ॐ सांई राम
आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र अध्याय 33
उदी की महिमा, बिच्छू का डंक, प्लेग की गाँठ, जामनेर का चमत्कार, नारायण राव, बाला बुवा सुतार, अप्पा साहेब कुलकर्णी, हरीभाऊ कर्णिक ।
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पूर्व अध्याय में गुरु की महानता का दिग्दर्शन कराया गया है । अब इस अध्याय में उदी के माहात्म्य का वर्णन किया जायेगा ।
प्रस्तावना
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आओ, पहले हम सन्तों के चरणों में प्रणाम करें, जनकी कृपादृरष्टि मात्र से ही समस्त पापसमूह भस्म होकर हमारे आचरण के दोष नष्ट हो जायेंगे । उनसे वार्तालाप करना हमारे लिये शिक्षाप्रद और अति आनन्ददायक है । वे अपने मन में यह मेरा और वह तुम्हारा ऐसा कोई भेद नहीं रखते । इस प्रकार के भेदभाव की कल्पना उनके हृदय में कभी भी उत्पन्न नहीं होती । उनका ऋण इस जन्म में तो क्या, अनेक जन्मों में भी न चुकाया जा सकेगा ।
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आओ, पहले हम सन्तों के चरणों में प्रणाम करें, जनकी कृपादृरष्टि मात्र से ही समस्त पापसमूह भस्म होकर हमारे आचरण के दोष नष्ट हो जायेंगे । उनसे वार्तालाप करना हमारे लिये शिक्षाप्रद और अति आनन्ददायक है । वे अपने मन में यह मेरा और वह तुम्हारा ऐसा कोई भेद नहीं रखते । इस प्रकार के भेदभाव की कल्पना उनके हृदय में कभी भी उत्पन्न नहीं होती । उनका ऋण इस जन्म में तो क्या, अनेक जन्मों में भी न चुकाया जा सकेगा ।
उदी (विभूति)
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यह सर्वविदित है कि बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे तथा उस धन राशि में से दाने करने के पश्चात् जो कुछ भी शेष बचता, उससे वे ईधन मोल लेकर सदैव धूनी प्रज्वलित रखते थे । इसी धूनी की भस्म ही उदी कहलाती है । भक्तों के शिरडी से प्रस्थान करते समय यह भस्म मुक्तहस्त से उन सभी को वितरित कर दी जाती थी ।
इस उदी से बाबा हमें क्या शिक्षा देते है । उदी वितरण कर बाबा हमें शिक्षा देते है कि इस अंगारे की नाईं गोचर होने वाले ब्रहमांड का प्रतिबिम्ब भस्म के ही समान है । हमारा तन भी ईधन सदृश ही है, अर्थात् पंचभूतादि से निर्मित है, जो कि सांसारिक भोगादि के उपरांत विनाश को प्राप्त होकर भस्म के रुप में परिणत हो जायेगा ।
भक्तों को इस बात की स्मृति दिलाने के हेतु ही कि अन्त में यह देह भस्म सदृश होने वाला है, बाबा उदी वितरण किया करते थे । बाबा इस उदी के द्घारा एक और भी शिक्षा प्रदान करते है कि इस संसार में ब्रहमा ही सत्य और जगत् मिथ्या है । इस संसार में वस्तुतः कोई किसी का पिता, पुत्र अथवा स्त्री नहीं हैं । हम जगत में अकेले ही आये है और अकेले ही जायेंगे । पूर्व में यह देखने में आ चुका है और अभी भी अनुभव किया जा रहा है कि इस उदी ने अनेक शारीरिक और मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य प3दान किया है । यथार्थ में बाबा तो भक्तों को दक्षिणा और उदी द्घारा सत्य और असत्य में विवेक तथा असत्य के त्याग का सिद्घान्त समझाना चाहते थे । इस उदी से वैराग्य और दक्षिणा से त्याग की शिक्षा मिलती है । इन दोनों के अभाव में इस मायारुपी भवसागर को पार करना कठिन है, इसलिये बाबा दूसरे के भोग स्वयं भोग कर दक्षिणा स्वीकार कर लिया करते थे । जब भक्तगतण बिदा लेते, तब वे प्रसाद के रुप में उदी देकर और कुछ उनके मस्तक पर लगाकर अपना वरदर-हस्त उनके मस्तक पर रखते थे । जब बाबा प्रसन्न चित्त होते, तब वे प्रेमपूर्वक गीत गाया करते थे । ऐसा ही एक भजन उदी के सम्बन्ध में भी है । भजन के बोल है, रमते राम आओ जो आओ जी, उदिया की गोनियाँ लाओजी । यह बाबा शुदृ और मधुर स्वर में गाते थे ।
यह सब तो उदी के आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में हुआ, परन्तु उसमें भौतिक प्रभाव भी ता, जिससे भक्तों को स्वास्थ्य समृद्घि, चिंतामुक्ति एवं अनेक सांसारिक लाभ प्राप्त हुए । इसलिये उदी हमें आध्यात्मिक और सांसारिक लाभ पहुँचाती है । अब हम उदी की कथाएँ प्रारम्भ करते है ।
बिच्छू का डंक
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नासिक के श्री. नारायण मोतीराम जानी बाबा के परम भक्त थे । वे बा के अन्य भक्त रामचंद्र वामन मोडक के अधीन काम करते थे । एक बार वे अपनी माता के साथ शिरडी गये तथा बाबा के दर्शन का लाभ उठाया । तब बाबा ने उनकी माँ से कहा कि अब तुम्हारे पुत्र को नौकरी छोड़कर स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहिये । कुछ दिनों में बाबा के वचन सत्य निकले । नारायण जानी ने नौकरी छोड़कर एक उपाहार गृह आनंदाश्रम चलाना प्रारम्भ कर दिया, जो अच्छी तरह चलने लगा । एक बार नारायण राव के एक मित्र को बिच्छू ने काट खाया, जिससे उसे असहनीय पीड़ा होने लगी । ऐसे प्रसंगों में उदी तो रामबाण प्रसिदृ ही है । काटने के स्थान पर केवल उसे लगा ही तो देना है । नारायण ने उदी खोजी, परन्तु कहीं न मिल सकी । उन्होंने बाबा के चित्र के समक्ष खड़े होकर उनसे सहायता की प्रार्थना की और उनका नाम लेते हुए, उनके चित्र के सम्मुख जलती हुई ऊदबत्ती में से एक चुटकी भस्म बाबा की उदी मानकर बिच्छू के डंक मारने के स्थान पर लेप कर दिया । वहाँ से उनके हाथ हटाते ही पीड़ा तुरंत मिट गई और दोनों अति प्रसन्न होकर चले गये ।
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नासिक के श्री. नारायण मोतीराम जानी बाबा के परम भक्त थे । वे बा के अन्य भक्त रामचंद्र वामन मोडक के अधीन काम करते थे । एक बार वे अपनी माता के साथ शिरडी गये तथा बाबा के दर्शन का लाभ उठाया । तब बाबा ने उनकी माँ से कहा कि अब तुम्हारे पुत्र को नौकरी छोड़कर स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहिये । कुछ दिनों में बाबा के वचन सत्य निकले । नारायण जानी ने नौकरी छोड़कर एक उपाहार गृह आनंदाश्रम चलाना प्रारम्भ कर दिया, जो अच्छी तरह चलने लगा । एक बार नारायण राव के एक मित्र को बिच्छू ने काट खाया, जिससे उसे असहनीय पीड़ा होने लगी । ऐसे प्रसंगों में उदी तो रामबाण प्रसिदृ ही है । काटने के स्थान पर केवल उसे लगा ही तो देना है । नारायण ने उदी खोजी, परन्तु कहीं न मिल सकी । उन्होंने बाबा के चित्र के समक्ष खड़े होकर उनसे सहायता की प्रार्थना की और उनका नाम लेते हुए, उनके चित्र के सम्मुख जलती हुई ऊदबत्ती में से एक चुटकी भस्म बाबा की उदी मानकर बिच्छू के डंक मारने के स्थान पर लेप कर दिया । वहाँ से उनके हाथ हटाते ही पीड़ा तुरंत मिट गई और दोनों अति प्रसन्न होकर चले गये ।
प्लेग की गाँठ
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एक समय एक भक्त बाँद्रा में था । उसे वहाँ पता चला कि उसकी लड़की, जो दूसरे स्थान पर है, प्लेगग्रस्त है और उसे गिल्टी निकल आई है । उनके पास उस समय उदी नहीं थी, इसलिये उन्होंने नाना चाँदोरकर के पास उदी भेजने के लिये सूचना भेजी । नानासाहेब ठाणे रेल्वे स्टेशन के समीप ही रास्ते में थे । जब उनके पास यह सूचना पहुँची, वे अपनी पत्नी सहित कल्याण जा रहे थे । उनके पास भी उस समय उदी नहीं थी । इसीलिये उन्होंने सड़क पर से कुच धूल उठाई और श्री साईबाबा का ध्यान कर उनसे सहायता की प्रार्थना की तथा उस धूल को अपनी पत्नी के मस्तक पर लगा दिया । वह भक्त खड़े-खड़े यह सब नाटक देख रहा था । जब वह घर लौटा तो उसे जानकर अति हर्ष हुआ कि जिस समय से नानासाहेब ने ठाणे रेल्वे स्टेशन के पास बाबा से सहायता करने की प्रार्थना की, तभी से उनकी लड़की की स्थिति में पर्याप्त सुधार हो चला था, जो गत तीन दिनों से पीड़ित थी ।
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एक समय एक भक्त बाँद्रा में था । उसे वहाँ पता चला कि उसकी लड़की, जो दूसरे स्थान पर है, प्लेगग्रस्त है और उसे गिल्टी निकल आई है । उनके पास उस समय उदी नहीं थी, इसलिये उन्होंने नाना चाँदोरकर के पास उदी भेजने के लिये सूचना भेजी । नानासाहेब ठाणे रेल्वे स्टेशन के समीप ही रास्ते में थे । जब उनके पास यह सूचना पहुँची, वे अपनी पत्नी सहित कल्याण जा रहे थे । उनके पास भी उस समय उदी नहीं थी । इसीलिये उन्होंने सड़क पर से कुच धूल उठाई और श्री साईबाबा का ध्यान कर उनसे सहायता की प्रार्थना की तथा उस धूल को अपनी पत्नी के मस्तक पर लगा दिया । वह भक्त खड़े-खड़े यह सब नाटक देख रहा था । जब वह घर लौटा तो उसे जानकर अति हर्ष हुआ कि जिस समय से नानासाहेब ने ठाणे रेल्वे स्टेशन के पास बाबा से सहायता करने की प्रार्थना की, तभी से उनकी लड़की की स्थिति में पर्याप्त सुधार हो चला था, जो गत तीन दिनों से पीड़ित थी ।
जामनेर का विलक्षण चमत्कार
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सन् 1904-05 में नानासाहेब चाँदोरकर खानदेश जिले के जामनेर में मामलतदार थे । जामनेर शिरडी से लगभग 100 मील से भी अधिक दूरी पर है । उनकी पुत्री मैनाताई गर्भावस्था में थी और प्रसव काल समीप ही था । उसकी स्थिति अति गम्भीर थी । 2-3 दिनों से उसे प्रसव-वेदना हो रही थी । नानासाहेब ने सभी संभव प्रयत्न किये, परन्तु वे सब व्यर्थ ही सिदृ हुए । तब उन्होंने बाबा का ध्यान किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की । उस समय शिरडी में एक रागीर बुवा, जिन्हें बाबा बापूगीर बुवा के नाम से पुकारते थे, अपने घर खानदेश को लौट रहे थे । बाबा ने उन्हें अपने समीप बुलाकर कहा कि तुम घर लौटते समय थोड़ी देर के लिये जामनेर में उतरकर यह उदी और आरती श्री. नानासाहेब को दे देना । रामगीर बुवा बोले कि मेरे पास केवल दो ही रुपये है, जो कठिनाई से जलगाँव तक के किराये को ही पर्याप्त होंगे । फिर ऐसी स्थिति में लगाँव से और 30 मील आगे जाना मुझे संभव होगा । बाबा ने उत्तर दिया कि चिंता की कोई बात नहीं । तुम्हारी सब व्यवस्था हो जायेगी । तब बाबा ने शामा से माधव अडकर द्घारा रचित प्रसिदृ आरती की प्रतिलिपि कराई और उदी के साथ नानासाहेब के पास भेज दी । बाबा के वचनों पर विश्वास कर रामगीर बुवा ने शिरडी से प्रस्थान कर दिया और पौने तीन बजे रात्रि को जलगाँव पहुँचे । इस समय उनके पास केवल दो आने ही शेष थे, जिससे वे बड़ी दुविधा में थे । इतने में ही एक आवाज उनके कानों में पड़ी कि शिरडी से आये हुए बापूगीर बुवा कौन है । उन्होंने आगे बढ़कर बतलाया कि मैं ही शिरडी से आ रहा हूँ और मेरा ही नाम बापूगीर बुवा है । उस चपरासी ने, जो कि अपने आपको नानासाहेब चाँदोरकर द्घारा भेजा हुआ बतला रहा था, उन्हें बाहर लाकर एक शानदार ताँगे में बिठाया, जिसमें दो सुन्दर घोटे जुते हुए थे । अब वे दोनों रवाना हो गये । ताँगा बहुत वेग से चल रहा था । प्रातःकाल वे एक नाले के समीप पहुँचे, जहाँ ताँगेवाले ने ताँगा रोककर घोड़ों को पानी पिलाया । इसी बीच चपरासी ने रामगीर बुवा से थोड़ा सा नाश्ता करने को कहा । उसकी दाढ़ी-मूछें तथा अन्य वेशभूषा से उसे मुसलमान समझकर उन्होंने जलपान करना अस्वीकार कर दिया । तब उस चपरासी ने कहा कि मैं गढ़वाल का क्षत्रिय वंशी हिन्दू हूँ । यह सब नाश्ता नानासाहेब ने आपके लिये ही भेजा है तथा इसमें आपको कोई आपत्ति और संदेह नहीं करना चाहिये । तब वे दोनों जलपान कर पुनः रवाना हुए और सूर्योदय काल में जामनेर पहुँच गये । रामगीर बुवा लघुशंका को गये और थोड़ी देर में जब वे लौटकर आये तो क्या देखते है कि वहाँ पर न तो ताँगा था, और न ताँगेवाला और न ही ताँगे के घोड़े । उनके मुख से एक शब्द भी न निकल रहा था । वे समीप ही कचहरी में पूछताछ करने गये और वहाँ उन्हें बतलाया कि इस समय मामलतदार घर पर ही है । वे नानासाहेब ेक घर गये और उन्हें बतलाया कि मैं शिरडी से बाबा की आरती और उदी लेकर आ रहा हूँ । उस समय मैनाताई की स्थिति बहुत ही गंभीर थी और सभी को उसके लिये बड़ी चिंता थी । नानासाहेब ने अपनी पत्नी को बुलाकर उदी को जल में मिलाकर अपनी लड़की को पिला देने और आरती करने को कहा । उन्होंने सोचा कि बाबा की सहायता बड़ी सामयिक है । थोड़ी देर में ही समाचार प्राप्त हुआ कि प्रसव कुशलतापूर्वक होकर समस्त पीड़ा दूर हो गई है । जब रामगीर बुवा ने नानासाहेब को चपरासी, ताँगा तथा जलपान आदि रेलवे स्टेशन पर भेजने के लिये धन्यवाद दिया तो नानासाहेब को यह सुनकर महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि मैंन न तो कोई ताँगा या चपरासी ही भेजा था और न ही मुझे शिरडी से आपके पधारने की कोई पूर्वसूचना ही थी ।
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सन् 1904-05 में नानासाहेब चाँदोरकर खानदेश जिले के जामनेर में मामलतदार थे । जामनेर शिरडी से लगभग 100 मील से भी अधिक दूरी पर है । उनकी पुत्री मैनाताई गर्भावस्था में थी और प्रसव काल समीप ही था । उसकी स्थिति अति गम्भीर थी । 2-3 दिनों से उसे प्रसव-वेदना हो रही थी । नानासाहेब ने सभी संभव प्रयत्न किये, परन्तु वे सब व्यर्थ ही सिदृ हुए । तब उन्होंने बाबा का ध्यान किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की । उस समय शिरडी में एक रागीर बुवा, जिन्हें बाबा बापूगीर बुवा के नाम से पुकारते थे, अपने घर खानदेश को लौट रहे थे । बाबा ने उन्हें अपने समीप बुलाकर कहा कि तुम घर लौटते समय थोड़ी देर के लिये जामनेर में उतरकर यह उदी और आरती श्री. नानासाहेब को दे देना । रामगीर बुवा बोले कि मेरे पास केवल दो ही रुपये है, जो कठिनाई से जलगाँव तक के किराये को ही पर्याप्त होंगे । फिर ऐसी स्थिति में लगाँव से और 30 मील आगे जाना मुझे संभव होगा । बाबा ने उत्तर दिया कि चिंता की कोई बात नहीं । तुम्हारी सब व्यवस्था हो जायेगी । तब बाबा ने शामा से माधव अडकर द्घारा रचित प्रसिदृ आरती की प्रतिलिपि कराई और उदी के साथ नानासाहेब के पास भेज दी । बाबा के वचनों पर विश्वास कर रामगीर बुवा ने शिरडी से प्रस्थान कर दिया और पौने तीन बजे रात्रि को जलगाँव पहुँचे । इस समय उनके पास केवल दो आने ही शेष थे, जिससे वे बड़ी दुविधा में थे । इतने में ही एक आवाज उनके कानों में पड़ी कि शिरडी से आये हुए बापूगीर बुवा कौन है । उन्होंने आगे बढ़कर बतलाया कि मैं ही शिरडी से आ रहा हूँ और मेरा ही नाम बापूगीर बुवा है । उस चपरासी ने, जो कि अपने आपको नानासाहेब चाँदोरकर द्घारा भेजा हुआ बतला रहा था, उन्हें बाहर लाकर एक शानदार ताँगे में बिठाया, जिसमें दो सुन्दर घोटे जुते हुए थे । अब वे दोनों रवाना हो गये । ताँगा बहुत वेग से चल रहा था । प्रातःकाल वे एक नाले के समीप पहुँचे, जहाँ ताँगेवाले ने ताँगा रोककर घोड़ों को पानी पिलाया । इसी बीच चपरासी ने रामगीर बुवा से थोड़ा सा नाश्ता करने को कहा । उसकी दाढ़ी-मूछें तथा अन्य वेशभूषा से उसे मुसलमान समझकर उन्होंने जलपान करना अस्वीकार कर दिया । तब उस चपरासी ने कहा कि मैं गढ़वाल का क्षत्रिय वंशी हिन्दू हूँ । यह सब नाश्ता नानासाहेब ने आपके लिये ही भेजा है तथा इसमें आपको कोई आपत्ति और संदेह नहीं करना चाहिये । तब वे दोनों जलपान कर पुनः रवाना हुए और सूर्योदय काल में जामनेर पहुँच गये । रामगीर बुवा लघुशंका को गये और थोड़ी देर में जब वे लौटकर आये तो क्या देखते है कि वहाँ पर न तो ताँगा था, और न ताँगेवाला और न ही ताँगे के घोड़े । उनके मुख से एक शब्द भी न निकल रहा था । वे समीप ही कचहरी में पूछताछ करने गये और वहाँ उन्हें बतलाया कि इस समय मामलतदार घर पर ही है । वे नानासाहेब ेक घर गये और उन्हें बतलाया कि मैं शिरडी से बाबा की आरती और उदी लेकर आ रहा हूँ । उस समय मैनाताई की स्थिति बहुत ही गंभीर थी और सभी को उसके लिये बड़ी चिंता थी । नानासाहेब ने अपनी पत्नी को बुलाकर उदी को जल में मिलाकर अपनी लड़की को पिला देने और आरती करने को कहा । उन्होंने सोचा कि बाबा की सहायता बड़ी सामयिक है । थोड़ी देर में ही समाचार प्राप्त हुआ कि प्रसव कुशलतापूर्वक होकर समस्त पीड़ा दूर हो गई है । जब रामगीर बुवा ने नानासाहेब को चपरासी, ताँगा तथा जलपान आदि रेलवे स्टेशन पर भेजने के लिये धन्यवाद दिया तो नानासाहेब को यह सुनकर महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि मैंन न तो कोई ताँगा या चपरासी ही भेजा था और न ही मुझे शिरडी से आपके पधारने की कोई पूर्वसूचना ही थी ।
ठाणे के सेवानिवृत श्री. बी. व्ही. देव ने नानासाहेब चाँदोरकर के पुत्र बापूसाहेब चाँदोरकर और शिरडी के रामगीर बुवा से इस सम्बन्ध में बड़ी पूछताछ की और फिर संतुष्ट होकर श्री साईलीला पत्रिका, भाग 13 (नं 11,12,13) में गघ और पघ में एक सुन्दर रचना प्रकाशित की । भाई श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी ने भी (1) मैनाताई (भाग 5, पृष्ठ 14), (2) बापूसाहेब चाँदोरकर (भाग 20, पृष्ठ 50) और (3) रामगीर बुवा (भाग 27, पृष्ठ 83) के कथन लिये है, जो कि क्रमशः 1 जून 1936, 16 सितम्बर 1936 और दिसम्बर 1936 को छपे है और यह सब उन्होंने अपनी पुस्तक भक्तों के अनुभव भाग 3 में प्रकाशित किये है । निम्नलिखि प्रसंग रामगीर बुवा ने कथनानुसार उद्घत किया जाता है ।
एक दिन मुझे बाबा ने अपने समीप बुलाकर एक उदी की पुड़िया और एक आरती की प्रतिलिपि देकर आज्ञा दी कि जामनेर जाओ और यह आरती तथा उदी नानासाहेब को दे दो । मैंने बाबा को बताया कि मेरे पास केवल दो रुपये ही है, जो कि कोपरगाँब से जलगाँव जाने और फिर वहाँ से बैलगाड़ी द्घारा जामनेर जाने के लिये अपर्याप्त है । बाबा ने कहा अल्ला देगा । शुक्रवार का दिन था । मैं शीघ्र ही रवाना हो गया । मैं मनमाड 6-30 बजे सायंकाल और जलगाँव रात्रि को 2 बजकर 45 मिनट पर पहुँचा । उस समय प्लेग निवारक आदेश जारी थे, जिससे मुझे असुविधा हुई और मैं सोच रहा था कि कैसे जामनेर पहुँचूँ । रात्रि को 3 बजे एक चपरासी आया, जो पैर में बूट पहिने था, सिर पर पगड़ी बाँधे व अन्य पोशाक भी पहने था । उसने मुझे ताँगे में बिठा लिया और ताँगा चल पड़ा । मैं उस समय भयभीत-सा हो रहा था । मार्ग में भगूर के समीप मैंने जलपान किया । जब प्रातःकाल जामनेर पहुँचा, तब उसी समय मुझे घुशंका करने की इच्छा हुई । जब मैं लौटकर आया, तब देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं है । ताँगा और ताँगेवाला अदृश्य है ।
नारायण राव
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नारायण राव को बाबा के दर्शनों का तीन बार सौभाग्य प्राप्त हुआ । सन् 1918 में बाबा के महासमाधि लेने के तीन वर्ष पश्चात् वे शिरडी जाना चाहते थे, परन्तु किसी कारणवश उनका जाना न हो सका । बाबा के समाधिस्थ होने के एक वर्ष के भीतर ही वे रुग्ण हो गये । किसी भी उपचार से उन्हें लाभ न हुआ । तब उन्होंने आठों प्रहर बाबा का ध्यान करना प्रारंभ कर दिया । एक रात को उन्हें स्वप्न हुआ । बाबा एक गुफा में से उन्हें आते हुए दिखाई पड़े और सांत्वना देकर कहने लगे कि घबराओ नहीं, तुम्हें कल से आराम हो जायेगा और एक सप्ताह में ही चलने-फिरने लगोगे । ठीक उतने ही समय में नारायणराव स्वस्थ हो गये । अब यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या बाबा देहधारी होने से जीवित कहलाते थे और क्या उन्होंने देह त्याग दी, इसलिये मृत हो गये । नहीं । बाबा अमर है, क्योंकि वे जीवन और मृत्यु से परे है । एक बार भी अनन्य भाव से जो उनकी शरण में जाता है, वह कहीं भी हो, उसे वे सहायता पहुँचाते है । वे तो सदा हमारे बाजू में ही खड़े है और चाहे जैसा रुप लेकर भक्त के समक्ष प्रकट होकर उसकी इच्छा पूर्ण कर देते है ।
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नारायण राव को बाबा के दर्शनों का तीन बार सौभाग्य प्राप्त हुआ । सन् 1918 में बाबा के महासमाधि लेने के तीन वर्ष पश्चात् वे शिरडी जाना चाहते थे, परन्तु किसी कारणवश उनका जाना न हो सका । बाबा के समाधिस्थ होने के एक वर्ष के भीतर ही वे रुग्ण हो गये । किसी भी उपचार से उन्हें लाभ न हुआ । तब उन्होंने आठों प्रहर बाबा का ध्यान करना प्रारंभ कर दिया । एक रात को उन्हें स्वप्न हुआ । बाबा एक गुफा में से उन्हें आते हुए दिखाई पड़े और सांत्वना देकर कहने लगे कि घबराओ नहीं, तुम्हें कल से आराम हो जायेगा और एक सप्ताह में ही चलने-फिरने लगोगे । ठीक उतने ही समय में नारायणराव स्वस्थ हो गये । अब यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या बाबा देहधारी होने से जीवित कहलाते थे और क्या उन्होंने देह त्याग दी, इसलिये मृत हो गये । नहीं । बाबा अमर है, क्योंकि वे जीवन और मृत्यु से परे है । एक बार भी अनन्य भाव से जो उनकी शरण में जाता है, वह कहीं भी हो, उसे वे सहायता पहुँचाते है । वे तो सदा हमारे बाजू में ही खड़े है और चाहे जैसा रुप लेकर भक्त के समक्ष प्रकट होकर उसकी इच्छा पूर्ण कर देते है ।
अप्पासाहेब कुलकर्णी
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सन् 1917 में अप्पासाहेब कुलकर्णी के शुभ दिन आये । उनका ठाणे को स्थानानंतरण हो गया । उन्होंने बालासाहेब भाटे द्घारा प्राप्त बाबा के चित्र का पूजन करना आरम्भ कर दिया । उन्होंने सच्चे हृदय से पूजा की । वे हर दिन फूल, चन्दन और नैवेघ बाबा को अर्पित करते और उनके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा रखते थे । इस सम्बन्ध में इतना तो कहा जा सकता है कि उत्सुकतापूर्वक बाबा के चित्र को देखना ही बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन के सदृश है । नीचे लिखी कथा से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।
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सन् 1917 में अप्पासाहेब कुलकर्णी के शुभ दिन आये । उनका ठाणे को स्थानानंतरण हो गया । उन्होंने बालासाहेब भाटे द्घारा प्राप्त बाबा के चित्र का पूजन करना आरम्भ कर दिया । उन्होंने सच्चे हृदय से पूजा की । वे हर दिन फूल, चन्दन और नैवेघ बाबा को अर्पित करते और उनके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा रखते थे । इस सम्बन्ध में इतना तो कहा जा सकता है कि उत्सुकतापूर्वक बाबा के चित्र को देखना ही बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन के सदृश है । नीचे लिखी कथा से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।
बाला बुवा सुतार
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बम्बई मे एक बालाबुवा नाम के संत थे, जो कि अपनी भक्ति, भजन और आचरण के कारण आधुनिक तुकाराम के नाम से विख्यात थे । सन् 1917 में वे शिरडी आये । जब उन्होंने बाबा को प्रणाम किया तो बाबा कहने लगे कि मैं तो इन्हें चार वर्षों से जानता हूँ । बालाबुवा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि मैं तो प्रथम बार ही शिरडी आया हूँ, फिर यह कैसे संभव हो सकता है । गहन चिन्तन करने पर उन्हें स्मरण हुआ कि चार वर्ष पूर्व उन्होंने बम्बई में बाबा के चित्र को नमस्कार किया था । उन्हें बाबा के शब्दों की यथार्थता का बोध हो गया और वे मन ही मन कहने लगे कि संत कितने सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी होते है तथा अपने भक्तों के प्रति उनके हृदय में कितनी दया होती है । मैंने तो केवल उनके चित्र को ही नमस्कार किया था तो भी यह घटना उनको ज्ञात हो गई । इसलिए उन्होंने मुझे इस बात का अनुभव कराया है कि उनके चित्र को देखना ही उनके दर्शन करने के सदृश है ।
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बम्बई मे एक बालाबुवा नाम के संत थे, जो कि अपनी भक्ति, भजन और आचरण के कारण आधुनिक तुकाराम के नाम से विख्यात थे । सन् 1917 में वे शिरडी आये । जब उन्होंने बाबा को प्रणाम किया तो बाबा कहने लगे कि मैं तो इन्हें चार वर्षों से जानता हूँ । बालाबुवा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि मैं तो प्रथम बार ही शिरडी आया हूँ, फिर यह कैसे संभव हो सकता है । गहन चिन्तन करने पर उन्हें स्मरण हुआ कि चार वर्ष पूर्व उन्होंने बम्बई में बाबा के चित्र को नमस्कार किया था । उन्हें बाबा के शब्दों की यथार्थता का बोध हो गया और वे मन ही मन कहने लगे कि संत कितने सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी होते है तथा अपने भक्तों के प्रति उनके हृदय में कितनी दया होती है । मैंने तो केवल उनके चित्र को ही नमस्कार किया था तो भी यह घटना उनको ज्ञात हो गई । इसलिए उन्होंने मुझे इस बात का अनुभव कराया है कि उनके चित्र को देखना ही उनके दर्शन करने के सदृश है ।
अब हम अप्पासाहेब की कथा पर आते है । जब वे ठाणे में थे तो उन्हें भिवंडी दौरे पर जाना पड़ा, जहां से उन्हें एक सप्ताह में लौटना संभव न था । उनकी अनुपस्थिति में तीसरे दिन उनके घर में निम्नलिखित विचित्र घटना हुई । दोपहर के समय अप्पासाहेब के गृह पर एक फकीर आया, जिसकी आकृति बाबा के चित्र से ही मिलती-जुलती थी । श्री मती कुलकर्णी तथा उनके बच्चों ने उनसे पूछा कि आप शिरडी के श्री साईबाबा तो नहीं है । इस पर उत्तर मिला कि वे तो साईबाबा के आज्ञाकारी सेवक है और उनकी आज्ञा से ही आप लोगों की कुशल-क्षेम पूछने यहाँ आये है । फकीर ने दक्षिणा माँगी तो श्री मती कुलकर्णी ने उन्हें एक रुपया भेंट किया । तब फकीर ने उन्हें उदी की एक पुड़िया देते हुए कहा कि इसे अपने पूजन में चित्र के साथ रखो । इतना कहकर वह वहाँ से चला गया । अब बाबा की अदभुत लीला सुनिये ।
भिवंडी में अप्पासाहेब का घोड़ा बीमार हो गया, जिससे वे दौरे पर आगे न जा सके । तब उसी शाम को वे घर लौट आये । घर आने पर उन्हें पत्नी के द्घारा फकीर के आगमन का समाचार प्राप्त हुआ । उन्हें मन में थोड़ी अशांति-सी हुई कि मैं फकीर के दर्शनों से वंचित रह गया तथा पत्नी द्घारा केवल एक रुपया दक्षिणा देना उन्हें अच्छा न लगा । वे कहने लगे कि यदि मैं उपस्थित होता तो 10 रुपये से कम कभी न देता । तब वे फिर भूखे ही फकीर की खोज में निकल पड़े । उन्होंने मसजिद एवं अन्य कई स्थानों पर खोज की, परन्तु उनकी खोज व्यर्थ ही सिदृ हुई । पाठक अध्याय 32 में कहे गये बाबा के वचनों का स्मरण करें कि भूखे पेट ईश्वर की खोज नहीं करनी चाहिये । अप्पासाहेब को शिक्षा मिल गई । वे भोजन के उपरांत जब अपने मित्र श्री. चित्रे के साथ घूमने को निकले, तब थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें सामने से एक फकीर द्रु तगति से आता हुआ दिखाई पड़ा । अप्पासाहेब ने सोचा कि यह तो वही फकीर प्रतीत होता है, जो मेरे घर पर आया था तथा उसकी आकृति भी बाबा के चित्र के अनुरुप ही है । फकीर ने तुरन्त ही हाथ बढ़ाकर दक्षिणा माँगी । अप्पासाहेब ने उन्हें एक रुपया दे दिया, तब वह और माँगने लगा । अब अप्पासाहेब ने दो रुपये दिये । तब भी उसे संतोष न हुआ । उन्होंने अपने मित्र चित्रे से 3 रुपये उधार लेकर दिये, फिर भी वह माँगता ही रहा । तब अप्पासाहेब ने उसे घर चलने को कहा । सब लोग घर पर आये और अप्प्साहेब ने उन्हें 3 रुपये और दिये अर्थात् कुल 9 रुपये, फिर भी वह असन्तुष्ट प्रतीत होता था और माँगे ही जा रहा था । तब अप्पासाहेब ने कहा कि मेरे पास तो 10 रुपये का नोट है । तब फकीर ने नोट ले लिया और 9 रुपये लौटाकर चला गया । अप्पासाहेब ने 10 रुपये देने को कहा था, इसलिये उनसे 10 रुपये ले लिये और बाबा द्घारा स्पर्शित 9 रुपये उन्हें वापस मिल गये । अंक 9 रुपये अर्थपूर्ण है तथा नवविघा भक्ति की ओर इंगित करते है (देखो अध्याय 21) । यहाँ ध्यान दें कि लक्ष्मीबाई को भी उन्होंने अंत समय में 9 रुपये ही दिये थे।
उदी की पुड़िया खोलने पर अप्पासाहेब ने देखा कि उसमें फूल के पत्ते और अक्षत है । जब वे कालान्त में शिरडी गये तो उन्हें बाबा ने अपना एक केश भी दिया । उन्होंने उदी और केश को एक ताबीज में रखा और उसे वे सदैव हाथ पर बाँधते थे । अब अप्पासाहेब को उदी की शक्ति विदित हो चुकी थी । वे कुशाग्र बुद्घि के थे । प्रथम उन्हें 40 रुपये मासिक मिलते थे, परन्तु बाबा की उदी और चित्र प्राप्त होने के पश्चात उनका वेतन कई गुना हो गया तथा उन्हें मान और यश भी मिला । इन अस्थायी आकर्षणों के अतिरिक्त उनकी आध्यात्मिक प्रगति भी शीघ्रता से होने लगी । इसलिये सौभाग्यवश जिनके पास उदी है, उन्हें स्नान करने के पश्चात मस्तक पर धारण करना चाहिये और कुछ जल में मिलाकर वह तीर्थ की नाई ग्रहण करना चाहिये ।
हरीभाऊ कर्णिक
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सन् 1917 में गुरु पूर्णमा के शुभ दिना डहाणू, जिला ठाणे के हरीभाऊ कर्णिक शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा का यथाविधि पूजन किया । उन्होंने वस्तुएं और दक्षिणा आदि भेंट कर शामा के द्घारा बाब से लौटने की आज्ञा प्राप्त की । वे मसजिद की सीढ़ियों पर से उतरे ही थे कि उन्हें विचार आया कि एक रुपया और बाबा को अर्पण करना चाहिये । वे शामा को संकेत से यह सूचना देना चाहते थे कि बाबा से जाने की आज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इसलिए मैं लौटना नहीं चाहता हूँ । परन्तु शामा का ध्यान उनकी ओर नहीं गया, इसलिए वे घर को चल पड़े । मार्ग में वे नासिक के मुख्य द्गार के भीतर बैठा करते थे, भक्तों को वहीं छोड़ कर हरीभाऊ के पास आये और उनका हाथ पकड़कर कहने लगे कि मुझे मेरा रुपया दे दो । कर्णिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सहर्ष रुपया दे दिया । उन्हें विचार आया कि मैंने बाबा को रुपया देने का मन में संकल्प किया था और बाबा ने यह रुपया नासिक के नरसिंह महाराज के द्घारा ले लिया । इस कथा से सिदृ होता है कि सब संत अभिन्न है तथा वे किसी न किसी रुप में एक साथ ही कार्य किया करते है ।
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सन् 1917 में गुरु पूर्णमा के शुभ दिना डहाणू, जिला ठाणे के हरीभाऊ कर्णिक शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा का यथाविधि पूजन किया । उन्होंने वस्तुएं और दक्षिणा आदि भेंट कर शामा के द्घारा बाब से लौटने की आज्ञा प्राप्त की । वे मसजिद की सीढ़ियों पर से उतरे ही थे कि उन्हें विचार आया कि एक रुपया और बाबा को अर्पण करना चाहिये । वे शामा को संकेत से यह सूचना देना चाहते थे कि बाबा से जाने की आज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इसलिए मैं लौटना नहीं चाहता हूँ । परन्तु शामा का ध्यान उनकी ओर नहीं गया, इसलिए वे घर को चल पड़े । मार्ग में वे नासिक के मुख्य द्गार के भीतर बैठा करते थे, भक्तों को वहीं छोड़ कर हरीभाऊ के पास आये और उनका हाथ पकड़कर कहने लगे कि मुझे मेरा रुपया दे दो । कर्णिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सहर्ष रुपया दे दिया । उन्हें विचार आया कि मैंने बाबा को रुपया देने का मन में संकल्प किया था और बाबा ने यह रुपया नासिक के नरसिंह महाराज के द्घारा ले लिया । इस कथा से सिदृ होता है कि सब संत अभिन्न है तथा वे किसी न किसी रुप में एक साथ ही कार्य किया करते है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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Shree Sai Sachritra Chapter 33
Greatness of Udi
Scorpion Sting and Plague Cases Cured - Jamner Miracle - Narayanarao's Sickness - Balabuva sutar - Appasaheb Kulkarni - Haribhau Karnik.
In the last Chapter we described the greatness of the Guru; now in this we will describe the greatness of Udi.
Preliminary
Let us bow now before the great saints. Their merciful glances will destroy mountains of sins and do away with all the evil taints of our character. Their casual talk gives us good teachings and confers on us imperishable happiness. Their minds do not know any difference such as 'This is ours and that is yours.' Such differentiation never arises in their minds. Their debts (obligations) will never be repaid by us in this birth as well as in many future births.
Udi
It is well-known that Baba took Dakshina from all, and out of the amount thus collected, He spent a lot on charity and purchased fuel with the balance left with Him. This fuel He threw in the Dhuni - the sacred fire, which he kept ever burning. The ash from this fire was called Udi and it was freely distributed to the devotees at the time of their departure from Shirdi.
What did Baba teach or hint by this Udi? Baba taught by His Udi that all the visible phenomena in the universe are as transient as the ash. Our bodies composed of wood or matter of the five elements, will fall down, after all their enjoyments are over, and be reduced to ashes. In order to remind the devotees of the fact that their bodies will be reduced to ashes, Baba distributed Udi to them. Baba also taught by the Udi that the Brahman is the only Reality and the universe is ephemeral and that no one in this world, be he a son, father or wife, is really ours. We come here (in this world) alone and we have to go out alone. It was found and is even now found out, that the Udi cured many physical and mental maladies, but Baba wanted to din into the devotee's ears the principles of discrimination between the Unreal and the Real, non-attachment for the Unreal, by His Udi and Dakshina. The former (Udi) taught us discrimination and the latter (Dakshina) taught us non-attachment. Unless we have these two things, it is not possible for us to cross over the sea of the mundane existence. So Baba asked for and took Dakshina, and while the devotees took leave, He gave Udi as Prasad, besmeared some of it on the Bhaktas' foreheads and placed His boon-conferring hand on their heads. When Baba was in a cheerful mood, He used to sing merrily. One such song was about Udi. The burden of the Udi song was this,"Oh, playful Rama, come, come, and bring with you sacks of Udi." Baba used to sing in very clear and sweet tones.
So much about the spiritual implication of Udi. It had also its material significance. It conferred health, prosperity, freedom from anxiety, and many other worldly gains. So the Udi has helped us to gain both our ends - material as well as spiritual. We shall now begin with the stories about the Udi.
Scorpion-Sting
Narayan Motiram Jani of
Bubonic Plague Case
Once a devotee in Bandra came to know that his daughter, who was staying in another place was down with bubonic plague. He had no Udi with him; so he sent word to Nanasaheb Chandorkar to send the same. Nanasaheb got this message on a road near the Thana Railway Station when he was travelling with his wife to Kalyan. He had no Udi with him at that time. He, therefore, took up some earth from the road, meditated upon Sai Baba, invoked His aid and applied it on the forehead of his wife. The devotee saw all this and when he went to his daughter's house he was very glad to learn that his daughter, who was suffering for three days, began to improve from the very moment Nanasaheb invoked Baba's aid near the Thana Railway Station.
The Jamner Miracle
About 1904-05 Nanasaheb Chandorkar was Mamlatdar at Jamner, in the Khandesh District, which is more that 100 miles distant from Shirdi. His daughter Mainatai was pregnant and was about to deliver. He case was very serious and she was suffering from labour pains for the last two or three days. Nanasaheb tried all remedies but they proved in vain; he then remembered Baba and invoked His aid. There in Shirdi, one Ramgirbuva, whom Baba called Bapugirbuva, wanted at this time to go to his native place in Khandesh. Baba called him and told him to take a little rest and stop at Jamner on his way home and give the Udi and Arati to Nanasaheb. Ramgirbuva said that he had only two rupees with him and that amount was barely sufficient for the railway fare upto Jalgaon and it was not possible for him to go from jalgaon to Jamner, a distance of about 30 miles. Baba assured him that he need not worry, as everything would be provided for him. Then Baba asked Shama to write the well-known Arati composed by Madhav Adkar (a translation of this is given at the end of this work) and give a copy of it with Udi to Ramgirbuva to be delivered to Nanasaheb. Then relying on Baba's words, Ramgirbuva left Shirdi and reached Jalgaon at about 2-45 a.m. He had only two annas left with him and was in a hard plight. To his great relief he heard somebody calling out "Who is Bapugirbuva of Shirdi?" He went to him and told him that he was the person Bapugirbuva. Then the peon, professing to be sent by Nanasaheb, took him out to an excellent tanga with a good pair of horses. They both drove in it. The tanga ran fast and early in the morning they came to a brooklet. The drive took the horses for watering them and the peon asked Ramgirbuva to partake of some eatables. On seeing the beard, moustache and the livery of the peon, Rangirbuva suspected him to be a Moslem and was unwilling to take any refreshments from him, but the peon satisfied him by saying that he was a Hindu, a Kshatriya of Garhwal and that Nanasaheb had sent these refreshments and that there should be no difficulty, nor any doubt about acceptance. Then both of them took the refreshments and started again. They reached Jamner at dawn. Ramgirbuva alighted to attend a call of nature (passing urine) and returned within a few minutes, but found that there was no tanga, no driver and no peon. He was dumbfounded. Then he went to the neighbouring Katcheri and making enquiries, learnt that the Mamlatdar was at home. He went to Nanasaheb's house, and announced himself and gave to Nanasaheb, Baba's Udi and Arati. At this time, Mainatai's case was most serious and all were in deep anxiety about her. Nanasaheb called out his wife and asked her to give the Udi, mixed with water, to their daughter to drink, and sing Baba's Arati. He throught that Baba's help was most opportune. In a few minutes came the news that the delivery was safe and that the crisis had passed away. When Ramgirbuva thanked Nanasaheb for the peon, tanga and the refreshments etc. the latter was greatly surprised as he had sent none to the station, and was not aware of any person coming from Shirdi.
Mr. B.V. Deo of Thana, Retired Mamlatdar, made enquiries about this matter with Bapurao Chandorkar, son of Nanasaheb and Ramgirbuva of Shirdi and after satisfying himself wrote an elaborate article - part prose and part poetry - in Shri Sai Leela magazine (Vol. 13 Nos. 11, 12 and 13). Brother B.V. Narsimhswami has also taken down the statements of (1) Mainatai (No. V page 14) and (2) Bapusaheb Chandorkar (No. XX page 50) and (3) Ramgirbuva (No. XXVII, Page 83) dated Ist June 1936,
"One day Baba called me to him and gave me a packet of Udi and a copy of Baba's Arati. I had to go to Khandesh at the time. Baba directed me to go to Jamner and told me to deliver the Arati and Udi to Nanasaheb Chandorkar, at Jamner. I said to Baba that all I had was Rs. 2, and asked Him how that could take me by train from Kopergaon to Jalgaon and next by cart from Jalgaon to Jamner. Baba said,"God will give." That was Friday and I started at once. I reached Manmad at 7-30 p.m. and Jalgaon at 2-45 a.m. At that time plague regulations were enforced and I had much trouble. I was to discover what I should do to get to Jamner. At about a peon in boots, turban and well equipped with other details of good dress came to me and took me to a tanga and drove me on. I was in terror. On the way at Bhaghoor, I took refreshments. We reached Jamner early in the morning and by the time I attended my call of nature the tanga and its driver had disappeared (page 83)."
Narayanarao
Bhakta Narayanrao (father's name and surname are not given) had the good fortune to see Baba twice during the Latter's lifetime. Three years after the passing away of Baba in 1918, he wanted to come to Shirdi, but he could not come. Within a year of Baba's Mahasamadhi he fell sick and suffered much. All ordinary remedies gave him no relief. So he meditated on Baba day and night. One night he had a vision in his dream. Baba coming to him through a cellar, comforted him saying, "Don't be anxious, you will be improving from tommorrow, and within a week you will be on your legs." Narayanrao got perfectly well within the time mentioned in the vision. Now the point for consideration is this:- Was Baba living because he had the body, and was He dead because He left it? No, Baba is ever alive, for He transcends both life and death. He who loved Him once whole-heartedly gets response from Him at any time and at any place. He is always by our side and will take any form and appear before the devout Bhakta and satisfy him.
Appasaheb Kulkarni
In 1917 the chance of one Appasaheb Kulkarni came. He was transferred to
Balabuva Sutar
A Saint of Bombay named Balabuva Sutar, who on account of his piety, devotion and bhajan, was called "Modern Tukaram", came to Shirdi for the first time in 1917. When be bowed before Baba, the latter said "I know this man since four years". Balabuva wondered and thought, how could that be, as that was his first trip to Shirdi. But thinking about it seriously he recollected that he had prostrated himself four years ago before Baba's portrait at
Appasaheb Kulkarni
To return to Appasaheb's story. While he was in
Appasaheb could not proceed with his tour as his horse fell sick at Bhivandi. He returned home that afternoon and learnt from his wife about fakir's visit. He smarted in his mind as he did not get the darshan of the fakir and he did not like that only one rupee was paid as Dakshina. He said that had he been present, he would have offered not less than rupees ten. Then he immediately started in quest of the fakir and searched for him in the Masjid and other places, without taking any food. His search was in vain. He then returned home and took his food. The reader may remember here Baba's dictum in Chapter 32 that God's quest should not be made on an empty belly. Appasaheb got a lesson, here about this. Then after meals he went out for a walk with a friend Mr. Chitre. Going some distance they saw a man approaching them rapidly. Appasaheb though that he must be the fakir that came to his house at , as his features tallied with those of baba in the photo. The fakir immediately put forth his hand and asked for Dakshina. Appasaheb gave him a rupee. He demanded again and again and so Appasaheb gave him two more. Still he was not satisfied. Then he borrowed Rs. three from Mr. Chitre and gave them to him. He wanted still more. Appasaheb asked him to accompany him to his home. Then they all returned home and Appasaheb then gave him again three rupees, in all nine. He looked unsatisfied and demanded again. Then he told him that he had a currency of Rs. ten. The fakir asked for the same and took it and returned the nine rupees in cash and went away. Appasaheb had said that he would pay Rs. ten and that sum was taken from him and nine rupees, consecrated by Baba's touch, were returned to him. The figure 9 is significant. It denotes the nine types of devotion (vide Chapter 21). It may also be noted here that Baba gave Rs. nine to one Laxmibai Shinde at His last moment.
Appasaheb examined the Udi-packet and found that it contained some flower-petals and Akshata. Then some time afterwards he got hair from Baba when he saw Him at Shirdi. He put the Udi-packet and the hair in a talisman and always wore it on his arm. Appasaheb realized the power of the Udi. Though he was very clever he got Rs. 40/- as pay in the beginning, but after he secured Baba's photo and His Udi, he got many times forty rupees per month and also got much power and influence; and along with these temporal benefits, his spiritual progress was also rapid. So those who are fortune enough to get Baba's Udi should, after bath, apply it on the forehead and take some little of it mixed with water in the mouth as holy Tirth.
Haribhau Karnik
In 1917 Haribhau Karnik of Dahanu (Thana District) came to Shirdi on the Guru-pournima day (in the month of Ashadha) and worshipped Baba with all formality. He offered clothes and Dakshina, and after taking Baba's leave through Sharma, got down the steps of the Masjid. Then he thought that he should offer one more rupee to Baba and was just turning to get up when Shama informed him by signs that as he had got Baba's leave, he should go and not return. So he started home. On his way, when he went into the
This story illustrates the fact that all saints are one and shows how they work in unison.
Bow to Shri Sai - Peace be to all