शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Thursday, 31 December 2020

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 36

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.) की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 36

आश्चर्यजनक कथायें, गोवा के दो सज्जन और श्रीमती औरंगाबादकर ।

इस अध्याय में गोवा के दो महानुभावों और श्रीमती औरंगाबादकर की अदभुत कथाओं का वर्णन है ।



गोवा के दो महानुभाव

एक समय गोवा से दो महानुभाव श्री साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये । उन्होंने आकर उन्हें नमस्कार किया । यघपि वे दोनों एक साथ ही आये थे, फिर भी बाबा ने केवल एक ही व्यक्ति से पन्द्रह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्हें आदर सहित दे दी गई । दूसरा व्यक्ति भी उन्हें सहर्ष 35 रुपये दक्षिणा देने लगा तो उन्होंने उसकी दक्षिणा लेना अस्वीकार कर दिया । लोगों को बड़ा आर्श्चय हुआ । उस समय शामा भी वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने कहा कि देवा । यह क्या, ये दोनों एक साथ ही तो आये है । इनमें से एक की दक्षिणा तो आप स्वीकार करते है और दूसरा जो अपनी इच्छा से भेंट दे रहा है, उसे अस्वीकृत कर रहे है । यह भेद क्यों । तब बाबा ने उत्तर दिया कि शामा । तुम नादान हो । मैं किसी से कभी कुछ नहीं लेता । यह तो मसजिद माई ही अपना ऋण माँगती है और इसलिये देने वाला अपना ऋण चुकता कर मुक्त हो जाता है । क्या मेरे कोई घर, सम्पत्ति या बाल-बच्चे है, जिनके लिये मुझे चिन्ता हो । मुझे तो किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । मैं तो सदा स्वतंत्र हूँ । ऋण, शत्रुता तथा हत्या इन सबका प्रायश्चित अवश्य करना पड़ता है और इनसे किसी प्रकार भी चुटकारा संभव नहीं है । तब बाबा अपने विशेष ठंग से इस प्रकार कहने लगे । अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में ये महाशय निर्धन थे । इन्होंने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं एक माह का वेतन तुम्हें अर्पण करुँगा । इन्हें 15 रुपये माहवार की एक नौकरी मिल गई । फिर उत्तरोत्तर उन्नति होते होते 30, 60, 100, 200 और अन्त में 700 रुपये तक मासिक वेतन हो गया । परन्तु समृदघि पाकर ये अपना वचन भूल गये और उसे पूरा न कर सके । अब अपने शुभ कर्मों के ही प्रभाव से इन्हें यहाँ तक पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अतः मैंने इनसे केवल पन्द्रह रुपये ही दक्षिणा माँगी, जो इनके पहले माह की पगार थी ।

दूसरी कथा

समुद्र के किनारे घूमते-घूमते मैं एक भव्य महल के पास पहुँचा ौर उसकी दालान में विश्राम करने लगा । उस महल के ब्राहमण स्वामी ने मेरा यथोचित स्वागर कर मुझे बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ खाने को दिये । भोजन के उपरान्त उसने मुझे आलमारी के समीप एक स्वच्छ स्थान शयन के लिये बतला दिया और मैं वहीं सो गया । जब मैं प्रगाढ़ निद्रा में था तो उस व्यक्ति ने पत्थर खिसकाकर दीवाल में सेंध डाली और उसके द्घारा भीतर घुसकर उसने मेरी खीसा कतर लिया । निद्रा से उठने पर मैंने देखा कि मेरे तीस हजार रुपये चुरा लिये है । मैं बड़ी विपत्ति में पड़ गया और दुःखित होकर रोता बैठ गया । केवल नोट ही नोट चुरा लिये थे, इसलिये मैंने सोचा कि यह कार्य उस ब्राहमण के अतिरिक्त और किसी का नहीं है । मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा न लगा और मैं एक पखवाड़े तक दालान में ही बैठे बैठे चोरी का दुःख मनाता रहा । इस प्रकार पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मुझे दुःख से बिलखते देखकर मेरे रोने का कारण पूछा । तब मैंने सब हाल उससे कह सुनाया । उसने मुझसे कहा कि यदि तुम मेरे आदेशानुसार आचरण करोगे तो तुम्हारा चुराया धन वापस मिल जायेगा मैं एक फकीर का पता तुम्हें बताता हूँ । तुम उसकी शरण में जाओ और उसकी कृपा से तुम्हें तुम्हारा धन पुनः मिल जायेगा । परन्तु जब तक तुम्हें अपना धन वापस नहीं मिलता, उस समय तक तुम अपना प्रिय भोजन त्याग दो । मैंने उस फकीर का कहना मान लिया और मेरा चुराया धन मिल गया । तब मैं समुद्र तट पर आया, जहाँ एक जहाज खड़ा था, जो यात्रियों से ठसाठस भर चुक था । भाग्यवश वहाँ एक उदार प्रकृति वाले चपरासी की सहायता से मुझे एक स्थान मिल गया । इस प्रकार मैं दूसरे किनारे पर पहुँचा और वहाँ से मैं रेलगाड़ी में बैठकर मसजिद माई आ पहुँचा । कथा समाप्त होते ही बाबा ने शामा से इन अतिथियों को अपने साथ ले जाने और भोजन का प्रबन्ध करने को कहा । तब शामा उन्हें अपने घर लिवा ले गया और उन्हें भोजन कराया । भोजन करते समय शामा ने उनसे कहा कि बाबा की कहानी बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, क्योंकि न तो वे कभी समद्र की ओर गये है और न उनके पास तीस हजार रुपये ही थे । उन्होंने न कहीं भी यात्रा ही की, न उनकी कोई रकम ही चुरायी गई और न वापस आई । फिर शामा ने उन लोगों से पूछा कि आप लोगों को कुछ समझ में आया कि इसका अर्थ क्या था । दोनों अतिथियों की घिग्घियाँ बँध गई और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी । उन्होंने रोते-रोते कहा कि बाबा तो सर्वव्यापी, अनन्त और परब्रहमा स्वरुप है । जो कथा उन्होंने कही है, वह बिलकुल हमरी ही कहानी है और वह मेरे ऊपर बीत चुकी है । यह महान् आश्र्य है कि उन्हें यह सब कैसे ज्ञात हो गया । भोजन के उपरान्त हम इसका पूर्ण विवरण आपको सुनायेंगे ।

भोजन के पश्चात् पान खाते हुये उन्होंने अपनी कथा सुनाना प्रारम्भ कर दिया । उनमें से एक कहने लगा –
घाट में एक पहाड़ी स्थान पर हमारा निवास-स्थान है । मैं अपने जीवन-निर्वाह के लिये नौकरी ढूँढने गोवा आया था । तब मैंने भगवान दत्तात्रेय को वचन दिया था कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं तुम्हें एक माह की पगार भेंट चढ़ाऊँगा । उनकी कृपा से मुझे 15 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई और जैसा कि बाबा ने कहा, उसी प्रकार मेरी उन्नति हुई । मैं अपना वचन बिलकुल भूल गया था । बाबा ने उसकी स्मृति दिलायी और मुझसे 15 रुपये वसूल कर लिये । आप लोग इसे दक्षिणा न समझे । यह तो एक पुराने ऋण का भुगतान है तथा दीर्घकाल से भूली हुई प्रतिज्ञा आज पूर्ण हुई है ।

शिक्षा

यथार्थ में बाबा ने कभी किसी से पैसा नहीं माँगा और न ही अपने भक्तों को ही माँगने दिया । वे आध्यात्मिक उन्नति में कांचन को बाधक समझते थे और भक्तों को उसके पाश से सदैव बचाते रहते थे । भगत म्हालसापति इसके उदाहरणस्वरुप है । वे बहुत निर्धन थे और बड़ी कठिनाई से ही अपनी जीवन बिताते थे । बाबा उन्हें कभी पैसा माँगने नहीं देते थे और न ही वे अपने पास की दक्षिणा में से उन्हें कुछ देते थे । एक बार एक दयालु और सहृदय व्यापारी हंसराज ने बाबा की उपस्थिति में ही एक बड़ी रकम म्हालसापति को दी, परन्तु बाबा ने उनसे उसे अस्वीकार करने को कह दिया ।

अब दूसरा अतिथि अपनी कहानी सुनाने लगा । मेरे पास एक ब्राहमण रसोइया था, जो गत 35 वर्षों से ईमानदारी से मेरे पास काम करता आया था । बुरी लतों में पड़कर उसका मन पलट गया और उसने मेरे सब रुपये चोरी कर लिये । मेरी आलमारी दीवाल में लगी थी और जिस समय हम लोग गहरी नींद में थे, उसने पीछे से पत्थर हटाकर मेरे सब तीस हजार रुपयों के नोट चुरा लिये । मैं नही जानता कि बाबा को यह ठीक-ठीक धन-राशि कैसे ज्ञात हो गई । मैं दिन-रात रोता और दुःखी रहता था । एक दिन जब मैं इसी प्रकार निराश और उदास होकर बरामदे में बैठा था, उसी समय रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मेरी स्थिति जानकर मुझसे इसका कारण पूछा । मैंने उसे सब हाल सुनाया । तब उसने बताया कि कोपरगाँव तालुके के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक औलिया रहते है । उन्हें वचन दो तथा अपना रुचिकर भोज्य पदार्थ त्याग, मन में कहो कि जब तक मैं तुम्हारा दर्शन न कर लूँगा, उस पदार्थ को कदापि न खाऊँगा । तब मैंने चावल खाना छोड़ दिया और बाब को वचन दिया, बाबा । जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं होते तथा मेरी चुराई गई धन राथि नहीं मिलती, तब तक मैं चावल ग्रहण न करुँगा । इस प्रकार जब पन्द्रह दिन बीत गये, तब वह ब्राहमण स्वयं ही आया और सब धनराशि लौटाकर क्षमायाचनापूर्वक कहने लगा कि मेरी मति ही भ्रष्ट हो गयी थी, जो मुझसे आपका ऐसा अपराध बन गया है । मैं आपके पैर पड़ता हूँ । मुझे क्षमा करें । इस प्रकार सब ठीक-ठाक हो गया । जिस फकीर से मेरी भेंट हुई थी तथा जिसने मुझे सहायता पहुँचाई थी, वह फकीर फिर मेरे देखने में कभी नहीं आया । मेरे मन में श्रीसाईबाबा के दर्शन की, जिनके लिये फकीर ने मुझसे कहा था, बड़ी तीव्र उत्कंठा हुई । मैंने सोचा कि जो फकीर मेरे घर पर आया था, वह साईबाबा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता । जिन्होंने मुझे कृपाकर दर्शन दिये और मेरी इस प्रकार सहायता की । उन्हें 35 रुपये का लालच कैसे हो सकता था । इसके विपरीत वे अहेतुक ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर ले जाने का पूरा प्रत्यन करते है ।

जब चोरी गई राशि मुझे पुनः प्राप्त हो गई, तब मेरे हर्ष का पारावार न रहा । मरी बुद्घि भ्रमित हो गई और मैं अपना वचन भूल गया । कुलाबा मे एक रात्रि को मैंने साईबाबा को स्वप्न में देखा । तभी मुझे अपनी शिरडी यात्रा के वचन की स्मृति हो आई । मैं गोवा पहुँचा और वहाँ से एक स्टीमर द्घारा बम्बई पहुँच कर शिरडी जाना चाहता था । परन्तु जब मैं किनारे पर पहुँचा तो देखा कि स्टीममर खचाखच भर चुका है और उसमें बिलकुल भी जगह नहीं है । कैप्टन ने तो मुझे चढ़ने न दिया, परन्तु एक अपरिचित चपरासी के कहने पर मुझे स्टीमर में बैठने की अनुमति मिल गयी और मैं इस प्रकार बम्बई पहुँचा । फिर रेलगाड़ी में बैठकर यहाँ पहुँच गया । बाबा के सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होने में मुझे कोई शंका नहीं है । देखो तो, हम कौन है और कहाँ हमारा घर । हमारे भाग्य कितने अच्छे है कि बाबा हमारी चुराई गई राशि वापस दिलाकर हमें यहाँ खींच कर लाये । आप शिरडीवासी हम लोगों की अपेक्षा सहस्त्रगुने श्रेष्ठ और भाग्यशाली है, जो बाबा के साथ हँसते-खेलते, मधुर भाषण करते और कई वर्षों से उनके समीप रहते हो । यह आप लोगों के गत जन्मों के शुभ संस्कारों का ही प्रभाव है, जो कि बाबा को यहाँ खींच लाया है । श्री साई ही हमारे लिये दत्त है । उन्होंने ही हमसे प्रतिज्ञा कराई तथा जहाज में स्थान दिलाया और हमें यहाँ लाकर अपनी सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता का अनुभव कराया ।

श्रीमती औरंगाबादकर

सोलापुर के सखाराम औरंगाबादकर की पत्नी 27 वर्ष की दीर्घ अवधि के पश्चात भी निःसन्तान ही थी । उन्होंने सन्तानप्राप्ति के निमित्त देवी और देवताओं की बहुत मानतायें की, परन्तु फिर भी उनकी मनोकामना सिदृ न हुई । तब वे सर्वथा निराश होकर अन्तिम प्रयत्न करने के विचार से अपने सौतेले पुत्र श्री विश्वनाथ को साथ ले शिरडी आई और वहाँ बाबा की सेवा कर, दो माह रुकी । जब भी वे मसजिद को जाती तो बाबा को भक्त-गण से घिरे हुये पाती । उनकी इच्छा बाबा से एकान्त में भेंट कर सन्तानप्राप्ति के लिये प्रार्थना करने की थी, परन्तु कोई योग्य अवसर उनके हाथ न लग सका । अन्त मे उन्होंने शामा से कहा कि, जब बाबा एकान्त में हो तो मेरे लिये प्रार्थना कर देना । शामा ने कहा कि बाबा का तो खुला दरबार है । फिर भी यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो मैं अवश्य प्रयत्न करुँगा, परन्तु यश देना तो ईश्वर के ही हाथ है । भोजन के समय तुम आँगन में नारियल और उदबत्ती लेकर बैठना और जब मैं संकेत करुँ तो कड़ी हो जाना । एक दिन भोजन के उपरान्त जब शामा बाबा के गीले हाथ तौलिये से पोंछ रहे थे, तभी बाबा ने उनके गालपर चिकोटी काट ली । तब शामा क्रोधित होकर कहने लगे कि देवा । यह क्या आपके लिये उचित है कि आप इस प्रकार मेरे गाल पर चिकोटी कांटे । मुझे ऐसे शरारती देव की बिलकुल आवश्यकता नही, जो इस प्रकार का आचरण करें । हम आप पर आश्रित है, तब क्य यही हमारी घनिष्ठता का फल है । बाबा ने कहा, अरे । तुम तो 72 जन्मों से मेरे साथ हो । मैंने अब तक तुम्हारे साथ ऐसा कभी नहीं किया । फिर अब तुम मेरे स्र्पर्श को क्यों बुरा मानते हो । शामा बोले कि मुझे तो ऐसा देव चाहये, जो हमें सदा प्यार करे और नित्य नया-नया मिष्ठान खाने को दे । मैं तुमसे किसी प्रकार के आदर की इच्छा नहीं रखता और न मुझे स्वर्ग आदि ही चाहिये । मेरा तो विश्वास तुम्हारे चरणों में ही जागृत रहे, यही मेरी अभिलाषा है । तब बाबा बोले कि हाँ, सचमुच मैं इसीलिये यहाँ आया हूँ, मैं सदैव तुम्हारा पालन और उदरपोषण करता आया हूँ, इसीलिये मुझे तुमसे अधिक स्नेह है ।

जब बाबा अपनी गादीपर विराजमान हो गये, तभी शामा ने उस स्त्री को संकेत किया । उसने ऊपर आकर बाबा को प्रणाम कर उन्हें नारियल और ऊदबत्ती भेंट की । बाबा ने नारियल हिलकार देखा तो वह सूखा था और बजता था । बाबा ने शामा से कहा कि यह तो हिल रहा है । सुनो, यह क्या कहता है । तभी शामा ने तुरन्त कहा कि यह बाई प्रार्थना करती है कि ठीक इसी प्रकार इनके पेट में भी बच्चा गुड़गुड़ करे, इसलिये आर्शीवाद सहित यह नारियल इन्हें लौटा दो । तब फिर बाबा बोले कि क्या नारियल से भी सन्तान की उत्पत्ति होती है । लोग कैसे मूर्ख है, जो इस प्रकार की बाते गढ़ते है . शामा ने कहा कि मैं आपके वचनों और आशीष की शक्ति से पूर्ण अवगत हूँ और आपके एक शब्द मात्र से ही इस बाई को बच्चों का ताँता लग जायेगा । आप तो टाल रगहे है और आर्शीवाद नहीं दे रहे है । इस प्रकार कुछ देर तक वार्तालाप चलता रहा । बाबा बार-बार नारियल फोड़ने को कहते थे, परन्तु शामा बार-बार यही हठ पकड़े हुये थे कि इसे उस बाई को दे दे । अन्त में बाबा ने कह दिया कि इसको पुत्र की प्राप्ति हो जायेगी । तब शामा ने पूछा कि कब तक बाबा ने उत्तर दिया कि 12 मास में । अब नारियल को फोड़कर उसके दो टुकड़े किये गये । एक भाग तो उन दोनों नेखाया और दूसरा भाग उस स्त्री को दिया गया । तब शामा ने उस बाई से कहा कि प्रिय बहिन । तुम मेरे वचनों की साक्षी हो । यदि 12 मास के भीतर तुमको सन्तान न हुई तो मैं इस देव के सिर पर ही नारियल फोड़कर इसे मसजिद से निकाल दूँगा और यदि मैं इसमें असफल रहा तो मैं अपनो को माधव नहीं कहूँगा । जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, इसकी सार्थकता तुम्हें शीघ्र ही विदित हो जायेगी ।

एक वर्ष में ही उसे पुत्ररत्न की प्राप्त हुई और जब वह बालक पाँच मास का था, उसे लेकर वह अपने पतिसहित बाबा के श्री चरणों में उपस्थित हुई । पति-पत्नी दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और कृतज्ञ पिता (श्रीमान् औरंगाबादकर) ने पाँच सौ रुपये भेंट किये, जो बाबा के घोड़े श्याम कर्ण के लिये छत बनाने के काम आये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 30 December 2020

श्री गुरु अंगद देव जी जीवन - परिचय

ॐ सांँई राम जी


 श्री गुरु अंगद देव जी जीवन - परिचय



प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 31 मार्च 1504, हरिके (जिला फिरोजपुर, पंजाब) 
Parkash Ustav (Birth date):March 31, 1504; at Harike (Distt. Ferozepur, Punjab)

पिता : भाई फेरू मल जी 
Father: Bhai Pheru Mal ji

माता जी : माता दया कौर 
Mother: Mata Daya Kaur

महल (पति या पत्नी): माता खिवी जी, (मत्तै दी सराय, जिला फिरोजपुर.) 
Mahal (spouse):Mata Khivi ji, (Mattei di Sarai; Distt. ferozepur)

साहिबज़ादे (वंश): बीबी अमरो, बीबी अनोखी, बाबा दासू और बाबा दातु
Sahibzaday (offspring):Bibi Amro, Bibi anokhi, Baba Dasu and Baba Datu

ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): गोइंदवाल में 29 मार्च 1552 (पंजाब)
Jyoti Jyot (ascension to heaven):March 29, 1552 at Goindwal (Punjab)

श्री गुरु अंगद देव जी  फेरु मल जी तरेहण क्षत्रि के घर माता दया कौर जी की पवित्र कोख से मत्ते की सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी इकादशी सोमवार संवत १५६१ को अवतरित हुए| आपके बचपन का नाम लहिणा जी था| गुरु नानक देव जी को अपने सेवा भाव से प्रसन्न करके आप गुरु अंगद देव जी के नाम से पहचाने जाने लगे| आप जी की शादी खडूर निवासी श्री देवी चंद क्षत्रि की सपुत्री खीवी जी के साथ १६ मघर संवत १५७६ में हुई| खीवी जी की कोख से दो साहिबजादे दासू जी व दातू जी और दो सुपुत्रियाँ अमरो जी व अनोखी जी ने जन्म लिया|

भाई जोधा सिंह खडूर निवासी से लहिणा जी को गुरु दर्शन की प्रेरणा मिली| जब आप संगत के साथ करतारपुर के पास से गुजरने लगे तब आप दर्शन करने के लिए गुरु जी के डेरे में आ गए| गुरु जी के पूछने पर आप ने बताया, "मैं खडूर संगत के साथ मिलकर वैष्णोदेवी के दर्शन करने जा रहा हूँ| आपकी महिमा सुनकर दर्शन करने की इच्छा पैदा हुई| किरपा करके आप मुझे उपदेश दो जिससे मेरा जीवन सफल हो जाये|" गुरु जी ने कहा, "भाई लहिणा तुझे प्रभु ने वरदान दिया है, तुमने लेना है और हमने देना है| अकाल पुरख की भक्ति किया करो| यह देवी देवते सब उसके ही बनाये हुए हैं|"

लहिणा जी ने अपने साथियों से कहा आप देवी के दर्शन कर आओ, मुझे मोक्ष देने वाले पूर्ण पुरुष मिल गए हैं| आप कुछ समय गुरु जी की वहीं सेवा करते रहे और नाम दान का उपदेश लेकर वापिस खडूर अपनी दुकान पर आगये परन्तु आपका धयान सदा करतारपुर गुरु जी के चरणों में ही रहता| कुछ दिनों के बाद आप अपनी दुकान से नमक की गठरी हाथ में उठाये करतारपुर आ गए| उस समय गुरु जी धान में से नदीन निकलवा रहे थे| गुरु जी ने नदीन की गठरी को गाये भैंसों के लिए घर ले जाने के लिए कहा| लहिणा जी ने शीघ्रता से भीगी गठड़ी को सिर पर उठा लिया और घर ले आये| गुरु जी के घर आने पर माता सुलखणी जी गुरु जी को कहने लगी जिस सिख को आपने पानी से भीगी गठड़ी के साथ भेजा था उसके सारे कपड़े कीचड़ से भीग गए हैं| आपने उससे यह गठड़ी नहीं उठवानी थी|

गुरु जी ने हँस कर कहा, "यह कीचड़ नहीं जिससे उसके कपड़े भीगे हैं, बल्कि केसर है| यह गठड़ी को और कोई नहीं उठा सकता था| अतः उसने उठा ली है|" श्री लहिणा जी गुरु जी की सेवा में हमेशा हाजिर रहते व अपना धयान गुरु जी के चरणों में ही लगाये रखते|

Tuesday, 29 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - ज्योति ज्योत समाना

ॐ सांँई राम जी 



श्री गुरु नानक देव जी - ज्योति ज्योत समाना

गुरु गद्दी की सारी बातचीत भाई बुड्डा जी आदि निकटवर्ती सिखो को समझाकर गुरु नानक देव जी (श्री गुरु नानक देव जी) ने बैकुंठ जाने की तैयारी कर ली| ऐसा सुनकर दूर दूर से सिख आपके अन्तिम दर्शन करने ले लिए आ गए| गुरु जी अपनी धर्मशाला में बैठे थे और कीर्तन हो रहा था| इस समय माता सुलखनी जी भी दीन मन होकर गुरु जी के पास आ बैठी| गुरु जी ने दोनों साहिबजादों को भी बुलाया| पर वे थोड़ा समय बैठकर वहाँ से चल दिए|

असूज सुदी दसवी संवत् 1539 को संगत के सामने गुरु जी चादर तानकर लेट गए और संगत को धैर्य देते हुए कहने लगे-आप सभी सत्यनाम का जाप करो| जाप कर रही संगत ने जब कुछ समय बाद देखा तब गुरु जी अपना शरीर छोडकर बैकुंठ में जा चुके थे| आपका अन्तिम संस्कार करने के लिए हिन्दू कहे कि हमारा गुरु है हमने संस्कार करना है| मुस्लमान कहे कि हमारा पीर है हमने दफ़न करना है| इस प्रकार झगडा करते जब दोनों धर्मों के लोगों ने चादर उठाकर देखा तो आपका शरीर अलोप था| केवल चादर ही वहाँ रह गई| इस चादर को लेकर आधा हिन्दुओं ने संस्कार कर दिया और आधा मुसलमानों ने कबर में दफ़न कर दिया|

कुल आयु व गुरु गद्दी का समय
(Shri Guru Nanak Dev Ji Total Age and Ascension to Heaven)
गुरु नानक देव जी शरीर त्याग कर के संसार में 70 साल 5 महीने 7 दिन पातशाही करके असूज सुदी 10 संवत् 1539 करतारपुर में ज्योति ज्योत समाए|

कल से हम श्री गुरू अंगद देव जी महाराज जी की जीवनी प्रस्तुत करने हेतू आप सभी से प्रर्थना एवम श्री साँई नाथ महाराज जी से अनुमति चाहते है...

Monday, 28 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - गाय, भैंसे चारनी व खेत हरा करना

ॐ सांँई राम जी



श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - गाय, भैंसे चारनी व खेत हरा करना


गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) को चुपचाप व बिना किसे काम के घर में लेटे रहते देख महिता जी ने उन्हें किसे काम धंधे में लगाने कि सोची| पिता का कहना मान कर अगले ही दिन गुरु जी गाये भेसों को चराने ले गए| तीन चार दिन तो सब ठीक चलता रहा, सुबह पशुओं को बाहर ले जाते व सांयकाल वापिस घर ले आते|

एक दिन गुरु जी पशुओं को चरते छोड़ आप अंतर ध्यान हो गए, अपनी ही मौज में बैठे रहे| पास में ही जिमींदार का हरा भरा खेत था| पशुओं ने वहां पहुँच कर बहुत नुकसान किया| कुछ मुँह से चर लिया तथा कुछ पैरों के नीचे दबा दिया| इतने में खेत का मालिक भी आ गया वह पशुओं को घेर कर राये बुलार के पास ले गया|

जिमींदार ने राये बुलार के आगे पुकार कि आपके पटवारी के लड़के ने मेरा खेत उजाड दिया है, मेरा हरजाना दिलवाया जाये| तब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) ने सहज भाव से कहा राये जी! अपना आदमी भेज कर देख लो, इसकी कोई खेती नहीं उजड़ी, अगर उजड़ी भी होगी तो हम हरजाना भर देंगे| राये बुलार ने आदमी भेज कर पता लगाया कि खेती तो ज्यों कि त्यों खड़ी है| जिमींदार व अन्य लोग गुरु जी का यह कौतक देखकर दंग रह गए व गुरु जी कि शलाघा करने लगे।

Sunday, 27 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - साँप का छाया देना

 ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - साँप का छाया देना


गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) अब रोजाना ही पशुओं को जंगल जूह में ले जाते| एक दिन वैसाख के महीने में दुपहर के समय पशुओं को छाओं के नीचे बिठा कर गुरु जी लेट गए| सूरज के ढलने के साथ वृक्ष कि छाया भी ढलने लगी| आप के मुख पर सूरज कि धूप देखकर एक सफ़ेद साँप अपने फन के साथ छाया करके बैठ गया| उस समय राये बुलार अपने साथियोँ के संग शिकार खेल कर वापिस अपने घर को जा रहा था|

राये बुलार ऐसे कौतक को देखकर दंग रह गया और गुरु जी को नमस्कार करते हुए मन ही मन गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) की महिमा गाता हुआ अपने घर की ओर रवाना हो गया|

Saturday, 26 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - वृक्ष की छाया खड़ी करनी

 ॐ सांई राम



श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - वृक्ष की छाया खड़ी करनी

एक दिन दुपहर ढलने के समय गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) पेड़ की छाया के नीचे चादर बिछा कर लेट गए| उस वक्त सब वृक्षों की छाया ढल चुकी थी पर जहां गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) लेटे हुए थे उस वृक्ष का परछावां ज्यों का त्यों खड़ा था| दो घडी उपरांत अपने खेतों की रखवाली करता राये बुलार आ उधर आ गया गया| यह दृश्य देख कर वह दंग रह गया| उसने अपने आदमियों को बताया कि जिस वृक्ष के नीचे गुरु जी लेटे है उस वृक्ष का परछावां जियों का तियों खड़ा है, यह निशचय ही कोई अवतार है जो अपने आप को प्रगट नहीं करना चाहते|


इस से पहले भी यह कौतक देखा था कि एक साँप अपने फन के साथ छाया कर रहा था| इस प्रकार कि शलाघा करता हुआ राये बुलार आप जी को नमस्कार करता हुआ घर कि और बढ़ इस से पहले भी यह कौतक देखा था कि एक साँप अपने फन के साथ छाया कर रहा था| इस प्रकार कि शलाघा करता हुआ राये बुलार आप जी को नमस्कार करता हुआ घर कि और बढ़ गया|

Friday, 25 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - सच्चा सौदा करना

 ॐ सांई राम



श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - सच्चा सौदा करना

एक दिन महिता जी ने गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीको 20 रुपए देकर सच्चा सौदा करके लाने को कहा तथा भाई बाले को भी साथ भेज दियागुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीपिता जी को सति बचन कह कर 20 रूपए लेकर तथा भाई बाले को साथ लेकर सच्चे सौदे के लिए निकल पड़ेजाते -२ रास्ते में चुह्रड़काने गाँव में आप ने साधु मण्डली को देखा जो कि सारी ही भजन सिमरन में लगी हुई थीतभी गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीने बाले को कहा कि हमें यहाँ खरा सौदा प्राप्त हुआ हैइसे छोड़ना नहीं चाहिए|

यह विचार करके गुरु जी ने चुहड़काने नगर में 20 रुपए कि रसद आटा, चावल, मिष्टान व घी आदि लेकर संत मण्डली के पास पहुँचे और उन्हें भेट कर दिया और सभी संतो को प्रणाम करते हुए भाई बाले के साथ खाली हाथ ही तलवंडी कि और मुड गए|

Thursday, 24 December 2020

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 35

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 35 - परीक्षा में असफल
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काका महाजनी
काका महाजनी के मित्र और सेठ, निर्बीज मुनक्के, बान्द्रा निवासी एक गृहस्थ की नींद न आने की घटना, बालाजी पाटील नेवासकर, बाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना ।
इस अध्याय में भी उदी का माहात्म्य ही वर्णित है । इसमें ऐसी दो घटनाओं का उल्लेख है कि परीक्षा करने पर देखा गया कि बाबा ने दक्षिणा अस्वीकार कर दी । पहले इन घटनाओं का वर्णन किया जायेगा ।
आध्यात्मिक विषयों में सामप्रदायिक प्रवृत्ति उन्नति के मार्ग में एक बड़ा रोड़ा है । निराकरावादियों से कहते सुना जाता है कि ईश्वर की सगुण उपासना केवल एक भ्रम ही है और संतगण भी अपने सदृश ही सामान्य पुरुष है । इस कारण उनकी चरण वन्दना कर उन्हें दक्षिणा क्यों देनी चाहिये । अन्य पन्थों के अनुयायियों का भी ऐसा ही मत है कि अपने सदगुरु के अतिरिक्त अनय सन्तों को नमन तथा उनकी भक्ति न करनी चाहिए । इसी प्रकार की अनेक आलोचनायें साईबाबा के सम्बन्ध में पहले सुनने में आया करती थी तथा अभई भी आ रही है । किसी का कथन था कि जब हम शरिडी को गये तो बाबा ने हमसे दक्षिणा माँगी । क्या इस भाँति दक्षिणा ऐठना एक सन्त के लिये शोभनीय था । जब वे इस प्रकार आचरण करते है तो फिर उनका साधु-धर्म कहाँ रहा । परन्तु ऐसी भी कई घटनाएँ अनुभव में आई है कि जिन लोगों ने शिरडी जाकर अविश्वास से बाब के दर्शन किये, उन्होंने ही सर्वप्रथम बाबा को प्रणाम कर प्रार्थना भी की । ऐसे ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।

काका महाजनी के मित्र
काका महाजनी के मित्र निराकारवादी तथा मूर्ति-पूजा के सर्वथा विरुदृ थे । कौतुहलवश वे काका महाजनी के साथ दो शर्तों पर शिरडी चलने को सहमत हो गये कि
1. बाबा को नमस्कार न करेंगे और
2. न कोई दक्षिणा ही उन्हें देंगे ।
जब काका ने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया, तब फिर शनिवार की रात्रि को उन दोनों ने बम्बई से प्रस्थान कर दिया और दूससरे ही दिन प्रातःकाल शिरडी पहुँच गये । जैसे ही उन्होंने मसजिद में पैर रखा, उसी समय बाबा ने उनके मित्र की ओर थोड़ी देर देखकर उनसे कहा कि अरे आइये, श्री मान् पधारिये । आपका स्वागत है । इन शब्दों का स्वर कुछ विचित्र-सा था और उनकी ध्वनि प्रायः उन मित्र के पिता के बिलकुल अनुरुप ही थी । तब उन्हें अपने कैलासवासी पिता की स्मृति हो आई और वे आनन्द विभोर हो गये । क्या मोहिनी थी उस स्वर में । आश्यर्ययुक्त स्वर में उनके मित्र के मुख से निकल पड़ा कि निस्संदेह यह स्वर मेरे पिताजी का ही है । तब वे शीघ्र ही ऊपर दौड़कर रगयेऔर अपनी सब प्रतिज्ञायें भूलकर उन्होंने बाबा के श्री-चरणों पर अपना मस्तक रख दिया । बाबा ने काकासाहेब से तो दोपहर में तथा विदाई के समय दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु इनके मित्र से एक शब्द भी न कहा । उनके मित्र ने फुसफुसाते हुए कहा कि भाई । देखो, बाबा ने तुमसे तो दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु मैं भी तो तुम्हारे साथ हूँ, फिर वे मेरी इस प्रकार उपेक्षा क्यों करते है । काका ने उत्तर दिया कि उत्तम तो यह होगा कि तुम स्वयं ही बाबा से यह पूछ लो । बाबा ने पूछा कि यह क्या कानाफूसी हो रही है । तब उनके मित्र ने कहा कि क्या मैं भी आपको दक्षिणा दूँ । बाबा ने कहा कि तुम्हारी अनिच्छा देखकर मैंने तुमसे दक्षिणा नहीं माँगी, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा ऐसी ही है तो तुम दक्षिणा दे सकते हो । तब उन्होंने सत्रह रुपये भेंट किये, जितने काका ने दिये थे । तब बाबा ने उन्हें उपदेश दिया कि अपने मध्य जो तेली की दीवाल (भेदभाव) है, उसे नष्ट कर रदो, जिससे हम परस्पर देखकर अपने मिलन का पथ सुगम बना सकें । बाबा ने उन्हें लौटने की अनुमति देते हुए कहा कि तुम्हारी यात्रा सफल रहेगी । यघपि आकाश में बादल छाये हुए थे और वायु वेग से चल रही थी तो भी दोनों सकुशल बम्बई पहुँच गये । घर पहुँचकर जब उन्होंने द्घार तथा खिड़कियाँ खोलीं तो वहाँ दो मृत चमगादड़ पड़े देखे । एक तीसरा उनके सामने ही फुर्र करके खिड़की में से उड़ गया । उन्हें विचार आया कि यदि मैंने खिड़की खुली छोड़ी होती तो इन जीवों के प्राण अवश्य बच गये होते, परन्तु फिर उन्हें विचार आया कि यह उनके भाग्यानुसार ही हुआ है और बाबा ने तीसरे की प्राण-रक्षा के हेतु हमें शीघ्र ही वहाँ से वापस भेज दिया है ।

काका महाजनी के सेठ
बम्बई में ठक्कर धरमसी जेठाभाई साँलिसिटर (कानूनी सलाहकार) की एक फर्म थी । काका इस फर्म के व्यवस्थापक थे । सेठ और व्यस्थापक के सम्बन्ध परस्पर अच्छे थे । श्री मान् ठक्कर को ज्ञात था कि काका बहुधा शिरडी जाया करते है और वहाँ कुछ दिन ठहरकर बाबा की अनुमति से ही वापस लौटते है । कौतूहलवश बाबा की परीक्षा करने के विचार से उन्होंने भी होलिकोत्सब के अवसर पर काका के साथ ही शिरडी जाने का निश्चय किया । काका का शिरडी से लौटना सदैव अनिश्चत सा ही रहता था, इसलिये अपने अपने साथ एक मित्र को लेकर वे तीनों रवाना हो गये । मार्ग में काका ने बाबा को अर्पित करने के हेतु दो सेर मुनक्का मोल ले लिये । ठीक समय पर शिरडी पहुंच कर वे उनके दर्नार्थ मसजिद में गये । बाबा साहेब तर्खड भी तब वहीं पर थे । श्री. ठक्कर ने उनसे आने का हेतु पूछा । तर्खड ने उत्तर दिया कि मैं तो दर्शनों के लिये ही आया हूँ । मुझे चमत्कारों से कोई प्रयोजन नहीं । यहाँ तो भक्तों की हार्दिक इच्छाओं की पूर्ति होती है । काका ने बाबा को नमस्कार कर उन्हें मुनक्के अर्पित किये । तब बाबा ने उन्हें वितरित करने की आज्ञा दे दी । श्री मान् ठक्कर को भी कुछ मुनक्के मिले । एक तो उन्हें मुनक्का रुचिकर न लगता था, दूसरे इस प्रकार अस्वच्छा खाने की डाँक्टर ने मनाही कर दी थी । इसलिये वे कुछ निश्चय न कर सके और अनिच्छा होते हुए भी उन्हें ग्रहण करना पड़ा और फिर दिखावे मात्र के लिये ही उन्होंने मुँह में डाल लिया । अब समझ में न आता था कि उनके बीजों का क्या करें । मसजिद की फर्श पर तो थूका नहीं जा सकता था, इसलिये उन्होंने वे बीज अपनी इच्छा के विरुदृ अपने खीसे में डाल लिये और सोचने लगे कि जब बाबा सन्त है तो यह बात उन्हें कैसे अविदित रह सकती है कि मुझे मुनक्कों से घृणा है । फिर क्या वे मुझे इसके लिये लाचार कर सकते है । जैसे ही यह विचार उनके मन में आया, बाबा ने उन्हें कुछ और मुनक्के दिये, पर उन्होंने खाया नहीं और अपने हाथ में ले लिया । तब बाबा ने उन्हें खा लेने को कहा । उन्होंने आज्ञा का पालन किया और चबाने पर देखा कि वे सब निर्बीज है । वे चमत्कार की इच्छा रखते थे, इसलिये उन्हें देखने को भी मिल गया । उन्होंने सोचा कि बाबा समस्त विचारों को तुरन्त जान लेते है और मेरी इच्छानुसार ही उन्होंने उन्हें बीजरहित बना दिया है । क्या अदभुत शक्ति है उनमें । फिर शंका-निवारणार्थ उन्होंने तर्खड से, जो समीप ही बैठे हुये थे और जिन्हें भी थोड़े मुनक्के मिले थे, पूछा कि किस किसम के मुनक्के तुम्हें मिले । उत्तर मिला अच्छे बीजों वाले । श्रीमान् ठक्कर को तब और भी आश्र्चर्य हुआ । अतब उन्होंने अपने अंकुरि तविश्वास को दृढ़ करने के लिये मन में निश्चय किया कि यदि बाबा वास्तव में संत है तो अब सर्वप्रथम मुनक्के काका को ही दिये जाने चाहिये । इस विचार को जानकर बाबा ने कहा कि अब पुनः वितरण काका से ही आरम्भ होना चाहिये । यह सब प्रमाण श्री. ठक्कर के लिये पर्याप्त ही थे ।
फिर शामा ने बाबा से परिचय कराय कि आप ही काका के सेठ है । बाबा कहने लगे किये उनके सेठ कैसे हो सकते है । इनके सेठ तो बड़े विचित्र है । काका इस उत्तर से सहमत हो गये । अपनी हठ छोड़कर ठक्कर ने बाबा को प्रणाम किया और वाड़े को लौट आये । मध्याह की आरती समाप्त होने के उपरान्त वे बाबा से प्रस्थान करने की अनुमति प्राप्त करने के लिये मसजिद में आये । शामा ने उनकी कुछ सिफारिश की, तब बाबा इस प्रकार बोले :-
एक सनकी मस्तिष्क वाला सभ्य पुरुष था, जो स्वस्थ और धनी भी था । शारीरिक तथा मानसिक व्यथाओं से मुक्त होने पर भी वह स्वतःही अनावश्यक चिंताओं में डूबा रहता और व्यर्थ ही यहाँ-वहाँ भटक कर अशान्त बना रहता था । कभी वह स्थिर और कभी चिन्तित रहता था । उसकी ऐसी स्थिति देखकर मुझे दया आ गई और मैने उससे कहा कि कृपया अब आप अपना विश्वास एक इच्छित स्थान पर स्थिर कर लें । इस प्रकार व्यर्थ भटकने से कोई लाभ नहीं ।
शीघ्र ही एक निर्दिष्ट स्थान चुन लो – इन शब्दों से ठक्कर की समझ में तुरन्त आ गया कि यह सर्वथा मेरी ही कहानी है । उनकी इच्छा थी कि काका भी हमारे साथ ही लौटें । बाबा ने उनका ऐसा विचार जानकर काका को सेठ के साथ ही लौटने की अनुमति दे दी । किसी को विश्वसा न था कि काका इतने शीघ्र शिरडी से प्रस्थान कर सकेंगे । इस प्रकार ठक्कर को बाबा की विचार जानने की कला का एक और प्रमाण मिल गया ।
तब बाबा ने काका से 15 रुपये दक्षिणा माँगी और कहने लगे कि यदि मैं किसी से एक रुपया दक्षिणा लेता हूँ तो उसे दसगुना लौटाया करता हूँ । मैं किसी की कोई वस्तु बिना मूल्य नहीं लेता और न तो प्रत्येक से माँगता हूँ । जिसकी ओर फकीर (मेरे गुरु) इंगित करते है, उससे ही मैं माँगता हूँ और जो गत जन्म का ऋणी होता है, उसकी ही दक्षिणा स्वीकार हो जाती है । दानी देता है और भविष्य में सुन्दर उपज का बीजारोपण करता है । धन का उपयोग धनोर्पाजन के ही निमित्त होना चाहिये । यदि धन व्यक्तिगत आवश्यकताओं में व्यय किया गया तो यह उसका दुरुपयोग है । यदि तुमने पूर्व जन्मों में दान नहीं दिया है तो इस जन्म में पाने की आशा कैसे कर सकेत हो । इसलिये यदि प्राप्ति की आशा रखते हो तो अभी दान करो । दक्षिणा देने से वैराग्य की वृद्घि होती है और वैराग्य प्राप्ति से भक्ति और ज्ञान बढ़ जाते है । एक दो और दस गुना लो ।
इन शब्दों को सुनकर श्री. ठक्कर ने भी अपना संकल्प भूलकर बाब को 15 रुपये भेंट किये । उन्होंने सोचा कि अच्छा ही हुआ, जो मैं शिरडी आ गया । यहाँ मेरे सब सन्देह नष्ट हो गये और मुझे बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त हो गई ।
ऐसे विषयों में बाबा की कुशलता बड़ी अद्घितीय थी । यघपि वे सब कुछ करते थे, फिर भी वे इन सबसे अलिप्त रहते थे । नमस्कार करने या न करने वाले, दक्षिणा देने या न देने वाले, दोनों ही उनके लिये एक समान थे । उन्होंने कभी किसी का अनादर नहीं किया । यदि भक्त उनका पूजन करते तो इससे उन्हें कोई प्रसन्नता होती और यदि कोई उनकी उपेक्षा करता तो न कोई दुःख ही होता । वे सुख और दुःख की भावना से परे हो चुके थे ।

अनिद्रा
बान्द्रा के एक महाशय कायस्थ प्रभु बहुत दिनों से नींद न आने के कारण अस्वस्थ थे । जैसे ही वे सोने लगते, उनके स्वर्गवासी पिता स्वप्न में आकर उन्हें बुरी तरह गालियाँ देते दिखने लगते थे । इससे निद्रा भंग हो जाती और वे रात्रिभर अशांति महसूस करते थे । हर रात्रि को ऐसी ही होता था, जिससे वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गये । एक दिन बाब के एक भक्त से उन्होंने इस विषय मे परामर्श किया । उसने कहा कि मैं तो संकटमोचन सर्व-पीड़ा-निवारिणी उदी को ही इसकी रामबाण औषधि मानता हूँ, रजो शीघ्र ही लाभदायक सिदृ होगी । उन्होंने एक उदी की पुड़िया देकर कहा कि इसे शयन के पूर्व माथे पर लगाकर अपने सिरहाने रखो । फिर तो उन्हें निर्विघ्र प्रगाढ़ निद्रा आने लगी । यह देखकर उन्हें महान् आश्चर्य और आनन्द हुआ । यह क्रम चालू रखकर वे अब साईबाबा का ध्यान करने लगे । बाजार से उनका एक चित्र लाकर उन्होंने अपने सिरहाने के पासा लगाकर उनका नित्य पूजन करना प्रारम्भ कर दिया । प्रत्येक गुरुवार को वे हार और नैवेघ अर्पण करने लगे । वे अब पूर्ण स्वस्थ हो गये और पहले के सारे कष्टों को भूल गये ।

बालाजी पाटील नेवासकर
ये बाबा के परम भक्त थे । ये उनकी निष्काम सेवा किया करते थे । दिन में जिन रास्तों से बाबा निकलते थे, उन्हें वे प्रातःकाल ही उठकर झाडू लगाकर पूर्ण स्वच्छ रखते थे । इनके पश्चात यह कार्य बाबा की एक परमभक्त महिला राधाकृष्ण माई ने किया और फिर अब्दुल ने । बालाजी जब अपनी फसल काटकर लाते तो वे सब अनाज उन्हें भेंट कर दिया करते थे । उसमें से जो कुछ बाबा उन्हें लौटा देते, उसी से वे अपने कुटुम्ब का भरणपोषण किया करते थे, यह क्रम अनेक वर्षों तक चला और उनकी मृत्यु के पश्चात भी उनके पुत्र ने इसे जारी रखा ।

उदी की शक्ति और महत्व
एक बार बालाजी के श्रादृ दिवस की वार्षकी (बरसी) के अवसर पर कुछ व्यक्ति आमंत्रित किये गये । जितने लोगों के लिये भोजन तैयार किया गया, उससे कहीं तिगुने लोग भोजन के समय एकत्रित हो गये । यह देख श्रीमती नेवासकर किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई । उन्होंने सोचा कि यह भोजन सबके लिये पर्याप्त न होगा और कहीं कम पड़ गया तो कुटुम्ब की भारी अपकीर्ति होगी । तब उनकी सास ने उनसे सांत्वना-पूर्ण शब्दों में कहा कि चिन्ता न करो । यह भोजन-सामग्री हमारी नही, यह तो श्री साईबाबा की है । प्रत्येक बर्तन में उदी डालकर उन्हें वस्त्र से ढँक दो और बिना वस्त्र हटाये सबको परोस दो । वे ही हमारी लाज बचायेंगे । परामर्श के अनुसार ही किया गया । भोजनार्थियों के तृप्तिपूर्वक भोजन करने के पश्चात् भी भोजन सामग्री यथेष्ठ मात्रा मे शेष देखकर उन लोगों को महान् आश्चर्य और प्रसन्नता हुई । यथार्थ में देखा जाये तो जैसा जिसका भाव होता है, उसके अनुकूल ही अनुभव प्राप्त होता है । ऐसी ही घटना मुझे प्रथम श्रेणी के उपन्यायाधीश तथा बाबा के परम भक्त श्री बी.ए. चौगुले ने बतलाई । फरवरी, सन् 1943 में करजत (जिला अहमदनगर) में पूजा का उत्सव हो रहा था, तभी इस अवसर पर एक बृहत् भोज का आयोजन हुआ । भोजन के समय आमंत्रित लोगों से लगभग पाँच गुने अधिक भोजन के लिये आये, फिर भी भोजन सामग्री कम नहीं हुई । बाबा की कृपा से सबको भोजन मिला, यह देख सबको आश्चर्य हुआ ।

साईबाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना
शिरडी के रघु पाटील एक बार नेवासे के बालाजी पाटील के पास गये, जहाँ सन्ध्या को उन्हें ज्ञात हुआ कि एक साँप फुफकारता हुआ गौशाला में घुस गया है । सभी पशु भयभीत होकर भागने लगे । घर के लोग भी घबरा गये, परन्तु बालाजी ने सोचा कि श्रीसाई ही इस रुप में यहाँ प्रगट हुए है । तब वे एक प्याले में दूध ले आये और निर्भय होकर उस सर्प के सम्मुख रखकर उनको इस प्रकार सम्बधित कर कहने लगे कि बाबा । आप फुफकार कर शोर क्यों कर रहे है । क्या आप मुझे भयभीत करना चाहते है । यह दूध का प्याला लीजिये और शांतिपूर्वक पी लीजिये । ऐसा कहकर वे बिना किसी भय के उसके समीप ही बैठ गये । अन्य कुटुम्बी जन तो बहुत घबड़ा गये और उनकी समझ में न आ रहा था कि अब वे क्या करें । थोड़ी देर में ही सर्प अदृश्य हो गया और किसी को भी पता न चला कि वह कहाँ गया । गोशाला में सर्वत्र देखने पर भी वहाँ उसका कोई चिन्हृ न दिखाई दिया ।
एक ऐसी ही घटना साई-साधु-सुधा (भाग 3 नं. 7-8, जनवरी 43, पृष्ठ 26) में प्रकाशित है कि बाबा कोयंबटूर (दक्षिण भारत) में 7 जनवरी, सन् 43 गुरुवार की सन्ध्या को साढ़े तीन बजे सर्प के रुप में प्रगट हुए, जहाँ उस सर्प ने भजन सुनकर दूध और फूल स्वीकार किये तथा हजारों लोगों की भीड़ को दर्शन देकर अपनी फोटो भी उतारने दिया । फोटो उतारते समय, बाबा का चित्र भी उसके समीप रखकर दोनों की ही फोटो उतारी गई । चित्र और अन्य ववरण के लिये पाठकों से प्रार्थना है कि वे उपयुक्त पत्रिका का अवश्य अवलोकन करें ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 23 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - नवाब व काजी के साथ नमाज पढ़ने का कौतक

 ॐ सांई राम



श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - नवाब व काजी के साथ नमाज पढ़ने का कौतक

 गुरु जी के बचन, "ना कोई हिंदू न मुसलमान" को जब काजी ने सुना तो उसने गुरु जी से इसका भाव पूछा| गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) ने कहा इस समय अपने धरम के अनुसार चलने वाला ना कोई सच्चा हिंदू है ना ही कोई अपने दीन मजहब के अनुसार चलने वाला सच्चा मुसलमान है| काजी ने जब यह सारी बात नवाब को बताई तो नवाब ने गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) को बुलाकर कहा कि अगर आपकी नजर में हिंदू मुसलमान एक बराबर है तो आज जुम्मे का दिन है, आप मेरे साथ चलकर मसीत में नमाज पढ़े| गुरु जी उनकी यह बात मानते हुए मसीत में साथ चल पड़े| नवाब, काजी व और लोग नमाज पड़ते रहे पर गुरु जी चुपचाप खड़े रहे|



नमाज उपरांत आप जी से पूछा गया कि आप ने नमाज क्यों नहीं पड़ी? आप ने बताया कि नवाब साहिब काबुल में घोड़े खरीद रहे थे और काजी यह सोच रहे थे कि उनकी नयी सुई घोड़ी का बच्चा कही कुएँ में ना गिर पड़े ,शीघ्रता से घर पहुँचा जाये| फिर आप ही बताएँ हम नमाज किसके साथ पड़ते? तन रूप में हम सभी यहाँ माजूद थे, पर मन रूप में आप गैरहाजर थे| आपका मन निजी कार्यों में लगा हुआ था और हम तो आपके मन कि देखभाल ही करते रह गए| आपके यह बचन सुनकर काजी और नवाब दोनों ने आपको नमस्कार कि और अपनी भूल कि क्षमा मांगी|

Tuesday, 22 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी-साखियाँ - मलक भागो का ब्रह्म भोज व उसको उपदेश

 ॐ सांई राम



श्री गुरु नानक देव जी-साखियाँ - मलक भागो का ब्रह्म भोज व उसको उपदेश


मलक भागो ने ब्रह्म भोज करके सभ खत्रियोंब्राह्मणों और साधुओंफकीरों व नगर वासियों को बुलायाउसने यह निमंत्रण गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीको भी दियापर गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीने इस भोज में आने को मना कर दियाबार -२ बुलाने पर गुरु जी वहाँ पहुँचेमलक भागो ने भोज पर ना आने का कारण पूछातब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीने कहाभाई लालो कि कमाई का भोजन दूध के समान हैपर तेरी कमाई का भोजन लहू के समान हैवहाँ पर उपस्थित सभी लोगों ने भोजन ग्रहण कर लियालेकिन गुरु जी ने नहीं कियागुरु जी ने कहा कोई सूझ बुझ वाला व्यक्ति दूध को छोड़कर लहू नहीं पीता|


मलक भागो ने इस बात का सबूत गुरु जी से माँगातब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीने ने दाहिने हाथ में भाई लालो कि सूखी रोटी ली और भागो के भोज से पूरी मंगवाईतब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीने दोनों हाथों कि मुठियों को जोर से दबायालालो कि सूखी रोटी में से दूध और मलक भागो के भोजन से लहू के तुपके गिरेगुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीकि इस दैवी शक्ति से सारी सभा हैरान हो गयीमलक भागो मन ही मन में परेशान हो गया और गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीसे क्षमा माँगी

उसने गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जीको नेक कमाई करने का वायदा भी किया|


Monday, 21 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मीठा रीठा

 ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मीठा रीठा

 जब गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) पूरब दिशा कि तरफ बनारस जा रहे थे तो रास्ते में मरदाने ने कहा महाराज! आप मुझे जंगल पहाडों में ही घुमाए जा रहे हो, मुझे बहुत भूख लगी है| अगर कुछ खाने को मिल जाये तो कुछ खाकर चलने के लायक हो जाऊंगा| उस समय गुरु जी रीठे के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे| आप ने वृक्ष के ऊपर देखा और मरदाने से कहने लगे, अगर तुम्हे भूख लगी है तो रीठे कि टहनी को हिलाकर रीठे गेरकर खा लो|

मरदाने ने गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के हुक्म का पालन किया| उसने टहनी को हिलाया व रीठो को नीचे गिरा दिया| जब मरदाने ने रीठे खाए तो वो छुहारे कि तरह मीठे थे| उसने पेट भरकर रीठे खाए| इस वृक्ष के रीठे आज भी मीठे है जो नानक मते जाने वाले प्रेमियों को प्रसाद के रूप में दिए जाते है|

मीठा रीठा नानक मते से ४५ मील दूर है|

Sunday, 20 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मक्के का काबा फेरना

ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी - साखियाँ - मक्के का काबा फेरना
मक्के में मुसलमानों का एक प्रसिद्ध पूजा स्थान है जिसे काबा कहते है| गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) रात के समय काबे की तरफ विराज गए तब जिओन ने गुस्से में आकर गुरु जी से कहा कि तू कौन काफ़िर है जो खुदा के घर की तरफ पैर पसारकर सोया हुआ है? गुरु जी ने बड़ी नम्रता के साथ कहा, मैं यहाँ सरे दिन के सफर से थककर लेटा हूँ, मुझे नहीं मालूम की खुदा का घर किधर है तू हमारे पैर पकड़कर उधर करदे जिधर खुदा का घर नहीं है| यह बात सुनकर जिओन ने बड़े गुस्से में आकर गुरु जी के चरणों को घसीटकर दूसरी ओर कर दिया और जब चरणों को छोड़कर देखा तो उसे काबा भी उसी तरफ ही नजर आने लगा| इस प्रकार उसने जब फिर चरण दूसरी तरफ किए तो काबा उसी और ही घुमते हुआ नज़र आया|

जिओन ने जब यहे देखा कि काबा इनके चरणों के साथ ही घूम जाता है तो उसने यह बात हाजी और मुलानो को बताई जिससे बहुत सारे लोग वहाँ एकत्रित हो गए| गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के इस कौतक को देखकर सभी दंग रहगए और गुरु जी (श्री गुरू नानक देव जी) के चरणों पर गिर पड़े| उन्होंने गुरु जी से माफ़ी भी माँगी| जब गुरु जी ने वहाँसे चलने की तैयारी की तो काबे के पीरों ने विनती करके गुरु जी की एक खड़ाव निशानी के रूप में अपने पास रख ली|

भाई गुरदास जी लिखते हैं:
धरी निशानी कौस दी मक्के अंदर पूज कराई || 
जिथे जाए जगत विच बाबे बाझ न खाली जाई || 

Saturday, 19 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - हसन अब्दाल - वली कंधारी का अहंकार तोड़ना (पंजा साहिब)

  ॐ सांई राम


श्री गुरु नानक देव जी 
– साखियाँ - हसन
 अब्दाल - वली कंधारी का अहंकार तोड़ना (पंजा साहिब)

गुरु जी होती मरदान और नौशहरे से होते हुआ हसन अब्दाल से बहार पहाड़ी के नीचे आकर बैठ गए| उस पहाड़ी पर एक वली कंधारी रहता था जिसे अपनी करामातो पर बहुत अहंकार था| इसके साथ की पहाड़ी पर ही पानी का एक चश्मा निकलता था| गुरु जी ने उसका अहंकार तोड़ने के लिए मरदाने को उस पहाड़ी पर चश्मे का पानी लाने के लिए भेजा| पर वली कंधारी ने वहाँ से पानी लाने को मना कर दिया| उसने कंधारी के आगे बहुत मिन्नतें की पर वली ने कहा अगर तेरा पीर शक्तिशाली है तो वह नया चश्मा निकालकर तुम्हे पानी दे|जब यह बातें मरदाने ने आकर गुरु जी को बताई तो गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) ने मरदाने से कहा की सतिनाम कहकर एक पत्थर उठाकर दूसरी तरफ रखदो, करतार के हुक्म से पानी का चश्मा चल पड़ेगा| जब पत्थर के नीचे से पानी का चश्मा निकला तो इसके चलने से ही पहाड़ी पर वली कंधारी का चश्मा बंद हो गया|

जब वली कंधारी ने यह देखा की उसका चश्मा बंद हो गया है और नीचे की पहाड़ी का चश्मा चल रहा है तो उसने क्रोध में आकर अपनी पूरी शक्ति के साथ पहाड़ी की एक चट्टान को गुरु जी की तरफ फैंक दिया| पर गुरु जी ने उसे अपने हाथ के पंजे से रोक दिया| गुरु जी की यह दोनो शक्तियाँ, पहले पानी का चश्मा नीचे लेके आना और दूसरा पहाड़ को पंजे से रोकना, से वली कंधारी का अहंकार टूट गया और गुरु जी से अपने अपमान भरे शब्दों के कारण माफ़ी मांगने लगा|

गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) के हाथ से लगा हुआ पंजे वाला पत्थर अभी तक गुरुद्वारा पंजा साहिब-हसन अब्दाल में दर्शन दे रहा है| हजारों संगते श्रदा के साथ इसके दर्शन करके गुरु जी (श्री गुरु नानक देव जी) की महिमा गाते हुए सुनी व देखी गयी हैं|


पंजा साहिब की यह घटना 3 वैसाख संवत १५७९ में लिखी हुई हैं।

Friday, 18 December 2020

श्री गुरु नानक देव जी – साखियाँ - कलयुग से वार्तालाप

 ॐ सांई राम

श्री गुरु नानक देव जी 
– साखियाँ
 


 कलयुग से वार्तालाप
गुरु जी मरदाने के साथ बैठकर शब्द कीर्तन कर रहे थे तो अचानक अँधेरी आनी शुरू हो गई, जिसका गुबार पुरे आकाश में फ़ैल गया| इस भयानक अँधेरी में भयानक सूरत नजर आनी शुरू हो गई, जिसका सिर आकाश के साथ व पैर पाताल के साथ के साथ थे| मरदाना यह सब देखकर घबरा गया| तब गुरु जी मरदाने से कहने लगे, मरदाना तू वाहेगुरु का सिमरन कर, डर मत| यह बला तेरे नजदीक नहीं आएगी| उस भयानक सूरत ने कई भयानक रूप धारण किए पर गुरु जी अडोल ही बैठे रहे| आप की अडोलता व निर्भयता को देखकर उसने मानव का रूप धारण करके गुरु जी को नमस्कार की और कहने लगा इस युग का मैं राजा हूँ| मेरा सेनापती झूठ और निंदा, चुगली व मर धाड़ है| जुआ शराब आदि खोटे करम मेरी फ़ौज है| आप मेरे युग के अवतार है, मैं आपको मोतियों से जड़े हुए सोने के मंदिर तैयार कर देता हूँ, आप इसमे निवास करना| ऐसे मंदिर चन्दन व कस्तूरी से लिपे होंगे, केसर का छिड़काव होगा| आप उसमे सुख लेना व आनंदित रहना|
तब गुरु जी ने इस शब्द का उच्चारण किया:
मोती त मंदर उसरहि रतनी त होए जड़ाऊ ||
कस्तू रि कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||
 धरती त हीरे लाल जड़ती पलघि लाल जड़ाऊ ||
मोहणी मुखि मणी सोहै करे रंगि पसाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||
हुकमु हासलु करी बैठा नानका सभ वाऊ ||
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||


  
गुरु जी के ऐसे बचन सुनकर कलयुग ने कहा, महाराज! मुझे निरंकार की आज्ञा है की मैं सभ जीवो की बुधि उलट दू, जिसके कारण वह चोरी यारी झूठ निंदा व चुगली आदि खोटे कर्म करे, गुणवान का निरादर हो और मूर्खों को राजे के पास बिठाकर आदर करा ऊ| जत सत का नाम ना रहना दूँ, ऊँच व नीच को बराबर कर दूँ| पर आप मुझे जैसे हुक्म करेंगे में उसकी पलना करूँगा| गुरु जी ने कहा, जो हमारे प्रेमी श्रद्धावान व हरी कीर्तन, सत्संग इत्यादि में लिप्त हो उनपर यह सेना धावा ना बोले| फिर तेरा प्रभाव हमारे उन प्रेमियों पर भी ना पड़े जिन्हें हमारे बचनों पर भरोसा है| कलयुग ने तभी हाथ जोड़े और कहा, महाराज! जो व्यक्ति निरंकार के सिमरण को अपने ह्रदय में बसाए रखेगा, उनपर हमारा प्रभाव कम पड़ेगा| ऐसा भरोसा देकर कलयुग अंतर्धयान हो गया|

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.