शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....
"ॐ श्री साँई राम जी समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम
मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे
कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे
मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे
दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे अभिषेक प्रात: 9:00 बजे मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे
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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले करआधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29
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मद्रासी भजनी मेला, तोंडुलकर (पिता व पुत्र), डाँक्टर कैप्टन हाटे और वामन नार्वेकर आदि की कथाएँ । --------------------------------
मद्रासी भजनी मेला ..................
लगभग सन् 1916 में एक मद्रासी भजन मंडली पवित्र काशी की तीर्थयात्रा पर निकली । उस मंडली में एक पुरुष, उनकी स्त्री, पुत्री और साली थी । अभाग्यवश, उनके नाम यहाँ नहीं दिये जा रहे है । मार्ग में कहीं उनको सुनने में आया कि अहमदनगर के कोपरगाँव तालुका के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक महान् सन्त रहते है, जो बहुत दयालु और पहुँचे हुए है । वे उदार हृदय और अहेतुक कृपासिन्धु है । वे प्रतिदिन अपने भक्तों को रुपया बाँटा करते है । यदि कोई कलाकार वहाँ जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करता है तो उसे भी पुरस्कार मिलता है । प्रतिदिन दक्षिणा में बाबा के पास बहुत रुपये इकट्ठे हो जाया करते थे । इन रुपयों में से वे नित्य एक रुपया भक्त कोण्डाजी की तीनवर्षीय कन्या अमनी को, किसी को दो रुपये से पाँच रुपये तक, छः रुपये अमनी की माली को और दस से बीस रुपये तक और कभी-कभी पचास रुपये भी अपनी इच्छानुसार अन्य भक्तों को भी दिया करते थे । यह सुनकर मंडली शिरडी आकर रुकी । मंडली बहुत सुन्दर भजन और गायन किया करती थी, परन्तु उनका भीतरी ध्येय तो द्रव्योपार्जन ही था । मंडली में तीन व्यक्ति तो बड़े ही लालची थे । केवल प्रधान स्त्री का ही स्वभाव इन लोगों से सर्वथा भिन्न था । उसके हृदय में बाबा के प्रति श्रद्घा और विश्वास देखकर बाबा प्रसन्न हो गये । फिर क्या था । बाबा ने उसे उसके इष्ट के रुप में दर्शन दिये और केवल उसे ही बाबा सीतानाथ के रुप में दिखलाई दिये, जब कि अन्य उपस्थित लोगों को सदैव की भाँति ही । अपने प्रिय इष्ट का दर्शन पाकर वह द्रवित हो गई तथा उसका कंठ रुँध गया और आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । तभी प्रेमोन्मत हो वह ताली बजाने लगी । उसको इस प्रकार आनन्दित देख लोगों को कौतूहल तो होने लगा, परन्तु कारण किसी को भी ज्ञात न हो रहा था । दोपहर के पश्चात उसने वह भेद अपने पति से प्रगट किया । बाबा के श्रीरामस्वरुप में उसे कैसे दर्शन हुए इत्यादि उसने सब बताया । पति ने सोचा कि मेरी स्त्री बहुत भोली और भावुक है, अतः इसे राम का दर्शन होना एक मानसिक विकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है । उसने ऐसा कहकर उसकी उपेक्षा कर दी कि कहीं यह भी संभव हो सकता है कि केवल तुम्हें ही बाबा राम के रुप में दिखे ओर अन्य लोगों को सदैव की भाँति ही । स्त्री ने कोई प्रतिवाद न किया, क्योंकि उसे राम के दर्शन जिस प्रकार उस समय हुए थे, वैसे ही अब भी हो रहे थे । उसका मन शान्त, स्थिर और संतृप्त हो चुका था ।
आश्चर्यजनक दर्शन .................. इसी प्रकार दिन बीतते गये । एक दिन रात्रि में उसके पति को एक विचित्र स्वप्न आया । उसने देखा कि एक बड़े शहर में पुलिस ने गिरफ्तार कर डोरी से बाँधकर उसे कारावास में डाल दिया है । तत्पश्चात् ही उसने देखा कि बाबा शान्त मुद्रा में सींकचों के बाहर उसके समीप खड़े है । उन्हें अपने समीप खड़े देखकर वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपकी कीर्ति सुनकर ही मैं आपके श्रीचरणों में आया हूँ । फिर आपके इतने निकट होते हुए भी मेरे ऊपर यह विपत्ति क्यों आई । तब वे बोले कि तुम्हें अपने बुरे कर्मों का फल अवश्य भुगतना चाहिये । वह पुनः बोला कि इस जीवन में मुझे अपने ऐसे कर्म की स्मृति नही, जिसके कारण मुझे ये दुर्दिन देखने का अवसर मिला । बाबा ने कहा कि यदि इस जन्म में नहीं तो गत जन्म की कोई स्मृति नहीं, परन्तु यदि एक बार मान भी लूँ कि कोई बुरा कर्म हो भी गया होगा तो अपने यहाँ होते हुए तो उसे भस्म हो जाना चाहिये, जिस प्रकार सूखी घास अग्नि द्घारा शीघ्र भस्म हो जाती है । बाबा ने पूछा, क्या तुम्हारा सचमुच ऐसा दृढ़ विश्वास है । उसने कहा – हाँ । बाबा ने उससे अपनी आँखें बन्द करने को कहा और जब उसने आँखें बन्द की, उसे किसी भारी वस्तु के गिरने की आहट सुनाई दी । आँखें खोलने पर उसने अपने को कारावास से मुक्त पाया । पुलिस वाला नीचे गिरा पड़ा है तथा उसके शरीर से रक्त प्रवाहित हो रहा है, यह देखकर वह अत्यन्त भयभीत दृष्टि से बाबा की ओर देखने लगा । तब बाबा बोले कि बच्चू । अब तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जायेगी । पुलिस अधिकारी अभी आवेंगे और तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे । तब वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपके अतिरिक्त मेरी रक्षा और कौन कर सकता है । मुझे तो एकमात्र आपका ही सहारा है । भगवान् मुझे किसी प्रकार बचा लीजिये । तब बाबा ने फिर उससे आँखें बन्द करने को कहा । आँखे खोलने पर उसने देखा कि वह पूर्णतः मुक्त होकर सींकचों के बाहर खड़ा है और बाबा भी उसके समीप ही कड़े है । तब वह बाबा के श्रीचरणों पर गिर पड़ा । बाबा ने पूछा कि मुझे बताओ तो, तुम्हारे इस नमस्कार और पिछले नमस्कारों में किसी प्रकार की भिन्नता है या नहीं । इसका उत्तर अच्छी तरह सोच कर दो । वह बोला कि आकाश और पाताल में जो अन्तर है, वही अंतर मेरे पहले और इस नमस्कारा में है । मेरे पूर्व नमस्कार तो केवल धन-प्राप्ति की आशा से ही थे, परन्तु यह नमस्कार मैंने आपको ईश्वर जानकर ही किया है । पहले मेरी धारणा ऐसी थी कि यवन होने के नाते आप हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट कर रहे है । बाबा ने पूछा कि क्या तुम्हारा यवन पीरों में विश्वास नहीं । प्रत्युत्तर में उसने कहा – जी नहीं । तब वे फिर पुछने लगे कि क्या तुम्हारे घर में एक पंजा नही । क्या तुम ताबूत की पूजा नहीं करते । तुम्हारे घर में अभी भी एक काडबीबी नामक देवी है, जिसके सामने तुम विवाह तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर कृपा की भीख माँगा करते हो । अन्त में जब उसने स्वीकार कर लिया तो वे बोले कि इससे अधिक अब तुम्हे क्या प्रमाण चाहिये । तब उनके मन में अपने गुरु श्रीरामदास के दर्शनों की इच्छा हुई । बाबा ने ज्यों ही उससे पीछे घूमने को कहा तो उसने देखा कि श्रीरामदास स्वामी उसके सामने खड़े है और जैसे ही वह उनके चरणों पर गिरने को तत्पर हुआ, वे तुन्त अदृश्य हो गये । तब वह बाबा से कहने गला कि आप तो वृदृ प्रतीत होते है । क्या आपको अपनी आयु विदित है । बाबा ने पूछा कि तुम क्या कहते हो कि मैं बूढ़ा हूँ । थोड़ी दूर मेरे साथ दौड़कर तो देखो । ऐसा कहकर बाबा दौड़ने लगे और वह भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा । दौड़ने से पैरों द्घारा जो धूल उड़ी, उसमें बाबा लुप्त हो गये और तभी उसकी नींद भी खुल गई । जागृत होते ही वह गम्भीरतापूर्वक इस स्वप्न पर विचार करने लगा । उसकी मानसिक प्रवृत्ति में पूर्ण परिवर्तन हो गया । अब उसे बाबा की महानता विदित हो चुकी थी । उसकी लोभी तथा शंकालु वृत्ति लुप्त हो गयी और हृदय में बाबा के चरणों के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ पड़ी । वह था तो एक स्वप्न मात्र ही, परन्तु उसमें जो प्रश्नोत्तर थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे । दूसरे दिन जब सब लोग मसजिद में आरती के निमित्त एकत्रित हुए, तब बाबा ने उसे प्रसाद में लगभग दो रुपये की मिठाई और दो रुपये नगद अपने पास से देकर आर्शीवाद दिया । उसे कुछ दिन और रोककर उन्होंने आशीष देते हुए कहा कि अल्ला तुम्हें बहुत देगा और अब सब अच्छा ही करेगा । बाबा से उसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति तो न हुई, परन्तु उनकी कृपा उसे अवश्य ही प्राप्त हो गई, जिससे उसका बहुत ही कल्याण हुआ । मार्ग में उनको यथेष्ठ द्रव्य प्राप्त हुआ और उनकी यात्रा बहुत ही सफल रही । उन्हें यात्रा में कोई कष्ट या असुविधा न हुई और वे अपने घर सकुशल पहुँच गये । उन्हें बाबा के श्रीवचनों तथा आर्शीवाद और उनकी कृपा से प्राप्त उस आनन्द की सदैव स्मृति बनी रही । इस कथा से विदित होता है कि बाबा किस प्रकार अपने भक्तों के समीप पधारकर उन्हें श्रेयस्कर मार्ग पर ले आते थे और आज भी ले आते है ।
तेंडुलकर कुटुम्ब ................... बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का पूरा भक्त था । श्रीयुत् रघुनाथराव तेंडुलकर ने मराठी भाषा में श्रीसाईनाथ भजनमाला नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें लगभग आठ सौ अभंग और पदों का समावेश तथा बाबा की लीलाओं का मधुर वर्णन है । यह बाबा के भक्तों के पढ़ने योग्य पुस्तक है । उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डाँक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था । उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं है किन्तु अग्रिम वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी । इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशांत हो गया । थोड़े दिनों के पश्चात् उसकी माँ शिरडी गई और उसने वहाँ बाबा के दर्शन किये । अन्य बातों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही । उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था । बाबा कहने लगे कि अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे । सब भविष्यकथन तथा ज्योतिषियों द्घारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे । वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जायेगा । उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है । माँ ने घर आकर बाब का सन्देश पुत्र को सुना दिया । उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया । सब परचों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे । परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें । इसीलिये उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया । परीक्षक तो उसके पीछे ही लगा था । उसने एक विघार्थी द्घारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में तो उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त है । अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिये । इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया । उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी । यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है । जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दरृढ़ विश्वास और श्रद्घा रखकर प्रयत्न करते रहे तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी । इसी बालक के पिता रघुनाथराव बम्बई की एक विदेशी व्यवसायी फर्म में नौकरी करते थे । वे बहुत वृदृ हो चुके थे और अपना कार्य सुचारु रुप से नहीं कर सकते थे । इसलिये वे अब छुट्टी लेकर विश्राम करना चाहते थे । छुट्टी लेने पर भी उनके शारीरिक स्वास्थ्य में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ । अब यह आवश्यक था कि सेवानिवृतत्ति की पूर्वकालिक छुट्टी ली जाय । एक वृदृ और विश्वासपात्र नौकर होने के नाते प्रधान मैनेजर ने उन्हें पेन्शन देर सेवा-निवृत्त करने का निर्णय किया । पेन्शन कितनी दी जाय, यह प्रश्न विचाराधीन था । उन्हें 150 रुपये मासिक वेतन मिलता था । इस हिसाब से पेन्शन हुई 75 रुपये, जो कि उनके कुटुम्ब के निर्वाह हेतु अपर्याप्त थी । इसलिये वे बड़े चिन्तित थे । निर्णय होने के पन्द्रह दिन पूर्व ही बाबा ने श्रीमती तेंडुलकर को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मेरी इच्छा है कि पेन्शन 100 रुपये दी जाय । क्या तुम्हें इससे सन्तोष होगा । श्रीमती तेंडुलकर ने कहा कि बाबा मुझ दासी से आप क्या पूछते है हमें तो आपके श्री-चरणों में पूर्ण विश्वास है । यघपि बाबा ने 100 रुपये कहे थे, परन्तु उसे विशेष प्रकरण समझकर 10 रुपये अधिक अर्थात् 110 रुपये पेन्शन निश्चित हुई । बाबा अपने भक्तों के लिये कितना अपरिमित स्नेह और कितनी चिन्ता रखते थे ।
कैप्टन हाटे ........... बीकानेर के निवासी कैप्टन हाटे बाबा के परम भक्त थे । एक बार स्वप्न में बाबा ने उनसे पूछा कि क्या तुम्हें मेरी विस्मृति हो गई । श्री. हाटे ने उनके श्रीचरणों से लिफ्ट कर कहा कि यदि बालक अपनी माँ को भूल जाये तो क्या वह जीवित रह सकता है । इतना कहकर श्री. हाटे शीघ्र बगीचे में जाकर कुछ वलपपडी (सेम) तोड़ लाये और एक थाली में सीधा (सूखी भिश्रा) तथा दक्षिणा रखकर बाबा को भेंट करने आये । उसी समय उनकी आँखें खुल गई और उन्हें ऐसा भान हुआ कि यह तो एक स्वप्न था । फिर वे सब वस्तुएँ जो उन्होंने स्वप्न में देखी थी, बाबा के पास शिरडी भेजने का निश्चय कर लिया । कुछ दोनों के पश्चात् वे ग्वालियर आये और वहाँ से अपने एक मित्र को बारह रुपयों का मनीआर्डर भेजकर पत्र में लिख भेजा कि दो रुपयों में सीधा की सामग्री और वलपपड़ी (सेम) आदि मोल लेकर तथा दस रुपये दक्षिणास्वरुप साथ में रखकर मेरी ओर से बाबा को भेंट देना । उनके मित्र ने शिरडी आकर सब वस्तुएँ तो संग्रह कर ली, परन्तु वलपपड़ी प्राप्त करने में उन्हें अत्यन्त कठिनाई हुई । थोड़ी देर के पश्चात् ही उन्होंने एक स्त्री को सिर पर टोकरी रखे सामने से आते देखा । उन्हें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उस टोकरी में वलपपड़ी के अतिरिक्त कुछ भी न था । तब उन्होंने वलपपड़ी खरीद कर सब एकत्रित वस्तुएँ लेकर मसजिद में जाकर श्री. हाटे की ओर से बाबा को भेंट कर दी । दूसरे दिन श्री. निमोणकर ने उसका नैवेघ (चावल और वलपपड़ी की सब्जी) तैयार कर बाबा को भोजन कराया । सब लोगों को बड़ा विसमय हुआ कि बाबा ने भोजन में केवल वलपपड़ी ही खाई और अन्य वस्तुओं को स्पर्श तक न किया । उनके मित्र द्घारा जब इस समाचार का पता कैप्टन हाटे को चला तो वे गदगद हो उठे और उनके हर्ष का पारावार न रहा ।
पवित्र रुपया ............ एक अन्य अवसर पर कैप्टन हाटे ने विचार किया कि बाबा के पवित्र करकमलों द्घारा स्पर्शित एक रुपया लाकर अपने घर में अवश्य ही रखना चाहिये । अचानक ही उनकी भेंट अपने एक मित्र से हो गई, जो शिरडी जा रहे थे । उनके हाथ ही श्री. हाटे ने एक रुपया भेज दिया । शिरडी पहुँचने पर बाबा को यथायोग्य प्रणाम करने के पश्चात् उसने दक्षिणा भेंट की, जिसे उन्होंने तुरन्त ही अपनी जेब में रख लिया । तत्पश्चात् ही उसने कैप्टन हाटे का रुपया भी अर्पण किया, जिसे वे हाथ में लेकर गौर से निहारने लगे । उन्होंने उसका अंकित चित्र ऊपर की ओर कर अँगूठे पर रख खनखनाया और अपने हाथ में लेकर देखने लगे । फिर वे उनके मित्र से कहने लगे कि उदी सहित यह रुपया अपने मित्र को लौटा देना । मुझे उनसे कुछ नहीं चाहिये । उनसे कहना कि वे आनन्दपूर्वक रहें । मित्र ने ग्वालियर आकर वह रुपया हाटे को देकर वहाँ जो कुछ हुआ था, वह सब उन्हें सुनाया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अनुभव किया कि बाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते है । उनकी मनोकामना बाबा ने पूर्ण कर दी ।
श्री. वामन नार्वेकर ................. पाठकगण अब एक भिन्न कथा श्रवण करें । एक महाशय, जिनका नाम वामन नार्वेकर था, उनकी साई-चरणों में प्रगाढ़ प्रीति थी । एक बार वे एक ऐसी मुद्रा लाये, जिसके एक ओर राम, लक्ष्मण और सीता तथा दूसरी ओर करबबदृ मुद्रा में मारुपति का चित्र अंकित था । उन्होंने यह मुद्रा बाबा को इस अभिप्राय से भेंट की कि वे इसे अपने कर स्पर्श से पवित्र कर उदी सहित लौटा दे । परन्तु उन्होंने उसे तुरन्त अपनी जेब में रख लिया । शामा ने वामनराव की इच्छा बताकर उनसे मुद्रा वापस करने का अनुरोध किया । तब वे वामनराव के सामने ही कहने लगे कि यह भला उनको क्यों लौटाई जाये । इसे तो हमें अपने पास ही रखना चाहिये । यदि वे इसके बदले में पच्चीस रुपया देना स्वीकार करें तो मैं इसे लौटा दूँगा । वह मुद्रा वापस पाने के हेतु श्री. वामनराव ने पच्चीस रुपयेएकत्रित कर उन्हें भेंट किये । तब बाबा कहने लगे किइस मुद्रा का मूल्य तो पच्चीस रुपयों से कहीं अधिक है । शामा तुम इसे अपने भंजार में जमा करके अपने देवालय में प्रतिष्ठित कर इसका नित्य पूजन करो । किसी का साहस न था कि वे यह पूछ तो ले कि उन्होंने ऐसी नीति क्यों अपनाई । यह तो केवल बाबा ही जाने कि किसके लिये कब और क्या उपयुक्त है ।
Oh Master(Lord), You have given me lots and lots Thanks to thee - Thanks to thee If your gracious blessing would not have been there, What would have been my condition in this world (Did I ever have a standing in this world)? Thanks to thee - Thanks to thee
मुझे है सहारा तेरी बंदगी का
यही है गुज़ारा मेरी जिंदगी का
यह बन्दा तेरे ही सहारे जिया है
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
मिला मुझको सब कुछ बदौलत तुम्हारी
मेरा कुछ नहीं सब है दौलत तुम्हारी
उसे क्या कमी जो तेरा हो लिया है
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
Your worship is my support/ help This is how I lead my life This servant is living purely by your support/help Thanks to thee - Thanks to thee I got everything - By your grace Nothing is mine - Everything is your wealth What can be lacking for one who has become yours Thanks to thee - Thanks to thee
मेरा ही नहीं तू सबी का है दाता
सभी को सभी कुछ देता दिलाता
तेरा ही दिया सबने खाया पीया है
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
किया कुछ ना मैंने शर्मसार हूँ मैं
तेरी राहतों का करजदार हूँ मैं
दिया कुछ नहीं बस लिया ही लिया है
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
You are not just my Giver - You are the Giver for everyone For everyone, your are the one who gives everything and who brings about or bestows everything It is just all yours, which we are eating and drinking (relishing and enjoying) Thanks to thee - Thanks to thee I did not do anything - I am ashamed of myself I owe you for all your grace and mercy I have never given anything - Just taken everything Thanks to thee - Thanks to thee करें आस उम्मीद फिर पूरी भी होगी
जो अब तक है रहमत वह आगे भी होगी
बुझे ना प्यार का जो दिया है
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है,
All desires and their fullfilment with fruitless aspirations, come through his grace and for such a desireless person those gracious blessing of Sai will continuously happen Thanks to thee - Thanks to thee
Once when Swami Vivekananda went to USA, a lady asked him to marry her.
When Swami asked the lady about what made her ask him such question. The lady replied that she was fascinated by his intellect. She wanted a child of such an intellect. So she asked Swami, whether he could marry her and give a child like him.
He said to that lady, that since she was attracted only by his intellect, there is no problem. "My dear lady, i understand Your desire. Marrying and bringing a child in to this world and understanding whether it is intelligent or not takes very long time. More over it is not guaranteed.
Instead, to fulfill Your desire immediately, i can suggest a guaranteed way. Take me as your child. You are my mother. Now on Your desire of having a child of my intellect is fulfilled."
ना सिर्फ यह एक जलजला था कुछ तो धरती पर भी पाप बढ़ चला था करते हो जितना प्यार अपने परिजनों से दो उतना ही मान पृथ्वी को उसके संरक्षणो से
ना जाने दो व्यर्थ एक बूंद भी वर्षा के पानी का वरना बनकर रह जाओगे हिस्सा कहानी का ना करो धरती माँ की कोख को छलनी यू ही हवा में नहीं यह जिंदगी चलनी
लगाओ पेड़, करो भूमिगत बरखा का पानी आपकी जरा सी बेरूखी भी धरती से नहीं सही जानी अब भी रोक लो प्रदुषण कर लो देश को हरा भरा वरना एक ही आवाज गूंजेगी मैं मरा मैं मरा
Chandbhai, the headman of a village called Dhoopkhede (in Aurangabad, India), once lost his horse and was looking for it. Suddenly he heard a voice say "You look tired. come here and rest a while". He turned around and saw a young Fakir . The fakir smiled at him and said "What are you looking for in this jungle, Chandbhai". Chandbhai was surprised and he wondered how the fakir knew his name. Slowly, he said "I have lost my horse. I have looked for it everywhere, but cannot seem to find it". The fakir told him to look behind a clump of trees. Chandbhai was pleasantly surprised to find his horse grazing peacefully behind those trees. He thanked the fakir and asked his name. The fakir said "some people call me Sai Baba."
Sai Baba then invited Chandbhai to have a smoke with him. He got the pipe ready, but there was no fire to light it with. Sai Baba thrust a pair of tongs into the ground and brought out a burning coal. Chandbhai was wonderstruck. He thought "this is no ordinary person" and invited Baba to come to his house and be his guest for a few days.
Next day Baba went to Chandbhai's house and found everybody in a very joyful mood and festivities going on all around. He found that Chandbhai's wife's nephew was getting married. The bride was from Shirdi and the marriage party was going to Shirdi. Chandbhai invited Baba to accompany the marriage party to Shirdi. At Shirdi they camped in a field next to Khandoba's temple.
After the wedding, Saibaba stayed on at Shirdi. At first he lived under a neem tree and begged for food whenever he needed it. He then went to Khandoba's temple, intending to stay there, but the temple priest met him at the entrance and told him to go to the mosque. That is how Baba, started staying at the Mosque which was later called Dwarkamayi.
Baba preached at Shirdi all his life and performed numerous miracles to convince people that God exists. He healed people's diseases, provided moral and material comfort to his devotees. Baba helped bring Unity and Harmony between all communities. He said that God is one, but called by different names. He said follow your own religion and seek the truth.
One day a rich millionaire named Booty came to Sai Baba and said he was going to construct a stone building for Shri Krishna. Baba helped him plan the building. Before the building was completed Baba fell very ill. On the 15th of October 1918, he breathed his last. His last wish was to be buried in Booty's building.
Booty's stone building came to be known as the Samadhi Mandir. Shri Sai Baba was buried here and a beautiful shrine was built over it. To this day, people flock to Shirdi to pay homage to Shri Sai Baba.
MIRACLES OF SAI BABA
The villagers of Shirdi and afar soon found out that this was no ordinary fakir but an avatar (incarnation) of a very high order. He demonstrated through his miracles and utterances, the purpose and intention for which he had come. He would often say, "My Leela is inscrutable". To each one he met, he imparted knowledge according to the capacity of the recipient to absorb it. Baba's Leela's (miracles) were plenty and varied, and we recount just a few which occurred during and after his lifetime.
Baba's Leelas ( Miracles )
Lighting lamps with water
Long before Sai Baba's fame spread, he was fond of burning lights in his Masjid and other Temples. But for the oil needed in those little earthenware lights that he lit, he depended on the generosity of the grocers of Shirdi. He had made it a rule to light earthenware lamps in the masjid every evening and he would call on the grocers for small donations. But there came a time when the grocers got tired of giving oil free to Sai Baba and one day they bluntly refused to oblige him, saying they had no fresh stocks. Without a word of protest Sai Baba returned to the masjid. Into those earthenware lamps he poured water and lighted the wicks. The lamps continued to burn deep into the . The matter came to the notice of the grocers who now came to Sai Baba with profuse apologies. Wouldn't Sai Baba kindly pardon them? Sai Baba pardoned them, but he warned them never to lie again. "You could have refused to give me the oil, but did you have to say that you didn't have fresh stocks?" he admonished them. But he had made his point.
Premonition of burning fields
Once, harvesting in Shirdi had been completed and the foodgrains of the entire village had been stored in a yard. The summer was on. The heat was intense as only those who have lived in Shirdi know. One afternoon Sai Baba summoned Kondaji Sutar and said to him: "Go, your field is on flrel" Frightened, Kondaji ran to his field and. frantically looked around for any sign of fire. There wasn't any. He returned to the masjid and informed Sai Baba that he had looked everywhere but had found no trace of fire and why did Baba have to frighten him? Unfazed, Baba said : "You better turn back and look again." Baba was right after all. Kondaji noticed that a sheaf of corn was indeed on fire and smoke was billowing from it. A strong wind was fanning the fire and word had gone round to the villagers who now came running to the scene. "Sai Baba," the people shouted "help us, help us put the fire out!" Thereupon, Sai Baba walked casually towards the yard, sprinkled some water on a stack of sheaves and said: " There now! The fire will die down!" And so it happened.
Stopping the rain
There is the story of one Rao Bahadur Moreshwar Fradhan who had come to Shirdi to take Sai Baba's darshan along with his wife. As the couple were about to leave, it began to rain heavily. Thunder and lightning rent the air. As the Pradhan couple looked round in dismay, Sai Baba prayed. "Oh Allah!" he intoned, "let the rains cease. My children are going home. Let them go peacefully!" The storm thereupon ceased, the downpour reduced to slight drizzle and the Pradhans were able to reach their destination safely.
Raising the water level in well
When Sai Baba first came to Shirdi it had of no basic facilities. There was a well put only in name. It had no natural spring water and if ever there had been one, it must long ago have dried up. Water had to be fetched from a distance. When, therefore, Sai Baba gave his permission to the villagers to celebrate the Ram Navami Fair, (Baba's Birthday) the big problem facing the organizers was one of water supply. So What should they do but go to Sai Baba with their problem? "'Oh yes," said Sai Baba, 'so you want plenty of water, do you? Here, take this and drop it in the well and wait and see." "'This," turned up to be a platter of flowers on which some prasad (blessed food) had been placed along with the remnants of alms Baba had received earlier in the day. The villagers had no qualms about doing as they were did. Their faith in Sai Baba was total. No sooner had that platter of leaves been dropped in the well, it is said, water rose from the bottom as if by divine command and completely filled it. And great was the rejoicing of the people.
Saving a child from drowning
One report has it that word had spread that the 3-year old daughter of a poor man called Babu Kirwandikar had fallen into the well and had been drowned. When the villagers rushed to the well they saw the child suspended in mid-air as if some invisible hand was holding her up! She was quickly pulled out. Sai Baba was fond of that child who was often heard to say : I am Baba's sister!" After this incident, the villagers took her at her word. "it is all Baba's Leela", the people would say philosophically. They could offer no other explanation.
Flow of Godavari (river) from Baba's feet
These were instances of things they had seen with their own eyes. It was not secondhand information they had gathered. Sai Baba was to them as real as their homes and their fields and their cattle and the distant hills.Das Ganu once had an unforgettable experience. On a festive occasion, he sought Baba's permission to go to a place called Singba on the banks of the Godavari to have a bath in the holy waters. "No," Baba replied resolutely, "where is the need to go all the way when the Godavari is here right at my feet?" Das Ganu was vexed. He was willing to concede that Ganga the holy river (Baba frequently referred to Godavari as Ganga) rose from the feet of Sri Narayana (one among the Hindu trinity of Gods) himself, but his faith was not deep enough to believe that the waters of the Godavari could spring form the feet of his master, Sri Sai. Baba who was reading Das Ganu's mind decided that this was the time to strengthen Das Ganu's faith. He told his devotee: "come closer to me and hold the hollow of your palms at my feet!". As soon as he did so water flowed freely out of the toes of the master's feet and filled the hollow of Das Ganu's palms in no time. His joy knew no limits. He sprinkled the water on his head and his body and distributed some more among the assembled devotees as tirtha (holy water).
Other miracles
There was that other occasion when many thought that the masjid which housed Sai Baba itself would be consumed by fire from the flames which leapt up from the dhuni. All that Baba did was to take some swipes at a wooden pillar in front of him. With every blow the flames subsided and the fire died down. "Miraculous," said his devotees. Often they would notice him stirring some hot concotion over the kitchen fire, not with a ladle but with his bare hands. There never was a time when his hand was scalded. What supernatural powers did he have? On yet another occasion, Sai Baba was partaking of food with three of his devotees in the masjid when, without any cause for provocation, he exclaimed- "Stop!" Then, as if nothing had happened, the four continued with their meal. Lunch over and the dishes cleared, they stepped out of the masjid, when large chunks of the ceiling fell on the very spot where they had been seated only a few minutes earlier. Did Sai Baba's powers extend even to inanimate matter, the devotees wondered. Instances have been quoted by his devotees as to how Sai Baba commanded the rains to stop and the winds to cease.
Understanding Sai Baba
Baba always maintained the "Dhuni" or the perpetual fire. The realisation that all the phenomenons of the nature are perishable and unworthy of our craving, is signified by "Udi" which Sal Baba distributed to all. Baba never left Shirdi. He talked to people who came to see Him. Sal Baba would often speak in symbols and parables leaving his devotees to work out the answer - such as, "A man had a beautiful horse, but no matter what he did, it would not run in harness. An expert suggested that it should be taken back to the place from where it had come. This was done and it become tracable and useful". The explanation of this story is that the horse is the Ego. As commander of the physical and mental powers of man, it is useful but self-willed and therefore cause endless trouble. Taking it back to its source is re-absorbing it in the spirit source which it arises. It is the return to the source which purifies and enlightens. From there the ego issues forth again, no longer an ego, but a conscious agent of the spirit. Baba would ask for Dakshina (money offered with respect to the Guru) from some of those who came to see Him. This was not because he needed their money. This was one of Baba's methods for testing out the devotee's attachment to worldly things and willingness to surrender his ego. Once one has surrendered himself totally to Him, Baba takes care of all His spiritual and temporal needs. Baba regarded money like everything else, in a symbolical manner. He once said, " I ask only from those who the fakir (God) points out and in exchange I give them ten times as much". By the end of the day, all the money Baba had earned was distributed to the destitute, poor, sick and the needy. Baba used to feed the fakirs and devotees and even cook for them. For those who were accustomed to meat, he cooked meat and for the others vegetarian fare.
The Dwarakamayee of Sai Baba was open to all, irrespective of caste, creed or religion. Among those who came to see him and got his darshan (establishing spiritual contact with the Guru) and blessings were ministers, government officials, business people and village folk. He was the common man's God. He Stayed with them, hejoked with them, He slept and ate with them, he smoked a chillum (pipe) with them, he sang and danced with them, having no pretensions of a God. But all of them Knew that He protected them. Even today, though He has left his gross body, they feel his presence and realise his worth all the more. Baba would also refer to the sounding of the drum of the beginning of eternity within the soul. This "anahat" sound emerged from Baba's heart from every limb, every bone and pore of his body. It was permeated with divine essence and Baba claimed that though one day his physical body will not exist, his remains will communicate with from the grave. Therefore, the most important place in Shirdi is Baba's temple - the Samadhi Mandir is his grave, which literally millions have visited and still continues to draw many more.
ELEVEN ASSURANCES OF SAI BABA
Whoever puts his feet on Shirdi soil, his sufferings would come to an end. The wretched and miserable would rise into plenty of joy and happiness, as soon as they climb the steps of my Mosque. I shall be ever active and vigorous even after leaving this earthly body. My tomb shall bless and speak the needs of my devotees. I shall be active and vigorous even from my tomb. My mortal remains would speak from my tomb. I am Ever living to help and guide all, who come to me, who surrender to me and who seek refuge in me. If you look at me I look at you. If you cast your burden on me, I shall surely bear it. If you seek my advice and help, it shall be given to you at once.
There shall be no want in the house of my devotees.
आप सभी श्री साँईं चरण प्रेमियों से अनुरोध है कि कृपया आप सभी कुछ देर के लिए मौन धारण कर, आज की विपदा के कारण नेपाल और भारत में अकारण मृत्यु को प्राप्त हो चुकी दिवंगत आत्माओं को श्रध्दांजली प्रदान कर मानवता के धर्म का पालन करे।
हम सभी बाबा जी के श्री चरणों में अरदास करते हैं कि बाबा जी उन सभी दिवंगत आत्माओं को अपने श्री चरणों में स्थान दे और उनके परिवार को इस आपदा/ असहनीय पीड़ा से उबरने की शक्ति भी प्रदान करने की कृपा करें ।
श्री साईं बाबा संध्या समय गाँव में जा कर दुकानदारों से भिक्षा में तेल मांगते और मस्जिद में दिए जलाया करते थे | सन 1892 दिवाली के दिन बाबा गाँव के दुकानदारों से तेल मांगने गए लेकिन वाणी (तेल देने वालों) ने तेल देने से मना कर दिया | सभी दुकानदारों ने आपस में यह निश्चित किया था की वह बाबा को भिक्षा में तेल न दे कर अपना महत्व दर्शाएंगे |अहंकार से भरकर उन्होंने यह भी कहा की देखते है बाबा ! आज किस प्रकार मस्जिद में दिए जलाते है ? अत: बाबा को खाली हाथ ही मस्जिद में लौटना पड़ा | कुछ समय पश्चात ही सभी दुकानदार एवं गाँव के कुछ लोग मस्जिद में गए और उन्होंने देखा :-
"बाबा के टीन में पिछले दिन का कुछ तेल था | उन्होंने मस्जिद में रखे घड़े से पानी टीन में डाला और तेल में मिला दिया | उन्होंने वह तेल - मिश्रित पानी अपने मुहं में पीया और पुन: टीन में उलट दिया | वह पानी उन्होंने मस्जिद में रखे दीयों में दाल दिया और बातीं लगा कर दियें जला दिए |
आश्चर्य ! पानी के दिए सारी रात जले | यह देख कर सभी दुकानदारों ने बाबा से क्षमा - याचना की एवं प्रतिदिन उन्हें स्वयं ही तेल देने लगे |"
For donation of Fund/ Food/ Clothes (New/ Used), for needy people specially leprosy patients' society and for the marriage of orphan girls, as they are totally depended on us.
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A/c - Title -Shirdi Ke Sai Baba Group
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IndusInd Bank Ltd, N - 10 / 11, Sec - 18, Noida - 201301,
1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा 2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर 3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा 4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस 5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो 6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए 7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका 8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा 9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर 10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया 11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य
.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....
ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe
these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation
धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"
dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God
भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।
Simply :
तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.