शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Monday 31 May 2021

True Nobility

 ॐ सांई राम




True Nobility

Who does his task from day to day
And meets whatever comes his way,
Believing God has willed it so,
Has found real greatness here below.
Who guards his post, no matter where,
Believing God must need him there,
Although but lowly toil it be,
Has risen to nobility.
For great and low there's but one test
'Tis that each man shall do his best.
Who works with all the strength he can
Shall never die in debt to man.

The Oyster

There once was an Oyster whose story I tell,
Who found that some sand was inside his shell
Just one little grain, but it gave him great pain!
For oysters have feelings, though they all seem so plain.
Now did he berate the working so fate.
Which had led him to such a deplorable state?
Did he curse out the government - call for an election,
And cry that the sea "should have given protection?"
No! He said to himself as he lay on the shelf,
"Since I cannot remove it, I'll try to improve it."
The years rolled along, as the years always do,
And he came to his ultimate destiny - stew!
And the small grain of sand that had bothered him so,
Was a beautiful pearl, all richly aglow!
The tale has a moral, for isn't it grand.
What an oyster can do with a morsel of sand?
What couldn't I do if I'd only begin,
With all those things that "get under my skin!"

At Day's End

"Is anybody happier because you passed his way?
The day is almost over and its toiling is through;
Is there anyone to utter now a kindly word to you?
Does anyone remember that you spoke to him today?
Can you say tonight, in parting with the day that's slipping fast.
That you helped a single brother of the many that you passed?
Did you waste the day, or lose it?
Was it well or sorely spent?
Is a single heart rejoicing over what you did or said?
Does, the man whose hopes were fading now with courage look ahead?
Did you leave a trail of kindness, or a scar of discontent?
As you close your eyes in slumber, do you think that God will say, you have earned one more tomorrow by the work you did today?'

Sunday 30 May 2021

गजिन्द्र हाथी

 ॐ श्री साँई राम जी



गजिन्द्र हाथी

एक निमख मन माहि अराधिओ गजपति पारि उतारे ||


सतिगुरु अर्जुन देव जी महाराज बाणी में फरमाते हैं कि हाथी एक पल प्रभु का सिमरन किया तो उसकी जान बच गई| परमेश्वर के नाम की ऐसी महिमा है| पशु-पक्षी जो भी नाम सिमरन करता है उसका जीवन सफल हो जाता है| गजपति (हाथी) दुःख-पीड़ा से व्याकुल था| उसकी चिल्लाहट ने जब कुछ भी न संवारा तो उसने भक्ति और परमात्मा की तरफ ध्यान किया| उसी समय परमात्मा अपनी शक्ति के साथ उसकी सहायता हेतु आ गए| उस हाथी को तेंदुए ने पकड़ रखा था और उसे पानी से बाहर नहीं आने दे रहा था|

हे जिज्ञासु जनो! एकाग्रचित होकर कथा सुनो कि किस तरह हाथी के बंधन मुक्त हो गए| महाभारत के अनुसार कथा इस प्रकार है -

होता एवं ब्रह्मा दो भाई हुए हैं| वह दोनों परमात्मा का सिमरन किया करते थे और इकट्ठे ही रहते थे| एक दिन दोनों सलाह-मशविरा करके एक राजा के पास दक्षिणा लेने गए|

यह मालूम नहीं, क्यों?

किसी कारण या स्वाभाविक ही भाई होता को दक्षिणा ज्यादा मिली तथा ब्रह्मा को कम| ब्रह्मा ने सोचा कि मुझे कम दक्षिणा मिली है तो भाई को ज्यादा, बराबर-बराबर करनी चाहिए| उसने शीघ्र ही सारी दक्षिणा मिला कर एक समान कर दी| उसके दो हिस्से करके भाई को कहने लगा - 'उठा ले एक हिस्सा|'

होता-'नहीं! यह नहीं हो सकता, मैं तो उतना हिस्सा लूंगा जितना मुझे मिला है| दक्षिणा इकट्ठी क्यों की?'

ब्रह्मा-'ईर्ष्या क्यों करते हो?'

होता-ईर्ष्या एवं लालच आप करते हो, जब आप को दक्षिणा कम मिली तो आप ने एक जैसी कर दी| कितनी बुरी बात है, मेरा पूरा हिस्सा दो, लालची!

ब्रह्मा-'मैं लालची हूं तो तुम तेंदुए की तरह हो| जाओ, मैं तुम्हें श्राप देता हूं तुम गंडकी नदी में तेंदुए बन कर रहोगे लालची|'

होता भी कम नहीं था उसने भी भगवत भक्ति की थी और उसने भी आगे से श्राप दे दिया - 'यदि मैं तेंदुआ बनूंगा तो याद रखो तुम भी मस्त हाथी बनोगे तथा उसी नदी में जब पानी पीने आओगे तो तुम्हें पकड़कर गोते देकर मारूंगा, फिर याद करोगे, ऐसे लालच को| तुमने सर्वनाश करने की जिम्मेदारी उठाई है, नीच ज़माने के|

यह कहता हुआ होता अपना हिस्सा भी छोड़ गया तथा घर को आ गया| कुछ समय पश्चात दोनों भाई मर गए और अगला जन्म धारण किया| होता तेंदुआ बना तथा ब्रह्मा हाथी| दोनों गंडकी नदी के पास चले गए| वह नदी बहुत गहरी थी|

हे भक्त जनो! ध्यान दीजिए लालच कितनी बुरी भला है| भाई-भाई का आपस में झगड़ा करा दिया| इतना मूर्ख बनाया कि दोनों का कुल नाश हो गया| वास्तव में अहंकार और लालच बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है| लालच में बंधे हुए लोग दुखी होते हैं| ऐसे ही लालच की अपरंपार में बंधे हुए लोग दुखी होते हैं| ऐसे ही लालच की अपरंपार महिमा है| लालच कभी नहीं करना चाहिए|

ब्रह्मा एक बहुत बड़ा हाथी बना जैसे कि सब हाथियों का सरदार था, कोई हाथी उसके सामने नहीं ठहरता था| वह सब हाथिनों के झुण्ड साथ लेकर इधर-उधर घूमता रहता| वह जंगल का राजा था| ब्रह्मा को जो श्राप मिला था, उसे तो पूरा होना ही था| भगवान की माया अनुसार वह हाथी एक दिन उस गंडकी नदी के पास चला गया| पानी पीया| पानी बहुत ठण्डा था और सारे हाथी प्यासे थे| सबसे आगे वही हाथी था जो पूर्व जन्म में ब्रह्मा था| जब वह पानी पीने के लिए आगे बढ़ा तो आगे उसका भाई तेंदुए का रूप धारण करके बैठा था| उसने ब्रह्मा की टांगें पकड़ कर उसको गहरे पानी में खींचना शुरू कर दिया| वह आगे - आगे गया| जब हाथी डूबने लगा तो उसने चिल्लाना शुरू कर दिया| वह पानी के बीच बिना डूबे खड़ा हो गया| बस सिर और सूंड ही नंगी थी| ऐसा देख कर बाकी हाथी बहुत हैरान हुए, हाथिनें चिल्लाने लगीं, पर हाथी को बाहर निकालने की किसी में समर्था नहीं थी|

तेंदुए ने ब्रह्मा से बदला लेना था| इसलिए वह ज़ोर से उस हाथी को पकड़ कर बैठा रहा| हाथी बल वाला था, उसको भी ज्ञान हो गया कि पिछले जन्म का हिसाब बाकी है| वह अपने आप को बचाने का यत्न करने लगा| वह पानी में सिर न डूबने देता| तेंदुआ भी उस हाथी को डुबोने का यत्न करता|

तेंदुए तथा हाथी को लड़ते हुए कई हजार साल बीत गए| हाथी भूखा रहा, पानी में से वह क्या खाए| तेंदुए का भोजन तो पानी में ही था| हाथी बिना कुछ खाए-पीए कमज़ोर हो गया वह पानी में डूबने लगा तो उसी समय उसने अपनी सूंड ऊपर उठा कर आकाश की तरफ देख कर भगवान को याद किया| उसने प्रार्थना की-हे प्रभु! मैं हाथी की योनि में पड़ा हूं, दया करें कि मैं पानी में न डूबूं| यदि यहां मरा तो जरूर किसी बुरी योनि में जाऊंगा| मेरी प्रार्थना सुनो प्रभु!"

ब्रह्मा (हाथी) ने शुद्ध हृदय से पुकार की, उसी समय परमात्मा ने उसकी प्रार्थना सुनी और स्वयं नदी किनारे आए| सुदर्शन चक्र से तेंदुए की तारें काटी और हाथी को डूबने से बचाया| उसकी हाथी की योनि से मुक्त करवाया, फिर भक्त रूप में प्रगत किया| वह प्रभु का यश करने लगा| तेंदुए का जन्म भी बदल गया|

Saturday 29 May 2021

भक्त सुदामा

 ॐ श्री साँई राम जी 



भक्त सुदामा

प्रभु के भक्तों की अनेक कथाएं हैं, सुनते-सुनते आयु बीत जाती है पर कथाएं समाप्त नहीं होतीं| सुदामा श्री कृष्ण जी के बालसखा हुए हैं| उनके बाबत भाई गुरदास जी ने एक पउड़ी उच्चारण की है -

बिप सुदामा दालदी बाल सखाई मित्र सदाऐ |
लागू होई बाहमणी मिल जगदीस दलिद्र गवाऐ |
चलिया गिणदा गट्टीयां क्यों कर जाईये कौण मिलाऐ |
पहुता नगर दुआरका सिंघ दुआर खोलता जाए |
दूरहुं देख डंडउत कर छड सिंघासन हरि जी आऐ |
पहिले दे परदखना पैरीं पै के लै गल लाऐ |
चरणोदक लै पैर धोइ सिंघासन ऊपर बैठाऐ |
पुछे कुसल पिआर कर गुर सेवा की कथा सुनाऐ |
लै के तंदुल चबिओने विदा करै आगे पहुंचाऐ |
चार पदारथ सकुच पठाए |९|९०|

भाई गुरदास जी के कथन अनुसार सुदामा गोकुल नगरी का एक ब्राह्मण था| वह बड़ा निर्धन था| वह श्री कृष्ण जी के साथ एक ही पाठशाला में पढ़ा करता था| उस समय वह बच्चे थे| बचपन में कई बच्चों का आपस में बहुत प्यार हो जाता है, वे बच्चे चाहे गरीब हो या अमीर, अमीरी और गरीबी का फासला बचपन में कम होता है| सभी बच्चे या विद्यार्थी शुद्ध हृदय के साथ मित्र और भाई बने रहते हैं|

सुदामा और कृष्ण जी का आपस में अत्यन्त प्रेम था, वह सदा ही इकट्ठे रहते| जिस समय उनका गुरु उनको किसी कार्य के लिए भेजता तो वे इकट्ठे चले जाते, बेशक नगर में जाना हो या किसी जंगल में लकड़ी लेने| दोनों के प्रेम की बहुत चर्चा थी|

सुदामा जब पढ़ने के लिए जाता था तो उनकी माता उनके वस्त्र के पलड़े में थोड़े-से भुने हुए चने बांध दिया करती थी| सुदामा उनको खा लेता था, ऐसा ही होता रहा|

एक दिन गुरु जी ने श्री कृष्ण और सुदामा दोनों को जंगल की तरफ लकड़ियां लेने भेजा| जंगल में गए तो वर्ष शुरू हो गई| वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए| बैठे-बैठे सुदामा को याद आया कि उसके पास तो भुने हुए चने हैं, वह ही खा लिए जाए| वह श्री कृष्ण से छिपा कर चने खाने लगा| उसे इस तरह देख कर श्री कृष्ण जी ने पूछा-मित्र! क्या खा रहे हो?

सुदामा से उस समय झूठ बोला गया| उसने कहा-सर्दी के कारण दांत बज रहे हैं, खा तो कुछ नहीं रहा, मित्र!

उस समय सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण जी के मुख से यह शब्द निकल गया -'सुदामा! तुम तो बड़े कंगाल हो, चनों के लिए अपने मित्र से झूठ बोल दिया|'

यह कहने की देर थी कि सुदामा के गले दरिद्र और कंगाली पड़ गई, कंगाल तो वह पहले ही था| मगर अब तो श्री कृष्ण ने वचन कर दिया था| यह वचन जानबूझ कर नहीं सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण के मुख से निकल गया, पर सत्य हुआ| सुदामा और अधिक कंगाल हो गया|

पाठशाला का समय खत्म हो गया और सुदामा अपने घर चला गया| विवाह हुआ, बच्चे हुए तथा उसके पश्चात माता-पिता का देहांत हो गया| कंगाली दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, कोई फर्क न पड़ा| दिन बीतने लगे| श्री कृष्ण जी राजा बन गए, उनकी महिमा बढ़ गई| वह भगवान रूप में पूजा जाने लगे तो सुदामा बड़ा खुश हो का अपनी पत्नी को बताया करता कि हम दोनों का परस्पर अटूट प्रेम होता था|

उसकी पत्नी कहने लगी -'यदि आपके ऐसे मित्र हैं और आप में इतना प्रेम था तो आप उनके पास जाओ और अपना हाल बताओ| हो सकता है कि कृपा तथा दया करके हमारी कंगाली दूर कर दें|'

अपनी पत्नी की यह बात सुन कर सुदामा ने कहा -'जाने के लिए तो सोचता हूं, पर जाऊं कैसे, श्री कृष्ण के पास जाने के लिए भी तो कुछ न कुछ चाहिए, आखिर हम बचपन के मित्र हैं|'

आखिर उसकी पत्नी ने बहुत ज़ोर दिया तो एक दिन सुदामा अपने मित्र श्री कृष्ण कि ओर चल पड़ा| उसकी पत्नी ने कुछ चावल, तरचौली उसको एक पोटली में बांध दिए| सुदामा मन में विचार करता कि मित्र को कैसे मिलेगा? क्या कहेगा? द्वारिका नगरी में पहुंच कर वह श्री कृष्ण जी का दरबार लगता था| प्रभु वहां इंसाफ और न्याय करते थे| सुदामा ने डरते और कांपते हुए द्वारपाल को कहा - 'मैंने राजा जी को मिलना है|'

द्वारपाल-'क्या नाम बताऊं जा कर?'

सुदामा-उनको कहना सुदामा ब्राह्मण आया है, आपके बचपन का मित्र| द्वारपाल यह संदेश ले कर अंदर चला गया| जब उसने श्री कृष्ण जी को संदेश दिया तो वह उसी पल सिंघासन से उठ कर नंगे पांव बाहर को भागे तथा बाहर आ कर सुदामा को गले लगा लिया| कुशलता पूछी तथा बड़े आदर और प्रेम से उसे अपने सिंघासन पर बिठाया और उसके पैर धोए| पास बिठा कर व्यंग्य के लहजे में कहा - लाओ मेरी भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है?

यह कह कर श्री कृष्ण ने सुदामा के वस्त्रों से बंधी हुई पोटली खोल ली और फक्के मार कर चबाने लगे| चबाते हुए वर देते गए तथा कहते रहे, "वाह! कितनी स्वादिष्ट है तरचौली! कितनी अच्छी है भाभी!"

सुदामा प्रसन्न हो गया| श्री कृष्ण ने मित्र को अपने पास रखा तथा खूब सेवा की गई| बड़े आदर से उसको भेजा| विदा होते समय न तो सुदामा ने श्री कृष्ण से अपनी निर्धनता बताते हुए कुछ मांगा तथा न ही मुरली मनोहर ने उसे कुछ दिया| सुदामा जिस तरह खाली हाथ दरबार की तरफ गया था, वैसे ही खाली हाथ वापिस घर को चल पड़ा| मार्ग में सोचता रहा कि घर जाकर अपनी पत्नी को क्या बताऊंगा? मित्र से क्या मांग कर लाया हूं|

सुदामा गोकुल पहुंचा| जब वह अपने मुहल्ले में पहुंचा तो उसे अपना घर ही न मिला| वह बड़ा हैरान हुआ| उसका कच्चा घर जो झौंपड़ी के बराबर घास फूस से बना गाय बांधने योग्य था, कहीं दिखाई न दिया| वह वहां खड़ा हो कर पूछना ही चाहता था कि इतने में उसका लड़का आ गया| उसने नए वस्त्र पहने हुए थे| 'पिता जी! आप बहुत समय लगा कर आए हो|.....द्वारिका से आए जिन आदमियों को आप ने भेजा था, वह यह महल बना गए हैं, सामान भी छोड़ गए हैं तथा बहुत सारे रुपये दे गए हैं| माता जी आपका ही इंतजार कर रहे हैं| आप आकर देखें कितना सुंदर महल बना है|'

अपने पुत्र से यह बात सुन कर तथा कच्चे घर की जगह सुन्दर महल देख कर वह समझ गया कि यह सब भगवान श्री कृष्ण की लीला है| श्री कृष्ण ने मुझे वहां अपने पास द्वारिका में रखा और मेरे पीछे से यहां पर यह लीला रचते रहे तथा मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं पड़ने दिया| महल इतना सुन्दर था कि, उस जैसा किसी दूसरे का शायद ही हो| शायद महल बनाने के लिए विश्वकर्मा जी स्वयं आए थे, तभी तो इतना सुन्दर महल बना| भगवान श्री कृष्ण की लीला देख कर सुदामा बहुत ही प्रसन्न था| उसके बिना कुछ बताए ही श्री कृष्ण जी सब कुछ समझ गए थे|

उस दिन के बाद सुदामा श्री कृष्ण की भक्ति में लग गया और भक्तों में गिने जाने लगा| 

Friday 28 May 2021

राजा बली

 ॐ श्री साँई राम जी



राजा बली

सद्पुरुष कहते हैं, पुरुष को तपस्या करने से राज मिलता है, पर राज प्राप्ति के बाद उसको नरक भोगना पड़ता है, 'तपो राज तथा राजो नरक' इसका मूल भावार्थ यह है कि राज प्राप्ति के पश्चात मनुष्य अहंकारी हो जाता है| अहंकार के साथ कुछ लालच भी आता है| इसलिए फिर कुछ बात नहीं सूझती| उसके कर्म ऐसे हो जाते हैं कि प्रभु उसको फिर सत्य मार्ग पर लगाने के लिए कोई कौतुक रचता है| ऐसा युगों से होता आया है जैसे कि राजा बली की कथा है| भाई गुरदास जी ने भी लिखा है :-

बलि राजा घरि आपणे अंदरि बैठा जग करावै |
बावन रूपी आइआ चारि बेद मुखि पाठ सुणावै |
राजे अंदरि सदिया मंग सुआमी जो तुधु भावै |
अछल छलनि तुधु आइआ सुक्र प्रोहत कहि समझावै |
करों अढाई धरति मंगि पिछहुं दे त्रिहु लोअ न भावै |
दोइ करवा करि तिन लोअ बलि राजा लै मगर मिणावै |
बलि छलि आपु छलाईअनु होइ दिआलु मिलै गल लावै |
दिता राजु पताल दा होइ अधीन भगति जस गावै |
होइ दरवान महां सुखु पावै |३|

बली नाम का एक प्रतापी राजा था| उसके दादा प्रहलाद ने तपस्या की और अमर राज प्राप्त किया| बली का पिता विरोचन भी नेक पुरुष था| बली बड़ा दानी था, कोई भी उसके पास आता तो वह उसे खाली न जाने देता| स्वयं को राजा जनक या हरीशचन्द्र कहलाता| उसने अपने राज में यज्ञ किये तथा अत्यंत दान दिया, उसे अहंकार हो गया कि मेरे जैसा कौन दानी होगा? ब्राह्मणों को दान देकर संतुष्ट कर दिया है|

परमात्मा ने देखा कि एक अच्छे भले आदमी को अहंकार हो गया है, इसका अहंकार अवश्य चकनाचूर करना चाहिए| यह विचार करके भगवान विष्णु ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और राजा बली के दरबार में पहुंच गया| राजा ने आदर से कहा-हे स्वामी! आज्ञा दीजिए, मैं आपकी इस समय क्या सेवा करूं|

बावन (छोटा ब्राहमण रूप) भगवान बोले-हे राजन! मैं तो एक निर्धन ब्राह्मण हूं| मेरा कोई घर नहीं है| केवल एक इच्छा है कि आप कृपा करके मुझे सिर्फ ढ़ाई कदम धरती दे दें ताकि मैं वहां बैठ कर प्रभु का जाप कर लिया करूं आप से और क्या मांगना है| मुझे बस यही चाहिए, आपके द्वार पर बैठा रहूंगा|

यह सुन कर राजा बली हंसा तथा सम्बोधन करके कहने लगा-हे ब्राह्मण! तुम्हारा कद तो छोटा है, पर बली राजा को मजाक बहुत बड़ा करने आ गए हो| राज्य में खुले वन पड़े हैं, अनगिनत धरती पर लोगों ने आश्रम बनाए हैं, क्या तुम्हें किसी ने बैठने नहीं दिया| मेरे राज में मेरी धरती पर तो हर एक को छूट है, वह आश्रम बनाए धरती को जोते, मैं तो कुछ नहीं कहता| यदि मांगना था तो गाय, अनाज, वस्त्र, हीरे-मोती मांगते| यह क्या मांगा है? तुम ब्राह्मण हो यदि कोई और होता तो मरवा देता|

बावन चुप रहा, वह खड़ा मुस्कराता ही रहा| राजा बली बातें करता रहा|

राजा बली का मंत्री बहुत सूझवान था| वह समझ गया कि यह कोई खेल है| प्रभु स्वयं ही कोई परीक्षा लेने आए हैं| उसने राजा से कहा-राजन! यह बावन ब्राह्मण जिसने थोड़ी-सी ढाई कदम भूमि की मांग की है, वास्तव में कोई विष्णु अवतार लगता है|

'आपको छलने के लिए आया है| कोई अद्भुत खेल न करें| जरा सावधानी से रहना चाहिए| इसकी यह बात नहीं माननी चाहिए| क्षमा मांग लेना ठीक है|'

पर राजा बली को अहंकार ने घेरा हुआ था, उसने एक न सुनी तथा कहा "जाओ ढाई कदम भूमि जहां से लेनी है, अधिकार कर लो| फिर कभी मजाक करने न आना|"

राजा बली की यह बात सुन कर बावन अवतार दरबार से बाहर आया तथा अपना शरीर इतना बढ़ा लिया कि दो कदमों में उसने बली राजा की सारी धरती सहित ब्रह्मांड माप लिया तथा आधी पूरी करने के लिए उसके सिर पर पैर आ रखा| बली राजा को होश आया, पर समय निकल गया था| बली को बावन ने पैर से धकेल कर पाताल में भेज दिया तथा कहा, 'यहां राज करो| यह कह कर जब भगवान रूप बावन चला तो बली ने कहा, 'मैं तो यहां राज करूंगा पर आप ने भी तो वचन दिया है कि द्वार के आगे रहोगे| अब वचन से न फिरो और बैठो|' इस बात में भगवान भी छले गए| बापन रूप धारण कर बली के द्वार के आगे बैठ गया| बली पातालपुरी में भक्ति करने लगा|

Thursday 27 May 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 7

 ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |


हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |


हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 7
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अदभुत अवतार । श्री साईबाबा की प्रकृति, उनकी यौगिक क्रयाएँ, उनकी सर्वव्यापकता, कुष्ठ रोगी की सेवा, खापर्डे के पुत्र प्लेग, पंढरपुर गमन, अदभुत अवतार
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श्री साईबाबा की समस्त यौगिक क्रियाओं में पारंगत थे । 6 प्रकार की क्रियाओं के तो वे पूर्ण ज्ञाता थे । 6 क्रियायें, जिनमें धौति ( एक 3 चौड़े व 22 ½ लम्बे कपड़े के भीगे हुए टुकड़े से पेट को स्वच्छ करना), खण्ड योग (अर्थात् अपने शरीर के अवयवों को पृथक-पृथक कर उन्हें पुनः पूर्ववत जोड़ना) और समाधि आदि भी सम्मिलित हैं । यदि कहा जाये कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे । कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन । वे हिन्दुओं का रामनवमी उत्सव यथाविधि मनाते थे और साथ ही मुसलमानों का चन्दनोत्सव भी । वे उत्सव में दंगलों को प्रोत्साहन तथा विजेताओं को पर्याप्त पुरस्कार देते थे । गोकुल अष्टमी को वे गोपाल-काला उत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाते थे । ईद के दिन वे मुसलमानों को मसजिदमें नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित किया करते थे । एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मसजिद में ताजिये बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम रचा । श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया ।


यदि कहें कि वे यवन थे तो उनके कान (हिन्दुओं की रीत् के अनुसार) थिदे हुए थे और यदि कहें कि वे हिन्दू थे तो वे सुन्ता कराने के पक्ष में थे । (नानासाहेब चाँदोरकर, जिन्होंने उनको बहुत समीप से देखा था, उन्होंने बतलाया कि उनकी सुन्नत नहीं हुई थी । साईलीला-पत्रिका श्री. बी. व्ही. देव दृारा लिखित शीर्षक बाबा यवन की हिन्दू पृष्ठ 562 देखो ।) यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करें तो वे सदा मसजिद में निवास करते थे और यदि यवन कहें तो वे सदा वहाँ धूनी प्रज्वलित रखते थे तथा अन्य कर्म, जो कि इस्लाम धर्म के विरुदृ है, जैसे - चक्की पीसना, शंख तथा घंटानाद, होम आदिक कर्य करना, अन्नदान और अघ्र्य दृारा पूजन आदि सदैव वहाँ चलते रहते थे ।

यदि कोई कहे गि वे यवन थे तो कुलीन ब्राहमण और अग्निहोत्री भी अपने नियमों का उल्लंघन कर सदा उनको साष्टांग नमस्कार ककिया करते थे । जो उलके स्वदेश का पता लगाने गये, उन्हें अपना प्रश्न ही विस्मृत हो गया और वे उनके दर्शनमात्र से मोहित हो गया । अस्तु इसका निर्णय कोई न कर सका कि यथार्थ में साईबाबा हिन्दू थे या यवन । इसमें आश्चर्य ही क्या है जो अहं व इन्द्रियजन्य सुखों को तिलांजजलि देकर ईश्वर की शरण में आ जाता है तथा जब उसे ईश्वर के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है, तब उसकी कोई जाति-पाति नहीं रह जाती । इसी कोटि में श्री साईबाबा थे । दे जातियों और प्राणियों में किंचित् मात्र भी भेदभाव नहीं रखते थे । फकीरों के साथ वे अमिष और मछलीका सेवन भी कर लेते थे । कुत्ते भी उनके भोजन-पात्र में मुँह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे, परन्तु उन्होंने कभी कोई भी आपत्चि नहीं की । ऐसा अपूर्व और अद्भभुत श्री साईबाबा का अवतार था ।

गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप मुझे भी उनके श्री चरणों के समीर बैठने और उनका सत्संग-लाभ उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मुझे जिस आनन्द व सुख का अनुभव हुआ, उसका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ । यथार्थ में बाबा अखण्ड सच्चिदानन्द थे । उनकी महानता और अदितीय का बखान कौन कर सकता है । जिसने उनके श्री चरण-कमलों की शरण ली, उसे साक्षात्कार की प्राप्ति हुई । अनेक सन्यासी, साधक और अन्य मुमुक्षु जन भी श्री साईबाबा के पास आया करते थे । बाबा भी सदैव उलके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते, उनसे वार्तालाप कर उनका चित्तरंजन किया करते थे । अल्लाह मालिक सदैव उनके होठों पर था । वे कभी भी विवाद और मतभेद में नहीं पडते थे तथा सदा शान्त और स्थिर रहते थे । परन्तु कभी-कभी वे क्रोधित हो जाया करते थे । वे सदैव ही वेदान्त की शिक्षा दिया करते थे । अमीर और गरीब दोनों उनके लिए एक समान थे । वे लोगों के गुहा व्यापार को पूर्णतया जानते थे और जब वे गुहा रहस्य स्पष्ट करते तो सब विस्मत हो जाते थे । स्वयं ज्ञानावतार होकर भी वे सदैव अज्ञानता का प्रदर्शन किया करते थे । उन्हें आदरसत्कार से सदैव अरुचि थी । इस प्रकार का श्री साईबाबा का वैशिष्टय था । थे तो वे शरीरधारी, परन्तु कर्मों से उनकी ईश्वरीयता स्पष्ट झलकती थी । शिरडी के सकल नर-नारी उन्हें परब्रहमा ही मानते थे ।


विशेषः -
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1. श्री साईबाबा के एक अंतरंग भक्त म्हालसापति, जो कि बाबा के साथ मसजिद तता चावड़ी में शयन करते थे, उन्हें बाबा ने बतलाया था कि मेरा जन्म पाथर्डी के एक ब्राहमण परिवार में हुआ था । मेरे माता-पिता ने मुझे बाल्यावस्था में ही एक फकीर को सौंप दिया था । जब यह चर्चा चल रही थी, तभी पाथर्डी से कुछ लोग वहाँ आये तथा बाबा ने उनसे कुछ लोगों के सम्बन्ध में पुछताछ भी की ।


2. श्रीमती काशीबाई कानेटकर (पूना की एक प्रसिदृ विदुषी महिला) ने साईलीला-पत्रिका, भाग 2 (सन् 1934) के पृष्ठ 79 पर अनुभव नं. 5 में प्रकाशित किया है कि बाबा के चमत्कारों को सुनकर हम लोग अपनी ब्रहमवादी समस्था की पदृति के अनुसार विवेचन कर रहे थे । विवाद का विषय था कि श्री साईबाबा ब्रहमवादी हैं या वाममार्गी । कालान्तर में जब मैं शिरडी को गई ते मुझे इस सम्वन्ध में अनेक विचार आ रहे थे । जैसे ही मैंने मसजिद की सीढ़ियों पर पैर रखा कि बाबा उठ कर सामने आ गये और अपने हृदय की ओर संकेत कर, मेरी ओर घुरते हुये क्रोधित हो बोले – यह ब्राहमण है, शुदृ ब्राहमण । इसे वाममार्ग से क्या प्रयोजन यहाँ कोई भी यवन प्रवेश करने का दुस्साहस नहीं कर सकता और न ही वह करे । पुनः अपने हृदय की ओर इंगित करते हुयो बोले, या ब्राहमण लाखो मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर सकता है और उनको अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति करा सकता है । यह ब्राहमण की मसजिद है । मै यहाँ किसी वाममार्गी की छाया भी न पडने दूँगा ।


बाबा की प्रकृति
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मैं मूर्ख जो हूँ, श्री साईबाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन नहीं कर सकता । शिरडी के प्रायः समस्त मंदिरों का उन्होंने जीर्णोधार किया । श्री तात्या पाटील के दृारा शनि, गणरति, शंकर, पार्वती, ग्राम्यदेवता और हनुमानजी आदि के मंदिर ठीक करवाये । उनका दान भी विलक्षण था । दक्षिणा के रुप में जो धन एकत्रित होता था, उसमें से वे किसी को बीस रुपये, किसी को पंद्रह रुपये या किसी को पचास रुपये, इसी प्रकार प्रतिदिन स्वच्छन्दतापूर्वक वितरण कर देते थे । प्राप्तिकर्ता उसे शुदृ दान समझता था । बाबा की भी सदैव यही इच्छा थी कि उसका उपयुक्त रीति से व्यय किया जाय ।

बाबा के दर्शन से भक्तों को अनेक प्रकार का लाभ पहुँचता था । अनेकों निष्कपट और स्वस्थ बन गये, दुष्टात्मा पुण्यातमा में परिणत हो गये । अनेकों कुष्ठ रोग से मुक्त हो गए और अनेकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई । बिना कोई रस या औषधि सेवन किये, बहुत से अंधों को पुनः दृष्टि प्राप्त हो गई, पंगुओं की पंगुता नष्ट हो गई । कोई भी उनकी महानता का अन्त न पा सका । उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैलती गई और भिन्न-भिन्न स्थानों से यात्रियों के झुंड के झुंड शिरडी औने लगे । बाबा सदा धूनी के पास ही आसन जमाये रहते और वहीं विश्राम किया करते थे । वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किये बिना ही समाधि में लीन रहते थे । वे सिर पर एक छोटी सी साफी, कमर में एक धोती और तन ढँकने के लिए एक अंगरखा धारण करते थे । प्रारम्भ से ही उनकी वेशभूषा इसी प्रकार थी । अपने जीवनकाल के पू्र्वार्दृ में वे गाँव में चिकित्साकार्य भी किया करते थे । रोगियों का निदान कर उन्हें औषधि भी देते थे और उनके हाथ में अपरिमित यश था । इस कारण से वे अल्प काल में ही योग्य चिकित्सक विख्यात हो गये । यहाँ केवल एक ही घटना का उल्लेख किया जाता है, जो बड़ी विचित्र सी है ।


विलक्षण नेत्र चिकित्सा
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एक भक्त की आँखें बहुत लाल हो गई थी । उन पर सूजन भी आ गई थी । शिरडी सरीखे छोटे ग्राम में डाक्टर कहाँ । तब भक्तगण ने रोगी को बाबा के समक्ष उपस्थित किया । इस प्रकार की पीडा में डाँक्टर प्रायः लेप, मरहम, अंजन, गाय का दूध तथा कपूरयुक्त औषधियों को प्रयोग में लाते हैं । पर बाबा की औषधि तो सर्वथा ही भिन्न थी । उन्होंने भिलावाँ पीस कर उसकी दो गोलियाँ बनायीं और रोगी के नेत्रों में एक-एक गोली चिपका कर करड़े की पट्टी से आँखें बाँध दी । दूसरे दिन पट्टी हटाकर नेत्रों के ऊपर जल के छींटे छोड़े गये । सूजन कम हो गई और नेत्र प्रायः नीरोग हो गये । नेत्र शरीर का एक अति सुकोमल अंग है, परन्तु बाबा की औषधि से कोई हानि नहीं पहुँची, वरन् नेत्रों की व्याधि दूर हो गई । इस प्रकार अनेक रोगी नीरोग हो गये । यह घटना तो केवन उदाहरणस्वरुप ही यहाँ लिखी गई है ।



बाबा की यौगिक क्रियाएँ
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बाबा को समस्त यौगिक प्रयोग और क्रियाएँ ज्ञात थी । उनमें से केवल दो का ही उल्लेख यहाँ किया जाता है –


1. धौति क्रिया (आतें स्वच्छ करने की क्रिया) - प्रति तीसरे दिन बाबा मसजिद से प्रयाप्त दूरी पर, एक वट वृक्ष के नीचे किया करते थे । एक अवसर पर लोगों ने देखा कि उन्होंने अपनी आँतों को उदर के बाहर निकालकर उन्हें चारों ओर से स्वच्छ किया और समीप के वृक्ष पर सूखने के लिये रख दिया । शिरडी में इस घटना की पुष्टि करने वाले लोग अभी भी जीवित हैं । उन्होंने इस सत्य की परीक्षा भी की थी ।
साधारण धौति क्रिया एक 3” चौडे व 22 ½ फुट लम्वे गीले कपड़े के टुकड़े से की जाती है । इस कपड़े को मुँह के दृारा उदर में उतार लिया जाता हैं तथा इसे लगभग आधा घंटे तक रखे रहते है, ताकि उसका पूरा-पूरा प्रभाव हो जावे । तत्पश्चात् उसे बाहर निकाल लेते निकाल लेते हैं । पर बाबा की तो यह धौति क्रिया सर्वथा विचित्र और असाधारण ही थी ।


2. खण्डयोग – एक समय बाबा ने अपने शरीर के अवयव पृथक-पृथक कर मसजिद के भिन्न-भिन्न स्थानों में बिकेर दिये । अकस्मात् उसी दिन एक महाशय मसजिद में पधारे और अंगों को इस प्रकार यहाँ-वहाँ बिखरा देखकर बहुत ही भयभीत हुए । पहले उनकी इच्छा हुई कि लौटकर ग्राम अधिकारी के पास यह सूचना भिजवा देनी चाहिये कि किसी ने बाबा का खून कर उनके टुकडे-टुकडे कर दिये हैं । परन्तु सूचना देने वाला ही पहले पकड़ा जाता हैं, यह सोचकर वे मौन रहे । दूसरे दिन जब वे मसजिद में गये तो बाबा को पूर्ववत् हष्ट पुषट ओर स्वस्थ देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । उन्हें ऐसा लगा कि पिछले दिन जो दृश्य देखा था, वह कहीं स्वप्न तो नहीं था ।

बाबा बाल्याकाल से ही यौगिक क्रियायें किया करते थे और उन्हें जो अवस्था प्राप्त हो चुकी थी, उसका सत्य ज्ञान किसी को भी नहीं था । चिकित्सा के नाम से उन्होंने कभी किसी से एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया । अपने उत्तम लोकप्रिय गुणों के कारण उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई । उन्होंने अनेक निर्धनों और रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान किया । इस प्रसिदृ डाँक्टरों के डाँक्टर (मसीहों के मसीहा) ने कभी अपने स्वार्थ की चिन्ता न कर अनेक विघनों का सामना किया तथा स्वयं असहनीय वेदना और कष्ट सहन कर सदैव दूसरों की भलाई की और उन्हें विपत्तियों में सहायता पहुँचाई । वे सदा परकल्याणार्थ चिंतित रहते थे । ऐसी एक घटना नीचे लिखी जाती है, जो उनकी सर्वव्यापकता तथा महान् दयालुता की घोतक हैं ।




बाबा की सर्वव्यापकता और दयालुता
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सन् 1910 में बाबा दीवाली के शुभ अवसर पर धूनी के समीप बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे तथा साथ ही धूनी में लकड़ी भी डालते जी रहे थे । धूनी प्रचण्डता से प्रज्वलित थी । कुछ समय पश्चात उन्होने लकड़ियाँ डालने के बदने अपना हाथ धूनी में डाल दिया । हाथ बुरी तरह से झुलस गया । नौकर माधव तथा माधवराव देशपांडे ने बाबा को धूनी में हाथ डालते दोखकर तुरन्त दौड़कर उन्हें बलपूर्वक पीछे खींच लिया ।
माधवराव ने बाबा से कहा, देवा आपने ऐसा क्यों किया । बाबा सावधान होकर कहने लगे, यहाँ से कुछ दूरी पर एक लुहारिन जब भट्टी धौंक रही थी, उसी समय उसके पति ने उसे बुलाया । कमर से बँधे हुए शिशु का ध्यान छोड़ वह शीघ्रता से वहाँ दौड़क गई । अभाग्यवश शिशु फिसल कर भट्टी में गिर पड़ा । मैंने तुरन्त भट्टी में हाथ डालकर शिशु के प्राण बचा लिये हैं । मुझे अपना हाथ जल जाने का कोई दुःख नहीं हैं, परन्तु मुझे हर्ष हैं कि एक मासूम शिशु के प्राण बच गये ।



कुष्ठ रोगी की सेवा
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माधवराव देशपांडे के दृारा बाबा का हाथ जल जाने का समाचार पाकर श्री नानासाहेव चाँदोरकर, बम्बई के सुप्रसिदृ डाँक्टर श्री परमानंद के साथ दवाईयाँ, लेप, लिंट तथा पट्टियाँ आदि साथ लेकर शीघ्रता से शिरडी को आये । उन्होंने बाबा से डाँक्टर परमानन्द को हाथ की परीक्षा करने और जले हुए स्थान में दवा लगाने की अनुमति माँगी । यह प्रार्थना अस्वीकृत हो गई । हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त भागोजी सिंदिया उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे । उनका कार्य था प्रतिदिन जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः पूर्ववत् कस कर बाँध देना । घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डाँ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का बाबा से बारंबार अनुरोध किया । यहाँ तक कि डाँ. परमानन्द ने भी अनेक बार प्रर्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा डाँक्टर है । उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया । डाँ. परमानन्द की दवाइयाँ शिरडी के वायुमंडल में न खुल सकीं और न उनका उपयोग ही हो सका । फिर भी डाँक्टर साहेव की अनुमति मिल गई । कुछ दिनों के उपरांत जब घाव भर गया, तब सब भक्त सुखी हो गये, परन्तु यह किसी को भी ज्ञात न हो सका कि कुछ पीडा अवशेष रही थी या नहीं । प्रतिदिन प्रातःकाल वही क्रम-घृत से हाथ का मर्दन और पुनः कस कर पट्टी बाँधना-श्री साई बाबा की समाधि पर्यन्त यह कार्य इसी प्रकार चलता रहा । श्री साई बाबा सदृश पूर्ण सिदृ कको, यथार्थ में इस चिकित्सा की भी कोई आवश्यकता नहीं थी, परन्तु भक्तों के प्रेमवश, उन्होंने भागोजी की यह सेवा (अर्थात् उपासना) निर्विघ्र स्वीकार की । जब बाबा लेण्डी को जाते तो भागोजी छाता लेकर उनके साथ ही जाते थे । प्रतिदिन प्रातःकाल जब बाबा धूनी के पास आसन पर विराजते, तब भागोजी वहाँ पहले से ही उपस्थित रहकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देते थे । भागोजी ने पिछले जन्म में अनेक पाप-कर्म किये थे । इस कारण वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे । उनकी उँगलियाँ गल चुकी थी और शरीर पीप आदि से भरा हुआ था, जिससे दुर्गन्ध भी आती थी । यघपि बाहृ दृष्टि से वे दुर्भागी प्रतीत होते थे, परंतु बाबा का प्रधान सेवक होने के नाते, यथार्थ में वे ही अधिक भाग्यशाली तथा सुखी थे । उन्हें बाबा के सानिध्य का पपूर्ण लाभ प्राप्त हुआ ।


बालक खापर्डे को प्लेग
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अब मैं बाबा की एक दुसरी अद्भभुत लीला का वर्णन करुँगा । श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से शिरडी में थी । पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की गिल्टी (गाँठ) भी निकल आई । श्रीमती खापर्डे भयभीत हो बहुत घबराने लगी और अमरावती लौट जाने का विचार करने लगी । संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए वाड़े (अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने उनसे लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय पुत्र प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ । प्रेमपूर्वक उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, आकाश में बहुत बादल छाये हुए हैं । उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायगा । ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार अंडों के बराबर गिल्टियाँ दिखा कर कहा, देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ता हैं । उनके कष्ट मेरे हैं । यह विचित्र और असाधारण लीला दिखकर लोगों को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस प्रकार कष्ट सहन करने पड़ते हैं । संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा कोमन होता है । वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और उन्हे अपना निजी सम्बंधी समझते हैं ।


पंढरपुर-गमन और निवास
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बाबा अपने भक्तों से कितना प्रेम करते और किस प्रकार उनकी समस्त इच्छाओं तथा समाचारों को पहने से ही जान लेते थे, इसका वर्णन कर मैं यह अध्याय समाप्त करुँगा ।


नानासाहेव चाँदोरकर बाबा के परम भक्त थे । वे खानदेश में नंदुरबार के मामलतदार थे । उनका पंढरपुर को स्थानांतरण हो गया और श्री साई बाबा की भक्ति उन्हें सफल हो गई, क्योंकि उन्हें पंढरपुर जो भूवैकुण्ठ (पृख्वी का स्वर्ग) सदृश ही साझा जाता है, उसमें रहने का अवसर प्राप्त हो गया । नानासाहेव के शीघ्र ही कार्यभार सम्हालना था, इसलिये वे किसी के पूर्व पत्र या सूचना दिये बिना ही शीघ्रता से शिरडी को रवाना हो गये । वे अपने पंढरपुर (शिरडी) में अचानक ही पहुँचकर अपने विठोबा (बाबा) को नमस्कार कर फिर आगे प्रस्थान करना चाहते थे । नानासाहेब के आगमन की किसी को भी सूचना न थी । परन्तु बाबासे क्या छिपा था । वे तो सर्वज्ञ थे । जैसे ही नानासाहेब नीमगाँव पहुँचे (जो शिरडी से कुछ ही दूरी पर है), बाबा पास बैठे हुए म्हालसापति, अप्पा शिंदे और काशीराम से वार्तालाप कर रहे थे । उसी समय मसजिद में स्तब्धता छा गई और बाबा ने अचानक ही कहा, चलो, चारों मिलकर भजन करें । पंढरपुर के दृार खुले हुए हैं – यह भजन प्रेमपूर्वक गावें । (पंढरपुरला जायाचें जायाचें तिथेंच मजला राह्याचें । तिथेच मजला राह्याचे, घर तें माईया रायांचे ।।) सब मिलकर गाने लगे । (भावार्थ-मुझे पंढरपुर जाकर वहीं रहना है, क्योंकि वह मेरे स्वामी (ईश्वर) का घर है ।) बाबा गाते जाते और दुहराते जाते थे । कुछ समय में नानासाहेब ने वहाँ सहकुटुम्ब पहुँचकर बाबा को प्रणाम किया । उन्होंने बाबासे पंढरपुर को साथ पधारने तथा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की । पाठकों अब इस प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ थी । भक्तगण ने नानासाहेब को बतलाया कि बाबा पंढरपुर निवास के भाव में पहने ही से हैं । यह सुनकर नानासाहेब द्रवित हो श्री-चरणों पर गिर पड़े और बाबा की आज्ञा, उदी तथा आर्शीवाद प्राप्त कर वे पंढरपुर को रवाना हो गये ।


बाबा की कथाये अनन्त है । अन्य विषय जैसे – मानव जन्म का महत्व, बाबा का भिक्षा-वृत्ति पर निर्वाह, बायजाबई की सेवा तथा अन्य कथाओं को अगने अध्याय के लिये शेष रखकर अब मुझे यहाँ विश्राम करना चाहिये ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday 26 May 2021

साखी ब्रह्मा और सरस्वती की

 ॐ श्री साँई राम जी



साखी ब्रह्मा और सरस्वती की

चारे वेद वखाणदा चतुर मुखी होई खरा सिआणा |
लोका नो समझाइदा वेख सुरसवती रूप लुभाना |

भाई गुरदास जी के कथन अनुसार चार वेदों को उच्चारने वाला (ब्रह्मा) बहुत सूझवान था, लोगों को उपदेश देता था, पर अपनी पुत्री की जवानी और सुन्दरता को देख कर मोहित हो गया था| जिस कारण उसे दुख उठाना पड़ा था|

सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री थी| वह बहुत ही सुन्दर और जवान थी| एक दिन सुबह सरस्वती नदी से स्नान करके आई| सूर्य की सुनहरी किरणों ने उसके कुंआरे गुलाबी चेहरे को और चमकाया हुआ था| अचानक ब्रह्मा जी खड़े-खड़े उसकी ही तरफ देखने लग गए, उनका दिल बदल गया| उनके मन की इस दशा को जान कर सूझवान सरस्वती ने अपना मुख दूसरी तरफ कर लिया| ब्रह्मा भी उस तरफ देखने लग गए| इस तरह सरस्वती चारों तरफ घूमी| ब्रह्मा के चार मुंह हो गए| सरस्वती ऊपर उड़ गई तो ब्रह्मा ने योग बल से तालू में आंखें लगा लीं| वह किसी कीमत पर भी सरस्वती को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था| यह देख कर भगवान शिव जी बहुत दुखी हुए, उन्होंने आगे बढ़ कर ब्रह्मा का पांचवा सिर (जो तालू के साथ था) धड़ से उतार कर फैंक दिया तथा ब्रह्मा को पुत्री भोग के पाप से बचा लिया|

कर्ण की कथा-कर्ण वास्तव में पांच पांडवों की माता कुंती का ही पुत्र था| पर माया के चक्र और कुंती की तपस्या के कारण पांडवों को इसका ज्ञान न था, क्योंकि जब कर्ण का जन्म हुआ था तब कुंती अभी कुंआरी थी| कर्ण के जन्म की कथा इस प्रकार बताई जाती है- कुंती जब माता-पिता के घर थी तो इसने दूरबाशा ऋषि की खूब सेवा की| ऋषि ने इसको कुछ मंत्र (अहवान) बताए और कहा कि कोई मंत्र पढ़ कर जिस चीज की इच्छा की पूर्ति की कामना करोगी, वह पूर्ण होगी| एक दिन कुंती सूर्य देवता के दर्शन करने के लिए ऊपर राजमहल की छत पर गई| सूर्य की सुनहरी किरणों और उसके बल प्रताप को देख कर उसके मन में आया कि सूर्य देवता यदि मेरे पास मानव रूप में आएं तो देखूं वह कितने बलवान और सुन्दर हैं| यह विचार कर उसने दुरबाशा ऋषि के बताए हुए मंत्रों में से एक मंत्र को पढ़ा| सूर्य एक सुन्दर युवक के रूप में कुंती के पास आ खड़ा हुआ| यह देख कर कुंती सहम गई| भयभीत होकर प्रार्थना की कि सूर्य देवता आप वापिस चले जाएं| पर सूर्य वापिस न गया| उसने कुंती के साथ भोग किया| कुंती कुंआरी ही गर्भवती हो गई, पर दूसरे मंत्र पढ़ने के योग से उसका गर्भ प्रगट न हुआ| जब बालक ने जन्म लिया तो उस बालक को कुंती ने नदी में बहा दिया| बहता हुआ बालक कौरवों के रथवान के हाथ आ गया| उसने बालक का पालन-पोषण करके जवान किया, जो कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ| महाभारत में इसने कौरवों का साथ दिया| अन्त में अपने भाई अर्जुन के हाथों वीरगति प्राप्त की| तब कुंती ने पांडवों को बताया कि कर्ण तुम्हारा भाई है|


समुद्र खारा होना 

यह आम सवाल है की जिस समुद्र में से अमृत, कामधेनु, लक्ष्मी, कल्प वृक्ष, धन्वंतरी वैद्य आदि कई तरह के बहुमूल्य पदार्थ निकले वह क्षार क्यों है? कहते हैं की अगस्त मुनि के क्रोधित हो कर एक बार सारे सागर के पानी को ढाई चुल्लियों में पी लिया था| जब जल पी लिया गया तो जितने जल-जीव थे, वह तड़पने और पुकारने लगे कि क्या हो गया? वह किसके सहारे जीवित रहेंगे? प्रभु ने तब अगस्त को प्रेरणा की कि पेट में कैद किए सागर को पहले की तरह स्वतन्त्र कर दो| भगवान के कहने पर अगस्त ने पेशाब किया, इसी कारण सागर का जल क्षार है|

कैसी दैत्य :- केसी कंस मथनु जिनी कीआ ||

कैसी दैत्य राजा कंस के वश में था| पापी कंस ने जहां श्री कृष्ण जी को मारने के अनेकों उपाय किए, वहीं कैसी दैत्य को भी घोड़ाबना कर गोकुल भेजा| पर श्री कृष्ण ने अपने योग बल द्वारा कैसी दैत्य को मार दिया| यहां भक्त नामदेव जी ईशारा करते हैं कि श्री कृष्ण जी हरि रूप थे जिन्होंने कैसी तथा कंस को (मक्खन) रिड़क-रिड़क अथवा कोह-कोह कर मारा था|

काली सर्प :- गोकुल के नजदीक ही यमुना में एक गहरा कुण्ड था| उस कुण्ड में एक सौ फन वाला सर्प रहता था| उसको 'काली'नाग भी कहा जाता था| गरुड़ भगवान से डरता हुआ वह उस कुण्ड में आ छिपा था, वह बहुत ज़हरीला था| जब वह फुंकारा मारता या सांस लेता था तो कुण्ड का पानी उबले लग पड़ता था| इसी कारण उस कुण्ड का नाम 'काली कुण्ड' पड़ गया था| उसका जल दूषित हो गया था| श्री कृष्ण ने एक दिन गेंद लेने के बहाने काली कुण्ड में छलांग लगा दी| श्री कृष्ण की नाग से लड़ाई हुई| उसके सौ फनो को श्री कृष्ण ने पैरों से कुचल दिया| काली सांप बेहोश हो कर हार गया| श्री कृष्ण ने उसको कहा, "यमुना कुण्ड छोड़ कर कहीं अन्य जगह चले जाओ|" काली सांप कुण्ड को छोड़ कर चला गया|

दुरबाशा ऋषि :- दुरबाशा ऋषि अत्तरे मुनि के पुत्र थे| इनको शिव का अवतार माना जाता है| जब युवा हुए तो औरव मुनि की सपुत्री कंदली से दुरबाशा का विवाह हो गया| इनमें तमो गुण विद्यमान थे| इस कारण बहुत क्रोधवान थे| इन्होंने अनेकों को वर और हजारों को श्राप दिए| शकुंतला को इन्होंने ही श्राप दिया था कि दुष्यंत तुम्हें भूल जाए| द्रौपदी को वर दिया था कि तुम्हारे पर्दे ढके रहें| अन्य भी कथा-कहानियां हैं|

दुरबाशा ने जब विवाह किया था तो प्रतिज्ञा की थी कि अपनी पत्नी की सौ भूलें बक्श देंगे| जब सौ से ऊपर भूल हुई तो क्रोधित होकर कंदली को भस्म कर दिया| औरव मुनि ने श्राप दे दिया| एक बार पिंडारक तीर्थ पर ताप करने के लिए गए तो वहां यादव बालक खेलने आया करते थे| वह बहुत मजाकीये थे| उन्होंने एक दिन दुरबाशा का मजाक किया| वह मजाक इस तरह था कि जमवंती के पुत्र सांब के पेट पर लोहे की बाटी बांध दी| स्त्रियों जैसे वस्त्र पहना कर घूंघट निकलवाया तथा दुरबाशा के पास ले गए और पूछने लगे, 'हे ऋषि जी! बताओ लड़की होगी या लड़का?

दुरबाशा समझ गया कि यह मेरे साथ मजाक कर रहे हैं, उसने सहज स्वभाव ही उत्तर दिया -'लोहे का मूसल पैदा होगा जो यादवों की कुल नाश करेगा|' यादवों को श्राप दे दिया, उस ओर ईशारा है :-

दुरबाशा के श्राप से "यादव इह फल पाए||"इस तरह दुरबाशा के श्राप से यादवों की कुल नष्ट हो गई थी|


अठारह पुराण 

गुरुबाणी तथा गुरमति साहित्य में 'आठ दस' या अठारह पुराणों का नाम बहुत बार आता है| जिज्ञासुओं के ज्ञान के लिए अठारह पुराणों की सूची आगे दी जाती है :-

१. ब्रह्मा पुराण | २. विष्णु पुराण | ३. वायु पुराण | ४. लिंग पुराण | ५. पदम पुराण | ६. सकंध पुराण | ७. बावन पुराण | ८. मस्ताना | ९. वराह पुराण | १०. अग्नि पुराण | ११. भूरम पुराण | १२. गरुड़ पुराण | १३. नारदीय | १४. भविष्यत पुराण | १५. ब्राह्मण वेवरत पुराण | १६. मारकंडे पुराण | १७. ब्रह्मांड पुराण | १८. श्रीमद् भागवत पुराण |

सहसबाहु-सहसबाहु का वास्तविक नाम कांहत विर्यारजन था| यह कृतवीर्य का पुत्र था| इसकी हजार भुजाएं थीं| इसलिए सहसबाहु कहा जाता था| गुरु नानक जी फरमाते हैं :-

सहस बाहु मधु कीट महिखासा ||
हरणाखसु ले नखहु बिधासा ||
दैत संघारे बिनु भगति अभिआसा ||

सहसबाहु का राज नर्मदा नदी के दोनों तरफ था| एक दिन कहते हैं कि सहसबाहु नदी में स्नान कर रहा था कि हजार भुजाएं फैला कर इस नदी के जल को रोक लिया| जल इकट्ठा होकर ऊंचा होने लगा| पानी ऊंचा होकर नदी किनारे खेतों तथा जंगलों में फैलने लगा| एक वन में रावण भक्ति कर रहा था, पानी उसके नीचे चला गया| सहसबाहु ने उसको जकड़ कर बंदी बना लिया| इसी सहसबाहु ने जमदग्नि को मारा था|

रक्त बीज 

रक्त बीज एक ऐसा दैत्य था कि इसके रक्त की जितनी बूंदें धरती पर गिरती उतने ही दैत्य उत्पन्न हो जाते थे| कहते हैं कि राजा निसुंभ की लड़ाई देवी माता दुर्गा से हुई तो रक्त बीज उस से सुंभ निसुंभ की तरफ सेनापति था| काली मां ने इसके रक्त को पीकर इसका संहार किया था|


मधु कीटब

यह दो दैत्य थे| भगवान विष्णु ने इनको अपने कानों की मैल से उत्पन्न किया था| युवा होकर दोनों दैत्य ब्रह्मा जी को खाने लगे| ब्रह्मा जी ने अपने प्राण बचाने के लिए भगवान विष्णु की उस्तति की और उन्हें सोते हुए जगाया| भगवान विष्णु कई हजार वर्षों से सोए हुए थे| ब्रह्मा जी के ध्यान करने पर वह अपनी निद्रा से जाग उठे| दैत्य मधु और कीटब से भगवान विष्णु का पांच हजार वर्ष घोर युद्ध होता रहा लेकिन इस युद्ध में न ही विष्णु जी हारे और न ही मधु कीटब ने दम छोड़ा| अंत में महा माया ने हस्तक्षेप किया| मोहिनी रूप होकर उसने मधु और कीटब को भ्रम में डाल दिया| दोनों दैत्य शांत हो गए| उन्होंने भगवान विष्णु से लड़ना छोड़ दिया| दोनों राक्षसों ने विष्णु से कहा, 'आप हमारे साथ बहादुरी से लड़ते रहे हो, इसलिए जो चाहे वार मांग लीजिए|'

"मुझे अपने सिर दे दें|" यह मांग भगवान विष्णु ने मधु और कीटब राक्षसों से की| वचन के अनुसार दैत्यों को अपने सिर भगवान विष्णु को अर्पण करने पड़े| भगवान विष्णु ने अपनी जांघ पर दोनों दैत्यों के सिर धड़ से जुदा कर दिए| दैत्यों के सिर काटने पर उनका जो रक्त उससे निकला, वह समुद्र के पानी में जम कर धरती बन गई| यह धरती की भी जन्म कथा है|

Tuesday 25 May 2021

साखी राजा भक्तों की

 ॐ श्री साँई राम जी



साखी राजा भक्तों की

१. राजा परीक्षित-राजा परीक्षित अर्जुन (पांडव) का पौत्रा और अभिमन्यु का पुत्र था| महाभारत के युद्ध के बाद यह राजा बना| कलयुग में इसकी चर्चा हुई| पांडवों की संतान का यह एक महान पुरुष था, इसको हस्तिनापुर के सिंघासन पर बिठा कर पांचों पांडव द्रौपदी सहित हिमालय पर्वत को चले गए| यह कई साल राज करता रहा| इस बीच प्रजा को बहुत दुःख हुआ| यह कलयुग का मुख्य राजा था|

२. परूरवा - "दूरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाईओ ||"परूरवा एक राजा हुआ था| वह उर्वशी अप्सरा पर मुग्ध हो गया| परूरवा 'ऐल' का पुत्र था| उर्वशी के वियोग में ही तड़पता रहा तथा इधर-उधर भटकता रहा| इसने प्रभु की भक्ति भी की है| इनके वीर्य से उर्वशी से इन राजकुमारों को जन्म दिया था - आयु, अमावस विश्वास, सतायु, द्रिढायु| राजा परूरवा बहुत बड़े महाबली हुए थे और उर्वशी का नाटक कालिदास ने लिखा था|

३. भगीरथ - भगीरथ राजा दलीप का पुत्र तथा राजा अंशमान का पौत्रा था| राजा अंशमान तथा राजा दलीप ने स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तपस्या की थी पर वह बीच में ही मर गए तथा उनकी इच्छा पूरी न हो सकी| भगीरथ घोर तपस्या करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर लेकर आए, भगवान शिव जी की जटाओं का सहारा लेकर गंगा धरती पर आई| गंगा ने जहानुव ऋषि का आश्रम तथा पूजा की सामग्री बहा दी थी| इस पर जाहनुव ऋषि ने क्रोधित हो कर गंगा को पी लिया था| भगवान शिव जी तथा भगीरथ ने फिर जाहनुव ऋषि को मनाया, उसके पास से गंगा को मुक्त करवा कर धरती पर चलाया तथा भगीरथ ने अपने पूर्वज-पित्रों को जल दिया, जिससे उनका कल्याण हुआ|

४. मानधाता - मानधाता सुयवंशी राजा युवनाशु का पुत्र था| पर इसने मां के पेट से जन्म नहीं लिया, बल्कि राजा के पेट में से (पुरुष के पेट में से) जन्म लिया| यह कथा संक्षेप रूप में इस तरह है - राजा युवनाशु का कोई पुत्र-पुत्री नहीं था| उसने ऋषि-मुनि आमंत्रित करके एक ऋषि के आश्रम में महायज्ञ करवाया| यज्ञ के पश्चात महर्षियों ने पानी का घड़ा मंत्र पढ़ कर रखा| जिसका जल युवनाशु की रानी को पीने के लिए दिया जाना था| रात हुई तो सभी सो गए, ऋषि-मुनि भी सो गए| राजा युवनाशु को प्यास लगी, तो उसने उस मंत्र किए हुए घड़े में से पानी पी लिया| उस जल के कारण राजा के पेट में बच्चा बन गया| पेट चीर कर बच्चे को बाहर निकाला गया| उस बच्चे का नाम मानधाता था| मानधाता ने बिंदरासती से विवाह किया, उसके तीन पुत्र तथा पचास कन्याएं पैदा हुईं| पूर्व जन्म में प्रभु की अटूट भक्ति की थी जिस कारण इसकी बहुत शोभा हुई, यह भक्तों में गिना गया|

५. रुकमांगद - रुकमांगद करतूति राम जंपहु नित भाई
रुकमांगद राजा एकादशी का व्रत रखता था, कहते हैं कि वह ब्रह्मचारी था| यह कभी सपने में भी पराई स्त्री के निकट नहीं जाता था| अपनी स्त्री से बहुत ज्यादा प्यार करता था| एक बार एक अप्सरा उस पर मोहित हो गई, पर इस धर्मी राजा ने उसके प्यार और उसकी सुन्दरता को ठुकरा दिया| एकदशी के व्रत का उसे महत्व बता कर वापिस स्वर्ग लोक भेज दिया| उस दिन से एकादशी का व्रत आरम्भ हो गया| राजा आयु भर एकादशी का व्रत रखता रहा| उसका नाम भक्तों में बड़े आदर से लिया जाता है|

६. रावण - 


इक लखु पूत सवा लखु नाती ||
तिह रावण घर दीआ न बाती ||

रावण लंका का दैत्य राजा था| इसकी माता का नाम कोक तथा पिता का नाम पुलसत्य था| यह तीन भाई थे, दूसरे दो भाईयों के नाम कुम्भकर्ण और विभीषण थे| रावण सीता को उठा कर लंका ले गया| श्री राम चन्द्र जी ने चढ़ाई की, युद्ध हुआ तथा रावण मारा गया| रावण के दस सिर थे, वह बली तथा विद्वान था| इसने चार वेदों की व्याख्या की इसके एक लाख पुत्र तथा सवा लाख पुत्रियां थीं, पर अन्याय एवं जुल्म करने के कारण उसकी सोने की लंका, स्वयं तथा पुत्र-पुत्रियां सब खत्म हो गए| सीता का हरण कर के लंका लेकर आना उसका महापाप था|

७. राजा अजय - 


अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ||
ऐसी दरगह मिलै सजाइ ||
राजा अजय, दशरथ के पिता तथा श्री राम चन्द्र जी के दादा थे| इसने एक साधू को घोड़ों की लीद अंजली भर कर दान कर दी थी| क्योंकि साधू ने उस समय भिक्षा मांगी जब राजा घोड़ों के पास था तथा लीद ही वहां थी| गुस्से में आकर उसने लीद दान में दे दी| साधू ने श्राप दिया तथा लीद कई गुणा रोज़ बढ़ती गई| कहते हैं कि वह लीद का दिया हुआ दान उसको खाना पड़ा, जब वह लीद खाता था तो रोया करता था तथा कहता था कि किसी संत-महात्मा के साथ नाराज होना ठीक नहीं, दिया हुआ दान आगे प्रभु के दरबार में मिलता है|

८. बाबा आदम - भक्त कबीर जी ने भैरऊ राग में बाबा आदम जी का जिक्र किया है|


"बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ||
उनि भी भिसति घनेरी पाई ||"
ईसारी धर्म की पुरानी पुस्तक 'अंजील' के मुख्य पात्र बाबा आदम जी हैं| 'अंजील' के अनुसार बाबा आदम जी की कथा इस प्रकार है-खुदा ने पहले मनुष्य बनाया था| खुदा पहले शैतान को भी बना बैठा था| मनुष्य बना कर खुदा ने सभी फरिश्तों (देवताओं) को कहा कि आदम को सलाम करो| सबने सलाम किया, पर शैतान ने सलाम न किया| अदन में स्वर्ग बना कर आदम ने जीवन साथी पहली स्त्री माई हवा को अदन के स्वर्ग बाग में भेज दिया| खुदा ने ज्ञान फल (गेहूं) खाने से आदम और हवा को रोका पर शैतान ने एक दिन आदम की अनुपस्थिति में अकेली हवा को उकसाया| अपनी हेराफेरी का शिकार बना कर कहा कि खुदा ने जो काम की चीज़ खाने वाली है उसे तो खाने से रोक दिया है, ज्ञान फल खा कर देखो, चारों कुण्ट का ज्ञान हो जायेगा, तुम जरूर आदम को कहना और ज्ञान फल खाने के लिए प्रेरित करना, यह कह कर शैतान अलोप हो गया| हवा के दिल में ज्ञान फल खाने की तीव्र इच्छा पैदा हो गई| जब आदम मिला तो हवा ने उसे ज्ञान फल खाने के लिए मना लिया| आदम और हवा ने जब ज्ञान फल खा लिया तो उन्हें स्त्री-पुरुष, काम, मोह, लालच और शर्म आदि का ज्ञान हो गया| उनको अपने नग्न तन के बारे में ज्ञान हुआ तो एक दूसरे से दूर हो कर छिप गए| इस बात का खुदा को पता लग गया| खुदा स्वयं आया और दोनों को एक-दूसरे के निकट करके समझाया-शैतान का कहना मान कर आपने भारी भूल की है, जाओ अब स्वर्ग में नहीं रह सकते| स्त्री-पुरुष बन कर रहो और संतान पैदा करो| खुदा ने शैतान को सर्प योनि का श्राप दे दिया| आदम और हवा के हजारों पुत्र हुए जिन से संसार की जन-संख्या बढ़ी| खुदा का कहना न मानने के कारण आदम गुनाहगार था, इसलिए उसकी औलाद भी गुनाहगार है| उसका उद्धार सत्य तथा सिमरन के सहारे है|

९. अरुण पिंगला - अरुण पिंगला बल वाला पक्षी और भगवान गरुड़ का भाई है| सूर्य का रथवान बना हुआ है| पर यह पिंगला है, पिंगला होने के कारण इसके जीवन में अधूरापन है| बिनता के दो अण्डे हुए| बिनता के पति ने कहा कि हर अण्डा हजार साल से पहले न तोड़ना, पर बिनता ने एक अण्डा पांच सौ साल बाद तोड़ दिया| इसलिए अरुण का शरीर पूरा नहीं बना था| पर गरुड़ का अण्डा हजार साल बाद अपने आप टूटा था, वह पूर्ण पक्षी बना| पूर्व जन्म के श्राप के कारण सूर्य और गरुड़ उसकी कोई सहायता नहीं करते थे|

१०. इन्द्र रो पड़ा - सहंसर दान दे इन्द्र रोआइआया ||
इन्द्र देवताओं का बड़ा राजा था, पर अहल्या के साथ दुष्कर्म करने के कारण शरीर पर हजार भग हो गई थी| इस कष्ट के कारण रोता रहा था| हजार भग का श्राप उसको अहल्या के पति ऋषि गौतम ने दिया था| जैसा कि पीछे गौतम तथा अहल्या की कथा में बताया गया है| इससे शिक्षा मिलती है कि पर-नारी की ओर ध्यान नहीं करना चाहिए|

Monday 24 May 2021

साखी गरुड़ की

 ॐ श्री साँई राम जी



साखी गरुड़ की

पुरातन काल में एक ऋषि कश्यप हुए हैं, वह गृहस्थी थे तथा उनकी दो पत्नियां थीं - बिनता और कदरू| कदरू के गर्भ में से सांप पैदा होते थे जिनकी कोई संख्या नहीं थी, पर बिनता के कोई पुत्र पैदा नहीं होता था| वह बहुत दुखी थी| उसने अपने पति के आगे अपना दुःख प्रगट किया| कश्यप ने कहा-तुम्हारे पुत्र तभी हो सकता है, यदि यज्ञ किया जाए| बिनता ने कहा-तुम्हारे पुत्र तभी हो सकता है, यदि यज्ञ किया जाए| बिनता ने कहा-फिर यज्ञ करो| यज्ञ का प्रबन्ध किया गया| देवराज इन्द्र जैसे देवता यज्ञ में आए| उस यज्ञ के साल बाद बिनता के गर्भ से दो पुत्र पैदा हुए जो अग्नि तथा सूर्य के समान बहुत तेज़ वाले थे| एक का नाम गरुड़ तथा दूसरे का अरूण रखा गया| जब दोनों बड़े हुए तो गरुड़ को विष्णु जी ने अपना यान बना लिया, उस पर सवारी करने लगे| गरुड़ सब पक्षियों से तेज़ दौड़ता था| अरूण सूर्य का रथवान बन बैठा क्योंकि वह बहुत महाबली था, सूर्य उस पर प्रसन्न रहता था|

अरूण तथा गरुड़ के बाद बिनता के चार पुत्र पैदा हुए| जिनके नाम यह हैं - ताख्रया, अरिष्ट नेमि, आरूनि तथा वारूण| ये छ: पुत्र बड़े सूझवान तथा बली थे, पर सांपों से इनको सदा खतरा रहता था| कदरू चाहती भी थी कि बिनता के पुत्र मार दिए जाएं, पर उसको कोई बहाना तथा समय हाथ नहीं आता था| महाभारत में कथा आती है कि बिनता तथा कदरू एक दिन किसी बात पर आपस में वाद-विवाद करने लग पड़ी कि सूर्य का घोड़ा काला है या सफेद| कदरू कहती थी काला तथा बिनता रहती थी सफेद| चालाकी से कदरू ने सफेद घोड़े को काला साबित करके बिनता को दिखा दिया| शर्त के अनुसार बिनता पुत्रों सहित सौतन की गुलाम हो कर रहने लगी| पराधीन मनुष्य तो स्वप्न में भी सुखी नहीं होता, फिर सौतन की पराधीनता तो वैसे ही बुरी होती है| बिनता बहुत दु:खी हुई| बिनता ने कदरू से पूछा कि क्या कोई मार्ग है जिससे मैं स्वतन्त्र हो सकती हूं? कदरू ने उत्तर दिया - 'यदि स्वर्ग (इन्द्र लोक) में से अमृत का घड़ा मंगवा कर मुझे दे दो तो तुम तथा तुम्हारे पुत्र भी स्वतन्त्र हो जाएंगे, क्योंकि मैं अमृत अपने पुत्र सांपों को पिला दूंगी, वह अमर हो जाएंगे, उनको कोई नहीं मार सकेगा|'

सौतन की इस मांग को बिनता ने अपने पुत्र गरूड़ के आगे प्रगट किया| बलशाली गरूड़ बोले-'हे माता! तुम्हारे सुखों के लिए मैं जान कुर्बान करने के लिए तैयार हूं| आज ही इन्द्र लोक पहुंचता हूं तथा अमृत का घड़ा लेकर आता हूं| यह कौन-सी कठिन बात है|' माता को इस तरह धैर्य देकर गरूड़ इन्द्रलोक चला गया| अमृत के घड़े को देवता भला कैसे उठाने देते| गरूड़ तथा इन्द्र की लड़ाई हो गई| कई दिन महा भयानक युद्ध लड़ते रहे| अंत में इन्द्र हार गया तथा गरूड़ जीत गया| गरूड़ की बहादुरी को देख कर इन्द्र उस पर प्रसन्न हो गया, खुशी में कहने लगा - 'कोई वर मांगना हो तो मांग लो|' उस समय गरूड़ ने यह वर मांगा, 'एक तो मैं प्रभु विष्णु जी की सेवा करता रहूं तथा दूसरा सांप मेरी खुराक हो जाएं|' गरूड़ की यह मांगें सुन कर इन्द्र ने यहीं वर दिए| वर देने के पश्चात पूछा, 'एक तरफ तुम सांपों को अमृत दे कर अमर कर रहे हो, दूसरी तरफ कहते हो वह मेरी खुराक बन जाएं, यह क्या मामला है?' गरूड़ बोला - 'मैंने अमृत दे कर माता के वचन की पालना करनी है तथा उनको उनकी सौतन से स्वतन्त्र करवाना है| जब मेरा धर्म पूरा हो जायेगा बेशक आप घड़ा वापिस मंगवा लेना| मैंने इसका क्या करना है| हां ऐसे करो! दूत मेरे साथ भेजो! जब मेरी माता यह अमृत का घड़ा मेरी सौतेली माता कदरू के हवाले करे तो उस समय वह जहां उस घड़े को रखे वहां से आपके दूत उस घड़े को उठा कर भाग आएं|'

गरूड़ की इस योजना को देवराज इन्द्र मान गया| इन्द्र ने उसी समय अपने चार दूत गरूड़ के पीछे मृत्यु लोक में भेज दिए| गरूड़ अमृत का घड़ा लेकर घर पहुंचा| अपनी मां को सौंपकर खुशियां प्राप्त कीं| बिनता ने वही घड़ा जा कर कदरू को सौंप दिया तथा कदरू ने घड़ा एक स्थान पर रखकर बिनता को स्वतन्त्र कर दिया| उधर सांपों के अमृत घड़े के पास पहुंचने से पहले ही इन्द्र के दूत घड़ा उठा कर रफ्फू चक्कर हो गए| कदरू के कहने पर सांप अमृत पीने गए| उनको घड़ा न मिला, पर जिस जगह घड़ा रखा हुआ था, उसी जगह को जीभों से चाटने लग गए| उनकी जीभें छिल गईं| उस दिन से सांपों की नस्ली तौर पर जीभ छिलनी शुरू हो गई|

रामायण में लिखा है कि जब श्री रामचन्द्र जी मेघनाद से युद्ध कर रहे थे तो मेघनाद ने दैवी शक्ति के बल से श्री रामचन्द्र जी को सेना सहित नागों के फन से धरती पर गिरा लिया| उस समय देवर्षि नारद तथा भगवान विष्णु ने गरूड़ को भेजा| गरूड़ ने जाकर सारे नाग खा लिए तथा श्री रामचन्द्र जी को सेना सहित मरने से बचा लिया|

हिन्दू लोग गरूड़ को भगवान का रूप भी मानते हैं| यह पक्षियों का राजा तथा विष्णु का सेवादार है| इसके दर्शन करने बहुत शुभ हैं|

Sunday 23 May 2021

सत्ता और बलवंड

 ॐ श्री साँई राम जी




सत्ता और बलवंड

सत्ता और बलवंड दोनों सगे भाई थे| वह भाट जाति से थे और पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी के समय उनकी हजूरी में कीर्तन किया करते थे| रागों में निपुण होने के कारण वह अच्छे रबाबी बन गए| उनकी चारों तरफ कीर्ति थी और गुरु घर में उनको अच्छा मान-सम्मान प्राप्त था| उनका कीर्तन सुनकर सारी संगत का समां बंध जाता था| सत्ता की लड़की जवान हुई तो उसका विवाह करने का निर्णय किया गया| गुरु घर के रबाबी होने के कारण उन्होंने सलाह की कि लड़की का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ किया जाएगा लेकिन सत्ता और बलवंड के पास इतना धन नहीं था कि जो अच्छा दहेज दे सकें और आए मेहमानों एवं बारातियों को अच्छा से अच्छा भोजन खिला सकें| सत्ता ने अपने भाई बलवंड से सलाह करके मन में सोचा कि वह सतिगुरु जी के आगे प्रार्थना करेंगे कि सतिगुरु जी एक दिन की सारी भेंट उन्हें देने की कृपा करें, वह भेंट अधिक होगी तथा उनके सारे कार्य संवर जाएंगे|

यह सोचकर दोनों भाई सतिगुरु जी के पास गए और विनती की, 'महाराज! हमारी लड़की का विवाह है लेकिन विवाह का खर्च पूरा करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं, इसलिए आप जी कृपा करके आज की सारी भेंट हमें देकर मेहर करें|'

रबाबियों की यह बात सुनकर सतिगुरु जी मुस्करा दिए और वचन किया, 'राय कन्या की शादी की चिन्ता न करो| गुरु घर में कीर्तनीए होने के कारण आपको कोई कमी नहीं आएगी| आवश्यकता अनुसार आपको धन मिल जाएगा|

लेकिन सत्ता और बलवंड सतिगुरु जी के वचनों का भावार्थ न समझ सके, उनके मन में लालच आ गया था| सतिगुरु जी उनके मन की बदली हुई दशा को जान गए थे| इसलिए गुरु जी अहंकार की अग्नि से उन दोनों को बचाना चाहते थे| लेकिन रबाबी अहंकार से न बच सके और उन्होंने अपनी जिद्द न छोड़ी| अन्त में सतिगुरु जी ने वचन किया, 'ठीक है, जो भेंट कल संगत चढ़ाएगी आप ले जाना और उससे अपनी पुत्री की शादी कर लेना|'

प्रात:काल सत्ता और बलवंड ने कीर्तन करना शुरू किया लेकिन उनकी वृति कीर्तन की तरफ से उखड़कर भेंट की ओर लग गई| कीर्तन के समय जो भी सिक्ख या गुरु घर का श्रद्धालु आकार नमस्कार करता तो दोनों भाइयों की निगाह उसके चढ़ावे की तरफ लग जाती| इस तरह कीर्तन में रस न रहा, ताल की एकसुरता टूट गई और लै कांपने लगी| गुरुबाणी में भी कई भूलें होने लगीं तथा बेरसी छा गई|

उनके कीर्तन की बेरसी और संगत के कम आने के कारण ऐसा सबब बना कि एक सौ रूपए से अधिक चढ़ावा भेंट न हुआ| भेंट कम देखकर दोनों भाइयों के सिर में पानी फिर गया|

वह कुछ गुस्से और हैरानी के साथ बोले, 'महाराज! संगत की ओर से भेंटे बहुत कम चढ़ाई गई हैं, इसलिए हमारी और सहायता कीजिए, इतने से शादी नहीं हो सकती|

यह सुनकर पांचवें पातशाह मुस्कराए और वचन किया, 'भाई आप ने चढ़ावे का फैसला किया था| इसलिए चढ़ावा ले जाओ| कन्या की किस्मत में जो कुछ होगा, वह उसको मिल जाएगा| लड़की की चिन्ता न करो पर अपना वचन निभाओ|'

उस समय दोनों भाइयों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई तथा उनको किसी बात की समझ ही नहीं आई| मन में अहंकार था कि वह कीर्तनीए हैं, यदि कीर्तन न करेंगे तो गुरु का दरबार कैसे लगेगा? सतिगुरु महाराज जी की शक्ति का अनुभव भी भूल गया और अहंकार करके बैठने का फैसला कर लिया|

अगली सुबह 'आसा की वार' का कीर्तन होना था लेकिन दोनों ही रबाबी हाजिर न हुए और घर में पलंग पर लेटे रहे| दरबार में संगत इंतजार करने लगी| सतिगुरु जी भी अपने नियम अनुसार दरबार में उपस्थित हुए और सिंघासन पर विराजमान हो गए| गुरु जी ने रबाबियों को दरबार में अनुपस्थित देखकर एक सिक्ख को कहा कि वह उन दोनों को बुला कर लाए| श्रद्धालु सिक्ख दौड़ कर गया| उसने दोनों भाइयों सत्ता और बलवंड को जाकर कहा, 'श्रीमान जी! सच्चे पातशाह आपको याद कर रहे हैं, आप चलकर कीर्तन करो|'

यह सुनकर सत्ते के तनबदन में आग लग गई और पागलों की तरह गुस्से से बोला, 'हमने कोई कीर्तन नहीं करने जाना| यदि हमने चढ़ावे के लिए कहा तो मसंदों द्वारा चढ़ावा रोक दिया गया| हमारे साथभेदभाव किया गया है| इसलिए आज से हम गुरु घर में कीर्तन नहीं करेंगे|

किसी और सोढी या बेदी के आगे कीर्तन करके उसको गुरु बना सकते हैं| गुरु बनाना या न बनाना हमारे वश में है| यह उत्तर सुनकर सिक्ख वापिस लौट आया और उसने सारी बात सतिगुरु महाराज जी के आगे व्यक्त कर दी|

दया एवं विनय के सागर सच्चे पातशाह नाराज न हुए अपितु भाई गुरदास जी को यह कह कर भेजा कि वह रागियों को सत्कार सहित दरबार में ले आएं| उनकी कन्या का विवाह उसी तरह धूमधाम से हो जाएगा, जैसा वह चाहते हैं|

भाई गुरदास जी सत्ता और बलवंड के घर पहुंचे| उन्होंने बड़ी नम्रता से दोनों को समझाने का प्रयास किया लेकिन रबाबियों का गुस्सा शांत न हुआ| भाई बलवंड ने बड़े गुस्से और मूर्खता के साथ यह जवाब दिया, 'जाओ आप कीर्तन कर लो| गुरु यदि इतनी शक्ति रखते हैं तो वह आप ही कीर्तन करें| हम आगे से गुरु दरबार में कीर्तन नहीं करेंगे|' भाई गुरदास जी ने फिर भी इसका गुस्सा न किया अपितु सत्ता और बलवंड को समझा कर उनके मन को शांत करने का अथक प्रयास किया लेकिन वे टस से मस न हुए| दोनों भाई हठ करके बैठे रहे मगर गुरु दरबार में उपस्थित न हुए|

पांचवें पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज स्वयं सिंघासन से उठकर रबाबियों के घर पहुंचे| संगत भी गुरु जी के साथ जाना चाहती थी लेकिन सतिगुरु जी ने भाई गुरदास जी के अलावा किसी अन्य को साथ न लिया| दीन दुनिया के वाली सत्ता और बलवंड के घर पधारे तो सबब से दरवाजा खुला हुआ था| गुरु साहिब आंगन में चले गए| आगे दोनों भाई चारपाई पर बैठे थे| उन्होंने इतना जिद्दीपन अपनाया कि न उठकर श्री सतिगुरु अर्जुन देव जी को नमस्कार की और न ही उनका स्वागत किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया| अपितु आंखें झुकाकर बैठे रहे| सतिगुरु जी ने नम्रता से वचन किया, 'चलो, भाई! गुरु घर में कीर्तन करो और सतिगुरु नानक देव जी की खुशियां प्राप्त करो| गुरु घर के साथ नाराज तोना ठीक नहीं, गुरुबाणी संगत को सुनानी है| आपकी कन्या की शादी के लिए आपको पर्याप्त धन मिल जाएगा|'

राय बलवंड बड़ा गुस्सैल स्वभाव वाला साबित हुआ| उसने आगे से बड़े अहंकार के साथ कहा, 'हमने नहीं कीर्तन करने जाना| हमने आपको गुरु बनाने का प्रयास किया लेकिन आपने हमारे साथ छल करके भेंटें न चढ़ने दीं, जिससे दिल चाहे कीर्तन करवा लें| हम किसी अन्य सोढी के पास चले जाएंगे| श्री गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु रामदास जी तक हम ही गुरु बनाते आए हैं, यदि हम कीर्तन न करते तो आपको किसने गुरु मानना था?'

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने जब ऐसे कटु वचन सुने तो बड़े सतिगुरुों की निंदा सुनी, तब वह सहन न कर सके और क्रोध में आकर वचन किया - 'सत्ता और बलवंड आप कुष्ठी हो गए हो, यह कुष्ठ आपको तंग करेगा|' यह वचन करके गुरु जी अपने दरबार में आ गए|

दरबार में आकर गुरु जी ने अपनी आत्मिक शक्ति का एक महान चमत्कार दिखाया| वह चमत्कार इस प्रकार था कि उन्होंने दरबार में हुक्म कर दिया कि आज से गुरु घर के सिक्ख आप कीर्तन किया करेंगे| साज बजाएंगे और ऐसे अहंकारी गायकों की कभी आवश्यकता नहीं रहेगी| यह वचन करके सतिगुरु जी ने दो सिक्खों को इशारा किया कि वह साज पकड़कर कीर्तन करें| सिक्खों ने साज लेकर राग गाया| ऐसा चमत्कार हुआ कि गंधर्व रागियों की तरह कीर्तन का रस बंध गया तथा सचमुच ही रबाबियों की आवश्यकता न रही|


सत्ता और बलवंड को कुष्ठ रोग होना 

सतिगुरु जी के वापिस आने के पश्चात सत्ता और बलवंड को सचमुच ही कुष्ठ रोग हो गया| वह जिधर को निकलते, लोग उनके दर्शन न करते और अपना द्वार बंद कर लेते, क्योंकि वह सतिगुरु जी के फिटकारे हुए थे| धीरे-धीरे रोग बढ़ गया| एकत्रित किया हुआ धन समाप्त हो गया और गुरु निंदकों को किसी सोढी या बेदी ने मुंह न लगाया| दिन-ब-दिन उनकी दशा खराब हो गई तथा वह दुःख पाने लगे|

दुखी हुए दोनों भाई चाहते थे कि सतिगुरु जी उन दोनों की भूल क्षमा कर दें लेकिन वह सतिगुरु जी के हजूर में किसी तरह भी नहीं जा सकते थे| गुरु जी ने हुक्म किया था कि जो भी कोई इन दोनों की फरियाद करेगा, उनका मुंह काला कर दिया जाएगा| जिस कारण कोई भी सिक्ख डरता हुआ सतिगुरु के समक्ष विनती न करता| सभी डरते थे कि सतिगुरु जी शायद उनको भी श्राप न दे दें|

दोनों भाई अपनी छत पर खड़े होकर अपने मुख पर आप तमाचे मारते थे और की हुई भूल पर रो-रोकर पछतावा करते| वह चिल्ला कर कहते, 'कोई हमारा दुःख सुने तथा गुरु जी के पास ले चले, हम पापी और महाकुष्ठी हैं| हमारी फरियाद सुनी जाए|' लेकिन कोई भी हां न करता जो उनकी फरियाद सुनता|

राय बलवंड को याद आया कि लाहौर में भाई लधा परोपकारी हैं| दुःख-तकलीफ उठाते हुए पैदल चलकर दोनों भाई लाहौर पहुंचे| भाई लधा जी के पास जाकर उन्होंने विलाप करके कहा, 'भाई लधा जी आप परोपकारी महापुरुष हो, यह तो आप ने सुन ही लिया है कि हमने सतिगुरु अर्जुन देव जी पातशाह के हजूर निंदा भरे वचन बोले हैं| अहंकार और लालच ने बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी| हम अन्धे और बहरे हो गए थे| सतिगुरु के वचन अनुसार हमें कुष्ठ रोग हो गया है| हम अत्यंत दु:खी हैं| कृपा करें और सतिगुरु जी से भूल क्षमा करवा दें|'

इस तरह विनती करते हुए वह रोते तथा पीटते गए| तब भाई लधा परोपकारी के मन में दया आ गई| उन्होंने वचन किया, अब आप जाएं, मैं कल सतिगुरु जी के दरबार में स्वयं हाजिर होकर प्रार्थना करूंगा और आपके लिए क्षमा की भीख मांगूंगा| आशा है कि सतिगुरु जी मेहर के घर में आएंगे|

सत्ता और बलवंड भाई लधा जी से कुछ आशा भरे वचन सुनकर उसका यश करते हुए अपने घर लौट आए|

भाई लधा जी लाहौर में सतिगुरु जी के श्रद्धालु सिक्ख थे| आप बड़े परोपकारी तथा दया धर्म और नाम के रसिया थे| जिस कारण हर कोई दुखिया उनके पास जाता और विनती करता था| उनको जब पता लगा कि सत्ता और बलवंड की जो सिफारिश करेगा उसको बदनाम होना पड़ेगा| उसकी हर तरफ बदनामी होगी, क्योंकि सतिगुरु का हुक्म है कि जो कोई सत्ता तथा बलवंड की सिफारिश करेगा उसका मुंह काला करके गधे पर बैठा कर घुमाया जाएगा| परोपकारी भाई लधा जी ने आप ही नशर होने का उपाय बना लिया| भाई लधा ने एक गधा मंगवा कर उसको चिथड़ों की लगाम डाली और फटी हुई गोदड़ी डालकर उसके ऊपर आप बैठ गए| भाई लधा ने अपने मुंह और बदन पर कालिख पोत ली और लोगों के लिए निकम्मा बन गए| वह लाहौर से अमृतसर की तरफ चल पड़े| भाई लधा जी एक महान परोपकारी गुरसिक्ख थे और अपनी हानि करके भी दूसरों का सदा भला करते थे| धीरे-धीरे चलते हुए वह अमृतसर पहुंच गए| सतिगुरु जी को पहले ही पता चल गया था| इसलिए सतिगुरु जी स्वयं आगे होकर मिले तथा हंसकर वचन किया -

'...भाई लधा जी! यह कैसा सांग बनाया हुआ है ?'

'महाराज! जिस तरह आपकी आज्ञा!' भाई लधा जी ने उत्तर दिया|

'महाराज! सत्ता और बलवंड कुष्ठ रोगी हो गए हैं तथा कुरला रहे हैं| दया कीजिए, आपका यश करेंगे, भूल अनुभव करते हैं, इन्हें क्षमा कर दें| बच्चे सदा भूलें करते रहते हैं और माता-पिता क्षमा करते रहते हैं| मेहर करें| फिर भी गुरु घर के कीर्तनीए हैं|' इस तरह भाई लधा जी ने विनती की|

सतिगुरु जी ने भाई लधा जी को गधे से नीचे उतारा और हाथ-मुंह धुलाया तथा वार दिया, 'भाई लधा परोपकारी|' यह भी वचन कर दिया, 'अच्छा! जिस तरह इन्होंने सतिगुरु महाराज (गुरु नानक देव जी तथा बाकी के गुरु साहिबों की| निंदा की थी, तैसे ही यश करें, वह जैसे-जैसे यश करते जाएंगे, वैसे ही उनका कुष्ठ रोग दूर होता जाएगा|

सतिगुरु जी का यह हुक्म सत्ता और बलवंड को सुनाया गया| उन्होंने गुरु साहिब से अपनी भूल की क्षमा मांगी व फिर से दरबार में कीर्तन करने लगे| इनके द्वारा किया गया गुरु यश बाणी के रुप में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है| आओ दर्शन करें -

रामकली की वार राइ बलवंडि तथा सत्तै डूमि आखी

१ओ सतिगुरु प्रसादि||
नाउ करता कादरु करे किउ बोलु होवै जोखीवदै ||
दे गुना सति भैण भराव है पारंगति दानु पड़ीवदै ||
नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै ||
लहणे धरिओनु छतु सिरि करि सिफती अंम्रितु पीवदै ||
मति गुर आतम देव दी खड़गि जोरि पराकुइ जीअ दै ||
गुरि चेले रहरासि कीई नानकि सलामति थीवदै ||
साहि टिका दितोसु जीवदै ||१||
लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटिऐ ||
जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटिए ||
झुलै सु छतु निरंजनी मलि तखतु बैठा गुर हटिऐ ||
करहि जि गुर फुरमाइआ सिल जोगु अलूणी चटीऐ ||
लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटिऐ ||
खरचे दिति खसंम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ||
होवै सिफति खसंम दी नूरु अरसहु झटीऐ ||
तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ||
सचु जि गुरि फुरमाइआ किऊ एदू बोलहु हटिऐ ||
पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्हि मुरटीऐ ||
दिलि खोटै आकी फिरनि बंनि भारु ऊचाइन्हि छटीऐ ||
जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ||
कउणु हारे किनि ऊवटीऐ ||२||
जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ||
धरम राई है देवता लै गला करे दलाली ||
सतिगुरु आखै सचा करे सो बात होवै दरहाली ||
गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ||
नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ||
दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होई जंगाली ||
दरि दरवेसु खसंम दै नाई सचै बाणी लाली ||
बलवंड खीवी देक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ||
लांगरि दउलति वंडीऐ रसु अंम्रितु खीरि घिआली ||
गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ||
पए कबूलु खसंम नालि जां घाल मरदी घाली ||
माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ||३||
होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ||
नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ||
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ||
चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलाकिओनु ||
कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ||
लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ||
जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ||
सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जिकिओनु ||
जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ||४||
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ||
जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ||
लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ||
वारिऐ दरगह गुरु की कुदरती नूरु ||
जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ||
नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ||
निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ||
नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ||
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ||५||
सो टिका सो बैहणा सोई दिबाणु ||
पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ||
जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेहि ताणु ||
जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ||
चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ||
घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ||
धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ||
कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ||
सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ||
नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ||
चारे कुंडां सूझीओसु मन महि सबदु परवाणु ||
आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ||
अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ||
झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ||
जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ||
किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ||
दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ||
नानक हंदा छत्त्रु सिरि उमति हैराणु ||
सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ||
पिऊ दादै जेविहा पोत्रा परवाणु ||६||
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ||
पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ||
सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ || 
अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ||
जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ||
लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ||
धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ||
नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ||
गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ||७||
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ||
आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थंम्हि खलोआ ||
आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ || 
सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ||
तखति बैठा अरजन गुरु सतिगुर का खिवै चंदोआ ||
उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ||
जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ||
दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ||
चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ||८||१||

इस तरह जब सत्ता तथा बलवंड ने गुरु महाराज की उस्तति की तो उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया| भोग डाला गया तथा अमृत सरोवर में स्नान किया तथा वे तरोताजा शुद्ध हो गए| वह पुन: गुरु दरबार में कीर्तन करने लग गए|

लेकिन सतिगुरु महाराज जी ने हुक्म दिया कि आगे से तमाम सिक्ख राग तथा साज विद्या की शिक्षा प्राप्त करें तथा गुरु घर में हर कोई श्रद्धालु कीर्तन कर सकता है| रबाबियों की अजारेदारी को समाप्त कर दिया गया| वह इसलिए कि कोई शिकायत देकर कीर्तन करने से आकी न हो| यदि रागी या रबाबी न भी मिले तो भी कीर्तन होता रहे|

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.