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Monday, 20 May 2024

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा

महारानी सुमित्रा त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं| ये महाराज दशरथ की दूसरी पटरानी थीं| महाराज दशरथ ने जब पुष्टि यज्ञ के द्वारा खीर प्राप्त किया, तब उन्होंने खीर का एक भाग महारानी सुमित्रा को स्वयं न देकर महारानी कौसल्या और महारानी कैकेयी के द्वारा दिलवाया| जब महारानी सुमित्रा को उस खीर के प्रभाव से दो पुत्र हुए तो इन्होंने निश्चय कर लिया कि इन दोनों पुत्रों पर मेरा अधिकार नहीं है| इसलिये अपने प्रथम पुत्र श्रीलक्ष्मण को श्रीराम और दूसरे शत्रुघ्न को श्रीभरत की सेवा में समर्पित कर दिया| त्याग कर ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है|

जब भगवान् श्रीराम वन जाने लगे तब लक्ष्मणजी ने भी उनसे स्वयं को साथ ले चलने का अनुरोध किया| पहले भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मणजी को अयोध्या में रहकर माता-पिता कि सेवा करने का आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मणजी ने किसी प्रकार भी श्रीराम के बिना अयोध्या में रुकना स्वीकार नहीं किया| अन्त में श्रीराम ने लक्ष्मण को माता सुमित्रा से आदेश लेकर अपने साथ चलने की आज्ञा दी| उस समय विदा माँगने के लिये उपस्थित श्रीलक्ष्मण को माता सुमित्राने जो उपदेश दिया उसमें भक्ति, प्रीति, त्याग, पुत्र-धर्म का स्वरूप, समपर्ण आदि श्रेष्ठ भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है|

माता सुमित्रा ने श्रीलक्ष्मण को उपदेश देते हुए कहा - ' बेटा! विदेह नन्दिनी श्रीजानकी ही तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्रीरामचन्द्र ही तुम्हारे पिता हैं| जहाँ श्रीराम हैं, वहीं अयोध्या है और जहाँ सूर्य का प्रकाश है वही दिन है| यदि श्रीसीता-राम वन को जा रहे हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है| जगत में जितने भी पूजनीय सम्बन्ध हैं, वे सब श्रीराम के नाते ही पूजनीय और प्रिय मानने योग्य हैं| संसार में वही युवती पुत्रवती कहलाने योग्य है, जिसका पुत्र श्रीराम का भक्त है| श्रीराम से विमुख पुत्र को जन्म देने से निपूती रहना ही ठीक है| तुम्हारे ही भाग्य से श्रीराम वन को जा रहे हैं| हे पुत्र! इसके अतिरिक्त उनके वन जाने का अन्य कोई कारण नहीं है| समस्त पुण्यों का सबसे बड़ा फल श्रीसीता रामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम है| हे पुत्र! राग, रोष, ईर्ष्या, मद आदि समस्त विकारों पर विजय प्राप्त करके मन, कर्म और वचन से श्रीसीता राम की सेवा करना| इसी में तुम्हारा परम हित है|'

श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ वन चले गये| अब हर तरह से माता कौसल्या को सुखी बनाना ही सुमित्राजी का उद्देश्य हो गया| ये उन्हीं की सेवा में रात-दिन लगी रहती थीं| अपने पुत्रों के विछोह के दुःखको भूलकर कौसल्याजी के दुःख में दुखी और उन्हीं के सुख में सुखी होना माता सुमित्रा का स्वभाव बन गया| जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगने का इन्हें संदेश मिलता है, तब इनका रोम-रोम खिल उठता है| ये प्रसन्नता और उत्सर्ग के आवेश में बोल पड़ती हैं - 'लक्ष्मण ने मेरी कोख में जन्म लेकर उसे सार्थक कर दिया| उसने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया है|' इतना ही नहीं, ये श्रीराम की सहायता के लिये श्रीशत्रुघ्न को भी युद्ध में भेजने के लिये तैयार हो जाती हैं| माता सुमित्राके जीवन में सेवा, संयम और सर्वस्व-त्याग का अद्भुत समावेश है| माता सुमित्रा-जैसी देवियाँ ही भारतीय कुल की गरिमा और आदर्श हैं|