शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)

Saturday, 31 March 2018

माँ की ममता के आगे तो, सारा जग भी छोटा है

ॐ सांई राम



बादशाह भी तू
फ़कीर भी तू
साधू भी तू
और पीर भी तू
कोई मिटा न सके जिसे
हाथो की वो लकीर तू
तू समाया हे सब में
साईं सब की तकदीर भी तू
बाबा जी के 11  वचन 

1.     जो शिरडी में आएगा,आपद दूर भगायेगा
2.     बड़े समाधि की सीडी पर, पाव तले दुःख की पीडी पर
3.     त्याग शरीर चला जाऊँगा ,भक्त हेतु भागा आऊँगा
4.     मन मे रखना पूरण विश्वास ,करे समाधि पूरी आस
5.     मुझे सदा जीवित ही जानो ,अनुभव करो सत्य पहचानो
6.    मेरी शरण आ खाली जाये,होतो कोई मुझे बताये
7.    जैसा भाव रहा जिस जन का,वैसा रूप रहा मेरे मन का
8.    भार तुम्हारा मुझ पर होगा,वचन न मेरा झूठा होगा
9.    आ सहायता ले भरपूर ,जो माँगा वह नही है दूर
10.  मुझमें लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य वे भकत अनन्य ,मेरी शरण तज जिसे न अन्य.




माँ की ममता के आगे तो,
सारा जग भी छोटा है

Friday, 30 March 2018

श्री सच्चिदानंद सदगुरु साईनाथ महाराज की जय

 ॐ साईं राम




हे साईनाथ हम सब भक्त अज्ञानी हैं मूर्ख हैं पापी हैं मोह माया में फसे गलतियों के पुतले हैं | हमें कुछ नहीं पता की हम क्या करें परन्तु जो भी हैं चाहे बुरे या अच्छे हैं चाहे सच्चे या झूठे हैं हम आपके बच्चे आपकी शरण में हैं, आपकी आज्ञा और आशीर्वाद के साथ | हमारा कोई नहीं है न इस दुनिया में और न इस दुनिया के बाद, न इस जीवन में और न इस जीवन के बाद | आप के बिना हम शून्य हैं हमारी कोई पहचान नहीं है | आप ही हमारा एकमात्र सहारा हो, हमारा विश्वास हो, हमारी सद्बुधि हो, हमारी हिम्मत हो, हमारे कर्म और कर्मों का फल हो, हमारी सुख और संपत्ति हो | हमारे सदगुरु हो, हमारे भगवान हो मालिक हो, और हमारी सर्वश्रेष्ठ सर्वोतम मंजिल हो | आपके सिवा कहाँ जाना है | आप हमारे हर कार्य करने वाले हो, हमारा तो केवल नाम है, यह नाम देने वाले भी आप ही हो | आप हमारे साथ हर पल हो, हमारे रक्षक हो, माता पिता हो, हर मुश्किल और बुराई लोभ, घमंड, मोह , माया, ईर्षा से बचाने वाले हो |जब आप हमारे साथ हर पल हो तो डरना क्यों, पर यह मन जो फिर भी भटकता रहता है इसे भी शांत कर के अपनी भक्ति में लगाने वाले आप हो | आप जो करते हो वो ही सत्य, अटल और सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि आप ही जानते हो की हमारे लिए आपके बच्चों और भक्तों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा | आप हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ,सर्वोतम और मोक्ष का रास्ता बनाते हो, रास्ता दिखाते हो, रास्ते पे चलना सिखाते हो और हाथ पकड़ कर चलाते भी हो | आप हमारी परीक्षा लेते हो और आप ही हमें परीक्षा में पास करते हो | आप ही अपने भक्तों बच्चों को मान सम्मान दिलाते हो और आप आपने भक्तों बच्चों का मान सम्मान बड़ाते भी हो | आप ही बुरे विचारों को मन से दूर् करके अच्छे विचारों को मन में घर कराते हो | आप ही हमें इस लायक बनाते हो कि हम जहाँ भी जाएँ सब को खुशियाँ दे सकेँ सब के काम आ सकें | आप ही हमें इस लायक बनाते हो कि शांत और सच्चे मन से आप की भक्ति करते रहें और दूसरों को भी शांत और सच्चे मन से भक्ति करने की प्रेरणा दे सकेँ | आप ही अपना स्थान बनाते हो , आप ही अपना सत्संग कराते हो और हमें अपनी सेवा में शामिल भी करते हो | आपकी आज्ञा और आशीर्वाद के बिना ना कोई शिर्डी आ सकता है और ना छोड़ सकता है | आपकी आज्ञा और आशीर्वाद हमारे साथ सदा है | साईनाथ केवल आप से ही मांगना, आप की तरफ देखना है, आप की भक्ति करनी है और आप को ही प्रार्थना करनी है | हम आपके सदा ऋणी हैं, शुक्रगुजार हैं और आपकी शरण में हैं | हमारा हाथ आपके हाथ में है | आपने हमारा हाथ सदा के लिए अपने हाथ में पकड़ा हुआ है | हमारा शुरू और अंत आप से ही है. हमें सदा क्षमा करने वाले दयावान आप ही हो |

श्री सच्चिदानंद सदगुरु साईनाथ महाराज की जय

Thursday, 29 March 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 37

ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 37 

चावड़ी का समारोह

इस अध्याय में हम कुछ थोड़ी सी वेदान्तिक विषयों पर प्रारम्भिक दृष्टि से समालोचना कर चावड़ी के भव्य समारोह का वर्णन करेंगे ।

प्रारम्भ

धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय गति और क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी । कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रहमानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते थे । कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे । यघपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे । प्रशान्त महासागर की नाईं सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे । उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है ।

यह तो सर्व विदित है कि वे बालब्रहमचारी थे । वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे । उनकी संगति द्घारा हमें जिस अनुपम त्रान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है । हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है ।

हेमाडपंत ने अपने दृष्टिकोण द्घारा आवश्यकतानुसार वेदान्त का विवरण देकर चावड़ी के समारोह का वर्णन निम्न प्रकार किया है :-


चावड़ी का समारोह

बाबा के शयनागार का वर्णन पहले ही हो चुका है । वे एक दिन मसजिद में और दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे और यह कार्यक्रम उनकी महासमाधि पर्यन्त चालू रहा । भक्तों ने चावड़ी में नियमित रुप से उनका पूजन-अर्चन 10 दिसम्बर, सन् 1909 से आरम्भ कर दिया था । अब उनके चरणाम्बुजों का ध्यान कर, हम चावड़ी के समारोह का वर्णन करेंगे । इतना मनमोहक दृश्य था वह कि देखने वाले ठिठक-ठिठक कर रह जाते थे और अपनी सुध-बुध भूल यही आकांक्षा करते रहते थे कि यह दृश्य कभी हमारी आँखों से ओझल न हो । जब चावड़ी में विश्राम करने की उनकी नियमित रात्रि आती तो उस रात्रि को भक्तोंका अपार जन-समुदाय मसजिद के सभा मंडप में एकत्रित होकर घण्टों तक भजन किया करता था । उस मंडप के एक ओर सुसज्जित रथ रखा रहते था और दूसरी ओर तुलसी वृन्दावन था । सारे रसिक जन सभा-मंडप मे ताल, चिपलिस, करताल, मृदंग, खंजरी और ढोल आदि नाना प्रकार के वाघ लेकर भजन करना आरम्भ कर देते थे । इन सभी भजनानंदी भक्तों को चुम्बक की नाई आकर्षित करने वाले तो श्री साईबाबा ही थे ।

मसजिद के आँगन को देखो तो भक्त-गण बड़ी उमंगों से नाना प्रकार के मंगल-कार्य सम्पन्न करने में संलग्न थे । कोई तोरण बाँधकर दीपक जला रहे थे, तो कोई पालकी और रथ का श्रृंगार कर निशानादि हाथों में लिये हुए थे । कही-कही श्री साईबाबा की जयजयकार से आकाशमंडल गुंजित हो रहा था । दीपों के प्रकाश से जगमगाती मसजिद ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो आज मंगलदायिनी दीपावली स्वयं शिरडी में आकर विराजित हो गई हो । मसजिद के बाहर दृष्टिपात किया तो द्घार पर श्री साईबाबा का पूर्ण सुसज्जित घोड़ा श्यामसुंदर खड़ा था । श्री साईबाबा अपनी गादी पर शान्त मुद्रा में विराजित थे कि इसी बीच भक्त-मंडलीसहित तात्या पटील ने आकर उन्हें तैयार होने की सूचना देते हुए उठने में सहायता की । घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण तात्या पाटील उन्हें मामा कहकर संबोधित किया करते थे । बाबा सदैव की भाँति अपनी वही कफनी पहिन कर बगल में सटका दबाकर चिलम और तम्बाखू संग लेकर धन्धे पर एक कपड़ा डालकर चलने को तैयार हो गये । तभी तात्या पाटील ने उनके शीश पर एक सुनहरा जरी का शेला डाल दिया । इसके पश्चात् स्वयं बाबा ने धूनी को प्रज्वलित रखने के लिये उसमें कुछ लकड़ियाँ डालकर तथा धूनी के समीप के दीपक को बाँयें हाथ से बुझाकर चावड़ी को प्रस्थान कर दिया । अब नाना प्रकार के वाघ बजने आरम्भ हो गये और उनसे भाँति-भाँति के स्वर निकलने लगे । सामने रंग-बिरंगी आतिशबाजी चलने लगी और नर-नारी भाँति-भाँति के वाघ बजाकर उनकी कीर्ति के भजन गाते हुए आगे-आगे चलने लगे । कोई आनंद-विभोर हो नृत्य करने लगा तो कोई अनेक प्रकार के ध्वज और निशान लेकर चलने लगे । जैसे ही बाबा ने मसजिद की सीढ़ी पर अपने चरण रखे, वैसे ही भालदार ने ललकार कर उनके प्रस्थान की सूचना दी । दोनों ओर से लोग चँवर लेकर खड़े हो गये और उन पर पंखा झलने लगे । फिर पथ पर दूर तक बिछे हुए कपड़ो के ऊपर से समारोह आगे बढ़ने लगा । तात्या पाटील उनका बायाँ तथा म्हालसापति दायाँ हाथ पकड़ कर तथा बापूसाहेब जोग उनके पीछे छत्र लेकर चलने लगे । इनके आगे-आगे पूर्ण सुसज्जित अश्व श्यामसुंदर चल रहा था और उनके पीछे भजन मंडली तथा भक्तों का समूह वाघों की ध्वनि के संग हरि और साई नाम की ध्वनि, जिससे आकाश गूँज उठता था, उच्चारित करते हुए चल रहा था । अब समारोह चावड़ी के कोने पर पहुँचा और सारा जनसमुदाय अत्यन्त आनंदित तथा प्रफुल्लित दिखलाई पड़ने लगा । जब कोने पर पहुँचकर बाबा चावड़ी के सामने खड़े हो गये, उस समय उनके मुख-मंडल की दिव्यप्रभा बड़ी अनोखी प्रतीत होने लगी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अरुणोदय के समय बाल रवि क्षितिज पर उदित हो रहा हो । उत्तराभिमुख होकर वे एक ऐसी मुद्रा में खड़े गये, जैसे कोई किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो । वाघ पूर्ववत ही बजते रहे और वे अपना दाहिना हाथ थोड़ी देर ऊपर-नीचे उठाते रहे । वादक बड़े जोरों से वाघ बजाने लगे और इसी समय काकासाहेब दीक्षित गुलाल और फूल चाँदी की थाली में लेकर सामने आये और बाबा के ऊपर पुष्प तथा गुलाल की वर्षा करने लगे । बाबा के मुखमंडल पर रक्तिम आभा जगमगाने लगी और सब लोग तृप्त-हृदय हो कर उस रस-माधुरी का आस्वादन करने लगे । इस मनमोहक दृश्य और अवसक का वर्णन शब्दों में करने में लेखनी असमर्थ है । भाव-विभोर होकर भक्त म्हालसापति तो मधुर नृत्य करने लगे, परन्तु बाबा की अभंग एकाग्रता देखकर सब भक्तों को महान् आश्चर्य होने लगा । एक हाथ में लालटेन लिये तात्या पाटील बाबा के बाँई ओर और आभूषण लिये म्हालसापति दाहिनी ओर चले । देखो तो, कैसे सुन्दर समारोह की शोभा तथा भक्ति का दर्शन हो रहा है । इस दृश्य की झाँकी पाने के लिये ही सहस्त्रों नर-नारी, क्या अमीर और क्या फकी, सभी वहाँ एकत्रित थे । अब बाबा मंद-मंद गति से आगे बढ़ने लगे और उनके दोनों ओर भक्तगम भक्तिभाव सहित, संग-संग चले लगे और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण दिखाई पड़ने लगा । सम्पूर्ण वायुमंडल भी खुशी से झूम उठा और इस प्रकार समारोह चावड़ी पहुँचा । अब वैसा दृश्य भविष्य में कोई न देख सकेगा । अब तो केवल उसकी याद करके आँखों के सम्मुख उस मनोरम अतीत की कल्पना से ही अपने हृदय की प्यास शान्त करनी पड़ेगी ।


चावड़ी की सजावट भी अति भी अति उत्तम प्रकार से की गई थी । उत्तम बढ़िया चाँदनी, शीशे और भाँति-भाँति के हाँड़ी-लालटेन (गैस बत्ती) लगे हुए थे । चावड़ी पहुँचने पर तात्या पाटील आगे बढ़े और आसन बिछाकर तकिये के सहारे उन्होंने बाबा को बैठाया । फिर उनको एक बढ़िया अँगरखा पहिनाया और भक्तों ने नाना प्रकार से उनकी पूजा की, उन्हें स्वर्ण-मुकुट धारण कराया, तथा फूलों और जवाहरों की मालाएँ उनके गले में पहिनाई । फिर ललाट पर कस्तूरी का वैष्णवी तिलक तथा मध्य में बिन्दी लगाकर दीर्घ काल तक उनकी ओर अपलक निहारते रहे । उनके सिर का कपड़ा बदल दिया गया और उसे ऊपर ही उठाये रहे, क्योंकि सभी शंकित थे कि कहीं वे उसे फेक न दे, परन्तु बाबा तो अन्तर्यामी थे और उन्होंने भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने दिया । इन आभूषणों से सुसज्जित होने के उपरान्त तो उनकी शोभा अवर्णनीय थी ।

नानासाहेब निमोणकर ने वृत्ताकार एक सुन्दर छत्र लगाया, जिसके केंद्र में एक छड़ी लगी हुई थी । बापूसाहेब जोग ने चाँदी की एक सुन्दर थाली में पादप्रक्षालन किया और अघ्र्य देने के पश्चात् उत्तम विधि से उनका पूजन-अर्चन किया और उनके हाथों में चन्दन लगाकर पान का बीड़ा दिया । उन्हें आसन पर बिठलाया गया । फिर तात्या पाटील तथा अन्य सब भक्त-गण उनके श्री-चरणों पर अपने-अपने शीश झुकाकर प्रणाम करने लगे । जब वे तकिये के सहारे बैठ गये, तब भक्तगण दोनों ओर से चँवर और पंखे झलने लगे । शामा ने चिलम तैयार कर तात्या पाटील को दी । उन्होंने एक फूँक लगाकर चिलम प्रज्वलित की और उसे बाबा को पीने को दिया । उनके चिलम पी लेने के पश्चात फिर वह भगत म्हालसापति को तथा बाद में सब भक्तों को दी गई । धन्य है वह निर्जीव चिलम । कितना महान् तप है उसका, जिसने कुम्हार द्घार पहिले चक्र पर घुमाने, धूप में सुखाने, फिर अग्नि में तपाने जैसे अनेक संस्कार पाये । तब कहीं उसे बाबा के कर-स्पर्श तथा चुम्बन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जब यह सब कार्य समाप्त हो गया, तब भक्तगण ने बाबा को फूलमालाओं से लाद दिया और सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते उन्हें भेंट किये । बाबा तो वैराग्य के पूर्ण अतार थे और वे उन हीरे-जवाहरात व फूलों के हारों तथा इस प्रकार की सजधज में कब अभिरुचि लेने वाले थे । परन्तु भक्तों के सच्चे प्रेमवश ही, उनके इच्छानुसार पूजन करने में उन्होंने कोई आपत्ति न की । अन्त में मांगलिक स्वर में वाघ बजने लगे और बापूसाहेब जोग ने बाबा की यथाविधि आरती की । आरती समाप्त होने पर भक्तों ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सब एक-एक करके अपने घर लौटने लगे । तब तात्या पाटील ने उन्हें चिनम पिलाकर गुलाब जल, इत्र इत्यादि लगाया और विदा लेते समय एक गुलाब का पुष्प दिया । तभी बाबा प्रेमपूर्वक कहने लगे के तात्या, मेरी देखभाल भली भाँति करना । तुम्हें घर जाना है तो जाओ, परन्तु रात्रि में कभी-कभी आकर मुझे देख भी जाना । तब स्वीकारात्मक उत्तर देकर तात्या पाटील चावड़ी से अपने घर चले गये । फिर बाबा ने बहुत सी चादरें बिछाकर स्वयं अपना बिस्तर लगाकर विश्राम किया ।

अब हम भी विश्राम करें और इस अध्याय को समाप्त करते हुये हम पाठकों से प्रार्थना करते है कि वे प्रतिदिन शयन के पूर्व श्री साईबाबा और चावड़ी समारोह का ध्यान अवश्य कर लिया करें ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 28 March 2018

राष्ट्र एकता के लिए भगवन शिर्डी आये...

ॐ सांई राम



दो सदियों के बाद में
वैमनस्य बढ़ जाये
हिन्दू-मुस्लिम एकता
खतरे में पढ़ जाये.
सभी को हमारी ॐ साईं राम ...



इस दूरी को पाटने
प्रघट हुए साईश
एक होए भगवन जी
अल्लाह हो या ईश.
ॐ श्री साईं नाथाये नमः ....
राम रहीमा एक ही
साईं में हम पाए
राष्ट्र एकता के लिए
भगवन शिर्डी आये...

Tuesday, 27 March 2018

फकीरी सच्ची बादशाही अमीरी से लाख सवाई गरीबो का अल्हा भाई

ॐ साईं राम


श्री साई बाबा कभी-कभी कहा करते थे कि फकीरी सच्ची बादशाही अमीरी से लाख सवाई गरीबो का अल्हा भाई  फकीरी ही सच्ची अमीरी है । उसका कोई अन्त नहीं । जिसे अमीरी के नाम से पुकारा जाता है, वह शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाली है - श्री साई सच्चरित्र

Monday, 26 March 2018

केवल वही है जो हमारी किस्मत का फैसला कर सकते हैं

ॐ साईं राम


पूरा अवश्य पढ़े

हम अपने इष्ट, भगवान या गुरु जी के दरबार, मंदिर या दर पर सिर्फ इसलिए जाते हैं कि हम जानते हैं कि केवल वही है जो हमारी किस्मत का फैसला कर सकते हैं और उनके सिवा कोई और विकल्प हैं ही नहीं कि जो हमारा उचित कर के या भाग्य सवार कर हमारी सभी तरह की मुश्किलों से हमें छुटकारा पाने में और हमारी झोली में खुशियों के मोती बरसाने की कृपा करें।

ऐसे में अगर एक तरफ हमारा विश्वास इतना अटल हैं तो क्यों हम दूसरों को उसी इष्ट देव, भगवान या गुरु के नाम का डर दिखाकर एक ही बात का दूसरा अर्थ निकाल लेते हैं।

एक बात तो तय है कि वह जो समस्त संसार की संरचना करता है और वह ही एकमात्र ऐसा पालक हैं जो हर घड़ी हमारे ऊपर अपनी रहमतो की बारिशें निरंतर करता हैं, वह किसी भी तरह से हमें किसी भी तरह के दुःख में देखना तो कतई पसंद नहीं करेगा।

आपको यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा संदेश भेजे जिसमें कहा गया है कि इस संदेश को कम से कम इतने लोगों को भेजे नहीं तो आपका अहित होगा।

तो ऐसे संदेश को सिर्फ यह जान कर मिटा दे कि इस संदेश को भेजने वाले व्यक्ति को अभी तक अपने इष्ट देव, गुरु या भगवान पर संदेह है।

Sunday, 25 March 2018

मेरे दिल की ख्वाहिश

ॐ साईं राम




साईं तेरे दरबार से कोई खाली न जाए,
जो आये एक बार, इसी दर का हो जाए |
बाबा इस दरबार की कोई नहीं है काट,
धनी हो या ग़रीब हो, तुम रहे हो खुशियाँ बाँट |
प्याला श्रद्धा-सबूरी का जो पीये इक बार,
कोई कष्ट न आये उस पर हो जाए उद्धार |
साईं तेरे प्यार को ये मन तरस रहा,
आंसू ऐसे छलक रहे जैसे बादल बरस रहा |
इन आंसुओं का बाबा मेरे कुछ तो मूल्य डाल,
कुछ ऐसा अब कर दे तेरे दर पे आऊं हर साल |
साईं तेरे दरबार में कोई कमी नहीं,
बन जाऊं चाकर तेरा तो कोई ग़मी नहीं |
साईं तेरे दरबार की गर नौकरी मिल जाए,
सच कहता हूँ बाबा फिर मुझे और कुछ न भाये |
तेरे दर की चौखट को सदा रहूँगा चाट,
रोटी देना- न देना फिर कोई नहीं है बात |
तेरे दर पर प्राण ये निकलें यह इच्छा है मेरी,
बाबा उस समय जल्दी आना न लगाना देरी |

Saturday, 24 March 2018

साईं जी की आँखों से काम लेते हैं ........

ॐ साईं राम



साईं की आँखों से काम लेते हैं,

साईं के दामन को थाम लेते है |
 
दूर होती हैं सारी मुश्किलें,
 
जब साईं बाबा का दिल से नाम लेते हैं |


 अब तो ऐसा हाल है भक्तो, बन गए हम तो बाबा के,

बाबा का भी मन नहीं लगता, बिन पगले दीवानों के |
 
अलग कोई अब कर न सके, बंधन यह ऐसा बन्ध गया रे,
 
चल गया चल गया चल गया रे, बाबा का जादू चल गया रे |

Friday, 23 March 2018

शिर्डी वाले बाबा मैं तेरा हो गया

ॐ साईं राम



जब से मुझको साईं तेरी भक्ति मिली
मेरे मुरझाये मन में हैं कलियाँ खिली
जो न सोचा कभी था वही हो गया
ए शिर्डी वाले बाबा मैं तेरा हो गया


धन दौलत न चाँदी सोना दे ,
बाबा अपने चरणों में मुझे एक कोना दे ,
साईं तेरी सेवा ही मेरी जागीर हो ,
मन-मंदिर में बस तेरी ही तस्वीर हो

Thursday, 22 March 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 36

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.) की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 36

आश्चर्यजनक कथायें, गोवा के दो सज्जन और श्रीमती औरंगाबादकर ।

इस अध्याय में गोवा के दो महानुभावों और श्रीमती औरंगाबादकर की अदभुत कथाओं का वर्णन है ।




गोवा के दो महानुभाव

एक समय गोवा से दो महानुभाव श्री साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये । उन्होंने आकर उन्हें नमस्कार किया । यघपि वे दोनों एक साथ ही आये थे, फिर भी बाबा ने केवल एक ही व्यक्ति से पन्द्रह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्हें आदर सहित दे दी गई । दूसरा व्यक्ति भी उन्हें सहर्ष 35 रुपये दक्षिणा देने लगा तो उन्होंने उसकी दक्षिणा लेना अस्वीकार कर दिया । लोगों को बड़ा आर्श्चय हुआ । उस समय शामा भी वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने कहा कि देवा । यह क्या, ये दोनों एक साथ ही तो आये है । इनमें से एक की दक्षिणा तो आप स्वीकार करते है और दूसरा जो अपनी इच्छा से भेंट दे रहा है, उसे अस्वीकृत कर रहे है । यह भेद क्यों । तब बाबा ने उत्तर दिया कि शामा । तुम नादान हो । मैं किसी से कभी कुछ नहीं लेता । यह तो मसजिद माई ही अपना ऋण माँगती है और इसलिये देने वाला अपना ऋण चुकता कर मुक्त हो जाता है । क्या मेरे कोई घर, सम्पत्ति या बाल-बच्चे है, जिनके लिये मुझे चिन्ता हो । मुझे तो किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । मैं तो सदा स्वतंत्र हूँ । ऋण, शत्रुता तथा हत्या इन सबका प्रायश्चित अवश्य करना पड़ता है और इनसे किसी प्रकार भी चुटकारा संभव नहीं है । तब बाबा अपने विशेष ठंग से इस प्रकार कहने लगे । अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में ये महाशय निर्धन थे । इन्होंने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं एक माह का वेतन तुम्हें अर्पण करुँगा । इन्हें 15 रुपये माहवार की एक नौकरी मिल गई । फिर उत्तरोत्तर उन्नति होते होते 30, 60, 100, 200 और अन्त में 700 रुपये तक मासिक वेतन हो गया । परन्तु समृदघि पाकर ये अपना वचन भूल गये और उसे पूरा न कर सके । अब अपने शुभ कर्मों के ही प्रभाव से इन्हें यहाँ तक पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अतः मैंने इनसे केवल पन्द्रह रुपये ही दक्षिणा माँगी, जो इनके पहले माह की पगार थी ।

दूसरी कथा

समुद्र के किनारे घूमते-घूमते मैं एक भव्य महल के पास पहुँचा ौर उसकी दालान में विश्राम करने लगा । उस महल के ब्राहमण स्वामी ने मेरा यथोचित स्वागर कर मुझे बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ खाने को दिये । भोजन के उपरान्त उसने मुझे आलमारी के समीप एक स्वच्छ स्थान शयन के लिये बतला दिया और मैं वहीं सो गया । जब मैं प्रगाढ़ निद्रा में था तो उस व्यक्ति ने पत्थर खिसकाकर दीवाल में सेंध डाली और उसके द्घारा भीतर घुसकर उसने मेरी खीसा कतर लिया । निद्रा से उठने पर मैंने देखा कि मेरे तीस हजार रुपये चुरा लिये है । मैं बड़ी विपत्ति में पड़ गया और दुःखित होकर रोता बैठ गया । केवल नोट ही नोट चुरा लिये थे, इसलिये मैंने सोचा कि यह कार्य उस ब्राहमण के अतिरिक्त और किसी का नहीं है । मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा न लगा और मैं एक पखवाड़े तक दालान में ही बैठे बैठे चोरी का दुःख मनाता रहा । इस प्रकार पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मुझे दुःख से बिलखते देखकर मेरे रोने का कारण पूछा । तब मैंने सब हाल उससे कह सुनाया । उसने मुझसे कहा कि यदि तुम मेरे आदेशानुसार आचरण करोगे तो तुम्हारा चुराया धन वापस मिल जायेगा मैं एक फकीर का पता तुम्हें बताता हूँ । तुम उसकी शरण में जाओ और उसकी कृपा से तुम्हें तुम्हारा धन पुनः मिल जायेगा । परन्तु जब तक तुम्हें अपना धन वापस नहीं मिलता, उस समय तक तुम अपना प्रिय भोजन त्याग दो । मैंने उस फकीर का कहना मान लिया और मेरा चुराया धन मिल गया । तब मैं समुद्र तट पर आया, जहाँ एक जहाज खड़ा था, जो यात्रियों से ठसाठस भर चुक था । भाग्यवश वहाँ एक उदार प्रकृति वाले चपरासी की सहायता से मुझे एक स्थान मिल गया । इस प्रकार मैं दूसरे किनारे पर पहुँचा और वहाँ से मैं रेलगाड़ी में बैठकर मसजिद माई आ पहुँचा । कथा समाप्त होते ही बाबा ने शामा से इन अतिथियों को अपने साथ ले जाने और भोजन का प्रबन्ध करने को कहा । तब शामा उन्हें अपने घर लिवा ले गया और उन्हें भोजन कराया । भोजन करते समय शामा ने उनसे कहा कि बाबा की कहानी बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, क्योंकि न तो वे कभी समद्र की ओर गये है और न उनके पास तीस हजार रुपये ही थे । उन्होंने न कहीं भी यात्रा ही की, न उनकी कोई रकम ही चुरायी गई और न वापस आई । फिर शामा ने उन लोगों से पूछा कि आप लोगों को कुछ समझ में आया कि इसका अर्थ क्या था । दोनों अतिथियों की घिग्घियाँ बँध गई और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी । उन्होंने रोते-रोते कहा कि बाबा तो सर्वव्यापी, अनन्त और परब्रहमा स्वरुप है । जो कथा उन्होंने कही है, वह बिलकुल हमरी ही कहानी है और वह मेरे ऊपर बीत चुकी है । यह महान् आश्र्य है कि उन्हें यह सब कैसे ज्ञात हो गया । भोजन के उपरान्त हम इसका पूर्ण विवरण आपको सुनायेंगे ।

भोजन के पश्चात् पान खाते हुये उन्होंने अपनी कथा सुनाना प्रारम्भ कर दिया । उनमें से एक कहने लगा –
घाट में एक पहाड़ी स्थान पर हमारा निवास-स्थान है । मैं अपने जीवन-निर्वाह के लिये नौकरी ढूँढने गोवा आया था । तब मैंने भगवान दत्तात्रेय को वचन दिया था कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं तुम्हें एक माह की पगार भेंट चढ़ाऊँगा । उनकी कृपा से मुझे 15 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई और जैसा कि बाबा ने कहा, उसी प्रकार मेरी उन्नति हुई । मैं अपना वचन बिलकुल भूल गया था । बाबा ने उसकी स्मृति दिलायी और मुझसे 15 रुपये वसूल कर लिये । आप लोग इसे दक्षिणा न समझे । यह तो एक पुराने ऋण का भुगतान है तथा दीर्घकाल से भूली हुई प्रतिज्ञा आज पूर्ण हुई है ।

शिक्षा

यथार्थ में बाबा ने कभी किसी से पैसा नहीं माँगा और न ही अपने भक्तों को ही माँगने दिया । वे आध्यात्मिक उन्नति में कांचन को बाधक समझते थे और भक्तों को उसके पाश से सदैव बचाते रहते थे । भगत म्हालसापति इसके उदाहरणस्वरुप है । वे बहुत निर्धन थे और बड़ी कठिनाई से ही अपनी जीवन बिताते थे । बाबा उन्हें कभी पैसा माँगने नहीं देते थे और न ही वे अपने पास की दक्षिणा में से उन्हें कुछ देते थे । एक बार एक दयालु और सहृदय व्यापारी हंसराज ने बाबा की उपस्थिति में ही एक बड़ी रकम म्हालसापति को दी, परन्तु बाबा ने उनसे उसे अस्वीकार करने को कह दिया ।

अब दूसरा अतिथि अपनी कहानी सुनाने लगा । मेरे पास एक ब्राहमण रसोइया था, जो गत 35 वर्षों से ईमानदारी से मेरे पास काम करता आया था । बुरी लतों में पड़कर उसका मन पलट गया और उसने मेरे सब रुपये चोरी कर लिये । मेरी आलमारी दीवाल में लगी थी और जिस समय हम लोग गहरी नींद में थे, उसने पीछे से पत्थर हटाकर मेरे सब तीस हजार रुपयों के नोट चुरा लिये । मैं नही जानता कि बाबा को यह ठीक-ठीक धन-राशि कैसे ज्ञात हो गई । मैं दिन-रात रोता और दुःखी रहता था । एक दिन जब मैं इसी प्रकार निराश और उदास होकर बरामदे में बैठा था, उसी समय रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मेरी स्थिति जानकर मुझसे इसका कारण पूछा । मैंने उसे सब हाल सुनाया । तब उसने बताया कि कोपरगाँव तालुके के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक औलिया रहते है । उन्हें वचन दो तथा अपना रुचिकर भोज्य पदार्थ त्याग, मन में कहो कि जब तक मैं तुम्हारा दर्शन न कर लूँगा, उस पदार्थ को कदापि न खाऊँगा । तब मैंने चावल खाना छोड़ दिया और बाब को वचन दिया, बाबा । जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं होते तथा मेरी चुराई गई धन राथि नहीं मिलती, तब तक मैं चावल ग्रहण न करुँगा । इस प्रकार जब पन्द्रह दिन बीत गये, तब वह ब्राहमण स्वयं ही आया और सब धनराशि लौटाकर क्षमायाचनापूर्वक कहने लगा कि मेरी मति ही भ्रष्ट हो गयी थी, जो मुझसे आपका ऐसा अपराध बन गया है । मैं आपके पैर पड़ता हूँ । मुझे क्षमा करें । इस प्रकार सब ठीक-ठाक हो गया । जिस फकीर से मेरी भेंट हुई थी तथा जिसने मुझे सहायता पहुँचाई थी, वह फकीर फिर मेरे देखने में कभी नहीं आया । मेरे मन में श्रीसाईबाबा के दर्शन की, जिनके लिये फकीर ने मुझसे कहा था, बड़ी तीव्र उत्कंठा हुई । मैंने सोचा कि जो फकीर मेरे घर पर आया था, वह साईबाबा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता । जिन्होंने मुझे कृपाकर दर्शन दिये और मेरी इस प्रकार सहायता की । उन्हें 35 रुपये का लालच कैसे हो सकता था । इसके विपरीत वे अहेतुक ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर ले जाने का पूरा प्रत्यन करते है ।

जब चोरी गई राशि मुझे पुनः प्राप्त हो गई, तब मेरे हर्ष का पारावार न रहा । मरी बुद्घि भ्रमित हो गई और मैं अपना वचन भूल गया । कुलाबा मे एक रात्रि को मैंने साईबाबा को स्वप्न में देखा । तभी मुझे अपनी शिरडी यात्रा के वचन की स्मृति हो आई । मैं गोवा पहुँचा और वहाँ से एक स्टीमर द्घारा बम्बई पहुँच कर शिरडी जाना चाहता था । परन्तु जब मैं किनारे पर पहुँचा तो देखा कि स्टीममर खचाखच भर चुका है और उसमें बिलकुल भी जगह नहीं है । कैप्टन ने तो मुझे चढ़ने न दिया, परन्तु एक अपरिचित चपरासी के कहने पर मुझे स्टीमर में बैठने की अनुमति मिल गयी और मैं इस प्रकार बम्बई पहुँचा । फिर रेलगाड़ी में बैठकर यहाँ पहुँच गया । बाबा के सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होने में मुझे कोई शंका नहीं है । देखो तो, हम कौन है और कहाँ हमारा घर । हमारे भाग्य कितने अच्छे है कि बाबा हमारी चुराई गई राशि वापस दिलाकर हमें यहाँ खींच कर लाये । आप शिरडीवासी हम लोगों की अपेक्षा सहस्त्रगुने श्रेष्ठ और भाग्यशाली है, जो बाबा के साथ हँसते-खेलते, मधुर भाषण करते और कई वर्षों से उनके समीप रहते हो । यह आप लोगों के गत जन्मों के शुभ संस्कारों का ही प्रभाव है, जो कि बाबा को यहाँ खींच लाया है । श्री साई ही हमारे लिये दत्त है । उन्होंने ही हमसे प्रतिज्ञा कराई तथा जहाज में स्थान दिलाया और हमें यहाँ लाकर अपनी सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता का अनुभव कराया ।

श्रीमती औरंगाबादकर

सोलापुर के सखाराम औरंगाबादकर की पत्नी 27 वर्ष की दीर्घ अवधि के पश्चात भी निःसन्तान ही थी । उन्होंने सन्तानप्राप्ति के निमित्त देवी और देवताओं की बहुत मानतायें की, परन्तु फिर भी उनकी मनोकामना सिदृ न हुई । तब वे सर्वथा निराश होकर अन्तिम प्रयत्न करने के विचार से अपने सौतेले पुत्र श्री विश्वनाथ को साथ ले शिरडी आई और वहाँ बाबा की सेवा कर, दो माह रुकी । जब भी वे मसजिद को जाती तो बाबा को भक्त-गण से घिरे हुये पाती । उनकी इच्छा बाबा से एकान्त में भेंट कर सन्तानप्राप्ति के लिये प्रार्थना करने की थी, परन्तु कोई योग्य अवसर उनके हाथ न लग सका । अन्त मे उन्होंने शामा से कहा कि, जब बाबा एकान्त में हो तो मेरे लिये प्रार्थना कर देना । शामा ने कहा कि बाबा का तो खुला दरबार है । फिर भी यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो मैं अवश्य प्रयत्न करुँगा, परन्तु यश देना तो ईश्वर के ही हाथ है । भोजन के समय तुम आँगन में नारियल और उदबत्ती लेकर बैठना और जब मैं संकेत करुँ तो कड़ी हो जाना । एक दिन भोजन के उपरान्त जब शामा बाबा के गीले हाथ तौलिये से पोंछ रहे थे, तभी बाबा ने उनके गालपर चिकोटी काट ली । तब शामा क्रोधित होकर कहने लगे कि देवा । यह क्या आपके लिये उचित है कि आप इस प्रकार मेरे गाल पर चिकोटी कांटे । मुझे ऐसे शरारती देव की बिलकुल आवश्यकता नही, जो इस प्रकार का आचरण करें । हम आप पर आश्रित है, तब क्य यही हमारी घनिष्ठता का फल है । बाबा ने कहा, अरे । तुम तो 72 जन्मों से मेरे साथ हो । मैंने अब तक तुम्हारे साथ ऐसा कभी नहीं किया । फिर अब तुम मेरे स्र्पर्श को क्यों बुरा मानते हो । शामा बोले कि मुझे तो ऐसा देव चाहये, जो हमें सदा प्यार करे और नित्य नया-नया मिष्ठान खाने को दे । मैं तुमसे किसी प्रकार के आदर की इच्छा नहीं रखता और न मुझे स्वर्ग आदि ही चाहिये । मेरा तो विश्वास तुम्हारे चरणों में ही जागृत रहे, यही मेरी अभिलाषा है । तब बाबा बोले कि हाँ, सचमुच मैं इसीलिये यहाँ आया हूँ, मैं सदैव तुम्हारा पालन और उदरपोषण करता आया हूँ, इसीलिये मुझे तुमसे अधिक स्नेह है ।

जब बाबा अपनी गादीपर विराजमान हो गये, तभी शामा ने उस स्त्री को संकेत किया । उसने ऊपर आकर बाबा को प्रणाम कर उन्हें नारियल और ऊदबत्ती भेंट की । बाबा ने नारियल हिलकार देखा तो वह सूखा था और बजता था । बाबा ने शामा से कहा कि यह तो हिल रहा है । सुनो, यह क्या कहता है । तभी शामा ने तुरन्त कहा कि यह बाई प्रार्थना करती है कि ठीक इसी प्रकार इनके पेट में भी बच्चा गुड़गुड़ करे, इसलिये आर्शीवाद सहित यह नारियल इन्हें लौटा दो । तब फिर बाबा बोले कि क्या नारियल से भी सन्तान की उत्पत्ति होती है । लोग कैसे मूर्ख है, जो इस प्रकार की बाते गढ़ते है . शामा ने कहा कि मैं आपके वचनों और आशीष की शक्ति से पूर्ण अवगत हूँ और आपके एक शब्द मात्र से ही इस बाई को बच्चों का ताँता लग जायेगा । आप तो टाल रगहे है और आर्शीवाद नहीं दे रहे है । इस प्रकार कुछ देर तक वार्तालाप चलता रहा । बाबा बार-बार नारियल फोड़ने को कहते थे, परन्तु शामा बार-बार यही हठ पकड़े हुये थे कि इसे उस बाई को दे दे । अन्त में बाबा ने कह दिया कि इसको पुत्र की प्राप्ति हो जायेगी । तब शामा ने पूछा कि कब तक बाबा ने उत्तर दिया कि 12 मास में । अब नारियल को फोड़कर उसके दो टुकड़े किये गये । एक भाग तो उन दोनों नेखाया और दूसरा भाग उस स्त्री को दिया गया । तब शामा ने उस बाई से कहा कि प्रिय बहिन । तुम मेरे वचनों की साक्षी हो । यदि 12 मास के भीतर तुमको सन्तान न हुई तो मैं इस देव के सिर पर ही नारियल फोड़कर इसे मसजिद से निकाल दूँगा और यदि मैं इसमें असफल रहा तो मैं अपनो को माधव नहीं कहूँगा । जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, इसकी सार्थकता तुम्हें शीघ्र ही विदित हो जायेगी ।

एक वर्ष में ही उसे पुत्ररत्न की प्राप्त हुई और जब वह बालक पाँच मास का था, उसे लेकर वह अपने पतिसहित बाबा के श्री चरणों में उपस्थित हुई । पति-पत्नी दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और कृतज्ञ पिता (श्रीमान् औरंगाबादकर) ने पाँच सौ रुपये भेंट किये, जो बाबा के घोड़े श्याम कर्ण के लिये छत बनाने के काम आये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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Wednesday, 21 March 2018

तेरा दामन छोडू कैसे

ॐ सांई राम


फूल भरे है दामन दामन
लेकिन वीरान गुलशन गुलशन
अक्ल की बातें करने वाले
क्या समझेगे दिल की धड़कन
कौन किसी के दुःख का साथी
आपने आसू अपना दामन
सांई,तेरा दामन छोडू कैसे
मेरी दुनिया तो बस तेरा दामन

जय सांई राम!!!

 मेरे बाबा तेरी रहमत की भीख मांगते हैं हम
मेहरबान कोई न तुझ सा है यह भी जानते हैं हम
 एक बस तू ही सुनने वाला है फ़रियाद टूटे हुए दिल की
झुकाया सर जो सजदे में,हो गयीं ये आँखें नम
ख़ुशी में भूल जाते हैं,मिले लेकिन जो ग़म कोई
दामन फैला कर तेरे दर पर चले आते हैं हम
सुना है बिन मांगे मिलता है दरबार-ए-इलाही में
कैसे जायेंगे भला हो के मायूस तेरे घर से हम
कहाँ जाएँ तेरे बन्दे न हो तू यूं ख़फा हमसे
  " हिमेंद्र " हैं गुनाहों पर, तू करदे अब उस पे करम

Tuesday, 20 March 2018

सभी जीवों में साईं है

ॐ साईं राम



सभी जीवों में साईं है
होते सभी समान,
सेवा कर सब जीवों की
यही साईं का ज्ञान |
सदा  अमीरी  न  रहे  
श्रंगार लुप्त  हो  जाये,  
एक  फकीरी  है अमर 
साईं  तक  ले  जाये |

ॐ श्री साईं नाथाय नमः

Monday, 19 March 2018

मेरा साईं कहंदा है गुस्सा त्यागो

ॐ साईं राम


अपने साईं नूं कोई समझ न पाया
लीला उस दी अपरम्पार
फूल वी उगाए ते कंडे वी लगाए
पतझड़, सावन, सर्दी, गर्मी , 
नाल बनाई बसंत-बहार
सुख-दुख है सब उस ने बनाए
कारन-करावन वाला ओ आप
मेरा साईं कहंदा है गुस्सा त्यागो
नफरत छड दो ,करो सब न नूं रज रज प्यार
साईं दी कहानियाँ नूं पड़ के समझो
समझ समझ के हो जाओ तैयार
हुन प्रेम -प्यार नूं मन विच वसाओ
गुस्सा -नफरत , लालच- लोभ,
अंदरों कड के मारों बाहर
जय साईं राम!!!

Sunday, 18 March 2018

मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै

ॐ साईं राम 


इक नज़र मेहर दी तक लै
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै 
मैं होर किसे तों की लैना
तेरे दर दा हो के जी लैना
इक वारी पल्ला फड लै
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै
मैं दर तेरे ते मर जावां
तेरे नाम ए जिंदगी कर जावां
इक वारी पल्ला फड लै
इक वारी दर ते सद लै
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै
मैं चन्गा हाँ या मंदा हाँ 
बस नाम तेरे विच रंगा हाँ
मेरी जिन्दडी दा पल्ला फड लै
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै
तेरे इश्क ने नच्चन ला दित्ता
नच्चन दा नहीं सी वल मैनू
पैरां विच घुंघरू पा दित्ता
तेरे इश्क ने मंगन ला दित्ता
मंगने दा नहीं सी वल मैनू
हथ विच कांसा फडवा दित्ता
इक वारी दर ते सद लै 
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै
जिदा विच शिर्डी दे डेरा ए
ओ सिर दा साईं मेरा ए
मैं होर किसे तो की लैना
तेरे दर दा हो के जी लैना
इक वारी दर ते सद लै
मेरे साईंयां मैनू कुत्तेयाँ च रख लै

Saturday, 17 March 2018

साईं बाबा जी ने कहा था :

ॐ सांई राम



साईं बाबा जी ने कहा था :

"मै तुम्हारे ह्रदय मे विराजमान हूँ, सभी जीवित प्राणियों के ह्रदय में, मै ही व्याप्त हूँ"

"चाहे इस संसार में तुम कही भी जाओ, में हर जगह तुम्हारे साथ ही जाता हूँ | तुम्हारा ह्रदय ही मेरा घर है; में तुम्हारे अंत:करण में निवास करता हूँ" |

"चाहे इस संसार में तुम कही भी जाओ, में हर जगह तुम्हारे साथ ही जाता हूँ | तुम्हारा ह्रदय ही मेरा घर है; में तुम्हारे अंत:करण में निवास करता हूँ" |



मुझे सबसे ज्यादा प्यारा वो भक्त है जो हर किसी जरुरतमंद इंसान की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हो और हर किसी के सुख और दुःख में शामिल होता हो और किसी गरीब, बेसहारा जरुरतमंद इंसान की मदद करना ही तो मेरी भक्ति करना है ......अल्लाह मालिक !!

Friday, 16 March 2018

तेरा हाथ जिसने पकड़ा वो रहा न बेसहारा

ॐ साईं राम


तेरा हाथ जिसने पकड़ा वो रहा न बेसहारा
दरिया में ड़ूब कर भी उसे मिल गया किनारा
सद्गुरु से जो मिला है कहीं और क्या मिलेगा
ये ऐसा सिलसिला है भगवान जा मिलेगा
डूबा जो प्रेम सागर मिलता उसे किनारा
तेरा हाथ जिसने पकड़ा वो रहा न बेसहारा
मन खोजता उसी को जिसने इसे सवांरा
जब भी जुबान खोली उसका ही नाम आया
सुनता है प्रभु उसीकी जिसने उसे पुकारा
तेरा हाथ जिसने पकड़ा मिलता उसे किनारा
झूठी है सारी दुनिया झूठी है इसकी बातें
झूठा है रूप इसका झूठी सारी ज़माते
समझाया जिंदगी ने बड़े काम का इशारा
तेरा हाथ जिसने पकड़ा उसे मिल गया किनारा

Thursday, 15 March 2018

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 35 - परीक्षा में असफल

ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 35 - परीक्षा में असफल
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काका महाजनी
काका महाजनी के मित्र और सेठ, निर्बीज मुनक्के, बान्द्रा निवासी एक गृहस्थ की नींद न आने की घटना, बालाजी पाटील नेवासकर, बाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना ।
इस अध्याय में भी उदी का माहात्म्य ही वर्णित है । इसमें ऐसी दो घटनाओं का उल्लेख है कि परीक्षा करने पर देखा गया कि बाबा ने दक्षिणा अस्वीकार कर दी । पहले इन घटनाओं का वर्णन किया जायेगा ।
आध्यात्मिक विषयों में सामप्रदायिक प्रवृत्ति उन्नति के मार्ग में एक बड़ा रोड़ा है । निराकरावादियों से कहते सुना जाता है कि ईश्वर की सगुण उपासना केवल एक भ्रम ही है और संतगण भी अपने सदृश ही सामान्य पुरुष है । इस कारण उनकी चरण वन्दना कर उन्हें दक्षिणा क्यों देनी चाहिये । अन्य पन्थों के अनुयायियों का भी ऐसा ही मत है कि अपने सदगुरु के अतिरिक्त अनय सन्तों को नमन तथा उनकी भक्ति न करनी चाहिए । इसी प्रकार की अनेक आलोचनायें साईबाबा के सम्बन्ध में पहले सुनने में आया करती थी तथा अभई भी आ रही है । किसी का कथन था कि जब हम शरिडी को गये तो बाबा ने हमसे दक्षिणा माँगी । क्या इस भाँति दक्षिणा ऐठना एक सन्त के लिये शोभनीय था । जब वे इस प्रकार आचरण करते है तो फिर उनका साधु-धर्म कहाँ रहा । परन्तु ऐसी भी कई घटनाएँ अनुभव में आई है कि जिन लोगों ने शिरडी जाकर अविश्वास से बाब के दर्शन किये, उन्होंने ही सर्वप्रथम बाबा को प्रणाम कर प्रार्थना भी की । ऐसे ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।

काका महाजनी के मित्र
काका महाजनी के मित्र निराकारवादी तथा मूर्ति-पूजा के सर्वथा विरुदृ थे । कौतुहलवश वे काका महाजनी के साथ दो शर्तों पर शिरडी चलने को सहमत हो गये कि
1. बाबा को नमस्कार न करेंगे और
2. न कोई दक्षिणा ही उन्हें देंगे ।
जब काका ने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया, तब फिर शनिवार की रात्रि को उन दोनों ने बम्बई से प्रस्थान कर दिया और दूससरे ही दिन प्रातःकाल शिरडी पहुँच गये । जैसे ही उन्होंने मसजिद में पैर रखा, उसी समय बाबा ने उनके मित्र की ओर थोड़ी देर देखकर उनसे कहा कि अरे आइये, श्री मान् पधारिये । आपका स्वागत है । इन शब्दों का स्वर कुछ विचित्र-सा था और उनकी ध्वनि प्रायः उन मित्र के पिता के बिलकुल अनुरुप ही थी । तब उन्हें अपने कैलासवासी पिता की स्मृति हो आई और वे आनन्द विभोर हो गये । क्या मोहिनी थी उस स्वर में । आश्यर्ययुक्त स्वर में उनके मित्र के मुख से निकल पड़ा कि निस्संदेह यह स्वर मेरे पिताजी का ही है । तब वे शीघ्र ही ऊपर दौड़कर रगयेऔर अपनी सब प्रतिज्ञायें भूलकर उन्होंने बाबा के श्री-चरणों पर अपना मस्तक रख दिया । बाबा ने काकासाहेब से तो दोपहर में तथा विदाई के समय दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु इनके मित्र से एक शब्द भी न कहा । उनके मित्र ने फुसफुसाते हुए कहा कि भाई । देखो, बाबा ने तुमसे तो दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु मैं भी तो तुम्हारे साथ हूँ, फिर वे मेरी इस प्रकार उपेक्षा क्यों करते है । काका ने उत्तर दिया कि उत्तम तो यह होगा कि तुम स्वयं ही बाबा से यह पूछ लो । बाबा ने पूछा कि यह क्या कानाफूसी हो रही है । तब उनके मित्र ने कहा कि क्या मैं भी आपको दक्षिणा दूँ । बाबा ने कहा कि तुम्हारी अनिच्छा देखकर मैंने तुमसे दक्षिणा नहीं माँगी, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा ऐसी ही है तो तुम दक्षिणा दे सकते हो । तब उन्होंने सत्रह रुपये भेंट किये, जितने काका ने दिये थे । तब बाबा ने उन्हें उपदेश दिया कि अपने मध्य जो तेली की दीवाल (भेदभाव) है, उसे नष्ट कर रदो, जिससे हम परस्पर देखकर अपने मिलन का पथ सुगम बना सकें । बाबा ने उन्हें लौटने की अनुमति देते हुए कहा कि तुम्हारी यात्रा सफल रहेगी । यघपि आकाश में बादल छाये हुए थे और वायु वेग से चल रही थी तो भी दोनों सकुशल बम्बई पहुँच गये । घर पहुँचकर जब उन्होंने द्घार तथा खिड़कियाँ खोलीं तो वहाँ दो मृत चमगादड़ पड़े देखे । एक तीसरा उनके सामने ही फुर्र करके खिड़की में से उड़ गया । उन्हें विचार आया कि यदि मैंने खिड़की खुली छोड़ी होती तो इन जीवों के प्राण अवश्य बच गये होते, परन्तु फिर उन्हें विचार आया कि यह उनके भाग्यानुसार ही हुआ है और बाबा ने तीसरे की प्राण-रक्षा के हेतु हमें शीघ्र ही वहाँ से वापस भेज दिया है ।

काका महाजनी के सेठ
बम्बई में ठक्कर धरमसी जेठाभाई साँलिसिटर (कानूनी सलाहकार) की एक फर्म थी । काका इस फर्म के व्यवस्थापक थे । सेठ और व्यस्थापक के सम्बन्ध परस्पर अच्छे थे । श्री मान् ठक्कर को ज्ञात था कि काका बहुधा शिरडी जाया करते है और वहाँ कुछ दिन ठहरकर बाबा की अनुमति से ही वापस लौटते है । कौतूहलवश बाबा की परीक्षा करने के विचार से उन्होंने भी होलिकोत्सब के अवसर पर काका के साथ ही शिरडी जाने का निश्चय किया । काका का शिरडी से लौटना सदैव अनिश्चत सा ही रहता था, इसलिये अपने अपने साथ एक मित्र को लेकर वे तीनों रवाना हो गये । मार्ग में काका ने बाबा को अर्पित करने के हेतु दो सेर मुनक्का मोल ले लिये । ठीक समय पर शिरडी पहुंच कर वे उनके दर्नार्थ मसजिद में गये । बाबा साहेब तर्खड भी तब वहीं पर थे । श्री. ठक्कर ने उनसे आने का हेतु पूछा । तर्खड ने उत्तर दिया कि मैं तो दर्शनों के लिये ही आया हूँ । मुझे चमत्कारों से कोई प्रयोजन नहीं । यहाँ तो भक्तों की हार्दिक इच्छाओं की पूर्ति होती है । काका ने बाबा को नमस्कार कर उन्हें मुनक्के अर्पित किये । तब बाबा ने उन्हें वितरित करने की आज्ञा दे दी । श्री मान् ठक्कर को भी कुछ मुनक्के मिले । एक तो उन्हें मुनक्का रुचिकर न लगता था, दूसरे इस प्रकार अस्वच्छा खाने की डाँक्टर ने मनाही कर दी थी । इसलिये वे कुछ निश्चय न कर सके और अनिच्छा होते हुए भी उन्हें ग्रहण करना पड़ा और फिर दिखावे मात्र के लिये ही उन्होंने मुँह में डाल लिया । अब समझ में न आता था कि उनके बीजों का क्या करें । मसजिद की फर्श पर तो थूका नहीं जा सकता था, इसलिये उन्होंने वे बीज अपनी इच्छा के विरुदृ अपने खीसे में डाल लिये और सोचने लगे कि जब बाबा सन्त है तो यह बात उन्हें कैसे अविदित रह सकती है कि मुझे मुनक्कों से घृणा है । फिर क्या वे मुझे इसके लिये लाचार कर सकते है । जैसे ही यह विचार उनके मन में आया, बाबा ने उन्हें कुछ और मुनक्के दिये, पर उन्होंने खाया नहीं और अपने हाथ में ले लिया । तब बाबा ने उन्हें खा लेने को कहा । उन्होंने आज्ञा का पालन किया और चबाने पर देखा कि वे सब निर्बीज है । वे चमत्कार की इच्छा रखते थे, इसलिये उन्हें देखने को भी मिल गया । उन्होंने सोचा कि बाबा समस्त विचारों को तुरन्त जान लेते है और मेरी इच्छानुसार ही उन्होंने उन्हें बीजरहित बना दिया है । क्या अदभुत शक्ति है उनमें । फिर शंका-निवारणार्थ उन्होंने तर्खड से, जो समीप ही बैठे हुये थे और जिन्हें भी थोड़े मुनक्के मिले थे, पूछा कि किस किसम के मुनक्के तुम्हें मिले । उत्तर मिला अच्छे बीजों वाले । श्रीमान् ठक्कर को तब और भी आश्र्चर्य हुआ । अतब उन्होंने अपने अंकुरि तविश्वास को दृढ़ करने के लिये मन में निश्चय किया कि यदि बाबा वास्तव में संत है तो अब सर्वप्रथम मुनक्के काका को ही दिये जाने चाहिये । इस विचार को जानकर बाबा ने कहा कि अब पुनः वितरण काका से ही आरम्भ होना चाहिये । यह सब प्रमाण श्री. ठक्कर के लिये पर्याप्त ही थे ।
फिर शामा ने बाबा से परिचय कराय कि आप ही काका के सेठ है । बाबा कहने लगे किये उनके सेठ कैसे हो सकते है । इनके सेठ तो बड़े विचित्र है । काका इस उत्तर से सहमत हो गये । अपनी हठ छोड़कर ठक्कर ने बाबा को प्रणाम किया और वाड़े को लौट आये । मध्याह की आरती समाप्त होने के उपरान्त वे बाबा से प्रस्थान करने की अनुमति प्राप्त करने के लिये मसजिद में आये । शामा ने उनकी कुछ सिफारिश की, तब बाबा इस प्रकार बोले :-
एक सनकी मस्तिष्क वाला सभ्य पुरुष था, जो स्वस्थ और धनी भी था । शारीरिक तथा मानसिक व्यथाओं से मुक्त होने पर भी वह स्वतःही अनावश्यक चिंताओं में डूबा रहता और व्यर्थ ही यहाँ-वहाँ भटक कर अशान्त बना रहता था । कभी वह स्थिर और कभी चिन्तित रहता था । उसकी ऐसी स्थिति देखकर मुझे दया आ गई और मैने उससे कहा कि कृपया अब आप अपना विश्वास एक इच्छित स्थान पर स्थिर कर लें । इस प्रकार व्यर्थ भटकने से कोई लाभ नहीं ।
शीघ्र ही एक निर्दिष्ट स्थान चुन लो – इन शब्दों से ठक्कर की समझ में तुरन्त आ गया कि यह सर्वथा मेरी ही कहानी है । उनकी इच्छा थी कि काका भी हमारे साथ ही लौटें । बाबा ने उनका ऐसा विचार जानकर काका को सेठ के साथ ही लौटने की अनुमति दे दी । किसी को विश्वसा न था कि काका इतने शीघ्र शिरडी से प्रस्थान कर सकेंगे । इस प्रकार ठक्कर को बाबा की विचार जानने की कला का एक और प्रमाण मिल गया ।
तब बाबा ने काका से 15 रुपये दक्षिणा माँगी और कहने लगे कि यदि मैं किसी से एक रुपया दक्षिणा लेता हूँ तो उसे दसगुना लौटाया करता हूँ । मैं किसी की कोई वस्तु बिना मूल्य नहीं लेता और न तो प्रत्येक से माँगता हूँ । जिसकी ओर फकीर (मेरे गुरु) इंगित करते है, उससे ही मैं माँगता हूँ और जो गत जन्म का ऋणी होता है, उसकी ही दक्षिणा स्वीकार हो जाती है । दानी देता है और भविष्य में सुन्दर उपज का बीजारोपण करता है । धन का उपयोग धनोर्पाजन के ही निमित्त होना चाहिये । यदि धन व्यक्तिगत आवश्यकताओं में व्यय किया गया तो यह उसका दुरुपयोग है । यदि तुमने पूर्व जन्मों में दान नहीं दिया है तो इस जन्म में पाने की आशा कैसे कर सकेत हो । इसलिये यदि प्राप्ति की आशा रखते हो तो अभी दान करो । दक्षिणा देने से वैराग्य की वृद्घि होती है और वैराग्य प्राप्ति से भक्ति और ज्ञान बढ़ जाते है । एक दो और दस गुना लो ।
इन शब्दों को सुनकर श्री. ठक्कर ने भी अपना संकल्प भूलकर बाब को 15 रुपये भेंट किये । उन्होंने सोचा कि अच्छा ही हुआ, जो मैं शिरडी आ गया । यहाँ मेरे सब सन्देह नष्ट हो गये और मुझे बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त हो गई ।
ऐसे विषयों में बाबा की कुशलता बड़ी अद्घितीय थी । यघपि वे सब कुछ करते थे, फिर भी वे इन सबसे अलिप्त रहते थे । नमस्कार करने या न करने वाले, दक्षिणा देने या न देने वाले, दोनों ही उनके लिये एक समान थे । उन्होंने कभी किसी का अनादर नहीं किया । यदि भक्त उनका पूजन करते तो इससे उन्हें कोई प्रसन्नता होती और यदि कोई उनकी उपेक्षा करता तो न कोई दुःख ही होता । वे सुख और दुःख की भावना से परे हो चुके थे ।

अनिद्रा
बान्द्रा के एक महाशय कायस्थ प्रभु बहुत दिनों से नींद न आने के कारण अस्वस्थ थे । जैसे ही वे सोने लगते, उनके स्वर्गवासी पिता स्वप्न में आकर उन्हें बुरी तरह गालियाँ देते दिखने लगते थे । इससे निद्रा भंग हो जाती और वे रात्रिभर अशांति महसूस करते थे । हर रात्रि को ऐसी ही होता था, जिससे वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गये । एक दिन बाब के एक भक्त से उन्होंने इस विषय मे परामर्श किया । उसने कहा कि मैं तो संकटमोचन सर्व-पीड़ा-निवारिणी उदी को ही इसकी रामबाण औषधि मानता हूँ, रजो शीघ्र ही लाभदायक सिदृ होगी । उन्होंने एक उदी की पुड़िया देकर कहा कि इसे शयन के पूर्व माथे पर लगाकर अपने सिरहाने रखो । फिर तो उन्हें निर्विघ्र प्रगाढ़ निद्रा आने लगी । यह देखकर उन्हें महान् आश्चर्य और आनन्द हुआ । यह क्रम चालू रखकर वे अब साईबाबा का ध्यान करने लगे । बाजार से उनका एक चित्र लाकर उन्होंने अपने सिरहाने के पासा लगाकर उनका नित्य पूजन करना प्रारम्भ कर दिया । प्रत्येक गुरुवार को वे हार और नैवेघ अर्पण करने लगे । वे अब पूर्ण स्वस्थ हो गये और पहले के सारे कष्टों को भूल गये ।

बालाजी पाटील नेवासकर
ये बाबा के परम भक्त थे । ये उनकी निष्काम सेवा किया करते थे । दिन में जिन रास्तों से बाबा निकलते थे, उन्हें वे प्रातःकाल ही उठकर झाडू लगाकर पूर्ण स्वच्छ रखते थे । इनके पश्चात यह कार्य बाबा की एक परमभक्त महिला राधाकृष्ण माई ने किया और फिर अब्दुल ने । बालाजी जब अपनी फसल काटकर लाते तो वे सब अनाज उन्हें भेंट कर दिया करते थे । उसमें से जो कुछ बाबा उन्हें लौटा देते, उसी से वे अपने कुटुम्ब का भरणपोषण किया करते थे, यह क्रम अनेक वर्षों तक चला और उनकी मृत्यु के पश्चात भी उनके पुत्र ने इसे जारी रखा ।

उदी की शक्ति और महत्व
एक बार बालाजी के श्रादृ दिवस की वार्षकी (बरसी) के अवसर पर कुछ व्यक्ति आमंत्रित किये गये । जितने लोगों के लिये भोजन तैयार किया गया, उससे कहीं तिगुने लोग भोजन के समय एकत्रित हो गये । यह देख श्रीमती नेवासकर किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई । उन्होंने सोचा कि यह भोजन सबके लिये पर्याप्त न होगा और कहीं कम पड़ गया तो कुटुम्ब की भारी अपकीर्ति होगी । तब उनकी सास ने उनसे सांत्वना-पूर्ण शब्दों में कहा कि चिन्ता न करो । यह भोजन-सामग्री हमारी नही, यह तो श्री साईबाबा की है । प्रत्येक बर्तन में उदी डालकर उन्हें वस्त्र से ढँक दो और बिना वस्त्र हटाये सबको परोस दो । वे ही हमारी लाज बचायेंगे । परामर्श के अनुसार ही किया गया । भोजनार्थियों के तृप्तिपूर्वक भोजन करने के पश्चात् भी भोजन सामग्री यथेष्ठ मात्रा मे शेष देखकर उन लोगों को महान् आश्चर्य और प्रसन्नता हुई । यथार्थ में देखा जाये तो जैसा जिसका भाव होता है, उसके अनुकूल ही अनुभव प्राप्त होता है । ऐसी ही घटना मुझे प्रथम श्रेणी के उपन्यायाधीश तथा बाबा के परम भक्त श्री बी.ए. चौगुले ने बतलाई । फरवरी, सन् 1943 में करजत (जिला अहमदनगर) में पूजा का उत्सव हो रहा था, तभी इस अवसर पर एक बृहत् भोज का आयोजन हुआ । भोजन के समय आमंत्रित लोगों से लगभग पाँच गुने अधिक भोजन के लिये आये, फिर भी भोजन सामग्री कम नहीं हुई । बाबा की कृपा से सबको भोजन मिला, यह देख सबको आश्चर्य हुआ ।

साईबाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना
शिरडी के रघु पाटील एक बार नेवासे के बालाजी पाटील के पास गये, जहाँ सन्ध्या को उन्हें ज्ञात हुआ कि एक साँप फुफकारता हुआ गौशाला में घुस गया है । सभी पशु भयभीत होकर भागने लगे । घर के लोग भी घबरा गये, परन्तु बालाजी ने सोचा कि श्रीसाई ही इस रुप में यहाँ प्रगट हुए है । तब वे एक प्याले में दूध ले आये और निर्भय होकर उस सर्प के सम्मुख रखकर उनको इस प्रकार सम्बधित कर कहने लगे कि बाबा । आप फुफकार कर शोर क्यों कर रहे है । क्या आप मुझे भयभीत करना चाहते है । यह दूध का प्याला लीजिये और शांतिपूर्वक पी लीजिये । ऐसा कहकर वे बिना किसी भय के उसके समीप ही बैठ गये । अन्य कुटुम्बी जन तो बहुत घबड़ा गये और उनकी समझ में न आ रहा था कि अब वे क्या करें । थोड़ी देर में ही सर्प अदृश्य हो गया और किसी को भी पता न चला कि वह कहाँ गया । गोशाला में सर्वत्र देखने पर भी वहाँ उसका कोई चिन्हृ न दिखाई दिया ।
एक ऐसी ही घटना साई-साधु-सुधा (भाग 3 नं. 7-8, जनवरी 43, पृष्ठ 26) में प्रकाशित है कि बाबा कोयंबटूर (दक्षिण भारत) में 7 जनवरी, सन् 43 गुरुवार की सन्ध्या को साढ़े तीन बजे सर्प के रुप में प्रगट हुए, जहाँ उस सर्प ने भजन सुनकर दूध और फूल स्वीकार किये तथा हजारों लोगों की भीड़ को दर्शन देकर अपनी फोटो भी उतारने दिया । फोटो उतारते समय, बाबा का चित्र भी उसके समीप रखकर दोनों की ही फोटो उतारी गई । चित्र और अन्य ववरण के लिये पाठकों से प्रार्थना है कि वे उपयुक्त पत्रिका का अवश्य अवलोकन करें ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।