राजा जनक
जनक जी एक धर्मी राजा थे| उनका राज मिथिलापुरी में था| वह एक सद्पुरुष थे| न्यायप्रिय और जीवों पर दया करते थे| उनके पास एक शिव धनुष था| वह उस धनुष की पूजा किया करते थे| आए हुए साधू-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं भोजन करते थे|
लेकिन एक दिन एक महात्मा ने राजा जनक को उलझन में डाल दिया| उस महात्मा ने राजा जनक से पूछा-हे राजन! आप ने अपना गुरु किसे धारण किया है?
यह सुन कर राजा सोच में पड़ गया| उसने सोच-विचार करके उत्तर दिया-हे महांपुरुष! मुझे याद है कि अभी तक मैंने किसी को गुरु धारण नहीं किया| मैं तो शिव धनुष की पूजा करता हूं|
यह सुनकर उस महात्मा ने राजा जनक से कहा-राजन! आप गुरु धारण करो| क्योंकि इसके बिना जीवन में कल्याण नहीं हो सकता और न ही इसके बिना भक्ति सफल हो सकती है| आप धर्मी एवं दयावान हैं|
'सत्य वचन महाराज|' राजा जनक ने उत्तर दिया और अपना गुरु धारण करने के लिए मन्त्रियों से सलाह-मशविरा किया| तब यह फैसला हुआ कि एक विशाल सभा बुलाई जाए| उस सभा में सारे ऋषि, मुनि, पंडित, वेदाचार्य बुलाए जाएं| उन सब में से ही गुरु को ढूंढा जाए|
सभा बुलाई गई| सभी देशो में सूझवान पंडित, विद्वान और वेदाचार्य आए| राजा जनक का गुरु होना एक महान उच्च पदवी थी, इसलिए सभी सोच रहे थे कि यह पदवी किसे प्राप्त हो, किसको राजा जनक का गुरु बनाया जाए| हर कोई पूर्ण तैयारी के साथ आया था| सभी विद्वान आ गए तो राजा जनक ने उठकर प्रार्थना कि 'हे विद्वान और ब्राह्मण जनो! यह तो आप सबको ज्ञात ही होगा कि यह सभा मैंने अपना गुरु धारण करने के लिए बुलाई है| परन्तु मेरी एक शर्त यह है कि मैं उसी को अपना गुरु धारण करना चाहता हूं जो मुझे घोड़े पर चढ़ते समय रकाब के ऊपर पैर रखने पर काठी पर बैठने से पूर्व ही ज्ञान कराए| इसलिए आप सब विद्वानों, वेदाचार्यों और ब्राह्मणों में से अगर किसी को भी स्वयं पर पूर्णत: विश्वास है तो वह आगे आए| आगे आ कर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो पर यदि चन्दन की चौकी पर बैठ कर मुझे ज्ञान न करा सका तो उसे दण्डमिलेगा| क्योंकि सभा में उस की सबने हंसी उड़ानी है और इससे मेरी भी हंसी उड़ेगी| इसलिए मैं सबसे प्रार्थना करता हूं कि योग्य बल बुद्धि वाला सज्जन ही आगे आए|
यह प्रार्थना करके धर्मी राजा जनक अपने आसान पर बैठ गया| सभी विद्वान और ब्राह्मण राजा जनक की अनोखी शर्त सुनकर एक दूसरे की तरफ देखने लगे| अपने-अपने मन में विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा तरीका है जो राजा जनक को इतने कम समय में ज्ञान करा सके| सब के दिलों-दिमाग में एक संग्राम शुरू हो गया| सारी सभा में सन्नाटा छा गया| राजा जनक का गुरु बनना मान्यता और आदर हासिल करना, सब सोचते और देखते रहे| चन्दन की चौकी की ओर कोई न बढ़ा| यह देखकर राजा जनक को चिंता हुई| वह सोचने लगा कि उसके राज्य में ऐसा कोई विद्वान नहीं? राजा ने खड़े हो कर सभा में उपस्थित हर एक विद्वान के चेहरे की ओर देखा| लेकिन किसी ने आंख न मिलाई| राजा जनक बड़ा निराश हुआ|
कुछ पल बाद एक ब्राह्मण उठा, उसका नाम अष्टावकर था| जब वह उस चन्दन की चौकी की ओर बढ़ने लगा तो उसकी शारीरिक संरचना देखकर सभी विद्वान और ब्राह्मण हंस पड़े| राजा भी कुछ लज्जित हुआ| उस ब्राह्मण की कमान पर दो बल थे| छाती आगे को और पेट पीछे को गया हुआ था| टांगें टेढ़ी थीं और हाथों का तो क्या कहना, एक पंजा है ही नहीं था तथा दूसरे पंजे की उंगलियां जुड़ी हुई थीं| जुबान चलती थी और आंखें तथा चेहरा भी ठीक नहीं था| वह आगे होने लगा तो मंत्री ने उसको रोका और कहा-पुन: सोच लीजिए! राजा जनक की संतुष्टि न हुई तो मृत्यु दण्ड मिलेगा| यह कोई मजाक नहीं है, यह राजा जनक की सभा है|
अष्टावकर बोला-हे मन्त्री! यह बात आपको कहने का इसलिए साहस पड़ा है क्योंकि मैं शरीर से कुरुप दिखता हूं| हो सकता है गरीब और बेसहारा हूं| आपके मन में भी यह भ्रम आया होगा कि मैं शायद लालच के कारण आगे आने लगा हूं| इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे इस भरी सभा में कोई ज्ञानी नहीं, कोई राजा का गुरु बनने की योग्यता नहीं रखता, वैसे आप भी अज्ञानी हो| आप ने अपने जैसे अज्ञानियों को ही बुलाया है| पर मैं सभी से पूछता हूं क्या ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा और दिमाग के साथ है या किसी के शरीर के साथ? जो सुन्दर शरीर वाले, तिलक धारी, ऊंची कुल और अच्छे वस्त्रों वाले बैठे हैं, वह आगे क्यों नहीं आते? सभी सोच में क्यों पड़ गए हो? मेरे शरीर की तरफ देख कर हंसते हुए शर्म नहीं आती, क्योंकि शरीर ईश्वर की रचित माया है| उसने अच्छा रचा है या बुरा| जिसको तन का अभिमान है, उसको ज्ञान अभिमान नहीं हो सकता, अष्टावकर गुस्से से बोला| उसकी बातें सुन कर सभी तिलकधारी राज ब्राह्मण शर्मिन्दा हो गए| उन सब को अपनी भूल पर पछतावा हुआ|
राजा जनक आगे बढ़ा| उसने हाथ जोड़ कर कहा, 'आओ महाराज! अगर आप को स्वयं पर विश्वास है तो ठीक है| मेरी संतुष्टि कर देना|'
अष्टावकर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसी समय राजा ने घोड़ा मंगवाया| वह घोड़ा हवा से बातें करने वाला था| उसकी लगाम बहुत पक्की थी| अष्टावकर ने घोड़े की ओर देखा| तदुपरांत राजा जनक की तरफ देख कर कहने लगा, 'हे राजन! यदि मैंने आपको ज्ञान करा दिया तो आप ने मेरा शिष्य बन जाना है|'
'यह तो पक्की बात है!' राजा जनक ने उत्तर दिया|
'जब मैं आपका गुरु बन गया और आप मेरे शिष्य तो मुझे दक्षिणा भी अवश्य मिलेगी|' अष्टावकर ने कहा|
'यह भी ठीक है महाराज! आपको दक्षिणा मिलनी चाहिए|' राजा जनक ने आगे से कहा|
'क्योकि मैंने आप को ज्ञान का उपदेश उस समय देना है, जब आपने रकाब के ऊपर पैर रखना है और फिर आपने घोड़ा दौड़ा कर दूर निकल जाना है, इसलिए मेरी दक्षिणा पहले दे दीजिए| परन्तु दक्षिणा तन, मन और धन किसी एक वस्तु की हो|' अष्टावकर बोला|
राजा जनक सोच में पड़ गया कि बात तो ठीक है| दक्षिणा तो पहले ही देनी पड़ेगी| पर दक्षिणा दूं किस वस्तु की तन की, मन की या धन की| इन तीनों का सम्बन्ध ही जीवन से है| अगर एक भी कम हो जाए तो हानि होगी, जीवन सुखी नहीं रहता| यह अनोखा ऋषि है, इसकी बातें भी अनोखी हैं| राजा सोचता रहा पर उसको कोई बात न सूझी| वह कोई भी फैसला न कर सका|
राजा जनक ने कहा, 'महाराज! मुझे राजमहल में जाने की आज्ञा दीजिए| मैं वापिस आ कर आपको बताऊंगा कि मैं किस वस्तु की दक्षिणा दे सकता हूं|'
'आप जा सकते हैं|' अष्टावकर ने आज्ञा दी|
यह सुन कर सारी सभा में सन्नाटा छा गया| सभी विद्वान सोचने लगे कि यह कुरुप ब्राह्मण अवश्य गुणी है|
राजा जनक राजमहल में चला गया और अष्टावकर चंदन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसकी पूजा होने लगी| जैसे कि गुरु धारण करने से पहले गुरु पूजा करनी पड़ती है|
राजा जनक महल में पहुंचा और रानी से कहा-जिसको मैं गुरु धारण करने लगा हूं, वह तन, मन और धन में से एक को दक्षिणा में मांगता है| बताओ मैं क्या दूं, क्योंकि आप मेरी दुःख सुख की साथी हो|
यह सुन कर रानी सोच में पड़ गई| कुछ समय सोच कर उसने कहा-'हे राजन! यदि धन दान किया तो दुःख प्राप्त होगा, गरीबी आएगी, यदि तन दान किया तो कष्ट उठाना पड़ेगा, अच्छा यही है कि आप मन को दक्षिणा में दे दीजिए| मन को देने से कोई कष्ट नहीं होगा|
'राजा जनक विचार करने लगा कि रानी ने जो सलाह दी है वह ठीक है या नहीं| पर विचार करके वह भी इसी परिणाम पर पहुंचा और सभा में आकर उसने हाथ जोड़ कर अष्टावकर को कहा-'मैं गुरु दक्षिणा में मन अर्पण करता हूं| अब मेरे मन पर आपका अधिकार हुआ|'
'चलो ठीक है| अब आप घोड़े पर चढ़ने की तैयारी करें| आपका मन मेरा है तो मेरा कहना अवश्य मानेगा|' अष्टावकर ने आज्ञा की| सभा में बैठे सब हैरान हो गए कि यह राजा जनक का गुरु बनने लगा है, कैसे कुरुप व्यक्ति के भाग्य जाग पड़े|
राजा घोड़े के ऊपर चढ़ने लगा, सभी रकाब में पैर रखा ही था कि अष्टावकर बोला, राजन! मेरे मन की इच्छा नहीं कि आप घोड़े के ऊपर चढ़ो| यह सुनकर राजा ने उसी समय रकाब से पैर उठा कर धरती पर रख लिए तथा अष्टावकर की ओर देखने लगा| घोड़े के ऊपर चढ़ने की उसकी मन की इच्छा दूर हो गई| उसी समय अष्टावकर ने दूसरी बार कहा-राजन! मेरा मन चाहता है कि आस-पास का लिबास उतार दिया जाए| राजा जनक उसी समय वस्त्र उतारने लगा तो उसको ज्ञान हुआ, मन पर काबू पाना, मन के पीछे स्वयं न लगना ही सुखों का ज्ञान है| मन भटकता रहता है| राजा जनक ने उसी समां अष्टावकर के चरणों में माथा झुका दिया और कहा, 'आप मेरे गुरु हुए|'
उसी समय खुशी के मंगलाचार होने लग पड़े| यज्ञ शुरू हो गया| बड़े-बड़े ब्राह्मणों को अष्टावकर के चरणों में लगना पड़ा|
राजा जनक के बारे में भाई गुरदास जी फरमाते हैं :-
देव लोक नो चलिआ गण गंधरब सभा सुख वासी|
जमपुर गईया पुकार सुणि विललावन जीअ नरक निवासी|
धरमराइ नों आखिओनु सभनां दी कर बंद खलासी|
करे बेनती धरमराइ हऊ सेवक ठाकुर अबिनासी|
गहिने धरिअनु एक नाऊ पापां नाल करै निरजासी|
पासंग पाप न पुजनी गुरमुख नाऊ अतुल न तुलासी|
नरकहु छुटे जीअ जंत कटी गलहु सिलक जम फासी|
मुकति जुगति नावै की दासी|