित परिणाम देखकर बड़ा अचम्भा होता था । समाधि-मन्दिर इस विषय का उदाहरण है । नागपुर के प्रसिद्घ लक्षाधिपति श्रीमान् बापूसाहेब बूटी सहकुटुम्ब शिरडी में रहते थे । एक बार उन्हें विचार आया कि शिरडी में स्वयं का एक वाड़ा होना चाहिए । कुछ समय के पश्चात जब वे दीक्षित वाड़े में निद्रा ले रहे थे तो उन्हें एक स्वप्न हुआ । बाबा ने स्वप्न में आकर उनसे कहा कि तुम अपना एक वाड़ा और एक मन्दिर बनवाओ । शामा भी वहीं शयन कर रहा था और उसने भी ठीक वैसा ही स्वप्न देखा । बापूसाहेब जब उठे तो उन्होंने शामा को रुदन करते देखकर उससे रोने का कारण पूछा ।



तब शामा कहने लगा –

अभी-अभी मुझे एक स्वप्न आया था कि बाबा मेरे बिलकुल समीप आये और स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि मन्दिर के साथ वाड़ा बनवाओ । मैं समस्त भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण करुँगा । बाबा के मधुर और प्रेमपूर्ण शब्द सुनकर मेरा प्रेम उमड़ पड़ा तथा गला रुँध गया और मेरी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी । इसलिये मैं जोर से रोने लगा । बापूसाहेब बूटी को आश्चर्य हुआ कि दोनों के स्वप्न एक से ही है । धनाढ्य तो वे थे ही, उन्होंने वाड़ा निर्माण करने का निश्चय कर लिया और शामा के साथ बैठकर एक नक्शा खींचा । काकासाहेब दीक्षित ने भी उसे स्वीकृत किया और जब नक्शा बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने भी तुरंत स्वीकृति दे दी । तब निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया और शामा की देखरेख में नीचे मंजिल, तहखाना और कुआँ बनकर तैयार हो गया । बाबा भी लेंडी को आते-जाते समय परामर्श दे दिया करते थे । आगे यतह कार्य बापूसाहेब जोग को सौंप दिया गया । जब कार्य इसी तरह चल ही रहा था, उसी समय बापूसाहेब जोग को एक विचार आया कि कुछ खुला स्थान भी अवश्य होना चाहिये, बीचोंबीच मुरलीधर की मूर्ति की भी स्थापना की जाय । उन्होंने अपना विचार शामा को प्रकट किया तता बाबा से अनुमति प्राप्त करने को कहा । जब बाबा वाड़े के पास से जा रहे थे, तभी शामा ने बाबा से प्रश्न कर दिया । शामा का प्रश्न सुनकर बाबा ने स्वीकृति देते हुए कहा कि जब मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जायगा, तब मैं स्वयं वहाँ निवास करुँगा, और वाड़े की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा जब वाड़ा सम्पूर्ण बन जायगा, तब हम सब लोग उसका उपभोग करेंगे । वहीं रहेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे और एक दूसरे को हृदय से लगायेंगे तथा आनन्दपूर्वक विचरेंगे । जब शामा ने बाबा से पूछा कि क्या यह मूर्ति के मध्य कक्ष की नींव के कार्य आरम्भ का शुभ मुहूर्त्त है । तब उन्होंने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया । तभी शामा ने एक नारियल लाकर फोड़ा और कार्य प्रारम्भ कर दिया । ठीक समय में सब कार्य पूर्ण हो गया और मुरलीधर की एक सुन्दर मूर्ति बनवाने का प्रबन्ध किया गया । अभी उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ भी न हो पाया था कि एक नवीन घटना घटित हो गई । बाबा की स्थिति चिंताजक हो गई और ऐसा दिखने लगा कि वे अब देह त्याग देंगे । बापूसाहेब बहुत उदास और निराश से हो गये । उन्होंने सोचा कि यदि बाबा चले गये तो बाड़ा उनके पवित्र चरण-स्पर्श से वंचित रह जायगा और मेरा सब (लगभग एक लाख) रुपया व्यर्थ ही जायेगा, परन्तु अंतिम समय बाबा के श्री मुख से निकले हुए वचनों ने (मुझे बाड़े में ही रखना) केवल बूटीसाहेब को ही सान्त्वना नहीं पहुँचाई, वरन् अन्य लोगों को भी शांति मिली । कुछ समय के पश्चात् बाबा का पवित्र शरीर मुरलीधर की मूर्ति के स्थान पर रख दिया गया । बाबा स्वयं मुरलीधर बन गये और वाड़ा साईबाबा का समाधि मंदिर । उनकी अगाध लीलाओं की थाह कोई न पा सका । श्री. बापूसाहेब बूटी धन्य है, जिनके वाड़े में बाबा का दिव्य और पवित्र पार्थिव शरीर अब विश्राम कर रहा है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday 19 February 2020

श्री सच्चिदानन्द सद्गुरु साईनाथ महाराज की जय...

ॐ सांई राम



श्री सच्चिदानन्द सद्गुरु साईनाथ महाराज की जय...
॥ॐ श्री साईं नाथाय नमः॥


हे प्रभु आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये
लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें
निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें,
ईर्ष्या कभी भी हम किसीसे भूल कर भी न करें
सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें,
दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें
जाये हमारी आयु हे प्रभु लोक के उपकार में,
हाथ ड़ालें हम कभी न भूलकर अपकार में
मातृभूमि मातृसेवा हो अधिक प्यारी हमें,
देश की सेवा करें निज देश हितकारी बनें
कीजिये हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा,
प्रेम से हम दुःखीजनों की नित्य सेवा करें
हे प्रभु आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये

॥ॐ श्री साईं नाथाय नमः॥

Tuesday 18 February 2020

गुरु की आवश्यकता

ॐ सांई राम



गुरु की आवश्यकता


हमे अपनी जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों पड़ती है इसका उत्तर स्वयं बाबा जी ने इस प्रकार दिया था



बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी । बाबा ने स्वीकृति दे दी । 


किसी ने बाबाजी से प्रशन किया – बाबा, कहाँ जायें । 

उत्तर मिला – ऊपर जाओ । 

प्रशन – मार्ग कैसा है । 

बाबा – अनेक पंथ है । यहाँ से भी एक मार्ग है । परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है । 

काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो । 

बाबा – तब कोई कष्ट न होगा । मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्रढे में गिर जाने की सम्भावना है । दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है । प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उपदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था । इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रधा और धैर्य-ये ही दो गुण सहायक हैं ।


यदि हम अपने जीवन (खुदको) गुरु को समर्पण कर देते है तो गुरु हमे हर कठिनाइयों से बच्चाते है और हर कदम पैर हमें सही राह दिखाते है, बिना गुरु के जीवन व्यर्थ  है, सिर्फ मानव योनी ही है जिसमे हम गुरु को पा सकते है और किसी योनी में हम गुरु का साथ नहीं पा सकते इसीलिए अपने मानव जीवन को व्यर्थ न करके इसे (खुदको) गुरु के चरणों समर्पित कर देना चाहिए और अपने गुरु के वचनों का पालन करना चाहिए! 

साईं कृपा सदा हम सब पर बनी रहे !

Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,
This is also a kind of SEWA.

For Donation

For donation of Fund/ Food/ Clothes (New/ Used), for needy people specially leprosy patients' society and for the marriage of orphan girls, as they are totally depended on us.

For Donations, Our bank Details are as follows :

A/c - Title -Shirdi Ke Sai Baba Group

A/c. No - 200003513754 / IFSC - INDB0000036

IndusInd Bank Ltd, N - 10 / 11, Sec - 18, Noida - 201301,

Gautam Budh Nagar, Uttar Pradesh. INDIA.

बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.