शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Thursday, 19 January 2012

श्री साई सच्चरित्र Chapter 41

ॐ सांई राम

आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 41 - चित्र की कथा, चिंदियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी के पठन की कथा ।


गत अध्याय में वर्णित घटना के नौ वर्ष पश्चात् अली मुहम्मद हेमाडपंत से मिले और वह पिछली कथा निम्निखित रुप में सुनाई ।

एक दिन बम्बई में घूमते-फिरते मैंने एक दुकानदार से बाबा का चित्र खरीदा । उसे फ्रेम कराया और अपने घर (मध्य बम्बई की बस्ती में) लाकर दीवाल पर लगा दिया । मुझे बाबा से स्वाभाविक प्रेम था । इसलिये मैं प्रतिदिन उनका श्री दर्शन किया करता था । जब मैंने आपको (हेमाडपंत को) वह चित्र भेंट किया, उसके तीन माह पूर्व मेरे पैर में सूजन आने के कारण शल्यचिकित्सा भी हुई थी । मैं अपने साले नूर मुहम्मद के यहाँ पड़ा हुआ था । खुद मेरे घर पर तीन माह से ताला लगा था और उस समय वहाँ पर कोई न था । केवल प्रसिदृ बाबा अब्दुल रहमान, मौलाना साहेब, मुहम्मद हुसेन, साई बाबा ताजुद्दीन बाबा और अन्य सन्त चित्रों के रुप में वही विराजमान थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें भी वहाँ न छोड़ा । मैं वहाँ (बम्बई) बीमार पड़ा हुआ था तो फिर मेरे घर में उन लोगों (फोटो) को कष्ट क्यों हो । ऐसा समझ में आता है कि वे भी आवागमन (जन्म और मृत्यु) के चक्कर से मुक्त नहीं है । अन्य चित्रों की गति तो उनके ओभाग्यनुसार ही हुई, परन्तु केवल श्री साईबाबा का ही चित्र कैसे बच निकला, इसका रहस्योदघाटन अभी तक कोई नहीं कर सका है । इससे श्री साईबाबा की सर्वव्यापकता और उनकी असीम शक्ति का पता चलता है ।

कुछ वर्ष पूर्व मुझे मुहम्मद हुसेन थारिया टोपण से सन्त बाबा अब्दुल रहमान का चित्र प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने अपने साले नूर मुहम्मद पीरभाई को दे दिया, जो गत आठ वर्षों से उसकी मेज पर पड़ा हुआ था । एक दिन उसकी दृष्टि इस चित्र पर पड़ी, तब उसने उसे फोटोग्राफर के पास ले जाकर उसकी बड़ी फोटो बनवाई और उसकी कापियाँ अपने कई रिश्तेदारों और मित्रों में वितरित की । उनमें से एक प्रति मुझे भी मिली थी, जिसे मैंने अपने गर की दीवाल पर लगा रखा था । नूर मुहम्मद सन्त अब्दुल रहमान के शिष्य थे । जब सन्त अब्दुल रहमान साहेब का आम दरबार लगा हुआ था, तभी नूर मुहम्मद उन्हें वह फोटो भेंट करने के हेतु उनके समक्ष उपस्थित हुए । फोटो को देखते ही वे अति क्रोधित हो नूर मुहम्मद को मारने दौड़े तथा उन्हें बाहर निकाल दिया । तब उन्हें बड़ा दुःख और निराशा हुई । फिर उन्हें विचार आया कि मैंने इतना रुपया व्यर्थ ही खर्च किया, जिसका परिणाम अपने गुरु के क्रोध और अप्रसन्नता का कारण बना । उनके गुरु मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिये वे हाथ में फोटो लेकर अपोलो बन्दर पहुँचे और एक नाव किराये पर लेकर बीच समुद्र में वह फोटो विसर्जित कर आये । नूर मुहम्मद ने अपने सब मित्रों और सम्बन्धियों से भी प्रार्थना कर सब फोटो वापस बुला लिये (कुल छः फोटो थे) और एक मछुए के हाथ से बांद्रा के निकट समुद्र में विसर्जित करा दिये ।

इस समय मैं अपने साले के घर पर ही था । तब नूर मुहम्मद ने मुझसे कहा कि यदि तुम सन्तों के सब चित्रों को समुद्र में विसर्जित करा दोगे तो तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे । यह सुनकर मैंने मैनेजर मैहता को अपने घर भेजा और उसके द्घारा घर में लग हुए सब चित्रों को समुद्र में फिकवा दिया । दो माह पश्चात जब मैं अपने घर वापस लौटा तो बाबा का चित्र पूर्ववत् लगा देखकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ । मं समज न सका कि मेहता ने अन्य सब चित्र तो निकालकर विसर्जित कर दिये, पर केवल यही चित्र कैसे बच गया । तब मैंने तुरन्त ही उसे निकाल लिया और सोचने लगा कि कहीं मेरे साले की दृष्टि इस चित्र पर पड़ गई तो वह इसकी भी इति श्री कर देगा । जब मैं ऐसा विचार कर ही रहा था कि इस चित्र को कौन अच्छी तरह सँभाल कर रख सकेगा, तब स्वयं श्री साईबाबा ने सुझाया कि मौलाना इस्मू मुजावर के पास जाकर उनसे परामर्श करो और उनकी इच्छानुसार ही कार्य करो । मैंने मौलाना साहेब से भेंट की और सब बाते उन्हें बतलाई । कुछ देर विचार करने के पस्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इस चित्र को आपको (हेमाडपंत) ही भेंट करना उचित है, क्योकि केवल आप ही इसे उत्तम प्रकार से सँभालने के लिये सर्वथा सत्पात्र है । तब हम दोनों आप के घर आये और उपयुक्त समय पर ही यतह चित्र आपको भेंट कर दिया । इस कथा से विदित होता है कि बाबा त्रिकालज्ञानी थे और कितनी कुशलता से समस्या हल कर भक्तों की इच्छायें पूर्ण किया करते थे । निम्नलिखित कथा इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक जिज्ञासुओं पर बाबा किस प्रकार स्नेह रखते तथा किस प्रकार उनके कष्ट निवारण कर उन्हें सुख पहुँचाते थे ।

चिन्दियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी का पठन
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श्री. बी. व्ही. देव, जो उस समय डहाणू के मामलेदार थे, को दीर्घकाल से अन्य धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ ज्ञानेश्वरी के पठन की तीव्र इच्छा थी । (ज्ञानेश्वरी भगवदगीता पर श्री ज्ञानेश्वर महाराज द्घारा रचित मराठी टीका है ।) वे भगवदगीता के एक अध्याय का नित्य पाठ करते तथा थोड़े बहुत अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे । परन्तु जब भी वे ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो उनके समक्ष अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जाती, जिससे वे पाठ करने से सर्वथा वंचित रह जाया करते थे । तीन मास की छुट्टी लेकर वे शिरडी पधारे और तत्पश्चात वे अपने घर पौड में विश्राम करने के लिये भी गये । अन्य ग्रन्थ तो वे पढ़ा ही करते थे, परन्तु जब ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो नाना प्रकार के कलुषित विचार उन्हें इस प्रकार घेर लेते कि लाचार होकर उसका पठन स्थगित करना पड़ता था । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उनको केवल दो चार ओवियाँ पढ़ना भी दुष्कर हो गया, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि जब दयानिधि श्री साई ही कृपा करके इस ग्रन्थ के पठन की आज्ञा देंगे, तभी उसकी श्रीगणेश करुँगा । सन् 1914 के फरवरी मास में वे सहकुटुम्ब शिरडी पधारे । तभी श्री. जोग ने उनसे पूछा कि क्या आप ज्ञानेश्वरी का नित्य पठन करते है । श्री. देव ने उत्तर दिया कि मेरी इच्छा तो बहुत है, परन्तु मैं ऐसा करने में सफलता नहीं पा रहा हूँ । अब तो जब बाबा की आज्ञा होगी, तभी प्रारम्भ करुँगा । श्री, जोग ने सलाह दी कि ग्रन्थ की एक प्रति खरीद कर बाबा को भेंट करो और जब वे अपने करकमलों से स्पर्श कर उसे वापस लौटा दे, तब उसका पठन प्रारम्भ कर देना । श्री. देव ने कहा कि मैं इस प्रणाली को श्रेयस्कर नहीं समझता, क्योंकि बाबा तो अन्तर्यामी है और मेरे हृदय की इच्छा उनसे कैसे गुप्त रह सकती है । क्या वे स्पष्ट शब्दों में आज्ञा देकर मेरी मनोकामना पूर्ण न करेंगें ।
श्री. देव ने जाकर बाबा के दर्शन किये और एक रुपया दक्षिणा भेंट की । तब बाबा ने उनसे बीस रुपये दक्षिणा और माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दिया । रात्रि के समय श्री. देव ने बालकराम से भेंट की और उनसे पूछा आपने किस प्रकार बाबा की भक्ति तथा कृपा प्राप्त की है । बालकराम ने कहा मैं दूसरे दिन आरती समाप्त होने के पश्चात् आपको पूर्ण वृतान्त सुनाऊँगा । दूसरे दिन जब श्री. देवसाहब दर्शनार्थ मसजिद में आये तो बाबा ने फिर बीस रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष भेंट कर दी । मसजिद में भीड़ अधिक होने के कारण वे एक ओर एकांत में जाकर बैठ गये । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने समीप बैठा लिया । आरती समाप्त होने के पश्चात जब सब लोग अपने घर लौट गये, तब श्री. देव ने बालकराम से भेंट कर उनसे उनका पूर्व इतिहास जानने की जिज्ञासा प्रगट की तथा बाबा द्घारा प्राप्त उपदेश और ध्यानादि के संबंध में पूछताछ की । बालकराम इन सब बातों का उत्तर देने ही वाले थे कि इतने में चन्द्रू कोढ़ी ने आकर कहा कि श्री. देव को बाबा ने याद किया है । जब देव बाबा के पास पहुँचे तो उन्होंने प्रश्न किया कि वे किससे और क्या बातचीत कर रहे थे । श्री. देव ने उत्तर दिया कि वे बालकराम से उनकी कीर्ति का गुणगान श्रवण कर रहे थे । तब बाबा ने उनसे पुनः 25 रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी । फिर बाबा उन्हें भीतर ले गये और अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन पर दोषारोपण करते हुए कहा कि मेरी अनुमति के बिना तुमने मेरी चिन्दियों की चोरी की है । श्री. देव ने उत्तर दिया भगवन । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है । परन्तु बाबा कहाँ मानने वाले थे । उन्होंने अच्छी तरह ढँढ़ने को कहा । उन्होंने खोज की, परन्तु कहीं कुछ भी न पाया । तब बाबा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं हैं । तुम्ही चोर हो । तुम्हारे बाल तो सफेद हो गये है और इतने वृदृ होकर भी तुम यहां चोरी करने को आये हो । इसके पश्चात् बाबा आपे से बाहर हो गये और उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गई । वे बुरी तरह से गालियाँ देने और डाँटने लगे । देव शान्तिपूर्वक सब कुछ सुनते रहे । वे मार पड़ने की भीआशंका कर रहे थे कि एक घण्टे के पश्चात् ही बाबा ने उनसे वाड़े में लौटने को कहा । वाड़े को लौटकर उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसका पूर्ण विवरण जोग और बालकराम को सुनाया । दोपहर के पश्चात बाबा ने सबके साथ देव को भी बुलाया और कहने लगे कि शायद मेरे शब्दों ने इस वृदृ को पीड़ा पहुँचाई होगी । इन्होंने चोरी की है और इसे ये स्वीकार नहीं करते है । उन्होंने देव से पुनः बारह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने एकत्र करके सहर्ष भेंट करते हुए उन्हें नमस्कार किया । तब बाबा देव से कहने लगे कि तुम आजकल क्या कर रहे हो । देव ने उत्तर दिया कि कुछ भी नहीं । तब बाबा ने कहा प्रतिदिन पोथी (ज्ञानेश्वरी) का पाठ किया करो । जाओ, वाडें में बैठकर क्रमशः नित्य पाठ करो और जो कुछ भी तुम पढ़ो, उसका अर्थ दूसरों को प्रेम और भक्तिपूर्वक समझाओ । मैं तो तुम्हें सुनहरा शेला (दुपट्टा) भेंट देना चाहता हूँ, फिर तुम दूसरों के समीप चिन्दियों की आशा से क्यों जाते हो । क्या तुम्हें यह शोभा देता है ।
पोथी पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करके देव अति प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा कि मुझे इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई है और अब मैं आनन्दपूर्वक पोथी (ज्ञानेश्वरी) पढ़ सकूँगा । उन्होंने पुनः साष्टांग नमस्कार किया और कहा कि हे प्रभु । मैं आपकी शरण हूँ । आपका अबोध शिशु हूँ । मुझे पाठ में सहायता कीजिये । अब उन्हें चिन्दियों का अर्थ स्पष्टतया विदित हो गया था । उन्होंने बालकराम से जो कुछ पूछा था, वह चिन्दी स्वरुप था । इन विषयों में बाबा को इस प्रकार का कार्य रुचिकर नहीं था । क्योंकि वे स्वंय प्रत्येक शंका का समाधान करने को सदैव तैयार रहते थे । दूसरों से निरर्थक पूछताछ करना वे अच्छा नहीं समझते थे, इसलिये उन्होंने डाँटा और क्रोधित हुए । देव ने इन शब्दों को बाबा का शुभ आर्शीवाद समझा तथा वे सन्तुष्ट होकर घर लौट गये ।
यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती । अनुमति देने के पश्चात् भी बाबा शान्त नहीं बैठे तथा एक वर्ष के पश्चात ही वे श्री. देव के समीप गये और उनसे प्रगति के विषय में पूछताछ की । 2 अप्रैल, सन् 1914 गुरुवार को सुबह बाबा ने स्वप्न में देव से पूछा कि क्या तुम्हें पोथी समझ में आई । जब देव ने स्वीकारात्मक उत्तर न दिया तो बाबा बोले कि अब तुम कब समझोगे । देव की आँखों से टप-टप करके अश्रुपात होने लगा और वे रोते हुए बोले कि मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ कि हे भगवान् । जब तक आपकी कृपा रुपी मेघवृष्टि नहीं होती, तब तक उसका अर्थ समझना मेरे लिये सम्भव नहीं है और यह पठन तो भारस्वरुप ही है । तब वे बोले कि मेरे सामने मुझे पढ़कर सुनाओ । तुम पढ़ने में अधिक शीघ्रता किया करते हो । फिर पूछने पर उन्होंने अध्यात्म विषयक अंश पढ़ने को कहा । देव पोथी लाने गयेऔर जब उन्होंने नेत्र खोले तो उनकी निद्रा भंग हो गई थी । अब पाठक स्वयं ही इस बात का अनुमान कर लें कि देव को इस स्वप्न के पश्चात् कितना आनंद प्राप्त हुआ होगा ।

(श्री. देव अभी (सन् 1944) जीवित है और मुझे गत 4-5 वर्षों के पूर्व उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।

जहाँ तक मुझे पता चला है, वह यही है कि वे अभी भी ज्ञानेश्वरी का पाठ किया करते है । उनका ज्ञान अगाध और पूर्ण है । यह उनके साई लीला के लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है) । (ता. 19.10.1944)

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।


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Shree Sai Sachritra Chapter - 41

Story of the Picture - Stealing the Rags and Reading of Jnaneshwari.
As stated in the last chapter, we continue here the story of the picture.
Nine years after the occurrence of the incident depicted in the last chapter, Ali Mahomed saw Hemadpant and related to him the following story.
One day while wandering in the streets of Bombay he bought the picture from a street-hawker; then he framed and set it on a wall in his house at Bandra (suburb of Bombay). As he loved Baba, he daily took darshana of it. Three months before he gave the picture to Hemadpant, he was suffering from an abscess or swelling on his leg for which an operation was performed and he was convalescing in the house of his brother-in-law, Mr. Noor-Mahomed Peerbhoy in Bombay. For three months his house in Bandra was closed; and nobody was living there. Only the pictures of the famous Baba Abdul Rahiman, Moulanasaheb Mahomed Hussain, Baba Sai, Baba Tajudin and other saints (living) were there. The wheel of time did not even spare these. He was lying sick and suffering in Bombay. Why should the pictures suffer there (in Bandra)? It seems that they have also their ins and outs (births and deaths). All the pictures met their fate, but how Sai Baba's picture escaped it, nobody had been able to explain to me up till now. It shows the all-pervasiveness, omnipresence of Sai and His insrutable power.
He got a small picture of Saint Baba Abdul Rahiman from Mahomed Hussain Thariyatopan many years ago. He gave it to his brother-in-law, Noor-Mahomed Peerbhoy and it was lying on his table for eight years. Once the latter saw it, took it to a photographer and got it enlarged to life-size and distributed copies of the same amongst his relations and friends, including Ali Mahomed who fixed it up in his Bandra house. Noor-Mahomed was a disciple of Saint Abdul Rahiman and when he went to present the picture to his Guru in an open darbar held by him, the Guru got wild and ran to beat him, and drove him out. He felt very sorry and dejected. He thought that he lost so much of his money, and incurred his Guru's displeasure and anger. As his Guru did not like image-worship, he took the enlarged picture with him to the Appollo Bunder and, after hiring a boat, went in it and drowned it in the sea. He requested the friends and relations to return their copies and after getting them (6 in all) back, had them thrown by a fisherman in the Bandra sea. At this time Ali Mahomed was in his brother-in-law's house. He was told by him that his suffering would come to an end if he would soon drown the pictures of the saints in the sea. Hearing this, Ali Mahomed sent his Mehta (Manager) to his Bandra house and got all the pictures of the saints in his house thrown into the sea.
When Ali Mahomed returned home after two months, he was surprised to find Baba's picture on the wall as before. He did not understand how his Mehta took away all the pictures except this. He immediately took it out and kept it in his cupboard, fearing that if his brother-in-law saw it, he would do away with it. While he was thanking how it should be disposed of, and who would keep it and guard it well, Sai Baba Himself as it were, suggested to him that he should see and consult Moulana Ismu Mujavar and abide by his opinion. He saw the Moulana and told him everything. After mature consideration they both decided that the picture should be presented to Annasaheb (Hemadpant) and that he would protect it well. Then they both went to Hemadpant and presented the picture in the nick of time.
This story shows how Baba knew all the past, present and future, and how skillfully He pulled the wires and fulfilled desired of His devotees. The following story shows that Baba liked very much those persons who took real interest in matters spiritual and that He removed all their difficulties and made them happy.
Stealing the Rags and Reading of Jnaneshwari
Mr.B.V.Deo who was Mamlatdar of Dahanu (Thana District) wished for a long time to read Jnaneshwari - (the well-known Marathi commentary on the Bhagawad-Gita by Jnaneshwar), along with other scriptures. He could read daily one chapter of the Bhagawad-Gita, and some portion of other books; but when he took Jnaneshwari in hand, some difficulties cropped up and he was precluded from reading it. He took three months' leave, went to Shirdi and thence to his home at Pound for rest. He could read there other books but when he opened Jnaneshwari, some evil or stray thoughts came crowding in his mind and stopped him in the effort. Try however he might, he was not able to read even a few lines of the book with ease. So he resolved in his mind that when Baba would create love for the book and would order him to read it, he would begin and not till then. Then in the month of February 1914 he went with his family to Shirdi. There Jog asked him whether he daily read Jnaneshwari. Deo said that he was desirous of reading it, but he was not successful and that only when Baba would order him to read it, he would commence. Jog then advised him to take a copy of the book and present it to Baba and to start the reading after it was consecrated and returned by Him. Deo then replied that he did not want to resort to this device, as Baba knows his heart. Would He not know his desire and satisfy it by giving him a clear order to read?
Deo then saw Baba and offered one rupee as Dakshina. Baba asked for Rs. 20/- which he gave. At night, he saw one Balakram and enquired how he secured Baba's devotion and grace. Balakram told him that he would communicate everything next day after arati. When Deo went for darshana next day, Baba asked for Rs.20/- which he gave willingly. As the Masjid was crowded, Deo went aside and sat in a corner. Baba asked him to come close and sit with a calm mind, which Deo did. Then after the noon-arati was over and after the men dispersed, Deo saw again Balakram and asked him his previous history, what Baba told him and how he was taught meditation. Balakram was going to reply when Baba sent one Chandru, a leper devotee to call Deo to Him. When Deo went to Baba, the latter asked him when and with whom and what he was talking. He said that he talked with Balakram and heard from him His fame. Then Baba asked again Rs.25/- as Dakshina which Deo gladly gave. Then Baba took him inside and sitting near the post charged him saying - "You stole away My rags without My knowledge." Deo denied all knowledge of the rags, but Baba asked him to make a search. He searched but found none. Then Baba got angry and said - "There is nobody here, you are the only thief, so grey-haired and old, you came here for stealing." After this Baba lost His temper, got terribly wild, gave all sorts of abuses and scoldings. Deo remained silent and watching, and thought that he might get a beating also. After about an hour or so, Baba asked him to go to the Wada. He returned to the Wada and told Jog and Balakram all that had happened. Then in the after-noon Baba sent for all and Deo also, and said that His words might have pained the old man (Deo) but as he committed the theft, He could not but speak out. Then Baba asked again for Rs. 12/- Deo collected the amount, paid it and prostrated himself before Him. Then Baba said to him - "What are you doing?" "Nothing" replied Deo. Then Baba - "Go on daily reading the Pothi (Jnaneshwari), go and sit in the Wada, read something regularly every day and while reading, explain the portion read, to all with love and devotion. I am sitting here ready to give you the whole gold-embroidered Shella (valuable cloth), then why go to others to steal rags, and why should you get into the habit of stealing?"
Deo was much pleased to hear the words of Baba, for He asked him to start reading Pothi (Jnaneshwari). He thought that he got what he wanted and that he could read the book with ease thenceforth. He again prostrated himself before Baba and said that he surrendered himself to Him and that he should be treated as a child and be helped in his reading. He realized then what Baba meant by 'stealing the rags'. What he asked Balakram constituted the 'rags' and Baba did not like his behaviour in this respect. As He was ready to answer any question, He did not like him to ask others and make unnecessary enquiries and therefore He harassed and scolded him. Deo thought that He really did not 'harass and scold' him but taught that He was ready to fulfill his desires, and there was no use asking others in vain. Deo took these scoldings as flowers and blessings and went home satisfied and contented.
The matter did not end here. Baba did not stop with only issuing an order to read. Within a year He went to Deo and enquired about his progress. On 2nd April 1914, on Thursday morn, Baba gave him a dream-vision. He sat on the upper floor and asked him whether he understood the Pothi. "No" answered Deo. Baba - "Then when are you going to understand?" Deo burst into tears and said, "Unless You shower Your grace, the reading is mere worry and the understanding is still more difficult. I say this definitely." Baba - "While reading you make haste, read it before Me, in My presence." Deo - "What shall I read?" Baba - "Read Adhyatma (spiritualism)." Deo went to bring the book when he opened his eyes and was awakened. We leave the readers to imagine what ineffable joy and bliss Deo felt after this vision.
Bow to Shri Sai - Peace be to all

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.