मौलवी ने मुझे पाँच पढ़ाई
मैं एक पर ही अड़ गई
जिस आँख से पढ़ना था
वो साँई के संग लड़ गई
ना हाथों की लकीरों का
ना माथे पे लिखी तकदीरों का
ऐतबार हैं हमें खुद से भी ज्यादा
साँई जी जैसे सच्चे फकीरों का
मैं क्युं जाऊं काशी काबा
चारो धाम मेरे साँई बाबा
ना मैं गया मक्का ना मैं गया "गया"
मोक्ष मिले साँई दर से जिन माथा टेकया
ना ही कोई रूबाई याद आई
ना याद रही कोई कव्वाली
जून अगली पिछली सुधर गई
जब बना साँई दर का सवाली
सज्जनों के जब बनो सज्जन
रहो बन कर सदा बस सज्जन
साँई के संग लड़ाई जब अखियाँ
स्वंय करेंगे दूर वो दुष्ट जन