शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप (रजि.)
शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....
"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम
मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे
कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे
मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे
दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे
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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।
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Saturday, 9 December 2017
अजामल जी
Friday, 8 December 2017
साखी पिंगला की
सच्चे सतिगुरु के बिना आल जंजाल माया के चमत्कारों में फंसे रहते हैं| विमुख या समक्ष रहते हैं ऐसे पुरुषों का कभी कल्याण नहीं होता वह विमुख होते हैं| उनका नेकी की ओर ध्यान नहीं होता| जब नेकी, सत्य, धर्म, कर्म, भक्ति की ओर ध्यान नहीं और वह यदि ईश्वर का भय नहीं रखते तब कैसे उनका कल्याण हो सकता है? कभी नहीं होता चाहे कहीं घूमते रहें|
गंगा जमन गोदावरी कुलखेत सिधारे |
जब तक आत्मा पवित्र न हो, तब तक धर्म, कर्म, पूजा-पाठ और तीर्थ पर जाना लाभदायक नहीं होता| गुरु की शरण में जाएं| पिंगला उसी तरह का जीवन था जिस तरह भाई गुरदास जी फरमाते हैं:-
नारि भतारहुं बाहरी सुखि सेज न चड़ीऐ |
पिंगला भरी जवानी में थी, पर एक पति के बिना वह कभी सुख की सेज नहीं सोई| उसके ग्राहक आते थे, वह भी विभिन्न स्वभाव के होते थे| कोई शराबी, कोई भंगी-नशेड़ी, पर उसने तो सब का स्वागत करना था| ऐसी दशा में धर्मप्रिय की नगरी में रहती थी| जब वह बाहर जाती तो गृहस्थ औरतें उसकी तरफ घूर-घूर कर देखतीं, वह सदा उनसे घृणा करती थी| उसके पास अत्यन्त धन होने के बावजूद भी समाज और धार्मिक स्थल पर सम्मान न होता| उसको एक अछूत तथा एक कोढ़ गिना जाता लेकिन मंद कर्मी पुरुष उसको आंखों पर बैठाते|
एक समय वह बाहर घूमने निकली| वह जब राजा की ओर से बनाए सरोवर के पास पहुंची तो वहां एक महात्मा नारी की महानता और पतिव्रता धर्म का उपदेश दे रहा था| सैकड़ों स्त्री-पुरुष एकाग्रचित ध्यान लगा कर उपदेश सुन रहे थे| उनका ध्यान कथा भाव के साथ जुड़ा हुआ था!
महात्मा उपदेश कर रहा था कि नारी का धर्म पति की सेवा करना है, वह भी एकाग्रचित होकर और घर गृहस्थी को चलाना क्योंकि घर गृहस्थी और नारी जगत उत्पति का मूल है| नारी की सूजना इसलिए की गई है| लेकिन यदि नारी एक पति की सेवा नहीं करती एक के भरोसे पर नहीं रहती और पराए पुरुष के पीछे भटकती फिरती है तो वह नारी एक डायन बन जाती है| इसलिए नारी को पतिव्रता रहना चाहिए|
ऐसा उपदेश जब हो रहा था तो पिंगला ने भी सुन लिया, वह कभी मन्दिर, कथा कीर्तन स्थान के पास कभी खड़ी नहीं होती थी पर उस समय उसके मन में आ गया, वह खड़ी हो गई और महात्मा का उपदेश वरदान की तरह हृदय को छू गया| वह खड़ी रही| आगे का उपदेश वरदान की तरह हृदय को छू गया| वह खड़ी रही| आगे उसके पांव न चले| उसको ऐसा महसूस हुआ कि सच्ची बातों का उपदेश उसको दिया जा रहा था| वह उपदेश सुन रही थी|
महात्मा जब उपदेश करके रुके तो उसने आगे बढ़ कर महात्मा के चरणों को छू कर विनम्रता से प्रार्थना की-'महाराज! मैं एक वेश्या हूं, हर रात तन बेचती और मूल्य लेती हूं, नाचती और गाती हूं, मदिरापान भी करती हूं! जो भी पुरुष आता है उससे झूठ बोल कर कहती हूं, 'मैं तुम्हारी हूं| तुम्हें ही प्यार करती हूं| और किसी को प्यार नहीं करती|' होता झूठ है, झूठ के साथ जूठन भी खानी पड़ती है, बताएं ऐसे कुकर्म करने वालों का भी कभी कल्याण हो सकता है?
महात्मा ने पिंगला की बात को ध्यान से सुना| उसकी और देखकर उसके चेहरे और उसकी आंखों और हृदय की बात जानने का विचार किया| उस समय उसको उत्तर दिया -'हां देवी! तेरा भी कल्याण हो सकता है| केवल मन बदलने की जरूरत है| बुरे कामों से निकल कर स्नान करके अच्छे वस्त्र पहनने की आवश्यकता है| ऐसा कर लो तो ईश्वर प्रसन्न होगा| धन पदार्थ तो ईश्वर के हैं| यह लीला है जो होती रहती है| हर एक जीव आत्मा अमलों के कारण ही तो पवित्र है, वह जैसे वातावरण से निकलती है वैसा ही रंग ले लेती है और कोई बात नहीं|'
पिंगला - 'कीचड़ में से कैसे निकलूं, मैं तो दलदल तक फंसी हूं|'
महात्मा - 'यत्न करने की आवश्यकता है| मन पर काबू पा सको तो|
पिंगला - जैसे आप बताएंगे वैसा ही करूंगी| आपको गुरु धारण करती हूं| 'आज्ञा करें|'
यह कह कर पिंगला ने महात्मा के चरण पकड़ लिए|
महात्मा ने उसकी पसीजी आत्मा की ओर देखा और कहा - 'देवी! एक पर्ण करो तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है|'
पिंगला - 'आज्ञा करें महाराज|'
महात्मा - 'वचन का पालन करोगी?'
पिंगला - 'महाराज! जीवन भर आपकी आज्ञा का पालन करूंगी, मेरा मन कह रहा है|'
महात्मा - 'देख, तेरे जीवन का वातावरण ऐसा है, गृहस्थ धर्म ग्रहण करो| एक पति की पूजा करो| पति प्यार और श्रद्धा से तेरा कल्याण हो जाएगा|'
पिंगला - 'पति मेरा कोई नहीं, विवाह मेरे साथ कौन करेगा? मैं कैसे तपस्या करूंगी?'
महात्मा - 'जो पुरुष तुम्हारे पास पहले आए, उसको पति मान ले और उसकी सेवा करती रहना अन्य किसी के पास तन भेंट मत करना, उसी से तुम्हारी मुक्ति होगी|
पिंगला - 'आप ने मुझे ज्ञान दिया है, मेरे गुरु बने हैं, क्या मैं अपनी सारी दौलत आपको अर्पण कर सकती हूं? सारी दौलत किस काम की|'
महात्मा - 'जो कुछ तेरे पास है, वह अपने पास ही रखो, धन-पूंजी रखो| जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा|'
इस तरह उपदेश लेकर पिंगला अपने घर आ गई| उसको ऐसा लगा जैसे उसका शरीर और दिल-दिमाग हल्का हो गया हो| घर आई तो हर वस्तु उसको पराई और नई-नई लगी| उस शाम को उसने स्नान किया| नए वस्त्र पहने और तैयार होकर बैठ गई| महात्मा की बात पर अमल करना था, जो पुरुष पहले आए, जिस के साथ मेल हो, उसको अपना पति मान ले| उसके बगैर किसी और के नजदीक न जाए|
एक पुरुष आया, वह जवान था और घर से भी अच्छा था| उसके आने पर उसने घर के दरवाजे बंद कर लिए और उसको कहा, 'देखो प्रिय! मैंने फैसला किया है, एक पुरुष के बगैर किसी अन्य के निकट नहीं जाऊंगी, आप मेरा साथ देंगे तो मैं आपकी ही रहूंगी और आप मेरे, ऐसा ही करना होगा|'
'....यदि ऐसा हो जाए तो और क्या चाहिए, मैं तो आपका प्रेमी हूं| जान देने को तैयार हूं|' पुरुष ने उत्तर दिया|
यह बात सुन कर पिंगला खुश हो गई और उसने अपना तन और मन उस पुरुष के हवाले कर दिया| उसके बाद किसी अन्य पुरुष के पास न गई, नाचगान सब कुछ एक पुरुष के लिए हो गया| इस प्रकार कई साल बीत गए| लोग पिंगला की बैठक को भूल गए| और वह एक गृहिणी बन गई, उसकी रूचि बदल गई| उसने मदिरा पान छोड़ दिया| वह धर्म-कर्म की और बढ़ गई| प्यारा पति आता तो उसकी सेवा करती और उसका दिया खाती और किसी के हाथ का खाना ज़हर समझती| कहते हैं इस तरह बारह साल बीत गए| वह एक पुरुष की दासी रही| उसकी भक्ति देखकर लोग हैरान हो गए| उसके प्रेमी ने विवाह न किया और वह मर गया| फिर जो पुरुष पहले आता उसी को पति मानती.... पर उसकी मूल मंशा पूरी न हुई|
एक दिन भगवान विष्णु ने उसकी परीक्षा लेकर उसका कल्याण के लिए मार्ग ढूंढा| उसका धर्म देखने और महात्मा के वचनों पर कितना चली है परीक्षा लेने आए भगवान विष्णु|
शाम हुई तो भगवान विष्णु एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके पिंगला की बैठक पर आ गए| पिंगला ने उनका स्वागत किया| चरणों को धोया| हालचाल पूछा और आदर से बिठाया| पहले उनके चरण दबाए| जब उसके मन की इच्छा पूर्ण करने का विचार आया तो वह बीमार हो गया| उसको हैजा हो गया| टट्टियां आने लगी और दसतों का रूप धारण करके और भी हालत बिगड़ गई| पिंगला सेवा करती रही| रात भर जरा भी आराम न किया परन्तु माथे पर बल न आया| एक पतिव्रता स्त्री की तरह खिले माथे सेवा करती रही| सुबह होते ही वह ब्राह्मण मर गया| उसके मरने पर रोने लगी| बाजार वाले हैरान हुए| किसी ने कुछ कहा| पर उसने कोई बात न सुनी| उसने अपने पास से ब्राह्मण की चिता का प्रबन्ध किया| हाथ में सधौरा लेकर साथ ही सती होने के लिए तैयार हो गई| जब लोगों ने रोका तब भी न रुकी| तब भगवान विष्णु ने अपना हाथ छोड़ दिया और वह उस चिता से उठ खड़े हुए| वह विष्णु रूप ब्राह्मण जीवित हो गया| लोग काफी हैरान हुए| पिंगला खुश हो गई| उस समय वह ब्राहमण विष्णु का रूप हो गया| शंखों की धुन अपने आप प्रगट हुई| सभी लोग हाथ जोड़ कर खड़े हो गए| विष्णु ने पिंगला को कहा - 'धन्य है देवी! मांग लो जो मांगना है| तेरी भक्ति प्रवान हुई|'
पिंगला भगवान विष्णु के चरणों में झुक गई| उसने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि, 'महाराज! कोई इच्छा नहीं| बस पापिन का कल्याण हो|'
यह सुन कर विष्णु जी बहुत खुश हुए और उन्होंने कहा, 'तथास्तु' तेरी इच्छा पूर्ण होगी| बाकी जीवन उसने भक्ति में गुजारा और अंतकाल वह स्वर्ग में गई|
इस कथा का संक्षेप भाव है कि जो भी मंद कर्मी जब किसी नेक पुरुष, गुरु पीर का उपदेश ग्रहण कर अपना जीवन बदल लेता है, उसका कल्याण होता है| जगत में यश होता है|
Thursday, 7 December 2017
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 21
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है
Wednesday, 6 December 2017
साखी कुबिजा मालिन की
कुबिजा एक दासी थी| वह राजा कंस के राजमहल के बगीचे में मालिन का कार्य करती थी| सारे लोग उसको कुबिजा मालिन कह कर बुलाते थे| उसकी आयु आयु अभी अल्प थी और वह अल्पायु से ही अत्यन्त सुन्दर थी| लेकिन ईश्वर की ऐसी लीला कि वह कमर से कुबड़ी थी| वह कुबड़ी होकर चलती थी, तभी उसका नाम कुबिजा पड़ गया| उसकी बुद्धिमानी और सुन्दरता की हर कोई प्रशंसा करता था लेकिन जब उसके कुबड़ेपन को देखता तो ईश्वर को कोसता कि ऐसी सुन्दरता देकर कुब क्यों प्रदान किया| लेकिन ईश्वर की लीला को कोई भी नहीं जानता| वह खेल था जो समय के साथ होना था|
युवा होकर जब भगवान कृष्ण जी मथुरा पधारे तो एक दिन कृष्ण जी और कुबिजा का मेल हो गया| वह फूल और घिसा हुआ चंदन लेकर राजा कंस की ओर जा रही थी, उसने जैसे ही कृष्ण जी के दर्शन किए तो मानो उसके पैरों में जंजीर पड़ गई हो| उसके हृदय में मीठी-सी कंपकंपी हुई| उसके मोटे नर्गिस नयन मोहित होकर चुंधिया गए| वह उनको देखती रही| उसने एक फूल माला श्री कृष्ण जी के गले में डाल दी और साथ ही चन्दन का तिलक लगा दिया| तिलक लगाते समय यह याद न रहा कि तिलक राजा कंस को लगाना था| यदि राजा कंस को इस बारे में पता चला तो वह मौत के घाट उतरवा देगा| कंस बड़ा दुष्ट था अत्याचारी राजा था| परन्तु कुबिजा ने प्रभु को चन्दन और तिलक लगा ही दिया|
भगवान श्री कृष्ण ने जब उसका यह अनुराग देखा तो आप दयालु-कृपालु हो गए| उन्होंने कुबिजा मालिन की ओर निगाह भर कर देखा| प्रभु ने दया में आकर उसके कुबड़ापन को दूर करने के लिए विचार किया| आप विष्णु अवतार महांकाल शक्तियों के स्वामी थे| मालिन के एक पैर पर अंगूठा अपने चरण का रखकर कंधे से पकड़कर ऐसा खींचा कि वह एकदम सीधी हो गई| उसका कुबड़ापन उसी पल दूर हो गया| वह तो मानो मूर्छित-सी हो गई| भगवान कृष्ण की इस कृपा का यश करती हुई गीत गाने लगी और श्री कृष्ण जी के चरणों पर गिरकर उनको चूमने लगी| उसने श्रद्धा से हाथ जोड़कर श्री कृष्ण जी से विनती की-हे प्रभु! दासी को अपने चरणों में रखें| आप तो परमात्मा हैं, आप सृष्टि के पालक हैं|
श्री कृष्ण जी ने प्रसन्न होकर कहा - 'हे मालिन! धैर्य रखो| समय आएगा तो तुम्हारा प्रेम प्रवान होगा| अभी शीघ्र जाओ और कंस को तिलक लगाने तुम जा रही थी, सामग्री लेकर उसे तिलक लगाओ|
यह कहकर भगवान आगे चले गए| मालिन कंस के दरबार में पहुंची लेकिन उसका मन प्रभु के चरणों में ही लिवलीन था| उसको सीधी सुन्दर खड़ी देखकर हर एक ने इस बारे पूछना चाहा लेकिन उसने कुबड़ेपन को ईश्वर द्वारा दूर करने के बारे में किसी को कुछ न बताया|
जब कंस के अत्याचारों तथा पापों का अंत करके भगवान श्री कृष्ण मथुरा, गोकुल और वृंदावन के राजा बन गए तो उन्होंने कुबिजा को तारा दर्शन देकर कृतार्थ किया| यह है मालिन और भगवान श्री कृष्ण जी की कथा, जो श्रद्धा प्रेम से सुनेगा वह भवसागर से पार हो जाएगा|
ईश्वर कल्याण तथा प्रेम प्रदान करें|
Tuesday, 5 December 2017
भक्त विदुर
युगों-युगों से यह रीत चली आ रही है कि अहंकार और लालच की सदा दया, धर्म और प्यार से टक्कर रही है| अहंकारी और लालची पुरुष की सेवा, उसकी अयोग्य आज्ञा का पालन वह करता है, जिसे आवश्यकता हो 'गौं भुनावे जौं|' लेकिन जिसे कोई दुःख, लालच, अहंकार, लोभ नहीं, वह कदापि भी अहंकारी मनुष्य की परवाह नहीं करता| ऐसी ही कथा भक्त विदुर और श्री कृष्ण जी की है| श्री कृष्ण जी सदा प्रेम और श्रद्धा के प्यासे रहे हैं| उनको राज पाठ, शान-शौकत आदि की कभी आवश्यकता नहीं थी| प्रभु के पास सब कुछ अपरंपार है|
जहां वह धरती मथुरा-वृंदावन के राजा थे, वहां प्रेम, श्रद्धा, भक्ति तथा दिलों के भी राजा थे|
भाई गुरदास जी ने इस बारे सुन्दर कथा बयान की है|
एक दिन मुरली मनोहर श्री कृष्ण जी दुर्योधन के राज्य में पधारे वह दुर्योधन के शीश महलों तथा दरबारियों-सेनापतियों के शाही ठाठ-बाठ वाले महलों को छोड़कर एक दासी पुत्र विदुर की झौंपड़ी में रात को जाकर ठहरे| उस निर्धन के पास एक चटाई ही बैठने के लिए थी और खाने के लिए केवल अलूना सरसों का साग उसने रखा हुआ था| वह भी हांडी में पक रहा था| भगवान श्री कृष्ण विदुर की कुटिया में पहुंच गए| श्री कृष्ण के चरण स्पर्श से उसकी कुटिया में उजाला हो गया| उसके भाग्य जाग गए| उसने प्रभु के चरण धोकर चरणामृत लिया और सारी रात प्रभु की खुले मन से सेवा करता रहा| प्रभु के प्रवचन सुनकर वह मुग्ध हो गया, जिसकी भक्ति करता आ रहा था, दर्शन के लिए तड़पता था, वह प्रत्यक्ष दर्शन देकर उसे आनंदित करते रहे| विदुर का साग उन्होंने बड़े चाव से खाया| ऐसे चखा जैसे छत्तीस प्रकार के भोजन खाते हैं| विदुर को भी नया ही स्वाद आया| उसका मन तृप्त हो गया| वह एक तरह से मुक्त हो गया| उसका जीवन इस भवसागर से पार हो गया| वह एक दासी पुत्र था| अहंकारी दुर्योधन तथा उसके भाई और दरबारी विदुर को अच्छा नहीं समझते थे| उनको अपने राज का अहंकार था|
भक्त विदुर के जन्म की कथा इस प्रकार है| विदुर दुर्योधन का चाचा लगता था| धृतराष्ट्र, पांडव और विदुर तीनों भाई ऋषि व्यास के पुत्र थे| उनके जन्म की कथा इस प्रकार महाभारत में वर्णन है|
रानी सत्यवती के तीन पुत्र थे| व्यास, चित्रांगाद और विचित्रवीर्य| व्यास के अलावा दोनों पुत्र शादीशुदा थे और उनकी रानियां काफी सुन्दर रूपवती थीं| लेकिन संयोग से दोनों ही शीघ्र मर गए| उनकी दोनों रानियां अम्बा और अम्बिका विधवा हो गईं| वह सुन्दर तथा रूपवती सन्तानहीन थीं| राजसिंघासन तथा वंश चलाने के लिए संतान की आवश्यकता थी|
एक दिन रानी सत्यवती ने अपनी दोनों वधुओं को बैठा कर समझाया कि हस्तिनापुर के राजसिंघासन हेतु वह उसके बड़े पुत्र व्यास से सन्तान प्राप्त कर ले| लेकिन व्यास शक्ल सूरत से कुरुप था इसलिए दोनों रानियां उससे सन्तान प्राप्त नहीं करना चाहती थीं| लेकिन रानी सत्यवती के अधिक विवश करने पर दोनों रानियों अम्बा और अम्बिका ने एक-एक पुत्र प्राप्त किया| अम्बा का पुत्र धृतराष्ट्र था जो जन्म से ही अन्धा था और अम्बिका के गर्भ से पांडव का जन्म हुआ|
रानी अम्बिका व्यास की सूरत से घृणा करती थी| जब रानी सत्यवती ने उसे और पुत्र प्राप्त करने के लिए कहा तो अम्बिका ने बड़ी चालाकी से स्वयं जाने की जगह व्यास के पास अपनी दासी को भेज दिया|
उस दासी के पेट से जिस बच्चे ने जन्म लिया, उसका नाम विदुर रखा गया| दासी पुत्र होने के कारण विदुर का राजमहल में सत्कार कम था|
पांडव बड़ा राजपुत्र होने के कारण राजसिंघासन पर विराजमान हुआ| लेकिन तीर्थ यात्रा करने गया पांडव एक ऋषि के श्राप से शीघ्र ही स्वर्ग सिधार गया| उसकी मृत्यु के बाद जो राज विदुर को मिलना चाहिए था, दासी पुत्र होने के कारण उसे न मिल सका| राजसिंघासन पर धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा घोषित करके विराजमान किया|
इस प्रकार विदुर नगर से बाहर अपनी पत्नी के साथ एक छोटी-सी कुटिया में रहने लग गया| राज की ओर से इतनी घृणा हो गई कि वह राज राजकोष से कोई धन नहीं लेता था| अपने परिश्रम द्वारा ही निर्वाह करता और धरती पर ही सोता| उसका मन प्रभु भक्ति में सदा लिवलीन रहता, जिससे उसकी भक्ति पर प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण उसके घर रात रहे|
भाई गुरदास जी फरमाते हैं कि दुर्योधन को जब इस बारे पता लगा कि यादव वंश मथुरा के राजा श्री कृष्ण उसके महल में रात रहने की बजाय उनके चाचा दासी पुत्र विदुर के घर में रहे हैं और स्वादिष्ट पकवानों की जगह अलूना साग खाया है तो वह भगवान कृष्ण के पास गया और उसने कहा - 'हे कृष्ण! आप हमारे राजभवन में रहने की जगह दासी पुत्र की झौंपड़ी में क्यों ठहरे हैं| यदि मेरे पास नहीं रहना था तो मेरी सभा के श्रृंगार भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण आदि के पास रुक जाते| उनके राजभवनो में जाकर निवास कर लेते| हमें यह बहुत बुरा लगा है कि आपने एक दासी पुत्र के घर कुटिया में जाकर रात बिताई| हमारे साथ क्या वैर-विरोध हुआ है?
दुर्योधन की यह बात सुनकर भगवान कृष्ण जी हंस पड़े और उसकी तरफ देखते हुए कहने लगे-हे दुर्योधन! विदुर की झौंपड़ी तो अति पवित्र है| विदुर राजाओं का राजा है, क्योंकि उसकी आत्मा प्रेम भक्ति के रस में डूबी हुई है| ईश्वर प्रेम देखता है लेकिन दूसरी ओर आपके महलों में प्रेम भक्ति का वास नहीं, आपके यहां अहंकार, लोभ, राज की भूख है, इसलिए मुझे विदुर का प्रेम खींच कर ले गया| यह भी बात है कि मुझे न कोई विपदा पड़ी है तथा न कोई दुःख है जो मैं आप का सहारा लूंगा| एक बे-गरज आदमी को क्या जरूरत है कि राजाओं के महलों में जाकर उनकी खुशामद करे? जी विदुर के घर चाव, श्रद्धा तथा प्यार की भावना है वह आपके पास नहीं और मेरा हृदय प्यार का चाहवान है, क्योंकि पारब्रह्म परमेश्वर और जीव के बीच केवल एक प्यार का संबंध है|
कबीर जी के मुखारबिंद श्री कृष्ण जी ने कहा-हे राजन! बताओ कौन आपके घर में आएगा, क्योंकि आपके घर प्रेम एवं श्रद्धा का निवास नहीं| जैसा विदुर के घर प्रेम है वह मुझे अच्छा लगता है|आप तो अपनी उच्च पदवी राजसिंघासन को देखकर भ्रम का शिकार हुए हैं और परमात्मा की महाकाल शक्ति को भुला बैठे हैं क्योंकि आपको परमेश्वर का ज्ञान नहीं| सिर्फ राज अभिमान है| इसलिए विदुर आप से बहुत बड़ा है| आपके राजमहल का दूध एवं विदुर के घर का जल मैं एक समान समझता हूं, जो मैंने उसके घर सरसों का साग खाया है वह आपकी खीर से अच्छा है और परमेश्वर के गुण गाते हुए सारी रात अच्छी बीती| मुझे बड़ा आनंद आया| यदि आपके पास निवास करता तो राजा की निंदा और ईर्ष्या आदि सुनने थे| अब तो ठाकुर का गुण गाते हुए रात अच्छी व्यतीत हुई तथा ठाकुर के लिए छोटे-बड़े सब जीव एक समान हैं| ऐसा उपदेश वाला उत्तर भगवान कृष्ण जी ने दिया| इस संबंध में मारू राग में कबीर जी फरमाते हैं:
इस कथा का भावार्थ यह है कि प्रभु से प्रेम करने वाले भक्तों से प्रभु भी उतना ही अटूट प्रेम करता है और राज अभिमान की जगह प्रेम-भक्ति का दर्जा श्रेष्ठ है|
Monday, 4 December 2017
मेरे साँई धारावाहिक
आज आप सभी से एक अनूठी अपील कर रहा हूँ।
सभी साँई भक्तों से अनुरोध हैं कि कृपया सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक मेरे साँई की समय अवधि बढ़ाने और धारावाहिक के समय में बदलाव कर उसे प्राइम टाइम पर प्रसारित करने के लिए दबाव बनाने की आवश्यकता पड़ रही हैं।
आप चिठ्ठी के द्वारा 👇इस पते पर:
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Off Malad Link Road, Malad (W),
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या फिर इस👇लिंक पर संदेश भेज कर
https://www.facebook.com/messages/t/sonytelevision
आप सभी से अनुरोध है कि किसी ना किसी माध्यम से इस कार्य को सम्पूर्ण करने में एकजुट होकर साथ चलें।
आभार
मेरे साँई
राजा हरिचन्द
Sunday, 3 December 2017
सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र जी
सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र जी
राजा हरिचन्द्र को सत्यवती राजा कहा जाता है| वह बहुत ही दानी पुरुष था| पौराणिक ग्रन्थों में भी उसकी कथा आती है| उन में लिखा है कि वह त्रिशुंक का पुत्र था| जो भी वचन करता था उस का पालन किया करता था| सत्य, दान, कर्म तथा स्नान का पाबंद था| उसकी भूल को देवता भी ढूंढ नहीं सकते थे| एक दिन उनके पास नारद मुनि आ गए| राजा ने उनकी बहुत सेवा की| देवर्षि नारद राजा की सारी नगरी में घूमे| नारद ने देखा कि राजधानी में सभी स्त्री-पुरुष राजा का यश तथा गुणगान करते हैं| कहीं भी राजा की निंदा सुनने में न आई|
राजा हरिचन्द्र के राज भवन से निकलकर प्रभु के गुण गाते हुए नारद इन्द्र लोक में जा पहुंचे| तीनों लोकों में नारद मुनि का आदर होता था| वह त्रिकालदर्शी थे| पर यदि मन में आए तो कोई न कोई खेल रचने में भी गुरु थे| किसी से कोई ऐसी बात कहनी कि जिससे उसको भ्रम हो जाए तथा जब वह दूसरे से निपट न ले, उतनी देर आराम से न बैठे| ऐसा ही उनका आचरण था|
इन्द्र-हे मुनि वर! जरा यह तो बताओ कि मृत्यु-लोक में कैसा हाल है जीवों का, स्त्री-पुरुष कैसे रहते हैं?
नारद मुनि-मृत्यु-लोक पर धर्म-कर्म का प्रभाव पड़ रहा है| पुण्य, दान, होम यज्ञ होते हैं| स्त्री-पुरुष खुशी से रहते हैं| कोई किसी को तंग नहीं करता| अन्न, जल, दूध, घी बेअंत है| वासना का भी बहुत प्रभाव है| गायों की पालना होती है| घास बहुत होता है, वनस्पति झूमती है| ब्राह्मण सुख का जीवन व्यतीत कर रहे हैं|
इन्द्र-हे मुनि देव! ऐसे भला कैसे हो सकता है? ऐसा तो हो ही नहीं सकता| ऐसा तभी हो सकता है यदि कोई राजा भला हो, राजा के कर्मचारी भले हो| पर मृत्यु-लोक के राजा भले नहीं हो सकते, कोई न कोई कमी जरूर होती है|
नारद मुनि-ठीक है! मृत्यु-लोक पर राजा हरीशचंद्र है| वह चक्रवती राजा बन गया है| वह दान-पुण्य करता है, ब्राह्मणों को गाय देता है तथा अगर कोई जरूरत मंद आए तो उसकी जरूरत पूरी करता है, सत्यवादी राजा है| वह कभी झूठ नहीं बोलता| होम यज्ञ होते रहते हैं| राजा नेक और धर्मी होने के कारण प्रजा भी ऐसी ही है| हे इन्द्र! एक बार उसकी नगरी में जाने पर स्वर्ग का भ्रम होता है| वापिस आने को जी नहीं चाहता, सर्वकला सम्पूर्ण है| रिद्धियां-सिद्धियां उसके चरणों में हैं|
इस तरह नारद मुनि ने राजा हरीशचन्द्र की स्तुति की तो इन्द्र पहले तो हैरान हुआ तथा फिर उसके अन्दर ईर्ष्या उत्पन्न हुई| उसे सदा यही चिंता रहती थी कि कोई दूसरा उससे ज्यादा बली न हो| इन्द्र से बली वहीं हो सकता था जो बहुत ज्यादा तपस्या तथा धर्म-कर्म करता था| ऐसा करने वाला कोई एक ही होता था| इन्द्र के पास दैवी शक्तियां थीं| वह मृत्यु-लोक के भक्तों तथा धर्मी पुरुषों की भक्ति में विघ्न डालने का प्रयत्न करता| उसने अपने मन में यह फैसला कर लिया कि वह राजा की जरूर परीक्षा लेगा, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इतना सत्यवादी बन जाए|
नारद मुनि इन्द्र लोक से चले गए| इन्द्र चिंता में डूब गया| अभी वह सोच ही रहा था कि उसके महल में विशवामित्र आ गया| विश्वामित्र ने कई हजार साल तपस्या की थी तब वह मृत्यु-लोक से स्वर्ग-लोक में पहुंचा था| वह बहुत प्रभावशाली था| उसने जब इन्द्र की तरफ देखा तो चेहरे से ही उसके मन की दशा को समझ गया|
उसने पूछा-देवताओं के महांदेव! महाराज इन्द्र के चेहरे पर काला प्रकाश क्यों? चिंता के चिन्ह प्रगट हो रहे हैं, ऐसी क्या बात है जो आपके दुःख का कारण है? कौन है जो महाराज के तख्त को हिला रहा है?
विश्वामित्र की यह बात सुन कर इन्द्र ने कहा-'हे मुनि जन! अभी-अभी नारद मुनि जी यहां आए थे| वह मृत्यु-लोक से भ्रमण करके आए थे| उन्होंने बताया है कि पृथ्वी पर राजा हरीशचन्द्र ऐसा है जिसे लोग सत्यवादी कहते हैं| वह पुण्य दान और धर्म-कर्म करके बहुत आगे चला गया है|'
यह सुन कर विश्वामित्र मुस्कराया और उसने कहा कि इस छोटी-सी बात से क्यों घबरा रहे हो| जैसा चाहोगे हो जाएगा| आप के पास तो लाखों उपाय हैं| महाराज! आप की शक्ति तक किस की मजाल है कि पहुंच जाए| आप आज्ञा कीजिए, जैसे कहो हो सकता है, आप चिंता छोड़ें|
इन्द्र की चिंता दूर करने के लिए विश्वामित्र ने राजा हरीशचन्द्र की परीक्षा लेने का फैसला कर लिया तथा इन्द्र से आज्ञा ले कर पृथ्वी-लोक में पहुंच गया| साधारण ब्राह्मण के वेष में विश्वामित्र राजा हरीश चन्द्र की नगरी में गया| राज भवन के 'सिंघ पौड़' पर पहुंच कर उस ने द्वारपाल को कहा-राजा हरीश चन्द्र से कहो कि एक ब्राह्मण आपको मिलने आया है|
द्वारपाल अंदर गया| उसने राजा हरीश चन्द्र को खबर दी तो वह सिंघासन से उठा और ब्राह्मण का आदर करने के लिए बाहर आ गया| बड़े आदर से स्वागत करके उसको ऊंचे स्थान पर बिठा कर उसके चरण धो कर चरणामृत लिया और दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना की-
हे मुनि जन! आप इस निर्धन के घर आए हो, आज्ञा करें कि सेवक आपकी क्या सेवा करे? किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो दास हाजिर है बस आज्ञा करने की देर है|
'हे राजन! मैं एक ब्राह्मण हूं| मेरे मन में एक इच्छा है कि मैं चार महीने राज करूं| आप सत्यवादी हैं, आप का यश त्रिलोक में हो रहा है| क्या इस ब्राह्मण की यह इच्छा पूरी हो सकती है|' ब्राह्मण ने कहा|
सत्यवादी राजा हरीश चन्द्र ने जब यह सुना तो उसको चाव चढ़ गया| उसका रोम-रोम झूमने लगा और उसने दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना की-'जैसे आप की इच्छा है, वैसे ही होगा| अपना राज मैं चार महीने के लिए दान करता हूं|'
यह सुन कर विश्वामित्र का हृदय कांप गया| उसको यह आशा नहीं थी कि कोई राज भी दान कर सकता है| राज दान करने का भाव है कि जीवन के सारे सुखों का त्याग करना था| उसने राजा की तरफ देखा, पर इन्द्र की इच्छा पूरी करने के लिए वह साहसी होका बोला -
चलो ठीक है| आपने राज तो सारा दान कर दिया, पर बड़ी जल्दबाजी की है| मैं ब्राह्मण हूं, ब्राह्मण को दक्षिणा देना तो आवश्यक होता है, मर्यादा है|
राजा हरीश चन्द्र-सत्य है महाराज! दक्षिणा देनी चाहिए| मैं अभी खजाने में से मोहरें ला कर आपको दक्षिणा देता हूं|'
विश्वामित्र-'खजाना तो आप दान कर बैठे हो, उस पर आपका अब कोई अधिकार नहीं है| राज की सब वस्तुएं अब आपकी नही रही| यहां तक कि आपके वस्त्र, आभूषण, हीरे लाल आदि सब राज के हैं| इन पर अब आपका कोई अधिकार नहीं|
राजा हरीश चन्द्र-'ठीक है| दास भूल गया था| आप के दर्शनों की खुशी में कुछ याद नहीं रहा, मुझे कुछ समय दीजिए|'
विश्वामित्र-'कितना समय?'
राजा हरीश चन्द्र - 'सिर्फ एक महीना| एक महीने में मैं आपकी दक्षिणा दे दूंगा|'
विश्वामित्र-'चलो ठीक है| एक महीने तक मेरी दक्षिणा दे दी जाए| नहीं तो बदनामी होगी कि राजा हरीश चन्द्र सत्यवादी नहीं है| यह भी आज्ञा है कि सुबह होने से पहले मेरे राज्य की सीमा से बाहर चले जाओ| आप महल में नहीं रह सकते| ऐसा करना होगा यह जरूरी है|
राजा हरीशचन्द्र ने शाही वस्त्र उतार दिए| बिल्कुल साधारण वस्त्र पहन कर पुत्र एवं रानी को साथ लेकर राज्य की सीमा से बाहर चला गया| प्रजा रोती कुरलाती रह गई लेकिन राजा हरीशचन्द्र के माथे पर बिल्कुल भी शिकन तक न पड़ी, न ही चिंता के चिन्ह प्रगट हुए| वह अपने वचन पर अडिग रहा| साधुओं की तरह तीनों राज्य की सीमा से बाहर बनारस कांशी नगरी की ओर चल दिए| मार्ग में भूख ने सताया तो कंदमूल खाकर निर्वाह किया| राजा तो न डोला लेकिन रानी और पुत्र घबरा गए| उनको मूल बात का पता नहीं था|
चलते-चलते राजा-रानी कांशी नगरी में पहुंच गए| मार्ग में उनको बहुत कष्ट झेलने पड़े| पांवों में फफोले पड़ गए| वह दुखी होकर पहुंचे पर दुःख अनुभव न किया|
राजा हरीश चन्द्र चूने की भट्ठी पर मजदूरी करने लग गया| उसने अपने शरीर की चिंता न की| उसने कठिन परिश्रम करके भोजन खाना पसंद किया| क्योंकि अपने हाथ से परिश्रम करना धर्म है और मांग कर खाना पाप है| ऐसा वही मनुष्य करता है जो मेहनत पर भरोसा रखता है| राजा परिश्रम करके जो भी लाता उससे खाने का सहारा हो जाता| लेकिन ब्राह्मण की दक्षिणा के लिए पैसे इकट्ठे न कर पाता| इस प्रकार 25 दिन बीत गए| राजा के लिए अति कष्ट के दिन आ गए, क्योंकि विश्वामित्र और देवराज इन्द्र राजा हरीशचन्द्र को नीचा दिखाना चाहते थे| उन्होंने राजा के सत्यवादी अटल भरोसे को गिराना था|
ब्राह्मण के रूप में विश्वामित्र आ गए और क्रोधित होकर राजा हरीशचन्द्र से बोले-'हे हरीशचन्द्र! आप तो सत्यवादी हैं| आप का यह धर्म नहीं कि आप धर्म की मर्यादा पूरी न करो, मेरी दक्षिणा दीजिए!'
राजा हरीशचन्द्र ने विश्वामित्र से क्षमा मांगी| क्षमा मांगने के बाद राजा ने फैसला किया कि वह स्वयं को तथा अपनी रानी को बेच देगा तथा जो मिलेगा वह ब्राह्मण को दे दूंगा, पर यह बात कतई नहीं सुनूंगा कि राजा हरीशचन्द्र झूठे हैं| वह सत्यवादी था| यह सोच कर उसने कांशी की गलियों में आवाज़ दी - 'कोई खरीद ले', 'कोई खरीद ले', 'हम बिकाऊ हैं|' इस तरह ही आवाज़ देते रहे| सुनने वाले लोग हैरान थे और मंदबुद्धि वाले उनकी हंसी उड़ा रहे थे|
बाजार में कई लोगों ने उनकी सहायता करनी चाही, पर राजा ने दान या सहायता लेना स्वीकार न किया| अन्त में एक ब्राहमण ने अपनी ब्राह्मणी के लिए दासी के तौर में रानी को खरीद लिया और राजा को पैसे दे दिए| रानी ने ब्राह्मणी के आगे दो शर्तें रखीं| एक तो पराए मर्द से न बोलना, दूसरा किसी मर्द की जूठन न खाना| ब्राह्मणी ने स्वीकार कर लिया तथा रानी अपने पुत्र को लेकर ब्राह्मण के घर चली गई|
रानी के बिक जाने के बाद राजा को शहर की श्मशान घाट के रक्षक चण्डाल ने खरीद लिया| राजा को यह कार्य सौंपा गया कि वह श्मशान घाट में रुपए लिए बिना कोई मुर्दा न जलने दे और रखवाली करे| राजा रात-दिन वहां रहने को तैयार हो गया और फिर ब्राह्मण को पूरी दक्षिणा दे दी| विश्वामित्र और इन्द्र का यह साहस न हुआ कि वह राजा हरीशचन्द्र को यह कह सके कि वह झूठा है या अपने वचन से फिर जाता है|
विश्वामित्र और इन्द्र जब हार गए तो उन्होंने अपनी हार मानने से पहले राजा और रानी की एक और कड़ी परीक्षा लेनी चाहिए| इसके लिए उन्होंने अपनी दैवी शक्ति का प्रयोग करके राजा की परीक्षा ली|
राजा और रानी के पुत्र का नाम रोहतास था| वह खेलता रहता और कभी-कभी अपनी माता के काम में हाथ भी बंटाता| विश्वामित्र और इन्द्र ने अपनी दैवी शक्ति से राजा और रानी के पुत्र को सांप से डंसवाया| बच्चा उसी क्षण प्राण त्याग गया| अपने पुत्र की मृत्यु को देख कर रानी व्याकुल हो उठी| उसका रोना धरती और आकाश में गूंजने लगा| रानी ने मिन्नतें करके अपने पुत्र के कफन और उसके संस्कार के लिए ब्राह्मण से सहायता मांगी, पर इन्द्र और विश्वामित्र ने उसके मन पर ऐसा प्रभाव डाला कि उन्होंने न दो गज कपड़ा दिया और न ही कोई पैसा दिया| रानी ने अपनी धोती का आधा चीर फाड़ कर पुत्र को लपेट लिया और श्मशान घाट की ओर ले गई|
लेकिन राजा हरीशचन्द्र ने रुपए लिए बिना रानी को श्मशान घाट में दाखिल न होने दिया और न ही अपने पुत्र का संस्कार किया| उसने अपने मालिक के साथ धोखा न किया| रानी रोती रही| वह बैठी-बैठी ऐसी बेहोश हुई कि उसको होश न रही|
संयोग से एक और घटना घटी| वह यह कि चोरों ने कांशी के राजा के महल में से चोरी की| उन्होंने यह कामना की थी अगर माल मिलेगा तो श्मशान घाट के किसी मुर्दे को चढ़ावा देंगे| वे चोर जब श्मशान घात पहुंचे तो आगे रानी बैठी थी| उसके पास मुर्दा देखकर वे रानी के गले में सोने का हार डाल कर चले गए|
चोरी की जांच-पड़ताल करते हुए सिपाही जब आगे आए तो श्मशान घाट में उन्होंने रानी के गले में सोने का शाही हार पड़ा देखा| उन्होंने रानी को उसी समय पकड़ लिया| रानी ने रो-रो कर बहुत कहा कि वह निर्दोष है, पर किसी ने एक न सुनी| उसके पुत्र रोहतास को वहीं पर छोड़ कर सिपाही रानी को कांशी के राजा के पास ले गए| राजा ने उसे चोरी के अपराध में मृत्यु दण्ड का हुक्म दे दिया| मरने के लिए रानी फिर श्मशान घाट पहुंच गई| उसका कत्ल भी राजा हरीशचन्द्र ने करना था, जो चण्डाल का सेवक था|
विश्वामित्र ने भयानक ही खेल रचा था| पुत्र रोहतास को मार दिया, रानी पर चोरी का दोष लगा कर उसका कत्ल करवाने के लिए कत्लगाह में ले आया| कत्ल करने वाला भी राजा हरीशचन्द्र था, जिसने अपने राज्य में एक चींटी को भी नहीं मारा था| ऐसी लीला और भयानकता देख कर विष्णु और पारब्रह्म जैसे महाकाल देवता भी घबरा गए, पर राजा हरीशचन्द्र अडिग रहा| वह अपने फर्ज पर खरा उतरा| उसने अपनी रानी को मरने के लिए तैयार होने को कहा, ताकि वह उसे मार कर राजा के हुक्म की पालना कर सके| उस समय कत्लगाह और श्मशान घाट में वह स्वयं था और साथ में उसकी प्यारी रानी और मृत पुत्र| बाकी सन्नाटा और अकेलापन था|
'तैयार हो जाओ'! यह कह कर राजा हरीशचन्द्र ने तलवार वाला हाथ रानी को मरने के लिए ऊपर उठाया| हाथ को ऊंचा करके जब वार करने लगा तो उस समय अद्भुत ही चमत्कार हुआ| उसी समय किसी अनदेखी शक्ति ने उसके हाथ पकड़ लिए और कहा - "धन्य हो तुम राजा हरीशचन्द्र सत्यवादी!" इस आवाज़ के साथ ही उसके हाथ से तलवार नीचे गिर गई, उसने आश्चर्य से देखा कि वह एक श्मशान घाट में नहीं बल्कि एक बैग में खड़ा है, जहां विभिन्न प्रकार के फूल खिले हैं| उसके वस्त्र भी चण्डालों वाले नहीं थे, उसने अपनी आंखें मल कर देखा तो सामने भगवान खड़े थे| विश्वामित्र और इन्द्र भी निकट खड़े थे| पर वह ब्राह्मण कहीं ही नजर नहीं आ रहा था|
राजा हरीशचन्द्र उसी पल भगवान के चरणों में झुक गया| रानी ने भी आगे होकर सब को प्रणाम किया| उस समय भगवान ने वचन किया - 'राजा हरीशचन्द्र! सत्य ही सत्यवादी है| मांग, जो कुछ भी मांगोगे वही मिलेगा|
इसके साथ ही विश्वामित्र ने सारी कथा सुना दी तथा राजा रानी के पुत्र रोहतास को हंसते मुस्कराते हुए दोनों के पास पेश किया| सारी कथा सुन कर राजा हरीशचन्द्र ने भगवान, इन्द्र तथा विश्वामित्र को प्रणाम किया और कहा-'अपनी लीला को तो आप ही जाने महाराज!'
जब भगवान ने बहुत जोर दिया तो राजा हरीशचन्द्र ने यह वर मांगा - 'प्रभु! मेरी यही इच्छा है कि मैं सारी नगरी सहित स्वर्गपुरी को जाऊं|'
'तथास्तु' कह कर सभी देवता लुप्त हो गए| राजा, रानी अपने पुत्र सहित अपनी नगरी में आ गए| सारी प्रजा ने खुशी मनाई|
कहते हैं राजा कुछ समय राज करता रहा तथा एक समय ऐसा आया जब सारी नगरी सहित राजा स्वर्गलोक को चल पड़ा| जब वह बैकुण्ठ धाम को जा रहा था| तो जानवर, पक्षी तथा पशु आदि साथ थे| यह देखकर राजा को अभिमान हो गया| गधा हींगा-राजा ही है, जिसकी नगरी भी स्वर्ग को जा रही है| उसी समय नगरी जाती-जाती धरती व स्वर्ग के बीच ब्रह्मांड में रुक गई| उसका नाम हरिचंद उरी है| गुरुबाणी में आता है -
इस कथा का परमार्थ यह है कि किसी क्षण भी सत्य को हाथ से नहीं छोड़ना चाहिए तथा न ही अभिमान करना चाहिए| जो सत्यवादी बने रहते है, उनकी नैया पार होती है|
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