शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Saturday, 30 September 2017

आज देवो के देव, श्री साँईं देव जी की पुण्यतिथि हैं

ॐ सांई राम

आज देवो के देव, श्री साँईं देव जी की पुण्यतिथि हैं

बाबा जी के श्री चरणों में अरदास हैं कि वह अपनी कृपा दृष्टि अपने सभी भक्तों पर बरसाने की कृपा करे.....

ॐ साँईं श्री साँईं जय जय साँईं ॐ साँईं श्री साँईं जय जय साँई ॐ साँईं श्री साँईं जय जय साँई

आप सब भी मेरे साथ इस मंत्र को तीन बार बोलकर श्री जी के श्री चरणों मे अपनी हाज़री जरूर लगाऐ

बाबा जी की कृपा आप सभी पर सदैव बनी रहे

ॐ श्री साँईं राम जी

श्री साँई समाधी मन्दिर


बाबा के महासमाधि लेने से कुछ समय पूर्व जब शिर्डी के भोले भले नागरिकों ने अपने मसीहा करुणावतार साईं जी से पूछा : बाबा !! जब आप हमारे बीच नहीं रहेंगे, तो हम क्या करेंगे? किसके पास अपना दुःख दर्द ले कर जायेंगे? कौन हमारी सहायता करेगा?



तब बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया था, "एक देह त्यागकर, मैं अनंत देहों में तुम्हे मिलूँगा | मैं पग पग पर तुम्हारे साथ चलूँगा |  मेरी समाधी चिर काल जीवंत रहेगी | जो एक बार उसकी सीढ़ियाँ  चड़ेगा, उसकी रक्षा का जिम्मा मेरा होगा | मेरे द्वार से कोई निराश नहीं जाएगा |


बाबा के दिए उक्त आश्वासन  की प्रतीति आज देश - विदेश में अनगिनित व्यक्ति नित्य प्रति अपने जीवन में कर रहे है और वह बाबा की ओर ऐसे खिंचे चले आ रहे है जैसे चिड़िया के पैर में डोरी बांध कर, बाबा ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया हो |



बाबा अपनी लीला अनेकानेक ढंग से दिखाते है | किसी को सशरीर दर्शन दे कर, किसी को स्वपन अवस्था में दृष्टान्त देकर, किसी को किसी और रूप में अपनी उपस्थिति का अहसास करा कर, अपनी नगरी शिर्डी बुला लेते है और तत्पश्चात उसके जीवन का समस्त भार अपने ऊपर ले कर, उसे आध्यात्मिक राह पर चलने को प्रोत्साहित करते है |

ऐसे अनगिनित दृष्टान्त नित्य प्रति घटित हो रहे है और किवदंतियों के रूप में चारों ओर सुने जा सकते है | फलस्वरूप बाबा के भक्तों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी होती जा रही है |

शिर्डी  के साईं - समर्थ की गाथा इतिहास के पन्नो में छिपी कोई कहानी नहीं है | बाबा मात्र 99 वर्ष पूर्व सशरीर इस पृथ्वी पर चलते फिरते देखे गए थे | उन्होंने अपना पार्थिव शरीर विजय दशमी, 15 अक्टूबर 1918 को दोपहर के ठीक 2 :30 बजे ही त्यागा था |





तुम लोगो ने मुझे मानव से माधव बना दिया है |प्रत्येक मानव में माधव के दर्शन करो . वही मेरे मिशन का उचित पुरस्कार है , वही मेरी सच्ची पूजा है----

दो वर्ष पूर्व, 1916 में, ही बाबा ने अपने निर्वाण के दिन का संकेत कर दिया था, परन्तु उस समय कोई भी समझ नहीं सका । घटना इस प्रकार है । विजया दशमी के दिन जब लोग सन्ध्या के समय सीमोल्लंघन से लौट रहे थे तो बाबा सहसा ही क्रोधित हो गये । सिर पर का कपड़ा, कफनी और लँगोटी निकालकर उन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े करके जलती हुई धूनी में फेंक दिये । बाबा के द्घारा आहुति प्राप्त कर धूनी द्घिगुणित प्रज्वलित होकर चमकने लगी और उससे भी कहीं अदिक बाबा के मुख-मंडल की कांति चमक रही थी । वे पूर्ण दिगम्बर खड़े थे और उनकी आँखें अंगारे के समान चमक रही थी । उन्होंने आवेश में आकर उच्च स्वर में कहा कि लोगो । यहाँ आओ,मुझे देखकर पूर्ण निश्चय कर लो कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान । सभी भय से काँप रहे थे । किसी को भी उनके समीप जाने का साहस न हो रहा था । कुछ समय बीतने के पश्चात् उनके भक्त भागोजी शिन्दे, जो महारोग से पीड़ित थे, साहस कर बाबा के समीप गये और किसी प्रकार उन्होंने उन्हें लँगोटी बाँध दी और उनसे कहा कि बाबा । यह क्या बात है । देव आज दशहरा (सीमोल्लंघन) का त्योहार है । तब उन्होंने जमीन पर सटका पटकते हुए कहा कि यह मेरा सीमोल्लंघन है। लगभग 11 बजे तक भी उनका क्रोध शान्त न हुआ और भक्तों को चावड़ी जुलूस निकलने में सन्देह होने लगा। एक घण्टे के पश्चात् वे अपनी सहज स्थिति में आ गये और सदी की भांति पोशाक पहनकर चावड़ी जुलूस में सम्मिलित हो गये। इस घटना द्घारा बाबा ने इंगित किया कि जीवन-रेखा पार करने के लिये दशहरा ही उचित समय है। परन्तु उस समय किसी को भी उसका असली अर्थ समझ में न आया ।


बाबा ने और भी कई संकेत किये जैसे रामचन्द्र दादा पाटील {तात्या कोई और नहीं बल्कि बैजाबाई जो बाबा की परम भक्त थीं, उनका ही पुत्र था। तात्या भी बाबा को मामा कहकर संबोधित करते थे।} की मृत्यु टालना - रामचन्द्र पाटील बहुत बीमार हो गये थे । उन्हें बहुत कष्ट हो रहा था । सब प्रकार के उपचार किये गये, परन्तु कोई लाभ न हुआ और जीवन से हताश होकर वे मृत्यु के अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा करने लगे । तब एक दिन मध्याहृ रात्रि के समय बाबा अनायास ही उनके सिराहने प्रगट हुए। पाटील उनके चरणों से लिपट कर कहने लगे कि मैंने अपने जीवन की समस्त आशाये छोड़ दी है । अब कृपा कर मुझे इतना तो निश्चित बतलाइये कि मेरे प्राण अब कब निकलेंगे । दया-सिन्धु बाबा ने कहा कि घबराओ नहीं । तुम्हारी हुँण्डी वापस ले ली गई है और तुम शीघ्र ही स्वस्थ हो जाओगे । मुझे तो केवल तात्या का भय है कि सन् 1918 में विजया दशमी के दिन उसका देहान्त हो जायेगा । किन्तु यह भेद किसी से प्रगट न करना और न ही किसी को बतलाना । अन्यथा वह अधिक यभीत हो जायेगा । रामचन्द्र अब पूर्ण स्वस्थ हो गये, परन्तु वे तात्या के जीवन के लिये निराश हुए । उन्हें ज्ञात था कि बाबा के शब्द कभी असत्य नहीं निकल सकते और दो वर्ष के पश्चात ही तात्या इस संसर से विदा हो जायेगा । उन्होंने यह भेद बाला शिंपी के अतिरिक्त किसी से भी प्रगट न किया । केवल दो ही व्यक्ति – रामचन्द्र दादा और बाला शिंपी तात्या के जीवन के लिये चिन्ताग्रस्त और दुःखी थे । रामचन्द्र ने शैया त्याग दी और वे चलने-फिरने लगे । समय तेजी से व्यतीत होने लगा । शके 1840 का भाद्रपद समाप्त होकर आश्विन मास प्रारम्भ होने ही वाला था कि बाबा के वचन पूर्णतः सत्य निकले । तात्या बीमार पड़ गये और उन्होंने चारपाई पकड़ ली । उनकी स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि अब वे बाबा के दर्शनों को भी जाने में असमर्थ हो गये । इधर बाबा भी ज्वर से पीड़ित थे । तात्या का पूर्ण विश्वास बाबा पर था और बाबा का भगवान श्री हरि पर, जो उनके संरक्षक थे । तात्या की स्थिति अब और अधिक चिन्ताजनक हो गई । वह हिलडुल भी न सकता था और सदैव बाबा का ही स्मरण किया करता था । इधर बाबा की भी स्थिति उत्तरोत्तर गंभीर होने लगी । बाबा द्घार बतलाया हुआ विजया-दमी का दिन भी निकट आ गया । तब रामचन्द्र दादा और बाला शिंपीबहुत घबरा गये । उनके शरीर काँप रहे थे, पसीने की धारायें प्रवाहित हो रही थी, कि अब तात्या का अन्तिम साथ है । जैसे ही विजया-दशमी का दिन आया, तात्या की नाड़ी की गति मन्द होने लगी और उसकी मृत्यु सन्निकट दिखलाई देने लगी । उसी समय एक विचित्र घटना घटी । तात्या की मृत्यु टल गई और उसके प्राण बच गये, परन्तु उसके स्थान पर बाबा स्वयं प्रस्थान कर गये और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कि परस्पर हस्तान्तरण हो गया हो । सभी लोग कहने लगे कि बाबा ने तात्या के लिये प्राण त्यागे । ऐसा उन्होंने क्यों किया, यह वे ही जाने, क्योंकि यह बात हमारी बुद्घि के बाहर की है । ऐसी भी प्रतीत होता है कि बाबा ने अपने अन्तिम काल का संकेत तात्या का नाम लेकर ही किया था ।


{जब बाबा ने तात्या को सात्वना दी थी ही चिंता न करो तुम मरना नहीं चाहते न...मैंने तुम्हारी मृत्यु को टाल दिया है अब तुम्हारी जगह कोइ और जाएगा ...तभी माधवराव के मन में यह चिंता थी कि यह " कोइ और " तात्या के स्थान पर कही बाबा ही न हो.....}



ऐसा ही एक और संकेत था , गोपाल राव और बूटी को एक सा स्वप्न आया और बाबा ने स्वप्न में दोनों को कहा कि जल्दी वाड़ा तैयार करा दो | और हम दशहरा के दिन उस भवन का उदघाटन करेगे |फिर ये दोनों माधव राव के पास गए और फिर बाबा के पास ... फिर बाबा से माधव राव ने पूछा कि आप चाहते है कि बूटी वाड़ा बनवाये , ठीक है न ??



बाबा ने कहा तुरंत ही, आज ही काम शुरू कर दो, और इसे विजयदशमी के दिन तक पूर्ण कर दो| बूटी ने पूछा कि उसके भीतर हम किसका मंदिर बनाएगे ?

बाबा बोले अरे किसी भी देवता - किसी भी भगवान का मंदिर . हम सब भी तो स्वयं ही भगवान है|उन्ही के असितत्व के अंश है| हम सब उसके भीतर बैठेगे और गप्पे मारेगे . हम भजन गायेगे, हम आनन्द करेगे, हम सब वहां जी भर कर उचल कूद करेगे, भगवान तो केवल मंदिर को सजाने के लिए ही होते है...

जब वाड़ा बन के तैयार हो गया तो बाबा ने शामा से कहा कि कितना सुन्दर है न ? मैं स्वयं यहाँ विश्राम करने के लिए आना चाहता हूँ|


तब बाबा के कहाँ अरे नहीं मैं तो बस ऐसे ही बकवास करता हूँ| तुम लोगो ने मुझे मानव से माधव बना दिया है,यह तुम लोगो की महानता है,यहाँ मुझे सब कुछ प्राप्त हुआ लेकिन ऐसे भाव समस्त प्राणियों के प्रति रखों , प्रत्येक मानव में माधव के दर्शन करो| वही मेरे मिशन का उचित पुरस्कार है , वही मेरी सच्ची पूजा है ....




हिन्दुओं में यह प्रथा प्रचलित है कि जब किसी मनुष्य का अन्तकाल निकट आ जाता है तो उसे धार्मिक ग्रन्थ आदि पढ़कर सुनाये जाते है । इसका मुख्य कारण केवल यही है कि जिससे उसका मन सांसारिक झंझटों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विषयों में लग जाय और वह प्राणी कर्मवश अगले जन्म में जिस योनि को धारण करे, उसमें उसे सदगति प्राप्त हो । सर्वसाधारण को यह विदित ही है कि जब राजा परीक्षित को एक ब्रहृर्षि पुत्र ने शाप दिया और एक सप्ताह के पश्चात् ही उनका अन्तकाल निकट आया तो महात्मा शुकदेव ने उन्हें उस सप्ताह में श्री मदभागवत पुराण का पाठ सुनाया, जिससे उनको मोक्ष की प्राप्ति हुई । यह प्रथा अभी भी अपनाई जाती है । महानिर्वाण के समय गीता, भागवत और अन्य ग्रन्थों का पाठ किया जाता है । बाबा तो स्वयं अवतार थे, इसलिये उन्हें बाहृ साधनों की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु केवल दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के हेतु ही उन्होंने इस प्रथा की उपेक्षा नहीं की । जब उन्हें विदित हो गया कि मैं अब शीघ्र इस नश्वर देह को त्याग करुँगा, तब उन्होंने श्री. वझे को रामविजय प्रकरण सुनाने की आज्ञा दी । श्री. वझे ने एक सप्ताह प्रतिदिन पाठ सुनाया । तत्पश्चात ही बाबा ने उन्हें आठों प्रहर पाठ करने की आज्ञा दी । श्री. वझे ने उस अध्याय की द्घितीय आवृति तीन दिन में पूर्ण कर दी और इस प्रकार 11 दिन बीत गये । फिर तीन दिन और उन्होंने पाठ किया । अब श्री. वझे बिल्कुल थक गये । इसलिये उन्हें विश्राम करने की आज्ञा हुई । बाबा अब बिलकुल शान्त बैठ गये और आत्मस्थित होकर वे अन्तिम श्रण की प्रतीक्षा करने लगे । दो-तीन दिन पूर्व ही प्रातःकाल से बाबा ने भिक्षाटन करना स्थगित कर दिया और वे मसजिद में ही बैठे रहने लगे । वे अपने अन्तिम क्षण के लिये पूर्ण सचेत थे, इसलिये वे अपने भक्तों को धैर्य तो बँधाते रहते, पर उन्होंने किसी से भी अपने महानिर्वाण का निश्चित समय प्रगट न किया । इन दिनों काकासाहेब दीक्षित और श्रीमान् बूटी बाबा के साथ मसजिद में नित्य ही भोज करते थे । महानिर्वाण के दिन (15 अक्टूबर को) आरती समाप्त होने के पश्चात् बाबा ने उन लोगों को भी अपने निवासस्थान पर ही भोजन करके लौटने को कहा । फिर भी लक्ष्मीबाई शिंदे, भागोजी शिंदे, बयाजी, लक्ष्मण बाला शिम्पी और नानासाहेब निमोणकर वहीं रह गये । शामा नीचे मसजिद की सीढ़ियों पर बैठे थे । लक्ष्मीबाई शिन्दे को 9 रुपये देने के पश्चात् बाबा ने कहा कि मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिये मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहाँ मैं सुखपूर्वक रहूँगा । ये ही अन्तिम शब्द उनके श्रीमुख से निकले । इसी समय बाबा बयाजी के शरीर की ओर लटक गये और अन्तिम श्वास छोड़ दी । भागोजी ने देखा कि बाबा की श्वास रुक गई है, तब उन्होंने नानासाहेब निमोणकर को पुकार कर यह बात कही । नानासाहेब ने कुछ जल लाकर बाबा के श्रीमुख में डाला, जो बाहर लुढ़क आया । तभी उन्होंने जोर से आवाज लाई अरे । देवा । तब बाबा ऐसे दिखाई पड़े, जैसे उन्होंने धीरे से नेत्र खोलकर धीमे स्वर में ओह कहा हो । परन्तु अब स्पष्ट विदित हो गया कि उन्होंने सचमुच ही शरीर त्याग दिया है ।

बाबा समाधिस्थ हो गये – यह हृदयविदारक दुःसंवाद दावानल की भाँति तुरन्त ही चारों ओर फैल गया । शिरडी के सब नर-नारी और बालकगण मसजिद की ओर दौड़े । चारों ओर हाहाकार मच गया । सभी के हृदय पर वज्रपात हुआ । उनके हृदय विचलित होने लगे । कोई जोर-जोर से चिल्लाकर रुदन करने लगा । कोई सड़कों पर लोटने लगा और बहुत से बेसुध होकर वहीं गिर पड़े । प्रत्येक की आँखों से झर-जर आँसू गिर रहे थे । प्रलय काल के वातावरण में तांडव नृत्य का जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है, वही गति शिरडी के नर-नारियों के रुदन से उपस्थित हो गई । उनके इस महान् दुःख में कौन आकर उन्हें धैर्य बँधाता, जब कि उन्होंने साक्षात् सगुण परब्रहृ का सानिध्य खो दिया था । इस दुःख का वर्णन भला कर ही कौन सकता है ।

अब कुछ भक्तों को श्री साई बाबा के वचन याद आने लगे । किसी ने कहा कि महाराज (साई बाबा) ने अपने भक्तों से कहा था कि भविष्य में वे आठ वर्ष के बालक के रुप में पुनः प्रगट होंगे । ये एक सन्त के वचन है और इसलिये किसी को भी इन पर सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि कृष्णावतार में भी चक्रपाणि (भगवान विष्णु) ने ऐसी ही लीला की थी । श्रीकृष्ण माता देवकी के सामने आठ वर्ष की आयु वाले एक बालक के रुप में प्रगट हुये, जिनका दिव्य तेजोमय स्वरुप था और जिनके चारों हाथों में आयुध (शंख, चक्र, गटा और पदम) सुशोभित थे । अपने उस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने भू-भार हलका किया था । साई बाबा का यह अवतार अपने बक्तों के उत्थान के लिये हुआ था । तब फिर संदेह की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है । सन्तों की कार्यप्रणाली अगम्य होती है । साई बाबा का अपने भक्तों के साथ यह संपर्क केवल एक ही पीढ़ी का नहीं, बल्कि यह उनका पिछले 72 जन्मों का संपर्क है । ऐसा प्रतीतत होता है कि इस प्रकार का प्रेम-सम्बन्ध विकसित करके महाराज (श्रीसाईबाबा) दौरे पर चले गये और भक्तों को दृढ़ विश्वास है कि वे शीघ्र ही पुनः वापस आ जायेंगें ।

अब समस्या उत्पन्न हुई कि बाबा के शरीर की अन्तिम क्रिया किस प्रकार की जाय । कुछ यवन लोग कहने लगे कि उनके शरीर को कब्रिस्तान में दफन कर उसके ऊपर एक मकबरा बना देना चाहिये । खुशालचन्द और अमीर शक्कर की भी यही धारणा थी, परन्तु ग्राम्य अधिकारी श्री. रामचन्द्र पाटील ने दृढ़ और निश्चयात्मक स्वर में कहा कि तुम्हारा निर्णय मुझे मान्य नहीं है । शरीर को वाड़े के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं रखा जायेगा । इस प्रकार लोगों में मतभेद उत्पन्न हो गया और वह वादविवाद 36 घण्टों तक चलता रहा ।


बुधवार के दिन प्रातःकाल बाबा ने लक्ष्मण मामा जोशी को स्वप्न दिया और उन्हें अपने हाथ से खींचते हुए कहा कि शीघ्र उठो, बापूसाहेब समझता है कि मैं मृत हो गया हूँ । इसलिये वह तो आयेगा नहीं । तुम पूजन और कांकड़ आरती करो । लक्ष्मण मामा ग्राम के ज्योतिषी, शामा के मामा तथा एक कर्मठ ब्राहृमण थे । वे नित्य प्रातःकाल बाबा का पूजन किया करते, तत्पश्चात् ही ग्राम देवियों और देवताओं का । उनकी बाबा पर दृढ़ निष्ठा थी, इसलिये इस दृष्टांत के पश्चात् वे पूजन की समस्त सामग्री लेकर वहाँ आये और ज्यों ही उन्होंने बाबा के मुख का आवरण हटाया तो उस निर्जीव अलौकिक महान् प्रदीप्त प्रतिभा के दर्शन कर वे स्तब्ध रह गये, मानो हिमांशु ने उन्हें अपने पाश में आबदृ करके जड़वत् बना दिया हो । स्वप्न की स्मृति ने उन्हें अपना कर्तव्य करने को प्रेरित कर दिया । फिर उन्होंने मौलवियों के विरोध की कुछ भी चिंता न कर विधिवत् पूजन और कांकड़ आरती की । दोपहर को बापूसाहेब जोन भी अन्य भक्तों के साथ आये और सदैव की भांति मध्याहृ की आरती की । बाबा के अन्तिम श्री-वचनों को आदरपूर्वक स्वीकार करके लोगों ने उनके शरीर को बूटी वाड़े में ही रखने का निश्चय किया और वहाँ का मध्य भाग खोदना आरम्भ कर दिया । मंगलवार की सन्ध्या को राहाता से सब-इन्स्पेक्टर और भिन्न-भिन्न स्थानो से अनेक लोग वहाँ आकर एकत्र हुए । सब लोगों ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । दूसरे दिन प्रातःकाल बम्बई से अमीर भाई और कोपरगाँव से मामलेदार भी वहां आ पहुँचे । उन्होंने देखा कि लोग अभी भी एकमत नहीं है । तब उन्होंने मतदान करवाया और पाया कि अधिकांश लोगों का बहुमत वाड़े के पक्ष में ही है । फिर भी वे इस विषय में कलेक्टर की स्वीकृति अति आवश्यक समझते थे । तब काकासाहेब स्वयं अहमदनगर जाने को उघत् हो गये, परन्तु बाबा की प्रेरणा से विरक्षियों ने भी प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन सबने मिलकर अपना मत भी वाड़े के ही पक्ष में दिया । अतः बुधवार की सन्ध्या को बाबा का पवित्र शरीर बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ वाड़े मे लाया गया और विधिपूर्वक उस स्थान पर समाधि समाधि बना दी गई, जहाँ मुरलीधर की मूर्ति स्तापित होने को थी । सच तो यह है कि बाबा मुरलीधर बन गये और वाड़ा समाधि-मन्दिर तथा भक्तों का एक पवित्र देवस्थान, जहाँ अनेको भक्त आया जाया करते थे और अभी भी नित्य-प्रति वहाँ आकर सुख और शान्ति प्राप्त करते है । बालासाहेब भाटे और बाबा के अनन्य भक्त श्री. उपासनी ने बाबा की विधिवत् अन्तिम क्रिया की ।

जैसा प्रोफेसर नारके को देखने में आया, यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि बाबा का शरीर 36 घण्टे के उपरांत भी जड़ नहीं हुआ और उनके शरीर का प्रत्येक अवयव लचीला (Elastic) बना रहा, जिससे उनके शरीर पर से कफनी बिना चीरे हुए सरलता से निकाली जा सकी ।

ईंट का खण्डन
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बाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक अपशकुन हुआ, जो इस घटना की पूर्वसूचना-स्वरुप था । मसजिद में एक पुरानी ईंट थी, जिस पर बाबा अपना हाथ टेककर रखते थे । रात्रि के समय बाबा उस पर सिर रखकर शयन करते थे । यह कार्यक्रम अने वर्षों तक चला । एक दिन बाबा की अनुपस्थिति में एक बालक ने मसजिद में झाड़ू लगाते समय वह ईंट अपने हाथ में उठाई । दुर्भाग्यवश वह ईंट उसके हाथ से गिर पड़ी और उसके दो टुकड़े हो गये । जब बाबा को इस बात की सूचना मिली तो उन्हें उसका बड़ा दुःख हुआ और वे कहने लगे कि यह ईंट नहीं फूटी है, मेरा भाग्य ही फूटकर छिन्न-भिन्न हो गया है । यह तो मेरी जीवनसंगिनी थी और इसको अपने पास रखकर मैं आत्म-चिंतन किया करता था । यह मुजे अपने प्राणों के समान प्रिय थी और उसने आज मेरा सात छोड़ दिया है । कुछ लोग यहाँ शंका कर सकते है कि बाबा को ईंट जैसी एक तुच्छ वस्तु के लिये इतना शोक क्यों करना चाहिये । इसका उत्तर हेमाडपंत इस प्रकार देते है कि सन्त जगत के उद्घार तथा दीन और अनाक्षितों के कल्याणार्थ ही अवतीर्ण होते है । जब वे नरदेह धारण करते है और जनसम्पर्कमें आते है तो वे इसी प्रकार आचरण किया करते है, अर्थात् बाहृ रुप से वे अन्य लोगों के समान ही हँसते, खेलते और रोते है, परन्तु आन्तरिक रुप से वे अपने अवतार-कार्य और उसके ध्येय के लिये सदैव सजग रहते है ।

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - आसाम के राजा राम राय को पुत्र का वरदान

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ




आसाम के राजा राम राय को पुत्र का वरदान

गुरु तेग बहादर जी की महिमा सुनकर आसाम देश का राजा अपनी रानी सहित गुरु जी की शरण में आया| उसने गुरु जी के आगे भेंट आदि अर्पण की| भेंट अर्पण करने के पश्चात उसने प्रार्थना की कि महाराज! मेरे पास कोई औलाद नहीं है| मुझे पुत्र का वरदान दो जो हमारे राज्य का मालिक बने|

गुरु जी राजे तथा रानी की श्रद्धा व प्रेम पर प्रसन्न हुए| प्रसन्न होकर गुरु जी ने वचन किया कि आपके घर एक धर्मात्मा तथा उदारचित पुत्र होगा| गुरु जी से ऐसा आशीर्वाद लेकर राजा व रानी बहुत प्रसन्न हुए|

यह वचन करके गुरु जी ने अपने हाथ की मोहर का एक निशान राजे के माथे पर लगाकर कहा कि ऐसा निशान आपके घर होने वाले पुत्र के माथे पर भी होगा| तब तुम यह समझ लेना कि यह पुत्र गुरु घर की कृपा है|

गुरु जी के ऐसे वचन सुनकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा| वह बहुत प्रसन्न थे| गुरु जी का चरणामृत लेकर उन्होंने सिखी धारण कर ली| गुरु जी के आशीर्वाद से उनके घर पुत्र पैदा हुआ|

Friday, 29 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ सिद्धिदात्री

ॐ सांई राम



आप सभी को श्री राम नवमी के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभ कामनायें


या देवी सर्वभू‍तेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नौवें दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं। इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। सिद्धिदात्री माँ के कृपापात्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है, जिसे वह पूर्ण करना चाहे। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पीयूष का निरंतर पान करता हुआ, विषय-भोग-शून्य हो जाता है। माँ भगवती का परम सान्निध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए भक्त को निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करने का नियम कहा गया है। ऐसा माना गया है कि माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन, हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है। विश्वास किया जाता है कि इनकी आराधना से भक्त को अणिमा , लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों नव निधियों की प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है कि यदि कोई इतना कठिन तप न कर सके तो अपनी शक्तिनुसार जप, तप, पूजा-अर्चना कर माँ की कृपा का पात्र बन सकता ही है। माँ की आराधना के लिए इस श्लोक का प्रयोग होता है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में नवमी के दिन इसका जाप करने का नियम है।



Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,
This is also a kind of SEWA.

Thursday, 28 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ महागौरी

ॐ सांई राम

आप सभी को माँ दुर्गा अष्टमी की हार्दिक शुभ कामनायें


माँ दुर्गा जी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है | इनका वर्ण पूर्णत: गौर
है | इनकी गौरता की उपमा शंख, चक्र और कुंद के फूल से की गई है | इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- ' अष्टवर्षा भवेद गौरी ' | इनके वस्त्र एवं समस्त आभूषण आदि भी श्वेत है | इनकी चार भुजाएं है | इनका वाहन वृषभ है | इनके ऊपर के दाहिना हाथ अभय-मुद्रा में तथा नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है | ऊपर वाले बायें हाथ में डमरू और नीचे वाले बायें हाथ में वर मुद्रा है | इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है | अपने पार्वती रूप में जब इन्होने शिव जी को पति रूप में पाने के लिए तपस्या की थी तो इनका रंग काला पड़ गया था | इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने इनके शरीर को पवित्र गंगा-जल से मल कर धोया तब इनका शरीर बिजली की चमक के सामान अत्यंत क्रन्तिमान-गौर हो गया | तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा |

 मां महागौरी का पूजन धन, वैभव और सुख-शांति प्रदान करता है | 

नवरात्र के  आठवें दिन मां के महागौरी स्वरूप का पूजन करने का विधान हैं। महागौरी स्वरूप उज्जवल, कोमल, श्वेतवर्णा तथा श्वेत वस्त्रधारी हैं। महागौरी मस्तक पर चन्द्र का मुकुट धारण किये हुए हैं। कान्तिमणि के समान कान्ति वाली देवी जो अपनी चारों भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं, उनके कानों में रत्न जडितकुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। महागौरीवृषभ के पीठ पर विराजमान हैं। महागौरी गायन एवं संगीत से प्रसन्न होने वाली ‘महागौरी‘ माना जाता हैं।

मंत्र:
श्वेते वृषे समरूढ़ाश्वेताम्बराधरा शुचि:। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
ध्यान:-
वन्दे वांछित कामार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजामहागौरीयशस्वीनीम्॥
पुणेन्दुनिभांगौरी सोमवक्रस्थितांअष्टम दुर्गा त्रिनेत्रम।
वराभीतिकरांत्रिशूल ढमरूधरांमहागौरींभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानामृदुहास्यानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर, कार, केयूर, किंकिणिरत्न कुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांत कपोलांचैवोक्यमोहनीम्।
कमनीयांलावण्यांमृणालांचंदन गन्ध लिप्ताम्॥
स्तोत्र:-
सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।
डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।
वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥
कवच:-
ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां हृदयो।क्लींबीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥ललाट कर्णो,हूं, बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों।कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥
मंत्र-ध्यान-कवच- का विधि-विधान से पूजन करने वाले व्यक्ति का सोमचक्र जाग्रत होताहैं। महागौरी के पूजन से व्यक्ति के समस्त पाप धुल जाते हैं। महागौरी के पूजन करने वाले साधन के लिये मां अन्नपूर्णा के समान, धन, वैभव और सुख-शांति प्रदान करने वाली एवं  संकट से मुक्ति दिलाने वाली देवी महागौरी हैं।


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श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 9

ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार के शुभ अवसर की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 9
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विदा होते समय बाबा की आज्ञा का पालन और अवज्ञा करने के परिणामों के कुछ उदाहरण, भिक्षा वृत्ति और उसकी आवश्यकता, भक्तों (तर्खड कुटुम्व) के अनुभव
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गत अध्याय के अन्त में केवल इतना ही संकेत किया गया था कि लौटते समय जिन्होंने बाबा के आदेशों का पालन किया, वे सकुशल घर लौटे और जिन्होंने अवज्ञा की, उन्हें दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा । इस अध्याय में यह कथन अन्य कई पुष्टिकारक घटनाओं और अन्य विषयों के सात विस्तारपूर्वक समझाया जायेगा ।


शिरडी यात्रा की विशेषता
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शिरडी यात्रा की एक विशेषता यह थी कि बाबा की आज्ञा के बिना कोई भी शिरडी से प्रस्थान नहीं कर सकता था और यदि किसी ने किया भी, तो मानो उसने अनेक कष्टों को निमन्त्रण दे दिया । परन्तु यदि किसी को शिरडी छोड़ने की आज्ञा हुई तो फिर वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता था । जब भक्तगण लौटने के समय बाबा को प्रणाम करने जाते तो बाबा उन्हें कुछ आदेश दिया करते थे, जिनका पालन अति आवश्यक था । यदि इन आदेशों की अवज्ञा कर कोई लौट गया तो निश्चय ही उसे किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना पड़ता था । ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं ।

तात्या कोते पाटील
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एक समय तात्या कोते पाटील गाँगे में बैठकर कोपरगाँव के बाजार को जा रहे थे । वे शीघ्रता से मसजिद में आये । बाबा को नमन किया और कहा कि मैं कोपरगाँव के बाजार को जा रहा हूँ । बाबा ने कहा, शीघ्रता न करो, थोड़ा ठहरो । बाजार जाने का विचार छोड़ दो और गाँव के बाहर न जाओ । उनकी उतावली को देखकर बाबा ने कहा अच्छा, कम से कम शामा को साथ लेते जाओ । बाबा की आज्ञा की अवहेलना करके उन्होंने तुरन्त ताँगा आगे बढ़ाया । ताँगे के दो घोड़ो में से एक घोड़ा, जिसका मूल्य लगभग तीन सौ रुपया था, अति चंचल और द्रुतगामी था । रास्ते में सावली विहीर ग्राम पार करने के पश्चात ही वह अधिक वेग से दौड़ने लगा । अकस्मात ही उसकी कमी में मोच आ गई । वह वहीं गिर पड़ा । यघरि तात्या को अधिक चोट तो न आई, परन्तु उन्हें अपनी साई माँ के आदेशों की स्मृति अवश्य हो आई । एक अन्य अवसर पर कोल्हार ग्राम को जाते हुए भी उन्होंने बाबा के आदेशों की अवज्ञा की थी और ऊपर वर्णित घटना के समान ही दुर्घटना का उन्हें सामना करना पड़ता था ।

एक यूरोपियन महाशय
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एक समय बम्बई के एक यूरोपियन महाशय, नानासाहेब चांदोरकर से परिचय-पत्र प्राप्त कर किसी विशेष कार्य से शिरडी आये । उन्हें एक आलीशान तम्बू में ठहराया गया । वे तो बाबा के समक्ष नत होकर करकमलों का चुम्बन करना चाहते थे । इसी कारण उन्होंने तीन बार मसजिद की सीढ़ियों पर चढ़ने का प्रयत्न किया, परन्तु बाबा ने उन्हें अपने समीप आने से रोक दिया । उन्हें आँगन में ही ठहरने और वहीं से दर्शन करने की आज्ञा मिली । इस विचित्र स्वागत से अप्रसन्न होकर उन्होंने शीघ्र ही शिरडी से प्रस्थान करने का विचार किया और बिदा लेने के हेतु वे वहाँ आये । बाबा ने उन्हें दूसरे दिन जाने और शीघ्रता न करने की राय दी । अन्य भक्तों ने भी उनसे बाबा के आदेश का पालन करने की प्रार्थना की । परन्तु वे सब की उपेक्षा कर ताँगे में बैठकर रवाना हो गये । कुछ दूर तक तो घोड़े ठीक-ठीक चलते रहे । परन्तु सावली विहीर नामक गाँव पार करने पर एक बाइसिकिल सामने से आई, जिसे देखकर घोड़े भयभीत हो गये और द्रुत गति से दौड़ने लगे । फलस्वरुप ताँगा उलट गया और महाशय जी नीचे लुढ़क गये और कुछ दूर तक ताँगे के साथ-साथ घिसटते चले गये । लोगों ने तुरन्त अस्पताल में शरण लेनी पड़ी । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि जो बाबा के आदेशों की अवहेलना करते हैं, उन्हें किसी न किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होना ही पड़ता है और जो आज्ञा का पालन करते है, वे सकुशल और सुखपूर्वक घर पहुँच जाते हैं ।

भिक्षावृत्ति की आवश्यकता

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अब हम भिक्षावृत्ति के प्रश्न पर विचार करेंगें । संभव है, कुछ लोगों के मन में सन्देह उत्पन्न हो कि जब बाबा इतने श्रेष्ठ पुरुष थे तो फिर उन्होंने आजीवन भिक्षावृत्ति पर ही क्यों निर्वाह किया ।

इस प्रश्न को दो दृष्टिकोण समक्ष रख कर हल किया जा सकता हैं ।

पहला दृष्टिकोण – भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का कौन अधिकारी है ।
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शास्त्रानुसार वे व्यक्ति, जिन्होंने तीन मुख्य आसक्तियों –
1. कामिनी
2. कांचन और
3. कीर्ति का त्याग कर, आसक्ति-मुक्त हो सन्यास ग्रहण कर लिया हो

– वे ही भिक्षावृत्ति के उपयुक्त अधिकारी है, क्योंकि वे अपने गृह में भोजन तैयार कराने का प्रबन्ध नहीं कर सकते । अतः उन्हें भोजन कराने का भार गृहस्थों पर ही है । श्री साईबाबा न तो गृहस्थ थे और न वानप्रस्थी । वे तो बालब्रहृमचारी थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि विश्व ही मेरा गृह है । वे तो स्वया ही भगवान् वासुदेव, विश्वपालनकर्ता तथा परब्रहमा थे । अतः वे भिक्षा-उपार्जन के पूर्ण अधिकारी थे ।

दूसरा दृष्टिकोण
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पंचसूना – (पाँच पाप और उनका प्रायश्चित) – सब को यह ज्ञात है कि भोजन सामग्री या रसोई बनाने के लिये गृहस्थाश्रमियों को पाँच प्रकार की क्रयाएँ करनी पड़ती है –

1. कंडणी (पीसना)
2. पेषणी (दलना)
3. उदकुंभी (बर्तन मलना)
4. मार्जनी (माँजना और धोना)
5. चूली (चूल्हा सुलगाना)

इन क्रियाओं के परिणामस्वरुप अनेक कीटाणुओं और जीवों का नाश होता है और इस प्रकार गृहस्थाश्रमियों को पाप लगता है । इन पापों के प्रायश्चित स्वरुप शास्त्रों ने पाँच प्रकार के याग (यज्ञ) करने की आज्ञा दी है, अर्थात्
1. ब्रहमयज्ञ अर्थात् वेदाध्ययन - ब्रहम को अर्पण करना या वेद का अछ्ययन करना
2. पितृयज्ञ – पूर्वजों को दान ।
3. देवयज्ञ – देवताओं को बलि ।
4. भूतयज्ञ – प्राणियों को दान ।
5. मनुष्य (अतिथि) यज्ञ – मनुष्यों (अतिथियों) को दान ।
यदि ये कर्म विधिपूर्वक शास्त्रानुसार किये जायें तो चित्त शुदृ होकर ज्ञान और आत्मानुभूति की प्राप्ति सुलभ हो जाती हैं । बाबा दृार-दृार जाकर गृहस्थाश्रमियों को इस पवित्र कर्तव्य की स्मृति दिलाते रहते थे और वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली थे, जिन्हें घर बैठे ही बाबा से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल जाता था ।

भक्तों के अनुभव
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अब हम अन्य मनोरंजक विषयों का वर्णन करते हैं । भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है – जो मुझे भक्तिपूर्वक केवल एक पत्र, फूल, फल या जल भी अर्पण करता है तो मैं उस शुदृ अन्तःकरण वाले भक्त के दृारा अर्पित की गई वस्तु को सहर्ष स्वीकार कर लेता हूँ ।

यदि भक्त सचमुच में श्री साईबाबा की कुछ भेंट देना चाहता था और बाद में यदि उसे अर्पण करने की विस्मृति भी हो गई तो बाबा उसे या उसके मित्र दृारा उस भेंट की स्मृति कराते और भेंट देने के लिये कहते तथा भेंट प्राप्त कर उसे आशीष देते थे । नीचे कुछ ऐसी कुछ ऐसी घटनाओं का वर्णन किया जाता हैं ।

तर्खड कुटुम्ब (पिता और पुत्र)
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श्री रामचन्द्र आत्माराम उपनाम बाबासाहेब तर्खड पहले प्रार्थनासमाजी थे । तथारि वे बाबा के परमभक्त थे । उनकी स्त्री और पुत्र तो बाबा के एकनिष्ठ भक्त थे । एक बार उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि पुत्र व उसकी माँ ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ शिरडी में ही व्यतीत करें । परन्तु पुत्र बाँद्रा छोड़ने को सहमत न हुआ । उसे भय था कि बाबा का पूजन घर में विधिपूर्वक न हो सकेगा, क्योंकि पिताजी प्रार्थना-समाजी है और संभव है कि वे श्री साईबाबा के पूजनादि का उचित ध्यान न रख सके । परन्तु पिता के आश्वासन देने पर कि पूजन यथाविधि ही होता रहेगा, माँ और पुत्र ने एक शुक्रवार की रात्रि में शिरडी को प्रस्थान कर दिया ।

 दूसरे दिन शनिवार को श्रीमान् तर्खड ब्रहमा मुहूर्त में उठे और स्नानादि कर, पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व, बाबा के समक्ष साष्टांग दण्डवत् करके बोले- हे बाबा मैं ठीक वैसा ही आपका पूजन करता रहूँगा, जैसे कि मेरा पुत्र करता रहा है, परन्तु कृपा कर इसे शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित न रखना । ऐसा कहकर उन्होंने पूजन आरम्भ किया और मिश्री का नैवेघ अर्पित किया, जो दोपहर के भोजन के समय प्रसाद के रुप में वितरित कर दिया गया ।

उस दिन की सन्ध्या तथा अगला दिन इतवार भी निर्विघ्र व्यतीत हो गया । सोमवार को उन्हें आँफिस जाना था, परन्तु वह दिन भी निर्विघ्र निकल गया । श्री तर्खड ने इस प्रकार अपने जीवन में कभी पूजा न की थी । उनके हृदय में अति सन्तोष हुआ कि पुत्र को दिये गये वचनानुसार पूजा यथाक्रम संतोषपूर्वक चल रही है । अगले दिन मंगलवार को सदैव की भाँति उन्होंने पूजा की और आँफिस को चले गये । दोपहर को घर लौटने पर जब वे भोजन को बैठे तो थाली में प्रसाद न देखकर उन्होंने अपने रसोइये से इस सम्बन्ध में प्रश्न किया । उसने बतलाया कि आज विस्मृतिवश वे नैवेघ अर्पण करना भूल गये है । यह सुनकर वे तुरन्त अपने आसन से उठे और बाबा को दण्वत् कर क्षमा याचना करने लगे तथा बाबा से उचित पथ-प्रदर्शन न करने तथा पूजन को केवल शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित रखने के लिये उलाहना देने लगे । उन्होंने संपूर्ण घटना का विवरण अपने पुत्र को पत्र दृारा कुचित किया और उससे प्रार्थना की कि वह पत्र बाबा के श्री चरणों पर रखकर उनसे कहना कि वे इस अपराध के लिये क्षमाप्रार्थी है । यह घटना बांद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की घटना बाँद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की आरती प्रारम्भ होने ही वाली थी कि बाबा ने श्रीमती तर्खड से कहा – माँ, मैं कुछ भोजन पाने के विचार से तुम्हारे घर बाँद्रा गया था, दृार में ताला लगा देखकर भी मैंने किसी प्रकार गृह में प्रवेश किया । परन्तु वहाँ देखा कि भाऊ (श्री. तर्खड) मेरे लिये कुछ भी खाने को नहीं रख गये है । अतः आज मैं भूखा ही लौट आया हूँ । किसी को भी बाबा के वचनों का अभिप्राय समझ में नहीं आया, परन्तु उनका पुत्र जो समीप ही खड़ा था, सब कुछ समझ गया कि बाँद्रा में पूजन में कुछ तो भी त्रुटि हो गई है, इसलिये वह बाबा से लौटने की अनुमति माँगने लगा । परन्तु बाबा ने आज्ञा न दी और वहीं पूजन करने का आदेश दिया । उनके पुत्र ने शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे पत्र में लिख कर पिता को भेजा और भविष्य में पूजन में सावधानी बर्तने के लिये विनती की । दोनों पत्र डाक दृारा दूसरे दिन दोनों पश्रों को मिले । किया यह घटना आश्चर्यपूर्ण नहीं है ।
श्रीमती तर्खड
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एक समय श्रीमती तर्खड ने तीन वस्तुएँ अर्थात्
1. भरित (भुर्ता यानी मसाला मिश्रित भुना हुआ बैगन और दही)
2. काचर्या (बैगन के गोल टुकड़े घी में तले हुए) और
3. पेड़ा (मिठाई) बाबा के लिये भेजी ।

बाबा ने उन्हे किस प्रकार स्वीकार किया, इसे अब देखेंगे ।

बाँद्रा के श्री रघुवीर भास्कर पुरंदरे बाबा के परम भक्त थे । एक समय वे शिरडी को जा रहे थे । श्रीमती तर्खड ने श्रीमती पुरंदरे को दो बैगन दिये और उनसे प्रार्थना की कि शिरडी पहुँचने पर वे एक बैगन का भुर्ता और दूसरे का काचर्या बनाकर बाबा को भेंट कर दें । शिरडी पहुँचने पर श्रीमती पुरंदरे भुर्ता लेकर मसजिद को गई । बाबा उसी समय भोजन को बैठे ही थे । बाबा को वह भुर्ता बड़ा स्वादिष्ट प्रतीत हुआ, इस कारण उन्होंने थोडा़-थोड़ा सभी को वितरित किया । इसके पश्चात ही बाबा ने काचर्या माँग रहे है । वे बड़े राधाकृष्णमाई के पास सन्देशा भेजा गया कि बाबा काचर्या माँग रहे है । वे बड़े असमंजस में पड़ गई कि अव क्या करना चाहिये । बैंगन की तो अभी ऋतु ही नीं है । अब समस्या उत्पन्न हुई कि बैगन किस प्रकार उपलब्ध हो । जब इस बात का पता लगाया गया कि भर्ता लाया कौन था । तब ज्ञात हुआ कि बैगन श्रीमती पुरंदरे लाई थी तथा उन्हें ही काचर्या बनाने का कार्य सौंपा गया था । अब प्रत्येक को बाबा की इस पूछताछ का अभिप्राय विदित हो गया और सब को बाबा की सर्वज्ञता पर महान् आश्चर्य हुआ ।
दिसम्बर, सन् 1915 में श्री गोविन्द बालाराम मानकर शिरडी जाकर वहाँ अपने पिता की अन्त्येष्चि-क्रिया करना चाहते थे । प्रस्थान करने से पूर्व वे श्रीमती तर्खड से मिलने आये । श्रीमती तर्खड बाबा के लिये कुछ भेंट शिरडी भेजना चाहती थी । उन्होंने घर छान डाला, परन्तु केवल एक पेड़े के अतिरिक्त कुछ न मिला और वह पेड़ा भी अर्पित नैवेघ का था । बालक गोविन्द ऐसी परिस्थिति देखकर रोने लगा । परन्तु फिर भी अति प्रेम के कारण वही पेड़ा बाबा के लिये भेज दिया । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि बाबा उसे अवश्य स्वीकार कर लेंगे । शिरडी पहुँचने पर गोविन्द मानकर बाबा के दर्शनार्थ गये, परन्तु वहाँ पेड़ा ले जाना भूल गये । बाबा यह सब चुपचाप देखते रहे । परन्तु जब वह पुनः सन्ध्या समय बिना पेड़ा लिये हुए वहाँ पहुँचा तो फिर बाबा शान्त न रह सके और उन्होंने पूछा कि तुम मेरे लिये क्या लाये हो । उत्तर मिला – कुछ नहीं । बाबा ने पुनः प्रश्न किया और उसने वही उपयुर्क्त उत्तर फिर दुहरा दिया । अब बाबा ने स्पष्ट शब्दों में पूछा, क्या तुम्हें माँ (श्रीमती तर्खड) ने चलते समय कुछ मिठाई नहीं दी थी । अब उसे स्मृति हो आई और वह बहुत ही लज्जित हुआ तथा बाबा से क्षमा-याचना करने बाबा ने तुरन्त ही पेड़ा खा लिया । वह दौड़कर शीघ्र ही वापस गया और पेड़ा लाकर बाबा के सम्मुख रख दिया । बाबा ने तुरन्त ही पेड़ा खा लिया । इस प्रकार श्रीमती तर्खड की भेंट बाबा ने स्वीकार की और भक्त मुझ पर विश्वास करता है इसलिये मैं स्वीकार कर लेता हूँ । यह भगवदृचन सिदृ हुआ ।


बाबा का सन्तोषपूर्वक भोजन
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एक समया श्रीमती तर्खड शिरडी आई हुई थी । दोपहर का भोजन प्रायः तैयार हो चुका था और थालियाँ परोसी ही जा रही थी कि उसी समय वहाँ एक भूखा कुत्ता आया और भोंकने लगा । श्रीमती तर्खड तुरन्त उठी और उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा कुत्ते को डाल दिया । कुत्ता बड़ी रुचि के साथ उसे खा गया । सन्ध्या के समय जब वे मसजिद में जाकर बैठी तो बाबा ने उनसे कहा माँ आज तुमने बड़े प्रेम से मुझे खिलाया, मेरी भूखी आत्मा को बड़ी सान्त्वना मिली है । सदैव ऐसा ही करती रहो, तुम्हें कभी न कभी इसका उत्तम फल अवश्य प्राप्त होगा । इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूँगा । सदैव मुझ पर ऐसा ही अनुग्रह करती रहो । पहले भूखों को भोजन कराओ, बाद में तुम भोजन किया करो । इसे अच्छी तरह ध्यान में रखो । बाबा के शब्दों का अर्थ उनकी समझ में न आया, इसलिये उन्होंने प्रश्न किया, भला । मैं किस प्रकार भोजन करा सकती हूँ मैं तो स्वयं दूसरों पर निर्भर हूँ और उन्हें दाम देकर भोजन प्राप्त करती हूँ । बाबा कहने लगे, उस रोटी को ग्रहण कर मेरा हृदय तृप्त हो गया है और अभी तक मुझे डकारें आ रही है । भोजन करने से पूर्व तुमने जो कुत्ता देखा था और जिसे तुमने रोटी का टुकडा़ दिया था, वह यथार्थ में मेरा ही स्वरुप था और इसी प्रकार अन्य प्राणी (बिल्लियाँ, सुअर, मक्खियाँ, गाय आदि) भी मेरे ही स्वरुप हैं । मै ही उनके आकारों में ड़ोल रहा हूँ । जो इन सब प्राणियों में मेरा दर्शन करता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । इसलिये दैत या भेदभाव भूल कर तुम मेरी सेवा किया करो ।
इस अमृत तुल्य उपदेश को ग्रहण कर वे द्रवित हो गई और उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, गला रुँध गया और उनके हर्ष का पारावार न रहा ।

शिक्षा
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समस्त प्राणियों में ईश्वर-दर्शन करो – यही इस अध्याय की शिक्षा है । उपनिषद्, गीता और भागवत का यही उपदेश है कि ईशावास्यमिदं सर्वम् – सब प्राणियों में ही ईश्वर का वास है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव करो ।

अध्याय के अन्त में बतलाई घटना तथा अन्य अनेक घटनाये, जिनका लिखना अभी शेष है, स्वयं बाबा ने प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया कि किस प्रकार उपनिषदों की शिक्षा को आचरण में लाना चाहिये ।
इसी प्रकार श्री साईबाबा शास्त्रग्रंथों की शिक्षा दिया करते थे ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 27 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ कालरात्रि

ॐ सांई राम


आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 


माँ दुर्गा की सातवी शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है | इनके

शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह काला होता है | बाल बिखरे हुए हैं | गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है | इनके तीन नेत्र हैं | ये तीनो नेत्र ब्रम्हांड के समान गोल हैं | इनके श्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं | इनका वाहन गदर्भ ( गधा ) है | ऊपर उठे दाहिने हाथ से सबको वर प्रदान करती हैं | दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है | बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग ( कटार ) है | माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है परन्तु ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं | इसलिए इनसे किसी भी प्रकार से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है |



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Tuesday, 26 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ कात्यायनी

ॐ सांई राम



आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 

माँ दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है | इनका कात्यायनी नाम
पड़ने की कथा इस प्रकार है - कत नाम के एक प्रसिद्ध महार्षि थे | उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए | इन्ही कात्य के गोत्र में महार्षि कात्यायन उत्पन हुए थे | इन्होने भगवती पराम्बा की बहुत कठिन उपासना की थी | उनकी इच्छा थी की माँ भगवती उनके घर पुत्री रूप में जन्म ले | माँ भगवती ने उनकी ये प्रार्थना स्वीकार कर ली | कुछ काल पश्चात जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया जब ब्रम्हा, विष्णु, महेश तीनो ने अपने अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन किया | इन देवी ने महार्षि कात्यायन के घर पुत्री रूप में जन्म लिया | महार्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की | इसी कारण ये कात्यायनी कहलाई |

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Monday, 25 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ स्कन्दमाता

ॐ सांई राम



आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 

माँ दुर्गा जी के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है | ये
भगवान स्कन्द " कुमार कार्तिकेय " नाम से भी जाने जाते हैं | ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे | पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है | इनका वाहन मयूर है | इन्ही भगवान स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गा के इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है |


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Sunday, 24 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ कूष्मांडा

ॐ सांई राम


आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 


माँ दुर्गा जी के चौथे स्वरूप का नाम कूष्मांडा है |
अपनी मंद हलकी हंसी द्वारा अंड अर्थात ब्रम्हांड को उत्पन करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से अभिहित किया गया है | जब सृष्टि का आस्तित्व नहीं था, चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार था, तब इन्ही देवी ने अपने हास्य से सृष्टि की रचना की थी | इस कारण यही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदि-शक्ति हैं | इनसे पूर्व ब्रम्हांड का आस्तित्व था ही नहीं |


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Saturday, 23 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ चंद्रघंटा

ॐ सांई राम


आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 


 माँ दुर्गा जी की तीसरी शक्ति का नाम 'चंद्रघंटा' है | नवरात्रि-उपासना में

तीसरे दिन इन्ही के विग्रह का पूजन आराधन किया जाता है | इनका यह स्वरूप परम शक्तिदायक और कल्याणकारी है | इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है | इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है | इसके शरीर का रंग स्वर्ण के सामान चमकीला है | इनके दस हाथ है | इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शास्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं | इनका वाहन सिंह है | इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उधयत रहने वाली होती है | इनके घंटे की-सी भयानक चंडध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं |

Friday, 22 September 2017

आप सभी को नवरात्रों की हार्दिक बधाई - माँ ब्रम्हचारिणी

ॐ सांई राम

आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 


माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा रूप माँ ब्रम्हचारिणी का है | यहाँ ब्रम्हा
शब्द का अर्थ तपस्या है | ब्रम्हचारिणी अर्थात तप की चारिनी ( तप का आचरण करने वाली | ) ब्रम्हचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है | इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बहिने हाथ में कमण्डल रहता है | अपने पूर्व जन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री-रूप में उत्पन हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होने भगवान् शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी | दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रम्हचारिणी नाम से अभिहित किया गया |

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Gautam Budh Nagar, Uttar Pradesh. INDIA.

बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.