शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Friday, 8 February 2013

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 08

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 08. अक्षरब्रह्मयोग
 

विषयक प्रश्नोत्तर (अध्याय 8 शलोक 1 से 7) 
अर्जुन उवाच :
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥८- १॥
हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, और कर्म क्या होता है। अधिभूत किसे कहते हैं और अधिदैव किसे कहा जाता है।

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥८- २॥
हे मधुसूदन, इस देह में जो अधियज्ञ है वह कौन है। और सदा नियमित चित्त वाले कैसे मृत्युकाल के समय उसे जान जाते हैं।

श्रीभगवानुवाच :
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८- ३॥
जिसका क्षर नहीं होता वह ब्रह्म है। जीवों के परम स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवों की जिससे उत्पत्ति होती है उसे कर्म कहा जाता है।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८- ४॥
इस देह के क्षर भाव को अधिभूत कहा जाता है, और पुरूष अर्थात आत्मा को अधिदैव कहा जाता है। इस देह में मैं अधियज्ञ हूँ - देह धारण करने वालों में सबसे श्रेष्ठ।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८- ५॥
अन्तकाल में मुझी को याद करते हुऐ जो देह से मुक्ति पाता है, वह मेरे ही भाव को प्राप्त होता है, इस में कोई संशय नहीं।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥
प्राणी जो भी स्मरन करते हुऐ अपनी देह त्यागता है, वह उसी को प्राप्त करता है, हे कौन्तेय, सदा उन्हीं भावों में रहने के कारण।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८- ७॥
इसलिये, हर समय मुझे ही याद करते हुऐ तुम युद्ध करो। अपने मन और बुद्धि को मुझे ही अर्पित करने से, तुम मुझ में ही रहोगे, इस में कोई संशय नहीं।

भक्तियोग वर्णन (अध्याय 8 शलोक 8 से 22) 

श्रीभगवानुवाच :
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८- ८॥

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८- ९॥
हे पार्थ, अभ्यास द्वारा चित्त को योग युक्त कर और अन्य किसी भी विषय का चिन्तन न करते हुऐ, उन पुरातन कवि, सब के अनुशासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके धाता, अचिन्त्य रूप, सूर्य के प्रकार प्रकाशमयी, अंधकार से परे उन ईश्वर का ही चिन्तन करते हुऐ, उस दिव्य परम-पुरुष को ही प्राप्त करोगे।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८- १०॥
इस देह को त्यागते समय, मन को योग बल से अचल कर और और भक्ति भाव से युक्त हो, भ्रुवों के मध्य में अपने प्राणों को टिका कर जो प्राण त्यागता है वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८- ११॥
जिसे वेद को जानने वाले अक्षर कहते हैं, और जिसमें साधक राग मुक्त हो जाने पर प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ती की इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्या का पालन करते हैं, तुम्हें मैं उस पद के बारे में बताता हूँ।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८- १२॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८- १३॥
अपने सभी द्वारों (अर्थात इन्द्रियों) को संयमशील कर, मन और हृदय को निरोद्ध कर (विषयों से निकाल कर), प्राणों को अपने मश्तिष्क में स्थित कर, इस प्रकार योग को धारण करते हुऐ। ॐ से अक्षर ब्रह्म को संबोधित करते हुऐ, और मेरा अनुस्मरन करते हुऐ, जो अपनी देह को त्यजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८- १४॥
अनन्य चित्त से जो मुझे सदा याद करता है, उस नित्य युक्त योगी के लिये मुझे प्राप्त करना आसान है हे पार्थ।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८- १५॥
मुझे प्राप्त कर लेने पर महात्माओं को फिर से, दुख का घर और मृत्युरूप, अगला जन्म नहीं लेना पड़ता, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८- १६॥
ब्रह्म से नीचे जितने भी लोक हैं उनमें से किसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वापिस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है), लेकिन मुझे प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, फिर दोबारा जन्म नहीं होता।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥८- १७॥
जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर ही रात्री होती है, वे लोग दिन और रात को जानते हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥८- १८॥
दिन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (दिखते हैं) होते हैं, और रात्रि के आने पर प्रलय को प्राप्त हो, जिसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥८- १९॥
हे पार्थ, इस प्रकार यह समस्त जीव दिन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं, और रात होने पर बार बार वशहीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥८- २०॥
इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्ट नहीं होता।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८- २१॥
जिसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और जिसे परम गति बताया जाता है, जिसे प्राप्त करने पर कोई फिर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥८- २२॥
हे पार्थ, उस परम पुरुष को, जिसमें यह सभी जीव स्थित हैं और जीसमें यह सब कुछ ही बसा हुआ है, तुम अनन्य भक्ति से पा सकते हो।

शुक्ल व पक्ष वर्णन (अध्याय 8 शलोक 23 से 28)
श्रीभगवानुवाच :
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥८- २३॥
हे भरतर्षभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ जिसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी लौट कर नहीं आते और जिसमें वे लौट कर आते हैं।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥८- २४॥
रौशनी में, अग्नि की ज्योति के समीप, दिन के समय, या सुर्य के उत्तर में होने वाले छः महीने (गरमी), उस में जाने वाले ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥८- २५॥
धूऐं, रात्रि, अंधकार और सूर्य के दक्षिण में होने वाले छः महीने (सर्दी), उस में योगी चन्द्र की ज्योति को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥८- २६॥
इस जगत में सफेद और काला - ये दो शाश्वत पथ माने जाते हैं। एक पर चलने वाले फिर लौट कर नहीं आते और दूसरे पर चलने वाले फिर लौट कर आते हैं।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥८- २७॥
हे पार्थ, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद फिर कभी मोहित हुआ हो। इसलिये, हे अर्जुन, तुम हर समय योग-युक्त बनो।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८- २८॥
इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल प्राप्त होते हैं उन सब से ऊपर उठकर, पुरातन परम स्थान प्राप्त कर लेता है।

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.