शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)

Friday, 30 April 2021

संत तुलसीदास जी

 ॐ साँई राम जी



संत तुलसीदास जी

भूमिका:

श्रीमद भागवत के बाद दूसरे स्थान पर भारतीय जन मानस को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला ग्रंथ रामचरितमानस ही रहा है| ये दोनों ग्रंथ ही सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं|


राम भक्ति शाखा के शिरोमणि तुलसी दास जी रामचरितमानस ग्रंथ के रचियता कहे जाते हैं| जिसके तन और मन में राम हों वही ऐसे भक्ति रस से परिपूर्ण ग्रंथ रचना कर सकता है| तुलसीदास जी ऐसे ही व्यक्ति थे| गुरु ने बचपन में ही उनका नाम "रामबोला" रख दिया था|

परिचय:

तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजपुर गाँव में हुआ| इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम तुलसी था| आप की शारीरिक देह पांच वर्ष के बालक जैसी थी| सामान्यता प्रत्येक बच्चा रोते हुए जन्म लेता है परन्तु इस विलक्षण बालक ने रोने की बजाए "राम" शब्द का उच्चारण किया था| कहा जाता है कि जन्म के समय इनके मुख में पूरे बत्तीस दांत थे|

इस विचित्र बालक की विलक्षणता को लेकर माता-पिता को अनिष्ट की आशंका हुई| उन्होंने तब अपने बालक को अपनी सेविका चुनिया को सोंप दिया| वह उसे अपने ससुराल ले गई| जब तुलसीदास जी साढे पांच वर्ष के हुए तो चुनिया इस संसार को छोड़ के चली गई| तब इस बालक पर अनंतानंद जी के शिष्य नरहरि आनन्द की दृष्टि पड़ी| वह तुलसीदास जी को अपने साथ अयोध्या ले गए| उन्होंने ही उनका नाम रामबोला रखा| तुलसीदास का विवाह रत्नावली जी से हुआ|

प्रभु भक्ति की प्रेरणा:

तुलसीदास जी अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे| वह अपनी पत्नी का विछोड़ा एक दिन के लिए भी सहन नहीं कर सकते थे| एक बार उनकी पत्नी उनको बताए बिना मायके आ गई| तुलसीदास जी उसी रात छिपकर ससुराल पहुँच गए| इससे उनकी पत्नी को बहुत शर्म महसूस हुई|

वह तुलसीदास जी से कहने लगी, "मेरा शरीर तो हाड-मास का पुतला है| जितना तुम इस शरीर से प्रेम करते हो यदि उससे आधा भी भगवान श्री राम जी से करोगे तो इस संसार के माया जाल से मुक्त हो जाओगे| तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा|"

तुलसीदास के मन पर इस बात का गहरा प्रभाव पड़ा| वह उसी क्षण वहाँ से निकाल पड़े और अपना सब कुछ छोडकर भारत के तीर्थ स्थलों के दर्शन को चल दिए| कहते हैं कि हनुमान जी की कृपा से उन्हें भगवान राम जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन राम जी की महिमा में लगा दिया|

साहित्यक देन:

तुलसीदास जी का काव्य लेखन केवल रामचरितमानस तक ही सीमित न रहा| इन्होने कवितावली, दोहावली, गीतावली व विनय पत्रिका जैसी रचनाएँ भी लिखी हैं| तुलसीदास जी ने बारह पुस्तकें लिखी जिसमे रामचरितमानस सबसे अधिक प्रसिद्ध है| इन्ही को बाल्मीकि का अवतार माना जाता है जिन्होंने संस्कृत में रामायण लिखी थी|

इनका लेखन अवधी व ब्रज भाषा दोनों में मिलता है| जन मानस को अधिक प्रभावित करने वाला ग्रंथ रामचरितमानस की रचना लोक भाषा में हुई| उस काल में प्रचलित दोहा, चौपाई, कविता व सवैया और पद लेखन की गीति शैली को भी अपनाया गया|

Thursday, 29 April 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 3

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 3
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श्री साईंबाबा की स्वीकृति, आज्ञा और प्रतीज्ञा, भक्तों को कार्य समर्पण, बाबा की लीलाएँ ज्योतिस्तंभ स्वरुप, मातृप्रेम–रोहिला की कथा, उनके मधुर अमृतोपदेश ।
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श्री साईंबाबा की स्वीकृति और वचन देना
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जैसा कि गत अध्याय में वर्णन किया जा चुका है, बाबा ने सच्चरित्र लिखने की अनुमति देते हुए कहा कि सच्चरित्र लेखन के लिये मेरी पूर्ण अनुमति है । तुम अपना मन स्थिर कर, मेरे वचनों में श्रदृा रखो और निर्भय होकर कर्त्तव्य पालन करते रहो । यदि मेरी लीलाएँ लिखी गई तो अविघा का नाश होगा तथा ध्यान व भक्तिपूर्वक श्रवण करने से, दैहिक बुदि नष्ट होकर भक्ति और प्रेम की तीव्र लहर प्रवाहित होगी और जो इन लीलाओं की अधिक गहराई तक खोज करेगा, उसे ज्ञानरुपी अमूल्य रत्न की प्राप्ति हो जायेगी । इन वचनों को सुनकर हेमाडपंत को अति हर्ष हुआ और वे निर्भय हो गये । उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि अब कार्य अवश्य ही सफल होगा । बाबा ने शामा की ओर दृष्टिपात कर कहा – जो, प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूँगा । उसकी भक्ति में उत्तरोत्तर वृदिृ होगी । जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रदृापूर्वक गायन करेगा, उसकी मैं हर प्रकार से सदैव सहायता करुँगा । जो भक्तगण हृदय और प्राणों से मुझे चाहते है, उन्हें मेरी कथाऐं श्रवण कर स्वभावतः प्रसन्नता होगी । विश्वास रखो कि जो कोई मेरी लीलाओं का कीर्तन करेगा, उसे परमानन्द और चिरसन्तोष की उपलबि्ध हो जायेगी । यह मेरा वैशिष्टय है कि जो कोई अनन्य भाव से मेरी शरण आता है, जो श्रदृापूर्वक मेरा पूजन, निरन्तर स्मरण और मेरा ही ध्यान किया करता है, उसको मैं मुक्ति प्रदान कर देता हूँ ।
जो नित्यप्रति मेरा नामस्मरण और पूजन कर मेरी कथाओं और लीलाओं का प्रेमपूर्वक मनन करते है, ऐसे भक्तों में सांसारिक वासनाएँ और अज्ञानरुपी प्रवृत्तियाँ कैसे ठहर सकती है । मैं उन्हें मृत्यु के मुख से बचा लेता हूँ । मेरी कथाऐं श्रवण करने से मूक्ति हो जायेगी । अतः मेरी कथाओं श्रदृापूर्वक सुनो, मनन करो । सुख और सन्तोष-प्राप्ति का सरल मार्ग ही यही है । इससे श्रोताओं के चित्त को शांति प्राप्त होगी और जब ध्यान प्रगाढ़ और विश्वास दृढ़ हो जायगा, तब अखोड चैतन्यघन से अभिन्नता प्राप्त हो जाएगी । केवल साई साई के उच्चारणमात्र से ही उनके समस्त पाप नष्ट हो जाएगें ।



भिन्न भिन्न कार्यों की भक्तों को प्रेरणा
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भगवान अपने किसी भक्त को मन्दिर, मठ, किसी को नदी के तीर पर घाट बनवाने, किसी को तीर्थपर्यटन करने और किसी को भगवत् कीर्तन करने एवं भिन्न भिन्न कार्य करने की प्रेरणा देते है । परंतु उन्होंने मुझे साई सच्चरित्र-लेखन की प्रेरणा की । किसी भी विघा का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण मैं इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य था । गतः मुझे इस दुष्कर कार्य का दुस्साहस क्यों करना चाहिये । श्री साई महाराज की यथार्थ जीवनी का वर्णन करने की सामर्थय किसे है । उनकी कृपा मात्र से ही कार्य सम्पूर्ण होना सम्भव है । इसीलिये जब मैंने लेखन प्रारम्भ किया तो बाबा ने मेरा अहं नष्ट कर दिया और उन्हेंने स्वयं अपना चरित्र रचा । अतः इस चरित्र का श्रेय उन्हीं को है, मुझे नही ।
जन्मतः ब्राहमण होते हुए भी मैं दिव्य चक्षु-विहीन था, अतः साई सच्चरित्र लिखने में सर्वथा अयोग्य था । परन्तु श्री हरिकृपा से क्या सम्भव वहीं है । मूक भी वाचाल हो जाता है और पंगु भी गिरिवर चढ़ जाता है । अपनी इच्छानुसार कार्य पूर्ण करने की युक्ति वे ही जानें । हारमोनियम और बंसी को यह आभास कहाँ कि ध्वनि कैसे प्रसारित हो रही है । इसका ज्ञान तो वादक को ही है । चन्द्रकांतमणि की उत्पत्ति और ज्वार भाटे का रहम्य मणि अथवा उदधि नहीं, वरन् शशिकलाओं के घटने-बढने में ही निहित है ।


बाबा का चरित्रः - ज्योतिस्तंभ स्वरुप
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समुद्र में अनेक स्थानों पर ज्योतिस्तंभ इसलिये बनाये जाते है, जिससे नाविक चटटानों और दुर्घटनाओं से बच जायें और जहाज का कोई हानि न पहुँचे । इस भवसागर में श्री साई बाबा का चरित्र ठीक उपयुक्त भाँति ही उपयोगी है । वह अमृत से भी अति मधुर और सांसारिक पथ को सुगम बनाने वाला है । जब वह कानों के दृारा हृदय में प्रवेश करता है, तब दैहिक बुदि नष्ट हो जाती है और हृदय में एकत्रित करने से, समस्त कुशंकाएँ अदृश्य हो जाती है । अहंकार का विनाश हो जाता है तथा बौदिृक आवरण लुप्त होकर ज्ञान प्रगट हो जाता है । बाब की विशुदृ कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे । अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है । सत्यतुग में शम तथा दम, त्रेता में त्याग, दृापर में पूजन और कलियुग में भगवत्कीर्तन ही मोक्ष का साधन है । यह अन्तिम साधन, चारों वर्णों के लोगों को साध्य भी है । अन्य साधन, योग, त्याग, ध्यान-धारणा आदि आचरण करने में कठिन है, परंतु चरित्र तथा हरिकीर्तन का श्रवण और कीर्तन से इन्द्रियों की स्वाभाविक विषयासक्ति नष्ट हो जाती है और भक्त वासना-रहित होकर आत्म साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो जाता है । इसी फल को प्रदान करने के हेतु उन्होंने सच्चरित्र का निर्माण कराया । भक्तगण अब सरलतापूर्वक चरित्र का अवलोकन करें और साथ ही उनके मनोहर स्वरुप का ध्यान कर, गुरु और भगवत्-भक्ति के अधिकारी बनें तथा निष्काम होकर आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हों । साईं सच्चरित्र का सफलतापूर्वक सम्पूर्ण होना, यह साई-महिमा ही समझें, हमें तो केवल एक निमित्त मात्र ही बनाया गया है ।


मातृप्रेम
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गाय का अपने बछडे़ पर प्रेम सर्वविदित ही है । उसके स्तन सदैव दुग्ध से पूर्म रहते हैं और जब भुखा बछड़ा स्तन की ओर दौड़कर आता है तो दुग्ध की धारा स्वतः प्रवाहित होने लगती है । उसी प्रकार माता भी अपने बच्चे की आवश्यकता का पहले से ही ध्यान रखती है और ठीक समय पर स्तनपान कराती है । वह बालक का श्रृंगार उत्तम ढ़ंग से करती है, परंतु बालक को इसका कोई भान ही नहीं होता । बालक के सुन्दर श्रृंगाराररि को देखकर माता के हर्ष का पारावार नहीं रहता । माता का प्रेम विचित्र, असाधारण और निःस्वार्थ है, जिसकी कोई उपमा नही है । ठीक इसी प्रकार सद्गगुरु का प्रेम अपने शिष्य पर होता है । ऐसा ही प्रेम बाबा का मुझ पर था और उदाहरणार्थ वह निम्न प्रकार था ः-
सन् 1916 में मैने नौकरी से अवकाश ग्रहण कीया । जो पेन्शन मुझे मिलती थी, वह मेरे कुटुम्ब के निर्वाह के लिये अपर्याप्त थी । उसी वर्ष ती गुरुपूर्णिमा के विवस मैं अनाय भक्तों के साथ शिरडी गया । वहाँ अण्णा चिंचणीकर ने स्वतः ही मेरे लिये बाबा से इस प्रकार प्रार्थना की, इनके ऊपर कृपा करो । जो पेन्शन इन्हें मिलती है, वह निर्वाह-योग्य नही हैं । कुटुम्ब में वृदि हो रही है । कृपया और कोई नौकरी दिला दीजिये, ताकि इनकी चिन्ता दूर हो और ये सुखपूर्वक रहें । बाबा ने उत्तर दिया कि इन्हें नौकरी मिल जायेगी, परंतु अब इन्हें मेरी सेवा में ही आनन्द लेना चाहिए । इनकी इच्छाएँ सदैव पूर्ण होंगी, इन्हें अपना ध्यान मेरी ओर आकर्षित कर, अधार्मिक तथा दुष्ट जनों की संगति से दूर रहना चाहिये । इन्हें सबसे दया और नम्रता का बर्ताव और अंतःकरण से मेरी उपासना करनी चाहिये । यदि ये इस प्रकार आचरण कर सके तो नित्यान्नद के अधिकारी हो जायेंगे ।




रोहिला की कथा
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यह कथा श्री साई बाबा के समस्त प्राणियों पर समान प्रेम की सूचक है । एक समय रोहिला जाति का एक मनुष्य शिरडी आया । वह ऊँचा-पूरा, सुदृढ़ एवं सुगठित शरीर का था । बाबा के प्रेम से मुग्ध होकर वह शिरडी में ही रहने लगा । वह आठों प्रहर अपनी उच्च और कर्कश ध्वनि में कुरान शरीफ के कलमे पढ़ता और अल्लाहो अकबर के नारे लगाता था । शिरडी के अधिकांश लोग खेतों में दिन भर काम करने के पश्चात जब रात्रि में घर लौटते तो रोहिला की कर्कश पुकारें उनका स्वागत करती है । इस कारण उन्हें रात्रि में विश्राम न मिलता था, जिससे वे अधिक कष्ट असहनीय हो गया, तब उन्होंने बाबा के समीप जाकर रोहिला को मना कर इस उत्पात को रोकने की प्रार्थना की । बाबा ने उन लोगों की इस प्रार्थना पर ध्यान न दिया । इसके विपरीत गाँववालों को आड़े हाथों लेते हुये बोले कि वे अपने कार्य पर ही ध्यान दें और रोहिला की ओर ध्यान न दें । बाबा ने उनसे कहा कि रोहिला की पत्नी बुरे स्वभाव की है और वह रोहिला को तथा मुझे अधिक कष्ट पहुंचाती है, परंतु वह उसके कलमों के समक्ष उपस्थित होने का साहस करने में असमर्थ है और इसी कारण वह शांति और सुख में है । यथार्थ में रोहिला की कोई पत्नी न थी । बाबा के संकेत केवल कुविचारों की ओर था । अन्य विषयों की अपेक्षा बाबा प्रार्थना और ईश-आराधना को महत्तव देते थे । अतः उन्होंने रोहिला के पक्ष का समर्थन कर, ग्रामवासियों को शांतिपूर्वक थोड़े समय तक उत्पात सहन करने का परामर्श दिया ।


बाबा के मधुर अमृतोपदेश
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एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया –
तुम चाहे कही भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परंतु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है । मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ । मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है । मैं ही समस्त ब्राहांड़ का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ । मैं ही उत्पत्ति, व संहारकर्ता हूँ । मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता । मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है । समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तनमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरुप है ।
इस सुन्दर तथा अमूल्य उपदेश को श्रवण कर मैंने तुरन्त यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब भविष्य में अपने गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी मानव की सेवा न करुँगा । तुझे नौकरी मिल जायेगी – बाबा के इन वचनों का विचार मेरे मस्तिष्क में बारंबार चक्कर काटने लगा । मुझे विचार आने लगा, क्या सचमुच ऐसा घटित होगा । भविष्य की घटनाओं से स्पष्ट है कि बाबा के वचन सत्य निकले और मुझे अल्पकाल के लिये नौकरी मिल गई । इसके पश्चात् मैं स्वतंत्र होकर एकचित्त से जीवनपर्यन्त बाबा की ही सेवा करता रहा ।
इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व मेरी पाठकों से विनम्र प्राथर्ना है कि वे समस्त बाधाएँ – जैसे आलस्य, निद्रा, मन की चंचलता व इन्द्रिय-आसक्ति दूर कर और एकचित्त हो अपना ध्यान बाबा की लीलाओं की ओर वें और स्वाभाविक प्रेम निर्माण कर भक्ति-रहस्य को जाने तथा अन्य साधनाओं में व्यर्थ श्रमित न हो । उन्हें केवन एक ही सुगम उपाय का पालन करना चाहिये और वह है श्री साईलीलाओं का श्रवण । इससे उनका अज्ञान नष्ट होकर मोक्ष का दृार खुल जायेगा । जिसप्रकार अनेक स्थानों में भ्रमण करता हुआ भी लोभी पुरुष अपने गड़े हुये धन के लिये सतत चिन्तित रहता है, उसी प्रकार श्री साई को अपने हृदय में धारण करो । अगले अध्याय में श्री साई बाबा के शिरडी आगमन का वर्णन होगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 28 April 2021

भक्त नामदेव जी - जीवन परिचय

 ॐ साँई राम जी



भक्त नामदेव जी 
भूमिका:

परमात्मा ने सब जीवो को एक - सा जन्म दिया है| माया की कमी या फिर जीवन के धंधो के कारण लोगो तथा कई चालाक पुरुषों ने ऐसी मर्यादा बना दी कि ऊँच - नीच का अन्तर डाल दिया| उसी अन्तर ने करोडों ही प्राणियों को नीचा बताया| परन्तु जो भक्ति करता है वह नीच होते हुए भी पूजा जाता है| भक्ति ही भगवान को अच्छी लगती है| भक्ति रहित ऊँचा जीवन शुद्र का जीवन है| 

परिचय:

भक्त नामदेव जी का जन्म जिला सतार मुंबई गाँव नरसी ब्राह्मणी में कार्तिक सुदी संवत 1327 विक्रमी को हुआ| आपकी माता का नाम गोनाबाई  तथा पिता का नाम सेठी था| ये छींबा जाति से सम्बन्ध रखते थे|वे कपड़े धोते व छापते थे| सेठी बहुत ही नेक पुरुष था|वे सदा सच बोलते व कर्म करते रहते थे|

पिता की नेकी का असर पुत्र पर भी पड़ा| वहा भी साधू संतो के पास बैठता| वह उनसे उपदेश भरे वचन सुनता रहता| उनके गाँव मैं देवता का मन्दिर था| जिसे विरोभा देव का मन्दिर कहा जाता था| वहाँ जाकर लोग बैठते व भजन करते थे| वह भी बच्चो को इकट्ठा करके भजन - कीर्तन करवाता| सभी उसको शुभ बालक कहते थे| 

वह बैरागी और साधू स्वभाव का हो गया| कोई काम काज भी न करता और कभी - कभी काम काज करता हुआ राम यश गाने लगता| एक दिन पिता ने उससे कहा - बेटा कोई काम काज करो| अब काम के बिना गुजारा नहीं हो सकता| कर्म करके ही परिवार को चलाना है| अब तुम्हारा विवाह भी हो चुका है|

"विवाह तो अपने कर दिया" नामदेव बोला| लेकिन मेरा मन तो भक्ति में ही लगा हुआ है| क्या करूँ? जब मन नहीं लगता तो ईश्वर आवाजें मरता रहता है| 
बेटा! भक्ति भी करो| भक्ति करना कोई गलत कार्य नहीं है लेकिन जीवन निर्वाह के लिए रोजी भी जरुरी है| वह भी कमाया करो| ईश्वर रोजी में बरकत डाले गा| 

नामदेव जी की शादी छोटी उम्र में ही हो गई| उनकी पत्नी का नाम राजाबाई था| नामदेव का कर्म - धर्म भक्ति करने को ही लोचता था| पर उनकी पत्नी ने उन्हें व्यापार कार्य में लगा दिया| परन्तु वह असफल रहा| 

भाई गुरदास जी भी फरमाते हैं - 

३६६

भक्त नामदेव जी जो जाति से छींबा थे अपना ध्यान प्रभु भक्ति में लगाया हुआ था| एक दिन उच्च जाति के क्षत्रिय व ब्राह्मण मन्दिर में बैठकर प्रभु यश गान कर रहे थे| जब उन्होंने देखा कि निम्न जाति का नामदेव उनके पास बैठ कर प्रभु की भक्ति कर रहा है, तो उन्होंने उसे पकड़कर संगत से उठा दिया| वह देहुरे मन्दिर के पिछले भाग के पास जाकर प्रभु का नाम जपने लगा| भगवान ने ऐसी लीला रची कि देहुरे का मुँह घुमा दिया| यह उस तरफ हो गया जहाँ नामदेव जी बैठे थे| उच्च जाति के लोग यह देखकर हैरान रह गए| प्रभु के दर पर तो निमानो को भी मान मिलता है| प्रभु का प्रेम भी निम्न लोगों की ओर ही जाता है| जैसे नीर नीचे स्थान की ओर बहता है ऊँचाई की तरफ नहीं जाता|

ठाकुर को दूध पिलाना:

एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे| उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना| जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना| देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे|

नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे| जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे| नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे| उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए| भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की - 

३६९

हे प्रभु! यह दूध मैं कपला गाय से दोह कर लाया हूँ| हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे| सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है| पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया| यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें| पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं| यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं| पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे|

जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया| उस मासूम बच्चे को पंडितो की बईमानी का पता नहीं था| वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा| अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए| पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे| नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है - 
ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै||
नामे देखि नराइनु हसै|| (पन्ना ११६३)

एक भक्त प्रभु के ह्रदय में बस गया| नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े| हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया| दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई| 

दूधु पीआई भगतु घरि गइआ ||
नामे हरि का दरसनु भइआ|| (पन्ना ११६३ - ६४)

दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए| इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए| यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी| 

शुद्ध ह्रदय से की हुई प्रर्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई| वह भक्ति भव वाले हो गए और जो वचन मुँह  निकलते वही सत्य होते| जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने समझा उनकी कुल सफल हो गई है| 

परलोक गमन:

आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधू संतो से भ्रम दूर करते रहे| ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई त्यों त्यों आपका यश फैलता गया| आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया| आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए| अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए| अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए| 

साहित्यक देन:

नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती हैं| बहुत सारी बाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है| आपकी बाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है| 

Tuesday, 27 April 2021

भक्त रहीम जी - जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी




भक्त रहीम जी

भूमिका:

अब्दुल रहीम खानखाना का नाम हिन्दी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण रहा है| इनका नाम साहित्य जगत में इतना प्रसिद्ध है कि इन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है| 

परिचय:

अब्दुल रहीम खानखाना का जन्म 17 दिसम्बर 1556 को लाहौर में हुआ| इनके पिता का नाम बैरम खान तथा माता का नाम सुल्ताना बेगम था| उस समय बैरम खान की आयु 60 वर्ष हो चुकी थी जब रहीम का जन्म हुआ| बैरम खान की दूसरी पत्नी का नाम सईदा खां था| यह बाबर की बेटी गुलरुख बेगम की पुत्री थी| खानखाना की उपाधि अकबर ने इनके पिता बैरम खान को दी थी| वे अकबर के सरक्षक के रूप में कार्यरत थे| 

वीरता, राज्य-संचालन, दानशीलता, दूरदर्शिता तथा काव्य रचना जैसे अदभुत गुण इन्हें अपने माता-पिता से विरासत में मिले थे| बचपन से ही रहीम साहित्य प्रेमी और बुद्धिमान बालक थे| उनकी दूसरी माँ सईदा बेगम भी अच्छी कवित्री थी| 

सन 1562 में बैरम खान की मौत के बाद पूरा परिवार अकबर के समक्ष प्रस्तुत हुआ| अकबर ने रहीम की बुद्धिमता को परखते हुए उनकी शिक्षा-दीक्षा का पूर्ण प्रबंद कर दिया| वह रहीम से इतना प्रभावित हुआ कि शहजादो को प्रदान की जाने वाली उपाधि "मिर्जा खान" कहकर सम्बोधित करने लगा| अकबर उन्हें जो भी जटिल से जटिल कार्य सौपते वह उन्हें शीघता से कर देते| 

मुल्ला मुहम्मद अमीन रहीम के शिक्षक थे| इन्होने रहीम को तुर्की, अरबी व फारसी भाषा का ज्ञान दिया| इन्होने ही रहीम को छंद रचना, कविता करना, गणित, तर्कशास्त्र तथा फारसी व्यकरण का ज्ञान कराया| बदाऊनी रहीम के संस्कृत के शिक्षक थे| 


  • रहीम का पहला निकाह माहबानो से हुआ| माहबानो ने दो बेटियों और तीन बेटों को जन्म दिया| पहले बेटे का नाम इरीज, दूसरे का दाराब और तीसरे का नाम फरन था| यह नाम अकबर ने रखे| रहीम की बड़ी बेटी का नाम जाना बेगम जिसका निकाह शहजादा दनिभाव से हुआ व छोट्टी बेटी का निकाह मीर अमीनु दीन से हुआ|
  • रहीम का दूसरा निकाह सौदा जाति की एक लड़की से हुआ| जिससे एक बेटे रहमान दाद का जन्म हुआ|
  • रहीम का तीसरा निकाह एक दासी से हुआ| उससे भी एक बेटे मिर्जा अमरुल्ला का जन्म हुआ|

साहित्यक देन:


मुस्लिम धर्म के अनुयायी होते हुए भी रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की उसकी मिसाल विरले ही मिल सकेगी| रहीम जी की कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें उन्होंने दोहों के रूप में लिखा| इन दोहो में नीति परक का विशेष स्थान है| 

रहीम के ग्रंथो में रहीम दोहावली या सतसई, बरवै, नायिका भेद, श्रृंगार, सोरठा, मदनाष्ठ्क, राग पंचाध्यायी, नगर शोभा, फुटकर बरवै, फुटकर छंद तथा पद, फुटकर कवितव, सवैये, संस्कृत काव्य सभी प्रसिद्ध हैं|


इन्होंने तुर्की भाषा में लिखी बाबर की आत्मकथा "तुजके बाबरी" का फारसी में अनुवाद किया| "मआसिरे रहीमी" और "आइने अकबरी" में इन्होंने "खानखाना" व रहीम नाम से कविता की है|

रहीम जी का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था| यह मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे| इन्होंने खुद को "रहिमन" कहकर भी सम्बोधित किया है| इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है| 

रहीम जी ने अपने अनुभवों को अति सरल व सहजता से जिस शैली में अभिव्यक्त किया है वह वास्तव में अदभुत है| उनकी कविताओं, छंदों, दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है| पर मुख्य रूप से ब्रज भाषा का ही प्रयोग हुआ है| भाषा को सरल, सरस व मधुर बनाने के लिए इन्होंने तदभव शब्दों का अधिक प्रयोग किया है|

Monday, 26 April 2021

भक्त बुल्ले शाह जी - जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी




भक्त बुल्ले शाह जी

भूमिका:

पंजाब की माटी की सौंधी गन्ध में गूंजता एक ऐसा नाम जो धरती से उठकर आकाश में छा गया| वे ही भारतीय सन्त परम्परा के महान कवि थे जो पंजाब की माटी में जन्मे, पले और उनकी ख्याति पूरे देश में फैली| ऐसे ही पंजाब के सबसे बड़े सूफी बुल्ले शाह जी हुए हैं|



परिचय:

बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था| आगे चलकर इनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया| प्यार से इन्हें साईं बुल्ले शाह या बुल्ला कहते| इनके जीवन से सम्बन्धित विद्वानों में अलग-२ मतभेद है| इनका जन्म 1680 में उच गीलानियो में हुआ| इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था| वह आजीविका की खोज में गीलानिया छोड़ कर परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर "पांडो के भट्टिया" गाँव में बस गए| उस समय बुल्ले शाह की आयु छे वर्ष की थी| बुल्ले शाह जीवन भर कसूर में ही रहे| 

इनके पिता मस्जिद के मौलवी थे| वे सैयद जाति से सम्बन्ध रखते थे| पिता के नेक जीवन के कारण उन्हें दरवेश कहकर आदर दिया जाता था| पिता के ऐसे व्यक्तित्व का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा| इनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई| इनके उस्ताद हजरत गुलाम मुर्तजा सरीखे ख्यातनामा थे| अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया| 

परमात्मा की दर्शन की तड़प इन्हें फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई| हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था| वे जाति से अराई थे| अराई लोग खेती-बाड़ी, बागबानी और साग-सब्जी की खेती करते थे| बुल्ले शाह के परिवार वाले इस बात से दुखी थे कि बुल्ले शाह ने निम्न जाति के इनायत शाह को अपना गुरु बनाया है| उन्होंने समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए| परिवार जनों के साथ हुई तकरार का जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया -


बुल्ले नूं समझावण आइयां

भैणा ते भरजाइयां

मन्न लै बुल्लिआ साडा कहणा 
छड दे पल्ला, राइयां| 
आल नबी औलाद अली नूं
तूं क्यों लीकां लाइयां?

भाव- तुम नबी के खानदान से हो और अली के वंशज हो| फिर क्यों अराई की खातिर लोकनिंदा का कारण बनते हो| परन्तु बुल्ले शाह जी जाति भेद-भाव को भुला चुके थे| उन्होंने उत्तर दिया -

जेहड़ा सानूं सैयद आखे
दोजख मिले सजाइयां |
जो कोई सानूं, राई आखे
भिश्ती पींगा पाइयां||

भाव - जो हमे सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमे अराई कहेगा वह स्वर्गो में झूला झूलेगा|


बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बाते प्रचलित हैं| एक दिन इनायत जी के पास बगीचे में बुल्ले शाह जी पहुँचे| वे अपने कार्य में व्यस्त थे जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा| बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर आमो की ओर देखा तो पेडो से आम गिरने लगे| गुरु जी ने पूछा, "क्या यह आम अपने तोड़े हैं?" बुल्ले शाह ने कहा न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके| भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ| 

बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, "अरे तू चोर भी है और चतुर भी|" बुल्ला गुरु जी के चरणों में पड़ गया| बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ| साईं जी ने कहा, "बुल्लिहआ रब दा की पौणा| एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा|" इन सीधे - सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है| बुल्ले शाह ने या प्रथम दीक्षा गांठ बांध ली| सतगुरु के दर्शन पाकर बुल्ले शाह बेखुद हो गया और मंसूर की भांति बेखुदी में बहने लगा| उसे कोई सुध - बुध नहीं रही| 

कहते हैं कि एक बार बुल्ले शाह जी की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ की जियारत को जाए| उन्होंने अपनी इच्छा गुरु जी को बताई| इनायत शाह जी ने वहाँ जाने का कारण पूछा| बुल्ले शाह ने कहा कि "वहाँ हजरत मुहम्मद का रोजा शरीफ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी कब्र की जियारत की, गोया उसने मुझे जीवित देख लिया|" गुरु जी ने कहा कि इसका जवाब मैं तीन दिन बाद दूँगा| बुल्ले शाह ने अपने मदीने की रवानगी स्थगित कर दी| तीसरे दिन बुल्ले शाह ने सपने में हजरत रसूल के दर्शन किए| रसूल अल्ला ने बुल्ले शाह से कहा, "तेरा मुरशद कहाँ है? उसे बुला लाओ|" रसूल ने इनायत शाह को अपनी दाई ओर बिठा लिया| बुल्ला नजरे झुकाकर खड़ा रहा| जब नजरे उठीं तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है| वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन है| 



बुल्ले शाह जी लिखते हैं - 



हाजी लोक मक्के नूं जांदे
असां जाणा तख्त हजारे |
जित वल यार उसे वल काबा
भावें खोल किताबां चारे |


प्रेम मार्ग में छोटी सी भूल नाराजगी का कारण बन जाती है| बुल्ले शाह की छोटी सी भूल के कारण उनका मुरशद  नाराज हो गया| मुरशद ने बुल्ले शाह की क्यारियों की तरफ से अपनी कृपा का पानी मोड लिया| प्रकाश अंधकार में और खुशी गमी में बदल गई| शिष्य के लिए यह भीषण संताप की घड़ी आ गई| जब मुरशद ने उन्हें डेरा छोड़ने को कह दिया| वह विरह की आग में तड़पने लगा| मुरशद ने जब देखा कि वियोग की अग्नि में बुल्ले शाह कुंदन बन गया है तो उन्होंने उसकी गलती माफ कर दी| इस प्रकार फिर से सूखी क्यारियों को पानी मिल गया| बुल्ले शाह की आत्मा सतगुरु की आत्मा के रंग में डूब गई, दोनों में कोई भेद न रहा| 



इस अवस्था का वर्णन बुल्ले शाह ने इस तरह किया है -



रांझा - रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई |
रांझा मैं विच मैं रांझे विच होर ख्याल न कोई ||

बुल्ले शाह जी का देहांत 1757 ईस्वी में कसूर में हुआ| पंजाब में सूफी कवियों की लम्बी परम्परा है| परन्तु किसी अन्य सूफी कवि द्वरा अपने मुरशद के प्रति ऐसी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं की गई| इन्होंने अपने मुरशद को सजण, यार, साईं, आरिफ, रांझा, शौह आदि नामो से पुकारा है| 



साहितिक देन:


बुल्ले शाह जी ने पंजाबी मुहावरे में अपने आप को अभिव्यक्त किया| जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे| पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा| बुल्ले शाह ने अपने विचारों व भावों को काफियों के रूप में व्यक्त किया है| काफी भक्तों के पदों से मिलता जुलता काव्य रूप है| काफिया भक्तों के भावों को गेय रूप में प्रस्तुत करती हैं इसलिए इनमे बहुत से रागों की बंदिश मिलती है| जन साधारण भी सूफी दरवेशों के तकियों पर जमा होते थे और मिल कर भक्ति में विभोर होकर काफियां गाते थे| काफियों की भाषा बहुत सादी व आम लोगों के समझने योग्य हैं| बुल्ले शाह लोक दिल पर इस तरह राज कर रहे थे कि उन्होंने बुल्ले शाह की रचनाओं को अपना ही समझ लिया| वह बुल्ले शाह की काफियों को इस तरह गाते थे जैसे वह स्वयं ही इसके रचयिता हों| इनकी काफियों में अरबी फारसी के शब्द और इस्लामी धर्म ग्रंथो के मुहावरे भी मिलते हैं| लेकिन कुल मिलाकर उसमे स्थानीय भाषा, मुहावरे और सदाचार का रंग ही प्रधान है| 

Sunday, 25 April 2021

भक्त कबीर दास जी - जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी




भक्त कबीर दास जी 

भूमिका:

संत कबीर का स्थान भक्त कवियों में ध्रुव तारे के समान है| जिनके शब्द, साखी व रमैनी आज भी उतने ही प्रसिद्ध हैं जितने कि उनके समय में थे| 



परिचय:


भक्त कबीर का जन्म संवत 1455 जेष्ठ शुक्ल 15 को बताया जाता है| यह भी कहा जाता है कि जगदगुरु रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से काशी में एक विधवा ब्रह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए| लाज के मारे वह नवजात शिशु को लहरतारा के तालाब के पास फेंक आई| नीरू नाम का एक जुलाहा उस बालक को अपने घर में ले आया| उसी ने बालक का पालन-पोषण किया| यही बालक कबीर कहलाया| 

कुछ कबीरपंथियों का मानना है कि कबीर का जन्म काशी के लहरतारा तालाब में कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ| यह भी कहा जाता है कि कबीर की धर्म पत्नी का नाम लोई था| उनके पुत्र व पुत्री के नाम 'कमाल' व 'कमाली' था| संत कबीर पढ़े - लिखे नहीं थे| उन्होंने स्वयं कहा है -


मसि कागद छूवो नहीं,
कलम गहो नहिं हाथ|


परिवार के पालन पोषण के लिए कबीर को करघे पर खूब मेहनत करनी पड़ती थी| उनके घर साधु - संतो का जमघट लगा रहता था| ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन एक पहर रात को कबीर जी पञ्चगंगा घाट की सीढ़ीयों पर जा लेटे| वहीं से रामानंद जी भी स्नान के लिए उतरा करते थे| रामानंद जी का पैर कबीर जी के ऊपर पड़ गया| रामानंद जी एक दम "राम-राम" बोल उठे कबीर ने इनके बोलो को ही गुरु की दीक्षा का मंत्र मान लिया| वे स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु कहने लगे| उनके अनुसार -
हम काशी में प्रगट भये हैं, रामानन्द चेताये |

कुछ लोगो का यह भी कथन है कि कबीर जी जन्म से मुसलमान मान थे और समझदारी की उम्र पाने पर स्वामी रामानन्द के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म की बातें जानी| मुसलमान कबीरपंथियों की मान्यता है कि की कबीर ने मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा ली| 

हकीकत चाहे कुछ भी हो, मान्यताये चाहे अलग-अलग हों, पर इस बात से सभी सहमत हैं कि कबीर जी ने हिन्दू - मुसलमान का भेद - भाव मिटाकर हिन्दू संतो और मुसलमान फकीरों का सतसंग किया| उन्हें जो भी तत्व प्राप्त हुआ उसे ग्रहण करके अपने पदों के रूप में दुनिया के सामने रखा| वह निराकार ब्रह्मा के उपासक थे| उनका मानना था कि ईश्वर घर-घर में व सबके मन में बसे हैं| ईश्वर की प्रार्थना हेतु मन्दिर - मसजिद में जाना आवश्यक नहीं| 


साहितयक देन:


कबीर की बाणी का संग्रह "बीजक" नाम से प्रसिद्ध है| इसके तीन भाग हैं - 

  • रमैनी
  • सबद
  • साखी

इनकी भाषा खिचड़ी है - पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रज भाषा आदि कई बोलियों का मिश्रण मिलता है| कबीर जी बाहरी आडम्बर के विरोधी थे| उन्होंने समान रूप से हिन्दू - मुस्लिम मान्यताओ में बाहरी दिखावे पर अपने दोहों के द्वारा जमकर चोट की है| इनके दोहों में अधिक ग्रामीण जीवन की झलक देखने को मिलती है| अपने दोहों के द्वारा इन्होंने समाज में फैली कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया है| 



कबीर जी अपने अन्तिम समय में काशी से मगहर नामक स्थान पर आ गए| यहीं 119 वर्ष की आयु में इन्होंने शरीर छोड़ा| 

Saturday, 24 April 2021

भक्त मीरा बाई जी जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी




भक्त मीरा बाई जी

राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा

परिचय:

मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी| 

जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|

समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना न छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती| मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| उन्हें मरने की साजिशे रची जाने लगी| मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -


मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई| 
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई|| 

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई| 
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई|| 


मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है| स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|


नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ| 
मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास|| 


उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शूद्र गुरु रविदास की भक्ति की|साधु - संतो की संगत की| 

मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत हैं| 

· लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई| 

· रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताई|

· डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|
हरमेन गोएटस ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परन्तु वह मौलिक नहीं| उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही| उसने भक्ति व प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया| चित्तौड़ के शासक कर्मकांड व राजसी वैभव में डूबकर उसे भूल चुके थे| किसी ने उसे ढूँढने का प्रयास नहीं किया| 

अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|
साहितिक देन:

मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे - 
हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|

Friday, 23 April 2021

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना

ॐ साँई राम जी 




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दोनों समय दीवान लगाकर संगत को उपदेश देकर निहाल करते थे| इस समय दो युवक पठान भी दीवान में उपस्थित होकर श्रद्धा भाव से गुरु जी के वचन सुनते|

एक दिन शाम के समय जब गुरु जी अपने तम्बू में विश्राम कर रहे थे तो इनमें से एक पठान गुलखां ने समय ताड़ कर आप जी के पेट में कटार के दो वार कर दिए| गुरु जी ने शीघ्र ही अपने आप को सँभालते हुए उसका सिर एक वार से धड़ से अलग कर दिया| गुलखां का साथी रुस्तमखां जो तम्बू से बाहर खड़ा था उसे पहरेदारों ने मार दिया| इसके पश्चात सिंघो ने नादेड़ नगर से जराह को बुलाकर आपके जख्मों की मरहम पट्टी कराई| तथा रोज ही आप की आरोग्यता के लिए बाणी का पाठ व अरदास करने लगे| 

जब गुरु जी के जख्म गहरे होने के कारण ठीक होने की आशा न रही तो सिहों ने बेबस होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! हमें आप किसके पास छोड़ कर सच्च खंड की तैयारी कर रहे हो? आपके पीछे हमारी रखवाली कौन करेगा|

सिहों की प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया तथा पांच तैयार सिंह हजूरी में खड़े करके आपने तीन परिक्रमा करके पांच पैसे व नारियल श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आगे रखकर माथा टेक कर वचन किया कि आज से देहधारी गुरु का सिलसिला समाप्त करके इस वाणी को आत्म प्रकाश करने वाली बड़े गुरु साहिब तथा प्रभु के भक्तों ने उच्चारण की हुई है, गुरु नानक साहिब जी की गुरु गद्दी पर स्थापित कर दिया| हमारे बाद यह गुरु युगों-युग अटल रहेगा| जिसने हमारे आत्मिक दर्शन करने हों, वह इस शब्द गुरु के दर्शन करे और जिसने हमारे पांच भूतक शरीर के दर्शन करने हों, तो वह हमारे तैयार बर तैयार खालसे के दर्शन करे| 

संवत 1765 वाले दिन कार्तिक सुदी को आप जी ने खालसा पंथ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख करके यह वचन किया| 

दोहरा || 

गुरु ग्रंथ जी मानिओ प्रगट गुरां की देह ||
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शबद में लेह ||

गुरु स्थापना की मर्यादा करके गुरु जी ने सिहों को हुक्म दिया कि हमारा अंगीठा तैयार करो तथा उसके चारों तरफ कनात लगा दो| सिक्खों ने वैसा ही किया|

गुरु जी ने सिहों को बड़ा उदास देखा और प्रेम से वचन किया हे प्यारे सिहों! अकाल पुरख के नियम के अनुसार यह अस्थूल शरीर मिलते और बिछड़ते रहते हैं| इनका प्यार कभी नहीं निभता| श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी हमारा ह्रदय है| रात दिन इनके मिलने से प्रभु के गुणों को अपने मन में जोड़ना| इनकी उपस्थिति में पांच सिंह जो हुक्म करेगें, उसे गुरु का हुक्म मानकर स्वीकार करना|

गुरबाणी का पाठ और शास्त्रों का अभ्यास करना| गुरु साहिब का इतिहास सुनना| पांच रहितवान सिहों को मेरा रूप समझना| जो श्रद्धा से पांच सिहों से अरदास कराएगा, उसके सभी मनोरथ पूरे होंगे| 

सिहों को धैर्य उपदेश देकर जब आदी रात बीत गई तो आप जी ने पहले "जपुजी साहिब" फिर - 

"हरि हरि जन दुइि ऐक हैं || 
बिब बिचार किछु नाहि || 
जल ते उपज तरंगि||
ज्यों जल ही बिखै समाहि ||"


आदि पांच दोहरे पढ़कर अरदास की और इसके पश्चात मखमल का कमर कस्सा करके किरपान, धनुष, तीर तथा हाथ में बंदूक पकड़कर सिख वीरो को हाथ जोड़कर "वाहिगुरू जी का खालसा || वाहिगुरू जी की फतहि ||" बुलाई| इस समय सिक्ख संगत सेजल नेत्रों से आपको नमस्कार करने लगी, तो उनको आपके शरीर की कोई छुह प्राप्त न हुई| मगर शरीर करके आपके दर्शन सबको हो रहे थे| इस कौतक को अनुभव करके सब संगत ने हाथ जोड़कर धरती पर शीश रखकर आप जी को नमस्कार किया|

अन्तिम समय आप जी ने अपने सिहों को कहा कि अब तुम सब अपने-अपने घर चले जाना और जथेदार संतोख सिंह को आज्ञा की कि तुम यहाँ रहकर हमारे स्थान की सेवा करनी| जो धन आ जाए उससे लंगर चलाना|

यह वचन करके आप जी कनात अन्दर चले गए और चिखा ऊपर चौकड़ा मारकर बैठ गए| इसके पश्चात चिखा को अग्नि प्रचंड करा कर ज्योति में ज्योत मिलाकर अनंत में लीन हो गए|

Thursday, 22 April 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की  त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

ग्रन्थ लेखन का ध्येय, कार्यारम्भ में असमर्थता और साहस, गरमागरम बहस, अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपन्त, गुरु की आवश्यकता । 
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गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र (मराठी भाषा) में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिननके दृारा उन्हें ग्रन्थरतना के कार्य को आरन्भ करने की प्रेरणा मिली । अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते हैं ।



ग्रन्थ लेखन का हेतु
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किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेमककर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है । मैंने और भी लीलाएँ सुनी, जिनसे मेरे हृदत को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य (कविता) रुप में प्रकट हुआ । मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्ययुक्त लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक इवं शिक्षाप्रद सिदृ होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जायेंगे । इसलिये मैंने बाबा की पवित्र गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया । श्री साईं की जीवनी न तो उलझनपूर्ण और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है ।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस
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श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ । मैं तो अपने परम मित्र की जीनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से । तब फिर मुझ सरीखा मूढ़मति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है । अवतारों की प्रकृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं । किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है । फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोगमय ही हूँ । संत की जीवनी लिखना एक महान् कठिन कार्य है, जिसकी तुलना में सातों समुद्र की गहराई नापना और आकाश को वस्त्र से ढकना भी सहज है । यह मुझे भली भरणति ज्ञात था कि इस कार्य का आरम्भ करनेके लिये महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसीलिये श्री साईं बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा ।
महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है । तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-साधुचरित शुभ सरिस कपासू । निरस विषद गुणमय फल जासू ।। जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा । वंदनीय जेहि जग जस पावा ।। भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है । संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है । यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्य पूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है । उदाहरणार्थ शक सं. 1700 में कवि महीपति को संत थरित्र लेखन की प्रेरणा हुई । संतों ने अंतःप्रेरणा की और कार्य पूर्ण हो गया । इसी प्रकार शक सं. 1800 में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई । महीपति ने चार काव्य रचे – भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत – जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों कावर्णन है । भक्तलीलामृत के अध्याय 31, 32, और 33 तथा संत कथामृत के 57 वें अध्याय में श्री साई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढ़ंग से किया गया है । पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है । इसी प्रकार श्री साई बाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका - श्री साई बाबा भजनमाला में किया गया है । इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है ।
श्री दासगणू महाराज ने भी श्री साई बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है । एक और भक्त अमीदास भवानी मेहता ने भी बाबा की कुथ कथाओ को गुजराती में प्रकाशित किया है । साई प्रभा नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के दक्षिणा भिक्षा संस्थान दृारा प्रकाशित की गई है । अब प्रश्न यह उठता हैं कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर ौर एक ग्रन्थ साई सच्चरित्र रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है । इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साई बाबा की जीवनी सागर के सदृश अगाध, विस्तृत और अथाह है । यति ुसमें गहरे गोता लगाया जाय तो ज्ञान एवं भक्ति रुपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिनसे मुमुक्षुओं को बहुत लाभ होगा । श्री साई बाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण है । दुःख और दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक मे निःश्रेयस् की प्राप्ति होगी । यदि श्री साई बाबा के उपदेशो का, जो वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाये तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी , अर्थात् ब्रहम से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिदिृ और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जायगी । यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारम्भ कर दिया । साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है । जो भोले-भाले प्राणी श्री साई बाबा के दर्शनों सो अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे है, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा । अतः मैंने श्री साई बाबा के उपदेश और दृषटान्तों की खोज प्रारम्भ कर दी, जो कि उनकी असीम सहज प्राप्त आत्मानिभूतियों का निचोड़ था । मुझे बाबा ने प्रेरणा दी और मैंने भी अपना अहंकार उनके श्री चरणों पर न्योछावर कर दिया । मैने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे ।
मैं स्वंय बाब की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था । अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाब के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की । उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साई बाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की कि ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक है । परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या है । आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगें, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा । आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी करर्य यशस्वी नहीं हो सकता । यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई । उन्होंने आश्वासन और उदी देकर अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखा और कहने लगे कि इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबदृ करने दो, मैं इनकी सहायता करुगाँ । मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करुगाँ । परंतु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिये । जो अपने जीलन में इस प्रकार आचरण करता है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ । मेरी जीवन-कथाओं की बात तो हज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ । जब इनका अहं पूर्णताः नष्ट हो जायेगा और खोजनेपर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रगट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा । मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रदृा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी । ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरो का खमडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिये ।

अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपंत
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वादविवाद शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठको को वचन दिया है कि हेमाडपंत उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करुँगा । अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ।
श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चांदोरकर मेरे अति घनिष्ठ मित्रों में से थे । उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साई बाबा के दर्शनें का लाभ उठाने का अनुरोध किया । मैंनें उन्हे वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी ळिरडी-यात्रा स्थगित हो गई । मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था । उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रत्यन निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ । अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव को उसके सिरहाने ज्वर बिठलाया, परंतु परिणैस पूर्ववत् ही हुआ । यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ है, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है । और जब उनमें कोई सामर्थय ही नही, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन । ऐसा सोचकर मैंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी । परंतु जो होनहार है, वह तो होकर ही पहेगा और वह इस प्रकार हुआ । प्रामताधिकारी नानासाहेब चांदोरकर बसई को दौरेपर जा रहे थे । वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे । उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथों लिया । नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरुप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया । मैंनें सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया । इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया । गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा । मैंनें अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया । उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होता, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ । यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओ से घिर जाता । परंतु ऐसा घटना न था । भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन 9-10 बजे के पूर्वही मैं शिरडी पहुँच गया । यह सन् 1910 की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था । ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शनों के लिये बड़ा लालायित था । उसी समय भक्तप्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मसजिद से लौटे ही थे । उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मसजिद की मोंडपर ही हैं । अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत होने के पश्चात, सुविधा से भेंट करने जाना । यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की । मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा । मुझे क्या नहीं मिल गया था । मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया । क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही । जिस क्षण से उनके भवविनरशक चरणों का स्पर्श प्रार्त हुआ, मेरे जीवन के दर्शनार्थ पर्ेरणग, प्रोत्साहन और सहायता पहुँचाई, उनके प्रति मेरा हृदय बारम्बार कृतज्ञता अनुभव करने लगा । मैं उनका सदैव के लिये ऋणी हो गया । उनका यह उपकार मैं कभी भूल न सकूँगा । यथार्थ में वे ही मेरे कुटुम्बी हैं और उनके ऋण से मैं कभी भी मुक्त न हो सकूँगा । मैं सदा उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ । जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि वितार परिवर्तन तथा पिछले कर्मों का प्रभाव शीघ्र मंद पड़ने लगता है और शनैः शनैः अनासक्ति और सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है । केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होनेपर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है । पाठको, मैं आपसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा ।



गरमागरम बहस
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शिरडी पहुंतने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया । मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहां रही । प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये । गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है । वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है । इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का । उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं । कहावत है – मेरे मन कछु और है, धाता के कछु और । फिर परामर्शयुक्त शब्दों मे बोले भाई साहब, यह निरी विदृता छोड़ दो । यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा । इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका । इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करनग पड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुदृि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहींं । वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है ।
जब अन्य लोगों के साथ मैं मसजिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं । किस विषय में विवाद था । फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन हेमाडपंत ले क्या कहा । ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ । साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था । सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था ।
मैं सोचने लगा कि बाबा हेमाडपंत के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं । यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है । हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे । वे उच्च कोटि के विदृान्, उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है ।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे । उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ । अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं । गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया  है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है ।
भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के दृारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था । सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विदृतापूर्ण ढ़ग से किया था । हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की । इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है ।

गुरु की आवश्यकता
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इस विषय में बाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत दृारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है । परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं ।
बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी । बाबा ने स्वीकृति दे दी ।


किसी ने प्रश्न किया – बाबा, कहाँ जायें ।

उत्तर मिला – ऊपर जाओ ।

प्रश्न – मार्ग कैसा है ।

बाबा – अनेक पंथ है । यहाँ से भी एक मार्ग है । परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है । 
काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो ।

बाबा – तब कोई कष्ट न होगा । मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्रढे में गिर जाने की सम्भावना है । दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है । इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग 1, संख्या 5 व पृष्ठ 47 के अनुसार) । उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यकति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिदृ होगा । प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उरदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था । इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रदृा और धैर्य-ये ही दो गुण सहायक हैं ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।