शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Friday 28 December 2012

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(2)

ॐ सांई राम
 
 

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(2)

संजय बोले (Sanjay Said):
 

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥२- १॥

तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन को, जिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थे, मधुसूदन ने यह वाक्य कहे॥


श्रीभगवान बोले (The Lord said):

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥२-२॥

हे अर्जुन, यह तुम किन विचारों में डूब रहे हो जो इस समय गलत हैं और स्वर्ग और कीर्ती के बाधक हैं॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२- ३॥

तुम्हारे लिये इस दुर्बलता का साथ लेना ठीक नहीं। इस नीच भाव, हृदय की दुर्बलता, का त्याग करके उठो हे परन्तप॥
अर्जुन बोले (Arjun Said):

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥२- ४॥

हे अरिसूदन, मैं किस प्रकार भीष्म, संख्य और द्रोण से युध करुँगा। वे तो मेरी पूजा के हकदार हैं॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥२- ५॥

इन महानुभाव गुरुयों की हत्या से तो भीख माँग कर जीना ही बेहतर होगा। इन को मारकर जो भोग हमें प्राप्त होंगे वे सब तो खून से रँगे होंगे॥
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥२- ६॥

हम तो यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे याँ नहीं, और यह भी नहीं की दोनो में से बेहतर क्या है, उनका जीतना या हमारा, क्योंकि जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहेंगे वही धार्तराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़ें हैं॥
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥२- ७॥

इस दुख चिंता ने मेरे स्वभाव को छीन लिया है और मेरा मन शंका से घिरकर सही धर्म को नहीं हेख पा रहा है। मैं आप से पूछता हूँ, जो मेरे लिये निष्चित प्रकार से अच्छा हो वही मुझे बताइये॥मैं आप का शिष्य हूँ और आप की ही शरण लेता हूँ॥
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥२- ८॥

मुझे नहीं दिखता कैसे इस दुखः का, जो मेरी इन्द्रीयों को सुखा रहा है, अन्त हो सकता है, भले ही मुझे इस भूमी पर अति समृद्ध और शत्रुहीन राज्य यां देवतायों का भी राज्यपद क्यों न मिल जाऐ॥
संजय बोले (Sanjay Said):

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥२- ९॥

हृषिकेश, श्री गोविन्द जी को परन्तप अर्जुन, गुडाकेश यह कह कर चुप हो गये कि मैं युध नहीं करुँगा॥
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥२- १०॥

हे भारत, दो सेनाओं के बीच में शोक और दुख से घिरे अर्जुन को प्रसन्नता से हृषीकेश ने यह बोला॥
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥२- ११॥

जिन के लिये शोक नहीं करना चाहिये उनके लिये तुम शोक कर रहे हो और बोल तुम बुद्धीमानों की तरहँ रहे हो| ज्ञानी लोग न उन के लिये शोक करते है जो चले गऐ और न उन के लिये जो हैं||
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥२- १२॥

न तुम्हारा न मेरा और न ही यह राजा जो दिख रहे हैं इनका कभी नाश होता है| और यह भी नहीं की हम भविष्य मे नहीं रहेंगे||
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥२- १३॥

आत्मा जैसे देह के बाल, युवा यां बूढे होने पर भी वैसी ही रहती है उसी प्रकार देह का अन्त होने पर भी वैसी ही रहती है| बुद्धीमान लोग इस पर व्यथित नहीं होते||
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥२- १४॥

हे कौन्तेय, सरदी गरमी सुखः दुखः यह सब तो केवल स्पर्श मात्र हैं| आते जाते रहते हैं, हमेशा नहीं रहते, इन्हें सहन करो, हे भारत||
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥२- १५॥

हे पुरुषर्षभ, वह धीर पुरुष जो इनसे व्यथित नहीं होता, जो दुख और सुख में एक सा रहता है, वह अमरता के लायक हो जाता है||
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥२- १६॥

न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता| इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं||
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥२- १७॥

तुम यह जानो कि उसका नाश नहीं किया जा सकता जिसमे यह सब कुछ स्थित है| क्योंकि जो अमर है उसका नाश करना किसी के बस में नहीं||
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥२- १८॥

यह देह तो मरणशील है, लेकिन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है| इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिऐ युद्ध करो हे भारत||
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥२- १९॥

जो इसे मारने वाला जानता है या फिर जो इसे मरा मानता है, वह दोनों ही नहीं जानते। यह न मारती है और न मरती है||
न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२- २०॥

यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है| यह तो अजन्मी, अन्तहीन, शाश्वत और अमर है। सदा से है, कब से है। शरीर के मरने पर भी इसका अन्त नहीं होता||
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२- २१॥

हे पार्थ, जो पुरुष इसे अविनाशी, अमर और जन्महीन, विकारहीन जानता है, वह किसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है||
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२- २२॥
जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है, वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर प्राप्त करती है||
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२- २३॥

न शस्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है| न पानी इसे भिगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है||
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२- २४॥

यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, भिगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती| यह हमेशा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिर है, अन्तहीन है||
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२- २५॥

यह दिखती नहीं है, न इसे समझा जा सकता है। यह बदलाव से रहित है, ऐसा कहा जाता है| इसलिये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ||
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२- २६॥

हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो, तब भी, तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ||
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२- २७॥

क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसका मरना निष्चित है। मरने वाले का जन्म भी तय है| जिसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ||
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२- २८॥

हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जाते हैं| इस में दुखी होने की क्या बात है||
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२- २९॥

कोई इसे आश्चर्य से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य से बताता है, और कोई इसके बारे में आश्चर्यचित होकर सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं जानता||
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥२- ३०॥
हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह नित्य है, उसका वध नहीं किया जा सकता| इसलिये किसी भी जीव के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये||
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥२- ३१॥

अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये युद्ध से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिये कुछ नहीं है||
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥२- ३२॥

हे पार्थ, सुखी हैं वे क्षत्रिय जिन्हें ऐसा युद्ध मिलता है जो स्वयंम ही आया हो और स्वर्ग का खुला दरवाजा हो||
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥२- ३३॥

लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश की हानि करोगे और पाप प्राप्त करोगे||
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥२- ३४॥

तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करेंगे| ऐसी अकीर्ती एक प्रतीष्ठित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ कर है||
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥२- ३५॥

महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें| जिनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में गिर जाओगे||
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥२- ३६॥

अहित की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे विपक्षी तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगें। इस से बढकर दुखदायी क्या होगा||
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥२- ३७॥

यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे। इसलिये उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो||
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२- ३८॥

सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ ही युद्ध करो। ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं मिलेगा||
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥२- ३९॥

यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया। अब तुम कर्म योग की दृष्टी से सुनो| इस बुद्धी को धारण करके तुम कर्म के बन्धन से छुटकारा पा लोगे||
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२- ४०॥

न इसमें की गई मेहनत व्यर्थ जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है| इस धर्म का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है||
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥२- ४१॥

इस धर्म का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह स्थिर रहती है| लेकिन जिनकी बुद्धी इस धर्म में नहीं है वह अन्तहीन दिशाओं में बिखरी रहती है||
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२- ४२॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२- ४३॥

हे पार्थ, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं और जिनके लिये उससे बढकर और कुछ नहीं है, जिनकी आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वर्ग जिनका मकस्द है वह ऍसे कर्म करते हैं जिनका फल दूसरा जनम है। तरह तरह के कर्मों में फसे हुऐ और भोग ऍश्वर्य की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिचते हैं||
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२- ४४॥

भोग ऍश्वर्य से जुड़े जिनकी बुद्धी हरी जा चुकी है, ऍसी बुद्धी कर्म योग मे स्थिरता ग्रहण नहीं करती||
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२- ४५॥

वेदों में तीन गुणो का व्यखान है| तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अर्जुन| द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो| सत में खुद को स्थिर करो| लाभ और रक्षा की चिंता छोड़ो और खुद में स्थित हो||
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२- ४६॥

हर जगह पानी होने पर जितना सा काम ऐक कूँऐ का होता है, उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है॥मतलब यह की उस बुद्धिमान पुरुष के लिये जो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कर्मों से कोई मतलब नहीं है||
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२- ४७॥

कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं| कर्म को फल के लिये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो||
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२- ४८॥

योग में स्थित रह कर कर्म करो, हे धनंजय, उससे बिना जुड़े हुऐ| काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो। इसी समता को योग कहते हैं||
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२- ४९॥

इस बुद्धी योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है| इस बुद्धि की शरण लो| काम को फल कि इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं||
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२- ५०॥

इस बुद्धि से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कर्म दोनो से छुटकारा पा लोगे| इसलिये योग को धारण करो। यह योग ही काम करने में असली कुशलता है||
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२- ५१॥

इस बुद्धि से युक्त होकर मुनि लोग किये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं| इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं||
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२- ५२॥

जब तुम्हारी बुद्धि अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा||
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२- ५३॥

ऐक दूसरे को काटते उपदेश और श्रुतियां सुन सुन कर जब तुम अडिग स्थिर रहोगे, तब तुम्हारी बुद्धी स्थिर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे||
अर्जुन बोले (Arjun Said):

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२- ५४॥

हे केशव, जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो चुकि है, वह कैसा होता है| ऍसा स्थिरता प्राप्त किया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, फिरता है||
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२- ५५॥

हे पार्थ, जब वह अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को निकाल देता है, और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुद्धिमता में स्थित कहा जाता है||
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२- ५६॥

जब वह दुखः से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे नहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थित हुऐ धीर मनुष्य को ही मुनि कहा जाता है||
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५७॥

किसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है||
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ५८॥

जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके विषयों से निकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थित है||
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२- ५९॥

विषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है| परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है||
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२- ६०॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६१॥

हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के मन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूर्वक छीन लिती हैं|| उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाहिये, क्योंकि जिसकी इन्द्रीयाँ वश में है वही ज्ञान में स्थित है||
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२- ६२॥

चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है| इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है||
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२- ६३॥

गुस्से से दिमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है| यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बौठता है||
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥२- ६४॥

इन्द्रीयों को राग और द्वेष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुष्य विषयों को संयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता और शान्ती प्राप्त करता है||
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥२- ६५॥

शान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकि शान्त चित मनुष्य की बुद्धि जलदि ही स्थिर हो जाती है||
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥२- ६६॥

जो संयम से युक्त नहीं है, जिसकी इन्द्रीयाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि भी स्थिर नही हो सकती और न ही उस में शान्ति की भावना हो सकती है| और जिसमे शान्ति की भावना नहीं है वह शान्त कैसे हो सकता है। जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा||

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥२- ६७॥

मन अगर विचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो वह बुद्धि को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसे एक नाव को हवा खीच ले जाती है||

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२- ६८॥

इसलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने विषयों से पूरी तरह हटी हुई हैं, सिमटी हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है||

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२- ६९॥

जो सब के लिये रात है उसमें संयमी जागता है, और जिसमे सब जागते हैं उसे मुनि रात की तरह देखता है||

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२- ७०॥

नदियाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिर रहता है, में आकर शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार जिस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं, वह शान्ती प्राप्त करता है| न कि वह जो उनके पीछे भागता है||

विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२- ७१॥

सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य स्पृह रहित रहता है, जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल विचरता है, वह शान्ती को प्राप्त करता है||

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२- ७२॥

ब्रह्म में स्थित मनुष्य ऍसा होता है, हे पार्थ। इसे प्राप्त करके वो फिर भटकता नहीं। अन्त समय भी इसी स्थिति में स्थित वह ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है||

 
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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.