शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Thursday, 31 May 2018

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 47 - पुनर्जन्म

ॐ सांई राम जी 



आप सभी  को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 47 - पुनर्जन्म 

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वीरभद्रप्पा और चेनबसाप्पा (सर्प व मेंढ़क) की वार्ता ।

गत अध्याय में बाबा द्घारा बताई गई दो बकरों के पूर्व जन्मों की वार्ता थी । इस अध्याय मे कुछ और भी पूर्व जन्मों की स्मृतियों का वर्णन किया जाता है । प्रस्तुत कथा वीरभद्रप्पा और चेनवसाप्पा के सम्बन्ध में है।




प्रस्तावना
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हे त्रिगुणातीत ज्ञानावतार श्री साई । तुम्हारी मूर्ति कितनी भव्य और सुन्दर है । हे अन्तयार्मिन । तुम्हारे श्री मुख की आभा धन्य है । उसका क्षणमात्र भी अवलोकन करने से पूर्व जन्मों के समस्त दुःखों का नाश होकर सुख का द्घार खुल जाता है । परन्तु हे मेरे प्यारे श्री साई । यदि तुम अपने स्वभाववश ही कुछ कृपाकटाक्ष करो, तभी इसकी कुछ आशा हो सकती है । तुम्हारी दृष्टिमात्र से ही हमारे कर्म-बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते है और हमें आनन्द की प्राप्त हो जाती है । गंगा में स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है, परन्तु गंगामाई भी संतों के आगमन की सदैव उत्सुकतापूर्वक राह देखा करती है कि वे कब पधारें और मुझे अपनी चण-रज से पावन करें । श्री साई तो संत-चूडामणि है । अब उनके द्घारा ही हृदय पवित्र बनाने वाली यह कथा सुनो ।



सर्प और मेंढ़क 
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श्री साई बाबा ने कहा – एक दिन प्रातःकाल 8 बजे जलपान के पश्चात मैं घूमने निकला । चलते-चलते मैं एक छोटी सी नदी के किनारे पहुँचा । मैं अधिक थक चुका था, इस काण वहाँ बैठकर कुछ विश्राम करने लगा । कुछ देर के पश्चात् ही मैंने हाथ-पैर धोये और स्नान किया । तब कहीं मेरी थकावट दूर हुई और मुझे कुछ प्रसन्नता का अनुभव होने लगा । उस स्थान से एक पगडंडी और बैलगाड़ी के जाने का मार्ग था, जिसके दोनों ओर सघन वृक्ष थे । मलय-पवन मंद-मंद वह रहा था । मैं चिलम भर ही रहा था कि इतने में ही मेरे कानों में एक मेंढ़क के बुरी तरह टर्राने की ध्वनि पड़ी । मैं चकमक सुलगा ही रहा था कि इतने में एक यात्री वहाँ आया और मेरे समीप ही बैठकर उसने मुझे प्रणाम किया और घर पर पधारकर भोजन तथा विश्राम करने का आग्रह करने लगा । उसने चिलम सुलगा कर मेरी ओर पीने कि लिये बढ़ाई । मेंढ़क के टर्राने की ध्वनि सुनकर वह उसका रहस्य जानने के लिये उत्सुक हो उठा । मैंने उसे बतलाया कि एक मेंढक कष्ट में है, जो अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोग रहा है । पूर्व जन्म के कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है, अतः अब उसका चिल्लाना व्यर्थ है । एक कश लेकर उसने चिलम मेरी ओर बढ़ाई । थोड़ा देखूँ तो, आखिर बात क्या है । ऐसा कहकर वह उधर जाने लगा । मैंने उसे बतलाया कि एक बड़े साँप ने एक मेंढ़क को मुँह में दबा लिया है, इस कारण वह चिल्ला रहा है । दोनों ही पूर्व जन्म में बड़े दुष्ट थे और अब इस शरीर में अपने कर्मों का फल भोग रहे है । आगन्तुक ने घटना-स्थल पर जाकर देखा कि सचमुच एक बड़े सर्प ने एक बड़े मेंढ़क को मुँह में दबा रखा है ।

उसने वापस आकर मुझे बताया कि लगभग घड़ी-दो घड़ी में ही साँप मेंढ़क को निगल जायेगा । मैंने कहा – नहीं, यह कभी नहीं हो सकता, मैं उसका संरक्षक पिता हूँ और इस समय यहाँ उपस्थित हूँ । फिर सर्प की क्या सामर्थ्य है कि मेंढ़क को निगल जाय । क्या मैं व्यर्थ ही यहाँ बैठा हूँ । देखो, मैं अभी उसकी किस प्रकार रक्षा करता हूँ । दुबारा चिलम पीने के पश्चात् हम लोग उस स्थान पर गये । आगन्तुक डरने लगा और उसने मुझे आगे बढ़ने से रोका कि कहीं सर्प आक्रमण न कर दे । मैं उसकी बात की उपेक्षा कर आगे बढ़ा और दोनों से कहने लगा कि अरे वीरभद्रप्पा । क्या तुम्हारे शत्रु को पर्याप्त फल नहीं मिल चुका है, जो उसे मेंढ़क की और तुम्हें सर्प की योनि प्राप्त हुई है । अरे अब तो अपना वैमनस्य छोड़ो । यही बड़ी लज्जाजनक बात है । अब तो इस ईर्ष्या को त्यागो और शांति से रहो । इन शब्दों को सुनकर सर्प ने मेंढ़क को छोड़ दिया और शीघ्र ही नदी में लुप्त हो गया । मेंढ़क भी कूदकर भागा और झाड़ियों में जा छिपा ।

उस यात्री को बड़ा अचम्भा हुआ । उसकी समझ में न आया कि बाबा के शब्दों को सुनकर साँप ने मेंढ़क को क्यों छोड़ दिया और वीरभद्रप्पा व चेनबसाप्पा कौन थे । उनके वैमनस्य का कारण क्या था । इस प्रकार के विचार उसके मन में उठने लगे । मैं उसके साथ उसी वृक्ष के नीचे लौट आया और धूम्रपान करने के पश्चात उसे इसका रहस्य सुनाने लगा :-



मेरे निवासस्थान से लगभग 4-5 मील की दूरी पर एक पवित्र स्थान था, जहाँ महादेव का एक मंदिर था । मंदिर अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था, सो वहाँ के निवासियों ने उसका जीर्णोद्घार करने के हेतु कुछ चन्दा इकट्ठा किया । पर्याप्त धन एकत्रित हो गया और वहाँ नित्य पूजन की व्यवस्था कर मंदिर के निर्माण की योजनायें तैयार की गई । एक धनाढ़य व्यक्ति को कोषाध्यक्ष नियुकत कर उसको समस्त कार्य की देख-भाल का भार सौंप दिया गया । उसको कार्य, व्यय आदि का यथोचित विवरण रखकर ईमानदारी से सब कार्य करना था । सेठ तो एक उच्च कोटि का कंजूस था । उसने मरम्मत में अत्यन्त अल्पराशि व्यय की, इस कारण मंदिर का जीर्णोद्घार भी उसी अनुपात में हुआ । उसने सब राशि व्यय कर दी तथा कुछ अंश स्वयं हड़प लिया और उसने अपनी गाँठ से एक पाई भी व्यय न की । उसकी वाणी अधिक रसीली थी, इसलिये उसने लोगों को किसी प्रकार समझा-बुझा लिया और कार्य पूर्ववत् ही अधूरा रह गया । लोग फिर संगठित होकर उसके पास जाकर कहने लगे – सेठ साहेब । कृपया कार्य शीघ्र पूर्ण कीजिये । आपके प्रत्यन के अभाव में यह कार्य पूर्ण होना कदापि संभव नहीं । अतः आप पुनः योजना बनाइये । हम और भी चन्दा आपको वसूल करके देंगे । लोगों ने पुनः चन्दा एकत्रित कर सेठ को दे दिया । उसने रुपये तो ले लिये, परन्तु पूर्ववत् ही शांत बैठा रहा । कुछ दिनों के पश्चात् उसकी स्त्री को भगवान् शंकर ने स्वप्न दिया कि उठो और मंदिर पर कलश चढ़ाओ । जो कुछ भी तुम इस कार्य में व्यय करोगी, मैं उसका सौ गुना अधिक तुम्हें दूँगा । उसने यह स्वप्न अपने पति को सुना दिया । सेठ बयभीत होकर सोचने लगा कि यह कार्य तो ज्यादा रुपये खर्च कराने वाला है, इसलिये उसने यह बात हँसकर टाल दी कि यह तो एक निरा स्वप्न ही है और उस पर भी कहीं विश्वास किया जा सकता है । यदि ऐसा होता तो महादेव मेरे समक्ष ही प्रगट होकर यह बात मुझसे न कह देते । मैं क्या तुमसे अधिक दूर था । यह स्वप्न शुभदायक नहीं । यह तो पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगाड़ने वाला है । इसलिये तुम बिलकुल शांत रहो । भगवान् को ऐसे द्रव्य की आवश्यकता ही कहाँ, जो दानियों की इच्छा के विरुदृ एकत्र किया गया हो । वे तो सदैव प्रेम के भूखे है तथा प्रेम और भक्तिपूर्वक दिये गये एक तुच्छ ताँबे का सिक्का भी सहर्ष स्वीकार कर लेते है । महादेव ने पुनः सेठानी को स्वप्न में कह दिया कि तुम अपने पति की व्यर्थ की बातों और उनके पास संचित धन की ओर ध्यान न दो और न उनसे मंदिर बनवाने के लिये आग्रह ही करो । मैं तो तुम्हारे प्रेम और भक्ति का ही भूखा हूँ । जो कुछ भी तुम्हारी व्यय करने की इच्छा हो, सो अपने पास से करो । उसने अपने पति से विचार-विनिमय करके अपने पिता से प्राप्त आभूषणों को विक्रय करे का निश्चय किया । तब कृपण सेठ अशान्त हो उठा । इस बार उसने भगवान् को भी धोखा देने की ठान ली । उसने कौड़ी-मोल केवल एक हजार रुपयों में ही अपनी पत्नी के समस्त आभूषण स्वयं खरीद डाले और एक बंजर भूमि का भाग मंदिर के निमित्त लगा दिया, जिसे उसकी पत्नी ने भी चुपचाप स्वीकार कर लिया । सेठ ने जो भूमि दी, वह उसकी स्वयं की न थी, वरन् एक निर्धन स्त्री दुबकी की थी, जो इसके यहाँ दो सौ रुपयों में गहन रखी हुई थी । दीर्घकाल तक वह ऋण चुकाकर उसे वापस न ले सकी, इसलिये उस धूर्त कृपण ने अपनी स्त्री, दुबकी और भगवान को धोखा दे दिया । भूमि पथरीली होने के कारण उसमें उत्तम ऋतु में भी कोई पैदावार न होती थी । इस प्रकार यह लेन-देन समाप्त हुआ । भूमि उस मंदिर के पुजारी को दे दी गई, जो उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुए ।

कुछ समय के पश्चात् एक विचित्र घटना घटित हुई । एक दिन बहुत जोरों से झंझावात आया और अति वृष्टि हुई । उस कृपण के घर पर बिजली गिरी और फलस्वरु पति-पत्नि दोनों की मृत्यु हो गई । दुबकी ने भी अंतिम श्वास छोड़ दी । अगले जन्म में वह कृपण मथुरा के एक ब्राहमण कुल में उत्पन्न हुआ और उसका नाम वीरभद्रप्पा रखा गया । उसकी धर्मपत्नी उस मंदिर के पुजारी के घर कन्या होकर उत्पन्न हुई और उसका नाम गौरी रखा गया । दुबकी पुरुष बनकर मंदिर के गुरव (सेवक) वंश में पैदा हुई और उसका नाम चेनबसाप्पा रखा गया । पुजारी मेरा मित्र था और बहुधा मेरे पास आता जाता, वार्तालाप करता और मेरे साथ चिलम पिया करता था । उसकी पुत्री गौरी भी मेरी भक्त थी । वह दिनोंदिन सयानी होती जा रही थी, जिससे उसका पिता भी उसके हाथ पीले करने की चिंता में रहता था । मैंने उससे कहा कि चिंता की कोई आवश्यकता नहीं, वर स्वयं तुम्हारे घर लड़की की खोज में आ जायेगा । कुछ दिनों के पश्चात् ही उसी की जाति का वीरभद्रप्पा नामक एक युवक भिक्षा माँगते-माँगते उसके घर पहुँचा । मेरी सम्मति से गौरी का विवाह उसके साथ सम्पन्न हो गया । पहले तो वह मेरा भक्त था, परन्तु अब वह कृतघ्न बन गया । इस नूतन जन्म में भी उसकी धन-तृष्णा नष्ट न हुई । उसने मुझसे कोई उघोग धंधा सुझाने को कहा, क्योंकि इस समय वह विवाहित जीवन व्यतीत कर रहा था । तभी एक विचित्र घटना हुई । अचानक ही प्रत्येक वस्तुओं के बाव ऊँचे चढ़ गये । गौरी के भाग्य से जमीन की माँग अधिक होने लगी और समस्त भूमि एक लाख रुपयों में आभूषणों के मूल्य से 100 गुना अधिक मूल्य में बिक गई । ऐसा निर्णय हुआ कि 50 हजार रुपये नगद और 2000 रुपये प्रतिवर्ष किश्त पर चुकता कर दिये जायेंगे । सबको यह लेनदेन स्वीकार था, परन्तु धन में हिससे के कारण उनमें परस्पर विवाद होने लगा । वे परामर्श लेने मेरे पास आये और मैंने कहा कि यह भूमि तो भगवान् की है, जो पुजारी को सौंपी गई थी । इसकी स्वामिनी गौरी ही है और एक पैसा भी उसकी इच्छा के विरुदृ खर्च करना उचित नहीं तथा उसके पति का इस पर कोई अधिकार नहीं है । मेरे निर्णय को सुनकर वीरभद्रप्पा मुझसे क्रोधित होकर कहने लगा कि तुम गौरी को फुसाकर उसका धन हड़पना चाहते हो । इन शब्दों को सुनकर मैं बगवत् नाम लेकर चुप बैठ गया । वीरभद्र ने अपनी स्त्री को पीटा भी  । गौरी ने दोपहर के समय आकर मुझसे कहा कि आप उन लोगों के कहने का बुरा न मानें । मैं तो आपकी लड़की हूँ । मुझ पर कृपादृष्टि ही रखें । वह इस प्रकार मेरी सरण मे आई तो मैंने उसे वचन दे दिया कि मैं सात समुद्र पार कर भी तुम्हारी रक्षा करुँगा । तब उस रात्रि को गौरी को एक दृष्टांत हुआ । महादेव ने आकर कहा कि यह सब सम्पत्ति तुम्हारी ही है और इसमें से किसी को कुछ न दो । चेनबसाप्पा की यह सलाह से कुछ राशि मंदिर के कार्य के लिये खर्च करो । यदि और किसी भी कार्य में तुम्हे खर्च करने की इच्छा हो तो मसजिद में जाकर बाबा (स्वयं मैं) के परामर्श से करो । गौरी ने अपना दृष्टांत मुझे सुनाया और मैंने इस विषय में उचित सलाह भी दी । मैंने उससे कहा कि मूलधन तो तुम स्वयं ले लो और ब्याज की आधी रकम चेनबसाप्पा को दे दो । वीरभद्र का इसमें कोई सम्बन्ध नहीं है । जब मैं यह बात कर ही रहा था, वीरभद्र और चेनबसाप्पा दोनों ही वहाँ झगड़ते हुए आये । मैंने दोनों को शांत करने का प्रयत्न किया और गौरी को हुआ महादेव का स्वप्न भी सुनाया । वीरभद्र क्रोध से उन्हत हो गया और चेनबसाप्पा को टुकड़े-टुकड़े कर मार डालने की धमकी देने लगा । चेनबसाप्पा बड़ा डरपोक था । वह मेरे पैर पकड़कर रक्षा की प्रार्थना करने लगा । तब मैंने शत्रु के पाश से उसका छुटकारा करा दिया । कुछ समय पश्चात् ही दोनों की मृत्यु हो गई । वीरभद्र सर्प बना और चेनबसाप्पा मेंढ़क । चेनबासप्पा की पुकार सुनकर और अपने पूर्व वचन की स्मृति करके यहाँ आया और इस तरह से उसकी रक्षा कर मैंने अपने वचन पूर्ण किये । संकट के समय भगवान् दौड़कर अपने भक्त के पास जाते है । उसने मुझे यहाँ भेजकर चेनबसाप्पा की रक्षा कराई । यह सब ईश्वरीय लीला ही है ।


शिक्षा

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इस कथा की यही शिक्षा है कि जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है, जब तक कि भोग पूर्ण नहीं होते । पिछला ऋण और अन्य लोगों के साथ लेन-देन का व्यवहार जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक छुटकारा भी संभव नहीं है । धनतृष्णा मनुष्य का पतन कर देती है और अन्त में इससे ही वह विनाश को प्राप्त होता है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।



-: आज का साँईं सन्देश :-
सागर में दीपक जले,
नाविक राह दिखाय ।
साँईं बाबा चरित सुन,
भवसागर तर जाय ।।
साँईं बाबा का चरित,
अमरित पावन होय ।
भाव बन्धन से मुक्त कर,
मोक्ष प्रदाता होय ।।   
 

Wednesday, 30 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवती श्रीसीता

ॐ श्री साँई राम जी 



भगवती श्रीसीता

भगवती श्रीसीताजी की महिमा अपार है| वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास तथा धर्मशास्त्रोंमें इनकी अनन्त महिमाका वर्णन है| ये भगवान् श्रीरामकी प्राणप्रिया आद्याशक्ति हैं| ये सर्व सर्वमङ्गलदायिनी, त्रिभुवनकी जननी तथा भक्ति और मुक्तिका दान करनेवाली हैं| महाराज सीरध्वज जनककी यज्ञभूमिसे कन्यारूपमें प्रकट हुई भगवती सीता ही संसारका उद्भव, स्थिति और संहार करनेवाली पराशक्ति हैं| ये पतिव्रताओंमें शिरोमणि तथा भारतीय आदर्शोंकी अनुपम शिक्षिका हैं|

अपनी ससुराल अयोध्यामें आनेके बाद अनेक सेविकाओंके होनेपर भी भगवती सीता अपने हाथोंसे सारा गृहकार्य स्वयं करती थीं और पतिके संकेतमात्रसे उनकी आज्ञाका तत्काल पालन करती थीं| अपने पतिदेव भगवान् श्रीरामको वनगमनके लिये प्रस्तुत देखकर इन्होंने तत्काल अपने कर्तव्य कर्मका निर्णय कर लिया और श्रीरामसे कहा - 'हे आर्यपुत्र! माता - पिता, भाई, पुत्र तथा पुत्रवधू - ये सब अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःखका भोग करते हैं| एकमात्र पत्नी ही पतिके कर्मफलोंकी भागिनी होती है| आपके लिये जो वनवासकी आज्ञा हुई है, वह मेरे लिये भी हुई है| इसलिये वनवासमें आपके साथमें मैं भी चलूँगी| आपमें ही मेरा हृदय अनन्यभावसे अनुरक्त है| आपके वियोगमें मेरी मृत्यु निश्चित है| इसलिये आप मुझे अपने साथ वनमें अवश्य ले चलिये| मुझे ले चलनेसे आपपर कोई भार नहीं होगा| मैं वनमें नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर आपकी सेवा करुँगी|'

अपने पति श्रीरामसे वनमें ले चलनेका निवेदन करती हुई सीता प्रेम-विह्वल हो गयीं| उनकी आँखोंसे आँसू बहने लगे| वे संज्ञाहीन-सी होने लगीं| अन्तमें श्रीरामको उन्हें साथ चलनेकि आज्ञा देनी पड़ी| माता सीता अपने सतीत्वके परम तेजसे लंकेशको भी भस्म कर सकती थीं| पापात्मा रावणके कुत्सिक मनोवृत्तिकी धज्जियाँ उड़ाती हुई पतिव्रता सीता कहती हैं - 'हे रावण! तुम्हें जलाकर भस्म कर देनेकी शक्ति रखती हुई भी मैं श्रीरामचन्द्रका आदेश न होनेके कारण एवं तपोभग्ङ होनेके कारण तुम्हें जलाकर भस्म नहीं कर रही हूँ|'

महासती सीताने हनुमान् जीकी पूँछमें आग लगनेके समय अग्निदेवसे प्रार्थना की - 'हे अग्निदेव! यदि मैंने अपने पतिकी सच्चे मनसे सेवा की है| यदि मैंने श्रीरामके अतिरिक्त किसीका चिन्तन न किया हो तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ|' महासती सीताकी प्रार्थनासे अग्निदेव हनुमान् के लिये सुख और शीतल हो गये और लंकाके लिये दाहक बन गये| सीताके पातिव्रत्यकी गवाही अग्निपरीक्षाके पश्चात् स्वयं अग्निदेवने दी थी| महासती सीताके सतीत्वकी तुलना किसीभी नहीं की जा सकती| भगवती सीताका चरित्र समस्त नारियोंके लिये वन्दनीय तथा अनुकरणीय है|

Tuesday, 29 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी

ॐ श्री साँई राम जी



माता कैकेयी

कैकेयीजी महाराज केकयनरेशकी पुत्री तथा महाराज दशरथकी तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे| इन्होंने देवासुरसंग्राममें महाराज दशरथके साथ सारथिका कार्य करके अनुपम शौर्यका परिचय दिया और महाराज दशरथके प्राणोंकी दो बार रक्षा की| यदि शम्बरासुरसे संग्राममें महाराजके साथ महारानी कैकेयी न होतीं तो उनके प्राणोंकी रक्षा असम्भव थी| महाराज दशरथने अपने प्राण-रक्षाके लिये इनसे दो वार माँगनेका आग्रह किया और इन्होंने समयपर माँगनेकी बात कहकर उनके आग्रहको टाल दिया| इनके लिये पतिप्रेमके आगे संसारकी सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं|

महारानी कैकेयी भगवान् श्रीरामसे सर्वाधिक स्नेह करती थीं| श्रीरामके युवराज बनाये जानेका संवाद सुनते ही ये आनन्दमग्न हो गयीं| मन्थराके द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा - 'मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है| मेरे लिये श्रीराम-अभिषेकके समाचारसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता| इसके लिये तू मुझसे जो भी माँगेगी, मैं अवश्य दूँगी!' इसीसे पता लगता है कि ये श्रीरामसे कितना प्रेम करती थीं| इन्होंने मन्थराकि विपरीत बात सुनकर उसकी जीभतक खींचनेकी बात कहीं| इनके श्रीरामके वनगमनमें निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीरामकी प्रेरणासे देवकार्यके लिये सरस्वतीदेवीके द्वारा इनकी बुद्धिका परिवर्तन कर दिया जाना था| महारानी कैकेयीने भगवान् श्रीरामकी लीलामें सहायता करनेके लिये जन्म लिया था| यदि श्रीरामका अभिषेक हो जाता तो वनगमनके बिना श्रीरामका ऋषि-मुनियोंको दर्शन, रावण-वध, साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतारके प्रमुख कार्य नहीं हो पाते| इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजीने श्रीरामकी लीलामें सहयोग करनेके लिये ही जन्म लिया था| इसके लिये इन्होंने चिरकालिक अपयशके साथ पापिनी, कुलघातिनी, कलक्ङिनी आदि अनेक उपाधियोंको मौन होकर स्वीकार कर लिया|

चित्रकूटमें जब माता कैकेयी श्रीरामसे एकान्तमें मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रोंमें आँसू भरकर उनसे कहा - 'हे राम! मायासे मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है| आप मेरी कुटिलताको क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमाशील होते हैं| देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है| मैंने आपको पहचान लिया है| आप देवताओंके लिये भी मन, बुद्धि और वाणीसे परे हैं|'

भगवान् श्रीरामने उनसे कहा - 'महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है| मेरी प्रेरणासे ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये तुम्हारे मुखसे वे शब्द निकले थे| उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है| अब तुम जाओ| सर्वत्र आसक्तिरहित मेरी भक्तिके द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी|'

भगवान् श्रीरामके इस कथनसे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयीजी श्रीरामकी अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान-सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं| इन्होंने सदाके लिये अपकीर्तिका वरण करके भी श्रीरामकी लीलामें अपना विलक्षण योगदान दिया|

Monday, 28 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा

ॐ श्री साँई राम जी



माता सुमित्रा

महारानी सुमित्रा त्यागकी साक्षात् प्रतिमा थीं| ये महाराज दशरथकी दूसरी पटरानी थीं| महाराज दशरथने जब पुष्टि यज्ञके द्वारा खीर प्राप्त किया, तब उन्होंने खीरका भाग महारानी सुमित्राको स्वयं न देकर महारानी कौसल्या और महारानी कैकेयीके द्वारा दिलवाया| जब महारानी सुमित्राको उस खीरके प्रभावसे दो पुत्र हुए तो इन्होंने निश्चय कर लिया कि इन दोनों पुत्रोंपर मेरा अधिकार नहीं है| इसलिये अपने प्रथम पुत्र श्रीलक्ष्मणको श्रीराम और दूसरे शत्रुघ्नको श्रीभरतकी सेवामें समर्पित कर दिया| त्याग कर ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है|

जब भगवान् श्रीराम वन जाने लगे तब लक्ष्मणजीने भी उनसे स्वयंको साथ ले चलनेका अनुरोध किया| पहले भगवान् श्रीरामने लक्ष्मणजीको अयोध्यामें रहकर माता-पिताकि सेवा करनेका आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मणजीने किसी प्रकार भी श्रीरामके बिना अयोध्यामें रुकना स्वीकार नहीं किया| अन्तमें श्रीरामने लक्ष्मणको माता सुमित्रासे आदेश लेकर अपने साथ चलनेकी आज्ञा दी| उस समय विदा माँगनेके लिये उपस्थित श्रीलक्ष्मणको माता सुमित्राने जो उपदेश दिया उसमें दिया उसमें भक्ति, प्रीति, त्याग, पुत्र-धर्मका स्वरूप, समपर्ण आदि श्रेष्ठ भावोंकी सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है|

माता सुमित्राने श्रीलक्ष्मणको उपदेश देते हुए कहा - ' बेटा! विदेहनन्दिनी श्रीजानकी ही तुम्हारी माता हैं और सब प्रकारसे स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्र ही तुम्हारे पिता हैं| जहाँ श्रीराम हैं, वहीं अयोध्या है और जहाँ सूर्यका प्रकाश है वही दिन है| यदि श्रीसीता-राम वनको जा रहे हैं तो अयोध्यामें तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है| जगत्में जितने भी पूजनीय सम्बन्ध हैं, वे सब श्रीरामके नाते ही पूजनीय और प्रिय मानने योग्य हैं| संसारमें वही युवती पुत्रवती कहलाने योग्य है, जिसका पुत्र श्रीरामका भक्त है| श्रीरामसे विमुख पुत्रको जन्म देनेसे निपूती रहना ही ठीक है| तुम्हारे ही भाग्यसे श्रीराम वनको जा रहे हैं| हे पुत्र! इसके अतिरिक्त उनके वन जानेका अन्य कोई कारण नहीं है| समस्त पुण्योंका सबसे बड़ा फल श्रीसीतारामजीके चरणोंमें स्वाभाविक प्रेम है| हे पुत्र! राग, रोष, ईर्ष्या, मद आदि समस्त विकारोंपर विजय प्राप्त करके मन, कर्म और वचनसे श्रीसीतारामकी सेवा करना| इसीमें तुम्हारा परम हित है|'

श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ वन चले गये| अब हर तरहसे माता कौसल्याको सुखी बनाना ही सुमित्राजीका उद्देश्य हो गया| ये उन्हींकी सेवा में रात-दिन लगी रहती थीं| अपने पुत्रोंके विछोहके दुःखको भूलकर कौसल्याजीके दुःखमें दुखी और उन्हींके सुखमें सुखी होना माता सुमित्राका स्वभाव बन गया| जिस समय लक्ष्मणको शक्ति लगनेका इन्हें संदेश मिलता है, तब इनका रोम-रोम खिल उठता है| ये प्रसन्नता और उत्सर्गके आवेशमें बोल पड़ती हैं - 'लक्ष्मणने मेरी कोखमें जन्म लेकर उसे सार्थक कर दिया| उसने मुझे पुत्रवती होनेका सच्चा गौरव प्रदान किया है|' इतना ही नहीं, ये श्रीरामकी सहायताके लिये श्रीशत्रुघ्नको भी युद्धमें भेजनेके लिये तैयार हो जाती हैं| माता सुमित्राके जीवनमें सेवा, संयम और सर्वस्व-त्यागका अद्भुत समावेश है| माता सुमित्रा-जैसी देवियाँ ही भारतीय कुलकी गरिमा और आदर्श हैं|

Sunday, 27 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या

ॐ श्री साँई राम जी 



माता कौसल्या

महारानी कौसल्याका चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथकी सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्ममें महराज मनुके साथ इन्होंने उनकी पत्नीरूपमें कठोर तपस्या करके श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान प्राप्त किया था| इस जन्ममें इनको कौसल्यारूपमें भगवान् श्रीरामकी जननी होनेका सौभाग्य मिला था|

श्रीकौसल्याजीका मुख्य चरित्र रामायणके अयोध्याकाण्डसे प्रारम्भ होता है| भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक होनेवाला है| नगरभरमें उत्सवकी तैयारियाँ हो रही हैं| माता कौसल्याके आनन्दका पार नहीं है | वे श्रीरामकी मंगल-कामनासे अनेक प्रकारके यज्ञ, दान, देवपूजन और उपवासमें संलग्न हैं| श्रीराम को सिहांसनपर आसीन देखनेकी लालसासे इनका रोम-रोम पुलकित है| परन्तु श्रीराम तो कुछ दूसरी ही लीला करना चाहते हैं | सत्यप्रेमी महाराज दशरथ कैकेयीके साथ वचनबद्ध होकर श्रीरामको वनवास देनेके लिये बाध्य हो जाते हैं|

प्रात:काल भगवान् श्रीराम माता कैकेयी और पिता महाराज दशरथसे मिलकर वन जानेका निश्चय कर लेते हैं और माता कौसल्याका आदेश प्राप्त करनेके लिये उनके महलमें पधारते हैं| श्रीरामको देखकर माता कौसल्या उनके पास आती हैं| इनके हृदयमें वात्सल्य-रसकी बाढ़ आ जाती है और मुँहसे आशीर्वादकी वर्षा होने लगती है| ये श्रीरामका हाथ पकड़कर उनको उन्हें शिशुकी भाँति अपनी गोदमें बैठा लेती हैं और कहने लगती हैं - 'श्रीराम! राज्याभिषेकमें अभी विलम्ब होगा| इतनी देरतक कैसे भूखे रहोगे, दो-चार मधुर फल ही खा लो|' भगवान् श्रीरामने कहा - 'माता! पिताजीने मुझको चौदह वर्षोंके लिये वनका राज्य दिया है, जहाँ मेरा सब प्रकारसे कल्याण ही होगा| तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मुझको वन जानेकी आज्ञा दे दी| चौदह सालतक वनमें निवास कर मैं पिताजीके वचनोंका पालन करूँगा, पुन: तुम्हारे श्रीचरणोंका दर्शन करूँगा|'

श्रीरामके ये वचन माता कौसल्याके हृदयमें शूलकी भाँति बिंध गये| उन्हें अपार क्लेश हुआ| वे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर गयीं, उनके विषादकी कोई सीमा न रही| फिर वे सँभलकर उठीं और बोलीं - 'श्रीराम! यदि तुम्हारे पिताका ही आदेश हो तो तुम माताको बड़ी जानकार वनमें न जाओ! किन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकयीकी भी इच्छा हो तो मैं तुम्हारे धर्म-पालनमें बाधा नहीं बनूँगी| जाओ! काननका राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्याके राज्यसे भी सुखप्रद हो|' पुत्रवियोगमें माता कौसल्यका हृदय दग्ध हो रहा है, फिर भी कर्त्तव्यको सर्वोपरि मानकर तथा अपने हृदयपर पत्थर रखकर वे पुत्रको वन जानेकी आज्ञा दे देती हैं| सीता-लक्ष्मणके साथ श्रीराम वन चले गये| महाराज दशरथ कौसल्याके भवनमें चले आये| कौसल्याजीने महराजको धैर्य बँधाया, किन्तु उनका वियोग-दुःख कम नहीं हुआ| उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने नश्वर शरीरको त्याग दिया| कौसल्याजीने पतिमरण, पुत्रवियोग-जैसे असह्य दुःख केवल श्रीराम-दर्शनकी लालसामें सहे| चौदह सालके कठिन वियोगके बाद श्रीराम आये| कौसल्याजीको अपने धर्मपालनका फल मिला| अन्तमें ये श्रीरामके साथ ही साकेत गयीं|

Saturday, 26 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - महाराज दशरथ

ॐ श्री साँई राम जी 



महाराज दशरथ

अयोध्यानरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनुके अवतार थे| पूर्वकालमें कठोर तपस्यासे इन्होंने भगवान् श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान पाया था| ये परम तेजस्वी, वेदोंके ज्ञाता, विशाल सेनाके स्वामी, प्रजाका पुत्रवत् पालन करनेवाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे| इनके राज्यमें प्रजा सब प्रकारसे धर्मरत तथा धन-धान्यसे सम्पन्न थी| देवता भी महाराज दशरथकि सहायता चाहते थे| देवासुर-संग्राममें इन्होंने दैत्योंको पराजित किया था| इन्होंने अपने जीवनकालमें अनेक यज्ञ भी किये|

महाराज दशरथकि बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं| महाराजकी वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ| इन्होंने अपनी इस समस्यासे गुरुदेव वसिष्ठको अवगत कराया| गुरुकी आज्ञासे ॠष्यश्रृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्वमें पुत्रेष्टि यज्ञका आयोजन हुआ| यज्ञपुरुषने स्वयं प्रकट होकर पायसत्रसे भरा पात्र महाराज दशरथको देते हुए कहा - 'राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्यवर्धक तथा पुत्रोंको उत्पन्न करनेवाली है| इसे तुम अपनी रानियोंको खिला दो|' महाराजने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रामें बाँटकर दे दिया| समय आनेपर कौसल्याके गर्भसे सनातन पुरुष भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| कैकेयीने भरत और सुमित्राने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नको जन्म दिया |

चारों भाई माता-पिताके लाड़-प्यारमें बड़े हुए| यद्यपि महाराजको चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीरामपर इनका विशेष स्नेह था| ये श्रीरामको क्षणभरके लिये भी अपनी आँखोंसे ओझल नहीं करना चाहते थे| जब विश्वामित्रजी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम-लक्ष्मणको माँगने आये तो वसिष्ठके समझानेपर बड़ी कठिनाईसे ये उन्हें भेजनेके लिये तैयार हुए|

अपनी वृद्धावस्थाको देखकर महाराज दशरथने श्रीरामको युवराज बनाना चाहा| मंथराकी सलाहसे कैकेयीने अपने पुराने दो वरदान महाराजसे माँगे - एकमें भरतको राज्य और दूसरेमें श्रीरामके लिये चौदह वर्षोंका वनवास| कैकेयीकी बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये| थोड़ी देरके लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी| होश आनेपर इन्होंने कैकयीको समझाया| बड़ी ही नम्रतासे दीन शब्दोंमें इन्होंने कैकेयीसे कहा - 'भरतको तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीरामको वन भेजनेका आग्रह मत करो|' विधिके विधान एवं भावीकी प्रबलताके कारण महाराजके विनयका कैकेयीपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| भगवान् श्रीराम पिताके सत्यकी रक्षा और आज्ञापालनके लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ वन चले गये| महाराज दशरथके शोकका ठिकाना न रहा| जबतक श्रीराम रहे तभीतक, इन्होंने अपने प्राणोंको रखा और उनका वियोग होते ही श्रीरामप्रेमानलमें अपने प्राणोंकि आहुति दे डाली|

जिअत राम बिधु बदनु निहारा| राम बिरह करि मरनु सँवारा||

महाराज दशरथके जीवनके साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी| श्रीरामके वियोगमें अपने प्राणोंको देकर इन्होंने प्रेमका एक अनोखा आदर्श स्तापित किया| महाराज दशरथके सामान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समयमने राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणोंका विसर्जन किया|

Friday, 25 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र

ॐ श्री साँई राम जी



महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधिके पुत्र थे| कुश्वंशमें पैदा होनेके कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं| ये बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थे| एक बार ये सेनाको साथ लेकर जंगलमें शिकार खेलनेके लिये गये| वहाँपर वे महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर पहुँचे|महर्षि वसिष्ठने इनसे इनकी तथा राज्यकी कुशल-श्रेम पूछी और सेनासहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करनेकी प्रार्थना की|

विश्वामित्रने कहा - 'भगवन्! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं| आपने जो फल-फूल दिये, उसीसे हमारा सत्कार हो गया| अब हमें जानेकी आगया दें|'

महर्षि वसिष्ठने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करनेका आग्रह किया| उनके विनयको देखकर विश्वामित्रने अपनी स्वीकृति दे दी| महर्षि वसिष्ठने अपने योगबल और कामधेनुकी सहायतासे विश्वामित्रको सैनिकोंसहित भलीभांति तृप्त कर दिया| कामधेनुके विलक्षण प्रभावसे विश्वामित्र चकित हो गये| उन्होंने कामधेनुको देनेके लिये महर्षि वसिष्ठसे प्रार्थना की| वसिष्ठजीके इनकार करनेपर वे जबरन कामधेनुको अपने साथ ले जाने लगे| कामधेनुने अपने प्रभावसे लाखों सैनिक पैदा किये| विश्वामित्रकी सेना भाग गयी और वे पराजित हो गये| इससे विश्वामित्रको बड़ी ग्लानी हुई| उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया| वे जंगलमें जाकर ब्रह्मर्षि होनेके लिये कठोर तपस्या करने लगे|

तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सराके माध्यमसे विश्वामित्रके जीवनमें कामका विघ्न आया| ये सब कुछ छोड़कर मेनकाके प्रेममें डूब गये| जब इन्हें होश आया तो इनके मनमें पश्चात्तापका उदय हुआ| ये पुन: कठोर तपस्यामें लगे और सिद्ध हो गये| कामके बाद क्रोधने भी विश्वामित्रको पराजित किया| राजा त्रिशुंक सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे| यह प्रकृतिके नियमोंके विरुद्ध होनेके कारण वसिष्ठजीने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया| विश्वामित्रके तपका तेज उस समय सर्वाधिक था| त्रिशुंक विश्वामित्रके पास गये| वसिष्ठसे पुराने वैरको स्मरण करके विश्वामित्रने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया| सभी ऋषि इस यज्ञमें आये, किन्तु वसिष्ठके सौ पुत्र नहीं आये| इसपर क्रोधके वशीभूत होकर विश्वामित्रने उन्हें मार डाला| अपनी भयङ्कर भूलका ज्ञान होनेपर विश्वामित्रने पुन: तप किया और क्रोधपर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए| सच्ची लगन और सतत उद्योगसे सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्रने इसे सिद्ध कर दिया|

श्रीविश्वामित्रजीको भगवान् श्रीरामका दूसरा गुरु होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ| ये दण्डकारण्यमें यज्ञ कर रहे थे| रावणके द्वारा वहाँ नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस इनके यज्ञमें बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे| विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे जान लिया कि त्रैलोक्यको भयसे त्राण दिलानेवाले परब्रह्म श्रीरामका अवतार अयोध्यामें हो गया है| फिर ये अपनी यज्ञरक्षाके लिये श्रीराम को महाराज दशरथसे माँग ले आये| विश्वामित्रके यज्ञ की रक्षा हुई| इन्होंने भगवान् श्रीरामको अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका मिथिलामें श्रीसीताजीसे विवाह सम्पन्न कराया| महर्षि विश्वमित्र आजीवन पुरुषार्थ और तपस्याके मूर्तिमान् प्रतीक रहे| सप्तऋषिमण्डलमें ये आज भी विद्यमान हैं|

Thursday, 24 May 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 46

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 46


बाबा की गया यात्रा - बकरों की पूर्व जन्मकथा

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इस अध्याय में शामा की काशी, प्रयाग व गया की यात्रा और बाबा किस प्रकार वहाँ इनके पूर्व ही (चित्र के रुप में) पहुँच गये तथा दो बकरों के गत जन्मों के इतिहास आदि का वर्णन किया गया है ।

प्रस्तावना 
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हे साई । आपके श्रीचरण धन्य है और उनका स्मरण कितना सुखदायी है । आपके भवभयविनाशक स्वरुप का दर्शन भी धन्य है, जिसके फलस्वरुप कर्मबन्धन छिन्नभिन्न हो जाते है । यघपि अब हमें आपके सगुण स्वरुप का दर्शन नहीं हो सकता, फिर भी यदि भक्तगण आपके श्रीचरणों में श्रद्घा रखें तो आप उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दे दिया करते है । आप एक अज्ञात आकर्षण शक्ति द्घारा निकटस्थ या दूरस्थ भक्तों को अपने समीप खींचकर उन्हें एक दयालु माता की नाई हृदय से लगाते है । हे साई । भक्त नहीं जानते कि आपका निवास कहाँ है, परन्तु आप इस कुशलता से उन्हें प्रेरित करते है, जिसके परिणामस्वरुप भासित होने लगता है कि आपका अभय हस्त उनके सिर पर है और यह आपकी ही कृपा-दृष्टि का परिणाम है कि उन्हें अज्ञात सहायता सदैव प्राप्त होती रहती है । अहंकार के वशीभूत होकर उच्च कोटि के विद्घान और चतुर पुरुष भी इस भवसागर की दलदल में फँस जाते है । परन्तु हे साई । आप केवल अपनी शक्ति से असहाय और सुहृदय भक्तों को इस दलदल से उबारकर उनकी रक्षा किया करते है । पर्दे की ओट में छिपे रहकर आप ही तो सब न्याय कर रहे है । फिर भी आप ऐसा अभिनय करते है, जैसे उनसे आपका कोई सम्बन्ध ही न हो । कोई भी आप की संपूर्ण जीवन गाथा न जान सका । इसलिये यही श्रेयस्कर है कि हम अनन्य भाव से आपके श्रीचरणों की शरण में आ जायें और अपने पापों से मुक्त होने के लिये एकमात्र आपका ही नामस्मरण करते रहे । आप अपने निष्काम भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति करा दिया करते है । केवल आपके मधुर नाम का उच्चारण ही भक्तों के लिये अत्यन्त सुगम पथ है । इस साधन से उनमें राजसिक और तामसिक गुणों का हिरास होकर सात्विक और धार्मिक गुणों का विकार होगा । इसके साथ ही साथ उन्हें क्रमशः विवेक, वैराग्य और ज्ञान की भी प्राप्ति हो जायेगी । तब उन्हें आत्मस्थित होकर गुरु से भी अभिन्नता प्राप्त होगी और इसका ही दूसरा अर्थ है गुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना । इसका निश्चित प्रमाण केवल यही है कि तब हमारा मन स्थिर और शांत हो जाता है । इस शरणागति, भक्ति और ज्ञान की मह्त्ता अद्घितीय है, क्योंकि इनके साथ ही शांति, वैराग्य, कीर्ति, मोक्ष इत्यादि की भी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।

यदि बाबा अपने भक्तों पर अनुग्रह करते है तो वे सदैव ही उनके समीप रहते है, चाहे भक्त कहीं भी क्योंन चला जाये, परन्तु वे तो किसी न किसी रुप में पहले ही वहाँ पहुँच जाते है । यह निम्नलिखित कथा से स्पष्ट है ।


गया यात्रा
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बाबा से परिचय होने के कुछ काल पश्चात ही काकासाहेब रदीक्षित ने अपने ज्येष्ठ पुत्र बापू का नागपुर में उपनयन संस्कार करने का निश्चय किया और गभग उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर ने भी अपने ज्येष्ट पुत्र का ग्वालियार में शादी करने का कार्यक्रम बनाया । दीक्षित और चांदोरकर दोनों ही शिरडी आये और प्रेमपूर्वक उन्होंने बाबा को निमन्त्रण दिया । तब उन्होंने अपने प्रतिनिधि शामा को ले जाने को कहा, परन्तु जब उन्होंने स्वयं पधारने के लिये उनसे आग्रह किया तो उन्होंने उत्तर दिया कि बनारस और प्रयाग निकल जाने के पश्चात, मैं शामा से पहले ही पहुँच जाऊँगा, पाठकगण । कृपया इन शब्दों को ध्यान में रखें, क्योंकि ये शब्द बाबा की सर्वज्ञता के बोधक है ।

बाबा की आज्ञा प्राप्त कर शामा ने इन उत्सवों में सम्मिलित होने के लिये प्रथम नागपुर, ग्वालियर और इसके पश्चात काशी, प्रयाग और गया जाने का निश्चय किया । अप्पाकोते भी शामा के साथ जाने को तैयार हो गये । प्रथम तो वे दोनों उपनयन संस्कार में सम्मिलित होने नागपुर पहुँचे । वहाँ काकासाहेब दीक्षित ने शामा को दो सौ रुपये खर्च के निमित्त दिये । वहाँ से वे लोग विवाह में सम्मिलित होनें ग्वालियर गये । वहाँ नानासाहेब चांदोरकर ने सौ रुपये और उनके संबंधी श्री. जुठर ने भी सौ रुपये शामा को भेंट किये । फिर शामा काशी पहुँचे, जहाँ जठार ने लक्ष्मी-नारायण जी के भव्य मंदिर में उनका उत्तम स्वागत किया, अयोध्या में जठार के व्यवस्थापक ने भी शामा का अच्छा स्वागत किया । शामा और कोते अयोध्या में 21 दिन तथा काशी (बनारस) में दो मास ठहर कर फिर गया को रवाना हो गये । गया में प्लेग फैलने का समाचार रेलगाड़ी में सुनकर इल नोगों को थोड़ी चिन्ता सी होने लगी । फिर भी रात्रि को वे गया स्टेशन पर उतरे और एक धर्मशाला में जाकर ठहरे । प्रातःकाल गया वाला पुजारी (पंडा), जो यात्रियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था किया करता था, आया और कहने लगा कि सब यात्री तो प्रस्थान कर चुके है, इसलिये अब आप भी शीघ्रता करे । शामा ने सहज ही उससे पूछा कि क्या गया में प्लेग फैला है । तब पुजारी ने कहा कि नहीं । आप निर्विघ्र मेरे यहाँ पधारकर वस्तुस्थिति का स्वयं अवलोकन कर ले । तब वे उसके साथ उसके मकान पर पहुँचे । उसका मकान क्या, एक विशाल महल था, जिसमें पर्याप्त यात्री विश्राम पा सकते थे । शामा को भी उसी स्थान पर ठहराया गया, जो उन्हें अत्यन्त प्रिय लगा । बाबा का एक बड़ा चित्र, जो कि मकान के अग्रिम बाग के ठीक मध्य में लगा था, देखकर वे अति प्रसन्न हो गये । उनका हृदय भर आया और उन्हें बाबा के शब्दों की स्मृति हो आई कि मैं काशी और प्रयाग निकल जाने के पश्चात शामा से आगे ही पहुँच जाऊँगा । शामा की आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी और उनके शरीर में रोमांच हो आया तथा कंठ रुँध गया और रोते-रोते उनकी घिग्घियाँ बँध गई । पुजारी ने शामा की जो ऐसी स्थिति देखी तो उसने सोचा कि यह व्यक्ति प्लेगी की सूचना पर भयभीत होकर रुदन कर रहा है, परन्तु शामा ने उसी कल्पना के विपरीत ही प्रश्न किया कि यह बाबा का चित्र तुम्हें कहाँ से मिला । उसने उत्तर दिया कि मेरे दो-तीन सौ दलाल मनमाड और पुणताम्बे श्रेत्र में काम करते है तथा उस क्षेत्र से गया आने वाले यात्रियों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा करते है । वहाँ शिरडी के साई महाराज की कीर्ति मुझे सुनाई पड़ी । लगभग बारह वर्ष हुए, मैंने स्वयं शिरडी जाकर बाबा के श्री दर्शन का लाभ उठाया था और वहीं शामा के घर में लगे हुए उनके चित्र से मैं आकर्षित हुआ था । तभी बाबा की आज्ञा से शामा ने जो चित्र मुझे भेंट किया था, यह वही चित्र है । शामा की पूर्व स्मृति जागृत हो आई और जब गया वाले पुजारी को यह ज्ञात हुआ कि ये वही शामा है, जिन्होंने मुझे इस चित्र द्घारा अनुगृहित किया था और आज मेरे यहाँ अतिथि बनकर ठहरे है तो उसके आनन्द की सीमा न रही । दोनों बड़े प्रेमपूर्वक मिलकर हर्षित हुए । फिर पुजारी ने शामा का बादशाही ढंग से भव्य स्वागत किया । वह एक धनाढ़्य व्यक्ति था । स्वयं डोली में और शामा को हाथी पर बिठाकर खूब घुमाया तथा हर प्रकार से उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा । इस कथा ने सिदृ कर दिया कि बाबा के वचन सत्य निकले । उनका अपने भक्तों पर कितना स्नेह था, इसको तो छोड़ो । वे तो सब प्राणयों पर एक-सा प्रेम किया करते थे और उन्हें अपना ही स्वरुप समझते थे । यह निम्नलिखित कथा से भी विदित हो जायेगा ।


दो बकरे
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एक बार जब बाबा लेंडी बाग से लौट रहे थे तो उन्होंने बकरों का एक झुंड आते देखा । उनमें से दो बकरों ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया । बाबा ने जाकर प्रेम-से उनका शरीर अपने हाथ से थपथपाया और उन्हें 32 रुपये में खरीद लिया । बाबा का यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि बाबा तो इस सौदे में ठगा गया है, क्योंकि एक बकरे का मूल्य उस समय 3-4 रुपये से अधिक न था और वे दो बकरे अधिक से अधिक आठ रुपये में प्राप्त हो सकते थे ।
उन्होंने बाबा को कोसना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु बाबा शान्त बैठे रहे । जब शामा और तात्या ने बकरे मोल लेने का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे कोई घर या स्त्री तो है नही, जिसके लिये मुझे पैसे इकट्ठे करके रखना है । फिर उन्होंने चार सेर दाल बाजार से मँगाकर उन्हें खिलाई । जब उन्हें खिला-पिला चुके तो उन्होंने पुनः उनके मालिक को बकरे लौटा दिये । तत्पश्चात् ही उन्होने उन बकरों के पूर्वजन्मों की कथा इस प्रकार सुनाई । शामा और तात्या, तुम सोचते हो कि मैं इस सौदे में ठगा गया हूँ । परन्तु ऐसा नही, इनकी कथा सुनो । गत जन्म में ये दोनों मनुष्य थे और सौभाग्य से मेरे निकट संपर्क में थे । मेरे पास बैठते थे । ये दोनों सगे भाई थे और पहले इनमें परस्पर बहुत प्रेम था, परन्तु बाद में ये एक दूसरे के कट्टर शत्रु हो गये । बड़ा भाई आलसी था, किन्तु छोटा भाई बहुत परिश्रमी था, जिसने पर्याप्त धन उपार्जन कर लिया था, जससे बड़ा भाई अपने छोटे भाई से ईर्ष्या करने लगा । इसलिये उसने छोटे भाई की हत्या करके उसका धन हड़पने की ठानी और अपना आत्मीय सम्बन्ध भूलकर वे एक दूसरे से बुरी तरह झगड़ने लगे । बड़े भाई ने अनेक प्रत्यन किये, परन्तु वह छोटे भाई की हत्या में असफल रहा । तब वे एक दूसरे के प्राणघातक शत्रु बन गये । एक दिन बड़े भाई ने छोटे भाई के सिर पर लाठी से प्रहार किया । तब बदले में छोटे भाई ने भी बड़े भाई के सिर पर कुल्हा़ड़ी चलाई और परिणामस्वरुप वहीं दोनों की मृत्यु हो गई । फिर अपने कर्मों के अनुसार ये दोनों बकरे की योनि को प्राप्त हुये । जैसे ही वे मेरे समीप से निकले तो मुझे उनके पूर्व इतिहास का स्मरण हो आया और मुझे दया आ गई । इसलिये मैंने उन्हें कुछ खिलाने-पिलाने तथा सुख देने का विचार किया । यही कारण है कि मैंने इनके लिये पैसे खर्च किये, जो तुम्हें मँहगे प्रतीत हुए है । तुम लोगों को यह लेन-देन अच्छा नहीं लगा, इसलिये मैंने उन बकरों को गड़ेरिये को वापस कर दिया है । सचमुच बकरे जैसे सामान्य प्राणियों के लिये भी बाबा को बेहद प्रेम था ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 23 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि वशिष्ठ

ॐ श्री साँई राम जी 




महर्षि वशिष्ठ

महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्तिका वर्णन पुराणोंमें विभित्र रूपोंमें प्राप्त होता है| कहीं ये ब्रह्माके मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुणके पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं| इनकी पत्नीका नाम अरुन्धती देवी था| जब इनके पिता ब्रह्माजीने इन्हें मृत्युलोकमें जाकर सृष्टिका विस्तार करने तथा सूर्यवंशका पौरोहित्य कर्म करनेकी आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्मको अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करनेमें अपनी असमर्थता व्यक्त की| ब्रह्माजीने इनसे कहा - 'इसी वंशमें आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करेगा|' फिर इन्होंने इस धराधामपर मानव-शरीरमें आना स्वीकार किया|

महर्षि वसिष्ठने सूर्यवंशका पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्योंको सम्पन्न किया| इन्हींके उपदेशके बलपर भगीरथने प्रयत्न करके गङ्गा-जैसी लोककल्याणकारिणी नदीको हमलोगोंके लिये सुलभ कराया| दिलीपको नन्दिनीकी सेवाकी शिक्षा देकर रघु - जैसे पुत्र प्रदान करनेवाले तथा महाराज दशरथकी निराशामें आशाका सञ्चार करनेवाले महर्षि वसिष्ठ ही थे| इन्हींकी सम्मतिसे महाराज दशरथने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| भगवान् श्रीरामको शिष्यरूपमें प्राप्तकर महर्षि वसिष्ठका पुरोहित-जीवन सफल हो गया| भगवान् श्रीरामके वनगमसे लौटनेके बाद इन्हींके द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ| गुरु वसिष्ठने श्रीरामके राज्यकार्यमें सहयोगके साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये|

महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी प्रतिमूर्ति थे| एक बार श्रीविश्वामित्र उनके अतिथि हुए| महर्षि वसिष्ठने कामधेनुके सहयोगसे उनका राजोचित सत्कार किया| कामधेनु की अलौकिक क्षमताको देखकर विश्वामित्रके मनमें लोभ उत्पन्न हो गया| उन्होंने इस गौको वसिष्ठसे लेनेकी इच्छा प्रकट की| कामधेनु वसिष्ठजीके लिये आवश्यक आवश्यकताओंकी पूर्तिहेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देनेमें असमर्थता व्यक्त की| विश्वामित्रने कामधेनुको बलपूर्वक ले जाना चाहा| वसिष्ठजीके संकेतपर कामधेनुने अपार सेनाकी सृष्टि कर दी| विश्वामित्रको अपनी सेनाके साथ भाग जानेपर विवश होना पड़ा| द्वेष-भावनासे प्रेरित होकर विश्वामित्रने भगवान् शंकरकी तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठपर पुन: आकर्मण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्रदण्डके सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रियबलको धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभके लिये तपस्याहेतु वन जाना पड़ा|

विश्वामित्रकी अपूर्व तपस्यासे सभी लोग चमत्कृत हो गये| सब लोगोंने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे| अन्तमें उन्होंने वसिष्ठजीको मिटानेका निश्चय कर लिया और उनके आश्रममें एक पेड़पर छिपकर वसिष्ठजीको मारनेके लिये उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे| उसी समय अरुन्धतीके प्रश्न करनेपर वसिष्ठजीने फेंककर श्रीवसिष्ठजीने शरणागत हुए| वसिष्ठजीने उन्हें उठाकर गलेसे लगाया और ब्रह्मर्षिकी उपाधिसे विभूषित किया| इतिहास-पुराणोंमें महर्षि वसिष्ठके चरित्रका विस्तृत वर्णन मिलता है| ये आज भी सप्तर्षियोंमें रहकर जगत् का कल्याण करते रहते हैं|

Tuesday, 22 May 2018

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवान श्रीराम

ॐ श्री साँई राम जी




भगवान श्रीराम

असंख्य सद्गुण रूपी रत्नों के महान निधि भगवान् श्रीराम धर्म परायण भारतीयों के परमाराध्य हैं| श्रीराम ही धर्म के रक्षक, चराचर विश्व की सृष्टि करने वाले, पालन करने वाले तथा संहार करने वाले परब्रह्म के पूर्णावतार हैं| रामायण में यथार्थ ही कहा गया है - 'रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता|' भगवान् श्रीराम धर्म के क्षीण हो जाने पर साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और भूतल पर शान्ति एवं धर्म की स्थापना करने के लिये अवतार लेते हैं| उन्होंने त्रेतायुग में देवताओं की प्रार्थना सुन कर पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के यहाँ चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अवतार लिया और राक्षसों का संहार करके त्रिलोक में अपनी अविचल कीर्ति स्थापित की| पृथ्वी का धारण-पोषण, समाज का संरक्षण और साधुओं का परित्राण करने के कारण भगवान् श्रीराम मूर्तिमान् धर्म ही हैं|

भगवान् श्रीराम जीवमात्र के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे| विविध रामायणों, अठराह महापुराणों, रघुवंशादि महाकाव्यों, हनुमदादि नाटकों, अनेक चप्पू-काव्यों तथा महाभारतादि में इनके विस्तृत चरित्र का ललित वर्णन मिलता है| श्रीराम के विषय में जितने ग्रन्थ लिखे गये, उतने किसी अन्य अवतार के चरित्र पर नहीं लिखे गये| गुरुगृह से अल्पकाल में शिक्षा प्राप्त करके लौटने के बाद इनका चरित्र विश्वामित्र की यज्ञरक्षा, जनकपुर में शिव-धनुष-भंग, सीता-विवाह, परशुराम का गर्वभंग आदि के रूप में विख्यात है| यज्ञरक्षा के लिये जाते समय इन्होंने ताड़का-वध, महर्षि विश्वामित्र के आश्रम पर सुबाहु आदि दैत्यों का संहार तथा गौतम की पत्नी अहल्या का उद्धार किया| कैकेयी के वरदान स्वरूप पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ये चौदह वर्षों के लिये वन में गये| चित्रकूटादि अनेक स्थानों में रह कर इन्होंने ऋषियों को कृतार्थ किया| पञ्चवटी में शूर्पणखा की नाक काटकर और खर-दूषण, त्रिशिरा आदि का वध कर इन्होंने रावण को युध्द के लिये चुनौती दी| रावण ने मारीच की सहायता से सीता का अपहरण किया| सीता की खोज करते हुए इन्होंने सुतीक्ष्ण, शरभंग, जटायु, शबरी आदि को सद्गति प्रदान की तथा ऋष्यमूक पर्वतपर पहुँच कर सुग्रीव से मैत्री की और वाली का वध किया| फिर श्री हनुमान् जी के द्वारा सीता का पता लगवा कर इन्होंने समुद्र पर सेतु बँधवाया और वानरी-सेना की सहायता से रावण-कुम्भकर्णादिका वध किया तथा विभीषण को राज्य देकर सीता जी का उद्धार किया| भगवान् श्रीराम ने लगभग ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य कर के त्रेता में सत्ययुग की स्थापना की| अपने राज्यकाल में राम राज्य को चिरस्मरणीय बना कर पुराण पुरुष श्री राम सपरिकर अपने दिव्यधाम साकेत पधारे|

कर्तव्य ज्ञान की शिक्षा देना रामावतार की विशेषता है| इसका दुष्टान्त भगवान् श्रीराम ने स्वयं अपने आचरणों के द्वारा कर्म करके दिखाया| वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श वीर, आदर्श देश सेवक और सर्वश्रेष्ठ महा मानव होने के साथ साक्षात् परमात्मा थे| भगवान् श्रीराम का चरित्र अनन्त है, उनकी कथा अनन्त है| उसका वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है| भक्तगण अपनी भावना के अनुसार उनका गुणगान करते हैं|

Monday, 21 May 2018

तुम्ही रामा मेरे साई तुम्ही कृष्णा मेरे साई

ॐ श्री साँई राम जी 



जिधर देखूं उधर साईतेरा दीदार हो जाये 
करम हो गर तेरा साईतो बेड़ा पार हो जाये
तुम्ही रामा मेरे साई तुम्ही कृष्णा मेरे साई

तेरे बिन मैं ना रह पाऊँमेरे बिन तू ना रह पाये
 मिलन ऐसा मेरे साईयूँ बारम्बार हो जाये

जिधर देखूं उधर साईतेरा दीदार हो जाये 

करम हो गर तेरा साईतो बेड़ा पार हो जाये
तुम्ही रामा मेरे साई तुम्ही कृष्णा मेरे साई

Sunday, 20 May 2018

हिन्दू मुसल्माँ, सभी के हो मालिक

ॐ श्री साँईं राम जी 



तुम्हारे करम से ही देखा है साईं
सदा ही जहाँ में  ऐसा नज़ारा
तुम्हारी इबादत से बदलती है किस्मत
तुम्हारी पनाहों में मिलता किनारा
तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

रखे जो भी मन में श्रद्धा सबूरी
कमी उसके घर में आती नहीं है
हस्ती को अपनी मिटा ले अगर तो
कभी मौत उसको रुलाती नहीं है
उलझी है जिसकी कश्ती  भंवर में
तुमने ही उसको दिया है  किनारा
तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

जिसका नहीं कोई सारे जहाँ में
उसके हो  मालिक तुम्हीं  साईं बाबा
जिसके  ज़हन में  साईं तुम बसे हो
ग़म उसके सारे तुम्हारे हैं  बाबा 
पकड़ी है तुमने ग़र डोर जिसकी
जीवन की राहों में  कभी न वो हारा
तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

जहाँ में न देखा है कोई ऐसा
कोढ़ी को जिसने गले से लगाया
हिन्दू मुसल्माँसभी के हो मालिक
सभी को तो तुमने  अपना बनाया
शिर्डी में बस के सारे जहां को
मोहब्बत का तुमने कलमा पढ़ाया
तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

Saturday, 19 May 2018

रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ

ॐ श्री साँईं राम जी 



रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

असी पूजा पाठ दा ना कोई ढंग करदे
असी चज दा ना ज़िन्दगी च कम करदे
इक तैनू ही मनाया ए जरूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

साडे मण विच विषय  ते विकार वसदे
असी  करमां दे  वाजों गुनागार दिसदे
तूं तां अल्ला  दा ही दिसदां यें नूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

असी माया दे जंजाल विच फसे होए आं
असीं पापां दियां बेड़ियाँ च कसे होए आं
साडे पापां नू वी  धोवीं तूँ जरूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

तहे-दिल से अगर तुम चाहते हो
साईं  के सदा रहो बनकर
चरणों को बसा लो मन में और
रहो साईं के दास बनकर 

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.