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Friday, 24 May 2024

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण

श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे| किसी भी अवस्था में भगवान श्रीराम का वियोग इन्हें सहा नहीं था| इसलिये ये सदैव छाया की भाँति श्रीराम का ही अनुगमन करते थे| श्रीराम के चरणों की सेवा ही इनके जीवन का मुख्य व्रत था| श्रीराम की तुलना में संसार के सभी सम्बन्ध इनके लिये गौण थे| इनके लिये श्रीराम ही माता-पिता, गुरु, भाई सब कुछ थे और उनकी आज्ञा का पालन ही इनका मुख्य धर्म था| इसलिये जब भगवान श्रीराम विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिये गये तो लक्ष्मण जी भी उनके साथ गये| भगवान श्रीराम जब सोने जाते थे तो ये उनका पैर दबाते और भगवान के बार-बार आग्रह करने पर ही स्वयं सोते तथा भगवान् के जागने के पूर्व ही जाग जाते थे| अबोध शिशु की भाँति इन्होंने भगवान श्रीराम के चरणों को ही दृढ़ता पूर्वक पकड़ लिया और भगवान ही इनकी अनन्य गति बन गये| भगवान श्रीराम के प्रति किसी के भी अपमान सूचक शब्द को ये कभी बरदाश्त नहीं करते थे| जब महाराज जनक ने धनुष के न टूटने के क्षोभ में धरती को वीर-विहीन कह दिया, तब भगवान के उपस्थित रहते हुए जनकजी का यह कथन श्रीलक्ष्मण जी को बाण-जैसा लगा| ये तत्काल कठोर शब्दों में जनकजी का प्रतिकार करते हुए बोले - 'भगवान श्रीराम के विद्यमान रहते हुए जनक ने जिस अनुचित वाणी का प्रयोग किया है, वह मेरे हृदय में शूल की भाँति चुभ रही है| जिस सभा में रघुवंश का कोई भी वीर मौजूद हो, वहाँ इस प्रकार की बातें सुनना और कहना उनकी वीरता का अपमान है| यदि श्रीराम आदेश दें तो मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठा सकता हूँ, फिर जनक के इस सड़े धनुष की गिनती ही क्या है|' इसी प्रकार जब श्री परशुराम जी ने धनुष तोड़ने वाले को ललकारा तो ये उनसे भी भिड़ गये|

भगवान श्रीराम के प्रति श्रीलक्ष्मण की अनन्य निष्ठा का उदाहरण भगवान के वनगमन के समय मिलता है| ये उस समय देह-गेह, सगे-सम्बन्धी, माता और नव-विवाहिता पत्नी सबसे सम्बन्ध तोड़कर भगवान के साथ वन जाने के लिये तैयार हो जाते हैं| वन में ये निद्रा और शरीर के समस्त सुखों का परित्याग करके श्रीराम-जानकी की जी-जान से सेवा करते हैं| ये भगवान की सेवा में इतने मग्न हो जाते हैं कि माता-पिता, पत्नी, भाई तथा घर की तनिक भी सुधि नहीं करते|

श्रीलक्ष्मण जी ने अपने चौदह वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य और अद्भुत चरित्र-बल पर लंका में मेघनाद-जैसे शक्तिशाली योद्धा पर विजय प्राप्त किया| ये भगवान की कठोर-से-कठोर आज्ञा का पालन करने में भी कभी नहीं हिचकते| भगवान की आज्ञा होने पर आँसुओं को भीतर-ही-भीतर पीकर इन्होंने श्रीजानकी जी को वन में छोड़ने में भी संकोच नहीं किया| इनका आत्मत्याग भी अनुपम है| जिस समय तापस वेशधारी कालकी श्रीराम से वार्ता चल रही थी तो द्वारपाल के रूप में उस समय श्रीलक्ष्मण ही उपस्थित थे| किसी को भीतर जाने की अनुमति नहीं थी| उसी समय दुर्वासा ऋषिका आगमन होता है और वे श्रीराम का तत्काल दर्शन करने की इच्छा प्रकट करते हैं| दर्शन न होने पर वे शाप देकर सम्पूर्ण परिवार को भस्म करने की बात करते हैं| श्रीलक्ष्मणजी ने अपने प्राणों की परवाह न करके उस समय दुर्वासा को श्रीराम से मिलाया और बदले में भगवान से परित्याग का दण्ड प्राप्तकर अद्भुत आत्मत्याग किया| श्रीराम के अनन्य सेवक श्रीलक्ष्मण धन्य हैं|