शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)

Sunday, 31 July 2022

मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में

ॐ सांई राम


मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में
दया कर ओ  साईं बिगड़ी मेरी बना दे


लीला तेरी है न्यारी ओ विश्व के विधाता
कोई न जान पाया जीवन मरण का नाता
तू है अन्तर्यामी तू है मेरा दाता
मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में

तेरे बिना ये धरती उजड़ा चमन है साईं
तेरे बिना ये जीवन अज्ञान की है खाई
त्रिलोक के हो स्वामी मेरे भाग तू जगा दे
मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में

साईं तू अमर है कभी न मिटने वाला
रस, रंग, गंध जीवन सब तुझ में ही समाया
ये आत्मा की शान्ति तेरे चरण मैं पाऊँ
मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में

मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में 

दया कर ओ  साईं बिगड़ी मेरी बना दे 
मन में उमंग ले के आया तेरी शरण में

आप सभी से अनुरोध है कि कृपा करके परिन्दो-चरिन्दो को भी उत्तम भोजन एवम पेय जल प्रदान करे, आखिर उनमे भी तो साई जी ही समाये है।
बाबा जी ने स्वयं इस बात की पुष्टि की है कि मुझे सभी जीवो में देखो।

Saturday, 30 July 2022

साईं तू सबसे है जुदा

ॐ सांई राम


साईं तू सबसे है जुदा
है जुदा, है जुदा, है जुदा
हुआ हुआ हुआ मै हुआ
दीवाना साईं का हुआ
साईं तू सबसे है जुदा

साईं मेरी दीवानगी
साईं मेरी मस्तानगी
तुझपे कुरबां ईमान भी
तुझपे कुरबां हैं जान भी
साईं तू मेरा है खुदा
साईं तू सबसे है जुदा

साईं मैं तुझको देखकर
सारे जग से हूँ बेखबर
तेरे कदमों को चूमकर
तेरी मस्ती में झूमकर`
मस्ताना तेरा मै हुआ
साईं तू सबसे है जुदा

हैरान हूँ तेरी नेमतों पे हे खुदा
पत्थरों में भी परवरिश तू करता है
अमीरों से कराता परहेज़-ए-अन्न
और गरीब को भूख से तड़पाता है

आप सभी से अनुरोध है कि कृपा करके परिन्दो-चरिन्दो को भी उत्तम भोजन एवम पेय जल प्रदान करे, आखिर उनमे भी तो साई जी ही समाये है।
बाबा जी ने स्वयम इस बात की पुष्टि की है कि मुझे सभी जीवो में देखो।

Friday, 29 July 2022

मेरे साईं के कारण ही इस जग में उजाला है

ॐ सांई राम


संसार के संतों से
मेरा साईं निराला है
मेरे साईं के कारण ही
इस जग में उजाला है

जब जीव कोई राये
मेरा साईं रोता है
जब भक्त हो कष्टों में
दर्द साईं को होता है
कोई समझ नहीं पाया
ये खेल निराला है
मेरे साईं के कारण ही
इस जग में उजाला है
कहने को सभी कहते
हर जीव में भगवन है
पर साईं का जीवन तो
सबके लिए अर्पण है
जिस थाल में वो खाते
वहीँ सबका निवाला है
मेरे साईं के कारण ही
इस जग में उजाला है
चाहे संत हो या मौला
सब संग्रह करते हैं
सब कल की चिंता में
धन दौलत भरते हैं
मेरे साईं ने फकीरी में
सारा जीवन निकाला है
मेरे साईं के कारण ही
इस जग में उजाला है

आप सभी से अनुरोध है कि कृपा करके परिन्दो-चरिन्दो को भी उत्तम भोजन एवम पेय जल प्रदान करे, आखिर उनमे भी तो साई जी ही समाये है। बाबा जी ने स्वंयम इस बात की पुष्टि की है कि मुझे सभी जीवो में देखो।

Thursday, 28 July 2022

श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 16/17

 ॐ सांँई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की और से साँईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साँईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साँईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साँईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साँईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा | किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साँईं चरणों में क्षमा याचना करते है |


श्री साँई सच्चरित्र - अध्याय 16/17
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शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति
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इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था , उसका वर्णन हैं ।
पूर्व विषय
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गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं । उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी । पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे । और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे । यथार्थ में देखा जाय तो सद्गगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है । उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती । जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान - प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढय व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया , उसे अब श्रवण करें ।
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एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था । उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी । जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है । उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है । तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता । अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे । साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ । मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ । यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा । बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र । इतने अधीर न होओ । मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा । मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता । इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है । ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो । भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं । मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है । मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा । यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये । उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा । लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है । फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा । इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा । इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला । हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी । और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया । उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी । वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है । यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था । ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गडडियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते । जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते । वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे । यघपि बाबा द्घारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका । पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं । यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता । परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी । उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा । कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो । बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र । क्या  इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया । मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था । संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं-

1. पाँच प्राण
2. पाँच इन्द्रयाँ
3. मन
4. बुद्घि तथा
5. अहंकार ।

यह हुआ ब्रहृज्ञान । आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना । श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –
ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ
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सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते । उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है ।

1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कणठा)
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जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूं और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्ये की प्राप्ति क लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है ।

2. विरक्ति
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लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।

3. अन्तमुर्खता
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ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है । हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये ।

4. पाप से शुद्घि
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जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता ।

5. उचित आचरण
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जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं ।

6. सारवस्तु ग्रहण करना
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दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य । पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सासारिक विषयों से । मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है । उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है । विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है ।

7. मन और इन्द्रयों का निग्रह
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शरीर एक रथ हैं । आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्घि सारथी हैं । मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े । इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है । जो अल्प बुद्घि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है । परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता । जो व्यक्ति अपनी बुद्घि द्घारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है ।

8.मन की पवित्रता
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जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्घि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है । विशुदृ मनव में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है । अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है । विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है । यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है । यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो ।

9. गुरु की आवश्यकता
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आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसककी प्राप्ति संभव नहीं । इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है । अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पग आध्यात्मिक उन्नति करा सकता है ।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।
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जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है । यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विघाओं और बुद्घि द्घारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्घारा ही । इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है ।





बाबा का उपदेश
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जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय । आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये । उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे । बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे । तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो । जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते । जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है । आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है । जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है । तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है । अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है ।

तुलसीदास जी कहते है –
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जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।
जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान कीगुंजाइश ही नहीं है । फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है । लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है । यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी । एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इछ्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ । वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता । जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है । इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्घिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये । मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है । जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा । इस मसजिद में बैठकर मैं कभी  असत्य भाषण नहीं करता । जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है । बाबा द्घारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे । बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये ।


बाबा का वैशिष्टय
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ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है । वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है । श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे । यघपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे । वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे । इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे । ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें । श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है - वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

प सभी से अनुरोध है कि कृपा करके परिन्दो-चरिन्दो को भी उत्तम भोजन एवम पेय जल प्रदान करे, आखिर उनमे भी तो साई जी ही समाये है।

बाबा जी ने स्वयं इस बात की पुष्टि की है कि मुझे सभी जीवो में देखो।

Wednesday, 27 July 2022

तू तो दाता सभी का है साईं

ॐ सांई राम



तू तो दाता सभी का है साईं
तू तो दाता सभी का है साईं
गर मैने भी मांग लिया
बता क्या गुनाह किया


तेरी शिर्डी में जो जो भी जाये
झोलियाँ भर के वो ले जाये
दिखता है फकीर तू साईं
पर सभी को तो तुने दिया
गर मैने भी मांग लिया
बता क्या गुनाह किया

श्रद्धा सबुरी जो मन में जगाए
भव सागर से वो तर जाये
मैंने भी तेरे नाम का साईं
अपने मन में जलाया दिया
गर मैंने भी मांग लिया
बता क्या गुनाह किया

तुझमे देखूं सभी देवी देवा
मै तो करता सदा तेरी सेवा
सब अर्पण किया तुझको साईं
फिर रहम क्यूँ  मुझपे किया
गर मैंने भी मांग लिया
बता क्या गुनाह किया

Tuesday, 26 July 2022

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

ॐ सांई राम


गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तेरे दर पे निछावर ये जीवन करूँ

साईं हर पल मै तेरा ही दर्शन करूँ

जो भी करता सदा है इबादत तेरी

जिंदगी की कोई राह खोती नहीं

तुने भक्तों को तारा हमेशा साईं

क्यों नज़र मुझपे रहमत की होती नहीं

तेरी नज़र-ए-इनायत हो साईं अगर

साईं हर पल मै तेरा ही ध्यान करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

मैंने हर सांस मे साईं चाहा यही

तेरे चरणों की धूल मे मिल जाऊं मै

गर जुबां मेरी यूँ ही सलामत रहे

साईं जीवन मे तेरे ही गुण गाऊँ मै

तेरे नाम का सहारा लेकर जीउँ

तेरी चौखट पे ही आखिरी दम भरूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

साईं सुन लो ये छोटी सी ख्वाहिश मेरी

मुझे इन्सां बनाना हर इक मोड़ पर

हर बार तू ही पिता हो मेरा

कभी जाना ना साईं मुझे छोड़ कर

हर जनम मे मै साईं तेरा भक्त बनूँ

और हर बार तेरी ही सेवा करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तुमने अंधों को नैन दिए हैं प्रभु

तुमने निर्धन को साईं धन है दिया

उसकी काया को कंचन किया है प्रभु

जिसने हर पल मे तेरा ही नाम लिया

ऐसे देवादि देव का मैं दर्शन करूँ

साईं तुझको ही दिन रात नमन मैं करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

माँ बायजा का भाग्य जगाया प्रभु

उनकी सेवा को तुमने स्वीकार किया

उनकी ममता मे भक्ति जगाकर प्रभु

उनकी श्रद्धा को अंगीकार किया

ऐसे संत को नित नित प्रणाम करूँ

अपने जीवन का साईं उद्धार करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तुमने शामा को जीवन का दान दिया

ज़हर सांप का तन से उतार दिया

तात्या को अपनी आयु देकर

क़र्ज़ ममता का तुमने अतार दिया

तेरे यश का मै किस विध बखान करूँ

तेरी ममता को हर पल प्रणाम करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

अपने चरणों से गंगा प्रवाहित करके

तुमने विष्णु का रूप दिखाया प्रभु

दास गणु ने गंगा नहा कर के

अपने मन मै तुम्ही को बसाया प्रभु

ऐसे अमृत का नित नित मै पान करूँ

साईं तेरा ही हर पल मै ध्यान करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

साईं मेघा को शिव जी के दरस दिए

उसकी सेवा को निस दिन स्वीकार किया

अपने हाथों से अंतिम विदाई देकर

भक्त का साईं तुमने उद्धार किया

ऐसे स्वामी की दिन रैन सेवा करूँ

साईं पल पल मै तेरा ही वंदन करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

माँ लक्ष्मी को साईं नौ सिक्के दिए

नवदा भक्ति का ज्ञान उनको दिया

कशी राम के प्राणों की रक्षा जो की

साईं तुमने उसे भय मुक्त किया

ऐसे रक्षक के चरणों मै शीश धरूँ

अपने मन को मै साईं जी शुद्ध करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

जिस नीम की छांव में परगट हुए

उस नीम को मीठा किया है प्रभु

अपने क़दमों से साईं प्रभु तुमने

शिर्डी धाम को पावन किया है प्रभु

शिर्डी धाम का जब जब मै दर्शन करूँ

चारों धाम का ही वहां दर्शन करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

म्हालसापति जी की सेवा जो ली

उनका जन्म ही तुमने संवार दिया

उनकी नैया को अपना सहारा देकर

भव सागर से नैया को पार किया

ऐसे स्वामी की नित नित मै सेवा करूँ

ऐसे साईं को मन मे मैं धारण करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

कोढ़ी को भी गले से लगाकर प्रभु

उसकी सेवा को तुमने स्वीकारकिया

उससे ज़ख्मों की सेवा लेकर प्रभु

अपने ही जन्म का यूँ उद्धार किया

ऐसे मालिक की निश दिन मै सेवा करूँ

ऐसे साईं की मूरत मै मन में धरूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

नन्ही सी जान को यूँ बचाया प्रभु

अपने हाथों को अग्नि में झोंक दिया

जब बढ़ती गयी धुनी में आग तो

अपना सटका बजा कर ही रोक दिया

ऐसे साईं पिता का मै वंदन करूँ

ऐसे साईं का शत शत नमन मै करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तेरी शिर्डी मे जो भी है आता प्रभु

उसकी आपद को दूर भगाता प्रभु

चढ़ गया जो समाधि की सीढ़ी प्रभु

उसके दुखों को हर लेता साईं प्रभु

ऐसे देवों के देव का सुमिरन करूँ

ऐसे साईं का हर पल मै ध्यान करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तुने देह को त्यागा है बेशक प्रभु

भक्त हेतु सदा दौड़ा आता है तू

मन में रखता है जो भी विश्वास प्रभु

करता है उसकी पूरी वो आस प्रभु

ऐसे साईं की रहमत को नमन करूँ

ऐसे साईं के चरणों में शीश धरूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

जो भी जाने है तुझको जीवित प्रभु

उन्हें सत्य का होता है अनुभव प्रभु

तेरी शरण में आता सवाली अगर

उसकी झोली सदा ही तू भरता प्रभु

ऐसे दानी का शत शत नमन मै करूँ

ऐसे साईं पे वारी ये जीवन करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

जैसा भाव रहा जिस मन का प्रभु

वैसा रूप हुआ तेरे मन का प्रभु

तुने भार सभी का है ढोया प्रभु

तुने सत्य वचन कर दिखाया प्रभु

ऐसे साईं में लीन मै मन को करूँ

ऐसे साईं का नित नित मै पूजन करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

जिसने मांगी मदद साईं तुझसे प्रभु

उसने पाया है साईं सहारा प्रभु

जो भी लीन हुआ मन वचन से प्रभु

उसकी नैया ने पाया किनारा प्रभु

साईं नाम की नाव में मै पाँव धरूँ

इस भव से मै नैया को पार करूँ

गर मुझे अपने चरणों की छाँव में रखो

मैं तो दिन रात तेरी ही सेवा करूँ

तुम तो आये कभी राम बन के साईं

कभी मुरली मनोहर का रूप धरा

मै भी आया हूँ साईं दर पे तेरे

कभी दर्शन मुझे भी तो दे दो ज़रा

तेरे दर्शन का साईं इंतज़ार करूँ

तेरे वचनों पे में ऐतबार करूँ

जब मश्जिद में साईं अँधेरा हुआ

तुमने पानी से दीपक जलाये साईं

उसने पाई सदा साईं रहमत तेरी

जिसने दीपक ह्रदय में जलाये साईं

ऐसे दीपक सदा में जलाया करूँ

साईं दर्शन में तेरा ही पाया करूँ

जब घेरा था महामारी ने शिर्डी को

तब तुम्ही ने बचाया था सबको साईं

तुमने हाथों से अपने जो पीसी गेहूं

वो ही भक्तों की रक्षक बनी थी साईं

ऐसा लीला को कैसे बयां में करूँ

लीला धारी को पल पल नमन मै करूँ

जिसने मांगी थी संतान तुझसे अगर

उसको आशीष देकर नवाज़ा साईं

तुने भेंट में लेकर बस इक नारियल

सारा जीवन ख़ुशी से सजाया साईं

ऐसे दानी का साईं में वंदन करूँ

विष्णु साईं को हर पल नमन मै करूँ

जब मिथ्या गुरु आये जोहर अली

और ठगने लगे शिर्डी वासियों को

उसके चंगुल से तुमने बचाए सभी

भोले भाले सभी शिर्डी वासियों को

ऐसे साईं को पल पल नमन मैं करूँ

साईं चरणों की नित नित मैं सेवा करूँ

भक्त नानावाली हुए जब बेचैन तो

खुजली से थे हुए परेशां वो साईं

उसकी कर ली हरण बेचैनी तुमने

अपनी गादी पे उसको बिठाकर साईं

ऐसे वेदों के वैद को नमन मै करूँ

ऐसे साईं को हर पल नमन मै करूँ

अपने भक्तों की खातिर तुमने साईं

सबके कष्टों को खुद पे सहन था किया

खुद पहनी थी तुमने कफनी साईं

जिसने माँगा उसे सभी कुछ था दिया

ऐसे दाता का हर पल नमन मै करूँ

ऐसे साईं का मै अभिनन्दन करूँ

दत्त दिगंबर हे साईं दयाल

तुम तो जगत के हो पालनहार

बस में साईं तुमरे है सब संसार

शरणागत के तुम तो हो प्राण आधार

उस कलयुग अवतारी का वंदन करूँ

ऐसे साईं का पल पल भजन मै करूँ

बंसी धारी तुम्ही तो हो मोहन साईं

जटाधारी तुम्ही भोले साईं तुम्ही

मन वचन से जो फ़र्ज़ निभाते हो तुम

ऐसे रघुकुल के हो राम साईं तुम्ही

ऐसे ब्रह्मा स्वरुप को नमन मैं करूँ

ऐसे साईं स्वरुप को नमन मैं करूँ

था दुखी क्षयरोग से बंदा साईं

भक्त भीमाजी के रोग को हर लिया

उदी को औषधि रूप देकर साईं

साईं तुमने नया उसको जीवन दिया

दुःख हरता का पल पल मैं वंदन करूँ

ऐसे साईं को चित्त में सदा मैं धरूँ

तुमने विठल का रूप दिखाकर साईं

काका जी के जीवन को धन्य किया

दामू अन्ना को पुत्र का धन देकर

उसके जीवन को था संतुष्ट किया

ऐसे साईं के चरणों में मस्तक धरूँ

ऐसे साईं को सब कुछ में अर्पण करूँ

चाँद भाई की घोड़ी दिलाकर साईं

उसको उलझन से तुमने निकाला साईं

पशु पक्षी से इतना तुम्हे प्रेम था

अपने हाथों से देते निवाला साईं

सभी जीवों के पलक का वंदन करूँ

साईं बारम्बार नमन मैं करूँ

कैसे गुणगान साईं मै तेरा करूँ

बुद्धि हीन हूँ साईं मै नादान हूँ

तुम तो दीन दयाल हो दाता साईं

मैं तो भूला भटका अनजान हूँ

अब करो मुझ पर भी कृपा तुम साईं

तेरे चरणों मै ही मैं तो बिनती करूँ

सुबह शाम जो भजता है तुमको साईं

उसका देते हो साथ सदा तुम साईं

दृढ भक्ति से गुणगान करता है जो

देते हैं उसको ही तो परम पद साईं

ऐसे मुक्ति के दाता का भजन करूँ

ऐसे साईं का निशदिन मैं नमन करूँ

तुम दयावान हो मेरे साईं सखा

मुझ पर भी दया तुम कर दो साईं

अपने चरणों में स्थान देकर मुझे

तोड़ दो मोह बंधन मेरे तुम साईं

सदा मुक्ति के मार्ग पे चलता रहूँ

तेरे चरणों की साईं मै सेवा करूँ

सुना है कृपावान हो तुम साईं

दीन हीनों पे करते कृपा हो साईं

मैं भी तो दीन हीन हूँ मेरे प्रभु

मुझपे नज़र -ए -इनायत हुई ना साईं

ऐसे कृपावान साईं को मै भजूँ

ऐसे साईं जी के मैं तो चरणन पडूँ

जिस पर भी हो साईं की रहम -ओ -नज़र

आसां होती है उसके जीवन की डगर

पाता है वो मुरादें तमाम उम्र

श्रद्धा सबुरी का पालन करे जो अगर

ऐसे दीन - ए -इलाही की हमद मै करूँ

श्रद्धा सबुरी का पालन सदा मै करूँ

अनंत कोटि हो ब्रह्माण्ड नायक साईं

तुम्ही राजाधिराज योगी राज साईं

तुम्ही परब्रह्म सच्चिदानंद साईं

तुम्ही सदगुरु श्री साईं नाथ साईं

ऐसे साईं की जय ही मै बोला करूँ

ऐसे साईं को जीवन मै अर्पण करूँ

तुमने रूप फकीरों का साईं धारा

कफनी थी सिर्फ एक तेरी साया साईं

शहंशाहों के थे शहंशाह तुम

फिर भी कंधे पे झोली लटकाई साईं

ऐसे रूप का साईं मै तो वंदन करूँ

ऐसे मोहन साईं मै दर्शन करूँ

हे जीवों को सुख देने वाले साईं

अपने चरणों मै मुझको भी तुम स्थान दो

इन चरणों के ध्यान मै लीन रहूँ

प्रभु मुझको भी ऐसा ही वरदान हो

आरती साईं तेरी मैं मन में करूँ

साईं चन्दन से श्रृंगार तेरा करूँ

हर गुरूवार को तेरे द्वारे आऊं

अपने मन से पापों को दूर करूँ

तेरे चरणों की छाया में हर पल रहूँ

इस जीवन को साईं सफल मै करूँ

जब बुलाओ तो शिर्डी मै जाया करूँ

धूल चरणों की मस्तक लगाया करूँ

तुमने लाखों को तारा है जग से प्रभु

मेरी नैया को भी पार कर दो साईं

मैं भी उम्मीद लेकर ये आया प्रभु

मेरे दमन को भी अब भर दो साईं

साईं मेरी है बस इक यही आरजू

तेरे दर पे जियूं तेरे दर पे मरुँ