भाई साईयां जी
भाई गुरदास जी महाज्ञानी थे| आप अपनी रचना द्वारा गुरमुखों या सच्चे सिक्खों के बारे में बताते हैं कि सच्चा सिक्ख या गुरमुख वह है, जो गुरमति गुर की शिक्षा से प्यार करता है| गुरु के शब्द का विचार करता हुआ करतार के हुक्म में चलता है| विश्वास के साथ प्रभु का नाम सिमरन करता तथा उनकी रजा मानता है, वह उसी तरह परोपकारी होता है जैसे कपूर, सुगंधि, कस्तूरी आदि होती है| दूसरे को महक आती है| वह गुरमुख अपने गुणों, परोपकारों तथा सेवा से दुनिया को सुख देता है, किसी को दुःख नहीं देता| सहनशील होता है, सबसे विशेष बात यह है कि वह अपने आप अहंकार को खत्म करके गुरु या लोगों का ही हो जाता है|
गुरु घर में ऐसे अनेक गुरसिक्ख हुए हैं, जिन्होंने अहंकार को मारा तथा अपना आप न जताते हुए सेवा तथा परोपकार करने के साथ-साथ नाम का सिमरन भी करते रहे|
ऐसे विनम्र सिक्खों में एक भाई साईयां जी हुए हैं| आप नाम का सिमरन करते तथा अपना आप जाहिर न करते| रात-दिन भक्ति करते रहते| आप ने गांव से बाहर बरगद के नीचे त्रिण की झोंपड़ी बना ली| खाना-पीना भूल गया| नगरवासी अपने आप कुछ न कुछ दे जाते| इस तरह कहें कि उन्होंने रिजक की डोर भी वाहिगुरु के आसरे छोड़ दी| मोह, माया, अहंकार, लालच सब को त्याग दिया था| उसको भजन करते हुए काफी समय बीत गया|
एक समय आया देश में वर्षा न हुई| आषाढ़ सारा बीत गया| श्रावण का पहला सप्ताह आ गया पर पानी की एक बूंद न गिरी, टोए, तालाब सब सूख गए| पशु तथा पक्षी भी प्यासे मरने लगे| धरती जल गई, गर्म रोशनी मनुष्यों को तड़पाने लगी| हर एक जीव ने अपने इष्ट के आगे अरदास की, यज्ञ लगाए गए| कुंआरी लड़कियों को वृक्षों पर बिठाया गया, पर आकाश पर बादलों के दर्शन न हुए| इन्द्र देवता को दया न आई|
उस इलाके के लोग बड़े व्याकुल हुए क्योंकि वहां कुआं नहीं था| छप्पड़ों तथा तालाबों का पानी पीने के लिए था, पर पानी सूख गया| आठ-आठ कोस से पीने के लिए पानी लाने लगे| भाई साईयां के नगर वासी तथा इर्द-गिर्द के नगरों वाले इकट्ठे हो कर भाई साईयां के पास गए| सब ने मिल कर हाथ जोड़ कर गले में दामन डाल कर भाई साईयां के आगे प्रार्थना की|
'हे भगवान के भक्त! हम गरीबों, पापियों तथा निमाणे लोगों, बेजुबान पशुओं के जीवन के लिए भगवान के आगे प्रार्थना करो, वर्षा हो| कोई अन्न नहीं बोया, पशु-पक्षी तथा मनुष्य प्यासे मर रहे हैं| इतना दुःख होते हुए भी उस भगवान को हमारा कोई ख्याल नहीं| क्या पता हमने कितने पाप किए हैं| हमारे पापों का फल है कि वर्षा नहीं हो रही दया करें! कृपा करें! मासूम बच्चों पर रहम किया जाए|
भाई साईयां ने मनुष्य हृदय का रुदन सुना, उसके नैनों में भी आंसू टपक आए| उसका मन इतना भरा कि वह बोल न सका| उसने आंखें बंद की, आधा घंटा अन्तर्ध्यान हो कर अपने गुरुदेव (श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी) के चरण कंवलों में लिव जोड़ी| कोई आधे घंटे के पश्चात आंखें खोल कर कहने लगे-'भक्तों! यह पता नहीं किस के पापों का फल है जो भगवान क्रोधित है| अपने-अपने घर जाओ, परमात्मा के आगे प्रार्थना करो| यह कह कर भाई साईयां अपनी झोंपड़ी में से उठा तथा उठ कर बाहर को चला गया| लोग देखते रह गए| वह चलता गया तथा लोगों की नज़रों से ओझल हो गया| लोग खुशी-खुशी घरों को लौट आए कि अब जब वर्षा होगी, भाई साईयां अपने गुरु के पास पहुंचेगा| हम गरीबों के बदले अरदास की जाएगी| लोग घर पहुंचे तो उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर से आंधी उठी| धीरे-धीरे वह आंधी लोगों के सिर के ऊपर आ गई, उसकी हवा बहुत ठण्डी थी|
आंधी के पीछे महां काली घटा छिपी थी, आंधी आगे चली गई तथा मूसलाधार वर्षा होने लगी| एक दिन तथा एक रात वर्षा होती रही तथा चारों ओर जलथल हो गया| छप्पड़, तालाब भर गए, खेतों के किनारों के ऊपर से पानी गुजर गया| पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े तथा मनुष्य आनंदित हो कर नृत्य करने लगे| उजड़ा तथा मरा हुआ देश सजीव हो गया, जिन लोगों ने भाई साईयां जी के आगे प्रार्थना की थी या प्रार्थना करने वालों के साथ गए थे, वे सभी भाई साईयां के गुण गाने लगे, कोई कहे-भाई साईयां पूरा भगवान हो गया है| किसी ने कहा, उसका गुरु बड़ा है, सब गुरुओं की रहमतें हैं| हम कंगालों की खातिर उसने गुरु के आगे जाकर प्रार्थना की| गुरु जी ने अकाल पुरख को कहा, बस अकाल पुरुष ने दया करके इन्द्र देवता को हुक्म दिया| इन्द्र देवता दिल खोल कर बरसे| बात क्या, साईयां जी तथा उनके सतिगुरों की उपमा चारों तरफ होने लगी|'
जब वर्षा रुक गई| नगरवासी इकट्ठे हो कर भाई साईयां जी की तरफ चले| भाई जी को भेंट करने के लिए वस्त्र, चावल, गुड़ तथा नगद रुपए थालियों में रखकर हाथों में उठा लिए| जूह के बरगद के पेड़ के नीचे टपकती हुई छत्त वाली झोंपड़ी में साईयां बैठा वाहिगुरु का सिमरन कर रहा था, संगतों को आता देख कर पहले ही उठ कर दस कदम आगे हुआ| उसने दोनों हाथ ऊपर उठा कर चीख मारी, 'ठहर जाओ! क्यों आ रहे हो, क्या बात है?'
'आप गुरुदेव हो, हम आप का धन्यवाद करने आएं हैं| उजड़ा हुआ देश खुशहाल हो गया| हमने दर्शन करने हैं, चरण धूल लेनी है, लंगर चलाने है| आप के लिए पक्की कुटिया बनवानी है| आप ही हमारे परमेश्वर हो|'
इस तरह उत्तर देते हुए लोग श्रद्धा से आगे बढ़ आए| जबरदस्ती साईयां जी के चरणों पर माथा टेकने लग पड़े जो सामग्री साथ लाए थे उसके ढेर लग गए| जब सबने माथा टेक लिया तो भाई साईयां जी ऊंची-ऊंची रोने लग पड़ा, आए हुए लोग देखकर हैरान हो गए| मौत जैसा सन्नाटा छा गया| भाई साहिब रोते हुए कहने लगे, 'मेरे सिर पर भार चढ़ाया है, मैं महां पापी हूं, मेरे यहां बैठने के कारण ही वर्षा नहीं होती थी| मुझ पापी के सिर पर और पाप चढ़ाया है मुझे माथा टेक कर, मुझे गुरुदेव कहा है मैं जरूर नरकों का भागी बनूंगा मुझे क्षमा कीजिए, मैंने त्रिण की झोंपड़ी में ही रहना है| मेरा दूसरा कोई ठिकाना नहीं, यह वर्षा सतिगुरों की कृपा है| धन्य छठे पातशाह मीरी-पीरी के स्वामी सच्चे पातशाह! मैं आप से बलिहारी जाऊं, वारी जाऊं, दुःख भंजन कृपालु सतिगुरु! जिन्होंने जलती हुई मानवता को शांत किया है| मैं कहता हूं यह सारी सामग्री, सारा कपड़ा, सारे रुपए इकट्ठे करके मेरे सतिगुरु के पास अमृतसर ले जाओ| मुझे अपने पाप माफ करवाने दें!' मैंने जीवन भर त्रिण की झोंपड़ी में रहना है| मैं पहले ही पापी हूं, मेरे बुरे कर्मों के कारण वर्षा नहीं हुई| अब मुझे गुरु कह कर और नरकों का भागी न बनाओ, जाओ बुजुर्गों जाओ!
समझदार लोग भाई साईयां जी की नम्रता पर बहुत खुश हुए तथा उनकी स्तुति करने लगे, दूसरों को समझा कर पीछे मोड़ दिया| सारी सामग्री बांध कर श्री अमृतसर भेज दी, सभी जो पहले देवी-देवताओं के पुजारी थे, वे श्री गुरु नानक देव जी के पंथ में शामिल हुए| श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को नगर में बुला कर सब ने सिक्खी धारण की, गुरु जी ने भाई साईयां को कृतार्थ किया| उसका लोक-परलोक भी संवार दिया| धन्य है सतिगुरु जी तथा धन्य है नेक कमाई करने वाले सिक्ख|