वास्तविक सुख
एक बार एक सेठ की राह चलते एक साधु से मुलाकात हो गई। चलते-चलते सफर को आसान बनाने के लिए दोनों सुख और अध्यात्म पर चर्चा करने लगे। सेठ ने कहा, 'मेरे पास जीवन में उपभोग के सभी साधन हैं पर सुख नहीं है।'
साधु ने मुस्कराकर पूछा, 'कैसा सुख चाहते हो।'
सेठ ने कहा, 'वास्तविक सुख। यदि कोई मुझे वह सुख प्रदान कर दे तो मैं इसकी कीमत भी दे सकता हूं।' साधु ने फिर पूछा, 'क्या कीमत दोगे? सेठ ने कहा, 'मेरे पास बहुत धन है। मैं उसका एक बड़ा हिस्सा इसके बदले में दे सकता हूं। लेकिन मुझे वास्तविक सुख चाहिए।'
साधु ने देखा कि सेठ के हाथों में एक पोटली है जिसे वह बार-बार अपने और नजदीक समेटता जाता था। अचानक साधु ने पोटली पर झपट्टा मारा और भाग खड़ा हुआ। सेठ के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। पोटली में कीमती रत्न थे। सेठ चिल्लाता हुआ साधु के पीछे लपका लेकिन हट्टे-कट्टे साधु का मुकाबला वह थुलथुल सेठ कैसे करता। कुछ देर दौड़ने के बाद वह थककर बैठ गया।
वह अपने बहुमूल्य रत्नों के ऐसे अचानक हाथ से निकल जाने से बेहद दुखी था। तभी अचानक उसके हाथों पर रत्नों की वही पोटली गिरी। सेठ ने तुरंत उसे खोलकर देखा तो सारे रत्नों को सुरक्षित पाया। उसने पोटली को हृदय से लगा लिया। तभी उसे साधु की आवाज सुनाई दी जो उसके पीछे खड़ा था। साधु ने कहा, 'सेठ, सुख मिला क्या?' सेठ ने कहा, 'हां महाराज, बहुत सुख मिला। इस पोटली के यूं अचानक चले जाने से मैं बहुत दुखी था मगर अब मुझे बहुत सुख है।'
साधु ने कहा, 'सेठ, ये रत्न तो तुम्हारे पास पहले भी थे पर तब भी तुम सुख की तलाश में थे। बस, इनके जरा दूर होने से ही तुम दुखी हो गए यानी तुम्हारा सुख इस धन से जुड़ा है। यह फिर अलग होगा तो तुम फिर दुखी हो जाओगे। यह सुख नकली है। अगर वास्तविक सुख की तलाश है तो तुम्हें उसकी वास्तविक कीमत भी देनी होगी। जो यह नकली धन नहीं है बल्कि वह है सेवा और त्याग।'