ॐ श्री साँई राम जी
बीबी बसन्त लता जी
ऐसी बहुत-सी सहनशील नारियों में से एक बीबी बसन्त लता थी, वह सतिगुरु जी के महल माता साहिब कौन जी के पास रहती और सेवा किया करती थी| नाम बाणी का सिमरन करने के साथ-साथ वह बड़ी बहादुर तथा निडर थी| उसने विवाह नहीं किया था, स्त्री धर्म को संभाल कर रखा था| उसका दिल बड़ा मजबूत और श्रद्धालु था|
बीबी बसन्त लता दिन-रात माता साहिब कौर जी की सेवा में ही जुटी रहती| सेवा करके जीवन व्यतीत करने में ही हर्ष अनुभव करती थी|
माता साहिब कौर जी के पास सेवा करते हुए बसन्त लता जी की आयु सोलह साल की हो गई| किशोर देख कर माता-पिता उसकी शादी करना चाहते थे| पर उसने इंकार कर दिया| अकाल पुरुष ने कुछ अन्य ही चमत्कार दिखाए| श्री आनंदपुर पर पहाड़ी राजाओं और मुगलों की फौजों ने चढ़ाई कर दी| लड़ाई शुरू होने पर खुशी के सारे समागम रुक गए और सभी सिक्ख तन-मन और धन से नगर की रक्षा और गुरु घर की सेवा में जुट गए|
बसन्त लता ने भी पुरुषों की तरह शस्त्र पहन लिए और माता साहिब कौर जी के महल में रहने लगी और पहरा देती| उधर सिक्ख शूरवीर रणभूमि में शत्रुओं से लड़ते शहीद होते गए| बसंत लता का पिता भी लड़ता हुआ शहीद हो गया| इस तरह लड़ाई के अन्धेरे ने सब मंगलाचार दूर किए, बसन्त लता कुंआरी की कुंआरी रही|
जैसे दिन में रात आ जाती है, तूफान शुरू हो जाता है वैसे सतिगुरु जी तथा सिक्ख संगत को श्री आनंदपुर छोड़ना पड़ा, हालात ऐसे हो गए कि और ठहरना असंभव था| पहाड़ी राजाओं तथा मुगल सेनापतियों ने धोखा किया| उन्होंने कुरान तथा गायों की कसमें खाईं मर मुकर गए| प्रभु की रज़ा ऐसे ही होनी थी|
सर्दी की रात, रात भी अन्धेरी| उस समय सतिगुरु जी ने किला खाली करने का हुक्म कर दिया| सब ने घर तथा घर का भारी सामान छोड़ा, माता साहिब कौर तथा माता सुन्दरी जी भी तैयार हुए| उनके साथ ही तैयार हुए तमाम सेवक| कोई पीछे रह कर शत्रुओं की दया पर नहीं रहना चाहता था| अपने सतिगुरु के चरणों पर न्यौछावर होते जाते| बसन्त लता भी माता साहिब कौर के साथ-साथ चलती रही| अपने वीर सिंघों की तरह शस्त्र धारण किए| चण्डी की तरह हौंसला था| वह रात के अन्धेरे में चलती गई| काफिला चलता गया| पर जब अन्धेरे में सिक्ख संगत झुण्ड के रूप में दूर निकली तो शत्रुओं ने सारे प्रण भुला दिए और उन्होंने सिक्ख संगत पर हमला कर दिया| पथ में लड़ाईयां शुरू हो गईं| लड़ते-लड़ते सिक्ख सरसा के किनारे पहुंच गए|
वाहिगुरु ने क्या खेल करना है यह किसी को क्या पता? उस के रंगों, कौतुकों और भाग्यों को केवल वह ही जानता है और कोई नहीं जान सकता| उसी सर्दी की पौष महीने की रात को अंधेरी और बादल आ गए| बादल बहुत जोर का था| आंधी ने राहियों को रास्ता भुला दिया| उधर शत्रुओं ने लड़ाई छेड़ दी सिर्फ बहुमूल्य सामान लूटने के लिए| इस भयानक समय में सतिगुरु जी के सिक्खों ने साहस न छोड़ा तथा सरसा में छलांग लगा दी, पार होने का यत्न किया| चमकती हुई बिजली, वर्षा और सरसा के भयानक बहाव का सामना करते हुए सिंघ-सिंघनियां आगे जाने लगे|
बसन्त लता ने कमरकसा किया हुआ था और एक नंगी तलवार हाथ में ले रखी थी| उस ने पूरी हिम्मत की कि माता साहिब कौर की पालकी के साथ रहे, पर तेज पानी के बहाव ने उसे विलग कर दिया, उन से बह कर विलग हो गई और अन्धेरे में पता ही न लगा किधर को जा रही थी, पीछे शत्रु लगे थे| नदी से पार हुई तो अकेली शत्रुओं के हाथ आ गई| शत्रु उस को पकड़ कर खान समुन्द खान के पास ले गए| उन्होंने बसन्त लता को नवयौवना और सौंदर्य देखकर पहले आग से शरीर को गर्मी पहुंचाई फिर उसे होश में लाया गया| शत्रुओं की नीयत साफ नहीं थी, वह उसे बुरी निगाह से देखने लगे|
समुन्द खान एक छोटे कस्बे का हाकिम था| वह बड़ा ही बदचलन था, किसी से नहीं डरता था और मनमानियां करता था| वह बसन्त लता को अपने साथ अपने किले में ले गया| बसन्त लता की सूरत ऐसी थी जो सहन नहीं होती जाती थी| उसके चेहरे पर लाली चमक रही थी|समुन्द खान को यह भी भ्रम था की शायद बसन्त लता गुरु जी के महलों में से एक थी| जैसे कि मुगल हाकिम और राजा अनेक दासियां बेगमें रखते हैं| उसने बसन्त लता को कहा -'इसका मतलब यह हुआ कि तुम पीर गोबिंद सिंघ की पत्नी नहीं|'
बसन्त लता-'नहीं! मैं एक दासी हूं, माता साहिब कौर जी की सेवा करती रही हूं|'
समुन्द खान-'इस का तात्पर्य यह हुआ कि स्वर्ग की अप्सरा अभी तक कुंआरी है, किसी पुरुष के संग नहीं लगी|'
बसन्त लता-'मैंने प्रतिज्ञा की है कुंआरी रहने और मरने की| मैंने शादी नहीं करवानी और न किसी पुरुष की सेविका बनना है| मेरे सतिगुरु मेरी सहायता करेंगे| मेरे धर्म को अट्टल रखेंगे| जीवन भर प्रतिज्ञा का पालन करूंगी|'
समुन्द खान-'ऐसी प्रतिज्ञा औरत को कभी भी नहीं करनी चाहिए| दूसरा तुम्हारा गुरु तो मारा गया| उसके पुत्र भी मारे गए| कोई शक्ति नहीं रही, तुम्हारी सहायता कौन करेगा?'
बसन्त लता-'यह झूठ है| गुरु महाराज जी नहीं मारे जा सकते| वह तो हर जगह अपने सिक्ख की सहायता करते हैं| वह तो घट-घट की जानते हैं, दुखियों की खबर लेते हैं| उन को कौन मारने वाला है| वह तो स्वयं अकाल पुरुष हैं| तुम झूठ बोलते हो, वह नहीं मरे|'
समुन्द खान-'हठ न करो| सुनो मैं तुम्हें अपनी बेगम बना कर रखूंगा, दुनिया के तमाम सुख दूंगा| तुम्हारे रूप पर मुझे रहम आता है| मेरा कहना मानो, हठ न करो, तुम्हारे जैसी सुन्दरी मुगल घरानों में ही शोभा देती है| मेरी बात मान जाओ|'
बसन्त लता-'नहीं! मैं भूखी मर जाऊंगी, मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो, जो प्रतिज्ञा की है वह नहीं तोड़ूंगी| धर्म जान से भी प्यारा है| सतिगुरु जी को क्या मुंह दिखाऊंगी, यदि मैं इस प्रतिज्ञा को तोड़ दूं?'
समुन्द खान-'अगर मेरी बात न मानी तो याद रखो तुम्हें कष्ट मिलेंगे| उल्टा लटका कर चमड़ी उधेड़ दूंगा| कोई तुम्हारा रक्षक नहीं बनेगा, तुम मर जाओगी|'
बसन्त लता-'धर्म के बदले मरने और कष्ट सहने की शिक्षा मुझे श्री आनंदपुर से मिली थी| मेरे लिए कष्ट कोई नया नहीं|'
समुन्द खान-'मैं तुम्हें बन्दीखाने में फैकूंगा| क्या समझती हो अपने आप को, अन्धेरे में भूखी रहोगी तो होश टिकाने आ जाएंगे|'
बसन्त लता-'गुरु रक्षक|'
समुन्द खान ने जब देखा कि यह हठ नहीं छोड़ती तो उसने भी अपने हठ से काम लिया| उसको बंदीखाने में बंद कर दिया| उसके अहलकार उसे रोकते रहे| किसी ने भी सलाह न दी कि बसन्त लता जैसी स्त्री को वह बन्दीखाने में न डाले| मगर वह न माना, बसन्त लता को बन्दीखाने में डाल ही दिया| परन्तु बसन्त लता का रक्षक सतिगुरु था| गुरु जी का हुक्म भी है:
राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||
बसन्त लता को बन्दीखाने में फैंक दिया गया| बन्दीखाना नरक के रूप में था, जिस में चूहे, सैलाब मच्छर इत्यादि थे| मौत जैसा अंधेरा रहता| किसी मनुष्य के माथे न लगा जाता| ऐसे बन्दीखाने में बसन्त लता को फैंक दिया गया| पर उसने कोई दुःख का ख्याल न किया|
वाह! भगवान के रंग पहली रात बसन्त लता के सिर उस बन्दीखाने में आई| दुश्मन पास न रहे| उसे अन्धेरे में अकेली बैठी हुई को अपना ख्याल भूल गया पर सतिगुरु जी वह सतिगुरु जी के परिवार का ख्याल आ गया| आनंदपुर की चहल-पहल, उदासी, त्याग तथा सरसा किनारे अन्धेरे में भयानक लड़ाई की झांकियां आंखों के आगे आईं उसका सुडौल तन कांप उठा| सिंघों का माता साहिब कौर की पालकी उठा कर दौड़ना तथा बसन्त लता का गिर पड़ना उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि वह बन्दीखाने में नहीं अपितु सरसा के किनारे है, उसके संगी साथी उससे बिछुड़ रहे हैं| वह चीखें मार उठी-'माता जी! प्यारी माता जी! मुझे यहां छोड़ चले हो, किधर जाओगे? मैं कहां आ कर मिलूं? आपके बिना जीवित नहीं रह सकती, गुरु जी के दर्शन कब होंगे? माता जी! मुझे छोड़ कर न जाओ! तरंग के बहाव में बही हुई बसन्त लता इस तरह चिल्लाती हुई भाग कर आगे होने लगी तो बन्दीखाने की भारी पथरीली दीवार से उसका माथा टकराया| उसको होश आई, वह सरसा किनारे नहीं बल्कि बंदिखाने में है, वह स्वतंत्र नहीं, कैदी है| उफ! मैं कहां हूं? उसके मुंह से निकला|
पालथी मार कर नीचे बैठ गई तथा दोनों हाथ जोड़ कर सतिगुरु जी के चरणों का ध्यान किया| अरदास विनती इस तरह करने लगी- 'हे सच्चे पातशाह! कलयुग को तारने वाले, पतित पावन, दयालु पिता! मुझ दासी को तुम्हारा ही सहारा है| तुम्हारी अनजान पुत्री ने भोलेपन में प्रण कर लिया था कि तुम्हारे चरणों में जीवन व्यतीत करूंगी| माता जी की सेवा करती रहूंगी| गुरु घर के जूठे बर्तन मांज कर संगतों के जूते साफ कर जन्म सफल करूंगी.....दाता! तुम्हारे खेल का तुम्हें ही पता है| मैं अनजान हूं कुछ नहीं जानती, क्या खेल रचा दिया| सारे बिछुड़ गए, आप भी दूर चले गए| मैं बन्दीखाने में हूं, मेरा रूप तथा जवानी मेरे दुश्मन बन रहे हैं| हे दाता! दया करो, कृपा करो, दासी की रक्षा कीजिए| दासी की पवित्रता को बचाओ| यदि मेरा धर्म चला गया तो मैं मर जाऊंगी, नरक में वास होगा| मुझे कष्ट के पंजे में से बचाओ| द्रौपदी की तरह तुम्हारा ही सहारा है, हे जगत के रक्षक दीन दयालु प्रभु!
'राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||'
विनती खत्म नहीं हुई थी कि बन्दीखाने में दीये का प्रकाश उज्ज्वल हुआ| प्रकाश देख कर उसने पीछे मुड़ कर देखा तो एक अधेड़ उम्र की स्त्री बन्दीखाने के दरवाजे में खड़ी थी|
आने वाली स्त्री ने आगे हो कर बड़े प्यार, मीठे तथा हंसी वाले लहजे में बसन्त लता को कहना शुरू किया-
पुत्री! मैं हिन्दू हूं, तुम्हारे लिए रोटी पका कर लाई हूं, नवाब के हुक्म से पकाई है| रोटी खा लो बहुत पवित्र भोजन है|'
बसन्त लता-'मुझे तो भूख नहीं|'
स्त्री-'पुत्री! पेट से दुश्मनी नहीं करनी चाहिए| यदि सिर पर मुसीबत पड़ी है तो क्या डर, भगवान दूर कर देगा| यदि दुखों का सामना करना भी पड़े तो तन्दरुस्त शरीर ही कर सकता है| रोटी तन्दरुस्त रखती है, जो भाग्य में लिखा है, सो करना तथा खान पड़ता है, तुम समझदार हो|'
बसन्त लता-'रोटी से ज्यादा मुझे बन्दीखाने में से निकाल दो तो अच्छा है, मैंने तुर्कों के हाथ का नहीं खाना, मरना स्वीकार, जाओ! तुम से भी मुझे डर लग रहा है, खतरनाक डर, मैंने कुछ नहीं खाना, मैं कहती हूं मैंने कुछ नहीं खाना|'
स्त्री-'यह मेरे वश की बात नहीं| खान के हुक्म के बिना इस किले में पत्ता भी नहीं हिल सकता| हां, खान साहिब दिल के इतने बुरे नहीं है, अच्छे हैं, जरा जवान होने के कारण रंगीले जरूर हैं| वह तुम्हारे रूप के दीवाने बने हुए हैं| मैं हिन्दू हूं, चन्द्रप्रभा मेरा नाम है| डरो मत, रोटी खा लो|'
बसन्त लता-'क्या सबूत है कि तुम हिन्दू हो?'
स्त्री-'राम राम, क्या मैं झूठ बोलती हूं| मेरा पुत्र खान साहिब के पास नौकर है| हम हिन्दू हैं| यह हिन्दुओं को बहुत प्यार करते हैं, अच्छे हैं|'
बसन्त लता-'पर मुझे तो कैद कर रखा है, यह झूठ है?'
स्त्री-'मैं क्या बताऊं, यह मन के बड़े चंचल हैं| तुम्हारे रूप पर मोहित हो गए हैं| वह इतने मदहोश हुए हैं कि उन को खाना-पीना भी भूल गया| कुछ नहीं खाते-पीते, बस तुम्हारा फिक्र है|'
बसन्त लता-'इसका मतलब है कि वह मुझे....|'
स्त्री-(बसन्त लता की बात टोक कर) नहीं, नहीं! डरने की कोई जरूरत नहीं, वह तुम्हारे साथ अन्याय नहीं करेंगे| समझाऊंगी मेरी वह मानते हैं, तुम्हारे साथ जबरदस्ती नहीं करेंगे| यदि तुम्हारी मर्जी न हो तो वह तुम्हारे शरीर को भी हाथ नहीं लगाएंगे| बहुत अच्छे हैं, यूं डर कर शरीर का रक्त मत सुखाओ|
बसन्त लता-'माई तुम्हारी बातें अच्छी नहीं, तुम जरूर....|'
स्त्री-'राम राम कहो पुत्री| तुम्हारे साथ मैंने कोई धोखा करना है, फिर तुम्हारा मेरा धर्म एक, रोटी खाओ| राम का नाम लो| जो सिर पर बनेगी सहना, मगर भूखी न मरो| भूखा मरना ठीक नहीं|'
चन्द्रप्रभा की प्रेरणा करने और सौगन्ध खाने पर बसन्त लता ने भोजन कर लिया| वह कई दिनों की भूखी थी, खाना खा कर पानी पिया और सतिगुरु महाराज का धन्यवाद किया|
वह दिन बीत गया तथा अगला दिन आया| समुन्द खान की रात बड़ी मुश्किल से निकली, दिन निकलना कठिन हो गया| वह बंदीखाने में गया तथा उसने जा कर बसन्त लता को देखा|
बसन्त लता उस समय अपने सतिगुरु जी का ध्यान लगा कर विनती कर रही थी| जब समुन्द खान ने आवाज़ दी तो वह उठ कर दीवार के साथ लग कर खड़ी हो गई तथा उसकी तरफ ऐसे देखने लगी, जिस तरह भूखी शेरनी किसी शिकार की तरफ देखती है कि शिकारी के वार करने से पहले वह उस पर ऐसा वार करे कि उसकी आंतड़ियों को बाहर खींच ले, पर वह खड़ी हो कर देखने लगी कि समुन्द खान क्या कहता है|
'बसन्त लता!' समुन्द खान बोला| 'यह ठीक है कि तेरा मेरा धर्म नहीं मिलता, मगर स्त्री-पुरुष का कुदरती धर्म तो है| तुम्हारे पास जवानी है, यह जवानी ऐसे ही व्यर्थ मत गंवा| आराम से रहो| तुम्हारे साथी नहीं रहे| उनको लश्कर ने चुन-चुन कर मार दिया है| तुम्हारा गुरू........|'
पहले तो बसन्त लता सुनती रही| मगर जब समुन्द खान के मुंह से 'गुरु' शब्द निकला तो वह शेरनी की तरह गर्ज कर बोली, 'देखना! पापी मत बनना! मेरे सतिगुरु के बारे में कोई अपशब्द मत बोलना, सतिगुरु सदा ही जागता है, वह मेरे अंग-संग है|'
मैं नहीं जानता तुम्हारे गुरु को| जो खबरें मिली हैं, वह बताती हैं कि गुरु सब खत्म..... कोई नहीं बचा| सारा इलाका सिक्खों से खाली है| मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता| तेरे रूप का दीवाना हो गया हूं| कहना मानो.....अगर अब मेरे साथ खुशी से न बोली तो समझना-मैं बलपूर्वक उठा लूंगा|
ज़ालिम दुश्मन के मुंह से ऐसे वचन सुन कर बसन्त लता भयभीत नहीं हुई| उसको अपने सतिगुरु महाराज की अपार शक्ति पर मान था| उसने कहा-'मैं लाख बार कह चुकी हूं मैं मर जाऊंगी, पर किसी पुरुष की संगत नहीं करनी| मेरा सतिगुरु मेरी रक्षा करेगा| मेरे साथ जबरदस्ती करने का जो यत्न करेगा, वह मरेगा.....मैं चण्डी हूं| मेरी पवित्रता का रक्षक भगवान है| वाहिगुरु! सतिगुरु!'
पिछले शब्द बसन्त लता ने इतने जोर से कहे कि बन्दीखाना गूंज उठा| एक नहीं कई आवाज़ें पैदा हुईं| यह आवाज़ें सुन कर भी समुन्द खान को बुद्धि न आई| वह तो पागल हो चुका था| वासना ने उसको अंधा कर दिया था|
'मैं कहता हूं, कहना मान जाओ! तेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता तुम मेरे....!' यह कह कर वह आगे बढ़ा और उसने बसन्त लता को बांहों में लेने के लिए बांहें फैलाई तो उसकी एक बांह में पीड़ा हुई| उसी समय बसन्त लता पुकार उठी-
'ज़ालिम! पीछे हट जा! वह देख, मेरे सतिगुरु जी आ गए| आ गए!' बसन्त लता को सीढ़ियों में रोशनी नजर आई| बसन्त लता के इशारे पर समुन्द खान ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस को कुछ नजर न आया| उस ने दुबारा बसन्त लता को कहा-'ऐसा लगता है कि तुम पागल हो गई हो| डरो मत, केवल फिर मेरे साथ चल, नहीं तो.....|'
'अब मैं क्यों तेरी बात मानूं? मेरे सतिगुरु जी आ गए हैं, मेरी सहायता कर रहे हैं|' बसन्त लता ने उत्तर दिया|
'देखो! महाराज देखो! यह ज़ालिम नहीं समझता, इसको सद्-बुद्धि दो, इसको पकड़ो, धन्य हो मेरे सतिगुरु! आप बन्दीखाने में दासी की पुकार सुन कर आए|'
समुन्द खान आगे बढ़ने लगा तो उसके पैर धरती से जुड़ गए, बाहें अकड़ गई, उसको इस तरह प्रतीत होने लगा जैसे वह शिला पत्थर हो रही थी| उस के कानों में कोई कह रहा था -
'इस देवी को बहन कह, अगर बचना है तो कह बहन|'
अद्भुत चमत्कार था, उधर बसन्त लता दूर हो कर नीचे पालथी मार कर दोनों हाथ जोड़ कर कहने लगी, 'सच्चे पातशाह! आप धन्य हो तथा मैं आप से बलिहारी जाती हूं| सतिनाम! वाहिगुरु हे दाता! आप ही तो अबला की लाज रखने वाले हो, दातार हो|'
समुन्द खान घबरा गया उसको इस तरह अनुभव हुआ जैसे कोई अगोचर शक्ति उसके सिर में जूते मार रही थी| उसकी आंखों के आगे मौत आ गई तथा वह डर गया| उसके मुंह से निकला, 'हे खुदा! मुझे क्षमा करें, कृपा करो! मैं कहता हूं, बहन लता-बहन बसन्त लता!'
यह कहने की देर थी कि उसके सिर पर लगने वाले जूते रुक गए| एक बाजू हिली तो उसने फिर विनती की-हे खुदा! हे सतिगुरु जी आनंदपुर वाले सतिगुरु जी कृपा करो! मैं आगे से ऐसी भूल कदापि नहीं करूंगा, बसन्त लता मेरी बहन है| बहन ही समझूंगा, जहां कहेगी भेज दूंगा| मैं कान पकड़ता हूं|' इस तरह कहते हुए जैसे ही उसने कानों की तरफ हाथ बढ़ाए तो वह बढ़ गए| उसकी बांह खुल गई तथा पैर भी हिल गए| उसका शरीर उसको हल्का-हल्का-सा महसूस होने लगा| उसने आगे बढ़ कर बसन्त लता के पैरों, पर हाथ रख दिया तथा कहा -
'बहन! मुझे माफ करो, मैं पागल हो गया था, तुम्हारा विश्वास ठीक है| तुम पाक दामन हो, मुझे क्षमा करो|'
'सतिगुरु की कृपा है, मैं कौन हूं, सतिगुरु जी ही तुम्हें क्षमा करेंगे| मैं बलिहारी जाऊं सच्चे सतिगुरु से| बसन्त लता ने उत्तर दिया तथा उठ कर खड़ी हो गई| समुन्द खान बसन्त लता को बहन बना कर बन्दीखाने में से बाहर ले आया तथा हरमों में ले जा कर बेगमों को कहने लगा-'यह मेरी बहन है|'
बसन्त लता का बड़ा आदर सत्कार हुआ, उसको देवी समझा गया| कोई दैवी शक्ति वाली पाकदामन स्त्री तथा उसको बड़ी शान से अपने किले से विदा किया, घुड़सवार साथ भेजे| वस्त्र तथा नकद रुपए दिए| उसी तरह जैसे एक भाई अपनी सगी बहन को देकर भेजता है| चंद्र प्रभा भी उसके साथ चल पड़ी तथा रास्ते में पूछते हुए 'सतिगुरु जी, किधर को गए|' वह चलते गए आखिर दीने के मुकाम पर पहुंचे जहां सतिगुरु जी रुके थे| सतिगुरु जी के महल माता सुंदरी जी तथा साहिब देवां जी भी घूमते-फिरते पहुंच गए|
बसन्त लता ने जैसे ही सतिगुरु जी के दर्शन किए तो भाग कर चरणों पर गिर पड़ी| चरणों का स्पर्श प्राप्त किया| आंखों में से श्रद्धा के आंसू गिरे| दाता से प्यार लिया|