शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Friday, 29 March 2013

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15


श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15. पुरुषोत्तमयोग

अश्वत्थ वृक्ष की व्याख्या (अध्याय 15 शलोक 1 से 6)

 श्री भगवान बोले :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥

अश्वत्थ नाम वृक्ष जिसे अव्यय बताया जाता है, जिसकी जडें ऊपर हैं और शाखायें नीचे हैं, वेद छन्द जिसके पत्ते हैं, जो उसे जानता है वह वेदों का ज्ञाता है।


 

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥

उस वृक्ष की गुणों और विषयों द्वारा सिंचीं शाखाएं नीचे ऊपर हर ओर फैली हुईं हैं। उसकी जडें भी मनुष्य के कर्मों द्वारा मनुष्य को हर ओर से बाँधे नीचे उपर बढी हुईं हैं।

 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥

न इसका वास्तविक रुप दिखता है, न इस का अन्त और न ही इस का आदि और न ही इस का मूल स्थान (जहां यह स्थापित है)। इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत धृढ शाखाओं को असंग रूपी धृढ शस्त्र से काट कर।

 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥

उसके बाद परम पद की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर चले जाने के बाद मनुष्य फिर लौट कर नहीं आता। उसी आदि पुरुष की शरण में चले जाना चाहिये जिन से यह पुरातन वृक्ष रूपी संसार उत्पन्न हुआ है।

 

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥

मान और मोह से मुक्त, संग रूपी दोष पर जीत प्राप्त किये, नित्य अध्यात्म में लगे, कामनाओं को शान्त किये, सुख दुख जिसे कहा जाता है उस द्वन्द्व से मुक्त हुये, ऐसे मूर्खता हीन महात्मा जन उस परम अव्यय पद को प्राप्त करते हैं।

 

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥

न उस पद को सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्र और न ही अग्नि (वह पद इस सभी लक्षणों से परे है), जहां पहुँचने पर वे पुनः वापिस नहीं आते, वही मेरा परम धाम (स्थान) है।



जीवात्मा का वर्णन (अध्याय 15 शलोक 7 से 11)

श्री भगवान बोले :

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥

मेरा ही सनातन अंश इस जीव लोक में जीव रूप धारण कर, मन सहित छे इन्द्रियों (मन और पाँच अन्य इन्द्रियों) को, जो प्रकृति में स्थित हैं, आकर्षित करता है।

 

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥

जैसे वायु गन्ध को ग्रहण कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा इन इन्द्रियों को ग्रहण कर जिस भी शरीर को प्राप्त करता है वहां ले जाता है।

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥

शरीर में स्थित हो वह सुनने की शक्ति, आँखें, छूना, स्वाद, सूँघने की शक्ति तथा मन द्वारा इन सभी के विषयों का सेवन करता है।

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥

शरीर को त्यागते हुये, या उस में स्थित रहते हुये, गुणों को भोगते हुये, जो विमूढ (मूर्ख) हैं वे उसे (आत्मा) को नहीं देख पाते, परन्तु जिनके पास ज्ञान चक्षु (आँखें) हैं, अर्थात जो ज्ञान युक्त हैं, वे उसे देखते हैं।

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥

साधना युक्त योगी जन इसे स्वयं में अवस्थित देखते हैं (अर्थात अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं), परन्तु साधना करते हुये भी अकृत जन, जिनका चित अभी ज्ञान युक्त नहीं है, वे इसे नहीं देख पाते।

परमेश्वर के रूप का वर्णन (अध्याय 15 शलोक 12 से 15)
 
 

श्रीभगवान बोले :

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५- १२॥

जो तेज सूर्य से आकर इस संपूर्ण संसार को प्रकाशित कर देता है, और जो तेज चन्द्र औऱ अग्नि में है, उन सभी को तुम मेरा ही जानो।

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥

मैं ही सभी प्राणियों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण करता हूँ (उनका पालन पोषण करता हूँ)। मैं ही रसमय चन्द्र बनकर सभी औषधीयाँ (अनाज आदि) उत्पन्न करता हूँ।

 

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५- १४॥

मैं ही प्राणियों की देह में स्थित हो प्राण और अपान वायुओं द्वारा चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ।

 

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५- १५॥

मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझ से ही स्मृति, ज्ञान होते है। सभी वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदों का सार हुँ और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ।

 

पुरषोत्तम का विषय (अध्याय 15 शलोक 16 से 20)
 
श्रीभगवान बोले :

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५- १६॥

इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर और अक्षऱ (अर्थात जो नश्वर हैं और जो शाश्वत हैं)। इन दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन देहों में विराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है।

 

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१५- १७॥

परन्तु इन से अतिरिक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं जिन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है। वे विकार हीन अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर संपूर्ण संसार का भरण पोषण करते हैं।

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥

क्योंकि मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर (आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस लिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।

 

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५- १९॥

जो अन्धकार से परे मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह ही सब कुछ जानता है और संपूर्ण भावना से हर प्रकार मुझे भजता है, हे भारत।

 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्‌बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥

हे अनघ (पाप हीन अर्जुन), इस प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य शास्त्र को सुनाया। इसे जान लेने पर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत।

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.