शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Wednesday, 28 February 2018

बाँट लो हर ख़ुशी

ॐ साईं राम



 दर्द कैसा भी हो आंख नम न करो
रात काली सही कोई गम न करो
एक सितारा बनो जगमगाते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो
बांटनी है अगर बाँट लो हर ख़ुशी
गम न ज़ाहिर करो तुम किसी पर कभी
दिल कि गहराई में गम छुपाते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो
अश्क अनमोल है खो न देना कहीं
इनकी हर बूँद है मोतियों सी हसीं
इनको हर आंख से तुम चुराते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो
फासले कम करो दिल मिलाते रहो
ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो..
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मुझे जितना दिया साईं ने, उतनी तो मेरी औकात न थी !!
ये तो करम है मेरे साईं का, वरना मुझमे तो ऐसी कोई बात न थी

Tuesday, 27 February 2018

यह द्वारकामाई सबकी माई है

ॐ श्री साँई राम जी


जय हो जय हो द्वारकामाई |
यहाँ साईं ने पानी से दिये जलाये है
अपने चमत्कार दिखाये है
श्रद्धा सबुरी का पाठ पढाये है
सबका मालिक एक की बात बताये है
जय हो जय हो द्वारकामाई |
यहाँ सबकी झोली भरती है
यह सबका पेट भरती है
यह द्वारकामाई सबकी माई है
जय हो जय हो द्वारकामाई |
यह ग्यारह वचन निभाती है
सबकी बिगरी बनाती है
मन मैं विशवास रखो मेरे भाई
इसके दर्शन करो भाई
जय हो जय हो द्वारकामाई
 
शिर्डी का सच्चा दरबार
जय साईं राम
शिर्डी का सच्चा दरबार
शिर्डी का सच्चा दरबार है
यहाँ रहते साईं सरकार है
सच्चे मन से जो भी जाये
उसका बेडा पार है
शिर्डी का सच्चा दरबार है |
समाधी मंदिर से चावडी तक
पालकी निकलती हर वीरवार है
ढोल नगारे के साथ भक्त नाचते
बाबा की होती जय जय कार है
शिर्डी का सच्चा दरबार है
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
सब मिल कर मनाते हर त्यौहार है
झूम झूम कर सभी नाचते
मानो शिर्डी में आई बहार है
शिर्डी का सच्चा दरबार है

Monday, 26 February 2018

बांह पकड़ ले शिर्डी वाले

ॐ साईं राम


डूब रही है मेरी कश्ती बीच मझधार रे 
बांह पकड़ ले शिर्डी वाले ओ मेरी सरकार रे
नहीं दिया मुझे किसी ने सहारा आया तेरे द्वार रे
जीवन है एक ऐसी नैया जिसका तू है साईं खिवेइया
थाम ले मेरी डूबती कश्ती की तू आके पतवार रे
सबको तुने भव से तारा मुझको भी तू तार रे
नीम के नीचे डेरा लगाया शिर्डी को तुने स्वर्ग बनाया
अपने गुरु का मान बढाकर किया उसका सत्कार रे
पानी से तुमने दीप जलाए किया ऐसा चमत्कार रे
डूब रही है मेरी कश्ती बीच मझधार रे
बांह पकड़ ले शिर्डी वाले ओ मेरी सरकार रे

Sunday, 25 February 2018

अगर छोड बैठू में दामन तुम्हारा

ॐ साईं राम




 अगर हाथ रख दे मेरे सर पे साईं
 
मुझे फिर किसी की ज़रूरत नहीं है |
 
बिठाले अगर अपने चरणो में हर दम
 
किसी भी ख़ुशी की ज़रूरत नहीं है ||
 
ये फूलों कि दुनिया, ये खारों की दुनिया
 
ये लालच में भटके विचारों की दुनिया |
 
अगर पी सकूँ साईं मस्ती का अमृत
 
किसी बेखुदी की ज़रूरत नहीं है ||
 
अगर हाथ रख दे मेरे सर पे साईं
 
मुझे फिर किसी की ज़रुरत नहीं ||
 
दया कि है तुमने तो, हर बार कर दो
 
मेरी ज़िन्दगी पे ये उपकार कर दो |
 
अगर छोड बैठू में दामन तुम्हारा

तो इस ज़िन्दगी की ज़रूरत नहीं है ||

Saturday, 24 February 2018

मेरे सांई....मेरी खुशी भी तुम से.....

ॐ सांई राम



बाबा.......मेरे सांई....
तुम ही तुम हो...मेरे सांई....
मेरे सांई....बस तुम ही तुम...
मेरी सुबह भी तुम...मेरे सांई....


मेरे सांई....मेरी शाम भी तुम...
जहां देखूं बस तुम ही तुम मेरे सांई....,
मेरे सांई....सूरज में...
मेरे सांई....आकाश में...
मेरे सांई....चाँद में...
मेरे सांई....तारों में...
मेरे सांई....मेरी नज़र जहां तक
बस मेरे सांई....तुम ही तुम...
मेरे सांई....मेरा प्यार,
मेरे सांई....मेरी मुस्कराहट,
मेरे सांई....मेरी उम्मीद,
मेरे सांई....मेरी आरज़ू,
मेरे सांई....मेरे सपने,
मेरे सांई....मेरी रोशनी ...मेरे सांई....मेरी हंसी भी तुमसे,

मेरे सांई....मेरी खुशी भी तुम से,
मेरे सांई....मेरे सुख भी तुम,
मेरे सांई....मेरे दुख में भी तुम,
बस तुम ही तुम.....मेरे सांई....

Friday, 23 February 2018

जब तक रहूं मैं ज़िन्दा इज़्ज़त की भीख़ देना

ॐ सांई राम



तेरे नाम के सहारे जीवन बिता रहा हूं
जैसी भी निभ रही है वैसी निभा रहा हूं

तुम सबके राज़दां हो हर दिल की जानते हो
फ़िर भी ये हाले दिल मैं तुमको सुना रहा हूं


मुझसे सहा न जाये अब ग़म ये ज़िन्दगी का
नन्हीं सी जाँ पे कैसे सदमे उठा रहा हूं

जब तक रहूं मैं ज़िन्दा इज़्ज़त की भीख़ देना
ये आस लेके साँई तेरे दर पे आ रहा हूं


दीदार की तलब से हाज़िर हुआ है बन्दा
मुद्द्त से मेरे साँई तेरे दर पे आ रहा हूं


तेरे नाम के सहारे जीवन बिता रहा हूं
जैसी भी निभ रही है वैसी निभा रहा हूं

Thursday, 22 February 2018

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 32

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र अध्याय 32

गुरु और ईश्वर की खोज, उपवास अमान्य
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इस अध्याय में हेमाडपंत ने दो विषयों का वर्णन किया है ।
1. किस प्रकार अपने गुरु से बाबा की भेंट हुई और उनके द्घारा ईश्वरदर्शन की प्राप्ति कैसे हुई ।
2. श्रीमती गोखले को जो तीन दिन से उपवास कर रही थी, उसे पूरनपोली के भोजन कराये ।


प्रस्तावना
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श्री. हेमाडपंत वटवृक्ष का उदाहरण देकर इस गोचर संसार के स्वरुप का वर्णन करते है । गीता के अनुसार वटवृक्ष की जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई है । ऊध्र्वमूलमधः शाखाम् (गीता पंद्रहवाँ अध्याय, श्लोक 1) । इस वृक्ष के गुण पोषक ौर अंकुर इंद्रियों के भोग्य पदार्थ है । जड़ें जिनका कारणीभूत कर्म है, वे सृष्टि के मानवों की ओर फैली हुई है । इस वृक्ष की रचना बतड़ी ही विचित्र है । न तो इसके आकार, उदगम और अन्त का ही भान होता है और न ही इसके आश्रय का । इस कठोर जड़ वाले संसार रुपी वृक्ष को, वैराग्य के अमोघ शस्त्र द्घारा नष्ट करने के हेतु किसी बाह्य मार्ग का अवलंबन करना अत्यंत आवश्यक है , ताकि इस असार-संसार में आवागमन से मुक्ति प्राप्त हो । इस पथ पर अग्रसर होने के लिये किसी योग्य दिग्दर्शक (गुरु) की नितांत आवश्यकता है । चाहे कोई कितना ही विद्घान् अथवा वेद और वेदांत में पारंगत क्यों न हो, वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता, जब तक कि उसकी सहायतार्थ कोई योग्य. पथ प्रदर्शक न मिल जाये, जिसके पद चिन्हों का अनुसरण करने से ही मार्ग में मिलने वाले गहृरों, खंदकों तथा हिंसक प्राणियों के भओय से मुक्त हुआ जा सकता है और इस विधि से ही संसार-यात्रा सुगम तथा कुशलतापूर्वक पूर्ण हो सकती है । इश विषय में बाबा का अनुभव, जो उन्होंने स्वय बतलाया, वास्तव में आश्चर्यजनक है । यदि हम उसका ध्यानपूर्वक अनुसरण करेंगें तो हमें निश्चय ही श्रद्घा, भक्ति और मुक्ति प्राप्त होगी ।

अन्वेषण
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एक समय हम चार सहयोगी मिलकर धार्मिक एवं अन्य पुस्तकों का अध्ययन कर रहे थे । इस प्रकार प्रबुदृ होकर हम लोग ब्रहृ के मूलस्वरुप पर विचार करने लगे । एक ने कहा कि हमें स्वयं की ही जाति करनी चाहिए । दूसरों पर निर्भर रहना हमें उचित नहीं है । इस पर दूसरे ने कहा कि जिसने मनोनिग्रह कर लिया है, वही धन्य है, हमें अपने संकीर्ण विचारों व भावनाओं से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि इस संसार में हमारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । तीसरे ने कहा कि यह संसार सदैव परिवर्तनशील है केवल निराकार ही शाश्वत है । अतः हमें सत्य और असत्य में विवेक करना चाहिए । तब चौथे (स्वयं बाबा) ने कहा कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से कोई लाभ नहीं । हमें तो अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये । दृढ़ विश्वास और पूर्ण निष्ठापूर्वक हमें अपना तन, मन, धन और पंचप्राणादि सर्वव्यापक गुरुदेव को अर्पण कर देना चाहिये । गुरु भगवान् है, सबका पालनहार है ।
इस प्रकार वादविवाद के उपरांत हम चारों सहयोगी वन में, ईश्वर की खोज को निकले । हम चार विद्घान् बिना किसी से सहायता लिए केवल अपनी स्वतंत्र बुद्घि से ही ईश्वर की खोज करना चाहते थे । मार्ग में हमें एक बंजारा मिला, जिसने हम लोगों से पूछा कि हे सज्जनों, इतनी धूप में आप लोग किस ओर प्रस्थान कर रहे है । प्रत्युत्तर में हम लोगों ने कहा कि वन की ओर । उसने पुनः पूछा, कृपया यह तो बतलाइये कि वन की ओर जाने का क्या उद्देश्य है । हम लोगों ने उसे टालमटोल वाला उत्तर दे दिया । हम लोगों को निरुद्देश्य सघन भयानक जंगलों में भटकते देखकर उसे दया आ गई । तब उसने अति विनम्र होकर हम लोगों से निवेदन किया कि आप अपनी गुप्त खोज का हेतु चाहे मुझे न बतलाये, किन्तु मैं प्रत्यक्ष देखा रहा हूँ कि मध्याहृ के प्रचण्ड मार्त्तण्ड की तीव्र किरणों की उष्णता से आप लोग अधिक कष्ट पा रहे है । कृपया यतहाँ पर कुछ क्षण विश्राम कर जल-पान कर लीजिये । आप लोगों को सुहृदय तथा नम्र होना चाहिए । बिना पथ-प्रदर्शक के इस अपरचित भयानक वन में भटकते फिरने से कोई लाभ नहीं है । यदि आप लोगों की तीव्र इच्छा ऐसी ही है तो कृपया किसी योग्य पथ-प्रदर्शक को साथ ले लें । उसकी विनम्र प्रार्थना पर ध्यान न देकर हम लोग आगे बढ़े । हम लोगों ने विचार किया कि हम स्वयं ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ है, तब फिर हमें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है । जंगल बहुत विशाल और पथहीन था । वृक्ष इतने ऊँचे और घने थे कि सूर्य की किरणों का भी वहाँ पहुँच सकना कठिन था । परिणाम यह हुआ कि हम मार्ग भूल गये और बहुत समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे । भाग्यवश हम लोग उसी स्थाने पर पुनः जा पहुँचे, जहाण से पहले प्रस्थान किया था । तब वही बंजारा हमें पुनः मिला और कहने लगा कि अपने चातुर्य पर विश्वास कर आप लोगों को पथ की विस्मृति हो गई है । प्रत्येक कार्य में चाहे वह बड़ा हो या छोटा, मार्ग-दर्शक आवश्यक है । ईश्वर-प्रेरणा के अभाव में सत्पुरुषों से भेंट होना संभव नहीं । भूखे रहकर कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता । इसलिये यदि कोई आग्रहपूर्वक भोजन के लिये आमंत्रिित करे तो उसे अस्वीकार न करो । भोजन तो भगवान का प्रसाद है ,उसे ठुकराना उचित नहीं । यदि कोई भोजन के लिये आग्रह करे तो उसे अपनी सफलता का प्रतीक जानो । इतना कहकर उसने भोजन करने का पुनः अनुरोध किया । फिर भी हम लोगों ने उसके अनुरोध की उपेक्षा कर भोजन करना अस्वीकार कर दिया । उसके सरल और गूढ़ उपदेशों की परीक्षा किये बिना ही मेरे तीन साथियों ने आगे को प्रस्थान कर दिया । अब पाठक ही अनुमान करें कि वे लोग कितने अहंकारी थे । मैं क्षुधा और तृषा से अत्यंत व्याकुल था ही, बंजारे के अपूर्व प्रेम ने भी मुझे आकर्षित कर लिया । यघपि हम लोग अपने को अत्यंत विद्घान समझते थे, परन्तु दया एवं कृपा किसे कहते है, उससे सर्वथा अनभिज्ञ ही थे । बंजारा था तो एक शूद्र, अनपढ़ और गँवार, परन्तु उसके हृदय में महान् दया थी, जिसने बारबार भोजन के लिये आग्रह किया । जो दूसरों पर निःस्वार्थ प्रेम करते है, सचमुच में ही महान् है । मैंनें सोचा कि इसका आग्रह स्वीकार कर लेना ज्ञान-प्राप्ति के हेतु शुभ आवाहन है और मैंने इसी कारण उसके दिये हुए रुखे-सूखे भोजन को आदर व प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लिया ।


क्षुधा-निवारण होते ही क्या देखता हूँ कि गुरुदेव तुरंत ही स्क्ष प्रगट हो गये और प्रश्न करने लगे कि यह सब क्या हो रहा था । घटित घटना मैंने तुरन्त ही उन्हें सुना दी । उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारे हृदय की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूँगा, परन्तु जिसका विश्वास मुझ पर होगा, सफलता केवल उसी को प्राप्त होगी । मेरे तीनों सहयोगी तो उनके वचनों पर अविश्वास कर वहाँ से चले गये । तब मैंने उन्हें आदरसहित प्रणाम किया और उनकी आज्ञा मानना स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् वे मुझे एक कुएँ के समीप ले गये और रस्सी से मेरे पैर बाँधकर मुझे कुएँ में उलटा लटका दिया । मेरा सिर नीचे और पैर ऊपर को थे । मेरा सिर जल से लगभग तीन फुट की ऊँचाई पर था, जिससे न मैं हाथों के द्घारा जल ही छू सकता था और न मुँह में ही उसके जा सकने की कोई सम्भावना थी । मुझे इस प्रकार उलटा लटका कर वे न जाने कहाँ चले गये । लगभग चार-पाँच घंटों के उपरांत वे लौटे और उन्होंने मुझे शीघ्र ही कुएँ से बाहर निकाला । फिर वे मुझसे पूछने लगे कि तुम्हें वहाँ कैसा प्रतीत हो रहा था । मैंने कहा कि मैं परम आनन्द का अनुभव कर रहा था । मेरे समान मूर्ख प्राणी भला ऐसे आनन्द का वर्णन कैसे कर सकता है । मेरे उत्तर सुन कर मेरे गुरुदेव अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उन्होंनें मुझे अपने हृदय से लगाकर मेरी प्रशंसा की और मुझे अपने संग ले लिया । एक चिड़िया अपने बच्चों का जितनी सावधानी से लालन पालन करती है, उसी प्रकार उन्होंनें मेरा भी पालन किया । उन्होंने मुझे अनपी शाला में स्थान दिया । कितनी सुन्दर थी वह शाला । वहाँ मुझे अपने माता-पिता की भी विस्मृति हो गई । मेरे अन्य समस्त आकर्षण दूर हो गये और मैंनें सरलतापूर्वक बन्धनों से मुक्ति पाई । मुझे सदा ऐसा ही लगता था कि उनके हृदय से ही चिपके रहकर उनकी ओर निहारा करुँ । यदि उनकी भव्य मूर्ति मेरी दृष्टि में न समाती तो मैं अपने को नेत्रहीन होना ही अधिक श्रेयस्कर समझता । ऐसी प्रिय थी वह शाला कि वहाँ पहुँचकर कोई भी कभी खाली हाथ नहीं लौटा । मेरी समस्त निधि, घर, सम्पत्ति, माता, पिता या क्या कहूँ, वे ही मेरे सर्वस्व थे । मेरी इन्द्रयाँ अपने कर्मों को छोड़कर मेरे नेत्रों में केन्द्रित हो गई और मेरे नेत्र उन पर । मेरे लिये तो गुरु ऐसे हो चुके थे कि दिन-रात मैं उनके ही ध्यान में निमग्न रहता था । मुझे किसी भी बात की सुध न थी । इस प्रकार ध्यान और चिंतन करते हुए मेरा मन और बुदद्घि स्थिर हो गई । मैं स्तब्ध हो गया और उन्हें मानसिक प्रणाम करने लगा । अन्य और भी आध्यात्मिक केन्द्र है, जहाँ एक भिन्न ही दृश्य देखने में आता है । साधक वहाँ ज्ञान प्राप्त करने को जाता है तथा द्रव्य और समय का अपव्यय करता है । कठोर पिरश्रम भी करता है, परन्तु अनत् में उसे पश्चाताप ही हाथ लगता है । वहाँ गुरु अपने गुप्त ज्ञान-भंडार का अभिमान प्रदर्शित करते है और अपने को निष्कलंक बतलाते है । वे अपनी पवित्रता और शुदृदता का अभिनय तो करते है, परन्तु उनके अन्तःकरण में दया लेशमात्र भी नहीं होती है । वे उपदेएश अधिक देते है और अपनी कीर्ति का स्वयं ही गुणगान करते है, परन्तु उनके शब्द हृदयवेधी नहीं होते, इसलिये साधकों को संतोष प्राप्त नहीं होता । जहाँ तक आत्म-दर्शन का प्रश्न है, वे उससे कोसों दूर होते है । इस प्रकार के केंद्र साधकों को उपयोगी कैसे सिदृ हो सकते है और उनसे किसी उन्नति की आशा कोई कहाँ तक कर सकता है । जिन गुरु के श्री चरणं का मैंने अभी वर्णन किया है, वे भिन्न प्रकार के ही थे । केवल उनकी कृपा-दृष्टि से मुझे स्वतः ही अनुभूति प्राप्त हो गई तथा मुझे न कोई प्रयास और न ही कोई विशेष अध्ययन करना पड़ा । मुझे किसी भी वस्तु के खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी, वरन् प्रत्येक वस्तु मुझे दिन के प्रकाश के समान उज्जवल दिखाई देने लगी । केवल मेरे वे गुरु ही जानते है कि किस प्रकार उनके द्घारा कुएँ में मुझे उल्टा लटकाना मेरे लिये परमानंद का कारण सिदृ हुआ ।
उन चार सहयोगियों में से एक महान कर्मकांडी था । किस प्रकार कर्म करना और उससे अलिप्त रहना, यह उसे भली भाँति ज्ञात था । दूसरा ज्ञानी था, जो सदैव ज्ञान के अहंकार में चूर रहता था । तीसरा ईश्वर भक्त था जो कि अनन्य भाव से भगवान् के शरणागत हो चुका था तथा उसे ज्ञात था कि ईश्वर ही कर्ता है । जब वे इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय कर रहे थे, तभी ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न उठ पड़ा तथा वे बिना किसी से सहायात प्राप्त किये अपने स्वतंत्र ज्ञान पर निर्भर रहकर ईश्वर की खोज में निकल पड़े । श्री साई, जो विवेक और वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति थे, उन चारों लोगों में सम्मिलित थे । यहाँ कोई शंका कर सकता है कि जब साई स्वयं ही ब्रहमा के अवतार थे, तब वे उन लोगों के साथ क्यों सम्मिलित हुए और क्यों उन्होंने इस प्रकार अविदृतापूर्ण आचरण किया । जन-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही उन्होने ऐसा आचरण किया । स्वयं अवतार होते हुए भी और यह दृढ़ धारणा कर कि अन्न् ही ब्रहमा है, उन्होंने एक क्षुद्र बंजारे के भोजन को स्वीकार कर लिया तथा बंजारे के भोजन के आग्रह की उपेक्षा करने और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त करने वालों की क्या दशा होती है, इसका उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया । श्रुति (तैत्तिरीय उपतनिषद्) का कथन है कि हमें माता, पिता तता गुरु का आदरसहित पूजन कर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये । ये चित्त-शुद्घि के मार्ग है और जब तक चित्त की शुद्घि नहीं होती, तब तक आत्मानुभूति की आशा व्यर्थ है । आत्मा इंद्रयों, मन और बुद्घि के परे है । इस विषय में ज्ञान और तर्क हमारी कोई सहायतानहीं कर सकते, केवल गुरु की कृपा से ही सब कुछ सम्भव है । धर्म, अर्थ, और काम की प्राप्ति अपने प्रयत्न से हो सकती है, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति तो केवल गुरुकृपा से ही सम्भव है । श्री साई के दरबार में तरह-तरह के लोगों का दर्शन होता था । देखो, ज्योतिषी लोग आ रहे है और भविष्य का बखान कर रहे है । दूसरी ओर राजकुमार, श्रीमान्, सम्पन्न और निर्धन, सन्यासी, योगी और गवैये दर्शनार्थ चले आ रहे है । यहाँ तक कि एक अतिशूद्र भी दरबार में आता है ौर प्रणाम करने के पश्चात् कहता है कि साई ही मेरे माँ या बाप है और वे मेरा जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा कर देंगें । और भी अनेकों –तमाशा करने वाले, कीर्तन करने वाले, अंधे, पंगु, नाथपन्थी, नर्तक व अन्य मनोरंजन करने वाले दरबार में आते थे, जहाँ उनका उचित मान किया जाता था और इसी प्रकार उपयुक्त समय पर, वह बंजारा भी प्रगट हुआ और जो अभिनय उसे सौंपा गया था, उसने उसको पूर्ण किया ।

हमारे विचार से कुएं में 4-5 घंटे उलटे लटके रहना – इसे सामान्य घटना नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई बिरला ही पुरुष होगा, जो इस प्रकार अधिक समय तक, रस्सी से लटकाये जाने पर कष्ट का अनुभव न कर परमानंद का अनुभव करे । इसके विपरत उसे पीड़ा होने की ही अधिक संभावना है । ऐसा प्रतीत होता है कि समाध-अवस्था का ही यहाँ चित्रण किया गया है । आनंद दो प्रकार के होते है – प्रथम ऐन्द्रिक और द्घितीय आध्यात्मिक । ईश्वर ने हमारी इन्द्रियों व तन मन की प्रवृत्तियों की रचना बाह्यमुखी की है । और जब वे (इन्द्रयाँ और मन) अपने विषयपदार्थों में संलग्न होती है, तब हमें इन्द्रय-चैतन्यता प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरुप हमें सुख या दुःख का पृथक् या दोनों का सम्मिलित अनुभव होता है, न कि परमानंद का । जब इन्द्रयों और मन को उनके विषय पदार्थों से हटाकर अंतर्मुख कर आत्मा पर केन्द्रत किया जाता है, तब हमें आध्यात्मिक बोध होता है और उस समय के आनन्द का मुख से वर्णन नहीं किया जा सकता । मैं परमानन्द में था तथा उस समय का वर्णन मैं कैसे कर सकता हूँ । इन शब्दों से ध्वनित होता है कि गुरु ने उन्हें समाधि अवस्था में रखकर चंचल इन्द्रयों और मनरुपी जल से दूर रखा ।

उपवास और श्रीमती गोखले
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बाबा ने स्वयं कभी अपवासा नहीं किया, न ही उन्होंने दूसरों को करने दिया । उपवास करने वालों का मन कभी शांत नहीं रहता, तब उन्हें परमार्थ की प्राप्ति कैसे संभव है । प्रथम आत्मा की तृप्ति होना आवश्यक है भूखे रहकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती । यदि पेट में कुछ अन्न की शीतलता न हो तो हम कौनसी आँख से ईश्वर को देखेंगे, किस जिहा से उनकी महानता का वर्णन करेंगे और किन कानों से उनका श्रवण करेंगे । सारांश यह कि जब सम्त इंद्रियों को यथेष्ठ भोजन व शांति मिलती है तथा जब वे बलिष्ठ रहती है, तब ही हम भक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की अन्य साधनाएँ कर सकते है, इसलिये न तो हमें उपवास करना चाहिये और न ही अधिक भोजन । भोजन में संयम रखना शरीर और मन दोनों के लिये उत्तम है ।

श्री मती काशीबाई काननिटकर (श्रीसाईबाबा की एक भक्त) से परिचयपत्र लेकर श्रीमती गोखले, दादा केलकर के समीप शिरडी को आई । वे यह दृढ़ निश्चय कर के आई थीं कि बाबा के श्री चरणों में बैठकर तीन दिन उपवास करुँगी । उनके शिरडी पहुँचने के एक दिन पूर्व ही बाबा ने दादा केलकर से कहा कि मैं शिमगा (होली) के दिनों में अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता है । यदि उन्हें भूखे रहना पड़ा तो मेरे यहाँ वर्तमान होने का लाभ ही क्या है । दूसरे दिन जब वह महिला दादा केलकर के साथ मसजिद में जाकर बाबा के चरण-कमलों के समीप बैठी तो तुरंत बाबा ने कहा, उपवास की आवश्यकता ही क्या है । दादा भट के घर जाकर पूरनपोली तैयार करो । अपने बच्चों कोखिलाओ और स्वयं खाओ । वे होली के दिन थे और इस समय श्रीमती केलकर मासिक धर्म से थी । दादा भट के घर में रसोई बनाने कि लिये कोई न था और इसलिये बाबा की युक्ति बड़ी सामयिक थी । श्री मती गोखले ने दादा भट के घर जाकर भोजन तैयार किया और दूसरों को भोजन कराकर स्वयं भी खाया । कितनी सुंदर कथा है और कितनी सुन्दर उसकी शिक्षा ।


बाबा के सरकार
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बाबा ने अपने बचपन की एक कहानी का इस प्रकार वर्णन किया –
जब मैं छोटा था, तब जीविका उपार्नार्थ मैं बीडगाँव आया । वहाँ मुझे जरी का काम मिल गया और मैं पूर्ण लगन व उम्मीद से अपना काम करने लगा । मेरा काम देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ । मेरे साथ तीन लड़के और भी काम करते थे । पहले का काम 50 रुपये का, दूसरे का 100 रुपये का और तीसरे का 150 रुपये का हुआ । मेरा काम उन तीनों से दुगुना हो गया । मेरी चतुराई देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ । वह मुझे अधिक चाहता था और मेरी प्रशंसा भी करता रहता था । उसने मुझे एक पूरी पोशाक प्रदान की, जिसमें सिर के लिये एक पगड़ी और शरीर के लिये एक शेला भी थी । मेरे पास वह पोशक वैसी ही रखी रही । मैंने सोचा कि जो कुछ मुष्य-निर्मित है, वह नाशवान् और अपूर्ण है, परन्तु जो कुछ मेरे सरकार द्घारा प्राप्त होगा, वही अन्त तक रहेगा । किसी भी मनुष्य के उपहार की उससे समानता संभव नहीं है । मेरे सरकार कहते है ले जाओ । परन्तु लोग मेरे पास आकर कहते है मुझे दो, मुझे दो । जो कुछ मैं कहता हूँ उसके अर्थ पर कोई ध्यान देने का प्रयत्न नहीं करता । मेरे सरकार का खजाना (आध्यात्मिक भंडार) भरपूर है और वह ऊपर से बह रहा है । मैं तो कहता हूँ कि खोदकर गाड़ी में भरकर ले जाओ । जो सच्ची माँ का लाल होगा, उसे स्वयं ही भरना चाहिए । मेरे फकीर की कला, मेरे भगवान् की लीला और मेरे सरकार का बर्ताव सर्वथा अद्घितीय है । मेरा क्या, यह शरीर मिट्टी में मिलकर सारे भूमंडल में व्याप्त हो जायेगा तथा फिर यह अवसर कभी प्राप्त न होगा । मैं चाहें कहीं जाता हूँ या कहीं बैठता हूँ, परन्तु माया फिर भी मुझे कष्ट पहुँचाती है । इतना होने पर भी मैं अपने भक्तों के कल्याणार्थ सदैव उत्सुक ही रहता हूँ । जो कुछ भी कोई करताहै, एक दिन उसका फल उसको अवशे्य प्राप्त होगा और जो मेरे इन वचनों को स्मरण रखेगा, उसे मौलिक आनन्द की प्राप्ति होगी ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 21 February 2018

चरण चाकरी दे देना

ॐ साईं राम



साईं तुम्हारे खाते में नाम हमारा लिख लेना,,

चरण चाकरी दे देना अपनी शरण में ले लेना...


तेरी पूजा तेरी भक्ति, देती है जीने की शक्ति..

तुझको शत-शत है प्रणाम, मिलकर बोलो साईं राम...

Tuesday, 20 February 2018

साँई माँ....!!

ॐ साईं माँ
  


हम ने न जाना  क्या  होती  है माँ,
दर्द हमे होता है तो रोती है माँ |
ख़ुश हम हों तो सकून से सोती है माँ,
जो हमारी ज़िन्दगी को संवार दे,
जो हम पे  सारी  खुशियाँ  निसार दे,
जो सब कुछ छोड़ के हमें प्यार दे,
सागर का वो अनमोल मोती है माँ |
कदर कर लो ऐ नादानों माँ की जन्नत में, 
हम से पहले दाख़िल होती है माँ |

Monday, 19 February 2018

साँई जी दे नाल किनारे ही किनारे ने ....

ॐ साईं राम

साईं दा जे आसरा होवे नजारे ही नजारे ने ..
साईं दी जे मेहर हो जावे सहारे ही सहारे ने ...
ओ बेडी डुब नही सकदी जिदा बाबा तू मल्ला होंवे ..
ओनु मझदार दे अंदर किनारे ही किनारे ने ....
 जेडे करदे गुरां नाल प्यार ओ प्यारे लगदे ने
जेडे आंदे तेरे दरबार ओ प्यारे लगदे ने ...
सेवा करदे कदे नही थक्दे
मैल दिल्लां विच कदे नही रखदे
जेडे करदे संगत नाल प्यार ओ प्यारे लगदे ने 

Sunday, 18 February 2018

दिन की शुरुवात होती लेकर तेरा नाम...

ॐ सांई राम



साईं की महिमा
दूर खड़ा तू देख रहा
सबके मन का भाव
पल भर में तू कर दे
पूरी मन की आस |
आस बन जाती
दिल का एक अरमान
दिन की शुरुवात होती
लेकर तेरा नाम |
तेरा नाम जप कर
दिल हो जाए मालामाल
तेरी किरपा से
खुल जाए स्वर्ग के दरबार |
हर दरबार की चादर में
जड़े हुए है हीरे मोती
जिसकी चमक से
मिल जाती मन को मुक्ति |

मन की मुक्ति पाकर
मिल जाए साईं का आशीष
आत्मा तृप्त हो जावे
मिल जावे दिल को आराम |
दिल का आराम पाकर
धन्य हो जावे जीवन
जिसकी करूणा कथा को पढ़कर
दिल हो जावे बेकरार |
बेकरार दिल एक ही गाथा गावे
जय साईंराम, जय-जय साईंराम |||

Saturday, 17 February 2018

अपना बनाया साईं ने

ॐ साईं राम



दर दर मैं तो भटक रहा था …
दर दर मैं तो भटक रहा था …
अपना बनाया साईं ने |
कई जन्मो से तड़प रहा था ...
अपना बनाया साईं ने ...
मुझे अपनाया साईं ने |


 ख़ुद खाया तो क्या खाया,
अपनी  भूख  बुझाय |
जो भूखों को खाना दे,
वो साईं को भाये |
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Friday, 16 February 2018

आज तेरे दर पर आया हूँ

ॐ सांई राम



बाबा मुझे भी इंसान बना दो
तुम्हारे दर पर खड़ा हूँ
थक गया हूँ जीवन से
सर से सारा भार उतार दो
झूठ , फरेब ,क्रोध , मोह के
चक्रव्यूह में फसा हुआ हूँ
माया के जाल से
मुझे आज मुक्त करा दो
जीवन की तीखी धूप ने
मेरी भावनाओं को झुलसा दिया है
इस तपती धूप पर
अपनी ठड़ी छाव बिछा दो
करूणा, क्षमा का वास
जीवन से मिट गया है
इस कठोर दिल को
दया का पाठ पड़ा दो
धन दौलत की आस ने
बिखेर दिया है मुझे
इस टूटे हुए आईने को
समेट लो अपने हाथो में
 

आज तेरे दर पर आया हूँ
खाली ना लौट के जाऊगा
तेरे विश्वास को अपनी
आत्मा में बसाऊगा
तुझे अपना बनाऊगा
जीवन की हर ठोकर खायी है मैंने
अब ना अपनी गलती दोराहुगा
थाम लुगा तेरा आचल
और इंसान बनके जाऊगा

Thursday, 15 February 2018

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा |


किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 31

मुक्ति-दान
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1. सन्यासी विरजयानंद
2. बालाराम मानकर
3. नूलकर
4. मेघा और
5. बाबा के सम्मुख बाघ की मुक्त

इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा के सामने कुछ भक्तों की मृत्यु तथा बाघ के प्राण-त्याग की कथा का वर्णन करते है ।

प्रारम्भ

.........

मृत्यु के समय जो अंतिम इच्छा या भावना होती है, वही भवितव्यता का निर्माण करती है । श्री कृष्ण ने गीता (अध्याय-8) में कहा है कि जो अपने जीवन के अंतिम क्षण में मुझे सम्रण करता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है तथा उस समय वह रजो कुछ भी दृश्य देखता है, उसी को अन्त में पाता है । यह कोई भी निश्चयात्मक रुप से नहीं कह सकता कि उस क्षण हम केवल उत्तम विचार ही कर सकेंगे । जहाँ तक अनुभव में आया है, ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय अनेक कारणों से भयभीत होने की संभावना अधिक होती है । इसके अनेक कारण है । इसलिये मन को इच्छानुसार किसी उत्तम विचार के चिंतन में ही लगाने के लिए नित्याभ्यास अत्यन्त आवश्यक है । इस कारण सभी संतों ने हरिस्मरण और जप को ही श्रेष्ठ बताया है, ताकि मृत्यु के समय हम किसी घरेलू उलझन में न पड़ जायें । अतः ऐसे अवसर पर भक्तगण पूर्णतः सन्तों के शरणागत हो जाते है, ताकि संत, जो कि सर्वज्ञ है, उचित पथप्रदर्शन कर हमारी यथेष्ठ सहायता करें । इसी प्रकार के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।

1. विजयानन्द
................
एक मद्रसी सन्यासी विजयानंद मानसरोवर की यात्रा करने निकले । मार्ग में वे बाबा की कीर्ति सुनकर शिरडी आये, जहाँ उनकी भेंट हरिद्घार के सोमदेव जी स्वामी से हुई और इनसे उन्होंने मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में पूछताछ की । स्वामीजी ने उन्हें बताया कि गंगोत्री से मानसरोवर 500 मील उत्तर की ओर है तथा मार्ग में जो कष्ट होते है, उनका भी उल्लेख किया जैसे कि बर्फ की अधिकता, 50 कोस तक भाषा में भिन्नता तथा भूटानवासियों के संशयी स्वभाव, जो यात्रियों को अधिक कष्ट पहुँचाया करते है । यह सब सुनकर सन्यासी का चित्त उदास हो गयाऔर उसने यात्रा करने का विचार त्यागकर मसजिद में जाकर बाबा के श्री चरणों का स्पर्श किया । बाबा क्रोधित होकर कहने लगे – इस निकम्मे सन्यासी को निकालो यहाँ से । इसका संग करना व्यर्थ है । सन्यासी बाबा के स्वभाव से पूर्ण अपरिचित था । उसे बड़ी निराशा हुई, परन्तु वहाँ जो कुछ भी गतिविधियाँ चल रही थी, उन्हें वह बैठे-बैठे ही देखता रहा । प्रातःकाल का दरबार लोगों से ठसाठस भरा हुआ था और बाबा को यथाविधि अभिषेक कराया जा रहा था । कोई पाद-प्रक्षालन कर रहा था तो कोई चरणों को छूकर तथा कोई तीर्थस्पर्श से अपने नेत्र सफल कर रहा था । कुछ लोग उ्हें चन्दन का लेप लगा हे थे तो कोई उनके शरीर में इत्र ही मल रहा था । जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर सब भक्त यह कार्य कर रहे थे । यघपि बाबा उस पर क्रोधित हो गये थे तो भी सन्यासी के हृदय में उनके प्रति बड़ा प्रेम उत्पन्न हो गया था । उसे यह स्थान छोड़ने की इच्छा ही न होती थी । दो दिन के पश्चात् ही मद्रास से पत्र आया कि उसकी माँ की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है, जिसे पढ़कर उसे बड़ी निराशा हुई और वह अपनी माँ के दर्शन की इच्छा करने लगा, परन्तु बाबा की आज्ञा के बिना वह शिरडी से जा ही कैसे सकता था । इसलिये वह हाथ में पत्र लेकर उनके समीप गया और उनसे घर लौटने की अनुमति माँगी । त्रिकालदर्शी बाबा को तो सबका भविष्य विदित ही था । उन्होंने कह कि जब तुम्हें अपनी माँ से इतना मोह था तो फिर सन्यास धारण करने का कष्ट ही क्यों उठाया । ममता या मोह भगवा वस्त्रधारियों को क्या शोभा देता है । जाओ, चुपचाप अपने स्थान पर रहकर कुछ दिन शांतिपूर्वक बिताओ । परन्तु सावधान । वाड़े में चोर अधिक है । इसलिए द्घार बंद कर सावधानी से रहना, नहीं तो चोर सब कुछ चुराकर ले जायेंगे । लक्ष्मी यानी संपत्ति चंचला है और यह शरीर भी नाशवान् है, ऐसा ही समझ कर इहलौकिक व पालौकिक समस्त पदार्थों का मोह त्याग कर अपना कर्त्व्य करो । जो इस प्रकार का आचरण कर श्रीहरि के शरणागत हो रजाता है, उसका सब कष्टों से शीघ्र छुटकार हो उसे परमानंद की प्राप्ति हो जाती है । जो परमात्मा का ध्यान व चिंतन प्रेंम और भक्तिपूर्वक करता है, परमात्मा भी उसकी अविलम्ब सहायता करते है । पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप ही तुम यहाँ पहुँचे हो और अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और अपने जीवन के अंतिम ध्येय पर विचार करो । इच्छारहित होकर कल से भागवत का तीन सप्ताह तक पठन-पाठन प्रारम्भ करो । तब भगवान् प्रसन्न होंगे और तुम्हारे सब दुःख दूर कर देंगे । माया का आवरण दूर होकर तुम्हें शांति प्राप्त होगी । बाबा ने उसका अंतकाल समीप देखकर उसे यह उपचार बता दिया और साथ ही रामविजय पढ़ने की भी आज्ञा दी, जिससे यमराज अधिक प्रसन्न् होते है । दूसरे दिन स्नानादि तथा अन्य शुद्घि के कृत्य कर उसने लेंडी बाग के एकांत स्थान में बैठकर भागवत का पाठ आरम्भ कर दिया । दूसरी बार का पठन समाप्त होने पर वह बहुत थक गया और वाड़े में आकर दो दिन ठहरा । तीसरे दिन बड़े बाबा की गोद में उसके प्राण पखेरु उड़े गये । बाबा ने दर्शनों के निमित्त एक दिन के लिये उसका शरीर सँभाल कर रखने के लिये कहा । तत्पश्चात् पुलिस आई और यथोचित्त जाँच-पडताल करने के उपरांत मृत शरीर को उठाने की आज्ञा दे दी । धार्मिक कृत्यों के साथ उसकी उपयुक्त स्थान पर समाधि बना दी गई । बाबा ने इस प्रकार सन्यासी की सहायता कर उसे सदगति प्रदान की ।

2. बालाराम मानकर
.....................
बालाराम मानकर नामक एक गृहस्थबाबा के परम भक्त थे । जब उनकी पत्नी का देहांत हो गया तो वो बड़े निराश हो गये और सब घरबार अपने लड़के को सौंप वे शिरडी में आकर बाबा के पास रहने लगे । उनकी भक्ति देखकर बाबा उनके जीवन की गति परिवर्तित कर देना चाहते थे । इसीलिये उन्होंने उन्हें बारह रुपये देकर मच्छिंग्रगढ़ (जिला सातार) में जाकर रहने को कहा । मानकर की इच्छा उनका सानिध्य छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने की न ती, परन्तु बाबा ने उन्हें समझाया कि तुम्हारे कलायाणार्थ ही मैं यह उत्तम उपाय तुम्हें बतलता रहा हूँ । इसीलिये वहाँ जाकर दिन में तीन बार प्रभु का ध्यान करो । बाबा के शब्दों में व्श्वास कर वह मच्छंद्रगढ़ चाल गया और वहाँ के मनोहर दृश्यों, शीतल जल तथा उत्तम पवन और समीपस्थ दृश्यों को देखकर उसके चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई । बाबा द्घारा बतलाई विधि से उसने प्रभु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ दिनों पश्चात् ही उसे दर्शन प्राप्त हो गया । बहुधा भक्तों को समाधि या तुरीयावस्था में ही दर्शन होते है, परन्तु मानकर जब तुरीयास्था से प्राकृतावस्था में आया, तभी उसे दर्शन हुए । दर्शन होने के पश्चात् मानकर ने बाबा से अपने को वहाँ भेजने का कारण पूछा । बाबा ने कहा कि शिरडी में तुम्हारे मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे थे । इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ भेजा कि तुम्हारे चंचल मन को शांति प्राप्त हो । तुम्हारी धारणा थी कि मैं शिरडी में ही विघमान हूँ और साढ़ेतीन हाथ के इस पंचतत्व के पुतले के अतिरिक्त कुछ नही हूँ, परन्तु अब तुम मुझे देखकर यह धारणा बना लो कि जो तुम्हारे सामने शिरडी में उपस्थित है और जिसके तुमने दर्शन किये, वह दोनों अभिन्न है या नहीं । मानकर वह स्थान छोडकर अपने निवास स्थान बाँद्रा को रवाना हो गया । वह पूना से दादर रेल द्घारा जाना चाहता था । परन्तु जब वह टिकट-घर पर पहुँचा तो वहाँ अधिक भीड़ होने के कारण वह टिकट खरीद न सका । इतने में ही एक देहाती, जिसके कंधे पर एक कम्बल पड़ा था तथा शरीर पर केवल एक लंगोटी के अतिरिक्त कुछ न था, वहाँ आया और मानकर से पूछने लगा कि आप कहाँ जा रहे है । मानकर ने उत्तर दिया कि मैं दादर जा रहा हूँ । तब वह कहने लगा कि मेरा यह दादर का टिकट आप ले लीजिय, क्योंकि मुझे यहाँ एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मेरा जाना आज न हो सकेगा । मानकर को टिकट पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी जेब से वे पैसे निकालने लगे । इतने में ही टिकट देने वाला आदमी भीड़ में कहीं अदृस्य हो गया । मानकर ने भीड़ में पर्याप्त छानबीन की, परन्तु सब व्यर्थ ही हुआ । जब तक गाड़ी नहीं छूटी, मानकर उसके लौटने की ही प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वह अन्त तक न लौटा । इस प्रकार मानकर को इस विचित्र रुप में द्घितीय बार दर्शन हुए । कुछ दिन अपने घर ठहरकर मानकर फिर शिरडी लौट आया और श्रीचरणों में ही अपने दिन व्यतीत करने लगा । अब वह सदैव बाबा के वचनों और आज्ञा का पालन करने लगा । अन्ततः उस भाग्यशाली ने बाबा के समक्ष ही उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने प्राण त्यागे ।

3. तात्यासाहेब नूलकर
........................
हेमाडपंत ने तात्यासाहेब नूलकर के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं लिखा है । केवल इतना ही लिखा है कि उनका देहांत शिरडी में हुआ था । साईलीला पत्रिका में संक्षिप्त विवरण प्रकाशित हुआ था, रजो नीचे उद्घृत है – सन 1909 में जिस समय तात्यासाहेब पंढरपुर में उपन्यायाधीश थे, उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर भी वहाँ के मामलतदार थे । ये दोनो आपस में बहुधा मिला करते और प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे । तात्यासाहेब सन्तों में अविश्वास करते थे, जबकि नानासाहेब की सन्तों के प्रति विशेष श्रद्घा थी । नानासाहेब ने उन्हें साईबाबा की लीलाएँ सुनाई और एक बार शिरडी जाकर बाब का दर्शन-लाभ उठाने का आग्रह भी किया । वे दो शर्तों पर चलने को तैयार हुए –

1. उन्हें ब्राहमण रसोइया मिलना चाहिये ।

2. भेंट के लिये नागपुरसे उत्तम संतरे आना चाहिये ।

शीघ्र ही ये दोनों शर्ते पूर्ण हो गयी । नानासाहेब के पास एक ब्राहमण नौकरी के लिये आया, जिसे उन्होंने तात्यासाहेब के पास भिजवा दिया और एक संतरे का पार्सन भी आया, जिसपर भेजने वाले का कोई पता न लिखा था । उनकी दोनों शर्ते पूरी हो गई थी । इसीलिये अब उन्हें शिरडी जाना ही पड़ा । पहले तो बाबा उन पर क्रोधित हुए, परन्तु जब धीरे-धीरे तात्यासाहेब को विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही ईश्वरावतार है तो वे बाबा से प्रभावित हो गये और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे । जब उनका अन्तकाल समीप आया तो उन्हें पवित्र धार्मिक पाठ सुनाया गया और अंतिम क्षणों में उन्हें बाबा का पद तीर्थ भी दिया गया । उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बाबा बोल उठे – अरे तात्या तो आगे चला गया । अब उसका पुनः जन्म नहीं होगा ।

4. मेघा
.........
28वे अध्याय में मेघा की कथा का वर्णन किया जा चुका है । जब मेघा का देहांत हुआ तो सब ग्रामबासी उनकी अर्थी के साथ चले और बाबा भी उनके साथ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने उसके मृत शरीर पर फूल बरसाये । दाह-संस्कार होने के पश्चात् बाबा की आँखों से आँसू गिरने लगे । एक साधारण मनुष्य के समान उनका भी हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया । उनके शरीर को फूलों से ढँककर एक निकट समबन्धी के सदृश रोते-पीटते वे मसजिद को लौटे । सदगति प्रदान करते हुए अनेक संत देखने में आये है, परन्तु बाबा की महानता अद्घितीय ही है । यहाँ तक कि बाघ सरीखा एक हिंसक पशु भी अपनी रक्षा के लिये बाबा की शरण में आया, जिसका वृतान्त नीचे लिखा है -

 5. बाघ की मुक्ति

.................
बाबा के समाधिस्थ होने के सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी । मसजिद के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी, जिसपर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था । उसका भयानक मुख गाड़ी के पीछे की ओर था । वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था । उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेएष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके जीविकोवपार्जन का एक साधन था । उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ । कहीं से बाबा की कीर्ति भी उनके कानों में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये । हाथों से जंजीरें पकड़कर उन्होंने बाघ को मसजिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया । वह स्वभावतः ही भयानक था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था । लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखने लगे । दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर वे बाघ को उनके सामने लाये । जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन नीचे झुका दी । जब रदोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा । ुसने अपनी पूँछ हिलाकर तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षम ही अपने प्राण त्याग दिये । उसे मृत देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए । तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त थी ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी । चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे सदगति प्राप्त हो गई । वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋम चुक गया तो वह स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई । जब कोई प्राणीससंतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी मुक्ति हो जाती है । पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद अंत प्राप्त होना कैसे संभव है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 14 February 2018

मुझ को अपना दास बना लो ............

ॐ साईं राम



ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे,
तुझ बिन काटे कौन ओ साईं मेरे दुखों के घेरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे,
मुझ को अपना दास बना लो,
दर दर की ठोकर से बचा लो |
मैं हूँ ज़माने का ठुकराया,
मुझ पे करो करुणा की छाया |
         मेरे दिन भी फेरो साईं, लाखों के दिन फेरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे,
न मांगूं मैं चांदी सोना,  मुझ को नहीं दौलत का रोना |
बस इतनी सी अर्ज़ सुनो ना, दे दो चरणों में इक कोना |
ज्ञान की ज्योत जला दो मन में, कर दो दूर अंधरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे,
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे |

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Gautam Budh Nagar, Uttar Pradesh. INDIA.

बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.