कैकेयी जी महाराज केकय नरेश की पुत्री तथा महाराज दशरथ की तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे| इन्होंने देवासुर संग्राममें महाराज दशरथ के साथ सारथि का कार्य करके अनुपम शौर्य का परिचय दिया और महाराज दशरथ के प्राणों की दो बार रक्षा की| यदि शम्बरासुर से संग्राम में महाराज के साथ महारानी कैकेयी न होतीं तो उनके प्राणों की रक्षा असम्भव थी| महाराज दशरथ ने अपने प्राण-रक्षा के लिये इनसे दो वार माँगने का आग्रह किया और इन्होंने समय पर माँगने की बात कहकर उनके आग्रह को टाल दिया| इनके लिये पति प्रेम के आगे संसार की सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं|
महारानी कैकेयी भगवान् श्रीराम से सर्वाधिक स्नेह करती थीं| श्रीराम के युवराज बनाये जाने का संवाद सुनते ही ये आनन्द मग्न हो गयीं| मन्थरा के द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा - 'मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है| मेरे लिये श्रीराम-अभिषेक के समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता| इसके लिये तू मुझसे जो भी माँगेगी, मैं अवश्य दूँगी!' इसी से पता लगता है कि ये श्रीराम से कितना प्रेम करती थीं| इन्होंने मन्थरा कि विपरीत बात सुनकर उसकी जीभ तक खींचने की बात कहीं| इनके श्रीराम के वन गमन में निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीराम की प्रेरणा से देवकार्य के लिये सरस्वती देवी के द्वारा इनकी बुद्धि का परिवर्तन कर दिया जाना था| महारानी कैकेयी ने भगवान् श्रीराम की लीला में सहायता करने के लिये जन्म लिया था| यदि श्रीराम का अभिषेक हो जाता तो वन गमन के बिना श्रीराम का ऋषि-मुनियों को दर्शन, रावण-वध, साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतार के प्रमुख कार्य नहीं हो पाते| इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजी ने श्रीराम की लीला में सहयोग करने के लिये ही जन्म लिया था| इसके लिये इन्होंने चिर कालिक अपयश के साथ पापिनी, कुलघातिनी, कलक्ङिनी आदि अनेक उपाधियों को मौन होकर स्वीकार कर लिया|
चित्रकूट में जब माता कैकेयी श्रीराम से एकान्त में मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रों में आँसू भरकर उनसे कहा - 'हे राम! माया से मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है| आप मेरी कुटिलता को क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमा शील होते हैं| देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है| मैंने आपको पहचान लिया है| आप देवताओं के लिये भी मन, बुद्धि और वाणी से परे हैं|'
भगवान् श्रीराम ने उनसे कहा - 'महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है| मेरी प्रेरणा से ही देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्हारे मुख से वे शब्द निकले थे| उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है| अब तुम जाओ| सर्वत्र आसक्ति रहित मेरी भक्ति के द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी|'
भगवान् श्रीराम के इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयीजी श्रीराम की अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान-सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं| इन्होंने सदा के लिये अपकीर्तिका वरण करके भी श्रीराम की लीलामें अपना विलक्षण योगदान दिया|
शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)
▼
Tuesday, 21 May 2024
रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी
रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी